गुड़िया
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"यू वाना शो मी इनसाइड?" मेहरा ने घूम कर मेरी तरफ देखा
"यू नो वॉट?आइ वुड राथेर स्टे आउट. आइ कॅन गिव यू दा कीस सो यू कॅन गो इन
आंड लुक" मैने जेब से चाभी निकालते हुए कहा
"अरे यू किडिंग मी? आप मुझे ये घर बेचना चाहती है और खुद मुझे ये कह रही
है के यहाँ भूत रहते हैं? यू बिलीव दट शिट अबौट दा हाउस? आपको सीरियस्ली
लगता है के ये घर हॉंटेड है?" मेहरा हस्ता हुआ बोला
"भूत ओर नो भूत, मैं इस घर के अंदर नही जाना चाहती" मैने चाबी उसकी और बढ़ाई.
मेहरा ने चाबी मेरे हाथ से ली और हस्ते हुए गर्दन ऐसे हिलाई जैसे ताना मार रहा हो.
30 साल से ये घर मेरी प्रॉपर्टी है. मरने से पहले डॅड ये मेरे नाम कर गये
थे पर पिच्छले 30 साल से यहाँ कोई नही रहा, या यूँ कह लीजिए के मैने रहने
नही दिया. मेरे पति ने कई बार कोशिश की इस घर को बेच दिया जाए पर घर की
लोकेशन ऐसी थी के बाहर का कोई खरीदने में इंट्रेस्टेड नही था और आस पास
के लोग तो इस घर के नाम से ही डरते थे, खरीदना तो दूर की बात थी.
मेरी इस घर से डर और नफ़रत की वजह बस इतनी ही थी के इस घर की हर चीज़
मुझे 30 साल पहले की वो रात याद दिलाती है जब मेरे परिवार की खुशियाँ इस
घर की कुर्बानी चढ़ गयी थी. उस रात यहाँ जो कुच्छ हुआ था उसके बाद मेरी
मम्मी ने अपनी बाकी की ज़िंदगी एक मेंटल इन्स्टिटुशन में गुज़ारी और पापा
ने शराब की बॉटल में.
कहते हैं के ब्रिटिश राज के दौरान किसी ब्रिटिश ऑफीसर ने इंग्लेंड वापिस
जाने के बजाय इंडिया में ही रहने का इरादा कर यहाँ पहाड़ों के बीच एक
खूबसूरत वादी में ये घर बनाया था. लोगों की मानी जाए तो ये उस ऑफीसर की
ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती थी. कहते हैं के घर बनने के कुच्छ अरसे बाद
ही एक सुबह उस ऑफीसर और उसके बीवी बच्चों की लाशें घर के बाहर मिली थी.
कोई नही जानता के उन्हें किसने मारा था पर लाशों की हालत देख कर यही
अंदाज़ा लगाया गया के ये किसी जुंगली जानवर का काम था.
घर का दूसरा मालिक भी एक अँग्रेज़ ही था. एक महीना घर में रहने के बाद वो
और उसकी बीवी ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग. बहुत कोशिश की गयी पर
उन दोनो का कोई पता नही चला, लाशें तक हासिल नही हुई. एक बार फिर इल्ज़ाम
जुंगली जानवरों पर डाल दिया गया.
घर का तीसरा मालिक एक आर्मी मेजर था. घर खरीदने के एक महीने बाद वो अपने
कमरे के फन्खे से झूलता हुआ पाया गया. स्यूयिसाइड की कोई वजह सामने नही आ
पाई. कहते हैं के मेजर अपनी ज़िंदगी से बहुत खुश था और अपने आपको मारने
की उसके पास कोई वजह नही थी. उसने ऐसा क्यूँ किया ये कोई नही बता पाया पर
उसके बाद इस घर में रहने की किसी ने कोशिश नही की.
मेरे पिता कभी भूत प्रेत में यकीन नही रखते थे. उनका मानना था भूत, शैतान
जैसे चीज़ें इंसान ने सिर्फ़ इसलिए बनाई हैं ताकि उसका विश्वास भगवान में
बना रहे. घर उन्हें कोडियों के दाम मिल रहा था और अपना एक वाकेशन होम
होने का सपना पूरा करने के लिए उन्होने फ़ौरन खरीद भी लिया. जब मेरी माँ
ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होने हॅस्कर कहा था,
"हाउसस डोंट किल पीपल. पीपल किल पीपल"
और फिर एक साल गर्मियों की छुट्टियाँ मानने हम लोग पहली बार इस घर में
रहने आए. मेरे पापा ने काफ़ी खर्चा करके घर को रेनवेट किया था और उस
वक़्त देखने से लगता ही नही था के ये घर इतना पुराना था.
"साहिब मेरी बात मान लीजिए. वो घर मनहूस है, वहाँ जो रहा ज़िंदा नही बचा.
क्यूँ आप अपने परिवार की ज़िंदगी ख़तरे में डाल रहे हैं?" वो टॅक्सी
ड्राइवर जो हमें घर तक छ्चोड़ने जा रहा था रास्ते में बोला था
"ऐसा कुच्छ नही होता बहादुर" पापा ने हॅस्कर उसकी बात ताल दी "अगर कोई
मरता है तो उसकी वजह होती है एक. बेवजह किसी की जान नही जाती"
"और जो लोग यहाँ मरे हैं उसकी वजह ये घर है साहिब. इस घर में जो कुच्छ भी
बस्ता है, वो नही चाहता के उसके सिवा इस घर में कोई रहे" बहादुर ने हमें
रोकने की एक आखरी कोशिश की थी पर पापा का इरादा नही बदला.
मेरी उमर उस वक़्त 10 साल थी और मेरे भाई की 12. पापा और भाई यहाँ आकर
काफ़ी खुश थे और मम्मी जो पहले घबरा रही थी अब पापा की बातें सुन सुनकर
काफ़ी हद तक अपने आपको संभाल चुकी थी. रही मेरी बात तो एक 10 साल की
बच्ची के लिए यही बहुत होता है के वो अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मानने
जा रही है जहाँ वो लोग बहुत मस्ती करने वाले थे. घर, भूत प्रेत इन सब
बातों से तो मुझे मतलब ही नही था.
और घर में आने के पहले ही दिन वो मुझे स्टोर रूम में पड़ी मिली थी. करीब
2 फ्ट की वो गुड़िया जो उस वक़्त मेरी कमर तक आती थी और देखने से ही बहुत
पुरानी लगती थी. उसकी एक आँख नही थी और एक टाँग टूटी हुई थी.
"वॉट अन अग्ली डॉल" मेरे भाई ने मेरे हाथ में वो गुड़िया देखी तो कहा.
"आइ लाइक इट" मैने उसको उठाकर धूल झाड़ते हुए कहा और लेकर अपने कमरे में
चली गयी. काश मुझे खबर होती के आने वाली कुच्छ रातों में सब कुच्छ किस
तरह से बदल जाने वाला था.
अगले तकरीब एक हफ्ते तक सब कुच्छ नॉर्मल रहा. ऐसा कुच्छ नही हुआ जिसका
मेरी माँ को डर था. वो हर रात सोने से पहले कुच्छ पढ़कर हमारे उपेर फूँक
मारा करती थी. बाद में मुझे पता चला था के वो किसी पीर बाबा की बताई हुई
दुआ था जिसको पढ़कर फूँक मार देने से भूत प्रेत या कोई गैर-इंसानी कोई
नुकसान नही पहुँचा सकती थी. वो पहली कुच्छ रातों में मेरे सोने तक मेरे
कमरे में रहती और रात में भी कई बार आकर देखती के सब ठीक तो था.
