Sunday, March 30, 2014

FUN-MAZA-MASTI एक और द्रोपदी

FUN-MAZA-MASTI

एक और द्रोपदी

 
जीजाजी अपने बॉस के साथ उनकी इर्म्पोटेड इम्पाला में बैठ कर केवल दो घण्टे के लिए आए थे।देहरादून जा रहे थे गाडी ज़रा इधर को घुमा ली।बहाना था कि बहुत दिन से हमारी कोई चिट्ठी नहीं गई थी और वे काफी चिन्तित हो आए थे।यह बात दीदी कह बैठती तो ज्यादा अजीब न लगता।जीजाजी के मुंह से सुनकर तो जैसे अपने ही मुंह का जायका बिगड ग़या।
अम्मा तो इसी बात पर निहाल हो आई कि जमाई बाबू हमारा हालचाल पूछने आए हैं।जीजाजी के सर पर हाथ फेरती अम्मा उन्हें भीतर तक ले आई थी- आओ-आओ भीतर आओ न।सब कुछ दरवाजे पर खडे ही कह डालोगे।ये तो चबर-चबर सवाल-जवाब ही किए जाएगी।
छोटी साली है अम्मा! एक नहीं दस सवाल भी करेगी तो जवाब तो देना ही पडेग़ा। एकाएक वे पीछे चले आ रहे अपने बॉस की ओर मुडे थे- आइए राव साहब! मीट माई सिस्टर-इन-ला सुनीता।
-- हाय! उन्होंने कहा और प्रत्युत्तर में मैंने अपने दोनो हाथ जोड दिए।यों अभी तक इस अदने से आदमी को खींसे निपोरते देख मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि जीजाजी का कोई बॉस ही होगा।निश्चय ही जीजाजी की तरक्की के दिन नजदीक आने वाले लगते हैं।तभी तो गाडी देहरादून जाती हुई इधर को घुमा ली गई।बॉस को आकर्षित करने के लिए ससुर की आठ कनॉल की कोठी और उसमें रहने वाली एक खूबसूरत जवान लडक़ी क्या कम है।
-- सुनीता पहले कुछ ठण्डा दे देना बाद में चाय लेंगे।हां! राव साहब चाय में शक्कर कम लेते हैं। मन हुआ पूछ लूं डायबिटीज क़े मरीज हैं क्या।पर मन ही मन खिसियाकर रह गई थी।जीजाजी सभी कमरे पार करते हुए राव साहब को पीछे दालान में ले गए।मैं किचन की ओर मुडी तो अम्मा ट्रे में दो गिलास पानी लिए खडी थी-- ये पानी ले जा मैं चाय रखती हूं।
-- ओह अम्मा तुम भी अजीब हो।ठण्डे का मतलब नहीं समझती! अम्मा के हाथों से ट्रे को लगभग छीनते हुए मैंने दोने गिलासों का पानी जग में पलटा और चीनी का बाऊल उठाते हुए बोली-- अम्मा बाहर से दो निब्बू तोड लाइये।
चीनी हिलाते हुए ध्यान आया था राव साहब शूगर के मरीज नहीं हो सकते।वरना जीजा ठण्डे के लिए भी रोक देते। निब्बू-पानी लेकर बाहर गई तो जीजाजी अपना पुराना भाषण दोहरा रहे थे- पापा ने यह कोठी पन्द्रह साल पहले बनवाई थी।उस वक्त इस कोठी पर पांच लाख लगा था।अब तो इसकी कीमत पचास लाख से कम क्या होगी। जमीन के भाव ही देख रहे हैं न चार गुना हो गये हैं। मुझे देख कर मेरी तारीफ करना भूलना जीजाजी के लिए सबसे बडी चूक जाने वाली बात थी।
-- अपनी सुनीता को संगीत में भी बराबर रूचि है।कुर्सी जरा आगे को सरकाते हुए बोले- एम ए भी तो संगीत में किया है।
अब मुझसे गाने की फरमाईश कर बैठेंगे। सुनीता तो चाबी की गुडिया है जब जी चाहा उसे किसी के सामने बिठा कर उसका गाना सुन लिया। नहीं सुनाऊंगी तो दीदी छोडेंग़ी मुझे।
दीदी और जीजा जी की चालों की पहले कहां खबर थी मुझे। पहली बार इनके कुलीग मिस्टर रंजन आए थे तो मैंने गाने से साफ इन्कार कर दिया था। और उसके लिए मुझे कितने खिताब दे दिए गये थे । घमण्डी अभिमानी बद्तमीज! दीदी ने यह भी स्पष्ट लिखा था कि रंजन जीजाजी के बॉस का भतीजा है । उसी के दम पर जीजाजी के प्रमोशन्ज क़े चांसिज हैं। पत्र पढते ही मेरी रूलायी फूट पडी थी। बडा गुस्सा आया था। बॉस के भतीजे को पटाने के लिए मेरे गीत-संगीत का सहारा लिया जा रहा है। पन्द्रह दिन बाद दीदी खुद आ गई थीं और वही बातें फिर से दोहरायी गयीं। लेकिन अब के मैं रोई नहीं थी। बस इतना ही कहा था-- दीदी, पापा के बाद संगीत मेरा सुख का नहीं दुख का का साथी रह गया है।
पापा के होते आए दिन छोटे-बडे समारोहों में गीत-संगीत के कार्यकम दिया करती थी और ढेरों इनाम जीत कर लाती। लेकिन पापा के बाद स्टेज का नाम सुनते ही मैं ठण्डी पड जाती।बस कभी-कभार रात क ेवक्त जब बहुत मन होता तानपूरा लिए पीछे वाले बरामदे में जा बैठती। एक-दो भजन ही रह गए थे अब तो जो बार-बार दोहराया करती। अम्मा को भी शायद यही अच्छा लगता था।तानपूरा उठाकर बाहर जाने को होती तो अम्मा प्रायः कह देतीं- वो सुन दे सुख के सब साथी दुख में न कोये।
-- सुनीता अपना तानपूरा तो ले आओ। जीजाजी ने कहा तो मैं यंत्रवत-सी उठ खडी हुई।जरा भी न-नुकुर नहीं कर पायी।रंजन तो बॉस का भतीजा था अब बॉस खुद सामने हैं।उन्हें प्रसन्न करने में जरा भी कसर रह गई तो दीदी मुझे कच्चा न चबा जाएंगी।
--ले आ न शरमा क्यौं रही है। भीतर से आती अम्मा ने कहा तो मैं बुरी तरह से कुढ ग़ई।क्या मैं इन्कार कर रही थी जो अम्मा के कहने की जरूरत आन पडी।क़हीं बेटी के जरा भी इन्कार न करने पर बेटी की बेशर्मी पर पर्दा तो नहीं डाल रहीं।
तानपूरा उठाते हुए एक बार तो मन में आया कि इसकी खूंटियां घुमा कर तानपूरे के सारे तार ही तोड ड़ालूं।लेकिन इससे क्या मुक्ति मिल जाएगी मुझे? जीजाजी कहेंगे बिना तानपूरे के ही सुना दे।तुम्हारी आवाज में तो संगीत भी साथ ही मिला हुआ है।इतनी बढाई तो किसी ने संगीत-सम्राट तानसेन की भी न की होगी जितनी वे मेरी कर डालते हैं।
अरी चाय ठहर के पिएंगे पहले तानपूरा ले आ।अम्मा की आवाज से मैं एकबार फिर तिलमिला गई।कभी-कभी अम्मा से बहुत विद्रोह करने को जी चाहता है।लेकिन अम्मा बेचारी भी क्या करे। पापा के बाद तो वे बावली सी हो आई हैं। जो कोई जैसा कहता है वैसा करती चली जाती हैं।
तानपूरा लेकर लौटी तो अम्मा और जीजाजी का चेहरा पूरी तरह से खिल गया। सच कहं तो उन्हें देख मैं इनके प्रति सहानुभूति से भर आयी थी। ये महाशय भजन या क्लासिकी क्या पसन्द करेंगे। तभी मीर की एक गजल मस्तिष्क में उभरी और मैंने उसे ही छेड दिया।अम्मा मेरी आधी गजल के बीच में से ही उठ गई थीं।एक तो गजल में उनकी कोई रूचि नहीं थी दूसरे जमाई बाबू के लिए चाय-पानी का इन्तजाम भी तो करना था।
-- वाह! भई बहुत बढिया! अन्तिम पंक्ति के उत्तरार्द्व में ही उनकी दाद शुरू हो गई थी।लेकिन मुझे इसकी जरूरत नहीं थी।तानपूरा वहीं छोड एक झटके से मैं भीतर चली आई।
अम्मा केतली में चाय उंडेल रही थीं। बिस्किट नमकीन और पिन्नियां अम्मा ने प्लेटों में लगा दी थीं।
--कुछ और नहीं मंगवाना? अम्मा के लिए ये तीन चीजे रख देना कम नहीं था लेकिन मैं जानती थी अम्मा भी कहीं दीदी से डरती हैं। बॉस की आवभागत में कुछ कमी रह गई तो अम्मा को भी सुननी पड सकती हैं।
--जीजाजी की प्रिय पिन्नियां तुमने रख दी हैं और क्या चाहिये उन्हें। खाने की तीनों प्लेटें ट्रे में रख मैं बाहर ले आई। वही हुआ जो मैं सोचती चली जा रही थी।ट्रे पर नजर पडते ही अम्मा की बनाई पिन्नियों की तारीफ शुरू हो गई।चाय का आखिरी घूंट भरते हुए जीजाजी बोले- सुनीता राव साहब को जरा अपना बगीचा तो दिखाओ।
एक बाहर के व्यक्ति को हमारे बगीचे में क्या रूचि हो सकती है नहीं समझ पा रही थी मैं।पापा का लगाया बारह मासी नीबू, बादाम, लीची, आडू क़े बारे में जीजाजी बखान करते चले गए थे और राव साहब जीजाजी के हर वाक्य के बाद मेरी ओर देख कर मुस्करा पडते।सम्भवतः वे इन चीजों की तारीफ में हामी भर रहे हों लेकिन मेरे भीतर एक टीस बराबर उठ रही थी।जितना इन पेड-पौधों के बारे में सोचती हूं पापा बहुत याद आने लगते हैं।
कहां-कहां से किस-किस नर्सरी से पापा ये पेड पौधे जुटाकर लाए थे।पाईन-ट्री के लिए पापा ने शिमला का स्पेशल टूर बनवाया था।मैदानी इलाके में पहाडी वृक्ष लोग-बाग देख कर हैरान होते।
