FUN-MAZA-MASTI
मगर औरत ही समझती है कि कब, कैसी और कितनी शर्म उल्लंघन के लायक है। मैंने जब कांता को कपड़ा देकर जाना चाहा तो उसने मुझे रोक दिया, "ठहरो, साया लेकर जाना।"
वह उठ खड़ी हुई। ललिता के एक बार हारने के बाद उस पर उसका नियंत्रण और बढ़ गया था। आत्मशविश्वास से भरी उसके पास बढ़कर पहुंची और उसका दायाँ हाथ पकड़कर झटककर खींच लिया !
मेरे लिए तो जैसे सृष्टि ही उलट गई ! ललिता की दोनों छातियाँ भरी, गोल, गोरी, शिखर पर गाढ़े गुलाबी गोल धब्बे, मानों भगवान द्वारा लगाया गया quality checked की मुहर ! बीच में उठे किंचित लंबे, तने, रसीले चूचुक, चूसने के लिए पुकारते हुए से ! निर्णय करना मुश्किल था कि ललिता के चेहरे और चूचुकों में कौन ज्यादा लाल थे !!!
ललिता के दिमाग में जैसे अंधेरा छा गया था। दीदी उसका दायाँ हाथ मजबूती से पकड़े थी। उसका बायाँ हाथ पेड़ू पर से हटकर स्तनों पर आ गया।
पर अब साया असुरक्षित था ! दीदी यही तो उतारने के लिए उद्यत है, उसने आँखें मूंद लीं।
कांता अपनी बहन पर इतने अधिकार और नियंत्रण से उन्मत्त हो रही थी, उसकी योजना आशातीत रूप से सही काम कर रही थी। उसने उसका दायाँ हाथ पकड़े ही झुककर उसकी कमर में साये की डोरी का बंधन टटोला। ललिता दुविधा में पड़ गई कि स्तन ढके या वस्तिस्थल।
जब तक वह कुछ सोचती, कांता ने डोर का खुला सिरा खोजकर खींच दिया।
ललिता ने एक बार अंतिम सहायता के लिए सिर उठाकर मेरी ओर देखा– दुश्मन से ही दुश्मन के खिलाफ सहायता की भीख। मगर मेरी ओर घुमाते ही उसकी नजर मेरे पजामे की ओर झुक गई जहाँ एक विशाल क्रुद्ध सर्प खड़ा फुँफकार रहा था। पता नहीं क्यों, तभी उसी क्षण उसे लगा कि वह सर्प उसे काटे बिना छोड़ेगा नहीं, अब वह नहीं बचेगी ! उसे एहसास हुआ कि उस सर्प को देखकर खुद उसके अंदर भी कोई सर्प जाग गया है जो उससे मिलने के लिए अपनी स्वतंत्र मर्जी से चलेगा।
अपनी निरंतन धुक धुक कर रही भगनासा पर उसे क्रोध आया।
कांता कमर में उंगली घुसाकर खींच खींचकर डोर को ढीला कर रही थी। डोर कमर में धँसने का निशान छोड़ती अलग हो रही थी। ललिता ने नंगी होने से बचने के लिए छाती पर से हाथ हटाकर साया पकड़ लिया।
एक हाथ हवा में दीदी के हाथ में, दूसरी से साया पकड़ी, नंगी गोरी बाँहें, कंधे, सीना, दोनों चमकते चूचुकों के काले वृत्त लिए गोरे स्तन जो ललिता के शर्म बचाने की कोशिश में आगे झुकने से और अच्छे से झूल रहे थे ! ललिता अजब मादक, उत्तेजक, दयनीय और हास्यास्पद लग रही थी। मेरी इच्छा हुई उसे बाँहों में भरकर पुचकारकर प्यार करूँ।
ललिता के सामने साया पकड़ लेने पर कांता मुस्कुराई, वह अपना हाथ उसकी कमर के पीछे ले गई। रीढ़ के गड्ढे में हाथ घुसकार उसने साए को ढीला किया। ललिता कुछ नहीं कर सकती थी। पीछे सूखी होने के कारण डोर आसानी से खिंच गई और साया ढीला होकर नितम्बों पर सरक गया। काली पैंटी आधे से ज्यादा प्रकट हो गई।
ललिता साये को पकड़कर रोकने की कोशिश करती गिड़गिड़ाई, "दीऽऽ दीऽऽ... जीजाजी देख रहे हैं।"
"सही कहती है।" वह मेरी ओर मुड़ी, "तुम इसको देख रहे हो और यह तुमको नहीं देख पा रही है। अपना पजामा उतार दो।" वह कठोरता से बोली।
ललिता ने ये शब्द़ सुने, वह अवाक मेरी ओर देखने लगी, उसके मुँह से बोल नहीं फूटे। मैं पसोपेश में पड़ गया। उसे बुरा तो नहीं लगेगा? पर अब हम वहाँ पहुँच गए थे जहाँ किसी के लिए भी दुविधा में पड़ना अच्छा नहीं था। ललिता के लिए भी नहीं।
जिस बिन्दु पर वह पहुँच चुकी थी वहाँ से उसे अनचुदे छोड़ देना उसके लिए सिर्फ अपमानजक होकर रह जाता। मेरी बीवी दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ रही थी। मुझे उसका साथ देना था।
मैंने अपनी कमर की इलास्टिक में अंगूठे फँसाए और नीचे खिसका दिया। मेरा लिंग उसकी तंग परिधि से स्प्रिंग की तरह छूटकर बाहर निकला और हिलकर सीधा ललिता की ओर इशारा करने लगा।
कोई कुछ नहीं बोला। समय जैसे ठहर गया। कुछ सेकंड ऐसे ही बीते। ललिता मेरी और मेरे लिंग की लाल क्रुद्ध आँखों की तपिश में झुलसती रही।
कांता शांत थी। उसने ललिता का हाथ छोड़ दिया, घुटनों के बल बैठ गई।
अब ललिता एक ही दिशा में जा सकती थी– संभोग।
फिर भी उसने डूबने से पहले हाथों से छिपाकर लाज बचाने की एक बेहद कमजोर कोशिश की।
ललिता ने हाथ ऊपर बढ़ाए। दोनों तरफ से साए का कपड़ा बटोरकर मुट्ठी में लिया। मुट्ठी कसी और...
ललिता की धड़कन रुक गई, अब गया... गया..
कांता एक क्षण ठहरी, उसकी तड़पन और यातना का मजा लिया, फिर उसके हाथों में हरकत हुई और...
साया एक झटके से दीवार की तरह नीचे आ गिरा। संगमरमरी जांघें, गोल पिंडलियाँ, नीचे गिरे साये के घेरे में छिपी एड़ियाँ... छोटी सी पैंटी, बेहद संक्षिप्त, अपर्याप्त ! वाक्य के बीच 'कॉमा' (अर्द्धविराम) सी...
ललिता ने गिरने से बचने के लिए बहन के ही कंधे का सहारा ले लिया। मेरी इच्छा हुई अब कांता को रोकूँ। पूर्ण नग्न करना शय्या पर उत्तप्त कामक्रिया के समय ही अच्छा लगेगा।
किंतु कांता बंदूक से छूटी गोली की तरह पूरे वेग में थी। उसने ललिता की पैंटी में उंगलियाँ फँसाई और नीचे खींची। पैंटी जरा सा नितम्बों पर अटकी, पर खिंचाव की ताकत से फिसलकर नीचे आ गई। घुटनों में आकर रुकी।
मैंने देखा– पैरों के बीच से गुजरती उसकी पतली पट्टी! पानी से और उसके प्रेमरसों से भीगी ! उसे एक बार मुँह से छूने का खयाल मन में तैर गया। कांता ने पैंटी नीचे खिसकाकर उसकी एक एड़ी उठाई। ललिता ने विरोध नहीं किया। बहन का सहारा लिए ललिता का दूसरा पाँव भी उठाकर कांता ने पैंटी को निकालकर अलग फेंक दिया।
मैंने देखा– उसके तने चूचुक, गर्व से भरे उभरे स्तनों के माथे पर मुकुट की तरह सजे। पेड़ू से नीचे काली घनी फसल... मानों स्वर्ग के द्वार पर काले बादलों का झुण्ड ! साफ, केले के तने जैसी जांघें... किसी अकल्पनीय लोक से उतरी रति की साक्षात् मूर्ति...!