उन्हें क्या खबर थी के जिस मुसीबत से मुझे बचाने के लिए वो इतना कुच्छ कर
रही थी, उस मुसीबत को तो मैं अपने अपनी बगल में ही लेकर सोती थी.
उस गुड़िया को देखने से ही मालूम होता था के वो काफ़ी पुरानी थी. जिस
तारह की गुड़िया आज कल बनाई जाती हैं, वो उस तरह की नही थी. बॉल भी किसी
पुरानी ज़माने की फिल्म की हेरोयिन की तरह बनाए हुए थे.
वो कम से कम 2 फुट ऊँची थी आर उस वक़्त बड़ी आसानी से मेरी कमर तक आती
थी. चेहरे पर कई जगह से घिसी हुई थी और उन सब जगहों पर काले रंग के धब्बे
बने हुए थे. राइट हॅंड की 2 अँगुलिया इस तरह से कटी हुई जैसे चाकू से
काटी गयी हों.
प्यार से मैने उसका नाम रखा गुड्डो.
मैने घर में काफ़ी ढूँढने की कोशिश की थी पर उस गुड़िया की एक आँख मुझे
मिली नही. जब पापा ने देखा के मुझे वो गुड़िया कुच्छ ज़्यादा ही पसंद है
तो उन्होने आँख की जगह एक बटन चिपका दिया जो उसकी दूसरी आँख से काफ़ी
मिलता जुलता था. प्लास्टिक की उसकी टाँग काफ़ी बुरी तरह से टूटी हुई थी
पर फिर भी उन्होने उसे भी कोशिश करके काफ़ी हद तक ठीक कर दिया.
एक तरह से कहा जाए तो वो गुड़िया काफ़ी बदसूरत थी जिसे शायद कोई बच्चा
अपने पास ना रखना चाहे पर ना जाने क्यूँ मैने रखा और हर रात बिस्तर में
अपने साथ ही लेकर सोती थी.
हमें आए घर में एक हफ़्ता हो चुका था. उस रात भी हमेशा की तरह मैं बिस्तर
में गुड़िया के साथ लेटी, मेरी माँ ने कुछ पढ़कर मेरे उपेर फूँका और मेरा
माथा चूम कर अपने कमरे में चली गयी.
उनके जाते ही मैने गुड़िया को खींच कर अपने से सटाया और उससे लिपट कर सो गयी.
देर रात एक आहट से मेरी आँख खुली. कह नही सकती के आवाज़ क्या थी पर एक पल
के लिए ऐसा लगा जैसे कोई हसा हो. मैं आधी नींद में थी इसलिए आवाज़ पर
ध्यान ना देकर फिर से सोने के लिए आँखें बंद कर ली और फिर गुड़िया के साथ
लिपट गयी.
दूसरी बार जब मेरी आँख खुली तो मुझे पूरा यकीन था के मैने किसी के बोलने
की आवाज़ सुनी थी. मैं फ़ौरन अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गयी और नाइट बल्ब
की रोशनी में आस पास देखने की कोशिश करने लगी.
कमरा काफ़ी ठंडा हो रखा था और ठंड से मैं काँप रही थी. कुच्छ पल बाद जब
मेरी आँखें हल्की रोशनी की आदि हुई तो मेरा ध्यान कमरे की खिड़की की तरफ
गया जो कि पूरी तरह खुली हुई थी. मुझे अच्छी तरह याद था के जाने से पहले
माँ खिड़की बंद करके गयी थी क्यूंकी पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण रात को
सर्दी काफ़ी बढ़ जाती थी और ठंडी हवा चलने लगती थी जबकि उस वक़्त ना की
सिर्फ़ खिड़की खुली
हुई थी बल्कि परदा भी पूरा एक तरफ खिसकाया हुआ था.
मैं उठकर बिस्तर से उतरी और खिड़की तक पहुँची. वो घर काफ़ी पुराना था
इसलिए पुराने ज़माने के घर की तरह ही उस कमरे की खिड़की भी काफ़ी बड़ी और
थोड़ी ऊँचाई पर थी. हाइट में छ्होटी होने की वजह से मेरे हाथ खिड़की तक
नही पहुँच रहे थे. 2-3 बार मैने उच्छल कर खिड़की तक पहुँचने की कोशिश की
मगर कर ना सकी.
हार कर मैने अपने चारो तरफ देखा. कमरे में बेड के पास एक छ्होटा सा स्टूल
रखा था. मैने अंदाज़ा लगाया तो उसपर खड़े होकर मेरे हाथ बहुत आसानी से
खिड़की तक पहुँच सकते थे. मैं स्टूल उठाने के लिए बिस्तर की तरफ बढ़ी ही
थी तभी मेरा ध्यान अपने बिस्तर की तरफ गया.
सोते वक़्त जो गुड़िया मेरे साथ मेरे बिस्तर पर थी वो अब वहाँ से गायब थी.
मैने एक नज़र नीचे ज़मीन पर डाली के शायद वो सोते हुए मेरे हाथ लगने से
नीचे गिर गयी हो पर गुड़िया का नीचे भी कोई निशान नही था. मैं अपने घुटनो
के बल नीचे बैठी और बिस्तर के नीचे देखने लगी.
गुड़िया तो नही मिली पर तभी मेरे कमरे के दरवाज़े पर हल्की सी आहट हुई
जैसे कोई दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रहा हो. उस घर के दरवाज़े काफ़ी बड़े
और भारी थे, इतने के कभी कभी तो मुझे भी कोई दरवाज़ा खोलने में परेशानी
होती थी. दरवाज़ा कमरे के अंदर की तरफ खुलता था और उस वक़्त आ रही आवाज़
को सुनकर ऐसा लगता था जैसे कोई दरवाज़े के उस पार खड़ा खोलने की कोशिश कर
रहा हो.
एक पल के लिए मेरी जैसे जान ही निकल गयी और पर फिर अगले पल ध्यान आया के
वो शायद मेरी मम्मी थी जो आदत के हिसाब से रात को कई बार मेरे कमरे में
मुझे देखने आती थी. मैं राहत की साँस ली और खिसक कर बिस्तर के नीचे से
निकल ही रही थी के दरवाज़ा एक झटके से पूरा गया.
मैं अब भी बिस्तर के नीचे ही थी जब मैने दरवाज़े की तरफ देखा. दरवाज़ा
पूरा नही खुला था, सिर्फ़ थोड़ा सा जितना के अंदर देखने के लिए काफ़ी हो.
और दरवाज़े के पिछे से एक जाना पहचाना चेहरा कमरे के अंदर झाँक रहा था.
गुड्डो का चेहरा. जैसे वो कमरे के अंदर झाँक कर ये तसल्ली कर रही हो के
मैं अब तक सो रही हूँ.
मुझे अच्छी तरह याद है के वो पूरी रात मैने यूँ ही बिस्तर के नीचे रोते
हुए गुज़ारी थी और अगली सुबह मुझे सर्दी से बुखार चढ़ गया था.