कभी गर्मियों में आइये राव साहब तब आमों की बहार देखिएगा। तो ये लोग गर्मियों में भी आने का सोच रहे हैं।जीजाजी दीदी तो आएं लेकिन इस आदमी को साथ ले आने का अर्थ?
हमारी और इस घर की एक-एक चीज क़ी तारीफ करने के बाद जीजाजी राव साहब की ले बैठे थे- राव साहब को फोटोग्राफी का बहुत शौक है।पिछले दिनों तुम्हारी दीदी के ऐसे फोटोज लिए कि देखते ही बनते थे।शौक तो तुम्हें भी है लेकिन राव साहब के खींचे फोटोज ज़रूर देखना।
अगर ऐसा ही था तो राव साहब के खिंचे फोटोग्राफ्स साथ क्यों नहीं ले आए।
-- राव साहब अपना कैमरा तो लाइये।कुछ फोटोज यहां भी हो जाएं।
अजीब लोग हैं ये! आते हुए तो कहा था केवल दो ही घण्टे रूक पाएंगे।अब तीन घण्टे से ऊपर हो चले हैं और जनाब अभी फोटोज ख़ींचने बैठेंगे।
राव साहब तुरन्त अपना इम्पोर्टेड कैमरा उठा लाए थे। लेकिन बडा बुरा हुआ बेचारों के साथ।कैमरे का कोई पुर्जा रास्ते में ही गिर गया था और सही फोटो आने के कोई आसार नहीं रह गए थे।बडी सोच में पड ग़ए थे बेचारे।त्-त्-त्! मन हुआ अफसोस जाहिर कर दूं।पर फिस्स-सी हंसी मेरे होंठों के बीच ही दब कर रहर् गई।अम्मा मेरी ओर देख कर आंखें न तरेरतीं तो शायद यह हंसी अपने पूरे उफान के साथ बाहर आ जाती।
-- सुनीता! अपना कैमरा ही ला दे। अम्मा मुझे पूरी तरह से जला देना चाहती है।अच्छा-भला जानती है मैं उस कैमरे को किसी को हाथ नहीं लगाने देती।लेकिन इस वक्त इन्कार कर देना क्या संभव था? इस कैमरे में मैं सारी दुनिया कैद कर लेना चाहती थी।इस घर का ऐसा कौन सा कोना होगा जिसका फोटो मैंने नहीं खींचा। अम्मा पापा के तो ढेरों फोटो लिए होंगे।जब फोटो खींचने लगती थी तब किसी को कहां पता चलने देती थी। बरामदे में रोटियां बेलती अम्मा -क्लिक! छत पर बाल सुखाती अम्मा-क्लिक! लॉन में आराम कुर्सी पर कुछ सोचते हुए पापा-क्लिक! हैंडपम्प के नीचे नहाते हुए पापा-क्लिक! पेडों पर उग आए बौर को एकटक देखते हुए पापा-क्लिक!
कोई त्यौहार खाली नहीं जाता होगा जब पापा खुद ही मेरे कैमरे में नई रील न डलवा लाते हों।महीने में एक-आध बार तो आउटिंग भी जरूर हो जाती।आकाश को छूते हुए देवदार के पेड पिंजोर बाग की ऊंची-ऊंची दीवारों पर फैला बौगनवेलिया छतबीर चिडिया घर के जानवर रॉक-गार्डन पापा खुद ही ले जाते सभी जगह।
जिस तरह से मेरी फोटोग्राफी में निखार आता गया था पापा हैरान थे।अम्मा तो बराबर चिल्लाती रहतीं- ऐसे शौक भी कभी लडक़ियों ने पाले। ये चीजें तो मर्द के हाथों में ही जंचें।कोई सिलाई-कढाई हो तो लडक़ियों के हाथ में शोभा भी दे।
-- अम्मा जरा इसी तरह गुस्से में चिल्लाती रहना।मैं अभी आई एक मिनट! बस्सप्लीज! अगले ही पल कैमरा मेरे हाथों में होता।और टेढी भौहों वाली अम्मा-क्लिक! मेरा और पापा का ठहाका देर तक हवा में गूंजता रहता।अम्मा बेचारी की हमारे आगे जरा भी न चल पाती।
जिस दिन पापा का देहान्त हुआ मैं बिल्कुल जड हो आई थी। लगा था मस्तिष्क बिल्कुल खाली हो आया है।बस एक शून्य है जो मेरे बाहर भीतर व्याप गया है। बिल्कुल नहीं रोई थी मैं।लग तो रहा था अभी हंसी का फुहारा मेरे मुंह से फूट पडेग़ा।देखो तो पापा कैसे सोए पडे हैं। पहले सोते थे तो फ-र्र-र - फ-र्र-र खर्राटों की आवाज आया करती थी। अब तो सांस भी रोके हुए हैं।मुझे इन्हें सतर्क कर देना चाहिए।अगर देर तक इसी तरह पडे रहे तो मैं 'क्लिक' कर दूंगी।
-- अरी तू क्या सोच रही है? अम्मा ने मुझे कंधे से आकर झिंझोडा था- तू तो सारी दुनिया अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहती थी।अपने पापा को भी इसमें कैद क्यों नहीं करती।जल्दी उठ! नहीं तो ये लोग तेरे पापा को ले जाएंगे।
अम्मा यह क्या कह गई? में जार-जार फूट पडी थी- नहीं अम्मा! मैं पापा को इस हालत में अपने कैमरे में कैद नहीं कर सकती नहीं कर सकती!
-- पगल मत बन! जल्दी उठ! और अम्मा ने खुद ही कैमरा मेरे हाथ में लाकर थमा दिया था।
मरे हुए पापा-क्लिक! नहीं पापा नहीं मर सकते।पापा कभी नहीं मर सकते।लेकिन पापा सच में मर गए थे।उस वक्त पापा की फोटो न खींची होती तो आज मैं सच में पछताती।
राव साहब कब से मेरे कैमरे के इन्तजार में खडे थे।यों मेरे कैमरा लाने तक उन्होंने अपने कैमरे के काफी पुर्जे इधर-उधर घुमा लिए थे लेकिन कहीं से मशीनरी ऐसी अड ग़ई थी कि इस वक्त वह कैमरा न होकर मात्र एक डिब्बा ही रह गया था। चार-पांच फोटो लिए थे राव साहब ने । दो जीजाजी मेरे और अम्मा के। शेष मुझ अकेली के।
सुनीता जरा अपनी फोटोग्राफी का कमाल भी तो दिखाओ।जीजाजी बोले थे।एकाएक वे रावसाहब से मुखातिब हुए- राव साहब आपका और सुनीता का मुकाबला है इस वक्त। देखते हैं किसका खिंचा फोटो ज्यादा सुन्दर आता है। मुंह से फिसल गया था।
-दांव पर तो हम लगा ही चुके हैं।जीजाजी ने धीरे से कहा तो मैं जरा चौंकी थी।लेकिन मजाक करने का मूड बराबर बना हुआ था सो कह दिया- किसी द्रोपदी को लगा रहे हैं क्या?
पता नहीं क्यों जीजाजी एकाएक चुप से हो आए। चेहरे के भाव भी एकदम से बदल गए थे। मेरी इस बात पर इतना नाराज क्यों हो आए हैं? मैं तो मजाक कर रही थी।
लेकिन मेरे इस मजाक पर नाराज नहीं हुए थे वे। दरअसल मैं बात ही इतनी सच्ची कह गई थी कि जीजाजी उसे झेल ही नहीं पाए थे।दस-पन्द्रह मिनट के लिए जीजाजी बाजार का कह कर गए तो अम्मा पूछने लगी- कैसा लगा लडक़ा?
-लडक़ा! में चौंकी थी- कैसा लडक़ा? कौन लडक़ा? अम्मा की बात पर सच में मैं असमंजस में पड अाई थी।
-राव की ही बात कर रही हूं। उसने तो हां कर दी है।
-- राव साहब! यह क्या कह रही हो अम्मा! वह लडक़ा है या आदमी?
-- बस-बस! बहुत जुबान खुल गई है तेरी। अपनी उम्र का भी सोचा है कभी। पूरे तीस की होने को आ रही है।और फिर उसमें कमी भी क्या है।असिस्टैंट डॉयरैक्टर है।पचास हजार रूपया तन्खवाह लेता है।
-- अम्मा मुझे सोचने का मौका दो।
-- सोचने का मौका अब नहीं दूंगी।मैं सब समझती हूं। बाद में न-नुकुर कर जाएगी। मेरे को इतना बता दे कब तक मेरी छाती पर मूंग दलती रहेगी।
-- अगर ऐसा ही है अम्मा तो तू हां कह दे।
सोचा था जीजाजी और राव साहब के लौटने तक अम्मा का मन अवश्य बदल जाएगा। लेकिन यह क्या! वे लोग लौटे तो राव साहब के हाथ में मिठाई के दो डिब्बे थे।
-- इन सब की क्या जरूरत थी? अम्मा कह रही थी।
-- मुंह तो मीठा करवाना था। अम्मा तेजी से रसोई की ओर मुडी और स्टील की दो तश्तरियां उठा लाई थीं।राव साहब ने एक तश्तरी में गुलाब-जामुन पलटे दूसरी में बर्फी।
-- लीजिए पहले आप मुंह मीठा कीजिए! राव साहब ने गुलाब-जामुन का डिब्बा मेरी ओर बढाया तो जीजाजी ठहाका मार कर हंसे- अरे भई! ऐसे भी मुंह मीठा करवाया जाता है कभी!
राव साहब समझ गए थे। जरा झेंपते हुए उन्होंने एक गुलाब -जामुन उठा कर मेरे होंठों की तरफ बढा दिया।
-- अरे-रे जरा रूकना! जीजाजी एकाएक चिल्लाए- बस इसी तरह एक मिनट प्लीज! अगले ही पल कैमरा उनके हाथ में था।
सुनीता को गुलाब-जामुन खिलाते हुए राव साहब- क्लिक!
एक द्रोपदी दांव पर लगती- क्लिक!
-- ओह ब्यूटीफुल! लवली! देखो सुनीता हमने तुम्हें अपने कैमरे में कैद कर लिया।मुझे!
मन तो हुआ कह दूं- मुझे नहीं मेरी एक पूरी जिन्दगी को आपने इसमें कैद कर लिया।अब कैमरा राव साहब के हाथ में था। और मैं खुद को चीरहरण के लिए तैयार करने लगी थी।
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FUN-MAZA-MASTI हर्षा, लाली और होली

