FUN-MAZZA-MASTI
राजधानी एक्सप्रेस (राज शर्मा )रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ थी। आने वालों की भी और जाने वालों की भी।
तभी स्टेशन पर घोषणा हुई- "कृपया ध्यान दें, दिल्ली से मुंबई को जाने
वाली राजधानी एक्सप्रेस १५ घंटे लेट है।"
सुनते ही आशीष का चेहरा फीका पढ़ गया। कहीं घर वाले ढूँढ़ते रेलवे स्टेशन
तक आ गए तो। उसने 3 दिन पहले ही आरक्षण करा लिया था मुंबई के लिए। पर
घोषणा सुनकर तो उसके सारे प्लान का कबाड़ा हो गया। हताशा में उसने चलने
को तैयार खड़ी एक पैसेन्जर ट्रेन की सीटी सुनाई दी। हड़बड़ाहट में वह उसी
की ओर भागा।
अन्दर घुसने के लिए आशीष को काफी मशक्कत करनी पड़ी। अन्दर पैर रखने की जगह
भी मुश्किल से थी। सभी खड़े थे। क्या पुरुष और क्या औरत। सभी का बुरा हाल
था और जो बैठे थे। वो बैठे नहीं थे, लेटे थे। पूरी सीट पर कब्ज़ा किये।
आशीष ने बाहर झाँका। उसको डर था। घरवाले आकर उसको पकड़ न लें। वापस न ले
जाएं। उसका सपना न तोड़ दें। हीरो बनने का!
आशीष घर से भाग कर आया था। हीरो बनने के लिए। शकल सूरत से हीरो ही लगता
था। कद में अमिताभ जैसा। स्मार्टनेस में अपने सलमान जैसा। बॉडी में आमिर
खान जैसा ( गजनी वाला। 'दिल' वाला नहीं ) और अभिनय (एक्टिंग) में शाहरुख़
खान जैसा। वो इन सबका दीवाना था। इसके साथ ही हिरोइन का भी।
उसने सुना था। एक बार कामयाब हो जाओ फिर सारी जवान हसीन माडल्स, हीरो के
नीचे ही रहती हैं। बस यही मकसद था उसका हीरो बनने का।
रेलगाड़ी के चलने पर उसने रहत की सांस ली।
हीरोगीरी के सपनों में खोये हुए आशीष को अचानक पीछे से किसी ने धक्का
मारा। वो चौंक कर पीछे पलटा।
"देखकर नहीं खड़े हो सकते क्या भैया। बुकिंग करा रखी है क्या?"
आशीष देखता ही रह गया। गाँव की सी लगने वाली एक अल्हड़ जवान युवती उसको
झाड़ पिला रही थी। उम्र करीब 22 साल होगी। ब्याहता (विवाह की हुई ) लगती
थी। चोली और घाघरे में। छोटे कद की होने की वजह से आशीष को उसकी श्यामल
रंग की चूचियां काफी अन्दर तक दिखाई दे रहीं थीं। चूचियों का आकार ज्यादा
बड़ा नहीं लगता था। पर जितना भी था। मनमोहक था। आशीष उसकी बातों पर कम
उसकी छलकती हुई मस्तियों पर ज्यादा ध्यान दे रहा था।
उस अबला की पुकार सुनकर भीड़ में से करीब 45 साल के एक आदमी ने सर निकल
कर कहा- "कौन है बे?" पर जब आशीष के डील डौल को देखा तो उसका सुर बदल
गया- "भाई कोई मर्ज़ी से थोड़े ही किसी के ऊपर चढ़ना चाहता है। या तो कोई
चढ़ाना चाहती हो या फिर मजबूरी हो! जैसे अब है। " उसकी बात पर सब ठाहाका
लगाकर हंस पडे।
तभी भीड़ में से एक बूढ़े की आवाज आई- "कविता! ठीक तो हो बेटी "
पल्ले से सर ढकते उस 'कविता ' ने जवाब दिया- "कहाँ ठीक हूँ बापू!" और फिर
से बद्बदाने लगी- "अपने पैर पर खड़े नहीं हो सकते क्या?"
आशीष ने उसके चेहरे को देखा। रंग गोरा नहीं था पर चेहरे के नयन - नक्श तो
कई हीरोइनों को भी मात देते थे। गोल चेहरा, पतली छोटी नाक और कमल की
पंखुड़ियों जैसे होंठ। आशीष बार बार कन्खियों से उसको देखता रहा।
तभी कविता ने आवाज लगायी- "रानी ठीक है क्या बापू? वहां जगह न हो तो यहाँ
भेज दो। यहाँ थोड़ी सी जगह बन गयी है। "
और रानी वहीं आ गयी। कविता ने अपने और आशीष के बीच रानी को फंसा दिया।
रानी के गोल मोटे चूतड आशीष की जांघों से सटे हुए थे। ये तो कविता ने
सोने पर सुहागा कर दिया।
अब आशीष कविता को छोड़ रानी को देखने लगा। उसके लट्टू भी बढे बढे थे। उसने
एक मैली सी सलवार कमीज डाल राखी थी। उसका कद भी करीब 5' 2" होगा। कविता
से करीब 2" लम्बी! उसका चहरा भी उतना ही सुन्दर था और थोड़ी सी लाली भी
झलक रही थी। उसके जिस्म की नक्काशी मस्त थी। कुल मिला कर आशीष को टाइम
पास का मस्त साधन मिल गया था।
रानी कुंवारी लगती थी। उम्र से भी और जिस्म से भी। उसकी छातियाँ भारी
भारी और कसी हुई गोलाई लिए हुए थी। नितम्बों पर कुदरत ने कुछ ज्यादा ही
इनायत की थी। आशीष रह रह कर अनजान बनते हुए उसकी गांड से अपनी जांघें
घिसाने लगा। पर शायद उसको अहसास ही नहीं हो रहा था। या फिर क्या पता उसको
भी मजा आ रहा हो!
अगले स्टेशन पर डिब्बे में और जनता घुश आई और लाख कोशिश करने पर भी कविता
अपने चारों और लफ़ंगे लोगों को सटकर खड़ा होने से न रोक सकी।
उसका दम सा घुटने लगा। एक आदमी ने शायद उसकी गांड में कुछ चुभा दिया। वह
उछल पड़ी। - "क्या कर रहे हो? दिखता नहीं क्या?"
"ऐ मैडम। ज्यास्ती बकवास नहीं मारने का। ठंडी हवा का इतना इच शौक पल
रैल्ली है। तो अपनी गाड़ी में बैठ के जाने को मांगता था। " आदमी भड़क कर
बोला और ऐसे ही खड़ा रहा।
कविता एकदम दुबक सी गयी। वो तो बस आशीष जैसों पर ही डाट मार सकती थी।
कविता को मुशटंडे लोगों की भीड़ में आशीष ही थोडा शरीफ लगा। वो रानी समेत
आशीष के साथ चिपक कर खड़ी हो गई जैसे कहना चाहती हो, "तुम ही सही हो, इनसे
तो भगवन बचाए!"
आशीष भी जैसे उनके चिपकने का मतलब समझ गया। उसने पलट कर अपना मुंह उनकी
ही ओर कर लिया और अपनी लम्बी मजबूत बाजू उनके चारों और बैरियर की तरह लगा
दी।
कविता ने आशीष को देखा। आशीष थोड़ी हिचक के साथ बोला- "जी उधर से दबाव पड़
रहा है। आपको परेशानी ना हो इसीलिए अपने हाथ बर्थ (सीट) से लगा लें। "
कविता जैसे उसका मतलब समझी ही ना हो। उसने आशीष के बोलना बंद करते ही
अपनी नजरें हटा ली। अब आशीष उसकी चुचियों को अन्दर तक और रानी की चूचियों
को बहार से देखने का आनंद ले रहा था। कविता ने अब कोशिश भी नहीं की उनको
आशीष की नजरों से बचाने की।
"कहाँ जा रहे हो?..." कविता ने लोगों से उसको बचने के लिए जैसे धन्यवाद्
देने की खातिर पूछ लिया।
"मुंबई " आशीष उसकी बदली आवाज पर काफी हैरान था- "और तुम?"
"भैया जा तो हम भी मुंबई ही रहे हैं। पर लगता नहीं की पहुँच पायेंगे
मुंबई तक!" कविता अब मीठी आवाज में बात कर रही थी।।
"क्यूँ?" आशीष ने बात बढ़ा दी!
"अब इतनी भीड़ में क्या भरोसा! मैंने कहा तो है बापू को की जयपुर से
तत्काल करा लो। पर वो बूढ़ाऊ माने तब न!"