अगले दिन मैने पुछा तो मुझे बताया गया के गुड़िया नीचे के कमरे में सोफे
पर बैठी हुई मिली.
ड्रॉयिंग रूम में टीवी ऑन था जिसके लिए पापा उसके लाख इनकार करने पर भी
मेरे भाई और मम्मी को ही ज़िम्मेदार मान रहे थे.
"रात को 9 बजे के बाद कोई टीवी नही और जाने से पहले टीवी बंद करके जाया
करो" मैने पापा को भाई पर चिल्लाते हुए सुना.
डॉक्टर आया और मुझे दवाई देकर चला गया. बुखार काफ़ी तेज़ था और मैं पूरी
सुबह अपने कमरे में बिस्तर पर ही रही.
"और ये है मेरी प्यार गुड़िया की गुड्डो" कहते हुए पापा गुड़िया हाथ में
लिए मेरे कमरे में दाखिल हुए.
और उस गुड़िया को देखते ही फ़ौरन मेरे दिमाग़ में कल रात की याद ताज़ा हो
गयी के किस तरह वो दरवाज़े के पिछे खड़ी मेरे कमरे में झाँक रही थी. डर
के मारे मेरे मुँह से चीख निकल पड़ी और मैं पास बैठी मम्मी से लिपट गयी.
"अर्रे क्या हुआ?" कहते हुए पापा फ़ौरन हाथ में थामे मेरी तरफ बढ़े और
मैं इस तरह से चीखने लगी जैसे वो कोई साँप हाथ में ला रहे हो और मुँह
मम्मी के पल्लू में च्छूपा लिया.
थोड़ी देर के लिए किसी को कुच्छ समझ नही आया पर मेरा बर्ताव देख कर मम्मी
समझ गयी और पापा को इशारे से गुड़िया दूर करने को कहा.
"क्या हुआ बेटा? आइ थॉट यू लाइक्ड इट" पापा के जाने के बाद उन्होने प्यार
से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा.
"शी ईज़ अलाइव" मैने सुबक्ते हुए कहा "आइ सॉ हर वॉकिंग लास्ट नाइट"और
उसके बाद मैने कल रात की पूरी बात उन्हें बताई. के किस तरह मेरे कमरे की
खिड़की खुली हुई थी, और कैसे वो गुड़िया दरवाज़ा खोल कर कमरे से बाहर
निकल गयी थी.
"टीवी उसने ऑन छ्चोड़ा था मम्मी" मैने उन्हें समझाना चाहा "वो मेरे कमरे
से निकल कर बाहर गयी और टीवी ऑन करके खुद टीवी देख रही थी. और कमरे की
खिड़की भी उसने खोली थी"
मेरी बात सुन कर माँ हस पड़ी.
"ऐसा कैसे हो सकता है बच्चे? वो छ्होटी सी गुड़िया इतनी बड़ी खिड़की कैसे
खोलेगी? उस खिड़की तक तो आपना हाथ भी नही पहुँचेगा"
"तो खिड़की कैसे खुली?" मैने पुछा
"मैं भूल गयी थी खिड़की बंद करना. ऐसे ही अपने कमरे में चली गयी और मेरी
प्यार बच्ची बीमार पड़ गयी. और वो गुड़िया टीवी देख कर क्या करेगी?"
उन्होने हस्ते हुए कहा पर मैं जानती थी के वो मुझे बहलाने के लिए झूठ बोल
रही हैं.
थोड़ी देर बाद पापा मेरे कमरे में आए और उन्होने बताया के वो गुड़िया को
घर से बहुत दूर फेंक कर आ गये हैं.
"अब आपको डरने की कोई ज़रूरत नही"
"वो वापिस आ गयी तो?" मैने फिर भी डरते हुए पुछा
"हम उसे वहाँ दूर खाई में फेंक कर आए हैं" पापा ने कहा "और वो गुड़िया तो
वैसे भी लंगड़ी है, चाहे भी तो इतना दूर नही चल सकती. और फिर आपके कमरा
भी तो 1स्ट्रीट फ्लोर पर है ना. आपके कमरे की सीढ़ियाँ वो लंगड़ी गुड़िया
कैसे चढ़ेगी भला?"
मैं उनकी बात सुनकर हस दी पर फिर भी दिल को जैसे तसल्ली नही हुई.
"मैने आपके साथ सो जाऊं प्लीज़?" मैने उनसे पुछा
"मम्मी यहाँ आपके कमरे में आपके साथ सोएगी" मम्मी ने बेड पर मुझे अपने
करीब खींचते हुए कहा
"और वैसे भी तो आपकी तबीयत खराब है ना बच्चे. हम आपको अकेला कैसे सोने दे
सकते हैं?"
पूरा दिन मेरे बुखार में कोई तब्दीली नही आई जिसका नतीजा ये हुआ के मैं
बिस्तर से उठ ही नही पाई. दवाइयाँ खाए मैं बेड पर पड़ी पूरा दिन सोती
रही.
"आप आज मेरे साथ सोएंगी ना?" मैने डिन्नर टेबल पर माँ से पुछा. शाम होते
होते मेरा बुखार काफ़ी कम हो चुका था इसलिए रात के डिन्नर के लिए पापा
मुझे उठाकर नीचे ही ले आए थे. मुझे डर था के कहीं ये सोच कर के मेरा
बुखार उतर गया है, मम्मी मेरे साथ सोने का अपना इरादा बदल ना दें.
"हां जी बेटा" मान ने जवाब दिया "मम्मी आपके साथ ही सोएगी"
और ऐसा हुआ भी. उस रात जब मैं सोई, तो मेरा सर माँ की बगल में था. मैं
पूरा दिन सोई थी इसलिए माँ के सोने के बाद भी काफ़ी देर तक जागती रही थी.
और जब सोई, तो ऐसी कच्ची नींद के हल्की सी आहट पर भी मेरी आँख खुल जाती
थी. और जैसे ही मेरी आँख खुलती, मैं सबसे पहले मम्मी को देख कर ये तसल्ली
करती के वो अब भी मेरे साथी ही हैं और उसके बाद दूसरी तसल्ली ये करती के
दरवाज़ा खुला हुआ नही है.
"वो लंगड़ी गुइडया भला कैसे आपके कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ेगी?" मुझे पापा की
कही बात याद आती तो थोड़ा हौसला और मिल जाता.
रात यूँ ही आँखों आँखों में और जागने सोने का खेल करते हुए गुज़र रही थी.
ऐसी ही एक आहट पर मेरी आँख फिर खुली. हर बात की तरह इस बार भी सबसे पहले
मैने मम्मी और फिर दरवाज़ा बंद होने की तसल्ली की. फिर मेरा ध्यान उस
आवाज़ की तरफ गया जिसकी वजह से मेरी आँख खुली थी.
आवाज़ दरवाज़े की तरफ से आ रही थी. मैं डर से सहम गयी और मम्मी का हाथ
थाम लिया. आहट एक बार फिर हुई तो मुझे यकीन हो गया के आवाज़ दरवाज़े की
बाहर से आ रही थी.
"एक ......"
आवाज़ फिर आई तो इस बार मुझे साफ सुनाई दी. बड़ी अजीब सी आवाज़ थी जैसे
कोई हांफता हुआ बोल रहा हो.
"दो ......"