कांता ने मेरी ओर देखा, मैं आगे बढ़ा, रति की देवी के समक्ष... और समीप... और निकट... जबतक कि मेरे लिंग का कठोर मुँह उसके कोमल पेट में कोंचने न लगा... मेरी छाती ने उसके साँवले गुलाबी चूचुकों का स्पर्श किया और...
उस देवी ने आँखें मूंद लीं।
मुलायम गोलाइयाँ मेरी छाती पर दबकर चपटी हो गईं। मैंने उसके झुके माथे पर देखा– सिंदूर का दाग... उसके चुदे, भोगे, पुरुष के नीचे मर्दित होने का प्रमाण... मुझे गुस्सा सा आया... रति की देवी के समक्ष वह नकारा नपुंसक इंजीनियर... स्साला...
मेरे होंठ नीचे झुके- उसकी कान को हल्के दाँतों से काटने के लिए, उसकी धड़कती गर्दन पर छोटे छोटे चुम्बन अंकित करने के लिए... उसके नमकीन पसीने को चखने के लिए ! मेरे हाथ उसके बदन को घेरते हुए उसके पीछे की ओर बढ़े और उसके गोल नितम्बों को ढकते हुए उनपर टिक गए। मैंने उसे कसकर अपने में दबा लिया और उसके होंठों को ढूँढने लगा। उसकी बेहद गोपनीय उर्वर फसल, जिसे अबतक सिर्फ उसके पति ने देखा था, मेरी जाँघों पर फिरती हुई गुदगुदी पैदा करने लगी...
ललिता की पलकें उठीं। एक क्षण के अंश भर के लिए मुझसे आँखें मिलीं और अपनी लाल झलक देकर कांता की ओर मुड़ गईं। कांता उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। ललिता निश्चित नहीं थी कि क्या हो रहा है लेकिन उसका शरीर अब उसकी कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उसकी एक ही इच्छा थी- वह जवान मर्द शरीर जिसने उसे बाँहों में पकड़ रखा था उसे प्यार करे, नहीं, उसे चोदे, उसकी ज्वाला शांत करे।
"इसको बिस्तर पर ले जाओ !" कांता ने आदेश दिया। वह अपने आपको गजब ताकतवर महसूस कर रही थी।
मैंने ललिता को तनिक घुमाया, अपना बायाँ हाथ उसकी पीठ के पीछे डाला और झुककर दायाँ हाथ पैरों के पीछे डाल उसको उठा लिया। घुटनों के मुड़ते ही उसने गिरने से बचने के लिए अपनी गोरी बाँहें मेरी गर्दन में डाल दी।
फूल सी हल्की नहीं थी वो ! थी तो कांता की बहन ही। मुझे खुशी हुई कि वह संभोग के धक्कों को सह लेगी।
कांता दो नंगों के पीछे चलती बेडरूम तक आई।
"डू फुल जस्टिस टु हर (उसके साथ पूरा इंसाफ करो)।" कहकर उसने हमारे पीछे दरवाजा बंद कर दिया।
दरवाजा बंद होने की आवाज उस शांत कमरे में आत्मा के अंदर तक गूंज गई। मैं खड़ा रह गया। पीछे लौटने का रास्ता सदा के लिए बंद हो गया था ललिता के लिए। कांता ने मुझे कितना बड़ा तोहफा दिया था– खुद अपनी बहन ! नंगी करके ! अब मैं उसे चो... सोचकर मेरे लिंग में फुरहुरी दौड़ गई ! कितनी बड़ी बात !!
ललिता मेरी चंगुल में थी। पंख नुची मुर्गी की तरह, चाकू खाने को तैयार। बिस्तर के बीच में बिछा सफेद तौलिया उसके खून का स्वाद चखने के लिए पुकार रहा था।
कांता को पूरा यकीन था कि ललिता की योनि अब भी खून बहाएगी? पता नहीं ! मुझे तो नहीं लगता था !
मैं आगे बढ़ा और उसे बिस्तर पर लिटाने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर उसकी बाँहें मेरी गर्दन में कस गईं, अपने सामने के हिस्सों को मेरी नजरों से बचाने के लिए उसने खुद को मुझमें चिपका लिया। मैंने अपने दाहिने हाथ में उसके मुड़े घुटनों को उतारना चाहा तो वह दोनों पैरों को मेरी कमर के दोनों तरफ लपेटकर मुझमें छिपकिली की तरह चिपक गई। अपना चेहरा उसने मेरे गले में घुसा लिया।
मुझे उसकी इस अदा पर प्यार आया, मैंने हँसकर उसके बालों को चूमा और उसके नितम्बों के नीचे हाथ डालकर उसे सम्हाल लिया। उसके दोनों पैर पीछे मेरी जांघों पर लिपटे थे।
मैंने उसके पीठ के पीछे झाँका– रीढ़ की सीधी हड्डी, पतली कमर और मेरे हाथ पर दबने से नितम्बों के उभरे मांस। नितम्बों के बीच शुरू होती दरार का आभास। औरत का जिन्दगी भर मोहित और उत्साहित किए रहने वाला शरीर। त्वचा से त्वचा का चिकना, मखमली, मुलायम स्पर्श। हाथों और पाँवों की आतुर जकड़। भगवान करे यह जकड़ कभी ढीली नहीं हो।
मैंने उसके कटाव के ऊपरी हिस्से में अंदर की गर्म गीली कोमलता में अपने लिंग की फिसलन महसूस की और पता नहीं कैसे उस वक्त मुझे लगा मैं उसे प्यार करने लगा हूँ। लगा कि इस एहसास से अलग कोई प्यार हो ही नहीं सकता, इस एहसास के बाद उससे प्यार होने से बचा नहीं जा सकता।
मेरे गले पर उसकी गर्म साँसों की टकराहट और मेरी छाती पर उसके उभरे मांसल वक्षों का दबाव, पेट पर उसके मुलायम रेशमी पेट का स्पर्श, कमर में उसकी जांघों का मांसल बंधन, मेरी धड़कन से टकराती उसकी धड़कन – सब इतने मग्न कर लेने वाले थे कि मैं उससे एकाकार होने के लिए आतुर हो उठा। दो कदम चलता बिस्तर के कोने तक आया और घूम कर उस पर थोड़ा सा चूतड़ टिकाकर बैठ गया। पीछे लिपटी उसकी एँड़ियों को उठाकर अपने पीछे बिस्तर पर रख लिया।
