FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--50
गतांक से आगे ...........
बनारस की गलियां...पतली संकरी और फिर अन्दर एक से एक बड़े मकान, दुकानें बस वैसे ही ये भी...बस थोड़ी ज्यादा चौड़ी.
चौराहे पे दो पोलिस वाले सुस्ता रहे थे, पास में एक मैदान कम कचरा फेंकने की जगह पे ..कुछ बच्चे क्रिकेट का भविष्य उज्जवल करने की कोशिश कर रहे थे, दीवालों पर पोस्टर, वाल राईटिंग पटी पड़ी थी...मर्दानगी वापस लाने वाली दवाओं से ले के कारपोरेशन के इलेक्शन, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर से बिरहा के मुकाबले तक...दूकान के दरवाजे के पास ही दीवाल पर मोटा मोटा लिखा था देखो गधा मूत रहा है ...वहां गधा तो कोई था नहीं हां एक सज्जन जरुर साईकिल दीवार के सहारे खड़ी कर लघु शंका का निवारण कर रहे थे. एक गाय वीतरागी ढंग से चौराहे के बीचोंबीच बैठी थी दो तीन सामान ढोने वाले टेम्पो और एक छोटा ट्रक दूकान से सट के खड़ा था. उसमें उसी दूकान से सामान लादा जा रहा था. टेम्पो शायद आस पास के बाजारों के लिए और ट्रक आजमगढ़ बलिया के लिए...
दूकान के अन्दर भी बहोत भीड़ भाड़ नहीं थी. थोक की दूकान थी और नार्मली शायद वो फुटकर सामान नहीं बेचते थे. हाँ दो तीन लोग जिनके ट्रक और टेम्पो बाहर खड़े थे वो थे और दूकान के मालिक तनछुई सिल्क का कुरता पाजामा पहने उन लोगों से मौसम का हाल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा कर रहे थे.
गुड्डी ने दूर से उन्हें नमस्ते किया और उन्होंने तुरंत पहचान लिया.
वो सिर्फ दूबे भाभी के ब्लोक प्रिंट के लिए सामान ही नहीं सप्प्लाई करते थे बल्कि पारिवारिक मित्र भी थे. और उन्की छोटी लड़की रीत के साथ पढ़ती थी. वो हम लोगों के पास आके खड़े हो गए...गुड्डी ने मेरा परिचय कराया और बताया की वो मेरे साथ जा रही है इसलिए रंग और होली के कुछ सामान ...उसकी बात काट के उन्होंने एक गुमास्ते को बुलाया और कहा की इसको बता दो .
मुझे लगा की गुड्डी पता नहीं क्या क्या बोले और देर भी हो रही थी तो लिस्ट मैंने उसे पकड़ा दी.
उन्होंने मेरा परिचय उन सज्जन से भी कराया जिन की ट्रक बाहर लद रही थी ये कह के की तुम्हारे शहर के ही हैं. और जब उन्होंने बताया की जायसवाल जनरल स्टोर तो मैं तुरंत समझ गया..चौक पे डिलाईट टाकिज के बगल में ही तो...और उन्होंने भी बताया की हमारे घर के लोगों से वो भी परिचित हैं... तब तक मैंने दूकान के एक कोने में चाइनीज पिचकारियाँ देखीं तो मैंने उनसे कहा की अरे पिचकारियाँ भी चीनी तो वो हंस के बोलो चलो तुम्हे दिखलाता हूँ.
तरह तरह की पिचकारियाँ, रंग और साथ में ही नीचे खुले डब्बों में हल्दी, धनिया, मिर्च पीसी तरह तरह के मसाले तभी मेरी निगाह पीतल की दो पिचकारियों पे पड़ी खूब लम्बी मोटी...मैंने उनसे पूछा तो हंस के वो बोले,
" अरे भैया पहले हमको भी शौक था...एक एक पिचकारी में आधी बाल्टी तक रंग आ जाता है और धार इतनी तीखी की मोटे से मोटा कपड़ा भी फाड़ के रंग अंदर ..लेकिन अब किसकी कलाई में इतना जोर है की इसको चलाये....इस लिए तो अब बस प्लास्टिक और वो भी बच्चे ..बड़े तो होली खेलने निकलते नहीं और खेलते भी है तो सूखे रंग या पोतने वाले रंग ...पिचकारी कहाँ..."
