Monday, April 8, 2013

raj sharma stories लौड़ा साला गरम गचक्का

 

raj sharma stories


 लौड़ा साला गरम गचक्का

रात के तकरीबन 12 बज रहे थे।
एक मारूति फोर्ड आइकॉन सूनसान हाईवे पर तेजी से भागी जा रही थी।
कार के भीतर दो प्राणी मौजूद थे!
एक नर, दूसरी मादा।
"मन, इस बार पता नहीं क्यों मुझे काफी घबराहट हो रही है..."- मादा की आवाज।
"क्या हम पहली बार ये सब करने जा रहे हैं!.....हर बार की तरह इस बार भी काफी मजा आयेगा.....ज्यादा मत सोचो"- नर की आवाज।
"हम लोग शहर से काफी दूर आ चुके हैं......अभी और कितना आगे है?..."
"बस पहुचने ही वाले हैं....."
"उम्र कितनी होगी उसकी?...."
"अधेड़.....अकेला और तन्हा...."
"तुमने उसे क्या बताया है?..."
"वही जो हर बार बताता हूँ.......बच्चा नही ठहरता...मैं ठीक से कर नहीं पाता....डाक्टर को दिखाया....कोई फायदा नहीं हुआ...वगैरह-वगैरह..."
"उसने क्या कहा?....."
"यही की अपनी पत्नी को लेकर आओ तभी इलाज हो पायेगा....."
"पर इतनी रात को क्यों?...."
"क्योंकि दिन में कोई न कोई आता रहता है......"
"तुम्हें कैसे पता?...."
"ऑफिस से लौटते वक्त अक्सर कोई न कोई दिख जाता है...."
"क्या तुम्हें पहचानता है?...."
"अगर वो जानता होता तो मैं कभी रिस्क नहीं लेता..."
"पता नहीं क्यों.....मेरा दिल बहुत तेजी से धड़क रहा है.."
"इसी रोमांच के लिये ही तो हम ये सब करते हैं...."
एकाएक,
एक कच्चा रास्ता दांयी तरफ जाता हुआ दिखाई पड़ा-
"क्या यही है?...."- मादा  ने पूछा।
"हाँ...."
और कार उस कच्चे रास्ते पर हिचकोलें खाती हुई बढ़ चली।
ये आँवले का एक सघन बाग था।
हर तरफ चाँदनी मिश्रित अंधकार और सन्नाटा पाँव पसारे खर्राटे ले रहा था।
लगभग पाँच मिनट पश्चात-
"यही वाला घर है....."- नर की आवाज।
सामने दाँयी तरफ आँवले के बाग के भीतर एक छोटा सा झोपड़ीनुमा मकान बना हुआ था।
एकलौता लकड़ी का दरवाजा भीतर से बंद था लेकिन खिड़की के पट खुले होने से, भीतर से लालटेन की क्षीर्ण रोशनी बाहर तक लहरा रही थी।
प्रकाश की किरणें काँप रही थी।
स्पष्ट था, हवा धीरे-धीरे सरसरा रही थी।
कार को कच्चे रास्ते पर छोड़ कर वो दोनों प्राणी बाहर निकले।
नर के हाथों मे टार्च थी और मादा के कंधे पर एक लेडीज बैग झूल रहा था।
"क्या वो जाग रहा होगा?....."- मादा की हल्की आवाज।
"पता नहीं.....मध्य रात्रि है.......शायद सो चुका होगा...."- नर।
दोनों झोपड़ी तक पहुँचे।
'खौSSSS....खौSSSS...'
अंदर से किसी प्राणी के खाँसने की आवाज गूँजी।
"शायद जाग रहा है......."- नर की फुसफुसाती आवाज।
'ठक्-ठक्'
नर ने हाथ बढ़ा कर साँकल खटखटाया।
प्रतिउत्तर में-
एक गहरा मौन।
पहले से भी अधिक गहरा।
मानों भीतर मौजूद प्राणी ने अपनी साँस तक रोक ली हो।
'ठक्-ठक्'
नर ने फिर से क्रिया की पुनरावृत्ति की।
दो क्षण मौन के पश्चात्-
"कौन?..."- किसी नर की काफी भारी आवाज।
"मैं हूँ.........."- नर की थोड़ा ऊँची आवाज।
भीतर मौजूद प्राणी ने शायद आवाज पहचान ली थी।
"इतनी रात को...."- भीतर से आवाज आई।
"दरअसल  रास्ते मे गाड़ी खराब हो गई थी....."