आवाज़ के साथ साथ साँस की आवाज़ भी सॉफ सुनाई दे रही थी जैसे कोई बहुत
भाग कर आया हो और बड़ी मुश्किल से चल पा रहा हो.
"तीन ......."
और इसके साथ ही पापा की कही बात भी जैसे एक बार फिर मेरे कान में गूँज उठी.
"हम उसे बहुत दूर फेंक कर आए हैं बेटा ..... और वैसे भी, लंगड़ी गुड़िया
आपके कमरे की सीढ़ियाँ कैसे चढ़ेगी?"
"वो मेरे कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ रही है .... वो वापिस आ गयी है !!!!!"
मेरे दिमाग़ में जैसे बॉम्ब सा फटा.
"चार ......"
और इसके साथ ही मैने बगल में लेटी अपनी माँ के कंधे को पकड़ कर ज़ोर ज़ोर
से हिलाना शुरू कर दिया.
थोड़ी देर बाद ही सुबह की हल्की हल्की रोशनी चारो तरफ फेल गयी पर हमारे
घर में सब लोग जाग चुके थे.
"मैने कहा था ना के यहाँ मत आओ. कुच्छ है इस घर में" बाहर मम्मी पापा के
साथ झगड़ा कर रही थी.
"ओह कम ऑन !!!" पापा ने जवाब दिया "तुम भी क्या बच्चो की बातों में आ
गयी. वो एक छ्होटी बच्ची है और डरी हुई है"
"जो भी है पर क्या तुमने नही देखा के डर के मारे उस बेचारी की हालत कैसी
हो रखी है? बुखार में काँप रही है वो. डर के मारे उसका गला बैठ गया है.
शी कॅन बेर्ली स्पीक"
"डॉक्टर को बुला भेजा है मैने" पापा ने जवाब दिया
"बात डॉक्टर की नही है. आइ डोंट वाना स्टे इन दिस हाउस अनीमोर. लेट्स गो बॅक"
"आंड रूयिंड और वाकेशन?"
"ईज़ युवर वाकेशन वर्त दा लाइफ ऑफ युवर डॉटर?"
इस बात का शायद पापा के पास भी कोई जवाब नही था. कुच्छ पल के लिए खामोशी च्छा गयी.
"ऑल राइट, वी विल हेड बॅक टुमॉरो" उन्होने मम्मी की ज़िद के आगे हथियार
डालते हुए कहा.
मैं बड़ी मुश्किल से अपने बेड से उठी और दरवाज़े तक आई. दरवाज़ा खोलकर
मैने अपने कमरे के बाहर की सीढ़ियाँ गिनी. पूरी 11 सीढ़ियाँ.
रात की आवाज़ की तरफ मैने फिर से ध्यान दिया. सीढ़ियों पर कोई निशान तो
नही थे पर मुझे यकीन था के वो आवाज़ उस गुड़िया के घिसटने की थी. वो
लंगड़ी थी और अपने एक पावं को खींचते हुए सीढ़ियाँ चढ़ रही थी.
मैने फ़ौरन दरवाज़ा बंद किया और आकर बेड पर लेट गयी.
"वी विल हेड बॅक टुमॉरो" पापा की कही बात ने मुझे तसल्ली तो दी थी पर एक
बड़ा सवाल अब भी बाकी था. आज की रात कुच्छ हुआ तो?
"बाइ दा वे, वो गुड़िया है कहाँ?" मम्मी की बाहर से फिर आवाज़ आई
"आइ थ्र्यू इट इन दा बेसमेंट"
वो अब भी घर में है? वो फिर आई तो? वो बेसमेंट से निकल आई तो? पापा ने तो
कहा था के फेंक आए उसे? इसलिए वो कल रात मेरे कमरे में आना चाह रही थी
क्यूंकी वो घर में ही है?
मेरे दिमाग़ ने जैसे हज़ारो सवाल उठा दिए और मुझे पापा पर गुस्सा आने लगा.
उस रात मेरे लिए सोना मुश्किल था. लाख कोशिश करने पर भी नींद नही आ रही
थी. मुझे बस यही डर सता रहा था के वो गुड़िया अब भी घर में ही थी और कहीं
फिर कल रात की तरह मेरे कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ने की कोशिश ना करे. पर फिर
मम्मी को अपनी बगल में लेटी देख कर तसल्ली हो जाती थी के उनके रहते वो
मेरा कुच्छ नही बिगाड़ सकती थी.
डरते डरते कब मेरी आँख लग गयी मुझे पता ही नही चला.
और एक बार फिर आहट हुई तो मेरी आँख खुली. हर बार की तरह इस बार भी मैने
बगल में देखा तो डर के मारे जैसे जान ही निकल गयी. मम्मी मेरी साइड में
नही थी.
"मम्मी कहाँ गयी?" मेरे दिमाग़ ने फ़ौरन सवाल तो उठाया पर कोई जवाब नही
दिया. "शायद अपने कमरे में वापिस चली गयी?"
कमरे के बाहर फिर वैसी ही आवाज़ आ रही थी जैसे की कल रात आई थी. एक
घिसटने जैसी आवाज़ जैसे कोई बड़ी मुश्किल से चल पा रहा हो.
मैं जानती थी के वो आवाज़ क्या थी.
वो एक बार फिर उठ आई थी. बेसमेंट से निकल कर मेरे कमरे की सीढ़ियाँ चढ़
कर मुझ तक पहुँचने की कोशिश कर रही थी.
"नौ" आवाज़ आई
वो 9 सीढ़ियाँ चढ़ चुकी है मतलब 3 कदम और और वो कमरे के अंदर आ जाएगी.
क्या करेगी वो मेरे साथ? क्या मार डालेगी मुझे? मम्मी कहाँ गयी? सवाल फिर
दिमाग़ में उठे और मैने ज़ोर से चीख मारी जो शायद मैने खुद ही नही सुनी.
बुखार से मेरा गला बैठ गया था और आवाज़ ही नही निकल पा रही थी. मैने फिर
कोशिश की पर कामयाभी हाथ नही आई. मेरे गले से सिर्फ़ हवा ही निकली, आवाज़
नही.
"दस ....." आवाज़ फिर आई.
कहते हैं के जान पर आ बने तो एक चींटी भी अपने आपको बचाने की पूरी कोशिश
करती थी मैं तो फिर भी इंसान थी, छ्होटी थी तो क्या. मैं जानती थी के
चीखना चिल्लाना काम नही आएगा. मैने फ़ौरन अपने चारो तरफ देखा के शायद कोई
बचाव करने के लिए चीज़ मिल जाए पर कुच्छ भी ऐसा नज़र
नही आया.
"ग्यारह ....."
और इसके साथ ही मेरे कमरे की दूर नॉब घूमी. मैं जानती थी के वो बाहर खड़ी
दरवाज़ा खोल कर अंदर आने की कोशिश कर रही है.
"वो गुड़िया तो लंगड़ी है ... चलेगी कैसे ... आपके कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ेगी कैसे"
मुझे फिर पापा की कही बात याद आई और इसके साथ ही खुद को बचाने का तरीका
भी दिमाग़ में आ गया.
गुड़िया लंगड़ी है और मुझे पकड़ ही नही सकती. मुझे सिर्फ़ भागना है. भाग
कर मम्मी पापा के कमरे तक पहुँचना है.
मैं फ़ौरन अपने बेड से उठी और तभी उसी वक़्त मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला.