गोद में आकर उसकी ठुड्डी और कंठ मेरे मुँह के सामने आ गए। कंठ के अंदर गटकने की सरसराहट ने मेरे चूमते होंठों को गुदगुदाया। नर्म गले के नीचे कॉलर बोन की कठोर सतह, पसीने का नमकीन स्वाद। उसके शरीर की मादक गंध। मैंने और गरदन झुकाकर उसके स्तनों को चूसना चाहा पर वह मुझसे चिपटी थी और नीचे उसकी गीली फूल की पंखड़ियों में सरकते लिंग की असह्य उत्तेजना में इतना धैर्य मुश्किल था। मेरे कान में उसकी सिसकारियों और तेज गर्म साँसों ने मुझे उत्साहित किया और मैं उसकी योनि के रास्ते को अपने लिंग की सीध में लाने के लिए पीछे झुक गया।
वह अपने स्तनों के प्रकट हो जाने की लज्जा में अलग नहीं होना चाह रही थी, जबकि मैंने उन्हें उनकी पूरी भव्यता में उन पर चमकते साँवले घेरे के बीच उठे चूचुकों के साथ उसकी बहन के सामने देखा था। उसकी लाचार और लज्जित मुद्रा का सौंदर्य मेरे मन में पैठ गया था।
मैंने उसे चूमते हुए अपने बदन से लिपटी उसकी बाँहों को धीरे-धीरे ढीला किया और उसके चूतड़ों के नीचे हाथ डालकर अलगाया। मुझे खुशी हुई कि उसने बाधा नहीं डाली। सामने प्रकट हुए स्तनों पर मैंने जानबूझ कर उन पर कोई हरकत नहीं की, नहीं तो वह फिर शर्म से लिपट जाती।
ढीला होकर अलग बैठते ही मेरे लिंग पर उसका भार पड़ा और लिंग उसके जांघों के बीच की दरार को लम्बाई में ढकता हुआ उसमें धँस गया। मैंने ललिता को बाँहों में कसकर दबा लिया। उसकी योनि और गुदा के बीच की नाजुक चमड़़ी लिंग की कठोर सतह पर खिंचकर फटने लगी और ललिता कराहकर मेरी गोद में और आगे खिसक गई।
मुझे उसके दर्द पर खुशी हुई। मेरे मन में उसके लिए कोमलता और क्रूरता दोनेां के भाव एक साथ आ रहे थे। आज असल मर्द का स्वाद ले रही हो, दर्द तो होगा ही। और कैसे कैसे दर्द सहने पड़ेंगे, देखना। अभी तो उस असली अंदर प्रवेश का, असल बलि चढ़ने का दर्द तो बाकी ही है। धीरे-धीरे रेतकर प्राण निकालूंगा। मर्द केवल मजे की चीज नहीं है। मगर पर इस दर्द को पाने के बाद इस दर्द को पाने के लिए रोओगी।
मैंने उसकी दोनों बगलों में हथेली डालकर उसे गोद से थोड़ा उठाया और एक बाँह से उसको थामकर दूसरे हाथ से उसके नितम्बों के नीचे उसकी योनि का छेद ढूंढने लगा। मैं समझ सकता था कि वह मुझे बाथरूम से निकलते समय नंगा देखने के बाद पूरे कपड़ों के उतरने तक कितनी देर से उत्तेजित अवस्था में रही होगी। पूरी चूत डबडबा रही थी और लिंग उसमें फिसल रहा था। मेरी उंगलियां भीग गईं।
उस अनमोल रस को बाद में चखूँगा !
मैंने उसकी तहों के बीच छिपी योनि का द्वार ढूंढ निकाला और लिंग को उसमें निर्दिष्ट करने लगा। ललिता मेरी गर्दन पर भार डालकर लिंग से योनि को बचाने की कोशिश करने लगी। पर वह बेसहारा थी, आगे से हाथ निकाल नहीं सकती थी और पीछे उसके पाँव सीधे होकर बिस्तर पर रखे थे।
मैंने एक शैतानी की, हाथ बढ़ाकर सिरहाने से तकिया खींचा और अपनी पीठ पीछे उसकी एड़ियों के नीचे घुसा दिया। उसकी एड़ियाँ और उठ गईं और वह उन पर कोई भार लेने में असमर्थ हो गई। मेरे उत्सुक लिंग को प्रवेश द्वार मिल गया और मैंने उसे वहीं टिका दिया। अब उसे अपने से अलग करना जरूरी था, ताकि अंदर का रास्ता लिंग की सीध में आ सके। मैंने हाथ पीछे ले जाकर तकिये पर उसके पाँव जकड़े और बाएँ हाथ को ढीला छोड़ते हुए पीछे झुक गया। ललिता पाँव उठे रहने के कारण आगे झुक नहीं सकती थी। उसने मुझे छोड़ दिया और सीधी बैठ गई। योनि की लाइन लिंग की लाइन में मिल गई और ललिता अपने भार से ही उसपर धँसने लगी। तलवार म्यान में समाने लगी।
मैंने चाहा नहीं था उसमें इस तरह का प्रवेश। मैंने तो खूब रोमैंटिक मिलन का ख्वाब देखा था। उसे बिस्तर पर लिटा कर, स्वयं उसके कपड़े उतारते हुए, उसे खूब चूमकर चूसकर गर्म करने की कल्पना की थी। मगर ललिता की स्थिति को देखते हुए मुझे यही स्वाभाविक लगा। उसकी अपमानित और असहाय अवस्था में थोड़ा बल प्रयोग के साथ संभोग ही सही रहेगा।
और यह भी कम मीठा नहीं था। ललिता किसी कुँआरी कन्या जैसी कसी हुई लग रही थी। शायद उसका पति छोटा था और मेरा यूँ भी सामान्य से थोड़ा ओवरसाइज। ललिता ने मेरी जांघों पर हाथ टिकाकर उसपर भार डालकर बचने की कोशिश की थी पर मैंने पीछे झु्ककर पीठ से उसकी एड़ियों को दबा दिया। उसकी कलाइयों को कसकर पकड़ा और फूल-सा उठा दिया। उसने अपने सामने स्तनों को ढकने के लिए जोर लगाया पर मैं आराम से अपने सामने खुले उस मजेदार दृश्य का पान करता रहा। साथ में मैं कमर से हल्के हल्के झटके दे रहा था। वह अनायास मुझमें सरकती जा रही थी।
स्वर्ग में प्रवेश भी इससे आनंददायक होता होगा क्या?
