वीरान जजीरा -2
उस कश्ती पर शायद एक केवल मैं ही जिंदा इंसान था, लेकिन कब तक। मैं भी बहुत जल्द इस जालिम समुंदर का शिकार होने को था। माफी चाहता हूँ, समुंदर को मैंने यहाँ जालिम लिखा हालांकी इस समुंदर को मैंने खुद पर हमेशा मेहरबान ही देखा। बहुत पुरसकून बिल्कुल मेरी माँ की आगोश की तरह नरम। समुंदर की नरम हवायें मेरे कानों में लोरियाँ देने लगीं और मैं फिर सो गया या शायद बेहोश हो गया और ना जाने कब तक यूँ ही पड़ा रहा। की अचानक कुछ हुआ। जी हाँ मैंने उस लाशों के ढेर में कुछ सरसराहटें सुनीं थीं, कोई पुकार रहा था। हालाँकि
आवाज बहुत ही धीमी थी लेकिन बहरहाल इस खामोशी में वह एक आवाज थी जो लहरों की मध्यम आवाजों में सॉफ सुनाई दी जा सकतीं थी। मैं घिसटता हुआ आगे बढ़ा और उस लासों के ढेर को इधर उधर करने लगा।
किसी ने फिर पुकारा-“प्प्प्प्पान्णनीईइ…”
और यह आवाज तो मैं लाखों में पहचान सकता था। वह आवाज मेरी बड़ी बहन राधा की थी।
में दीवानों की तरह उसको आवाज देने लगा-“दीदी… दीदी… दीदी…”
फिर उस ढेर में से आवाज आई-“प्रेम यह तुम हो मेरे भाई…”
मैंने कहा-“हाँ दीदी यह मैं हूँ प्रेम… कहाँ हो तुम दीदी…”
“मैं यहाँ हूँ प्रेम मेरे साथ कामिनी भी है वह बेहोश है शायद… तुम इन लोगों को हटाओ मेरा दम घुटा जा रहा है…”
मैं बोला-“दीदी यहां कोई लोग नहीं हैं यह सब लाशें हैं…”
“लाशें…”
दीदी की फटी फटी सी आवाज आई और फिर मुझको उस ढेर में से एक चीख की आवाज आई और कुछ हलचल हुई मैं भी अब उन लाशों को धक्का दे देकर समुंदर में गिराने लगा और कुछ ही देर बाद मेरी बहन राधा नमोदार हुई। वह जिंदा थी शायद इतने नीचे दबे रहने की वजह से वह बच सकी थी। वह बाहर निकल आई। हम दोनों बहन भाई अब आमने सामने थे बेहद घबराए हुये, परेशान। लेकिन अब क्या हो सकता था हम अपनी छोटी बहन कामिनी की तरफ मुतविज़ा
( ध्यान देना )
हुये।
वो बेहोश थी लेकिन उसका सांस नॉर्मल चल रही थी उसकी हालत खुली फ़िज़ा में आते ही सही होनी लगी और चेहरे पर सुर्खी सी दौड़ने लगी और कुछ ही देर बाद वो होश में थी। होश में आते ही वह माँ को पुकारने लगी। हमें कुछ देर लगी उसको नॉर्मल करने और सूरतेहाल बताने में। फिर हम तीनों बहन भाई उस कश्ती पर बैठे थे और वह ना जाने कहाँ बही चली जा रही थी, ना मंज़िल का कोई निशान था, ना रास्तों का कुछ इल्म। लेकिन समुंदर हमारी मंज़िल जानता था।
और सूरज डूबने से कुछ देर पहले उसने हमें एक साहिल पर ला फेंका। हम खुश थे साहिल पर आकर, हम समझ रहे थे की हम बच गये बस अब आबादी में पहुँचने की देर है। हम निढाल होकर वहीं साहिल की गीली रेत पर गिर से गये और फिर रात हो गई। शायद हम सारी रात वहीं पड़े रहे। क्योंकी जब मेरी आँख खुली तो मैं अकेला वहीं पड़ा था। मेरी दोनों बहनें उठकर ज़रूरी हाजत के लिए दरख़्तों के पीछे गईं थीं। में उठा और दीदी को पुकारने लगा। वह दोनों कुछ फासले से मुझको आती हुई नजर आईं।