भीतर से सरसराहट की आवाज गूँजी।
कुछ क्षण पश्चात् दरवाजा हल्की चिड़चिड़ाहट की आवाज के साथ खुला।
एक हस्ट-पुस्ट अधेड़ नर दरवाजे पर प्रकट हुआ।
जिसके एक हाथ में लालटेन और दूसरे हाथ में लाठी थी।
लालटेन की रोशनी में उसने दोनों को बहुत गौर से देखा।
मादा पर उसकी निगाहें कुछ ज्यादा देर भटकती रही।
कारण?
उसकी बेश-भूषा।
गहरे नीले रंग की टाँगों से चिपकी हुई जीन्स, उसके ऊपर काले-लाल रंग का एक टॉप, जो दो पतली-पतली डोरियों से, उसके सुकुमार कंधो से लिपटी हुई थी।
पूरा पेट लगभग खुला हुआ था। गोरा, मखमली, समतल और चिकना।
थी तो चाँदनी रात लेकिन आँवले का बाग इतना सघन था की रोशनी छनकर धरातल पर पहुँच रही थी।
"भीतर आ जाईये....."- अधेड़ नर ने दोनों से कहा।।
दोनों भीतर दाखिल हुए।
अंदर एक बड़ी सी चारपाई पर, एक गद्दा बिछा हुआ था। जिस पर बिछी चादर काफी अस्त-व्यस्त थी।
अधेड़ नर ने चादर को व्यवस्थित किया।
लालटेन को एक खूँटी पर टाँग दिया।
"आप लोग बैठिये मैं जरा पानी लेकर आता हूँ......"
"आप परेशान न हो........."
लेकिन अधेड़ नर नहीं माना और टार्च लेकर बाहर निकल गया।
"मन.....ये तो काफी हट्टा-कट्टा है......"- मादा की आवाज।
"तो क्या हुआ......कौन सा ये हमें जानता है.....मजा लेकर निकल चलेंगें"- नर की आवाज।
"ड....डर लग रहा है....."- मादा की सहमी हुई आवाज।
"कुछ नहीं होगा.....मैं हूँ न.."- नर की दिलासा भरी आवाज।
"अगर उसने जबरजस्ती डाल दिया तो....."- मादा के  स्वर में डर और आशंका का पुट था।
"उससे पहले ही मैं आ जाऊँगा.....लेकिन उसे ललचवाने और खुद को उत्तेजित करने में कोई कसर मत छोड़ना....उसके बाद घर चलकर हम लोग जमकर सेक्स करेंगें..."
ठीक तभी कदमों की आहट सुनकर दोंनों खामोश हो गयें।
एक बाल्टी में पानी लेकर वो अधेड़ नर प्रकट हुआ।
दो साफ-सुथरे गिलास में पानी निकाल कर उसने दोंनों के सामने पेश किया।
पानी की कुछ चुस्कियाँ दोंनों ने ली और फिर-
"ये हैं मेरी पत्नी....तनू.."- नर ने अपने बगल बैठी मादा का परिचय दिया जिसका नाम तनू हो सकता था....शायद।
"आप लोगों को थोड़ा पहले आना चाहिये था.....अमूमन इस वक्त मैं किसी को नहीं देखता.....पर चूंकि आप लोगों की कार खराब हो गई थी इसलिये...."
इतना बोल कर अधेड़ ने एक झोले से कोई पत्री निकाली-
" जन्म कुण्डली तो आप लाये ही होगें...."