पर यह अभी भी आधा ही था, और इसी में उसके चेहरे पर दर्द की रेखाएँ उभर रही थीं। मैं फैलने के लिए उसे ज्यादा समय नहीं दे रहा था, बस प्रवेश की गति को नियंत्रित किए था। अब पूर्ण प्रवेश का आश्चर्य देने के लिए उसके पैरों को मोड़ना था। मैंने उसे खुद से चिपकाया और पीछे से उसके पैरों को निकालते हुए बिस्तर पर पीछे खिसका और घूमते हुए उसे झटके से अपनी दूसरी ओर गिरा लिया। इस काम में मेरा लिंग उसकी योनि से बाहर निकलने को हो आया। मैंने उसे वापस अंदर भेजा और अंदर धँसाए धँसाए ही उसके नितम्बों को खींचकर तौलिये पर ले आया।
लेकिन इस उठापटक में वह सचेत हो गई और विरोध करने लगी। मैंने अपनी छाती पर उसके कुछ कोमल मुक्कों का मजा लिया फिर उसके हाथ पकड़ लिए। उसके ऊपर सीधा हो गया और अपने शरीर का पूरा भार उसके ऊपर छोड़ दिया। मैंने उसके माथे पर अपना सिर रख दिया और अपनी साँसों को नियंत्रित करने लगा।
मेरे भार के नीचे दबी वह कुछ क्षणों तक कसमसाती रही। कसमसाने के दौरान उसकी योनि मेरे लिंग पर और सख्ती से कसकर बेहद नशीली रगड़ दे रही थी। ऐसा कुछ देर और चलता तो मैं शायद स्खलित ही हो जाता। लेकिन ललिता शांत पड़ गई। मैंने धीरे धीरे आगे बढ़ने का निश्चय किया ताकि पहले न झड़ जाऊँ।
मैं ललिता के विरोध को अब जीत चुका था। उसने अपने अंदर मेरी मौजूदगी कबूल कर ली थी हालाँकि बीच बीच में विरोध करके हार से इनकार करने की कोशिश कर रही थी। अब यहाँ से मुझे उसको राजी करने तक की दूरी तक लाना था।
उसके अंदर धँसे लिंग पर से ध्यान हँटाते हुए मैंने उसके चेहरे को हाथों से पकड़कर सीधा किया और उसे देखने लगा। सुंदरता पर उत्तेजना और शर्म की लाली। जैसे फूलों के बगीचे पर सुबह के सूरज की लाली। हाय... मैंने उस लाल चेहरे को दबोचा और उसके मुँह पर अपना मुँह गाड़ दिया।
ललिता के मुँह का स्वाद ! आह, स्वर्ग था ! लार की हल्की सोंधी मिठास और मुँह के अंदर की हवा में फूल सी गंध। उसने साँस लेने के लिए मुँह उठाया तो मैंने शेर के जबड़ों की तरह उसके गले पर मुँह जमा दिया और उसके नमकीन सुगंधित पसीने को जोर जोर चूसने लगा। वह हिरनी-सी छटपटाने लगी। मैंने सिर उठाकर उसकी छटपटाहट देखी और खुश होकर पुन: उसके मुँह पर हमला कर दिया।उसके लार को अपने मुँह में खींचकर पुन: उसके मुँह में ठेल दिया। उसके चेहरे को जकड़े उसके मुँह पर मुँह जमाए रहा जब तक कि वह उसे पी नहीं गई।
मन में खयाल आ गया कि ऐसे ही मैं इसे अपने लिंग से पिलाउंगा। आवेग में भरकर मैंने उसे बार-बार चूमा। फिर से उसके लार को चूसा और उसे पिलाया। उसका विरोध घटने लगा और फिर कभी मैं, कभी वो एक दूसरे को पीने लगे।
कुछ देर में उसकी बाँहें मेरी गर्दन में कस गईं और उसने अपने सामने के हिस्सों को मेरी नजरों से बचाने के लिए खुद को मुझमें चिपका लिया। क्या मजेदार बात थी। कहाँ तो नीचे अपनी योनि में मेरे लिंग को समाए थी और कहाँ ऊपर अपनी छाती दिखाने में भी शर्मा रही थी। उसने अपना चेहरा मेरे गले में घुसा लिया।
मैंने हँसकर उसके बालों को चूमा और उसके नितम्बों के नीचे हाथ डालकर उसे सम्हाल लिया। उसने दोनों पैर मेरी जांघों के पीछे लपेट दिए।
धक्के लगाने की तीव्र इच्छा को मैं किसी तरह दबाए था पर जब उसने अपने पैर मेरी जांघों पर लपेट दिए तो मारे खुशी और उत्तेजना के मैंने खुद को रोकने की कोशिश छोड़ दी। मैं उसके बदन पर आगे पीछे नाव की तरह हिचकोले खाने लगा। लिंग उसकी मखमली तहों में फिसलने लगा। ऐसी कसावट भरी मादक रगड़ थी कि शादी के बाद के शुरुआती दिनों की याद आ गई।
मैं उसके बदन पर प्यार के हल्के हिचकोलों को क्रमशः सम्भोग के धक्कों में बदलने लगा। योनि में अंदर फिसलते लिंग के आगे-पीछे होने की लम्बाई बढ़ने लगी। ललिता का मेरी पीठ पर पहले प्यार से घूमता हाथ आवेग में भरकर नाखूनों के खरोंच छोड़ने लगा। खरोंच के दर्द को मैं धक्के मारकर भुलाने की कोशिश करता। ललिता कभी दर्द से, कभी आनंद से कराह उठती। रह-रहकर उसकी बाँहें और जांघें मेरे शरीर पर भिंचने लगी। मुझे लगा वह अब अपने रंग में आ रही है। सही औरत का एकदम गर्म उत्तेजित रूप, जिसे चरम सुख की पूर्ण अवस्था तक पहुँचाना किसी भी पुरुष का दायित्व होता है।
मैंने उस दायित्व को पूरा करने के लिए गति बढ़ा दी। नरम, नाजुक ललिता को अपनी हट्टी-कट्ठी बहन की तरह जोरदार धक्कों की जरूरत नहीं थी। वह आहें भर रही थी और चरम सुख के करीब थी। एक मन हुआ कि अभी लिंग निकालकर उसको इस अंतिम सुख के लिए तड़पाऊँ, पर वह बेचारी इतनी देर से उत्तेजना और अपमान की यंत्रणा भुगत रही थी। हमने उसपर बहुत अत्याचार किया था। अब उसको न्याय देना जरूरी था। मैंने उसकी जांघों को फैला दिया ताकि ललिता का योनिछिद्र और चौड़ा हो जाए और उसको धक्कों में दर्द कम हो। ललिता बहुत कसी हुई थी। शायद ज्यादा संभोग नहीं कर पाई थी। शुक्र था, उसका अपना गीलापन उसकी मदद कर रहा था।
कांता से अलग, एक नया शरीर, नया अनुभव।
पेड़ू से पेड़ू टकराने की पनीली फच फच आवाजें। कमरे में गूंजती आहें... ओ माँ... ओओओओह... आआआह... !
कांता को तो सुनाई पड़ ही रहा होगा ना ! शायद वो तो कमरे के दरवाजे पर कान लगाए खड़ी होगी !
अभूतपूर्व आनन्द !
'फच' 'फच' 'चट' 'चट' को लांघती एक लम्बी सिसकारी। मेरे कंठ से भागती हुई 'हुम्म' 'हुम्म'... मैंने ललिता को लाल आँखों से देखा। उसकी गुर्राहटें और फिर खुले मुख से एक लम्बी आआआआह ! उसने मुझे एकदम से भींच लिया और कंधे में दाँत गड़ा दिए। रस्सी की तरह बदन मरोड़ने लगी। मैंने उसको अपनी जाँघों के बीच जकड़ा और पेड़ू से पेड़ू को खूब दबाकर मसलने लगा ताकि भगांकुर की कली कुचले। इसके साथ ही मुझे लिंग पर उसकी योनि की हिचकियाँ महसूस होने लगीं।
थोड़ी ही देर में उस पर एक रस की फुहार आई। चरम सुख की मथानी से मथकर निकला रस। ललिता बेसुध होने लगी।
मेरा भी अंत आ गया था। मैं जानता नहीं था उसने गर्भ निरोध का क्या उपाय किया था। उसे किसी परेशानी में नहीं डालना चाहता था। इसलिए मैंने लिंग को बाहर निकाल लिया और उसे हाथ से झटके देते हुए वहीं तौलिये पर वीरगति को प्राप्त हो गया।
कुछ क्षण उसके आनन्द में डूबे चेहरे को देखता रहा। उसके सुंदर स्तनों पर, जांघों के बीच अंतरंग बालों पर, पूरे शरीर पर नजर डाली, फिर उसकी बगल में लेट गया।
मैं बेहद खुश था। जिंदगी किसी सुंदर सपने में थी।
मुझे कांता का ख्याल आया, मैंने एक चादर खींचकर ललिता को ओढ़ाया और किवाड़ पर हल्की दस्तक दी, कांता ने पलक झपकते ही दरवाजा खोल दिया।
"हो गया ना?" उसने पूछा।
"हाँ।" मैंने बाहर निकलते हुए सुख से गदगद स्वर में कहा।
"पूरा... कर दिया न उसको?"