जो हिम्मत मैने थोड़ी देर में बटोरी थी वो दरवाज़ा खुलते देख हवा हो गयी.
भागने का मेरा प्लान फ़ौरन दरवाज़े को फिर से बंद करने के प्लान में बदल
गया. दरवाज़ा थोड़ा सा खुला ही था के मैं फ़ौरन दरवाज़े की ओर लपकी और
झटके से दरवाज़ा फिर बंद कर दिया ताकि वो मेरे कमरे में ना आने पाए.
और इसके साथ ही मुझे 2 आवाज़ें सुनाई दी.
एक तो किसी के गिरने की आवाज़ और दूसरी एक बहुत जानी पहचानी आवाज़.
मेरे भाई की आवाज़.
मैं वहाँ दरवाज़े के पास कितनी देर तक खड़ी रही मैं नही जानती पर वो बहुत
लंबा वक़्त था. मुझे समझ नही आ रहा था के हुआ क्या पर फिर उसके बाद कोई
दूसरी आवाज़ नही आई.
ना किसी के चलने की आवाज़.
ना घिसटने की आवाज़.
ना गिनती की आवाज़.
कुच्छ देर बाद मैने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला और नीचे की तरफ देखा. नीचे
सीढ़ियों के पास मेरा भाई गिरा पड़ा था और उसके आस पास बहुत सारा खून था
जो उसके सर से निकल रहा था.
अगले दिन सुबह घर में हंगामा मचा हुआ था. कभी मम्मी के रोने की आवाज़ आती
तो कभी पापा के चिल्लाने की आवाज़ तो कभी किसी और के आने जाने की आवाज़.
कभी पोलीस, कभी आंब्युलेन्स कभी कोई तो कभी कोई, जाने कितने लोग आए और
कितने गये. हर किसी की ज़ुबान पर एक ही सवाल था,
"ये हुआ कैसे?"
किसी ने मुझसे नही पुछा, किसी को मैने नही बताया. कभी नही. आज तक नही. घर
पर मनहूस होने का लेबल एक बार फिर चिपक गया.
"ऑल राइट" मेहरा घर से बाहर आकर बोला तो मेरा ध्यान टूटा "आइ विल बाइ दा हाउस"
समाप्त
GUDIYA
.
.
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"You wanna show me inside?" Mehra ne ghoom kar meri taraf dekha
"You know wat?I would rather stay out. I can give you the keys so you
can go in and look" Maine jeb se chaabhi nikalte hue kaha
"Are you kidding me? Aap mujhe ye ghar bechna chahti hai aur khud
mujhe ye keh rahi hai ke yahan bhoot rehte hain? You believe that shit
about the house? Aapko seriously lagta hai ke ye ghar haunted hai?"
Mehra hasta hua bola
"Bhoot or no bhoot, main is ghar ke andar nahi jana chahti" Maine
chaabi uski aur badhayi.
Mehra ne chaabi mere haath se li aur haste hue gardan aise hilayi
jaise tana maar raha ho.
30 saal se ye ghar meri property hai. Marne se pehle Dad ye mere naam
kar gaye the par pichhle 30 saal se yahan koi nahi raha, ya yun keh
lijiye ke maine rehne nahi diya. Mere pati ne kai baar koshish ki is
ghar ko bech diya jaaye par ghar ki location aisi thi ke bahar ka koi
kharidne mein interested nahi tha aur aas paas ke log toh is ghar ke
naam se hi darte the, kharidna toh door ki baat thi.
Meri is ghar se darr aur nafrat ki vajah bas itni hi thi ke is ghar ki
har cheez mujhe 30 saal pehle ki vo raat yaad dilati hai jab mere
pariwar ki khushiyan is ghar ki kurbani chadh gayi thi. Us raat yahan
jo kuchh hua tha uske baad meri Mummy ne apni baaki ki zindagi ek
mental instituion mein guzari aur papa ne sharab ki bottle mein.
Kehte hain ke British Raj ke dauran kisi British officer ne England
vaapis jaane ke bajay India mein hi rehne ka irada kar yahan pahadon
ke beech ek khoobsurat wadi mein ye ghar banaya tha. Logon ki maani
jaaye toh ye us officer ki zindagi ki sabse badi galti thi. Kehte hain
ke ghar banne ke kuchh arse baad hi ek subah us officer aur uske biwi
bachchon ki laashen ghar ke bahar mili thi. Koi nahi janta ke unhen
kisne mara tha par laashon ki halat dekh kar yahi andaza lagaya gaya
ke ye kisi jungli janwar ka kaam tha.
Ghar ka doosra maalik bhi ek angrez hi tha. Ek mahina ghar mein rehne
ke baad vo aur uski biwi aise gayab hue jaise gadhe ke sar se seeng.
Bahut koshish ki gayi par un dono ka koi pata nahi chala, laashen tak
haasil nahi hui. Ek baar phir ilzaam jungli janwaron par daal diya
gaya.
Ghar ke teesra maalik ek Army major tha. Ghar kharidne ke ek mahine
baad vo apne kamre ke phanke se jhoolta hua paya gaya. Suicide ki koi
vajah saamne nahi aa paayi. Kehte hain ke Major apni zindagi se bahut
khush tha aur apne aapko maarne ki uske paas koi vajah nahi thi. Usne
aisa kyun kiya ye koi nahi bata paya par uske baad is ghar mein rehne
ki kisi ne koshish nahi ki.
Mere pita kabhi bhoot pret mein yakeen nahi rakhte the. Unka maanna
tha bhoot, shaitan jaise cheezen insaan ne sirf isliye banayi hain
taaki uska vishwas bhagwan mein bana rahe. Ghar unhen kodiyon ke daam
mil raha tha aur apna ek vacation home hone ka sapna poora karne ke
liye unhone fauran kharid bhi liya. Jab meri maan ne unhen rokne ki
koshish ki toh unhone haskar kaha tha,
"Houses dont kill people. People kill people"
Aur phir ek saal garmiyon ki chhuttiyan manane ham log pehli baar is
ghar mein rehne aaye. Mere papa ne kaafi kharcha karke ghar ko
renovate kiya tha aur us waqt dekhne se lagta hi nahi tha ke ye ghar
itna purana tha.
"Saahib meri baat maan lijiye. Vo ghar manhoos hai, vahan jo raha
zinda nahi bacha. Kyun aap apne pariwar ki zindagi khatre mein daal
rahe hain?" Vo taxi driver jo hamen ghar tak chhodne ja raha tha raste
mein bola tha
"Aisa kuchh nahi hota bahadur" Papa ne haskar uski baat taal di "Agar
koi marta hai toh uski vajah hoti hai ek. Bevajah kisi ki jaan nahi
jaati"
"Aur jo log yahan mare hain uski vajah ye ghar hai saahib. Is ghar
mein jo kuchh bhi basta hai, vo nahi chahta ke uske siwa is ghar mein
koi rahe" Bahadur ne hamen rokne ki ek aakhri koshish ki thi par Papa
ka irada nahi badla.
Meri umar us waqt 10 saal thi aur mere bhai ki 12. Papa aur Bhai yahan
aakar kaafi khush the aur Mummy jo pehle ghabra rahi thi ab Papa ki
baaten sun sunkar kaafi hadh tak apne aapko sambhal chuki thi. Rahi
meri baat toh ek 10 saal ki bachchi ke liye yahi bahut hota hai ke vo
apne pariwar ke saath chhuttiyan manane ja rahi hai jahan vo log bahut
masti karne wale the. Ghar, bhoot pret in sab baaton se toh mujhe
matlab hi nahi tha.