मुझे लगा की इनकी कहानी कहीं लम्बी ना हो जाय इसलिए मैंने सीधे पूछा कितने की है...तो वो हंस के बोले...अरे ले जाओ तुम जो कहोगे लगा देंगे वैसे ही पड़ी है...गुड्डी सामान चेक कर के देख रही थी.
हमारे कुछ समझ में नहीं आया. जो दूकान के मालिक थे उनका चेहरा एकदम अचानक से उतर गया.
सामने दो लडके खड़े थे वो दोनों टी शर्ट और जींस में थे २२-२४ साल के, कपडे थोड़े तुड़े मुड़े ..दाढ़ी थोड़ी सी बढ़ी...एक के हाथ में साइकिल की चेन लिपटी थी. उन्होंने घबडा के गुड्डी से कहा,
" बेटा तुम लोग चलो हम तुम्हारा सामान भेजवा देंगे...बाद में...ज़रा...जल्दी निकलो.."
हमने चारो ओर देखा दूकान में कोई नहीं ...ना काम करने वाले ना बाकी ग्राहक सभी गायब और तभी घडडरर की आवाज हुयी और हमने जब दरवाजे की ओर देखा तो शटर एक आदमी बंद कर रहा था और जब मुड के उसने दूकान के मालिक को देखा तो लगता है उन्होंने मौत देख ली. बस बेहोश नहीं हुए.
उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा लग रही थी २८-३० का, पैंट के साथ एक काली शर्ट अन्दर टक की हुयी...लेकिन मसल्स बहोत डेवलप, पैंट की जेबें थोड़ी फूली कमर के पास भी उसी तरह शर्ट फूली एक हाथ में चांदी का कड़ा...वो कुछ बोला नहीं सिर्फ दूकान के मालिक को देखता रहा..
" आप ...आप ने बेकार में तकलीफ की खबर कर देते मैं हाजिर हो जाता...आप मेरी....मुझे तो इन लोगो ने बताया ...नहीं की ...."
दूकान के मालिक की घिघी बंधी हुयी थी. दोनों हाथ जुड़े हुए आंखों में डर नाच रहा था...
वो आदमी कुछ नहीं बोला. बस उन्हें देखता रहा अपनी फूली हुयी जेब पे हाथ रख के...लेकिन जो दोनों हम तीनो के पास खड़े थे उनमे से एक बोला...
" अब तो साहब आ ही गए हैं...त....अरे ससुर क नाती...महिना शुरू हुए १० दिन होई गवा है होली अब गिन के ४ दिन बची है...त इ छूटकवा आय रहा की नाय...बोल...और ओके टरकाय दिया ...की अरे एकरे तो सर पे खून नाच रहा था उ तो हम रोके एकरा के...की पुरान रिश्ता है ..बडमनई हैं और आप..."
" उ ...उ...तो बाबू साहब की इहां हम शुरूये मैं...और होली के अलगे से..."
जो दूकान के मालिक थे...थोड़ी उनकी हिम्मत बंधी की कोई जैसे गलत फहमी हुयी हो और अब वो सुलझ जायेगी....उनके हाथ अभी जुड़े हुए थे.
" बाबू साहब तो ठीक है लेकिन इहो तो हमारो साहब...इनके लिए ...दो बार फोन करवाये...त का...साहेब कुछ बोलते ना तो का कपरे पे चढ़ा के ससुर का नाती नाचाबा..." वो आदमी चालू हो गया.
" नहीं नहीं गलती होई गई मालिक माफ कय दिहल जाय....अब आगे से...अबहिंये..." वो झुके जा रहे थे गिडगिडा रहे थे...बस रो नहीं रहे थे...
" भूल गए ...पिछली बार तुम्हरी लौंडिया ले गए थे तीन दिन के लिए...तबे किश्त बंधी थी...तब ...तब बाबू साहेब नहीं इहे साहब बचाए थे...नहीं तो हमार तो पूरा मन था की ससुरी को गाभिन कर के भेजते ...इ तो साहब तुम्हारो पुरानी ...बस खियाल आ या गया...वरना मडुआडीह में बैठाया देते...रोज १०-१० मर्द ऊपर से उतरते ना...ता जताना तुम बक रहे हो उतना त उ ससुरी महिना में अपनी चूत से उगल देती. नाही तो बम्बई ले जा के बेच आते ...कच्ची माल थी उस बकत ....त अब तू अपन दूकान सम्हाला अब तोहरी बिटिया एक नयी दूकान खोलिहें...और जेतना लेवे के होई हम लोग ले लेब..."