प्रेम मुझको लगता है यहाँ आबादी नहीं है हम काफी दूर तक होकर आए हैं, लेकिन आगे सिर्फ़ जंगल है जो और घना भी होता जा रहा है। दीदी की आवाज में परेशानी थी। मैं उनको देखता रह गया। फिर हमने चारों
तरफ का जायजा लिया। जहाज का बहुत सा सामान साहिल पर बिखरा पड़ा था शायद समुंदर की लहरों ने हमारे साथ उनको भी यहाँ ला फेंका था और उनमें से बहुत सी चीजों ने हमारी आने वाली जिंदगी में बहुत अहम किरदार अदा किया। मैं अपने सुनने वालों से गुज़ारिश करता हूँ की वह इन चीजों की तफ़सील जहन में रखें ताकि आपको आगे की दास्तान को समझने में दुश्वारी ना हो।
जो चीजें हमने साहिल पर से लाकर रखीं वह कुछ यूँ थीं। एक बड़ा संदूक जिसमें चंद कपड़े औरतों के लिए, दो मोटे कोट लेडीज़, बहुत से ब्लेड उस्तरे के, माचिसों के बंडल, मोमबत्तियाँ, शराब की काफी बोतलें, मट्टी का तेल (केरोसिन ओयल) खुश्क गोश्त के पर्चे, मछली पकड़ने का जुमला सामान और उनके साथ एक बड़ा जाल, चंद औजार, और एक बड़ी कुल्हाड़ी (आक्स)।
यह थीं वह चीजें जो हमें मिली। अप्रेल का महीना था साल 1938। मेरी उमर उस वक्त 9 साल, मेरी बहन राधा की उमर 15 साल, और छोटी बहन की उमर 6 साल। आप जानते
हैं यह बहुत कम उमरें होतीं हैं जब की हालात कुछ यूँ थे की हम एक अंजान साहिल पर पड़े थे, हमको नहीं पता था की दुनियाँ के किस हिस्से में हैं और कब तक यहाँ रहेंगे। अभी तो पहला दिन था यहाँ और हम यह उम्मीद लगाए साहिल पर ही बैठे थे की अभी कोई जहाज आएगा और हमको यहाँ से ले जाएगा। लेकिन हम नहीं जानते थे यह बात की हमने अपनी उमर का एक बड़ा हिस्सा यहाँ गुजारना है। यही हमारी तकदीर में लिख दिया गया था और तकदीर का लिखा अमिट होता है दोस्तो। अब बस मुझको इजाज़त दें बहुत जल्द अपनी दास्तान पूरी करूँगा
हमारी उमरें बहुत कम थीं। लेकिन हमारी बड़ी बहन राधा उस वक्त 15 साल की थी और मुकम्मल लड़की थी। वह जवान थी, हसीन थी और आरजू भरी थी, लेकिन उसकी आरजुयें अब पूरी होनी वालीं नहीं थीं। वह अपने होने वाले खाविंद से हजारों मील दूर थी और कौन जाने कभी उस तक पहुँचेगी भी या नहीं। वह समझ गई थी की अब हमारी दुनियाँ बस यही जज़ीरा है। दिन तेज़ी से गुजरने लगे, हमको भी अब सबर आ चुका था। हमने करीब दरख़्तों के एक झुंड में एक झोंपड़ा सा डाल लिया था जहाँ हम रात को सोये थे। पानी हम जमा करते थे। दीदी कभी कभार शराब पी लिया करती थी। खाना शुरू में हमने जो जहाज के सामान में मिला था उसे खाया फिर हमारी बहन और हम सब मछलियाँ पकड़ने लगे और आहिस्ता आहिस्ता इस फन में माहिर होते चले गये।