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हर्षा, लाली और होली
होली पर पिछले तीन साल से घर नहीं जा पाया था. उस बार माँ का फ़ोन आ ही गया. कह रही थी 'सुरेश बेटा इस होली पर जरूर आ जाना. और हाँ वो अपनी हर्षा भी आई हुयी है, तुझे पूछ रही थी'
हर्षा का नाम सुनते ही मेरे तन बदन में एक मादक तरंग दौड़ गयी. मैंने तुरंत फैसला किया की इस बार होली पर जरूर घर जाऊंगा.
'
ठीक है माँ, मै कोशिश करता हूँ, अगर दफ्तर से छुट्टी मिल गयी तो जरूर आऊंगा' मैंने माँ से फ़ोन पर कह दिया.
होली को अभी पूरा एक हफ्ता बाकी था....मै स्टेशन पर ट्रेन का इन्तजार कर रहा था. मन में हर्षा उमड़ घुमड़ रही थी. तभी ट्रेन आने का अनाउंसमेंट हुआ, ट्रेन के आते ही मै अपनी कोच में अपनी बर्थ पर जा के बैठ गया. ट्रेन चल पड़ी और मै फिर से हर्षा के ख्यालों में खो गया
हर्षा, मेरे अज़ीज़ दोस्त मेघ सिंह ठाकुर की बेटी हर्षा.
मेघ सिंह ठाकुर हमारे गाँव के जमींदार थे. खूब बड़ी हवेली, सैकड़ों एकड़ जमीन जिस पर खेती होती थी. बाग़ बगीचे; सब कुछ. मेघ सिंह से मेरी पुरानी यारी थी. हम लोग शाम को अक्सर एक साथ बैठते कुछ पीने पिलाने का दौर चलता, हसी मजाक होती, कहकहे लगते. ना जाने कितनी हसीनाओं का मान मर्दन हम दोनों ने मिल कर किया था....अब तो वो सब बातें इक ख्वाब सी लगती हैं.
बात हर्षा की है, उस दिन से पहले मेरे मन में हर्षा के प्रति ऐसा वैसा कुछ भी नहीं था....मैंने उसे उस नज़र से कभी देखा भी नहीं था.
हर्षा ने इंटर पास करने के बाद पास के शहर में बी काम में दाखिला ले लिया था. उन दिनों वो गर्मिओं की छुट्टी में आई हुयी थी.
उस दिन जून का तपता महिना, लू के थपेड़े अभी भी चल रहे थे....हालाँकि शाम के ६ बजने वाले थे. मेरी तबियत ठीक नहीं थी. शायद लू लग गयी थी. सोचा की कच्चे आम का पना (पना.....कच्चे आम भून कर बनाया जाने वाला शर्बत) पी लूँ तो मेरी तबियत ठीक हो जाएगी. यही सोच कर मै हर्षा की अमराई (आम का बगीचा) में कच्चे आम तोड़ने के इरादे से चला गया. चारों तरफ सन्नाटा था. माली भी कहीं नज़र नहीं आया.