"जी....."- तनू ने जल्दी से अपने लेडीज पर्स से एक कागज निकाल कर नर की तरफ बढ़ाया।
फिर वह अधेड़ नर अपने कार्य में संलग्न हो गया।
तभी-
"बहुत भूख लगी है.....कार में कुछ नाश्ता रखा है.....मै करके आता हूँ...."- इतना बोलकर वह नर बाहर निकल गया।
कमरे में अब बस दो ही प्राणी थे।
एक अधेड़ नर और दूसरी तनू नाम की सुन्दर मादा।
लालटेन की पीली रोशनी अभी भी धीरे-धीरे काँप रही थी।
हवा के कुछ नन्हें झोंके खिड़की से भीतर आकर कमरे की दिवालों के सहारे लालटेन की लौ के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे।
कमरे में एक अजीब सा मौन था।
एक ऐसा मौन जिसके इर्द-गिर्द काफी तनाव था।
और वो तनाव मादा के चेहरे पर स्पष्ट था।
घबराहट, व्याकुलता, हिचकिचाहट, संकोच और.....एक डर, जिसमें रोमांच भरा था।
उसकी दिल की धड़कने धाड़-धाड़ करके धड़क रहीं थीं।
मानों हर धड़कन पूछ रही हो- अब क्या होगा?
"मैं आप को क्या बुलाऊ?...."- तनू ने कमरे में छाई मौनता को बड़ी हिम्मत के साथ भंग किया।
नर ने पत्री से नजर उठाये बिना कहा-
"पंडित ओमकार शास्त्री मेरा नाम है....आप पंडित जी कह लीजिये.."
तनू एक बार फिर संकोच में-
"मैं आप को......ओ.....ओम जी कह सकती हूँ...."
"जो भी आप की इच्छा.....किसी पुरूष के नाम-चयन का अधिकार हमेशा एक स्त्री के पास संरक्षित रहता है...."
इतना बोलकर उसने एक नजर तनू पर डाली और फिर पात्रांग पर।
"और कितना समय लगेगा?...."
"देखिये.....अभी तो शुभारम्भ है....."
तनू कोशिश तो कर रही थी पर बात का सूत्र उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था।
हर बार उसे नये पश्नों का सहारा लेना पड़ता था बात-चीत के क्रम को आगे बढ़ाने के लिये।
तकरीबन 5 मिनट कमरे में एक सरसराता मौन ही पसरा रहा और फिर-
"कुण्डली के मुताबिक तो संतान योग है.....लेकिन मध्य में राहू बैठा है जिसकी वजह से विलम्ब हो रहा है....अब राहू का हल क्या निकलेगा ये आप के हाथ की रेखा देखने पर ही पता चलेगा..."
इतना बोलकर पंडित जी उठे और मादा के बगल चारपाई पर आ बैठे।
तनू का दिल धाड़-धाड़ करके धड़कने लगा।
जिस पल का इंतजार था वो पल धीरे-धीरे आगे की तरफ सरकने लगा था।
तनू की दोंनों हथेलियाँ मेंहदी के लाल सुर्ख रंग से सजी हुई थी।
हथेली की गोराई पर लाल रंग बहुत ही फब रहा था।
जैसे ही पंडित जी ने तनू की हथेली पकड़ी-
"तुम्हारा शरीर तो काफी गरम है......शायद ठंडी हवा से ज्वार चढ़ रहा होगा..."
तनू खुद को बोलने से नहीं रोक पाई-
"काफी ठंड लग रही है...दरवाजा बंद कर दीजिये...."
"यही उचित रहेगा.....आपको इसकी आदत नहीं होगी.."
वह दरवाजा बंद करके वापस चारपाई पर आ बैठा।
"अपनी दोंनों हथेलियों को जोड़ कर मेरे सामने फैलाइये...."
तनू ने वही किया।
दोंनों हथेलियों के मिलने पर एक पूरे दिल का आकार ऊभरा जो मेंहदी से रचा गया था।
"सुन्दर आकृति है......"- पंडित जी ने हथेलियों को थामते हुए कहा।
"ये मैंने खुद बनाया है...."- तनू हल्के से सकुचा गई।
"अति सुन्दर.......भाग्य की रेखा तो काफी प्रबल है.....संतान का योग तो शीघ्र ही दिख रहा है......पर एक बात है....."- शास्त्री की आवाज विचारपूर्ण थी।
"क्या?......"