"भाभी! बापू को ऐसे क्यूँ बोलती हो?" रानी की आवाज उसके चिकने गालों जैसी
ही मीठी थी।
आशीष ने एक बार फिर कविता की चूचियों को अन्दर तक देखा। उसके लड में तनाव
आने लगा। और शायद वो तनाव रानी अपनी गांड की दरार में महसूस करने लगी।
रानी बार बार अपनी गांड को लंड की सीधी टक्कर से बचने के लिए इधर उधर
मटकाने लगी। और उसका ऐसा करना ही उसकी गोल मटोल गांड के लिए नुक्सान देह
साबित होने लगा।।
लंड गांड से सहलाया जाता हुआ और अधिक सख्त होने लगा। और अधिक खड़ा होने लगा।
पर रानी के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। वो दाई गोलाई को बचाती तो लड
बायीं पर ठोकर मारता और अगर बायीं को बचाती तो दाई पर उसको लंड चुभता हुआ
महसूस होता।
उसको एक ही तरीका अच्छा लगा। रानी ने दोनों चुतरों को बचा लिया। वो सीधी
खड़ी हो गयी। पर इससे उसकी मुसीबत और भयंकर हो गयी। लंड उसकी गांड की
दरारों के बीचों बीच फंस गया। बिलकुल खड़ा होकर। वो शर्मा कर इधर उधर
देखने लगी। पर बोली कुछ नहीं।
आशीष ने मन ही मन एक योजना बना ली। अब वो इन के साथ ज्यादा से ज्यादा
रहना चाहता था।
"मैं आपके बापू से बात करू। मेरे पास आरक्षण के चार टिकेट हैं। मेरे और
दोस्त भी आने वाले थे पर आ नहीं पाए! मैं भी जयपुर से उसी में जाऊँगा। कल
रात को करीब 10 बजे वो जयपुर पहुंचेगी। तुम चाहो तो मुझे साधारण किराया
दे देना आगे का!" आशीष को डर था कि किराया न मांगने पर कहीं वो और कुछ न
समझ बैठे। उसका लंड रानी कि गांड में घुसपैठ करता ही जा रहा था। लम्बा हो
हो होकर!
"बापू!" जरा इधर कू आना! कविता ने जैसे गुस्से में आवाज लगायी।
"अरे मुश्किल से तो यहाँ दोनों पैर टिकाये हैं! अब इस जगह को भी खो दूं
क्या?" बुढ़े ने सर निकाल कर कहा।
रानी ने हाथ से पकड़ कर अन्दर फंसे लंड को बहार निकालने की कोशिश की। पर
उसके मुलायम हाथों के स्पर्श से ही लंड फुफकारा। कसमसा कर रानी ने अपना
हाथ वापस खींच लिया। अब उसकी हालत खराब होने लगी थी। आशीष को लग रहा था
जैसे रानी लंड पर टंगी हुयी है। उसने अपनी एडियों को ऊँचा उठा लिया ताकि
उसके कहर से बच सके पर लंड को तो ऊपर ही उठना था। आशीष की तबियत खुश हो
गयी।!
रानी आगे होने की भी कोशिश कर रही थी पर आगे तो दोनों की चूचियां पहले ही
एक दुसरे से टकरा कर मसली जा रही थी।
अब एड़ियों पर कब तक खड़ी रहती बेचारी रानी। वो जैसे ही नीचे हुयी, लंड
और आगे बढ़कर उसकी चूत की चुम्मी लेने लगा।
रानी की सिसकी निकाल गयी- "आह्हह्ह्ह!"
"क्या हुआ रानी?" कविता ने उसको देखकर पूछा।
"कुछ नहीं भाभी!" तुम बापू से कहो न आरक्षण वाला टिकेट लेने के लिए भैया से!"
आशीष को भैया कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर भैया ऐसे गांड में लंड थोड़ा ही फंसाते हैं।
धीरे धीरे रानी का बदन भी बहकने सा लगा। आशीष का लंड अब ठीक उसकी चूत के
मुहाने पर टिका हुआ था। चूत के दाने पर।
"बापू " कविता चिल्लाई।
"बापू " ने अपना मुंह इस तरफ निकाला, एक बार आशीष को घूरा इस तरह खड़े
होने के लिए और फिर भीड देखकर समझ गया की आशीष तो उनको उल्टा बचा ही रहा
है- "क्या है बेटी?"
कविता ने घूंघट निकल लिया था- "इनके पास आरक्षण की टिकेट हैं जयपुर से
आगे के लिए। इनके काम की नहीं हैं। कह रहे हैं सामान्य किराया लेकर दे
देंगे!"
उसके बापू ने आशीष को ऊपर से नीचे तक देखा। संतुष्ट होकर बोला- "अ ये तो
बड़ा ही उपकार होगा। भैया हम गरीबों पर! किराया सामान्य का ही लोगे न!"
आशीष ने खुश होकर कहा- "ताऊ जी मेरे किस काम की हैं। मुझे तो जो मिल
जायेगा। फायदे का ही होगा।" कहते हुए वो दुआ कर रहा था की ताऊ को पता न
हो की टिकेट वापस भी हो जाती हैं।
"ठीक है भैया। जयपुर उतर जायेंगे। बड़ी मेहरबानी!" कहकर भीड़ में उसका
मुंह गायब हो गया।
आशीष का ध्यान रानी पर गया वो धीरे धीरे आगे पीछे हो रही थी। उसको मजा आ रहा था।
कुछ देर ऐसे ही होते रहने के बाद उसकी आँखें बंद हो गयी। और उसने कविता
को जोर से पकड़ लिया।
"क्या हुआ रानी?"
सँभलते हुए वह बोली। "कुछ नहीं भाभी चक्कर सा आ गया था।
अब तक आशीष समझ चूका था कि रानी मुफ्त में ही मजे ले गयी चुदाई जैसे।
उसका तो अब भी ऐसे ही खड़ा था।
एक बार आशीष के मन में आई कि टाइलेट में जाकर मुठ मार आये। पर उसके बाद
ये ख़ास जगह खोने का डर था।
अचानक किसी ने लाइट के आगे कुछ लटका दिया जिससे आसपास अँधेरा सा हो गया।
लंड वैसे ही अकड़ा खड़ा था रानी कि गांड में। जैसे कह रहा हो। अन्दर घुसे
बिना नहीं मानूंगा मेरी रानी!
लंड के धक्को और अपनी चूचियों के कविता भाभी की चूचियों से रगड़ खाते
खाते वो जल्दी ही फिर लाल हो गयी।
इस बार आशीष से रहा नही गया। कुछ तो रोशनी कम होने का फायदा। कुछ ये
विश्वास की रानी मजे ले रही है। उसने थोडा सा पीछे हटकर अपने पेन्ट की
जिप खोल कर अपने घोड़े को खुला छोड़ दिया। रानी की गांड की घटी में खुला
चरने के लिए के लिए!
रानी को इस बार ज्यादा गर्मी का अहसास हुआ। उसने अपना हाथ नीचे लगा कर
देखा की कहीं गीली तो नहीं हो गयी नीचे से। और जब मोटे लंड की मुंड पर
हाथ लगा तो वो उचक गयी। अपना हाथ हटा लिया। और एक बार पीछे देखा।
आशीष ने महसूस किया, उसकी आँखों में गुस्सा नहीं था। अलबत्ता थोडा डर
जरुर था। भाभी का और दूसरी सवारियों के देख लेने का।
थोड़ी देर बाद उसने धीरे-2 करके अपनी कमीज पीछे से निकाल दिया।
अब लंड और चूत के बीच में दो दीवारें थी। एक तो उसकी सलवार और दूसरा उसकी कच्छी.
आशीष ने हिम्मत करके उसकी गांड में अपनी उंगली डाल दी और धीरे धीरे सलवार
को कुरेदने लगा। उसमें से रास्ता बनाने के लिए।
योजना रानी को भा गयी। उसने खुद ही सूट ठीक करने के बहाने अपनी सलवार में
हाथ डालकर नीचे से थोड़ी सी सिलाई उधेड़ दी। लेकिन आशीष को ये बात तब पता
चली। जब कुरेदते कुरेदते एक दम से उसकी अंगुली सलवार के अन्दर दाखिल हो
गयी।
ज्यों-ज्यों रात गहराती जा रही थी। यात्री खड़े खड़े ही ऊँघने से लगे थे।
आशीष ने देखा। कविता भी झटके खा रही है खड़ी खड़ी। आशीष ने भी किसी सज्जन
पुरुष की तरह उसकी गर्दन के साथ अपना हाथ सटा दिया। कविता ने एक बार आशीष
को देखा फिर आँखें बंद कर ली।
अब आशीष और खुल कर खतरा उठा सकता था। उसने अपने लंड को उसकी गांड की दरार
में से निकाल कर सीध में दबा दिया और रानी के बनाये रस्ते में से उंगली
घुसा दी। अंगुली अन्दर जाकर उसकी कच्छी से जा टकराई!