मन ही मन सोच रहा था की अब मुझे ही पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ने पड़ेंगे.

तभी मुझे कुछ लड़कियों के हंसने खिलखिलाने के आवाजें सुनाई दी. 'हर्षा, तुम देखो ना मेरी चूत को....तुमसे बड़ी है, और गहरी भी' कोई लड़की कह रही थी.

'हाँ हाँ...मुझे पता है तू अपने जीजाजी से चुदवाती है...तभी तो तेरी चूत ऐसी भोसड़ा बन गयी है' किसी दूसरी लड़की की आवाज आई. 'ऐ कमली, अब तू रहने दे..मेरा मुहं ना खुलवा. मुझे पता है तुम अपने चाचू का लण्ड चूसती हो और अपनी बुर में लेती हो' वो लड़की बोल उठी.

'देखो, तुम लोग झगडा मत करो, "चूत-चूत" खेलना हो तो बोलो वर्ना मै तो घर जा रही हूँ' हर्षा बोल रही थी.

मेरे कदम जहाँ के तहां ठहर गए....मै दबे पांव उस तरफ चल दिया जहाँ से आवाजें आ रहीं थी. पेड़ों की ओट में छुपता हुआ मै आगे बड़ने लगा...फिर जो देखा, उसे देख कर मेरा गला सूख गया. मेरी साँसे थम गयीं. दिल की धड़कन तेज हो गयी.