"पहले आप को कुछ प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगें.....वो भी बिना सकुचाये हुये..."
"जी पूछिये....."- तनू का दिल अब जोर-जोर से धड़कने लग था।
"माहवारी का काल चक्र क्या है?...."- शास्त्री ने बड़ी गहरी निगाहों से तनू को देखा।
"बताना जरूरी है....."- तनू को पता नहीं क्यों न चाहते हुए भी संकोच लग रहा था।
"निवारण करने में आपका उत्तर साहायक सिद्ध होगा....."- शास्त्री की बातों में गम्भीरता थी।
"10 तारीख से लेकर 15 तारीख तक......"- लजाते हुये तनू ने कह ही दिया।
"यानि 5 दिन.....चक्र तो ठीक है....चक्र के कितने दिन के पश्चात् आपका मन सम्भोग के लिये व्याकुल होने लगता है?......."
"एक हप्ते बाद....."
"यानि जो समय इस वक्त चल रहा है ठीक वही...."
"जी....."- तनू की लाज और भी बढ़ गई।
आखिर क्या बात थी उस शास्त्री में जो उससे वो इतना शरमा रही थी।
"वीर्य पतन के कितने देर पश्चात् आप बिस्तर से उठती है?..."
शास्त्री तनू की हथेलियों को धीरे-धीरे सहला रहा था।
"मतलब?..."- ये प्रश्न तनू की समझ में आ तो गया था पर....
"सम्भोग के पश्चात् जब आपके पति का वीर्य आप की योनि में भर जाता है तो उस क्षण के कितने देर बाद आप बिस्तर से उठकर मूत्र-त्याग के लिये जाती हैं?..."- शास्त्री ने धीरे से अपनी धोती को थोड़ा ऊपर उठा लिया।
लाल रंग के लगोंट पर तनू की नजरें न चाहते हुए भी जा ठिठकी।
शास्त्री की नजरों ने तनू की आँखों का केन्द्र भाँप लिया था।
"इस पश्न का क्या मतलब हुआ?...."- गालों पर एक लालिम छा गई थी।
"शिशु का निर्माण वीर्य से होता है जिसे वंश-अंश भी कहते हैं...."
शास्त्री अपनी बात पूरी कर पाता इससे पहले ही तनू बोल पड़ी-
"मुझे इतनी शुद्ध हिन्दी समझ में नहीं आती..."
तनू जानबूझकर शास्त्री को अश्लील भाषा का प्रयोग करने के लिये उकसा रही थी।
पुरूष कोई भी हो कभी किसी स्त्री के कामुक संकेतों को अंदेखा नहीं कर सकता।
एक पल के लिये शास्त्री ने तनू की कजरारी आँखों में झाँका और फिर तनु के थोड़ा पास आकर धीमे स्वर में कहा-
"आपके पति आपकी बुर को ठीक से चोदते हैं की नहीं......."
"इस्सSSSSSSSS........प्लीज ऐसा मत बोलिये......"
तनू ने अपनी पलकें भींच ली। उसका एक-एक पोर झनझना कर रह गया।
उसकी इस अदा पर शास्त्री की आँखों में वासना के काले साये लहराने लगे।
तभी तनू को अपनी हथेली के मध्य किसी गर्म वस्तु का अहसास हुआ।
उसने पलकों को खोलकर देखा और बस........
"ऊई मम्मी.........ये क्या है?......"
उसकी हथेली के मध्य शास्त्री का काला-कलूटा 8 इंच का विकराल और भयानक लिंग था जिसे उसने लंगोट से बाहर निकाल रखा था।
"स्त्री की योनि को छेदने वाला औजार......और देहाती में लौंडिया की बुर को फाड़कर उसकी भोषड़ी में बीज उगलने वाली मशीन....यानि लौड़ा..."