आशीष को अब रानी का डर नहीं था। उसने एक तरीका निकला। रानी की सलवार को
ठोडा ऊपर उठाया उसको कच्छी समेत पकड़ कर सलवार नीचे खीच दी। कच्छी थोड़ी
नीचे आ गयी और सलवार अपनी जगह पर। ऐसा करते हुए आशीष खुद के दिमाग की दाद
दे रहा था। हींग लगे न फिटकरी और रंग चौखा।
रानी ने कुछ देर ये तरीका समझा और फिर आगे का काम खुद संभल लिया। जल्द ही
उसकी कच्छी उसकी जांघो से नीचे आ गयी। अब तो बस हमला करने की देर थी।
आशीष ने उसकी गुदाज जांघो को सलवार के ऊपर से सहलाया। बड़ी मस्त और चिकनी
थी। उसने अपने लंड को रानी की साइड से बहार निकल कर उसके हाथ में पकड़ा
दिया। रानी उसको सहलाने लगी।
आशीष ने अपनी उंगली इतनी मेहनत से बनाये रास्तों से गुजार कर उसकी चूत के
मुंहाने तक पहुंचा दी। रानी सिसक पड़ी।
अब उसका हाथ आशीष के मोटे लंड पर जरा तेज़ी से चलने लगा। उत्तेजित होकर
उसने रानी को आगे से पीछे दबाया और अपनी ऊगली गीली हो चुकी चूत के अन्दर
घुसा दी। रानी चिल्लाते-चिल्लाते रुक गयी। आशीष निहाल हो गया। धीरे धीरे
करते-करते उसने जितनी खड़े-खड़े जा सकती थी उतनी उंगली घुसाकर अन्दर बहार
करनी शुरू कर दी। रानी के हाठों की जकड़न बढ़ते ही आशीष समझ गया की उसकी
अब बस छोड़ने ही वाली है। उसने लंड अपने हाथ में पकड़ लिया और जोर जोर से
हिलाने लगा। दोनों ही छलक उठे एक साथ। रानी ने अपना दबाव पीछे की और बड़ा
दिया ताकि भाभी पर उनके झटकों का असर कम से कम हो और अनजाने में ही वह एक
अनजान लड़के की उंगली से चुदवा बैठी। पर यात्रा अभी बहुत बाकी थी। उसने
पहली बार आशीष की तरफ देखा और मुस्कुरा दी!
अचानक आशीष को धक्का लगा और वो हडबडा कर परे हट गया। आशीष ने देखा उसकी
जगह करीब 45-46 साल के एक काले कलूटे आदमी ने ले ली। आशीष उसको उठाकर
फैंकने ही वाला था की उस आदमी ने धीरे से रानी के कान में बोला- "चुप कर
के खड़ी रहना साली। मैंने तुझे इस लम्बू से मजे लेते देखा है। ज्यादा
हीली तो सबको बता दूंगा। सारा डिब्बा तेरी गांड फाड़ डालेगा कमसिन जवानी
में!" वो डर गयी उसने आशीष की और देखा। आशीष पंगा नहीं लेना चाहता था। और
दूर हटकर खड़ा हो गया।
उस आदमी का जायजा अलग था। उस ने हिम्मत दिखाते हुए रानी की कमीज में हाथ
डाल दिया। आगे। रानी पूरा जोर लगा कर पीछे हट गयी। कहीं भाभी न जाग जाये।
उसकी गांड उस कालू के खड़े होते हुए लंड को और ज्यादा महसूस करने लगी।
रानी का बुरा हाल था। कालू उसकी चूचियां को बुरी तरह उमेठ रहा था। उसने
निप्पलों पर नाखून गड़ा दिए। रानी विरोध नहीं कर सकती थी।
एकाएक उस काले ने हाथ नीचे ले जाकर उसकी सलवार में डाल दिया। ज्यों ही
उसका हाथ रानी की चूत के मुहाने पर पहुंचा। रानी सिसक पड़ी। उसने अपना
मुंह फेरे खड़े आशीष को देखा। रानी को मजा तो बहुत आ रहा था पर आशीष जैसे
सुन्दर छोकरे के हाथ लगने के बाद उस कबाड़ की छेड़-छाड़ बुरी लग रही थी।
अचानक कालू ने रानी को पीछे खींच लिया। उसकी चूत पर दबाव बनाकर। कालू का
लंड उसकी सलवार के ऊपर से ही रानी की चूत पर टक्कर मारने लगा। रानी गरम
होती जा रही थी।
अब तो कालू ने हद कर दी। रानी की सलवार को ऊपर उठाकर उसके फटे हुए छेद को
तलाशा और उसमें अपना लंड घुसा कर रानी की चूत तक पहुंचा दिया। रानी ने
कालू को कसकर पकड़ लिया। अब उसको सब कुछ अच्छा लगने लगा था। आगे से अपने
हाथ से उसने रानी की कमसिन चूत की फाँकों को खोला और अच्छी तरह अपना लंड
सेट कर दिया। लगता था जैसे सभी लोग उन्ही को देख रहे हैं। रानी की आँखें
शर्म से झुक गयी पर वो कुछ न बोल पाई।
कहते हैं जबरदस्ती में रोमांस ज्यादा होता है। इसको रानी का सौभाग्य कहें
या कालू का दुर्भाग्य। गोला अन्दर फैकने से पहले ही फट गया। कालू का सारा
माल बहार ही निकल गया। रानी की सलवार और उसकी चिकनी मोटी जाँघों पर! कालू
जल्द ही भीड़ में गुम हो गया। रानी का बुरा हाल था। उसको अपनी चूत में
खालीपन सा लगा। लंड का। ऊपर से वो सारी चिपचिपी सी हो गयी। कालू के रस
में।
गनीमत हुयी की जयपुर स्टेशन आ गया। वरना कई और भेड़िये इंतज़ार में खड़े थे।
अपनी अपनी बारी के।
जयपुर रेलवे स्टेशन पर वो सब ट्रेन से उतर गए। रानी का बुरा हाल था। वो
जानबुझ कर पीछे रह रही थी ताकि किसी को उसकी सलवार पर गिरे सफ़ेद धब्बे न
दिखाई दे जाये।
आशीष बोला- "ताऊ जी,कुछ खा पी लें! बहार चलकर। "
ताऊ पता नहीं किस किस्म का आदमी था- "बोला भाई जाकर तुम खा आओ! हम तो
अपना लेकर आये हैं।
कविता ने उसको दुत्कारा- "आप भी न बापू! जब हम खायेंगे तो ये नहीं खा
सकता। हमारे साथ। "
ताऊ- "बेटी मैंने तो इस लिए कह दिया था कहीं इसको हमारा खाना अच्छा न
लगे। शहर का लौंडा है न। हे राम! पैर दुखने लगे हैं। "
आशीष- "इसीलिए तो कहता हूँ ताऊ जी। किसी होटल में चलते हैं। खा भी लेंगे।
सुस्ता भी लेंगे।"
ताऊ- "बेटा, कहता तो तू ठीक ही है। पर उसके लिए पैसे।"
आशीष- "पैसों की चिंता मत करो ताऊ जी। मेरे पास हैं।" आशीष के ATM में
लाखों रुपैये थे।
ताऊ- "फिर तो चलो बेटा, होटल का ही खाते हैं।"
होटल में बैठते ही तीनो के होश उड़ गए। देखा रानी साथ नहीं थी। ताऊ और
कविता का चेहरा तो जैसा सफ़ेद हो गया।
आशीष ने उनको तसल्ली देते हुए कहा- "ताऊ जी, मैं देखकर आता हूँ। आप यहीं
बैठकर खाना खाईये तब तक।"
कविता- "मैं भी चलती हूँ साथ!"
ताऊ- "नहीं! कविता मैं अकेला यहाँ कैसे रहूँगा। तुम यहीं बैठी रहो। जा
बेटा जल्दी जा। और उसी रस्ते से देखते जाना, जिससे वो आए थे। मेरे तो
पैरों में जान नहीं है। नहीं तो मैं ही चला जाता।"
आशीष उसको ढूँढने निकल गया।
आशीष के मन में कई तरह की बातें आ रही थी।" कही पीछे से उसको किसी ने
अगवा न कर लिया हो! कही वो कालू। " वह स्टेशन के अन्दर घुसा ही था की
पीछे से आवाज आई- "भैया!"
आशीष को आवाज सुनी हुयी लगी तो पलटकर देखा। रानी स्टेशन के प्रवेश द्वार
पर सहमी हुयी सी खड़ी थी।
आशीष जैसे भाग कर गया- "पागल हो क्या? यहाँ क्या कर रही हो? चलो जल्दी। "
रानी को अब शांत सी थी।- "मैं क्या करती भैया। तुम्ही गायब हो गए अचानक!"
"ए सुन! ये मुझे भैया-भैया मत बोल "
"क्यूँ?"
"क्यूँ! क्यूंकि ट्रेन में मैंने "और ट्रेन का वाक्य याद आते ही आशीष के
दिमाग में एक प्लान कौंध गया!
"मेरा नाम आशीष है समझी! और मुझे तू नाम से ही बुलाएगी। चल जल्दी चल!"
आशीष कहकर आगे बढ़ गया और रानी उसके पीछे पीछे चलती रही।
आशीष उसको शहर की और न ले जाकर स्टेशन से बहार निकलते ही रेल की पटरी के
साथ साथ एक सड़क पर चलने लगा। आगे अँधेरा था। वहां काम बन सकता था!
"यहाँ कहाँ ले जा रहे हो, आशीष!" रानी अँधेरा सा देखकर चिंतित सी हो गयी।
"तू चुप चाप मेरे पीछे आ जा। नहीं तो कोई उस कालू जैसा तुम्हारी। समाझ
गयी न।" आशीष ने उसको ट्रेन की बातें याद दिला कर गरम करने की कोशिश की।
"तुमने मुझे बचाया क्यूँ नहीं। इतने तगड़े होकर भी डर गए ", रानी ने
शिकायती लहजे में कहा।
"अच्छा! याद नहीं वो साला क्या बोल रहा था। सबको बता देता। "
रानी चुप हो गयी। आशीष बोला- "और तुम खो कैसे गयी थी। साथ साथ नहीं चल सकती थी? "
रानी को अपनी सलवार याद आ गयी- "वो मैं!" कहते कहते वो चुप हो गयी।
"क्या?" आशीष ने बात पूरी करने को कहा।
"उसने मेरी सलवार गन्दी कर दी। मैं झुक कर उसको साफ़ करने लगी। उठकर देखा तो। "
आशीष ने उसकी सलवार को देखने की कोशिश की पर अँधेरा इतना गहरा था की सफ़ेद
सी सलवार भी उसको दिखाई न दी।
आशीष ने देखा। पटरी के साथ में एक खाली डिब्बा खड़ा है। साइड वाले
अतिरिक्त पटरी पर। आशीष काँटों से होता हुआ उस रेलगाड़ी के डिब्बे की और
जाने लगा।
"ये तुम जा कहाँ रहे हो?, आशीष!"