हर्षा और उसकी सात आठ सहेलियां एक गोल घेरा बना के बैठी थी. सब लड़कियों ने अपनी अपनी सलवार और चड्डी उतार रखी थी और अपनी अपनी टाँगे फैला के अपनी अपनी चूत अपने हाथो से खोल रखी थी. और आपस में बतिया रहीं थी.

'सरस्वती, अब तू ही समझा इस पुष्पा को...ये तो आज "चूत-चूत" खेलने नहीं झगडा करने आई लगती है' कमली बोल पड़ी

सभी लड़कियों को मैं जनता पहचानता था. सरस्वती उम्र में सबसे बड़ी थी, उसने भी अपनी चूत दोनों हाथों से खोल रखी थी. कमली की बात सुन कर उसने अपना एक हाथ चूत पर से हटाया और सबको समझाने के अंदाज़ में बोली 'देखो तुम लोग लड़ो मत, हम लोग यहाँ खेलने आयीं हैं झगड़ने नहीं...समझीं सब की सब'

तभी हर्षा बोल पड़ी 'तो अब खेल शुरू, मै तीन तक गिनुंगी फिर खेल शुरू और अब कोई झगडा नहीं करेगा....एक दो तीन'
हर्षा के तीन बोलते ही सब लड़कियों ने अपनी अपनी चूत में ऊँगली करना शुरू कर दी. किसी ने एक ऊँगली डाल रखी थी किसी किसी ने दो. जिस पेड़ के पीछे मै छुपा हुआ था वहां से सिर्फ तीन लड़कियां ही मेरे सामने थीं. बाकी सब की नंगी कमर और हिप्स ही दिख रहे थे. हर्षा मेरे ठीक सामने थी.

हर्षा, मेरे खास मित्र की बेटी...जिसे मैं आज तक एक भोली भाली मासूम नादान लड़की समझता आया था उसका कामुक रूप मेरे सामने था. वो भी अपनी चूत की दरार में अपनी ऊँगली चला रही थी. हर्षा की गोरी गोरी पुष्ट जांघो के बीच में उसकी चूत पाव रोटी की तरह फूली हुयी दिख रही थी. उसकी चूत पे हलकी हलकी मुलायम रेशमी झांटे थी...तभी...सुनयना बोल पड़ी...

', शबनम तेरा हाथ बहुत धीरे चल रहा है....जरा जाके अपना हथियार तो उठा ला' सुनयना बोली

यह सुन कर शबनम उठी और पास की झाड़ियों में से कुछ उठा लायी. मै उत्सुकता से देख रहा था....शबनम के हाथ में लाल कपडे में लिपटा हुआ लम्बा सा कुछ था. वो उसने लाकर सुनयना को दे दिया. सुनयना ने उस हथियार के ऊपर से कपडा हटाया...वो हथियार एक लकड़ी का बना हुआ डिल्डो, (कृत्रिम लण्ड) था....लगभग बारह अंगुल लम्बा और तीन अंगुल मोटा...एकदम चिकना...कांच की तरह.
सुनयना ने वो हथियार अपनी चूत में दन्न से घुसेड लिया और उसे अन्दर बाहर करने लगी....

मुझे भी दो. मुझे भी दो...सब लड़कियां कह रही थी...फिर सुनयना ने वो डिल्डो अपनी चूत से बाहर निकाल कर हवा में उछाल दिया...कई लड़कियों ने केच करने की कोशिश की. लेकिन बाजी शबनम के हाथ लगी. शबनम उस डिल्डो को अपनी चूत में सरका कर मजे लेने लगी.

उफ्फ्फफ्फ्फ्फ़ मेरी कनपटियाँ गरम होने लगी थी...मेरा गला सूख चुका था...जैसे तैसे मैंने थूक निगला...जिन लड़कियों को मै आज तक सीधी सादी भोली भाली समझता आया था...उनका असली रूप मेरे सामने था.

'हर्षा, तू भी ले ना इसे अपनी बुर में...बहुत मज़ा आता है' शबनम बोली

'ना, बाबा...ना. मुझे तो इसे देख कर ही डर लगता है...मै तो शादी के बाद ही असली चीज लुंगी अपने भीतर' हर्षा बोली

सब लड़कियां बारी बारी से उस डिल्डो को अपनी चूत में चलाती रही...सिर्फ हर्षा ने वो डिल्डो अपनी चूत में नहीं घुसाया. जब लडकियों की मस्ती पूरे शवाब पे आई तो वो एक दुसरे के ऊपर लेट के चूत से चूत रगड़ने लगीं....ये खेल लगभग पंद्रह बीस मिनिट तक चला...जब सब की सब झड गयीं तो सबने अपनी अपनी चड्डी और सलवार पहिन ली.

अच्छा सखियों, आज का अपना खेल ख़तम...कल फिर हम लोग चूत-चूत खेलेंगी....हर्षा बोल पड़ी

सब लड़कियों के जाने के बाद मै भी दबे पांव अपने घर को चल दिया उस रात. नींद मेरी आँखों से कोंसों दूर थी. रह रह कर "चूत-चूत" का खेल मेरे दिमाग में चल रहा था. जिसकी कभी कल्पना भी ना की थी उसे प्रत्यक्ष देख चुका था. हर्षा की भरी भरी चूत मेरी आँखों में नाच रही थी. उसकी गुलाबी सलवार उसके पांव के पास पड़ी थी, और उसने अपनी धानी रंग की कुर्ती अपनी कमर के ऊपर तक समेट ली थी...उसकी चुचियों पे मैंने ज्यादा गौर नहीं किया था...लेकिन हर्षा की कुर्ती काफी ऊंची उठी हुयी दिख रही थी...

तभी मेरे लण्ड ने खड़े होकर हुंकार सी भरी...और मेरे पेट से सट गया....जैसे मुझे उलाहना दे रहा था.....

मैंने अपने लण्ड को प्यार से थपथपाया....'सब्र करो छोटू...बहुत जल्दी तुम हर्षा की चूत की सैर करोगे'

लेकिन कैसे....? ये सवाल मेरे सामने मुह बाए खड़ा था. हर्षा...जो मेरे सामने पैदा हुई थी...मेरी गोद में नंगी खेली थी...मेरे खास दोस्त की बिटिया...मैंने कभी आज तक उसके बारे में ऐसा सोचा भी नहीं था....लेकिन आज जो खेल उसकी अमराई में देखा...हर्षा ने अपनी चूत अपने हाथों से खोल रखी थी...उसकी चूत के भीतर वो तरबूज जैसा लाल और भीगा भीगा सा द्वार. वो उसकी छोटी अंगुली की पोर जैसा उसकी चूत का दाना (Clit)

अनचाहे ही मै हर्षा की चूत का स्मरण करता हुआ मुठ मारने लगा. मेरे लण्ड से जब लावा निकल गया तब कुछ चैन मिला.