शास्त्री कितना कामी पुरूष था ये उसकी भाषा से साफ स्पष्ट था।
इस तरह की भाषा-शैली तनू ने पहले कभी नहीं सुनी थी इसलिये उत्तेजना और डर की वजह से उसके दिल की धड़कनें काफी तेज हो गई थी।
"बच्चा पैदा करना चाहती है....."
शास्त्री की भाषा अब सत्कार वाली नहीं बल्कि दुत्कार वाली थी।
जिसे सुनकर तनू की योनि धुकधुकाने लगी थी मानों बच्चा पैदा करने के नाम पर उसकी भी फट रही हो।
पर उत्तेजना की वजह से उसने लौड़े को और कसकर भींच लिया था।
लजाते हुये उसने सिर को हाँ में हिलाया।
"चल नंगी हो......"
शास्त्री चारपाई से नीचे उतरा और अपनी धोती और लगोंट को खोलकर अघोर नंगा हो गया।
शास्त्री की दुत्कार से डर के मारे तनू की चूत पनियाने लगी थी।
वो भी सकुचाते हुए अपनी जीन्स और टॉप उतार कर गुलाबी बॉडी और कच्छी में अर्धनंगी हो गई और हाथों और टाँगों को चिपकाकर अपनी नग्नता को ढकने की कोशिश करने लगी।
उसकी ये मुद्रा देखकर शास्त्री के भीतर का व्याभिचारी जाग उठा और उसके कामुक होंठों से कुछ फूटा-
"सुवरन को खोजत फिरे कवि, व्याभिचारी, चोर....."
किसी भूखे भेड़िये की तरह जो कई दिनों से भूखा हो और एकाएक उसे शिकार के रूप में कोई मुलायम खरगोश का बच्चा मिल जाने पर झपट पड़ा हो।
अब तनू का नाजुक बदन उस विलासी पुरूष की सख्त, मर्दाना भुजाओं में था और तनू किसी मोरनी की तरह मचल रही थी।
डर और उत्तेजना के मिले जुले उन्माद से।
और शास्त्री तो जैसे उस नाजुक कली को पाकर पागल हो गया था-
"आज 15 साल बाद तेरी जैसी मस्त माल मिली है...हवस के हथौड़े से तेरी इज्जत की धज्जियाँ उड़ा दूँगा......मेरे बीज में 100 पुरूषों की सिद्धी है......जो बच्चा बनेगा वो हरामी का होगा....बोल चाहिये हरामी का पिल्ला...."
फिर तो शास्त्री ने तनू के लिपिस्टिक से सजे होठों को अपने खुरदुरे होठों से कुचलना शुरू कर दिया।
मानो किसी भिखारी को छप्पन भोग की थाली मिल गई हो।
सोचिये- वो क्या खायेगा? और क्या गिरायेगा?
एक भयानक चूमा-चाटी के पश्चात् जब शास्त्री ने उसे गोंद में उठाकर चारपाई पर पटका तब तक श्रृंगार से सजा उसका चेहरा, होठों की फैली लिपिस्टिक और शास्त्री के थूक से बुरी तरह सन चुका था।
पुरूष का ऐसा आक्रमण तनू के लिये पूरी तरह से एक नया रोमांच था।
स्त्री को भोगने के लिये ऐसा जानवरपना।
तनू डर के मारे सहम गई।
उसे इंतजार था मन का जो किसी भी वक्त वहाँ आकर उसे तितर-बितर होने से बचा लेगा।
पर मन था कहाँ?????
वो खिड़की के पास खड़ा होकर, भीतर का भयानक नजारा देखकर, हस्तमैथुन कर रहा था।
वो चाहता तो ये सब रोक सकता था पर वो खुद कामवासना से ग्रसित था।
उसे इंतजार था अपने स्खलन का।
इधर कमरे के भीतर-
"बोल तू मेरी रखैल है....."- शास्त्री अपने लौड़े पर थूक चपोड़ता हुआ बोला।
"हाँ मैं आपकी रखैल हूँ....."- तनू उत्तेजना से काँपने लगी थी।
"चोद-चोद के तुझे हिरोईन से रन्डी बना दूँगा साली.......चल मुँह खोल..."
बालो को मुट्ठी में भींचते ही तनू का मुँह खुला और उसी वक्त-
'गप्प्.....'