अब मसला था तो हमारे कपड़ों का। वह बिल्कुल फट गये थे। मेरी तो सिर्फ़ पैंट बची थी वह भी घुटनों तक। राधा दीदी के कपड़ों का ऊपरी हिस्सा बिल्कुल नंगा हो चुका था। और वह सारा दिन अपनी नंगी छातियों के साथ ही रहा करती थी। अब तो हमें अपने नंगेपन का भी एहसास न था। दीदी ने भी अब तमाम कपड़े उतार दिए और एक दिन वह हमारे सामने बिल्कुल नंगी खड़ी थी। वह शरमाई सी खड़ी थी और हम दोनों उसको हैरानी से देख रहे थे। दीदी की छातियों को तो मैं रोज ही देखा करता था लेकिन अब उसकी चूत और गान्ड बिल्कुल नंगी थी। हमको यहाँ आए दो साल गुजर गये थे और मेरी उमर 11 साल, दीदी की 17 साल और कामिनी की 8 साल हो चुकी थी।
दीदी बोली-“देखो प्रेम और कामिनी हमारे पास कपड़े नहीं हैं, जो हैं वह हमारे लिए नाकाफी हैं। यहाँ सरदी नहीं पड़ती और पड़ती हैं तो वह भी बहुत कम तो हम अपने कपड़े सर्दियों के लिए संभालेंगे या कभी बीमार हुये तो… तो मैं सबसे पहले अपने कपड़े उतार चुकी हूँ। आज ही मेरे पीरियड ख़तम हुये हैं, वरना मैं पहले ही उतार देती…”
फिर वह बोली प्रेम मेरे भाई लड़की जब बालिग हो जाती है या यूँ समझो जब शादी के काबिल हो जाती है तो हर महीने यहाँ से (वह अपनी चूत की तरफ इशारा करते हुये बोली) खून सा निकलता है इस को पीरियड कहते हैं। मैं इसलिए कह रही हूँ तुमको कि अब कामिनी को भी यह पीरियड आने लगे हैं और महीने में कुछ दिन हम दोनों अपना अंडरवेअर पहनेंगे तो खून देखकर परेशान मत हो जाना। यह कहकर वह बोली-“चलो कामिनी अब तुम भी अपने कपड़े उतारकर मुझे दो…”
कामिनी शरमाई और फिर उसने भी अपने कपड़े उतार दिए। मैं अपनी दोनों नंगी बहनों को देख रहा था मैं अभी सेक्स से वाकिफ़ ना था लेकिन उनके कोरे और जवानी की चमक से जगमगाते जिस्म देखकर मेरे जिस्म में ना जाने क्या होने लगा। मैं परेशान सा हो गया। खैर… मैंने भी अपने कपड़े उतार दिए। और फिर हम तीनों नंगे ही रहते सिवाए उन दिनों के जब सरदी पड़ती या बारिश की वजह से ठंडक होती। यहाँ बारिश भी तो बेपनाह होती थी।
इसी तरह दो साल और गुजर गये। हमें यहाँ आए 4 साल हो चुके थे। मैं अब 13 साल का लड़का था, मेरी दीदी अब 19 साल की हो चुकी थी और मेरी छोटी बहन कामिनी अब 10 साल की थी। इन दिनों कुछ हैरत अंगेज तब्दीलियां हुई थीं हमारे जिस्मों में जो मैं कभी सोचता तो बड़ा हैरत अंगेज लगता। मेरा लंड अब काफी बड़ा हो चुका था, उसपर बाल उग आए थे काले काले। मेरी दीदी की चूत अब काफी मोटी हो गई थी। हाँ वह अपनी चूत के बाल हर महीने पीरियड के बाद काट लेती थी और कभी मैं काट देता था अपनी दोनों बहनों की चूतों के बाल क्योंकी उनकी गान्ड के सुराख पर भी बाल होते तो उनका हाथ नहीं जाता था, तो मैं यह काम कर देता था। उनकी चूत और गान्ड के बाल साफ करता तो मेरा लंड खड़ा हो जाता।