मैंने सिर हिलाया।
कांता अंदर घुसी।
"सोई है।" मैं पीछे से फुसफुसाया।
ललिता के चेहरे पर तृप्ति थी। कांता ने थोड़ा सा चादर उठाकर देखा, अंदर से उसके स्तन झाँक रहे थे।
ललिता की निद्रा टूट गई। बहन को देखते ही उसने चादर खींचकर मुँह ढक लिया, कांता ने चादर के ऊपर से ही उसको चूम लिया।
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चरम सुख की मथानी-3
मगर औरत ही समझती है कि कब, कैसी और कितनी शर्म उल्लंघन के लायक है। मैंने जब कांता को कपड़ा देकर जाना चाहा तो उसने मुझे रोक दिया, "ठहरो, साया लेकर जाना।"
वह उठ खड़ी हुई। ललिता के एक बार हारने के बाद उस पर उसका नियंत्रण और बढ़ गया था। आत्मशविश्वास से भरी उसके पास बढ़कर पहुंची और उसका दायाँ हाथ पकड़कर झटककर खींच लिया !
मेरे लिए तो जैसे सृष्टि ही उलट गई ! ललिता की दोनों छातियाँ भरी, गोल, गोरी, शिखर पर गाढ़े गुलाबी गोल धब्बे, मानों भगवान द्वारा लगाया गया quality checked की मुहर ! बीच में उठे किंचित लंबे, तने, रसीले चूचुक, चूसने के लिए पुकारते हुए से ! निर्णय करना मुश्किल था कि ललिता के चेहरे और चूचुकों में कौन ज्यादा लाल थे !!!
ललिता के दिमाग में जैसे अंधेरा छा गया था। दीदी उसका दायाँ हाथ मजबूती से पकड़े थी। उसका बायाँ हाथ पेड़ू पर से हटकर स्तनों पर आ गया।
पर अब साया असुरक्षित था ! दीदी यही तो उतारने के लिए उद्यत है, उसने आँखें मूंद लीं।
कांता अपनी बहन पर इतने अधिकार और नियंत्रण से उन्मत्त हो रही थी, उसकी योजना आशातीत रूप से सही काम कर रही थी। उसने उसका दायाँ हाथ पकड़े ही झुककर उसकी कमर में साये की डोरी का बंधन टटोला। ललिता दुविधा में पड़ गई कि स्तन ढके या वस्तिस्थल।
जब तक वह कुछ सोचती, कांता ने डोर का खुला सिरा खोजकर खींच दिया।
ललिता ने एक बार अंतिम सहायता के लिए सिर उठाकर मेरी ओर देखा– दुश्मन से ही दुश्मन के खिलाफ सहायता की भीख। मगर मेरी ओर घुमाते ही उसकी नजर मेरे पजामे की ओर झुक गई जहाँ एक विशाल क्रुद्ध सर्प खड़ा फुँफकार रहा था। पता नहीं क्यों, तभी उसी क्षण उसे लगा कि वह सर्प उसे काटे बिना छोड़ेगा नहीं, अब वह नहीं बचेगी ! उसे एहसास हुआ कि उस सर्प को देखकर खुद उसके अंदर भी कोई सर्प जाग गया है जो उससे मिलने के लिए अपनी स्वतंत्र मर्जी से चलेगा।
अपनी निरंतन धुक धुक कर रही भगनासा पर उसे क्रोध आया।
कांता कमर में उंगली घुसाकर खींच खींचकर डोर को ढीला कर रही थी। डोर कमर में धँसने का निशान छोड़ती अलग हो रही थी। ललिता ने नंगी होने से बचने के लिए छाती पर से हाथ हटाकर साया पकड़ लिया।
एक हाथ हवा में दीदी के हाथ में, दूसरी से साया पकड़ी, नंगी गोरी बाँहें, कंधे, सीना, दोनों चमकते चूचुकों के काले वृत्त लिए गोरे स्तन जो ललिता के शर्म बचाने की कोशिश में आगे झुकने से और अच्छे से झूल रहे थे ! ललिता अजब मादक, उत्तेजक, दयनीय और हास्यास्पद लग रही थी। मेरी इच्छा हुई उसे बाँहों में भरकर पुचकारकर प्यार करूँ।
ललिता के सामने साया पकड़ लेने पर कांता मुस्कुराई, वह अपना हाथ उसकी कमर के पीछे ले गई। रीढ़ के गड्ढे में हाथ घुसकार उसने साए को ढीला किया। ललिता कुछ नहीं कर सकती थी। पीछे सूखी होने के कारण डोर आसानी से खिंच गई और साया ढीला होकर नितम्बों पर सरक गया। काली पैंटी आधे से ज्यादा प्रकट हो गई।
ललिता साये को पकड़कर रोकने की कोशिश करती गिड़गिड़ाई, "दीऽऽ दीऽऽ... जीजाजी देख रहे हैं।"
"सही कहती है।" वह मेरी ओर मुड़ी, "तुम इसको देख रहे हो और यह तुमको नहीं देख पा रही है। अपना पजामा उतार दो।" वह कठोरता से बोली।
ललिता ने ये शब्द़ सुने, वह अवाक मेरी ओर देखने लगी, उसके मुँह से बोल नहीं फूटे। मैं पसोपेश में पड़ गया। उसे बुरा तो नहीं लगेगा? पर अब हम वहाँ पहुँच गए थे जहाँ किसी के लिए भी दुविधा में पड़ना अच्छा नहीं था। ललिता के लिए भी नहीं।
जिस बिन्दु पर वह पहुँच चुकी थी वहाँ से उसे अनचुदे छोड़ देना उसके लिए सिर्फ अपमानजक होकर रह जाता। मेरी बीवी दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ रही थी। मुझे उसका साथ देना था।
मैंने अपनी कमर की इलास्टिक में अंगूठे फँसाए और नीचे खिसका दिया। मेरा लिंग उसकी तंग परिधि से स्प्रिंग की तरह छूटकर बाहर निकला और हिलकर सीधा ललिता की ओर इशारा करने लगा।
कोई कुछ नहीं बोला। समय जैसे ठहर गया। कुछ सेकंड ऐसे ही बीते। ललिता मेरी और मेरे लिंग की लाल क्रुद्ध आँखों की तपिश में झुलसती रही।
कांता शांत थी। उसने ललिता का हाथ छोड़ दिया, घुटनों के बल बैठ गई।
अब ललिता एक ही दिशा में जा सकती थी– संभोग।
फिर भी उसने डूबने से पहले हाथों से छिपाकर लाज बचाने की एक बेहद कमजोर कोशिश की।
ललिता ने हाथ ऊपर बढ़ाए। दोनों तरफ से साए का कपड़ा बटोरकर मुट्ठी में लिया। मुट्ठी कसी और...
ललिता की धड़कन रुक गई, अब गया... गया..
कांता एक क्षण ठहरी, उसकी तड़पन और यातना का मजा लिया, फिर उसके हाथों में हरकत हुई और...
साया एक झटके से दीवार की तरह नीचे आ गिरा। संगमरमरी जांघें, गोल पिंडलियाँ, नीचे गिरे साये के घेरे में छिपी एड़ियाँ... छोटी सी पैंटी, बेहद संक्षिप्त, अपर्याप्त ! वाक्य के बीच 'कॉमा' (अर्द्धविराम) सी...
ललिता ने गिरने से बचने के लिए बहन के ही कंधे का सहारा ले लिया। मेरी इच्छा हुई अब कांता को रोकूँ। पूर्ण नग्न करना शय्या पर उत्तप्त कामक्रिया के समय ही अच्छा लगेगा।
किंतु कांता बंदूक से छूटी गोली की तरह पूरे वेग में थी। उसने ललिता की पैंटी में उंगलियाँ फँसाई और नीचे खींची। पैंटी जरा सा नितम्बों पर अटकी, पर खिंचाव की ताकत से फिसलकर नीचे आ गई। घुटनों में आकर रुकी।
मैंने देखा– पैरों के बीच से गुजरती उसकी पतली पट्टी! पानी से और उसके प्रेमरसों से भीगी ! उसे एक बार मुँह से छूने का खयाल मन में तैर गया। कांता ने पैंटी नीचे खिसकाकर उसकी एक एड़ी उठाई। ललिता ने विरोध नहीं किया। बहन का सहारा लिए ललिता का दूसरा पाँव भी उठाकर कांता ने पैंटी को निकालकर अलग फेंक दिया।
मैंने देखा– उसके तने चूचुक, गर्व से भरे उभरे स्तनों के माथे पर मुकुट की तरह सजे। पेड़ू से नीचे काली घनी फसल... मानों स्वर्ग के द्वार पर काले बादलों का झुण्ड ! साफ, केले के तने जैसी जांघें... किसी अकल्पनीय लोक से उतरी रति की साक्षात् मूर्ति...!