Aur ghar mein aane ke pehle hi din vo mujhe store room mein padi mili
thi. Kareeb 2 ft ki vo gudiya jo us waqt meri kamar tak aati thi aur
dekhne se hi bahut purani lagti thi. Uski ek aankh nahi thi aur ek
taang tooti hui thi.
"What an ugly doll" Mere bhai ne mere haath mein vo gudiya dekhi toh kaha.
"I like it" Maine usko uthakar dhool jhaadte hue kaha aur lekar apne
kamre mein chali gayi. Kaash mujhe khabar hoti ke aane wali kuchh
raaton mein sab kuchh kis tarah se badal jaane wala tha.
Agle takreeb ek hafte tak sab kuchh normal raha. Aisa kuchh nahi hua
jiska meri maan ko darr tha. Vo har raat sone se pehle kuchh padhkar
hamare uper phoonk maara karti thi. Baad mein mujhe pata chala tha ke
vo kisi peer baba ki batayi hui dua tha jisko padhkar phoonk maar dene
se bhoot pret ya koi gair-insani koi nuksaan nahi pahuncha sakti thi.
Vo pehli kuchh raaton mein mere sone tak mere kamre mein rehti aur
raat mein bhi kai baaar aakar dekhti ke sab theek toh tha.
Unhein kya khabar thi ke jis museebat se mujhe bachane ke liye vo itna
kuchh kar rahi thi, us museebat ko toh main apne apni bagal mein hi
lekar soti thi.
Us gudiya ko dekhne se hi maalum hota tha ke vo kaafi purani thi. Jis
tarh ki gudiya aaj kal banayi jaati hain, vo us tarah ki nahi thi.
Baal bhi kisi purani zamane ki film ki heroine ki tarah banaye hue
the.
Vo kam se kam 2 foot oonchi thi ar us waqt badi aasani se meri kamar
tak aati thi. Chehre par kai jagah se ghisi hui thi aur un sab jagahon
par kaale rang ke dhabbe bane hue the. Right hand ki 2 anguliyan is
tarah se kati hui jaise chaaku se kaati gayi hon.
Pyaar se maine uska naam rakha Guddo.
Maine ghar mein kaafi dhoondhne ki koshish ki thi par us gudiya ki ek
aankh mujhe mili nahi. Jab Papa ne dekha ke mujhe vo gudiya kuchh
zyada hi pasand hai toh unhone aankh ki jagah ek button chipka diya jo
uski doosri aankh se kaafi milta julta tha. Plastic ki uski taang
kaafi buri tarah se tooti hui thi par phir bhi unhone use bhi koshish
karke kaafi hadh tak theek kar diya.
Ek tarah se kaha jaaye toh vo gudiya kaafi badsurat thi jise shayad
koi bachcha apne paas na rakhna chahe par na jaane kyun maine rakha
aur har raat bistar mein apne saath hi lekar soti thi.
Hamein aaye ghar mein ek hafta ho chuka tha. Us raat bhi hamesha ki
tarah main bistar mein gudiya ke saath leti, meri maan ne kuch padhkar
mere uper phoonka aur mera matha choom kar apne kamre mein chali gayi.
Unke jaate hi maine gudiya ko khinch kar apne se sataya aur usse lipat
kar so gayi.
Der raat ek aahat se meri aankh khuli. Keh nahi sakti ke aawaz kya thi
par ek pal ke liye aisa laga jaise koi hasa ho. Main aadhi neend mein
thi isliye aawaz par dhyaan na dekar phir se sone ke liye aankhen band
kar li aur phir gudiya ke saath lipat gayi.
Doosri baar jab meri aankh khuli toh mujhe poora yakeen tha ke maine
kisi ke bolne ki aawaz suni thi. Main fauran apne bistar par uthkar
beth gayi aur night bulb ki roshni mein aas paas dekhne ki koshish
karne lagi.
Kamra kaafi thanda ho rakha tha aur thand se main kaanp rahi thi.
Kuchh pal baad jab meri aankhen halki roshni ki aadi hui toh mera
dhyaan kamre ki khidki ki taraf gaya jo ki poori tarah khuli hui thi.
Mujhe achhi tarah yaad tha ke jaane se pehle maan khidki band karke
gayi thi kyunki pahadi ilaka hone ke karan raat ko sardi kaafi badh
jaati thi aur thandi hawa chalne lagti thi jabki us waqt na ki sirf
khidki khuli
hui thi balki parda bhi poora ek taraf khiskaya hua tha.
Main uthkar bistar se utri aur khidki tak pahunchi. Vo ghar kaafi
purana tha isliye purane zamane ke ghar ki tarah hi us kamre ki khidki
bhi kaafi badi aur thodi oonchai par thi. Height mein chhoti hone ki
vajah se mere haath khidki tak nahi pahunch rahe the. 2-3 baar maine
uchhal kar khidki tak pahunchne ki koshish ki magar kar na saki.
Haar kar maine apne chaaro taraf dekha. Kamre mein bed ke paas ek
chhota sa stool rakha tha. Maine andaza lagaya toh uspar khade hokar
mere haath bahut aasani se khidki tak pahunch sakte the. Main stool
uthane ke liye bistar ki taraf badhi hi thi tabhi mera dhyaan apne
bistar ki taraf gaya.
Sote waqt jo gudiya mere saath mere bistar par thi vo ab vahan se gayab thi.
Maine ek nazar neeche zameen par daali ke shayad vo sote hue mere
haath lagne se neeche gir gayi ho par gudiya ka neeche bhi koi nishan
nahi tha. Main apne ghutno ke bal neeche bethi aur bistar ke neeche
dekhne lagi.
Gudiya toh nahi mili par tabhi mere kamre ke darwaze par halki si
aahat hui jaise koi darwaza kholne ki koshish kar raha ho. Us ghar ke
darwaze kaafi bade aur bhaari thi, itne ke kabhi kabhi toh mujhe bhi
koi darwaza kholne mein pareshani hoti thi. Darwaza kamre ke andar ki
taraf khulta tha aur Us waqt aa rahi aawaz ko sunkar aisa lagta tha
jaise koi darwaze ke us paar khada kholne ki koshish kar raha ho.
Ek pal ke liye meri jaise jaan hi nikal gayi aur par phir agle pal
dhyaan aaya ke vo shayad meri Mummy thi jo aadat ke hisab se raat ko
kai baar mere kamre mein mujhe dekhne aati thi. Main rahat ki saans li
aur khisak kar bistar ke neeche se nikal hi rahi thi ke darwaza ek
jhatke se poora gaya.
Main ab bhi bistar ke neeche hi thi jab maine darwaze ki taraf dekha.
Darwaza poora nahi khula tha, sirf thoda sa jitna ke andar dekhne ke
liye kaafi ho. Aur darwaze ke pichhe se ek jana pehchana chehra kamre
ke andar jhaank raha tha. Guddo ko chehra. Jaise vo kamre ke andar
jhaank kar ye tasalli kar rahi ho ke main ab tak so rahi hoon.