मैं कभी दीदी से कहता-“दीदी मैं भी अपने लंड के बाल साफ कर लूँ…”
दीदी हँसती और कहती-“अरे गधे मर्द की शान होते हैं यह बाल तो। छोड़ अच्छा लगता है तेरा लंड…”
मैं हैरत से पूछता-“दीदी तुमको मेरा लंड अच्छा लगता है…”
वह कहती-“क्यों तुमको मेरी चूत अच्छी नहीं लगती…”
मैं कहता-“हाँ दीदी बहुत अच्छी लगती है…”
दीदी के मम्मे खासे बड़े होकर लटक से गये थे जबकी कामिनी की चूत के बाल अभी हल्के काले थे, उसकी चूत काफी बंद और चूत के दोनों लब पास पास थे। उसकी गान्ड भी दीदी की तरह बड़ी नही थी और गान्ड का सुराख गुलाबी सा था। और मम्मे उसके भी निकल आए थे, छोटे थे अभी लेकिन निकल रहे थे और तेज़ी से बड़े हो रहे थे। इसी तरह एक साल और गुजर गया। अब कामिनी भी जवान हो चुकी थी। उसका जिस्म भी खूब भर गया था शायद यहाँ की आबो-हवा का असर था। और मेरी दोनों बहनें बहुत हसीन हो चुकी थीं।
हम सारा दिन जंगलों में घंटों शिकार करते मछलियों का और आपस में खेलते। खेल खेल में जब मैं अपनी बहनों के जिस्म से लिपटता या उनको छूता तो ऐसा लगता वह बेहद गरम हैं। अब दीदी एक नया खेल खेलती हम लोगों के साथ। वह अपने जिस्म में खूब मालिश करवाती मुझसे और कामिनी से और इस दौरान वह खूब सिसकियाँ भरती फिर मुझको लिपटा लेतीं और मेरे लंड को दबाने लगती और अपने मम्मे के बीच में रख लेतीं। मुझको सच पूछिए तो बहुत ही मजा आता। मैं चाहता तो यह था की दीदी हमेशा ऐसा करती रहे लेकिन कुछ ही देर बाद दीदी शांत हो जाती और उसकी चूत से झाग झाग सा निकलने लगता।
एक दिन दीदी से मैंने पूछा-“दीदी यह पानी क्यों निकल रहा है तुम्हारी चूत से…”
वह बोली-“पगले बस कुछ दिन और रुक जा फिर मैं तुझको सब कुछ बता दूँगी। तू यह बता ऐसा पानी कभी तेरे लंड से निकला है…”
मैं बोला-“हाँ… दीदी कभी कभार मैं सू-सू करके उठता हूँ तो काफी पानी निकला होता है, मैं समझता हूँ की शायद मेरा पेशाब निकल गया…”
दीदी कुछ सोचते हुये-“लगता है अब वक्त करीब आता जा रहा है… अच्छा यह बता, मैं तेरे लंड से खेलती हूँ तो तुझको मजा आता है…”
मैं बोला-“दीदी बहुत मजा आता है लेकिन तुम इतनी जल्दी उसको छोड़ देती हो…”
दीदी यह सुनकर हँसी और बोली-“अच्छा तो ऐसा कर। जाकर कामिनी के साथ यही खेल शुरू कर। उससे बोल की वह तेरा लंड सहलाएगी। मैं तो अभी फारिग हो गई हूँ…”
मैं इन लफ़्ज़ों का मतलब नहीं समझा लेकिन वहाँ से चला आया और कामिनी को ढूँढने लगा। कामिनी मुझको सामने घास पर उल्टी लेटी मिली। मैं जाकर उसके ऊपर चढ़ गया और बोला-“कामिनी चल आज हम दोनों दीदी वाला खेल खेलें। मैं तेरी मालिश करता हूँ तू मेरे लंड से खेल…”