" आना है तो आ जाओ। वरना भाड़ में जाओ। ज्यादा सवाल मत करो!"
वो चुपचाप चलती गयी। उसके पास कोई विकल्प ही नहीं था।
आशीष इधर उधर देखकर डिब्बे में चढ़ गया। रानी न चढ़ी। वो खतरे को भांप
चुकी थी- "प्लीज मुझे मेरे बापू के पास ले चलो। "
वो डरकर रोने लगी। उसकी सुबकियाँ अँधेरे में साफ़ साफ़ सुनाई दे रही थी।
"देखो रानी! डरो मत। मैं वही करूँगा बस जो मैंने ट्रेन में किया था। फिर
तुम्हे बापू के पास ले जाऊँगा! अगर तुम नहीं करोगी तो मैं यहीं से भाग
जाऊँगा। फिर कोई तुम्हे उठाकर ले जाएगा और चोद चाद कर रंडी मार्केट में
बेच देगा। फिर चुदवाती रहना सारी उम्र। " आशीष ने उसको डराने की कोशिश की
और उसकी तरकीब काम कर गयी।।
रानी को सारी उम्र चुदवाने से एक बार की छेड़छाड़ करवाने में ज्यादा फायदा
नजर आया। वो डिब्बे में चढ़ गयी।
डिब्बे में चढ़ते ही आशीष ने उसको लपक लिया। वह पागलों की तरह उसके मैले
कपड़ों के ऊपर से ही उसको चूमने लगा।
रानी को अच्छा नहीं लग रहा था। वो तो बस अपने बापू के पास जाना चाहती
थी।- "अब जल्दी कर लो न। ये क्या कर रहे हो?"
आशीष भी देरी के मूड में नहीं था। उसने रानी के कमीज को उठाया और उसी छेद
से अपनी ऊँगली रानी के पिछवाड़े से उसकी चूत में डालने की कोशिश करने
लगा। जल्द ही उसको अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ। वासना में अँधा वह ये तो
भूल ही गया था की अब तो वो दोनों अकेले हैं।
उसने रानी की सलवार का नाडा खोलने की कोशिश की।
रानी सहम सी गयी। "छेद में से ही डाल लो न।!"
"ज्यादा मत बोल। अब तुने अगर किसी भी बात को "न " कहा तो मैं तभी भाग
जाऊँगा यहीं छोड़ कर। समझी!" आशीष की धमकी काम कर गयी। अब वो बिलकुल चुप
हो गयी
आशीष ने सलवार के साथ ही उसके कालू के रस में भीगी कच्छी को उतार कर फैंक
दिया। कच्छी नीचे गिर गयी। डिब्बे से!
रानी बिलकुल नंगी हो चुकी थी। नीचे से!
आशीष ने उसको हाथ ऊपर करने को कहा और उसका कमीज और ब्रा भी उतार दी। रानी रोने लगी।
"चुप करती है या जाऊ मैं!"
रानी बेचारी करती भी तो क्या करती। फिर से चुप हो गयी!
आशीष ने पैन्ट में से मोबाइल निकाला और उसको चालू करके उससे रोशनी कर ली।
आशीष ने देखा रानी डर से काँप सी रही है और उसके गाल गीले हो चुके थे।
थोड़ी देर पहले रोने की वजह से।
आशीष ने परवाह न की। वो रोशनी की किरण नीचे करता गया। गर्दन से नीचे
रोशनी पड़ते ही आशीष बेकाबू होना शुरू हो गया। जो उसकी जाँघों तक जाते
जाते पागलपन में बदल गया।
आशीष ने देखा रानी की चूचियां और उनके बीच की घाटी जबरदस्त सेक्सी लग रहे
थे। चूचियों के ऊपर निप्पल मनो भूरे रंग के मोती चिपके हुए हो। चुचियों
पर हाथ फेरते हुए बहुत अधिक कोमलता का अहसास हुआ। उसका पेट उसकी छातियों
को देखते हुए काफी कमसिन था। उसने रानी को घुमा दिया। गांड के कटाव को
देखते ही उससे रहा न गया और उन पर हलके से काट खाया।
रानी सिसक कर उसकी तरफ मुढ़ गयी। रोशनी उसकी चूत पर पड़ी। चूत बहुत छोटी
सी थी। छोटी-छोटी फांक और एक पतली सी दरार। आशीष को यकीन नहीं हो रहा था
की उसमें उसकी उंगली चली गयी थी। उसने फिर से करके देखा। उंगली सुर से
अन्दर चली गयी। चूत के हलके हलके बाल उत्तेजना से खड़े हो गए। चूत की
फांकों ने उंगली को अपने भीतर दबोच लिया। उंगली पर उन फाकों का कसाव आशीष
साफ़ महसूस कर रहा था!
उसने रानी को निचली सीट पर लिटा दिया। और दूसरी एकल सीट को एक तरफ खींच
लिया। रानी की गांड हवा में थी। वो कुछ न बोली!
आशीष ने अपनी पैंट उतार फैंकी। और रानी की टांगो को फैलाकर एक दूसरी से
अलग किया। उसने रोशनी करके देखा। चूत की फांके चौड़ी हो गयी थी!
आशीष का दिल तो चाहता था उसको जी भर कर चाटे। पर देर हो रही थी। और आशीष
का बैग भी तो होटल में ही था। उसने लंड को कच्छे से बहार निकाला। वो तो
पहले ही तैयार था। उसकी चूत की सुरंग की सफाई करके चौड़ी करने के लिए।
आशीष ने चूत पर थूक-थूक कर उसको नहला सा दिया। फिर अपने लंड की मुंडी को
थूक से चिकना किया। और चूत पर रखकर जोर से दबा दिया। एक ही झटके में लंड
की टोपी चूत में जाकर बुरी तरह फंस गयी। रानी ने जोर की चीख मारी। आशीष
ने डर कर बाहर निकालने की कोशिश की पर रानी के चुतड़ साथ ही उठ रहे थे।
उसको निकलने में भी तकलीफ हो रही थी। उसका सारा शरीर पसीने से भीग गया।
पर वो कुछ नहीं बोली। उसको अपने बापू के पास जाना था।
आशीष का भी बुरा हाल था। उसने रानी को डराया जरूर था पर उसको लगता था की
रानी उसका लंड जाते ही सब कुछ भूल जाएगी। ऐसा सोचते हुए लंड नरम पड़ गया
और अपने आप बहार निकल आया।
रानी की चूत तड़प सी उठी। पर वो कुछ न बोली। हाँ उसको मजा तो आया था। पर
लंड निकलने पर।
जाने क्या सोचकर आशीष ने उसको कपड़े डालने को कह दिया! उसने झट से ब्रा और
कमीज डाला और अपनी कच्छी ढूँढने लगी। उससे डर लग रहा था पूछते हुए। उसने
पूछा ही नहीं और ऐसे ही सलवार डाल ली। जिसके नीचे से रास्ता था।
आशीष भी अब जल्दी में लग रहा था- "जल्दी चलो!"
वो तेज़ी से होटल की और चल पड़े!
रानी मन ही मन सोच रही थी की बापू के पास जाते ही इस हरामजादे की सारी
करतूत बताउंगी।
पर जब वो होटल पहुंचे तो झटका सा लगा। न बापू मिला और न ही कविता!
आशीष ने बैरे को बुलाया- "वो कहाँ हैं। जो अभी यहाँ बैठे थे?"
" वो तो जनाब आपके जाने के पांच मिनट बाद ही खाना खाए बगैर निकल गए थे! "
बैरे ने कहा
रानी भी परेशान थी- "अब क्या करेंगे?"
"करेंगे क्या उनको ढूंढेगे!" आशीष ने बढ़बढ़ाते हुए कहा।
आशीष को याद आया उसके सारे कपड़े बैग में ही चले गए! अच्छा हुआ उसने छोटे
बैग में अपना पर्स और मोबाइल रखकर अपने पास ही रख लिया था।
वो स्टेशन तक देखकर आये। पर उन्हें बापू और बेटी में से कोई न दिखाई दिया।
सुबह हो चुकी थी पर उन दोनों का कोई पता न चला। थक हार कर उन्होंने चाय
पी और मार्केट की तरफ चले गए!
एक गारमेंट्स की दुकान पर पहुँचकर आशीष ने देखा। रानी एक पुतले पर टंगी
ड्रेस को गौर से देख रही है।
"क्या देख रही हो?"
"कुछ नहीं!"
"ड्रेस चाहिए क्या?"