अब मेरा मन...हर्षा की रियल चुदाई करने के ताने बाने बुनने लगा..
अगली सुबह मै जल्दी उठ गया और घूमने के बहाने हर्षा की अमराई में जा पहुंचा. मै झाड़ियों में डिल्डो की तलाश करने लगा...वो मुझे वैसा ही कपडे में लिपटा मिल गया. मैंने डिल्डो को कपडे से बाहर निकल कर देखा, बड़ा मस्त डिल्डो था...उस में से लड़कियों की चूत के रस की गंध अभी भी आ रही थी...मैंने उसे अपनी नाक से लगा कर एक गहरी सांस ली....और डिल्डो अपनी जेब में रख लिया.

इतना तो मै समझ ही गया था की हर्षा एक सेक्सी लड़की है और लण्ड लेने की चाहत उसे भी होगी. आखिर अब वो भरपूर जवान हो चुकी थी. मुझे अपनी राह आसान नज़र आने लगी.
मैंने कुछ कुछ सोच लिया था की मुझे क्या करना है. उसी दिन मैं हर्षा के घर जा पहुंचा, इत्तफाक से हर्षा से अकेले में बात करने का मौका मिल ही गया...

'हर्षा, कैसी हो तुम...तुम्हारी पढ़ाई लिखाई कैसी चल रही है' मैंने पूछा

'ठीक चल रही है अंकल जी, मै दिन भर मन लगा के पड़ती हूँ' हर्षा बोली

'ठीक है हर्षा, खूब मन लगा के पढो तुम्हे ज़िन्दगी में बहुत आगे बढ़ना है' मैंने कहा

'जी अंकल' वो बोली

'वैसे हर्षा, कल मैंने तुम्हे तुम्हारी अमराई में सहेलियों के साथ पढ़ते देखा था' मैंने कह दिया
यह सुन कर हर्षा सकपका गयी और उसका चेहरा फक पढ़ गया. उसके मुंह से बोल ना फूटा. फिर मैंने वो डिल्डो निकाल कर हर्षा को दिखाया...
'ये तुम्हारा ही है ना?' मैंने पूछा
'अंकल जी, वो वो.....' इसके आगे हर्षा कुछ ना बोल सकी
'हर्षा, ये आदतें अच्छी नहीं...मुझे तुम्हारे पिताजी से बात करनी पड़ेगी इस बारे में' मैंने कहा

'नहीं अंकल जी, आप पिताजी से कुछ मत कहना इस बारे में...मैं आपके पांव पड़ती हूँ' वो बोली

'हर्षा, तुम उन गन्दी लड़कियों के साथ ये सब गंदे गंदे काम करती हो...मुझे तुम्हारे पिताजी को ये सब बताना ही पड़ेगा' मैंने अपनी बात पर जोर देकर कहा.

'नहीं, अंकल जी, प्लीज....आप पिताजी से कुछ मत कहना...अब मैं कभी भी वैसा नहीं करुँगी' हर्षा रुआंसे स्वर में बोली और मेरे पैरों पर झुक गयी...मेरा तीर एकदम सही जगह लगा था..
'देखो, हर्षा मैं तुमसे इस बारे और बात करना चाहता हूँ.....तुम कल दोपहर को मुझे अपनी अमराई में मिलना' मैंने उससे कहा

'अंकल जी, अब क्या बात करनी है आपको...' वो बोली

'हर्षा, तुम कल मुझे वही पे मिलना....अब तुम छोटी बच्ची तो हो नहीं.....अपने आप समझ जाओ' मैंने उसकी आँखों में आँखे डाल कर कहा..

कुछ देर वो चुप रही.....फिर धीरे से बोली...'ठीक है अंकल जी, मै कल दोपहर को आ जाउंगी वही पर, लेकिन आप पिता जी से कुछ मत कहना'
'ठीक है, नहीं कहूँगा....लेकिन तुम समझ गयीं ना मेरी बात को ठीक से' ?

'जी, अंकल....मै तैयार हू' वो बड़ी मुश्किल से बोली...यह सुन कर मैंने हर्षा को अपनी बहो में भर लिया और उसका गाल चूम लिया. वो थोड़ी कसमसाई लेकिन कुछ नहीं बोली फिर मैंने धीरे से उसकी चुचिओं पर हाथ फिराया और उसकी जांघो के बीच में हाथ ले जाकर उसकी चूत अपनी मुट्ठी में भर ली...हर्षा के मुह से एक सिसकारी निकली
'हर्षा...अपनी इसे भी चिकनी कर के आना' मै उसकी चूत पर हाथ फिरते हुए बोला. हर्षा ने अपना सर झुका लिया, बोली कुछ नहीं.
मै फिर अपने घर लौट आया....अब मुझे कल का इंतज़ार था.
अगले दिन मै नहा धोकर तैयार हुआ, खूब रगड़ रगड़ के मल मल के नहाया और फिर अपने लण्ड पर चमेली के तेल की मालिश की,सुपाडे पर खूब सारा तेल चुपड़ लिया....आखिर हर्षा की चूत की सील तोड़ने जा रहा था मेरा छोटू. मैं हर्षा की अमराई में लगभग एक बजे ही पहुँच गया. चारों तरफ सुनसान था, चिलचिलाती धूप पड रही थी और गरम हवाएं चल रही थी.

करीब आधे घंटे बाद मुझे हर्षा आती दिखाई दी, उसने अपने सर पर दुपट्टा ढँक रखा था, गुलाबी रंग के सलवार सूट में ताजा खिला गुलाब सी लग रही थी. 'आओ हर्षा...तुमने तो मुझे बहुत इंतजार करवाया, मैं कब से यहाँ अकेला बैठा हू' मैंने कहा.

'अंकल जी, वो तैयार होने में देर लग गयी' वो धीरे से बोली. हर्षा की कातिल जवानी गजब ढहा रही थी, खूब सज संवर के आई थी वो.
मैंने उसे अपनी बाँहों में खींच लिया, उसकी कड़क कठोर चूचिया मेरे सीने से आ लगीं, उसके तन की तपिश मुझे दीवाना बनाने लगी.