शास्त्री ने अपना लौड़ा जड़ तक उसके मुँह में चाप दिया।
"बहुत दिनों से इसमें से पेशाब की बदबू आ रही है......चाट के साफ कर साली राँड़.......बच्चा चाहिये.....दूँगा साली छिनाँर....चूस.....कुत्ती..."
और तनू डर के मारे चपड़-चपड़ करके चाटने लगी मानों अगर नहीं करेगी तो वह उसका मुँह ही फाड़ डालेगा।
"साली जीन्स पहनती हैं......चूतर मटकाती है.....गाँड़ के छेद में खूँटा घुसाकर हौदा बना दूँगा....साली लड़चट्टी....नररोहा तक ले लौड़ा....नहीं तो फाड़ दूँगा.....साली भेड़ी की मूत..."
ऐसी बुरी तरह की मुँह चुदाई से तनू की आत्मा तक काँप गई लेकिन अपनी सुन्दरता से किसी सभ्य पुरूष को बौराते हुये देख वह खुद मस्ता गई थी।
अखिर वो थी ही इतनी सुन्दर और कामुक की जब तक कोई जानवर बनकर उसे न भोगे, वह पूर्ण तिप्त हो ही नहीं सकती थी।
थोड़ी देर पहले जो पुरूष इतना सभ्य था उसकी यौवन के ताप से जलकर वहशी हो उठा था।
यही तो वो चीज है जो औरत को कामुक बनाती है।
तनू को आज पता चला की उसकी सुन्दरता में किसी नर के व्यक्तित्व को इस सीमा तक बदने की क्षमता है।
ये सोचकर उसकी योनि से बहने वाले द्रव का गाढ़ापन और बढ़ गया।
कामुकता की ज्वाला उसकी योनि के भीतर दहकने लगी।
वह इस बौराये पुरूष के आक्रमण का प्रहार अपनी योनि कर झेलने के लिये उत्तेजित थी।
मुँह चुदाई के बाद बारी थी उसके कबूतरों के साथ व्याभिचार की।
शास्त्री इतनी जल्दी झड़ने वालों में से नहीं था।
आखिर पूरे 15 सालों बाद कोई स्त्री देह उसे मिली थी।
हवस की आँच पर भूनकर न खाया जाय तो क्या सुख!
"ये तो रण्डी वाली चूची है साली.......कितने हरामियों को दूध पिलाई है अपने इस थन से?....कुतिया..."
'चट्ट..'
इसी के साथ शास्त्री ने हवस की प्रवाह में उसके स्तनों पर एक झापड़ दे मारा।
"सीSSSSSSS......कभी गिना नहीं....."
शास्त्री के कड़े-कड़े हाथों ने जब उसकी चूचियों को मसलना शुरू किया तो पहली बार उसे पता चला की प्यार से मसली गई चूचियों और हवस में मसली गई चूचियों में कितना बड़ा अंतर होता है।
प्यार से जब चूची मसली जाती है तो सिर्फ सनसनाहट होती है पर जब हवस में दबोची जाती है तो दुखती है, कल्लाती है, टीस उठती है और चूचियों का दर्द कई दिनों तक बना रहता है। किसी पके फोड़े की तरह चूचियाँ टपकती हैं कई दिनों तक। और जब तक चूचियाँ टपकती हैं तब तक स्त्री अपनी योनि को ऊँगली से कुचल कर शान्त करती है।
औरत को जितना कस के चोदा जाता है उसका प्रति-प्रभाव उतनी देर तक बना रहता है।
इस तरह से चुद जाने के कई दिनों बाद ही दूबारा चुदने के लिये तैयार हो पाती है पर इतनी दुत्कार भरी चुदाई के बाद औरत कुंठित हो जाती है।
आत्म ग्लानि की भावना उसमें भर जाती है......बाद में ये सोच-सोच के उसे अफसोस होता है की कितनी बुरी तरह से उसे भोगा गया था। वो मन ही मन प्रण कर लेती है की दुबारा इस तरह से नहीं चुदेगी पर प्रति-प्रभाव से वह बहुत अधिक दिनों तक बच नहीं पाती।
चाहे महीनों गुजर जाये लेकिन  एक बार फिर वह किसी कामी पुरूष की हवस का शिकार बन कर कुतिया की तरह चुदना चाहती है।
पुरूष एक बार चोदने के बाद सिर्फ कुछ पलों के लिये सम्भोग से विमुख हो जाता है।
पर स्त्री एक बार प्रेम रहित रति-क्रिया से गुजर कर कई दिनों के लिये वासना से विमुख हो जाती है बशर्ते वह वेश्या न हो।
"कभी किसी कमीनें ने मूत्र-स्नान कराया है की नहीं...."- शास्त्री स्तन-मुंड को ऊँगली के बीच लेकर कच्ची मूँगफली का छिलका उतारने की तरह मसल रहा था।
तनू ऐसे छटपटा रही थी जैसे किसी मछली को शीतल जल से निकाल कर गर्म धरातल पर छोड़ दिया गया हो।
"ऐसा मत कीजिये.....आई मर जाऊँगी...प्लीज ऊईईई..सीSSSSSSछोड़ दीजिये..."