रानी ने अपनी सलवार को देखा फिर बोली "नहीं। "
"चलो! " और वो रानी को अन्दर ले गया।
रानी जब दुकान से बहार निकली तो शहर की मस्त लौंडिया लग रही थी। सेक्सी!
रानी की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
आशीष ने उसको फिर से डराकर होटल में ले जाकर चोदने की सोची।
"रानी!"
"हम्म!"
"अगर तुम्हारे बापू और कविता न मिले तो!"
"मैं तो चाहती हूँ वो मर जायें।" रानी कड़वा मुंह करके बोली।
आशीष उसको देखता ही रह गया।।
"ये क्या कह रही हो तुम? " आशीष ने हैरानी से पूछा।
रानी कुछ न बोली। एक बार आशीष की और देखा और बोली- "ट्रेन कितने बजे की है।?"
आशीष ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया, "रानी तुम वो क्या कह रही थी।
अपने बापू के बारे में...?"
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जबकि दूसरी तरफ़-
बूढ़ा और कविता कहीं कमरे में नंगे लेटे हुए थे।
"अब क्या करें? " बूढ़े ने कविता की चूची भीचते हुए कहा।
"करें क्या? चलो स्टेशन! " कविता उसके लंड को खड़ा करने की कोशिश कर रही
थी- "बैग में तो कुछ मिला नहीं।"
"उसने पुलिस बुला ली होगी तो!" बूढ़ा बोला।
"अब जाना तो पड़ेगा ही। रानी को तो लाना ही है। " कविता ने जवाब दिया।
उन्होंने अपने कपड़े पहने और स्टेशन के लिए निकल गए!
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जबकि इधर-
उधर आशीष के चेहरे की हवाईयां उड़ रही थी- "ये क्या कह रही हो तुम?"
"सच कह रही हूँ, किसी को बताना नहीं प्लीज..." रानी ने भोलेपन से कहा।
फिर तुम इनके पास कैसे आई...?" आशीष का धैर्य जवाब दे गया था।
"ये मुझे खरीद कर लाये हैं। दिल्ली से!" रानी आशीष पर कुछ ज्यादा ही
विश्वास कर बैठी थी- " 50,000 में।"
"तो तुम दिल्ली की हो!" आशीष को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
"नहीं। वेस्ट बंगाल की!" रानी ने उसकी जानकारी और बढाई।
"वहां से दिल्ली कैसे आई!?" आशीष की उत्सुकता बढती जा रही थी!
"राजकुमार भैया लाये थे!"
"घरवालों ने भेज दिया?"
"हाँ!" वह गाँव से और भी लड़कियां लाता है।
"क्या काम करवाता है "
"मुझे क्या पता। कहा तो यही था। की कोठियों में काम करवाएँगे। बर्तन सफाई वगैरह!"
"फिर घरवालों ने उस पर विश्वास कैसे कर लिया??"
रानी- वह सभी लड़कियों के घरवालों को हजार रुपैये महीने के भेजता है!
आशीष- पर उसने तो तुम्हे बेच दिया है। अब वो रुपैये कब तक देगा।
रानी- वो हजार रुपैये महीना देंगे! मैंने इनकी बात सुनी थी.....50,000 के अलावा।
आशीष- तो तुम्हे सच में नहीं पता ये तुम्हारा क्या करेंगे?
रानी- नहीं।
"तुम्हारे साथ किसी ने कभी ऐसा वैसा किया है ", आशीष ने पूछा
रानी- कैसा वैसा?
आशीष को गुस्सा आ गया - "तेरी चूत मारी है कभी किसी ने।
रानी- चूत कैसे मारते हैं।
आशीष- हे भगवान! जैसे मैंने मारी थी रेल में।
रानी- हाँ!
आशीष- किसने?
रानी- "तुमने और...." फिर गुस्से से बोली- "उस काले ने.."
आशीष उसकी मासूमियत पर हंस पड़ा। ये चूत पर लंड रखने को ही चूत मारना कह रही है।
आशीष- तू इन को बापू और भाभीजी क्यूँ कह रही थी।
रानी- इन्होने ही समझाया था।
आशीष- अच्छा ये बता। जैसे मैंने तेरी चूत में लंड फंसाया था। अभी स्टेशन
के पास। समझी!
रानी- हाँ। मेरी कच्छी नम हो गयी। उसने खुली हुयी टांगो को भीच लिया।
आशीष- मैं क्या पूछ रहा हूँ पागल!
रानी- क्या?
आशीष- किसी ने ऐसे पूरा लंड दिया है कभी तेरी चूत में?
रानी- "नहीं, तुम मुझे कच्छी और दिलवा देते। इसमें हवा लग रही है।" कह कर
वो हंसने लगी।
आशीष- दिलवा दूंगा। पर पहले ये बता अगर तेरी चूत मुंबई में रोज 3-3 बार
लंड लेगी तो तुझसे सहन हो जायेगा?
रानी- "क्यूँ देगा कोई?" फिर धीरे से बोली- "चूत में लंड..." और फिर हंसने लगी!
आशीष- अगर कोई देगा तो ले सकती हो।
रानी ने डरकर अपनी चूत को कस कर पकड़ लिया - "नहीं "
तभी वो बूढ़ा और कविता उन दोनों को सामने से आते दिखाई दिए।
रानी- उनको मत बताना कुछ भी। उन्होंने कहा है किसी को भी बताया तो जान से
मार देंगे!
बूढ़े ने जब रानी को नए कपड़ों में देखा तो वो शक से आशीष की और देखने लगा।
रानी- बापू, मेरे कपड़े गंदे हो गए थे। इन्होंने दिलवा दिए। इनके पास
बहुत पैसा हैं।
बापू- धन्यवाद बेटा। हम तो गरीब आदमी हैं।
कविता इस तरह से आशीष को देखने लगी जैसे वो भी आशीष से ड्रेस खरीदना चाहती हो।
आशीष- अब क्या करें? किसी होटल में रेस्ट करें रात तक!
बूढ़ा- देख लो बेटा, अगर पैसे हों तो।
आशीष- पैसे की चिंता मत करो ताऊ जी। पैसा बहुत हैं।
बूढ़ा इस तरह से आशीष को देखने लगा जैसे पूछना चाहता हो। कहाँ है पैसा।
और वो एक होटल में चले गए। उन्होंने 2 कमरे रात तक के लिए ले लिए। एक
अकेले आशीष के लिए। और दूसरा उस 'घर परिवार' के लिए।
थोड़ी ही देर में बूढ़ा उन दोनों को समझा कर आशीष के पास आ गया।
बेटा मैं जरा इधर लेट लूं। मुझे नींद आ रही है। तुझे अगर गप्पे लड़ाने हों
तो उधर चला जा। रानी तो तेरी बहुत तारीफ़ कर रही थी।
आशीष- वो तो ठीक है ताऊ। पर आप रात को कहाँ निकल गए थे?
बूढ़ा- कहाँ निकल गए थे बेटा। वो किसी ने हमें बताया की ऐसी लड़की तो शहर
की और जा रही है इसीलिए हम उधर देखने चले गए थे।
आशीष उठा और दूसरे कमरे में चला गया। योजना के मुताबिक। कविता दरवाजा
खुला छोड़े नंगी ही शीशे के सामने खड़ी थी और कुछ पहनने का नाटक कर रही
थी। आशीष के आते ही उसने एक दम चौकने का नाटक किया। वो नंगी ही घुटनों के
बल बैठ गयी। जैसे अपने को ढकने का नाटक कर रही हो!
रानी बाथरूम में थी। उसको बाद में आना था अगर कविता असर न जमा पाए तो!
कविता ने शरमाने की एक्टिंग शुरू कर दी!
आशीष- माफ़ कीजिये भाभी!
कविता- नहीं तुम्हारी क्या गलती है। मैं दरवाजा बंद करना भूल गयी थी।
कविता को डर था वो कहीं वापस न चला जाये। वो अपनी छातियों की झलक आशीष को
दिखाती रही। फिर आशीष को कहाँ जाना था? उसने छोटे कद की भाभी को बाँहों
में उठा लिया।
कविता- कहीं बापू न आ जायें।
आशीष ने उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसको बेड पर लिटा दिया। सीधा।
दरवाजा तो बंद कर दो।
आशीष ने दरवाजा बंद करते हुए पूछा- "रानी कहाँ है?"
कविता- वो नहा रही है।
आशीष- वो बूढ़ा तुम्हारा बाप है या ससुर।
कविता- अ! अ! ससुर!
"कोई बच्चा भी है?"
कविता- ह! हाँ
आशीष- "लगता तो नहीं है। छोटा ही होगा।" उसने कविता की पतली जाँघों पर
हाथ फेरते हुए कहा!
कविता- हाँ! 1 साल का है!
आशीष ने उसकी छोटी पर शख्त छातियों को अपने मुंह में भर कर उनमें से दूध
पीने की कोशिश करने लगा। दूध तो नहीं निकला। क्यूंकि निकलना ही नहीं था।
अलबत्ता उसकी जोरदार चुसाई से उसकी चूत में से पानी जरूर नकलने लगा!