Mujhe achhi tarah yaad hai ke vo poori raat maine yun hi bistar ke
neeche rote hue guzari thi aur agli subah mujhe sardi se bukhar chadh
gaya tha.
Agle din maine puchha toh mujhe bataya gaya ke gudiya neeche ke kamre
mein sofe par bethi hui mili.
Drawing room mein TV on tha jiske liye Papa uske lakh inkar karne par
bhi mere bhai aur Mummy ko hi zimmedar maan rahe the.
"Raat ko 9 baje ke baad koi TV nahi aur jaane se pehle TV band karke
jaya karo" Maine Papa ko Bhai par chillate hue suna.
Doctor aaya aur mujhe dawai dekar chala gaya. Bukhar kaafi tez tha aur
main poori subah apne kamre mein bistar par hi rahi.
"Aur ye hai meri pyaar gudiya ki guddo" Kehte hue Papa gudiya haath
mein liye mere kamre mein daakhil hui.
Aur us gudiya ko dekhte hi fauran mere dimag mein kal raat ki yaad
taza ho gayi ke kis tarah vo darwaze ke pichhe khadi mere kamre mein
jhaank rahi thi. Darr ke maare mere munh se cheekh nikal padi aur main
paas bethi Mummy se lipat gayi.
"Arrey kya hua?" Kehte hue Papa fauran haath mein thaame meri taraf
badhe aur main is tarah se cheekhne lagi jaise vo koi saanp haath mein
la rahe ho aur munh mummy ke pallu mein chhupa liya.
Thodi der ke liye kisi ko kuchh samajh nahi aaya par mera bartav dekh
kar Mummy samajh gayi aur papa ko ishare se gudiya door karne ko kaha.
"Kya hua beta? I thought you liked it" Papa ke jaane ke baad unhone
pyaar se mere sar par haath pherte hue kaha.
"She is alive" Maine subakte hue kaha "I saw her walking last
night"Aur uske baad maine kal raat ki poori baat unhein batayi. Ke kis
tarah mere kamre ki khidki khuli hui thi, aur kaise vo gudiya darwaza
khol kar kamre se bahar nikal gayi thi.
"TV usne on chhoda tha mummy" Maine unhein samjhana chaha "Vo mere
kamre se nikal kar bahar gayi aur TV on karke khud TV dekh rahi thi.
Aur kamre ki khidki bhi usne kholi thi"
Meri baat sun kar maan has padi.
"Aisa kaise ho sakta hai bachche? Vo chhoti si gudiya itni badi khidki
kaise kholegi? Us khidki tak toh aapna haath bhi nahi pahunchega"
"Toh khidki kaise khuli?" Maine puchha
"Main bhool gayi thi khidki band karna. Aise hi apne kamre mein chali
gayi aur meri pyaar bachchi bimar pad gayi. Aur vo Gudiya TV dekh kar
kya karegi?" Unhone haste hue kaha par main jaanti thi ke vo mujhe
behlane ke liye jhooth bol rahi hain.
Thodi der baad Papa mere kamre mein aaye aur unhone bataya ke vo
Gudiya ko ghar se bahut door phenk kar aa gaye hain.
"Ab aapko darne ki koi zaroorat nahi"
"Vo vaapis aa gayi toh?" Maine phir bhi darte hue puchha
"Ham use vahan door khaayi mein phenk kar aaye hain" Papa ne kaha "Aur
vo gudiya toh vaise bhi langdi hai, Chahe bhi toh itna door nahi chal
sakti. Aur phir aapke kamra bhi toh 1st floor par hai na. Aapke kamre
ki sidhiyan vo langdi gudiya kaise chadhegi bhala?"
Main unki baat sunkar has di par phir bhi dil ko jaise tasalli nahi hui.
"Maine aapke saath so jaoon please?" Maine unse puchha
"Mummy yahan aapke kamre mein aapke saath soyegi" Mummy ne bed par
mujhe apne kareeb khinchte hue kaha
"Aur vaise bhi toh aapki tabiat kharab hai na bachche. Ham aapko akela
kaise sone de sakte hain?"
Poora din mere bukhar mein koi tabdeeli nahi aayi jiska nateeja ye hua
ke main bistar se uth hi nahi paayi. Dawaiyan khaaye main bed par padi
poora din soti rahi.
"Aap aaj mere saath soyengi na?" Maine dinner table par maan se
puchha. Shaam hote hote mera bukhar kaafi kam ho chuka tha isliye raat
ke dinner ke liye Papa mujhe uthakar niche hi le aaye the. Mujhe darr
tha ke kahin ye soch kar ke mera bukhar utar gaya hai, Mummy mere
saath sone ka apna irada badal na den.
"Haan ji beta" Maan ne jawab diya "Mummy aapke saath hi soyegi"
Aur aisa hua bhi. Us raat jab main soyi, toh mera sar maan ki bagal
mein tha. Main poora din soyi thi isliye maan ke sone ke baad bhi
kaafi der tak jaagti rahi thi. Aur jab soyi, toh aisi kachchi neend ke
halki si aahat par bhi meri aankh khul jaati thi. Aur jaise hi meri
aankh khulti, main sabse pehle Mummy ko dekh kar ye tasalli karti ke
vo ab bhi mere saathi hi hain aur uske baad doosri tasalli ye karti ke
darwaza khula hua nahi hai.
"Vo langdi guidya bhala kaise aapke kamre ki sidhiyan chadhegi?" Mujhe
papa ki kahi baat yaad aati toh thoda hausla aur mil jata.
Raat yun hi aankhon aankhon mein aur jaagne sone ka khel karte hue
guzar rahi thi.
Aisi hi ek aahat par meri aankh phir khuli. Har baat ki tarah is baar
bhi sabse pehle maine mummy aur phir darwaza band hone ki tasalli ki.
Phir mera dhyaan us aawaz ki taraf gaya jiski vajah se meri aankh
khuli thi.
Aawaz darwaze ki taraf se aa rahi thi. Main darr se seham gayi aur
Mummy ka haath thaam liya. Aahat ek baar phir hui toh mujhe yakeen ho
gaya ke aawaz darwaze ki bahar se aa rahi thi.
"Ek ......"
Aawaz phir aayi toh is baar mujhe saaf sunai di. Badi ajeeb si aawaz
thi jaise koi haanfta hua bol raha ho.
"Do ......"
Aawaz ke saath saath saans ki aawaz bhi saaf sunai de rahi thi jaise
koi bahut bhaag kar aaya ho aur badi mushkil se chal pa raha ho.
"Teen ......."
Aur iske saath hi Papa ki kahi baat bhi jaise ek baar phir mere kaan
mein goonj uthi.
"Ham use bahut door phenk kar aaye hain beta ..... aur vaise bhi,
langdi gudiya aapke kamre ki seedhiyan kaise chadhegi?"
"vo MERE KAMRE KI SEEDHIYAN CHADH RAHI HAI .... VO VAAPIS AA GAYI HAI
!!!!!" Mere dimag mein jaise bomb sa phata.
"Chaar ......"
Aur iske saaath hi maine bagal mein leti apni maan ke kandhe ko pakad
kar zor zor se hilana shuru kar diya.
Thodi der baad hi subah ki halki halki roshni chaaro taraf phel gayi
par hamare ghar mein sab log jaag chuke the.
"Maine kaha tha na ke yahan mat aao. Kuchh hai is ghar mein" Bahar
Mummy Papa ke saath jhagda kar rahi thi.