हम लोगके पास खड़ा आदमी फिर चालू हो गया.
अब तो वो बिचारे अलमोस्ट दंडवत होके माफी मांगने लगे...लेकिन गुड्डी बोली..जो अब टक हम सबके साथ दहसी हुयी खड़ी थी...
" चाचा जी नहीं..."
बस गुड्डी का ये बोलना जहर हो गया. हमारे पास जो दो लोग थे उनमें से जो साइलेंट टाईप का था उसने गुड्डी की बांह कस के पकड़ ली और अपनी और खींच लिया.
दरवाजे के पास खड़ा तीसरा आदमी अब बोला....
' तो ये तुम्हारी भतीजी है ..."
" नहीं नहीं जी ..ऐसा कुछ नहीं ...अरे ऐसे ही बोल रही है सौदा लेने आई थी बस...ये लोग तो बस जा रहे थे बस...इसका मुझसे कोई लेना देना नहीं बस छोड़ दीजिये इसे...हे जाओ तुम लोग कहाँ रुके हो...हम सब वो कुछ नहीं रखते ...जाओ..."
दरवाजे के पास खड़ा आदमी मुस्करा रहा था....और एक हाथ से उसने जेब से गुटका निकला और खाने लगा.
जिसने गुड्डी को पकड़ रखा था उसने दूसरा हाथ उसके कमर पे रख दिया और अपनी और खींचा कस के...दूसरे ने सेठ जी का कंधा पकड़ा और कहने लगा...
" अच्छा इनसे कुछ लेना देना नहीं तो ये तुम्हे चाचा जी क्यों बोल रही थी...दूसरे फिर तुम इसे बचाने के लिए काहें झूठ पे झूठ बोले जा रहे हो."और जो आदमी गुड्डी को पकडे हए था उससे बोला....
" हे ज़रा साली की चूंची ज़रा दाब के तो बता...ये साल्ली तो सेठ जी की बेटी से भी ज्यादा करारा माल लग रही है..."
मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करें
" भैया हम लोगों को जाने दो...हम लोगों से कोई मतलब नहीं है बस... चले जा रहे हैं." बोलते गिडगिडाते मैं नीचे झुका जैसे मैं उनके पाँव पड़ने की की कोशिश कर रहा हूँ.
और नीचे झुकाते ही रंगों के डिब्बो के साथ साथ एक खुले बरतन में लाल पिसी मिर्च का पाउडर और बगल में हल्दी का पाउडर ...झुके झुके लाल पाउडर मैंने उठाया और तेजी से ऊपर उठाते हुए उसकी आँखों में पूरा का पूरा झोंक दिया. जैसे ही वो सम्ल्हता ....दूसरी मुट्ठी फिर .. अबकी आँख के साथ नाक और मुंह में ...छींक से उसकी बुरी हालत हो गयी.
तभी गुड्डी ने साथ साथ, दूसरे आदमी के पैर में अपनी लम्बी तीखी हील भी पहले तो कस के घुसा दी और फिर गोल गोल घुमाने लगी...उसकी पकड़ ढीली हो गयी और गुड्डी के दोनों हाथ छूट गए....गुड्डी ने उस आदमी के पेट में पूरी ताकत लगा के अपनी कुहनी दे मारी.
बस वो मौका मिल गया जो मैं चाहता था. दोनों से एक साथ निपटना असंभव था. और दोनों के पास ही हथियार थे. चाक़ू कट्टा .. या ऐसे कुछ भी..
गुड्डी को मैंने हल्का सा धक्का दिया और वो उस आदमी को लिए दिए सामान के ढेर के बीच जा गिरी.
जिसकी आँख में मैंने मिर्च झोंकी थी वो अब कुछ संभल रहा था. आँखे खोलने की कोशिश करते हुए वो अपने साथी से बोला.
." पकड़ ले साल्ली को...इस सेठ की लौंडिया को तो तीन दिन में छोड़ दिया था सिर्फ एक और से मजा ले कर ...इसकी तो चूत का भोंसडा बना देंगे...और तुझे तो गांड पसंद है न..."
मैं समझ रहा था ये सिर्फ बोल नहीं रहा है...और हमारे पास सिर्फ एक रास्ता था...हमला.