आशीष ने एक हाथ नीचे ले जाकर उसकी चूत को जोर से मसल दिया। कविता ने आनंद
के मारे अपने चुतड़ हवा में उठा लिए।
आशीष ने कविता को गौर से देखा। उसका नाटक अब नाटक नही, असलियत में बदलता
जा रहा था। कविता ने आशीष की कमर पर अपने हाथ जमा दिए और नाख़ून गड़ाने
लगी।
आशीष ने अपनी कमीज उतर फैंकी। फिर बनियान और फिर पैंट। उसका लंड कच्छे को
फाड़ने ही वाला था। अच्छा किया जो उसने बाहर निकाल लिया।
उसने बाथरूम का दरवाजा खोला और नंगी रानी को भी उठा लाया और बेड पर लिटा
दिया! आशीष ने गौर से देखा। दोनों का स्वाद अलग था। एक सांवली। दूसरी
गोरी। एक थोड़ी लम्बी एक छोटी। एक की मांसल गुदाज जान्घें दूसरी की पतली।
एक की छोटी सी चूत। दूसरी की फूली हुयी सी, मोटी। एक की चूचियां मांसल
गोल दूसरी की पतली मगर सेक्सी। चोंच वाली। आशीष ने पतली टांगों को ऊपर
उठाया और मोड़कर उसके कान के पास दबा दिया। उसको दर्द होने लगा। शायद इस
आसन की आदत नहीं होगी।
मोटी जांघों वाली को उसने पतली टांगों वाली के मुंह के ऊपर बैठा दिया।
पतली टांगों वाली की छातियों के पास घुटने रखवाकर! कविता के पैर रानी के
पैरों तले दबकर वही जम गए। उसके चूतड़ ऊपर उठे हुए थे। चूत को पूरा खोले
हुए। रानी की मांसल जांघें कविता के चेहरे के दोनों तरफ थी। और रानी की
चूत कविता के मुंह के ऊपर!।.....आशीष एक पल को देखता रहा। उसकी कलाकारी
में कहाँ कमी रह गयी और फिर मोटी फ़ांको वाली चूत का जूस निकलने लगा! अपनी
जीभ से। सीधा कर्रेंट कविता के दिमाग तक गया। वो मचल उठी और रानी की छोटी
सी चूत से बदला लेने लगी। उसकी जीभ कविता की चूत में आग लगा रही थी और
कविता की जीभ रानी को चोदने योग्य बना रही थी।
रानी में तूफ़ान सा आ गया और वो भी बदला लेने लगी। कविता की चूचियों को मसल मसल कर।
अब आशीष ने कविता की चूत को अपने लंड से खोदने लगा। खोदना इसीलिए कह रहा
हूँ क्यूंकि वो खोद ही रहा था। ऊपर से नीचे। चूत का मुंह ऊपर जो था।
जितना अधिक मजा कविता को आता गया उतना ही मजा वो रानी को देती गयी। अपनी
जीभ से चोद कर।
अब रानी आशीष के सर को पकड़ कर अपने पास लायी और अपनी जीभ आशीष के मुंह में दे दी।
आशीष कविता को खोद रहा था। कविता रानी को चोद रही थी...(जीभ से ) और रानी
आशीष को चूस रही थी! सबका सब कुछ व्यस्त था। कुछ भी शांत नहीं था।
आशीष ने खोदते-खोदते अपना खोदना उसकी चूत से निकाल और खड़ा होकर रानी के
मुंह में फंसा दिया। अब रानी के दो छेद व्यस्त थे।
ऐसे ही तीन चार बार निकाला-चूसाया फ़िर आशीष ने कविता की गांड के छेद पर
थूका और उसमें अपना लंड फंसने लगा। 1...2...3....4... आशीष धक्के मारता
गया। लंड हर बार थोडा थोडा सरकता गया और आखिर में आशीष के गोलों ने कविता
के चुताड़ों पर दस्तक दी। कुछ देर बर्दास्त करने के बाद अब कविता को भी
दिक्कत नहीं हो रही थी। आशीष ने
रानी को कविता की चूत पर झुका दिया। वो जीभ से उसकी चूत के आस पास चाटने
लगी। अब सबको मजा आ रहा था।
अचानक रानी की चूत ने रस छोड़ दिया। कविता के मुंह पर। ज्यादातर कविता के
मुंह में ही गया। और कविता की चूत भी तर हो गयी।
अब रानी की बारी थी। वो तैयार भी थी दर्द सहन करने को। आशीष ने सबका आसन
बदल दिया। अब कविता की जगह रानी थी और रानी की जगह कविता!
आशीष ने रानी की चूत पर गौर किया। वो सच में ही छोटी थी। उसके लंड के
लिए। पर एक न एक दिन तो इसको बड़ा होना ही है। तो आज ही क्यूँ नहीं!
आशीष ने पहले से ही गीली रानी की चूत पर थोडा थूक लगाया और उसपर अपना लंड
रखकर धीरे धीरे बैठने लगा। जैसे कविता की गांड में बैठा था।
1...2...3...4.. और दर्द में बिलखती रानी ने कविता की चूत को काट खाया।
कविता की चूत से काटने की वजह से खून बहने लगा और रानी की चूत से झिल्ली
फटने से खून बहने लगा। दोनों दर्द से दोहरी होती गयी।!
झटके लगते रहे। फिर मजा आने लगा और जैसे ही रानी का मजा दोबारा पूरा हुआ।
आशीष ने उसकी चूत के रस को वापस ही भेज दिया। अन्दर। अपने लंड से पिचकारी
मारकर। योनी रस की!
तीनों बेड पर अलग अलग बिखर गए। रानी भी औरत बन गयी।
ऐसा करके आशीष को एक बात तो पक्का हो गयी। जब कविता की चूचियों में दूध
नहीं है। तो वो माँ नहीं हो सकती एक साल के बच्चे की!
उधर बुढ़े ने कमरे का एक-एक कोना छान मारा। पर उसे उन पैसों का कोई सुराग
नहीं मिला। जिनके बारे में आशीष बार- बार कह रहा था कि पैसे बहुत हैं। थक
हार कर मन मसोस कर वो बिस्टर पर लेट गया और आशीष के बहार आने का इंतज़ार
करने लगा।
आशीष को याद आया उसको आरक्षण भी कराना है। तीन और टिकटों का।
वह बहार निकाल गया। रेलवे स्टेशन पर।
उसने तीन ही बजे चार नयी सीट अरक्षित करा ली। उसको उनके साथ वाली सीट ही चाहिए थी।
उधर आशीष के जाते ही कविता दूसरे कमरे में गयी।
"बापू! कुछ मिला?"
"कहाँ कविता।! मैंने तो हर जगह देख लिया।"
"कहीं उसके पर्स में न हों "
रानी भी आ गयी!
"तू पागल है क्या? भला पर्स में इतने रुपैये होते है।" बूढ़े ने कहा
"तो फिर चलें। कविता ने कहा। "वो तो बहार गया है "
बूढ़ा- क्या जल्दी है। आरक्षण वाला सफ़र करके भी देख लेंगें शायद वहां कुछ
बात बन जाये। उसने कुछ किया तो नहीं!
कविता- किया नहीं? ये देखो क्या बना दिया। मेरी चूत और गांड का।
कविता ने अपनी सलवार खोल कर दिखा दी। "चल रानी। तू भी दिखा दे!"
रानी ने कुछ नहीं दिखाया। वो चुपचाप सुनती रही।
कविता- ओहो! वहां तो बड़ी खुश होकर चुद रही थी। तुझे भी बडे लंडों का शौक है!
तीनों इक्कठे ही बैठे थे। जब आशीष आरक्षण कराकर अन्दर आया। आशीष को देखते
ही कविता ने अपना पल्लू ठीक किया।
आशीष- ट्रेन 9:00 बजे की है। कुछ देर सो लो फिर खाना खाकर चलते हैं!
और आशीष के इशारा करते ही, वो तीनो वहां से उठ कर जाने लगे। तो आशीष ने
सबसे पीछे जा रही रानी का हाथ पकड़ कर खीच लिया।
रानी- मुझे जाने दो!
आशीष (दरवाजा बंद करते हुए)- "क्यूँ जाने दू मेरी रानी?"
रानी- तुम फिर से मेरी चूत मरोगे!
आशीष- तो तुम्हारा दिल नहीं करता?
रानी- नहीं, चूत में दर्द हो रहा है। बहुत ज्यादा। मुझे जाने दो न।
आशीष ने उसको छोड़ दिया। जाते हुए देखकर वो उसको बोला-- "तुम इन कपड़ों में
बहुत सुन्दर लग रही हो।"
रानी हंसने लगी। और दरवाजा खोलकर चली गयी!
दूसरे कमरे में जाते ही बूढ़े ने रानी को डाँटा- "तुमने उस लौंडे को कुछ
बताया तो नहीं?"
रानी डर गयी पर बोली- "नहीं मैंने तो कुछ नहीं बताया।"
कविता- रानी, राजकुमार को तो तुमने हाथ भी नहीं लगाने दिया था। इससे कैसे
करवा लिया?
रानी कुछ न बोली। वो कविता की बराबर में जाकर लेट गयी।
बूढ़े ने पूछा- "रानी! तुमने उसके पास पैसे-वैसे देखे हैं।
रानी- हाँ! पैसे तो बहुत हैं। वो एक कमरे में गया था और वहां से पैसे
लाया था बहुत सारे!
बूढ़ा- कमरे से? कौन से कमरे से?