"ऐसे कैसे छोड़ दूँ.......शेर पंजा मारने के बाद माँस को भभोड़ता है...छोड़ता नहीं....चल खाट पे लेट साली.....हिरोईन की तरह सज के आई थी न......मूत्र से नहला कर तुझे भंगिन बना दूँगा.....राँड की भोषड़ी...."
और फिर तनू को धक्का देकर शास्त्री वीभत्स व्याभिचार पर उतर आया।
सूँ......सूर्रSSSSSSSSSSSS
शास्त्री, तनू की कंचन सी दमकती काया को अपने मूत्र से तर करने लगा।
था तो वीभत्स पर तनू उस चांडाल शास्त्री की इस हरकत से थरथराने लगी।
इतने वहशी पुरूत्र की कल्पना तो वो सपने में भी नहीं कर सकती थी।
पर पुरूत्र दो चीज के लिये ही तो जीता है-
पहला- स्त्री
दूसरा- अभिमान।
और पुरूत्र तभी अभिमानी होता है जब अपने पौरूत्र से किसी सुन्दर, कोमल स्त्री के सौन्दर्य मान को अपने हवस से कुचल दे।
खिड़की से अंदर झाँक रहा मन एक बार स्खलित हो चुका था पर अभी भी वह अपनी जगह पर जड़वत खड़ा था। क्योकि अंदर चल रहे कामुक खेल से वह बहुत रोमांचित हो चुका था। शादी के इतने सालों के बाद आज अपनी पत्नी को इस तरह चुदते हुए देखना उसके लिये एक अलग आनन्द था। और इसी आनन्द के लिये ही तो वह अंजान लोगों के सामने अपनी बीवी को चारा बनाकर फेंकता था। प्रतिउत्तर में वह पाता था परम उत्तेजना, जो किसी और तरीके से हासिल होना नामुमकिन थी।
तनू के गदराये शरीर को कुत्ते की तरह नोंचनें खसोटनें के पश्चात शास्त्री हवस उगलती आँखों से मोक्ष-स्थल पर पहुचा यानि योनि के पास।
छोटी सी, प्यारी सी, चिपकी हुई....बीच में एक चीरा जिसके बीच में छुपा था स्वर्ग-द्वार।
गदराई टाँगों को चीरकर शास्त्री कुकुरासन की मुद्रा में आ बैठा और योनि को फाड़कर खा जाने वाली निगाहों से घूरने लगा।
"आक्क थूSSSSSS"
शास्त्री ने पसेरी भर लार योनि पर थूक दिया।
तनू घृणा और उत्तेजना से सनसना उठी।
उसकी योनि का छिद्र बार-बार खुलता और बंद हो रहा था।
ये सोच कर की अब फटी की तब फटी।
पर फटना तो उसे था ही....ये तो भगवान ने ही उसके नसीब में लिख दिया था।
तनू की मोटी-मोटी जाघों को मोड़कर शास्त्री उसी पर लद गया।
अपने काले-कलूटे लिंग को योनि छिद्र पर टिकाकर....