मैंने जूते पूरी ताकत से उस के घुटने पे दे मारे और एक बाद एक ,,,,चार बार वहीँ..एक पैर उसका ख़तम हो गया. लेकिन उसके गिरने से पहले ही मैंने एक हाथ से उसे पकड़ा और दूसरे हाथ से एक चाप सीधे उसके कान के नीचे और अब वो जो गिरा तो मैं समझ गया की कुछ देर की छुट्टी ..
.लेकिन मैं कनखियों से देख रहा था की दूसरा जिसे मैं गुड्डी के साथ धक्का दे के गिरा दिया था अब अपने पैरों पे खड़ा था और उसके हाथ की चेन हवा में लहरा रही थी और अगले ही पल ठीक मेरे उपर ...अगर मैं झटके से बैठता नहीं. और बैठे बैठे ही मैंने मेज जिस पर सामान रखा था उसकी ओर दे मारा. लेकिन वो सम्हल गया और पीछे खिसक गया. चेन अभी भी उसके हाथ में लहरा रही थी.
मैं चेन की रेंज से तो बाहर हो गया था क्योंकि अब बीच में मेज और गिरा हुआ सामान था लेकिन मैं भी उसे पकड़ नहीं सकता था.
तब तक नीचे गिरे आदमी ने उठने की कोशिश की और मैंने बायं हाथ बढ़ा के उसका दायाँ हाथ पकड़ के अपनी ओर खिंचा. जैसे ही वो थोडा उठा मेरे खाली हाथ ने एक चाप उसके दायें हाथ की कुहनी पे दे मारा और साथ ही में पैर उसके घुटने पे ...मैं अपने निशाने के बारे में कांफिडेंट था की अब सारे कार्टिलेज घुटने और कुहनी के गए...और वो अब उठने के काबिल नहीं है...
दूसरा चेन वाला ज्यादा फुर्तीला और स्मार्ट था....मेज से बस वो आधे मिनट ही रुक पाया और घूम कर पीछे से उसने फिर चेन से मेरे उपर वार किया. मैं अब फँस गया.
मेरे उन आर्म्ड कम्बैट के लेसन तब काम आते जब वो पास में आता और चेन से एक दो बार से ज्यादा बचना मुश्किल था...वो एक बार अगर हिट कर देती तो ...और फिर गुड्डी..
.बचते हुए मैं दूकान के दूसरे हिस्से पे आगया था जहाँ इन्सेक्ट रिपेलेंट मास्किटो रिपेल्नेट ये सब रखे थे..
.और अब मैंने चेन वाले को पास आने दिया...वो भी समझदार था अब वो दूर से चेन नहीं घुमा रहा था...अपनी ताकत उसने बचा रखी थी और जब मेरे वो नजदीक आया तो चेन उसने फिर लहराई...लेकिन मैंने हाथ में पीछे पकडे काक्रोच रिपेलेंट को खोल लिया था और पूरा स्प्रे सीधे उसकी आँख में ...एक पल के लिए उसकी हालत खराब हो गयी और इतना वक्त मेरे लिए काफी था और मैंने पहले तो उसकी वो कलाई पकड़ के मोड़ दी जिसमें चेन थी एक बार क्लाक वाइज और दुबारा एंटी क्लाक वाइज और वो लटक के झूल गयी.
उसने बाएं हाथ से चाकू निकालने की कोशिश की लेकिन तब तक मेरी उंगलिया सारी एक साथ उसके रीब केज पे ...वो दर्द से झुक दुहरा हो गया और मेरी कुहनी उसके गले के निचले हिस्से पे. साथ में घुटना उसकी ठुड्डी पे...जबतक वो सम्हालता मैंने उसकी दूसरी कलाई भी तोड़ दी.
बचो ....गुड्डी जोर से चीखी .
मैं उस तीसरे आदमी को भूल ही गया था. अब तक वो चूहे बिल्ली की लड़ाई की तरह हम लोगों को देख रहा था. उसे पूरा कांफिडेंस था की उसके दोनों मोहरे मुझसे निपटने के लिए काफी थे और वो अपना हाथ गन्दा नहीं करना चाहता था. दूसरा आर्ग्नैजेशन में वो अब मैनेजमेंट पोजीशन में पहुँच चुका था लेकिन अब दूसरे बन्दे के गिरने के बाद...