रानी- उधर। मार्केट से
बूढ़ा- साला ATM में पैसे हैं इसके। ऐसा करो कविता! तुम इसको अपने जाल में
फांस कर अपने गाँव में ले चलो। वहां इससे ATM भी छीन लेंगे और उसका वो
कोड। भी पूछ लेंगे जिसके भरने के बाद पैसे निकलते हैं।
कविता का उससे फिर से अपनी गांड चुदवाने का दिल कर रहा था। बड़ा मजा आया
था उसको। पैसों में तो उसको बूढ़े ही ज्यादा लेकर जाते थे- "मैं अभी
जाऊं।। फंसने!"
बूढ़ा- ज्यादा जल्दी मत किया करो। अगर उसका मन तुमसे भर गया तो। फिर नहीं चलेगा वो!
कविता- तो फिर ये है न। बड़ी मस्त होकर फढ़वा रही थी उससे!
रानी- नहीं मैं नहीं करुँगी। मेरी तो दुःख रही है अभी तक।
बूढ़ा- तो अभी सो जाओ। रेलगाड़ी में ही करना। अब काम। उसके साथ ही बैठ
जाना। और तीनो लेट गए।
ठीक 9:00 बजे राजधानी एक्सप्रेस स्टेशन पर आई। जब आशीष ने उनको एक डिब्बा
दिखाया तो बूढ़ा भाग कर उसमें चढ़ने की कोशिश करने लगा और उसके पीछे ही वो
दोनों भी भाग ली। उनको लगा जैसे पीछे रह गए तो सीट नहीं मिलेगी। तभी बूढ़ा
खड़ा होकर हंसने लगा- "अरे आरक्षण में भी कोई भाग कर चढ़ता है। यहाँ तो सीट
मिलनी ही मिलनी है, चाहे सबसे बाद में चढो!
आशीष हंसने लगा।
चारों ट्रेन में चढ़े। आशीष अपनी सीट देखकर ऊपर जा बैठा। तो पीछे-पीछे ही
वो भी उसी बर्थ पर चढ़ गए।
आशीष- क्या हो गया ताऊ? अपनी सीट पर जाओ न नीचे!
ताऊ- तो ये अपनी सीट नहीं है क्या?
आशीष उनकी बात समझ गया!- "ताऊ, सबकी अलग अलग सीट हैं। ये चारों सीटें अपनी ही हैं।
ताऊ- अच्छा बेटा, मैं तो आरक्षण में कभी बैठा ही नहीं हूँ। गलती हो गयी!
कहकर ताऊ नीचे उतर गया। रानी भी। और कविता सामने वाली बर्थ पर ऊपर जा
बैठी। बूढ़ा आशीष के ठीक नीचे था! और रानी नीचे के सामने वाले सीट पर।
उनको इस तरह करते हुए देख एक नकचढ़ी लड़की बोली- "कभी बैठे नहीं हो क्या
ट्रेन में?" कहकर वो हंसने लगी। बड़ी घमंडी सी मालूम होती थी और बड़े घर
की भी।
आशीष ने उस पर गौर किया। 22-23 साल की गोरी सी लड़की थी कोई। आशीष को
सिर्फ उसका चेहरा दिखाई दिया। वो लेटी हुयी थी।
उसकी बात सुनकर कविता तुनक कर लड़ाई के मूड में आ गयी- "तुमको क्या है? हम
जहाँ चाहेंगे वहां बैठेंगे। चारो सीटें हमारी हैं। बड़ी आई है!"
इस बात पर उस लड़की को भी गुस्सा आ गया- "हे स्टुपिड विलेजर। जस्ट बी इन
लिमिट। डोन्ट ट्राई टू मैस विद मी!
कविता- अरे क्या बक बक कर रही है तू। तेरी माँ होगी स्टूपिड! कविता को बस
स्टूपिड ही समझ में आया था और उसको पता था ये एक गली होती है।
उस लड़की ने बात बिगड़ते देख आशीष को कहा- "ए मिस्टर! जस्ट शट उप यूर पेट्स
और इ विल...
आशीष- सॉरी म़ा 'म मैं।
"इ 'ऍम नोट a म़ा 'म, यू नो! माय नेम इज मिस शीतल! "
आशीष- सॉरी मिस शीतल! माई नेम इज आशीष!
शीतल- आई हव नो एनी बिज़नस विद योर नेम एंड फेम। जस्ट स्टॉप दा बास्टर्ड(हरामी)!
आशीष को लगा बड़ी तीखी है साली। पर उसने कविता को शांत कर दिया।
इतने में ही एक भाई साहब जो उसके बराबर वाली सीट पर बैठे थे, उन्होंने सर
निकाल कर कहा।- "भैया! खुली हुयी गधी के पीछे नहीं जाते। लात मार देती
है।"
उस शीतल को उसकी कहावत समझ नहीं आई पर आशीष उसकी बात सुनकर जोर-जोर से हंसने लगा।
इससे शीतल की समझ में आ गया की उसने उसी को गधी कहा है और वो उसी से उलझ
पड़ी।- "हाउ डेयर यू टू कॉल। "
पर उस आदमी की हिम्मत गजब की थी। उसने शीतल को बीच में ही रोक कर अपनी
सुनानी शुरू कर दी- "ए! आई डोन्ट केयर! फ़किंग द गर्ल्स इज माई बिज़नेस।
O.k. माई नेम इज संजय राजपूत। अरे गाँव वाले बेचारे क्या इन्सान नहीं
होते। तुझे शर्म नहीं आई उन पर हँसते हुए। यु आर इवेन मोर इलिट्रेट दैन
दे आर। डर्टी बिच!"
शीतल उसकी खरी खरी सुनकर अन्दर तक काँप गयी। आगे कुछ बोलने का साहस उसमें
नहीं था। उसने अपनी आँखों पर हाथ रख लिया और सुबकने लगी! !
लड़कियों की यही अदा तो मार देती है।
"सॉरी! " राजपूत ने कहा!
वो और जोर से रोने लगी।
ये सब नाटक देखकर आशीष इतना तो समझ गया था की लड़की अकेली है!
आशीष उस लड़की को देखने की खातिर राजपूत के पास जा पहुंचा- "हेल्लो
फ्रेंड, मेरा नाम आशीष है। आपका नाम तो सुन ही चूका हूँ।"
राजपूत ने पीछे हटकर जगह दी- "यार ये लड़कियों के नखरे अजीब होते हैं।
अभी खुद बीच में कूदी थी और मैं बोला तो रोने लगी। कोई समझाओ यार इसको।
"मैंने कहा सॉरी शीतल जी!" उसने कहकर शीतल के माथे पर रखा हुआ हाथ पकड़ लिया।
"ए डोंट टच मी!" शीतल ने अपना हाथ झटक दिया।
राजपूत का पारा फिर से गरम हो गया- "अब देख लो! पहले तो इसके कपड़े देखो।
कुछ भी छुप रहा है।? फिर कहती हैं। रेप हो गया!"
राजपूत की इस बात पर आशीष ने मुश्किल से अपनी हंसी रोकी। आशीष ने शीतल को
देखा। उसने घुटनों से भी ऊपर का स्कर्ट डाला हुआ था। जो उसके सीधे लेट कर
घुटने मोड़ने की वजह से और भी नीचे गिरा हुआ था। उसकी मांसल जांघे साफ़
दिखाई दे रही थी। राजपूत के ड्रेस पर कमेन्ट करने के बाद उसने अपनी
टांगों को सीधा कर लिया था। पर उसकी गहरे कटाव वाली चोली में उसकी
मोटी-मोटी चूचियां और उनके बीच की घाटी काफी अन्दर तक दिखाई दे रही थी।
अब भी। बस यूँ समझ लीजिये एक इंच की दूरी पर निप्पल भी ताने खड़े थे।
"छोडो यार!" आशीष ने बात को टालने की कोशिश करते हुए कहा।
"अरे भाई! मैंने इसका अभी तक पकड़ा ही क्या है। हाथ छोड़ कर। सोचा था लड़की
साथ वाली सीट पर होने से रात अच्छी गुजरेगी। पर इसकी माँ की चूत, सारा
मूड़ ही ख़राब हो गया!"
ऐसी गाली सुनकर भी वह कुछ न बोली। क्या पता अपनी गलती का अहसास हो गया हो!
"और सुनाओ दोस्त!" आशीष ने राजपूत से कहा!
"क्या सुनाऊं यार? अपने को तो ऑफिस से टाइम ही नहीं मिलता। मुम्बई जा रहा
हूँ किसी काम से। टाइम तो नहीं था पर दीपक के बुलाने पर आना ही पड़ा।"-
कुछ देर रूककर बोला- "दीपक मेरे दोस्त का नाम है।"
आशीष ने सोचा यूँ तो ये रात यूँ ही निकल जाएगी- "अच्छा भाई राजपूत! गुडनाइट!"
"काहे की गुड नाइट यार! इतना गरम माल साथ है। नींद क्या ख़ाक आएगी!"
राजपूत ने शीतल को सुना कर कहा।
आशीष वापस आ गया। कविता उसी का इंतजार कर रही थी। बैठी हुई!
आशीष ने देखा बूढ़ा लेटा हुआ था आँखे बंद किये! उसने कविता को अपने पास
आने का इशारा किया। वो तो जैसे इंतज़ार ही कर रही थी। उठकर पास आकर बैठ
गयी। रानी भी सोने लगी थी। तब तक!