कामिनी बोली-“भाई… दीदी के मम्मे तो बहुत बड़े हैं मेरे तो छोटे हैं अभी। मैं इनके दरमियाँ कैसे फसाउन्गी तुम्हारा लंड…”
मैं बोला-“अरे तो तू हाथों से सहला तो देगी ना… सच बहुत मजा आता है…”
वो बोली-“हाँ… भाई मजा तो आता है। अरे… क्या मेरी चूत से भी पानी निकलेगा…”
मैं बोला-“पता नहीं…”
8
फिर हम दोनों खेल में मशरूफ हो गये। मैं उसकी मालिश करते करते थक गया और वह मेरा लंड रगड़ती रगड़ती लेकिन ना उसका पानी निकला और ना मुझको वह मजा आ रहा था जो बाजी देती थीं।
आख़िरकार, मैं रुक गया और कहा-“खेल ख़तम। अब भूख लग रही है…”
मैं और कामिनी उठकर चलने लगे तो देखा की बाजी करीब ही बैठी थीं और दिलचस्पी से हम दोनों को देख रहीं थीं। उन्होंने पूछा-“क्या हुआ कामिनी तेरी चूत से कुछ निकला…”
कामिनी बोली-“नहीं दीदी बस मुझको तो पेशाब आने लगा है…”
फिर मुझसे पूछा-“तेरे लंड से कुछ निकला प्रेम?”
मैंने मुँह बनाकर कहा-“नहीं दीदी कुछ भी नहीं और मजा भी नहीं आया…”
वो बोलीं-“अरे मजा नहीं आया तुम दोनों को…”
हमने नहीं में सिर हिला दिए-“नहीं दीदी आपके साथ खेलकर मजा आता है…”
दीदी कुछ सोचते हुये बोलीं-“चलो आज मैं एक नया खेल सिखाती हूँ। इस खेल का नाम है प्रेम का लंड…”
मैं हैरान रह गया। मैंने कहा-“दीदी यह कैसा खेल है…”
वो बोली-“भाई इसमें तुम्हारे लंड से पानी निकालेंगे…” इसी तरह का खेल हम सब खेलेंगे और हर एक का खेल उसके नाम का होगा यानी, “राधा की चूत” या “कामिनी की चूत”
मैं जल्दी से बोला-“लेकिन दीदी कामिनी की चूत तो खुश्क है उससे पानी नहीं छूटता बस पेशाब निकलता है…” और यह कहकर मैं अपनी बात पर खुद ही हँस पड़ा।
कामिनी कुछ दूर बैठी पेशाब कर रही थी, सिर घुमाकर उसने मुझे देखा और गुस्से से उठकर मेरे पीछे भागने लगी। पेशाब के चंद कतरे उसकी चूत से फिसलकर अब भी रानों पर बह रहे थे। दीदी ने उसको रोक लिया और बोली-“अरे रुक कामिनी इधर आ…”
फिर वह झुक कर कामिनी की चूत से बहते पेशाब के कतरे जो उसकी रानों और चूत के आस पास लगे थे उनको उंगली से छूने लगी, वह चिपक रहे थे-“अरे मेरी बहन तेरी चूत से तो तू कह रही थी पानी नहीं छुड़वाया प्रेम ने… यह देख यह क्या है?”
मैं भी करीब आ गया और उसकी चूत में थोड़ी सी उंगली डाल दी। वह गीली थी पेशाब की वजह से, फिर उसको अपनी उंगली और अंगूठे से देखा तो वह पेशाब ना था। वह तो कुछ और था, बिल्कुल दीदी की चूत से निकले पानी की तरह। लेसदार और महक मारता हुआ-“अरे हाँ कामिनी… तेरी चूत खुश्क नहीं है, यह पेशाब के इलावा भी कुछ छोड़ती है…” और यह कहकर भाग खड़ा हुआ। और कामिनी मेरे पीछे। 9
इसी तरह शब-ओ-रोज गुज़रते रहे।
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