उसके हाथ में चाकू था और तेजी से उसने मेरी ओर फेंका..निशाना उसका भयानक था. मेरे बगल में हटने के बावजूद वो मेरी शर्ट फाड़ते हुए हलके से बांह में लगा....अगर गुड्डी ना बोली होती तो सीधे गले में...
डेड लाक की हालत थी. उसने पलक झपकते जेब से रिवाल्वर निकाल लिया था. और ये कोई कट्टा (देसी पिस्तोल ) नहीं था की मैं रिस्क लूं की शायद ये फेल कर जाय...
उसने नहीं चलाया. मैं पल भर सोचता रहा फिर मेरी चमकी. दो बातें थीं...एक तो उसके मोहरे को मैंने पकड़ लिया था और उस गुत्थ्म्गुथा में गोली किसे लगेगी ये तय नहीं हो सकता था. दूसरे दिन का समय था, चारो ओर बस्ती थी और गोली चलने की आवाज सुन के कोई भी आ सकता था.
क्रमशः.....................
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वो सिर्फ दूबे भाभी के ब्लोक प्रिंट के लिए सामान ही नहीं सप्प्लाई करते थे बल्कि पारिवारिक मित्र भी थे. और उन्की छोटी लड़की रीत के साथ पढ़ती थी. वो हम लोगों के पास आके खड़े हो गए...गुड्डी ने मेरा परिचय कराया और बताया की वो मेरे साथ जा रही है इसलिए रंग और होली के कुछ सामान ...उसकी बात काट के उन्होंने एक गुमास्ते को बुलाया और कहा की इसको बता दो .
मुझे लगा की गुड्डी पता नहीं क्या क्या बोले और देर भी हो रही थी तो लिस्ट मैंने उसे पकड़ा दी.
उन्होंने मेरा परिचय उन सज्जन से भी कराया जिन की ट्रक बाहर लद रही थी ये कह के की तुम्हारे शहर के ही हैं. और जब उन्होंने बताया की जायसवाल जनरल स्टोर तो मैं तुरंत समझ गया..चौक पे डिलाईट टाकिज के बगल में ही तो...और उन्होंने भी बताया की हमारे घर के लोगों से वो भी परिचित हैं... तब तक मैंने दूकान के एक कोने में चाइनीज पिचकारियाँ देखीं तो मैंने उनसे कहा की अरे पिचकारियाँ भी चीनी तो वो हंस के बोलो चलो तुम्हे दिखलाता हूँ.
तरह तरह की पिचकारियाँ, रंग और साथ में ही नीचे खुले डब्बों में हल्दी, धनिया, मिर्च पीसी तरह तरह के मसाले तभी मेरी निगाह पीतल की दो पिचकारियों पे पड़ी खूब लम्बी मोटी...मैंने उनसे पूछा तो हंस के वो बोले,
" अरे भैया पहले हमको भी शौक था...एक एक पिचकारी में आधी बाल्टी तक रंग आ जाता है और धार इतनी तीखी की मोटे से मोटा कपड़ा भी फाड़ के रंग अंदर ..लेकिन अब किसकी कलाई में इतना जोर है की इसको चलाये....इस लिए तो अब बस प्लास्टिक और वो भी बच्चे ..बड़े तो होली खेलने निकलते नहीं और खेलते भी है तो सूखे रंग या पोतने वाले रंग ...पिचकारी कहाँ..."
मुझे लगा की इनकी कहानी कहीं लम्बी ना हो जाय इसलिए मैंने सीधे पूछा कितने की है...तो वो हंस के बोले...अरे ले जाओ तुम जो कहोगे लगा देंगे वैसे ही पड़ी है...गुड्डी सामान चेक कर के देख रही थी.
हमारे कुछ समझ में नहीं आया. जो दूकान के मालिक थे उनका चेहरा एकदम अचानक से उतर गया.
सामने दो लडके खड़े थे वो दोनों टी शर्ट और जींस में थे २२-२४ साल के, कपडे थोड़े तुड़े मुड़े ..दाढ़ी थोड़ी सी बढ़ी...एक के हाथ में साइकिल की चेन लिपटी थी. उन्होंने घबडा के गुड्डी से कहा,
" बेटा तुम लोग चलो हम तुम्हारा सामान भेजवा देंगे...बाद में...ज़रा...जल्दी निकलो.."