'हुच्चSSSSSS'
शास्त्री ने पूरी ताकत से हुमक दिया।
"आई मम्मीSSSSSSSSS"
और फिर चूचियों को पकड़कर मसलते हुये योनि छेदन मंत्र बड़बड़ाने लगा-
"लौड़ा साला गरम गचक्का.....मार सटा-सट सट्टम सट्टा.....बुरिया साली छेद बा खाली....मार हचाहच हच्चम हच्चा........"
"आई मम्मी....सीSSSSS....मर जाऊगी......"
पर शास्त्री तो अपनी ही धुन में चापे पड़ा था-
".....घुन्डी किसमिस चूची कड़ीयल...दाब चपाचप चप्पम चप्पा..."
शास्त्री ने चूची को मुट्ठी में जकड़ कर कसकर चाप दिया।
"उईईईई....मेरी चूची.....मम्मी....मर गई..सीSSSSS"
"चूतर चिक्कन चूत बा ठस्सा छेद घचाघच घच्चम घच्चा.....चभक के चाप निकलै बच्चा"
"आई मम्मी....झड़ जाऊँगीईईईईईई....गईईईई...सीSSSSSS....बस..."
तनू चूत-चोदू मंत्र सुनकर खुद को झड़ने से ज्यादा देर न रोक पाई और पैरों की कैंची मारकर शास्त्री से कसकर लिपट गई।
योनि से छूटती पानी की गरम-गरम धार और योनि का संकुचन लिंग पर महसूस करके शास्त्री भी ज्यादा देर टिक नहीं सका।
और...
"चभक-चभक के चोद चोदाऊवल..........मार भोषड़ी छोंड़ दे छर्रा......."
और फिर शास्त्री किसी हाँफते हुए कुत्ते की तरह एक चूची को मुँह में भर कर तनू की योनि में अपना वीर्य मूतने लगा।
लिंग को अपनी योनि में फूलता पिचकता महसूस करके तनू और कसकर शास्त्री से चिपक गई मानों उसका एक-एक बूँद वीर्य अपनी योनि में भर लेना चाहती हो।
सिर्फ 5 मिनट पश्चात् ही तनू की मानसिकता बदलने लगी।
उसने शास्त्री को धक्का देकर अपने से अलग किया और जल्दी-जल्दी अपने कपड़े पहनने लगी।
शास्त्री चारपाई पर लेटा अभी भी हाँफ रहा था।
मानों अब उसमें शक्ति ही न बची हो।
दरवाजा खोलकर तनू कमरे से बाहर निकल गई।
शास्त्री बेजान से उसको जाते हुए देखता रहा।
अब उसे भी फिलहाल उसकी जरूरत नहीं थी।
इधर कार के भीतर-
"तुम आये क्यों नहीं?...."- तनू ने जलती हुई निगाहों से मन को देखा।
"पता नहीं गाड़ी का दरवाजा कैसे लॉक हो गया था खुला ही नहीं....आइम सॉरी....आई लव यू....."
"शटअप.......और यहाँ से चलो....आज के बाद से दूबारा मुझसे ये सब करने के लिये नहीं कहना...."
तनू का गुस्सा देखकर मन की कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं हुई।
उसने चुपचाप गाड़ी आगे बढ़ा दी।
**************************************************
लगभग एक महीने बाद....
रात के तकरीबन वही बज रहे थे....
वही झोपड़ी.........
वही लालटेन की पीली रोशनी.....
सिहरती और काँपती हुई.....
वही कार निश्तब्धता में ठहरी हुई......
पर इस बार मौन उतना मौन भी नहीं था.....
खिड़की की झिर्रियों से कुछ ध्वनि बाहर तैर रही थी...
"लौड़ा साला गरम गचक्का......गाड़ मार फाड़ बिल भोक्का"
"आई.....उईईईइ...सीSSS....बस...."
पर इस बार मादा की आवाज नहीं थी।
................................समाप्त।

















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