कांता ने मेरी ओर देखा, मैं आगे बढ़ा, रति की देवी के समक्ष... और समीप... और निकट... जबतक कि मेरे लिंग का कठोर मुँह उसके कोमल पेट में कोंचने न लगा... मेरी छाती ने उसके साँवले गुलाबी चूचुकों का स्पर्श किया और...
उस देवी ने आँखें मूंद लीं।
मुलायम गोलाइयाँ मेरी छाती पर दबकर चपटी हो गईं। मैंने उसके झुके माथे पर देखा– सिंदूर का दाग... उसके चुदे, भोगे, पुरुष के नीचे मर्दित होने का प्रमाण... मुझे गुस्सा सा आया... रति की देवी के समक्ष वह नकारा नपुंसक इंजीनियर... स्साला...
मेरे होंठ नीचे झुके- उसकी कान को हल्के दाँतों से काटने के लिए, उसकी धड़कती गर्दन पर छोटे छोटे चुम्बन अंकित करने के लिए... उसके नमकीन पसीने को चखने के लिए ! मेरे हाथ उसके बदन को घेरते हुए उसके पीछे की ओर बढ़े और उसके गोल नितम्बों को ढकते हुए उनपर टिक गए। मैंने उसे कसकर अपने में दबा लिया और उसके होंठों को ढूँढने लगा। उसकी बेहद गोपनीय उर्वर फसल, जिसे अबतक सिर्फ उसके पति ने देखा था, मेरी जाँघों पर फिरती हुई गुदगुदी पैदा करने लगी...
ललिता की पलकें उठीं। एक क्षण के अंश भर के लिए मुझसे आँखें मिलीं और अपनी लाल झलक देकर कांता की ओर मुड़ गईं। कांता उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। ललिता निश्चित नहीं थी कि क्या हो रहा है लेकिन उसका शरीर अब उसकी कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उसकी एक ही इच्छा थी- वह जवान मर्द शरीर जिसने उसे बाँहों में पकड़ रखा था उसे प्यार करे, नहीं, उसे चोदे, उसकी ज्वाला शांत करे।
"इसको बिस्तर पर ले जाओ !" कांता ने आदेश दिया। वह अपने आपको गजब ताकतवर महसूस कर रही थी।
मैंने ललिता को तनिक घुमाया, अपना बायाँ हाथ उसकी पीठ के पीछे डाला और झुककर दायाँ हाथ पैरों के पीछे डाल उसको उठा लिया। घुटनों के मुड़ते ही उसने गिरने से बचने के लिए अपनी गोरी बाँहें मेरी गर्दन में डाल दी।
फूल सी हल्की नहीं थी वो ! थी तो कांता की बहन ही। मुझे खुशी हुई कि वह संभोग के धक्कों को सह लेगी।
कांता दो नंगों के पीछे चलती बेडरूम तक आई।
"डू फुल जस्टिस टु हर (उसके साथ पूरा इंसाफ करो)।" कहकर उसने हमारे पीछे दरवाजा बंद कर दिया।
दरवाजा बंद होने की आवाज उस शांत कमरे में आत्मा के अंदर तक गूंज गई। मैं खड़ा रह गया। पीछे लौटने का रास्ता सदा के लिए बंद हो गया था ललिता के लिए। कांता ने मुझे कितना बड़ा तोहफा दिया था– खुद अपनी बहन ! नंगी करके ! अब मैं उसे चो... सोचकर मेरे लिंग में फुरहुरी दौड़ गई ! कितनी बड़ी बात !!
ललिता मेरी चंगुल में थी। पंख नुची मुर्गी की तरह, चाकू खाने को तैयार। बिस्तर के बीच में बिछा सफेद तौलिया उसके खून का स्वाद चखने के लिए पुकार रहा था।
कांता को पूरा यकीन था कि ललिता की योनि अब भी खून बहाएगी? पता नहीं ! मुझे तो नहीं लगता था !
मैं आगे बढ़ा और उसे बिस्तर पर लिटाने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर उसकी बाँहें मेरी गर्दन में कस गईं, अपने सामने के हिस्सों को मेरी नजरों से बचाने के लिए उसने खुद को मुझमें चिपका लिया। मैंने अपने दाहिने हाथ में उसके मुड़े घुटनों को उतारना चाहा तो वह दोनों पैरों को मेरी कमर के दोनों तरफ लपेटकर मुझमें छिपकिली की तरह चिपक गई। अपना चेहरा उसने मेरे गले में घुसा लिया।
मुझे उसकी इस अदा पर प्यार आया, मैंने हँसकर उसके बालों को चूमा और उसके नितम्बों के नीचे हाथ डालकर उसे सम्हाल लिया। उसके दोनों पैर पीछे मेरी जांघों पर लिपटे थे।
मैंने उसके पीठ के पीछे झाँका– रीढ़ की सीधी हड्डी, पतली कमर और मेरे हाथ पर दबने से नितम्बों के उभरे मांस। नितम्बों के बीच शुरू होती दरार का आभास। औरत का जिन्दगी भर मोहित और उत्साहित किए रहने वाला शरीर। त्वचा से त्वचा का चिकना, मखमली, मुलायम स्पर्श। हाथों और पाँवों की आतुर जकड़। भगवान करे यह जकड़ कभी ढीली नहीं हो।
मैंने उसके कटाव के ऊपरी हिस्से में अंदर की गर्म गीली कोमलता में अपने लिंग की फिसलन महसूस की और पता नहीं कैसे उस वक्त मुझे लगा मैं उसे प्यार करने लगा हूँ। लगा कि इस एहसास से अलग कोई प्यार हो ही नहीं सकता, इस एहसास के बाद उससे प्यार होने से बचा नहीं जा सकता।
मेरे गले पर उसकी गर्म साँसों की टकराहट और मेरी छाती पर उसके उभरे मांसल वक्षों का दबाव, पेट पर उसके मुलायम रेशमी पेट का स्पर्श, कमर में उसकी जांघों का मांसल बंधन, मेरी धड़कन से टकराती उसकी धड़कन – सब इतने मग्न कर लेने वाले थे कि मैं उससे एकाकार होने के लिए आतुर हो उठा। दो कदम चलता बिस्तर के कोने तक आया और घूम कर उस पर थोड़ा सा चूतड़ टिकाकर बैठ गया। पीछे लिपटी उसकी एँड़ियों को उठाकर अपने पीछे बिस्तर पर रख लिया।