हमने चारो ओर देखा दूकान में कोई नहीं ...ना काम करने वाले ना बाकी ग्राहक सभी गायब और तभी घडडरर की आवाज हुयी और हमने जब दरवाजे की ओर देखा तो शटर एक आदमी बंद कर रहा था और जब मुड के उसने दूकान के मालिक को देखा तो लगता है उन्होंने मौत देख ली. बस बेहोश नहीं हुए.
उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा लग रही थी २८-३० का, पैंट के साथ एक काली शर्ट अन्दर टक की हुयी...लेकिन मसल्स बहोत डेवलप, पैंट की जेबें थोड़ी फूली कमर के पास भी उसी तरह शर्ट फूली एक हाथ में चांदी का कड़ा...वो कुछ बोला नहीं सिर्फ दूकान के मालिक को देखता रहा..
" आप ...आप ने बेकार में तकलीफ की खबर कर देते मैं हाजिर हो जाता...आप मेरी....मुझे तो इन लोगो ने बताया ...नहीं की ...."
दूकान के मालिक की घिघी बंधी हुयी थी. दोनों हाथ जुड़े हुए आंखों में डर नाच रहा था...
वो आदमी कुछ नहीं बोला. बस उन्हें देखता रहा अपनी फूली हुयी जेब पे हाथ रख के...लेकिन जो दोनों हम तीनो के पास खड़े थे उनमे से एक बोला...
" अब तो साहब आ ही गए हैं...त....अरे ससुर क नाती...महिना शुरू हुए १० दिन होई गवा है होली अब गिन के ४ दिन बची है...त इ छूटकवा आय रहा की नाय...बोल...और ओके टरकाय दिया ...की अरे एकरे तो सर पे खून नाच रहा था उ तो हम रोके एकरा के...की पुरान रिश्ता है ..बडमनई हैं और आप..."
" उ ...उ...तो बाबू साहब की इहां हम शुरूये मैं...और होली के अलगे से..."
जो दूकान के मालिक थे...थोड़ी उनकी हिम्मत बंधी की कोई जैसे गलत फहमी हुयी हो और अब वो सुलझ जायेगी....उनके हाथ अभी जुड़े हुए थे.
" बाबू साहब तो ठीक है लेकिन इहो तो हमारो साहब...इनके लिए ...दो बार फोन करवाये...त का...साहेब कुछ बोलते ना तो का कपरे पे चढ़ा के ससुर का नाती नाचाबा..." वो आदमी चालू हो गया.
" नहीं नहीं गलती होई गई मालिक माफ कय दिहल जाय....अब आगे से...अबहिंये..." वो झुके जा रहे थे गिडगिडा रहे थे...बस रो नहीं रहे थे...
" भूल गए ...पिछली बार तुम्हरी लौंडिया ले गए थे तीन दिन के लिए...तबे किश्त बंधी थी...तब ...तब बाबू साहेब नहीं इहे साहब बचाए थे...नहीं तो हमार तो पूरा मन था की ससुरी को गाभिन कर के भेजते ...इ तो साहब तुम्हारो पुरानी ...बस खियाल आ या गया...वरना मडुआडीह में बैठाया देते...रोज १०-१० मर्द ऊपर से उतरते ना...ता जताना तुम बक रहे हो उतना त उ ससुरी महिना में अपनी चूत से उगल देती. नाही तो बम्बई ले जा के बेच आते ...कच्ची माल थी उस बकत ....त अब तू अपन दूकान सम्हाला अब तोहरी बिटिया एक नयी दूकान खोलिहें...और जेतना लेवे के होई हम लोग ले लेब..."
हम लोगके पास खड़ा आदमी फिर चालू हो गया.
अब तो वो बिचारे अलमोस्ट दंडवत होके माफी मांगने लगे...लेकिन गुड्डी बोली..जो अब टक हम सबके साथ दहसी हुयी खड़ी थी...
" चाचा जी नहीं..."
बस गुड्डी का ये बोलना जहर हो गया. हमारे पास जो दो लोग थे उनमें से जो साइलेंट टाईप का था उसने गुड्डी की बांह कस के पकड़ ली और अपनी और खींच लिया.
दरवाजे के पास खड़ा तीसरा आदमी अब बोला....
' तो ये तुम्हारी भतीजी है ..."