'अंकल जी, कोई देख लेगा' वो बोली और मुझसे छूटने की कोशिश करने लगी. 'अरे, यहाँ तो कोई भी नहीं है...तुम बेकार डर रही हो' मैंने उसे समझाया

'नहीं, अंकल यहाँ नहीं....हम लोग मचान पर चलते हैं. वहां हमें कोई डर नहीं रहेगा' हर्षा बोली. 'ठीक है चलो' मैंने कहा मचान का नाम सुन कर मै भी खुश हो गया. वहीँ पास में एक आम के पेड़ पर मचान बनी थी....मैंने हर्षा को सहारा देकर ऊपर मचान पर चडा दिया और फिर मैं भी ऊपर चढ़ गया. अब हमें देखने वाला कोई नहीं था....

मचान पर नर्म नर्म पुआल बिछी थी, जिस पेड़ पर मचान बनी थी उसमे ढेर सारे बड़े बड़े आम लटक रहे थे....इक्का दुक्का तोते आमों को कुतर रहे थे.
हर्षा सहमी सिकुड़ी सी मचान पर बैठ गयी. मै उसके पास में लेट गया और उसका हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया. वो मेरे सीने से आ लगी. मैं धीरे धीरे उसके अंगों से खेलने लगा. वो हल्का फुल्का विरोध भी कर रही थी...उसके मुंह से ना नुकुर भी निकल रही थी,मैंने हर्षा की कुर्ती में हाथ डाल दिया और उसके दूध दबाने लगा. उसका निचला होठ अपने होठो में लेकर मैं उसकी निप्पलस चुटकी में भर कर धीरे धीरे मसलने लगा. धीरे धीरे हर्षा भी सुलगने लगी. आखिर जवान लड़की थी, मेरे हाथों का असर तो उस पर होना ही था.

फिर मैंने उसकी सलवार का नाडा पकड़ कर खींच दिया....और उसकी चड्ढी में हाथ डाल दिया. हर्षा को मानो करेंट सा लगा....उसका सारा बदन सिहर उठा....हर्षा की चिकनी चूत मेरी मुट्ठी में थी. वो सच में अपनी चूत को शेव कर के आई थी. मैंने खुश होकर हर्षा को प्यार से चूम लिया..और उसकी चूत से खेलने लगा.

हर्षा का विरोध अब ख़तम हो चुका था और वो भी मेरे साथ रस लेने लगी थी. फिर मैंने उसकी सलवार निकाल दी...और जब चड्ढी उतारने लगा तो हर्षा ने मेरा हाथ पकड़ लिया....'अंकल जी, मुझे नंगी मत करो प्लीज' वो अनुरोध भरे स्वर में बोली. लेकिन अब मैं कहाँ मानने वाला था. मैंने जबरदस्ती उसकी चड्ढी उतार के अलग कर दी. और फिर उसकी कुर्ती और ब्रा भी जबरदस्ती उतार दी.

उफ्फ्फ, कितना मादक हुस्न था हर्षा का. उसके दूध कैद से आजाद होकर मानो फूले नहीं समां रहे थे. हर्षा की गोरी गुलाबी पुष्ट जांघो के बीच में उसकी चिकनी गुलाबी चूत....मैं तो हर्षा को निहारता ही रह गया.....तभी वो शरमा के दोहरी हो गयी और उसने अपने पैर मोड़ कर अपने सीने से लगा लिए. और अपना मुंह अपने घुटनों में छिपा लिया.
मैंने भी अपने सारे कपडे उतार दिए और हर्षा को जबरदस्ती सीधा करके मैं उसके नंगे बदन से लिपट गया. जवान कुंवारी अनछुई लड़की के बदन से जो मनभावन मादक गंध आती है....हर्षा के तन से भी उसकी हिलोरें उठ रही थी....मै हर्षा के पैरों को चूमने लगा...उसके पैरों की अँगुलियों को मैंने अपने मुंह में भर लिया और चूसने लगा. फिर मेरे होंठ उसकी टांगो को चूमते हुए उसकी जांघो को चूमने लगे.

हर्षा के बदन की सिहरन और कम्पन मै महसूस कर रहा था. फिर मैंने अपनी जीभ उसकी चूत पे रख दी. हर्षा की चूत के लब आपस में सटे हुए थे...मैंने धीरे से उसकी चूत के कपाट खोले और अपनी जीभ से उसका खजाना लूटने लगा....तभी मानो हर्षा के बदन में भूकंप सा आ गया. उसने मेरे सिर के बाल कस कर अपनी मुट्ठियों में जकड लिए.

उसने अपनी कमर ऊपर उठा दी...फिर मैंने अपनी अंगुली की एक पोर उसकी चूत में घुसा दी और उसके दूध चूसने लगा...हर्षा का दायाँ दूध मेरे मुंह में था और उसके बाएं दूध से मै खेल रहा था...
तभी हर्षा मेरी पीठ को सहलाने लगी.....'अंकल जी, हटो आप..बहुत देर हो गयी, अब मुझे जाने दो' वो थरथराती आवाज में बोली....औरअपनी टाँगे मेरी कमर में लपेट दीं. हर्षा अपने मुंह से कुछ और कह रही थी लेकिन उसका नंगा बदन कुछ और ही कह रहा था. मै हर्षा को जिस मुकाम पे लाना चाहता था वहां वो धीरे धीरे आ रही थी.

फिर मैं उसके ऊपर लेट गया...मेरे लण्ड में भरपूर तनाव आ चुका था. और मेरा लण्ड हर्षा की चूत पे टकरा रहा था. मैं उसके ऊपर लेटे लेटे ही उसके गाल काटने लगा.

'अंकल जी, गाल मत काटो ऐसे...निशान पड जायेंगे' वो बोली....लेकिन मैंने अपनी मनमानी जारी रखी

'अब नहीं रहा जाता...' वो बोल उठी.
हर्षा की आँखों में वासना के गुलाबी डोरे तैरने लगे थे. उसकी कजरारी आँखे और भी नशीली हो चुकी थी. फिर मैं उठ कर बैठ गया और हर्षा को खींच कर मैंने उसका मुंह अपनी गोद में रख लिया. और मैं अपना लण्ड उसके गालों पर रगड़ने लगा...

'हर्षा, मेरा लण्ड अपने मुंह में लेकर चूसो ' मैंने कहा.