गोद में आकर उसकी ठुड्डी और कंठ मेरे मुँह के सामने आ गए। कंठ के अंदर गटकने की सरसराहट ने मेरे चूमते होंठों को गुदगुदाया। नर्म गले के नीचे कॉलर बोन की कठोर सतह, पसीने का नमकीन स्वाद। उसके शरीर की मादक गंध। मैंने और गरदन झुकाकर उसके स्तनों को चूसना चाहा पर वह मुझसे चिपटी थी और नीचे उसकी गीली फूल की पंखड़ियों में सरकते लिंग की असह्य उत्तेजना में इतना धैर्य मुश्किल था। मेरे कान में उसकी सिसकारियों और तेज गर्म साँसों ने मुझे उत्साहित किया और मैं उसकी योनि के रास्ते को अपने लिंग की सीध में लाने के लिए पीछे झुक गया।
वह अपने स्तनों के प्रकट हो जाने की लज्जा में अलग नहीं होना चाह रही थी, जबकि मैंने उन्हें उनकी पूरी भव्यता में उन पर चमकते साँवले घेरे के बीच उठे चूचुकों के साथ उसकी बहन के सामने देखा था। उसकी लाचार और लज्जित मुद्रा का सौंदर्य मेरे मन में पैठ गया था।
मैंने उसे चूमते हुए अपने बदन से लिपटी उसकी बाँहों को धीरे-धीरे ढीला किया और उसके चूतड़ों के नीचे हाथ डालकर अलगाया। मुझे खुशी हुई कि उसने बाधा नहीं डाली। सामने प्रकट हुए स्तनों पर मैंने जानबूझ कर उन पर कोई हरकत नहीं की, नहीं तो वह फिर शर्म से लिपट जाती।
ढीला होकर अलग बैठते ही मेरे लिंग पर उसका भार पड़ा और लिंग उसके जांघों के बीच की दरार को लम्बाई में ढकता हुआ उसमें धँस गया। मैंने ललिता को बाँहों में कसकर दबा लिया। उसकी योनि और गुदा के बीच की नाजुक चमड़़ी लिंग की कठोर सतह पर खिंचकर फटने लगी और ललिता कराहकर मेरी गोद में और आगे खिसक गई।
मुझे उसके दर्द पर खुशी हुई। मेरे मन में उसके लिए कोमलता और क्रूरता दोनेां के भाव एक साथ आ रहे थे। आज असल मर्द का स्वाद ले रही हो, दर्द तो होगा ही। और कैसे कैसे दर्द सहने पड़ेंगे, देखना। अभी तो उस असली अंदर प्रवेश का, असल बलि चढ़ने का दर्द तो बाकी ही है। धीरे-धीरे रेतकर प्राण निकालूंगा। मर्द केवल मजे की चीज नहीं है। मगर पर इस दर्द को पाने के बाद इस दर्द को पाने के लिए रोओगी।
मैंने उसकी दोनों बगलों में हथेली डालकर उसे गोद से थोड़ा उठाया और एक बाँह से उसको थामकर दूसरे हाथ से उसके नितम्बों के नीचे उसकी योनि का छेद ढूंढने लगा। मैं समझ सकता था कि वह मुझे बाथरूम से निकलते समय नंगा देखने के बाद पूरे कपड़ों के उतरने तक कितनी देर से उत्तेजित अवस्था में रही होगी। पूरी चूत डबडबा रही थी और लिंग उसमें फिसल रहा था। मेरी उंगलियां भीग गईं।
उस अनमोल रस को बाद में चखूँगा !
मैंने उसकी तहों के बीच छिपी योनि का द्वार ढूंढ निकाला और लिंग को उसमें निर्दिष्ट करने लगा। ललिता मेरी गर्दन पर भार डालकर लिंग से योनि को बचाने की कोशिश करने लगी। पर वह बेसहारा थी, आगे से हाथ निकाल नहीं सकती थी और पीछे उसके पाँव सीधे होकर बिस्तर पर रखे थे।
मैंने एक शैतानी की, हाथ बढ़ाकर सिरहाने से तकिया खींचा और अपनी पीठ पीछे उसकी एड़ियों के नीचे घुसा दिया। उसकी एड़ियाँ और उठ गईं और वह उन पर कोई भार लेने में असमर्थ हो गई। मेरे उत्सुक लिंग को प्रवेश द्वार मिल गया और मैंने उसे वहीं टिका दिया। अब उसे अपने से अलग करना जरूरी था, ताकि अंदर का रास्ता लिंग की सीध में आ सके। मैंने हाथ पीछे ले जाकर तकिये पर उसके पाँव जकड़े और बाएँ हाथ को ढीला छोड़ते हुए पीछे झुक गया। ललिता पाँव उठे रहने के कारण आगे झुक नहीं सकती थी। उसने मुझे छोड़ दिया और सीधी बैठ गई। योनि की लाइन लिंग की लाइन में मिल गई और ललिता अपने भार से ही उसपर धँसने लगी। तलवार म्यान में समाने लगी।
मैंने चाहा नहीं था उसमें इस तरह का प्रवेश। मैंने तो खूब रोमैंटिक मिलन का ख्वाब देखा था। उसे बिस्तर पर लिटा कर, स्वयं उसके कपड़े उतारते हुए, उसे खूब चूमकर चूसकर गर्म करने की कल्पना की थी। मगर ललिता की स्थिति को देखते हुए मुझे यही स्वाभाविक लगा। उसकी अपमानित और असहाय अवस्था में थोड़ा बल प्रयोग के साथ संभोग ही सही रहेगा।
और यह भी कम मीठा नहीं था। ललिता किसी कुँआरी कन्या जैसी कसी हुई लग रही थी। शायद उसका पति छोटा था और मेरा यूँ भी सामान्य से थोड़ा ओवरसाइज। ललिता ने मेरी जांघों पर हाथ टिकाकर उसपर भार डालकर बचने की कोशिश की थी पर मैंने पीछे झु्ककर पीठ से उसकी एड़ियों को दबा दिया। उसकी कलाइयों को कसकर पकड़ा और फूल-सा उठा दिया। उसने अपने सामने स्तनों को ढकने के लिए जोर लगाया पर मैं आराम से अपने सामने खुले उस मजेदार दृश्य का पान करता रहा। साथ में मैं कमर से हल्के हल्के झटके दे रहा था। वह अनायास मुझमें सरकती जा रही थी।
स्वर्ग में प्रवेश भी इससे आनंददायक होता होगा क्या?