" नहीं नहीं जी ..ऐसा कुछ नहीं ...अरे ऐसे ही बोल रही है सौदा लेने आई थी बस...ये लोग तो बस जा रहे थे बस...इसका मुझसे कोई लेना देना नहीं बस छोड़ दीजिये इसे...हे जाओ तुम लोग कहाँ रुके हो...हम सब वो कुछ नहीं रखते ...जाओ..."
दरवाजे के पास खड़ा आदमी मुस्करा रहा था....और एक हाथ से उसने जेब से गुटका निकला और खाने लगा.
जिसने गुड्डी को पकड़ रखा था उसने दूसरा हाथ उसके कमर पे रख दिया और अपनी और खींचा कस के...दूसरे ने सेठ जी का कंधा पकड़ा और कहने लगा...
" अच्छा इनसे कुछ लेना देना नहीं तो ये तुम्हे चाचा जी क्यों बोल रही थी...दूसरे फिर तुम इसे बचाने के लिए काहें झूठ पे झूठ बोले जा रहे हो."और जो आदमी गुड्डी को पकडे हए था उससे बोला....
" हे ज़रा साली की चूंची ज़रा दाब के तो बता...ये साल्ली तो सेठ जी की बेटी से भी ज्यादा करारा माल लग रही है..."
मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करें
" भैया हम लोगों को जाने दो...हम लोगों से कोई मतलब नहीं है बस... चले जा रहे हैं." बोलते गिडगिडाते मैं नीचे झुका जैसे मैं उनके पाँव पड़ने की की कोशिश कर रहा हूँ.
और नीचे झुकाते ही रंगों के डिब्बो के साथ साथ एक खुले बरतन में लाल पिसी मिर्च का पाउडर और बगल में हल्दी का पाउडर ...झुके झुके लाल पाउडर मैंने उठाया और तेजी से ऊपर उठाते हुए उसकी आँखों में पूरा का पूरा झोंक दिया. जैसे ही वो सम्ल्हता ....दूसरी मुट्ठी फिर .. अबकी आँख के साथ नाक और मुंह में ...छींक से उसकी बुरी हालत हो गयी.
तभी गुड्डी ने साथ साथ, दूसरे आदमी के पैर में अपनी लम्बी तीखी हील भी पहले तो कस के घुसा दी और फिर गोल गोल घुमाने लगी...उसकी पकड़ ढीली हो गयी और गुड्डी के दोनों हाथ छूट गए....गुड्डी ने उस आदमी के पेट में पूरी ताकत लगा के अपनी कुहनी दे मारी.
बस वो मौका मिल गया जो मैं चाहता था. दोनों से एक साथ निपटना असंभव था. और दोनों के पास ही हथियार थे. चाक़ू कट्टा .. या ऐसे कुछ भी..
गुड्डी को मैंने हल्का सा धक्का दिया और वो उस आदमी को लिए दिए सामान के ढेर के बीच जा गिरी.
जिसकी आँख में मैंने मिर्च झोंकी थी वो अब कुछ संभल रहा था. आँखे खोलने की कोशिश करते हुए वो अपने साथी से बोला.
." पकड़ ले साल्ली को...इस सेठ की लौंडिया को तो तीन दिन में छोड़ दिया था सिर्फ एक और से मजा ले कर ...इसकी तो चूत का भोंसडा बना देंगे...और तुझे तो गांड पसंद है न..."
मैं समझ रहा था ये सिर्फ बोल नहीं रहा है...और हमारे पास सिर्फ एक रास्ता था...हमला.
मैंने जूते पूरी ताकत से उस के घुटने पे दे मारे और एक बाद एक ,,,,चार बार वहीँ..एक पैर उसका ख़तम हो गया. लेकिन उसके गिरने से पहले ही मैंने एक हाथ से उसे पकड़ा और दूसरे हाथ से एक चाप सीधे उसके कान के नीचे और अब वो जो गिरा तो मैं समझ गया की कुछ देर की छुट्टी ..
.लेकिन मैं कनखियों से देख रहा था की दूसरा जिसे मैं गुड्डी के साथ धक्का दे के गिरा दिया था अब अपने पैरों पे खड़ा था और उसके हाथ की चेन हवा में लहरा रही थी और अगले ही पल ठीक मेरे उपर ...अगर मैं झटके से बैठता नहीं. और बैठे बैठे ही मैंने मेज जिस पर सामान रखा था उसकी ओर दे मारा. लेकिन वो सम्हल गया और पीछे खिसक गया. चेन अभी भी उसके हाथ में लहरा रही थी.