'नहीं, अंकल जी ये नहीं' वो बोली.

'तो ठीक है...मत चूसो, अपने कपडे पहिन लो और जाओ अब' मैंने कहा

तब हर्षा ने झट से मेरा लण्ड पकड़ लिया और झिझकते हुए अपने मुह में ले लिया....और चूसने लगी. मै तो जैसे पागल सा हो उठा...कुछ देर बाद उसने मेरी foreskin नीचे करके मेरा सुपाडा अपने मुंह में भर लिया और वो बड़ी तन्मयता से मेरा लण्ड चूमते चाटते हुए चूसने लगी.
मैंने भी हर्षा का सिर पकड़ लिया और उसे अपने लण्ड पर ऊपर नीचे करने लगा. मेरा लण्ड हर्षा के मुंह में आ जा रहा था.

कुछ देर मै यू ही हर्षा का मुंह चोदता रहा...और साथ में उसकी चूत की दरार में अपनी अंगुली भी फिराता रहा...

'अंकल जी, अब नहीं होता सहन....आप और मत तरसाओ मुझे....जल्दी से मुझे अपनी बना लो' हर्षा कांपती सी आवाज में बोली.

'ठीक है मेरी जान...मैं भी तड़प रहा हू तुम्हे अपनी बनाने के लिए.....हर्षा, अब तुम सीधी लेट जाओ और अपने पैर अच्छी तरह से फैला कर अपनी चूत की फांके खोल दो पूरी तरह से' मैंने कहा

'जी, अंकल...हर्षा शरमाते हुए बोली' और फिर उसने अपनी टाँगे फैला के अपनी चूत के होंठ अपनी अँगुलियों से खोल ही दिए

मुझे लड़की का ये पोज सदा से ही पसंद है...जब लड़की नंगी होकर अपनी चूत अपने हाथों से खोल कर लेटती है....
फिर मैंने हर्षा की खुली हुयी चूत के छेद से अपना सुपाडा सटा दिया और उसकी हथेलियाँ अपनी हथेलियों में फंसा कर धीरे धीरे अपना लण्ड उसकी चूत में घुसाने की कोशिश करने लगा. कुंवारी चूत के साथ थोड़ी मुश्किल तो होती ही है. मैंने अपने लण्ड को खूब सारा चमेली का तेल पिलाया था....और फिर हर्षा के चूसने के बाद मेरा लण्ड काफी चिकना हो चुका था.

अंततः मेरी मेहनत रंग लायी. और मेरा लण्ड हर्षा की चूत की सील को वेधता हुआ, उसका कौमार्य भंग करता हुआ उसकी चूत में समां गया.

हर्षा के मुंह से एक घुटी घुटी सी चीख निकली, उसने मुझे परे धकेलने की कोशिश की लेकिन मेरे हथेलियों में उसकी हथेलियाँ फंसी हुयी थी....वो बस तड़प के ही रह गयी.

'उई माँ...मर गयी...' हर्षा के मुंह से निकला...'हाय अंकल, निकाल लो अपना बाहर ...मुझे नहीं चुदवाना आपसे'

लेकिन मै बहुत धीरे धीरे आहिस्ता आहिस्ता उसकी चूत में अपने लण्ड को चलाता रहा. मेरा लण्ड हर्षा की चूत में रक्त-स्नान कर रहा था..और वो मेरे नीचे बेबस थी.

'आह, अंकल...बहुत दुख रही है...' हर्षा बोली. उसकी आँखों में आंसू छलक आये. मुझसे उसकी तड़प देखी नहीं जा रही थी; लेकिन मै कर भी क्या सकता था. मैंने प्यार से उसकी आँखों को चूम लिया, उसके गालों को अपना प्यार दिया..और अपनी धीमी रफ़्तार जारी रखी.
जैसा की आदि काल से होता आया है, कामदेव ने अपना रंग दिखाना शुरू किया तो हर्षा को भी मस्ती चड़ने लगी...उसके निप्पलस जो पहले किशमिश की तरह थे अब कड़क हो कर बेर की गुठली जैसे हो चुके थे. और उसका पूरा बदन कमान की तरह तन चुका था. अब हर्षा के हाथ भी मेरी पीठ पर फिसलने लगे थे.
थोड़ी देर बाद उसके मुंह से धीमी धीमी किलकारियां निकलने लगीं. तब मैंने चुदाई की स्पीड थोड़ी तेज कर दी. और अपने लण्ड को पूरा बाहर तक खींच कर फिर से उसकी चूत में पूरी गहराई तक घुसा कर उसे चोदने लगा...
'हाँ, अंकल जी, ऐसे ही करो...थोडा और जल्दी जल्दी करो ना' हर्षा अपनी कमर उठाते हुए बोली.
'हाँ, ये लो मेरी जान...' मैंने कहा और फिर मैंने अपने स्पेशल शोट्स मारने शुरू कर दिए.

'अंकल जी, अब बहुत मजा दे रहे हो आप...हाँ '

'तो ये लो मेरी रानी ...और लूटो मजा...क्या मस्त जवानी है तेरी, हर्षा' मैंने कहा

'अंकल जी, ये हर्षा ठाकुर आपके लिए ही जवान हुयी है.....आप लूटो मेरी जवानी को, जी भर कर भोग लो मेरे शरीर को ... खेलो मेरे जिस्म से, रौंद डालो मेरी चूत को, फाड़ दो मेरी चूत आह.........जैसे आप चाहो वैसे खेलो मेरी अस्मत से...
जी भर के लूटो मेरी इज्जत को...अंकल कुचल के रख दो मेरी चूत को; बहुत सताती है ये चूत मुझे' हर्षा पूरी मस्ती में आके बोले जारही थी....
फिर मैं हर्षा के क्लायीटोरिस को अपनी झांटो से रगड़ रगड़ के उसकी चूत मारने लगा, उछल उछल कर उसकी चूत कुचलने लगा. (बनाने वाले ने भी क्या चीज बनाई है चूत भी...कितनी कोमल, कितनी नाजुक, कितनी लचीली, कितनी रसभरी लेकिन कितनी सहनशील...कठोर लण्ड का कठोर से कठोरतम प्रहार सहने में सक्षम...)

'आईई अंकल....उफ्फ्फ....हाँ ऐसे ही...' वो बोली और मेरे धक्कों से ताल में ताल मिलाती हुयी नीचे से अपनी कमर चलाते हुए टाप देने लगी








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