"Oh come on !!!" Papa ne jawab diya "Tum bhi kya bachcho ki baaton
mein aa gayi. Vo ek chhoti bachchi hai aur dari hui hai"
"Jo bhi hai par kya tumne nahi dekha ke darr ke maare us bechari ki
halat kaisi ho rakhi hai? Bukhar mein kaanp rahi hai vo. Darr ke maare
uska gala beth gaya hai. She can barely speak"
"Doctor ko bula bheja hai maine" Papa ne jawab diya
"Baat Doctor ki nahi hai. I dont wanna stay in this house anymore. Lets go back"
"And ruined our vacation?"
"Is your vacation worth the life of your daughter?"
Is baat ka shayad Papa ke paas bhi koi jawab nahi tha. Kuchh pal ke
liye khamoshi chha gayi.
"All right, we will head back tomorrow" Unhone Mummy ki zid ke aage
hathyaar daalte hue kaha.
Main badi mushki se apne bed se uthi aur darwaze tak aayi. Darwaza
kholkar maine apne kamre ke bahar ki seedhiyan gini. Poori 11
seedhiyan.
Raat ki aawaz ki taraf maine phir se dhyaan diya. Seedhiyon par koi
nishan toh nahi the par mujhe yakeen tha ke vo aawaz us gudiya ke
ghisatne ki thi. Vo langdi thi aur apne ek paon ko khinchte hue
seedhiyan chadh rahi thi.
Maine fauran darwaza band kiya aur aakar bed par let gayi.
"We will head back tomorrow" Papa ki kahi baat ne mujhe tasalli toh di
thi par ek bada sawal ab bhi baaki tha. Aaj ki raat kuchh hua toh?
"By the way, vo gudiya hai kahan?" Mummy ki bahar se phir aawaz aayi
"I threw it in the basement"
Vo ab bhi ghar mein hai? Vo phir aayi toh? Vo basement se nikal aayi
toh? Papa ne toh kaha tha ke phenk aaye use? Isliye vo kal raat mere
kamre mein aana chah rahi thi kyunki vo ghar mein hi hai?
Mere dimag ne jaise hazaro sawal utha diye aur mujhe Papa par gussa aane laga.
Us raat mere liye sona mushil tha. Lakh koshish karne par bhi neend
nahi aa rahi thi. Mujhe bas yahi darr sata raha tha ke vo gudiya ab
bhi ghar mein hi thi aur kahin phir kal raat ki tarah mere kamre ki
sidhiyan chadhne ki koshish na kare. Par phir mummy ko apni bagal mein
leti dekh kar tasalli ho jaati thi ke unke rehte vo mera kuchh nahi
bigad sakti thi.
Darte darte kab meri aankh lag gayi mujhe pata hi nahi chala.
Aur ek baar phir aahat hui toh meri aankh khuli. Har baar ki tarah is
baar bhi maine bagal mein dekha toh darr ke maare jaise jaan hi nikal
gayi. Mummy meri side mein nahi thi.
"Mummy kahan gayi?" Mere dimag ne fauran sawal toh uthaya par koi
jawab nahi diya. "Shayad apne kamre mein vaapis chali gayi?"
Kamre ke bahar phir vaisi hi aawaz aa rahi thi jaise ki kal raat aayi
thi. Ek ghisatne jaisi aawaz jaise koi badi mushkil se chal pa raha
ho.
Main jaanti thi ke vo aawaz kya thi.
Vo ek baar phir uth aayi thi. Basement se nikal kar mere kamre ki
seedhiyan chadh kar mujh tak pahunchne ki koshish kar rahi thi.
"Nau" Aawaz aayi
Vo 9 seedhiyan chadh chuki hai matlab 3 kadam aur aur vo kamre ke
andar aa jaayegi.
Kya karegi vo mere saath? Kya maar daalegi mujhe? Mummy kahan gayi?
Sawal phir dimag mein uthe aur maine zor se cheekh maari jo shayad
maine khud hi nahi suni. Bukhar se mera gala beth gaya tha aur aawaz
hi nahi nikal pa rahi thi. Maine phir koshish ki par kamyabhi haath
nahi aayi. Mere gale se sirf hawa hi nikli, aawaz nahi.
"Dus ....." Aawaz phir aayi.
Kehte hain ke jaan par aa bane toh ek cheenti bhi apne aapko bachane
ki poori koshish karti thi main toh phir bhi insaan thi, chhoti thi
toh kya. Main jaanti thi ke cheekhna chillana kaam nahi aayega. Maine
fauran apne chaaro taraf dekha ke shayad koi bachav karne ke liye
cheez mil jaaye par kuchh bhi aisa nazar
nahi aaya.
"Gyarah ....."
Aur iske saath hi mere kamre ki door knob ghoomi. Main jaanti thi ke
vo bahar khadi darwaza khol kar andar aane ki koshish kar rahi hai.
"Vo gudiya toh landgi hai ... chalegi kaise ... aapke kamre ki
seedhiyan chadhegi kaise"
Mujhe phir Papa ki kahi baat yaad aayi aur iske saath hi khud ko
bachane ka tarika bhi dimag mein aa gaya.
Gudiya langdi hai aur mujhe pakad hi nahi sakti. Mujhe sirf bhagna
hai. Bhaag kar Mummy Papa ke kamre tak pahunchna hai.
Main fauran apne bed se uthi aur tabhi usi waqt mere kamre ka darwaza khula.
Jo himmat maine thodi der mein batori thi vo darwaza khulte dekh hawa
ho gayi. Bhaagne ka mera plan fauran darwaze ko phir se band karne ke
plan mein badal gaya. Darwaza thoda sa khula hi tha ke main fauran
darwaze ki aur lapki aur jhatke se darwaza phir band kar diya taaki vo
mere kamre mein na aane paaye.
Aur iske saath hi mujhe 2 aawazen sunai di.
Ek toh kisi ke girne ki aawaz aur doosri ek bahut jaani pehchani aawaz.
Mere Bhai ki aawaz.
Main vahan darwaze ke paas kitni der tak khadi rahi main nahi jaanti
par vo bahut lamba waqt tha. Mujhe samajh nahi aa raha tha ke hua kya
par phir uske baad koi doosri aawaz nahi aayi.
Na kisi ke chalne ki aawaz.
Na ghisatne ki aawaz.
Na ginti ki aawaz.
Kuchh der baad maine himmat karke darwaza khola aur neeche ki taraf
dekha. Neeche sidhiyon ke paas mera bhai gira pada tha aur uske aas
paas bahut sara khoon tha jo uske sar se nikal raha tha.
Agle din subah ghar mein hungama macha hua tha. Kabhi Mummy ke rone ki
aawaz aati toh kabhi Papa ke chillane ki aawaz toh kabhi kisi aur ke
aane jaane ki aawaz. Kabhi police, kabhi ambulance kabhi koi toh kabhi
koi, jaane kitne log aaye aur kitne gaye. Har kisi ki zubaan par ek hi
sawal tha,
"Ye hua kaise?"
Kisi ne mujhse nahi puchha, kisi ko maine nahi bataya. Kabhi nahi. Aaj
tak nahi. Ghar par manhoos hone ka label ek baar phir chipak gaya.
"All right" Mehra ghar se bahar aakar bola toh mera dhyaan toota "I
will buy the house"
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