मैं चेन की रेंज से तो बाहर हो गया था क्योंकि अब बीच में मेज और गिरा हुआ सामान था लेकिन मैं भी उसे पकड़ नहीं सकता था.
तब तक नीचे गिरे आदमी ने उठने की कोशिश की और मैंने बायं हाथ बढ़ा के उसका दायाँ हाथ पकड़ के अपनी ओर खिंचा. जैसे ही वो थोडा उठा मेरे खाली हाथ ने एक चाप उसके दायें हाथ की कुहनी पे दे मारा और साथ ही में पैर उसके घुटने पे ...मैं अपने निशाने के बारे में कांफिडेंट था की अब सारे कार्टिलेज घुटने और कुहनी के गए...और वो अब उठने के काबिल नहीं है...
दूसरा चेन वाला ज्यादा फुर्तीला और स्मार्ट था....मेज से बस वो आधे मिनट ही रुक पाया और घूम कर पीछे से उसने फिर चेन से मेरे उपर वार किया. मैं अब फँस गया.
मेरे उन आर्म्ड कम्बैट के लेसन तब काम आते जब वो पास में आता और चेन से एक दो बार से ज्यादा बचना मुश्किल था...वो एक बार अगर हिट कर देती तो ...और फिर गुड्डी..
.बचते हुए मैं दूकान के दूसरे हिस्से पे आगया था जहाँ इन्सेक्ट रिपेलेंट मास्किटो रिपेल्नेट ये सब रखे थे..
.और अब मैंने चेन वाले को पास आने दिया...वो भी समझदार था अब वो दूर से चेन नहीं घुमा रहा था...अपनी ताकत उसने बचा रखी थी और जब मेरे वो नजदीक आया तो चेन उसने फिर लहराई...लेकिन मैंने हाथ में पीछे पकडे काक्रोच रिपेलेंट को खोल लिया था और पूरा स्प्रे सीधे उसकी आँख में ...एक पल के लिए उसकी हालत खराब हो गयी और इतना वक्त मेरे लिए काफी था और मैंने पहले तो उसकी वो कलाई पकड़ के मोड़ दी जिसमें चेन थी एक बार क्लाक वाइज और दुबारा एंटी क्लाक वाइज और वो लटक के झूल गयी.
उसने बाएं हाथ से चाकू निकालने की कोशिश की लेकिन तब तक मेरी उंगलिया सारी एक साथ उसके रीब केज पे ...वो दर्द से झुक दुहरा हो गया और मेरी कुहनी उसके गले के निचले हिस्से पे. साथ में घुटना उसकी ठुड्डी पे...जबतक वो सम्हालता मैंने उसकी दूसरी कलाई भी तोड़ दी.
बचो ....गुड्डी जोर से चीखी .
मैं उस तीसरे आदमी को भूल ही गया था. अब तक वो चूहे बिल्ली की लड़ाई की तरह हम लोगों को देख रहा था. उसे पूरा कांफिडेंस था की उसके दोनों मोहरे मुझसे निपटने के लिए काफी थे और वो अपना हाथ गन्दा नहीं करना चाहता था. दूसरा आर्ग्नैजेशन में वो अब मैनेजमेंट पोजीशन में पहुँच चुका था लेकिन अब दूसरे बन्दे के गिरने के बाद...
उसके हाथ में चाकू था और तेजी से उसने मेरी ओर फेंका..निशाना उसका भयानक था. मेरे बगल में हटने के बावजूद वो मेरी शर्ट फाड़ते हुए हलके से बांह में लगा....अगर गुड्डी ना बोली होती तो सीधे गले में...
डेड लाक की हालत थी. उसने पलक झपकते जेब से रिवाल्वर निकाल लिया था. और ये कोई कट्टा (देसी पिस्तोल ) नहीं था की मैं रिस्क लूं की शायद ये फेल कर जाय...
उसने नहीं चलाया. मैं पल भर सोचता रहा फिर मेरी चमकी. दो बातें थीं...एक तो उसके मोहरे को मैंने पकड़ लिया था और उस गुत्थ्म्गुथा में गोली किसे लगेगी ये तय नहीं हो सकता था. दूसरे दिन का समय था, चारो ओर बस्ती थी और गोली चलने की आवाज सुन के कोई भी आ सकता था.
क्रमशः.....................
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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