पर यह अभी भी आधा ही था, और इसी में उसके चेहरे पर दर्द की रेखाएँ उभर रही थीं। मैं फैलने के लिए उसे ज्यादा समय नहीं दे रहा था, बस प्रवेश की गति को नियंत्रित किए था। अब पूर्ण प्रवेश का आश्चर्य देने के लिए उसके पैरों को मोड़ना था। मैंने उसे खुद से चिपकाया और पीछे से उसके पैरों को निकालते हुए बिस्तर पर पीछे खिसका और घूमते हुए उसे झटके से अपनी दूसरी ओर गिरा लिया। इस काम में मेरा लिंग उसकी योनि से बाहर निकलने को हो आया। मैंने उसे वापस अंदर भेजा और अंदर धँसाए धँसाए ही उसके नितम्बों को खींचकर तौलिये पर ले आया।
लेकिन इस उठापटक में वह सचेत हो गई और विरोध करने लगी। मैंने अपनी छाती पर उसके कुछ कोमल मुक्कों का मजा लिया फिर उसके हाथ पकड़ लिए। उसके ऊपर सीधा हो गया और अपने शरीर का पूरा भार उसके ऊपर छोड़ दिया। मैंने उसके माथे पर अपना सिर रख दिया और अपनी साँसों को नियंत्रित करने लगा।
मेरे भार के नीचे दबी वह कुछ क्षणों तक कसमसाती रही। कसमसाने के दौरान उसकी योनि मेरे लिंग पर और सख्ती से कसकर बेहद नशीली रगड़ दे रही थी। ऐसा कुछ देर और चलता तो मैं शायद स्खलित ही हो जाता। लेकिन ललिता शांत पड़ गई। मैंने धीरे धीरे आगे बढ़ने का निश्चय किया ताकि पहले न झड़ जाऊँ।
मैं ललिता के विरोध को अब जीत चुका था। उसने अपने अंदर मेरी मौजूदगी कबूल कर ली थी हालाँकि बीच बीच में विरोध करके हार से इनकार करने की कोशिश कर रही थी। अब यहाँ से मुझे उसको राजी करने तक की दूरी तक लाना था।
उसके अंदर धँसे लिंग पर से ध्यान हँटाते हुए मैंने उसके चेहरे को हाथों से पकड़कर सीधा किया और उसे देखने लगा। सुंदरता पर उत्तेजना और शर्म की लाली। जैसे फूलों के बगीचे पर सुबह के सूरज की लाली। हाय... मैंने उस लाल चेहरे को दबोचा और उसके मुँह पर अपना मुँह गाड़ दिया।
ललिता के मुँह का स्वाद ! आह, स्वर्ग था ! लार की हल्की सोंधी मिठास और मुँह के अंदर की हवा में फूल सी गंध। उसने साँस लेने के लिए मुँह उठाया तो मैंने शेर के जबड़ों की तरह उसके गले पर मुँह जमा दिया और उसके नमकीन सुगंधित पसीने को जोर जोर चूसने लगा। वह हिरनी-सी छटपटाने लगी। मैंने सिर उठाकर उसकी छटपटाहट देखी और खुश होकर पुन: उसके मुँह पर हमला कर दिया।उसके लार को अपने मुँह में खींचकर पुन: उसके मुँह में ठेल दिया। उसके चेहरे को जकड़े उसके मुँह पर मुँह जमाए रहा जब तक कि वह उसे पी नहीं गई।
मन में खयाल आ गया कि ऐसे ही मैं इसे अपने लिंग से पिलाउंगा। आवेग में भरकर मैंने उसे बार-बार चूमा। फिर से उसके लार को चूसा और उसे पिलाया। उसका विरोध घटने लगा और फिर कभी मैं, कभी वो एक दूसरे को पीने लगे।
कुछ देर में उसकी बाँहें मेरी गर्दन में कस गईं और उसने अपने सामने के हिस्सों को मेरी नजरों से बचाने के लिए खुद को मुझमें चिपका लिया। क्या मजेदार बात थी। कहाँ तो नीचे अपनी योनि में मेरे लिंग को समाए थी और कहाँ ऊपर अपनी छाती दिखाने में भी शर्मा रही थी। उसने अपना चेहरा मेरे गले में घुसा लिया।
मैंने हँसकर उसके बालों को चूमा और उसके नितम्बों के नीचे हाथ डालकर उसे सम्हाल लिया। उसने दोनों पैर मेरी जांघों के पीछे लपेट दिए।
धक्के लगाने की तीव्र इच्छा को मैं किसी तरह दबाए था पर जब उसने अपने पैर मेरी जांघों पर लपेट दिए तो मारे खुशी और उत्तेजना के मैंने खुद को रोकने की कोशिश छोड़ दी। मैं उसके बदन पर आगे पीछे नाव की तरह हिचकोले खाने लगा। लिंग उसकी मखमली तहों में फिसलने लगा। ऐसी कसावट भरी मादक रगड़ थी कि शादी के बाद के शुरुआती दिनों की याद आ गई।
मैं उसके बदन पर प्यार के हल्के हिचकोलों को क्रमशः सम्भोग के धक्कों में बदलने लगा। योनि में अंदर फिसलते लिंग के आगे-पीछे होने की लम्बाई बढ़ने लगी। ललिता का मेरी पीठ पर पहले प्यार से घूमता हाथ आवेग में भरकर नाखूनों के खरोंच छोड़ने लगा। खरोंच के दर्द को मैं धक्के मारकर भुलाने की कोशिश करता। ललिता कभी दर्द से, कभी आनंद से कराह उठती। रह-रहकर उसकी बाँहें और जांघें मेरे शरीर पर भिंचने लगी। मुझे लगा वह अब अपने रंग में आ रही है। सही औरत का एकदम गर्म उत्तेजित रूप, जिसे चरम सुख की पूर्ण अवस्था तक पहुँचाना किसी भी पुरुष का दायित्व होता है।
मैंने उस दायित्व को पूरा करने के लिए गति बढ़ा दी। नरम, नाजुक ललिता को अपनी हट्टी-कट्ठी बहन की तरह जोरदार धक्कों की जरूरत नहीं थी। वह आहें भर रही थी और चरम सुख के करीब थी। एक मन हुआ कि अभी लिंग निकालकर उसको इस अंतिम सुख के लिए तड़पाऊँ, पर वह बेचारी इतनी देर से उत्तेजना और अपमान की यंत्रणा भुगत रही थी। हमने उसपर बहुत अत्याचार किया था। अब उसको न्याय देना जरूरी था। मैंने उसकी जांघों को फैला दिया ताकि ललिता का योनिछिद्र और चौड़ा हो जाए और उसको धक्कों में दर्द कम हो। ललिता बहुत कसी हुई थी। शायद ज्यादा संभोग नहीं कर पाई थी। शुक्र था, उसका अपना गीलापन उसकी मदद कर रहा था।
कांता से अलग, एक नया शरीर, नया अनुभव।
पेड़ू से पेड़ू टकराने की पनीली फच फच आवाजें। कमरे में गूंजती आहें... ओ माँ... ओओओओह... आआआह... !
कांता को तो सुनाई पड़ ही रहा होगा ना ! शायद वो तो कमरे के दरवाजे पर कान लगाए खड़ी होगी !
अभूतपूर्व आनन्द !
'फच' 'फच' 'चट' 'चट' को लांघती एक लम्बी सिसकारी। मेरे कंठ से भागती हुई 'हुम्म' 'हुम्म'... मैंने ललिता को लाल आँखों से देखा। उसकी गुर्राहटें और फिर खुले मुख से एक लम्बी आआआआह ! उसने मुझे एकदम से भींच लिया और कंधे में दाँत गड़ा दिए। रस्सी की तरह बदन मरोड़ने लगी। मैंने उसको अपनी जाँघों के बीच जकड़ा और पेड़ू से पेड़ू को खूब दबाकर मसलने लगा ताकि भगांकुर की कली कुचले। इसके साथ ही मुझे लिंग पर उसकी योनि की हिचकियाँ महसूस होने लगीं।
थोड़ी ही देर में उस पर एक रस की फुहार आई। चरम सुख की मथानी से मथकर निकला रस। ललिता बेसुध होने लगी।
मेरा भी अंत आ गया था। मैं जानता नहीं था उसने गर्भ निरोध का क्या उपाय किया था। उसे किसी परेशानी में नहीं डालना चाहता था। इसलिए मैंने लिंग को बाहर निकाल लिया और उसे हाथ से झटके देते हुए वहीं तौलिये पर वीरगति को प्राप्त हो गया।
कुछ क्षण उसके आनन्द में डूबे चेहरे को देखता रहा। उसके सुंदर स्तनों पर, जांघों के बीच अंतरंग बालों पर, पूरे शरीर पर नजर डाली, फिर उसकी बगल में लेट गया।
मैं बेहद खुश था। जिंदगी किसी सुंदर सपने में थी।
मुझे कांता का ख्याल आया, मैंने एक चादर खींचकर ललिता को ओढ़ाया और किवाड़ पर हल्की दस्तक दी, कांता ने पलक झपकते ही दरवाजा खोल दिया।
"हो गया ना?" उसने पूछा।
"हाँ।" मैंने बाहर निकलते हुए सुख से गदगद स्वर में कहा।
"पूरा... कर दिया न उसको?"
मैंने सिर हिलाया।
कांता अंदर घुसी।
"सोई है।" मैं पीछे से फुसफुसाया।
ललिता के चेहरे पर तृप्ति थी। कांता ने थोड़ा सा चादर उठाकर देखा, अंदर से उसके स्तन झाँक रहे थे।
ललिता की निद्रा टूट गई। बहन को देखते ही उसने चादर खींचकर मुँह ढक लिया, कांता ने चादर के ऊपर से ही उसको चूम लिया।
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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