आशीष ने अपने बैग से चादर निकली और दोनों के पैरों पर डाल ली। कविता ने
देर न करते हुए अपना हाथ पैंट की जिप पर पहुंचा दिया और जिप को नीचे खीच
लिया!
आशीष की पैंट में हाथ डालकर कच्छे के ऊपर से ही उसको सहलाने लगी। आशीष का
ध्यान उसी लड़की पर था। उसके लंड ने अंगडाई ली और तैयार हो गया।
आशीष का कच्छा उसके आनंद में बांधा लगने लगा। वह उठा और बाथरूम जाकर
कच्छा निकला और पैंट की जीप में रखकर वापस आ गया।
चैन पहले से ही खुली थी। कविता ने पैंट से हथियार निकल लिया। और उस खड़े
लंड को ऊपर नीचे करने लगी।
तभी शीतल ने करवट बदल ली और कविता को आशीष के साथ कम्बल में बैठे देख कर
चौंक सी गयी। कविता किसी भी हाल में आशीष की पत्नी तो लगती नहीं थी।
उसने आँखें बंद कर ली। पर आशीष और कविता को कोई परवाह नहीं थी। जब मियां
बीवी राज़ी तो क्या करेगा काजी। हाँ बार बार वो नीचे देखने का नाटक जरूर
कर रही थी। कहीं बापू जाग न जाये।
आशीष ने अपना हाथ उसकी जाँघों के बीच रखा और उसकी सलवार और पैंटी के ऊपर
से ही करीब एक इंच उंगली उसकी चूत में घुसा दी। कविता 'आह ' कर बैठी।
शीतल ने आँखें खोल कर देखा और फिर से बंद कर ली।
कविता ने अपनी सलवार का नाडा खोलकर उसको नीचे सरका दिया और आशीष का हाथ
पकड़ कर अपनी पैंटी की साइड में से अन्दर डाल दिया।
आशीष को शीतल का बार बार आँखें खोल कर देखना और बंद कर लेना। कुछ
सकरात्मक लग रहा था की बात बन सकती है।
उसने कविता की चूत में हाथ डाल कर जोर-जोर से अन्दर बाहर करनी शुरू कर
दी। कविता सिसकने लगी और उसकी सिसकियाँ बढती गयी।
शीतल की बेचैनी बढती गयी। उसके चेहरे पर रखे हाथ नीचे चले गए। शायद उसकी चूत पर!
आशीष ने उसको थोड़ा और तड़पाने की सोची। उसने कविता का सिर पकड़ा और चादर के
अन्दर अपने लंड पर झुका दिया।
अब चादर के ऊपर से बार-बार कविता का सर ऊपर नीचे हो रहा था। शीतल की हालत
नाजुक होती जा रही थी।
शीतल के बारे में सोच-सोच कर आशीष इतना गरम हो गया था की 5 मिनट में ही
उसने कविता का मुंह अपने लंड के रस से भर दिया। ऐसा करते हुए उसने कविता
का सर जोर से नीचे दबाया हुआ था और 'आहें ' भर रहा था।
शीतल आँखें खोल कर ये सीन देख रही थी। पर आशीष ने जैसे ही उसकी और देखा।
उसने मुंह फेर लिया।
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शीतल का खून गरम होता जा रहा था। आशीष ने उसके खून को उबालने की सोची। वो
नीचे उतरा और रानी को उठा दिया। रानी सच में सो चुकी थी।!
रानी- क्या है?
आशीष- ऊपर आ जाओ!
रानी- नहीं प्लीज। दर्द हो रहा है अभी भी।
आशीष- तुम ऊपर आओ तो सही, कुछ नहीं करूँगा।
और वो रानी को भी ऊपर उठा लाया और कविता के दूसरी और बिठा लिया। यहाँ से
शीतल को रानी कविता से भी अधिक दिखाई दे सकती थी।
आशीष ने रानी से चादर ओढ़ कर अपनी सलवार उतारने को कहा। रानी ने मना किया
पर बार-बार कहने पर उसने सलवार निकल दी। अब रानी नीचे से नंगी थी!
शीतल ने पलट कर जब रानी को चादर में बैठे देखा तो उसका रहा सहा शक भी दूर
हो गया। पहले वह यही सोच रही थी की क्या पता कविता उसकी बहू ही हो!
उसने फिर से उनकी तरफ करवट ले ली। आशीष ने उस पर ध्यान न देकर धीरे धीरे
चादर को रानी की टांगों पर से उठाना शुरू कर दिया। रानी की टाँगे शीतल के
सामने आती जा रही थी और वो अपनी सांस भूलती जा रही थी।
जब शीतल ने रानी की चूत तक को भी नंगा आशीष के हाथो के पास देखा तो उसमें
तो जैसे धुआं ही उठ गया। उसने देखा आशीष उसके सामने ही रानी की चूत को
सहला रहा है। तो उसको लगा जैसे वो रानी की नहीं उसकी चूत को सहला रहा है।
अपने हाथों से!
अब शीतल से न रहा गया। उसने आशीष को रिझाने की सोची। उसने मुंह दूसरी तरफ
कर लिया और अपने पैर आशीष के सामने कर दिए। अनजान बनने का नाटक करते हुए
उसने अपने घुटनों को मोड़ लिया। उसका स्किर्ट घुटनों पर आ गई। धीरे-धीरे
उसका स्कर्ट नीचे जाता गया और उसकी लाल मस्त जांघें नंगी होती गयी।
अब तड़पने की बारी आशीष की थी। उसके हाथ रानी की चूत पर तेज़ चलने लगे।
और उसकी आँखें जैसे शीतल के पास जाने लगी। उसकी जांघों में। स्कर्ट पूरा
नीचे हो गया था। फिर भी जांघ बीच में होने की वजह से वो उसकी चूत का
साइज़ नहीं माप पा रहा था। उसने ताव में आकर रानी को ही अपना शिकार बना
लिया। वैसे शिकार कहना गलत होगा क्यूंकि रानी भी गरम हो चुकी थी!
आशीष ने रानी को नीचे लिटाया और उसकी टाँगे उठा कर अपना लंड उसकी चूत में
घुसा दिया। रानी ने आशीष को जोर से पकड़ लिया। तभी अचानक ही गुसलखाने जाने
के लिए एक औरत वहां से गुजरने लगी तो रेल में ये सब होते देखकर वापस ही
भाग गयी, हे राम कहती हुई।
उधर कोई और भी था जो शीतल और आशीष के बीच एक दूसरे को जलाने की इस जंग का
फायदा उठा रहा था! राजपूत!
आशीष भले ही शीतल की जाँघों की वजह से उसकी मछली का आकर न देख पानरहा हो,
पर राजपूत तो उसके सामने लेटा था। बिलकुल उसकी टांगों की सीध में। वो तो
एक बार शीतल की जांघें और उनके बीच में पैंटी के नीचे छिपी बैठी चिकनी
मोटी चूत को देखकर हाथों से ही अपने लंड को दुलार-पुचकार और हिला-हिला कर
चुप करा चुका था। पर लंड तो जैसे अकड़ा बैठा था की चूत में घुसे बगैर
सोऊंगा ही नहीं, खड़ा ही रहूँगा। जब राजपूत ने शीतल को अपनी पैंटी में
अपना हाथ घुसाते देखा तो उसका ये कण्ट्रोल जवाब दे गया। वह आगे सरका और
शीतल की टांग पकड़ ली। उसका लंड उसके हाथ में ही था।
शीतल के पैर पर मर्द का गरम हाथ लगते ही वो उचक कर बैठ गयी। उसने देखा।
राजपूत उसकी जाँघों के बीच गीली हो चुकी पैंटी को देख रहा है। शीतल ने
घबराकर अपना हाथ बहार निकल लिया!
उसकी नजर आशीष पर पड़ी। वो उस वक़्त रानी की टाँगे उठा रहा था उसमें लंड
घुसाने के लिए।
चारों ओर लंड ही लंड। चारों ओर वासना ही वासना। शीतल का धैर्य जवाब दे
गया। उसने तिरछी नजर से एक बार राजपूत की ओर देखा और सीट से उतर कर
गुसलखाने की ओर चली गई।
राजपूत कच्चा खिलाडी नहीं था। वो उन तिरछी नजरों का मतलब जानता था। वह
उतरा और उसके पीछे-पीछे सरक लिया।
उधर रानी में डूबे आशीष को पता ही न चला की कब दो जवान पंछी उड़ गए। मिलन
के लिए। नहीं तो वह रानी को अधूरा ही छोड़ देता!
राजपूत ने जाकर देखा, शीतल गुसल के बहार खड़ी जैसे उसका ही इन्तजार कर
रही थी। राजपूत के उसको टोकने से पहले ही शीतल ने नखरे दिखाने शुरू कर
दिए- "क्या है?"
राजपूत- "क्या है क्या! मूतने आया हूँ।" उसने जानबूझ कर अशलील भाषा का
प्रयोग किया। वह बरमूडे (उसने पैंट नहीं पहन रखी थी ) के ऊपर से अपने तने
हुए लंड पर खुजाते हुए कहा।
शीतल- मेरे पीछे क्यूँ आये हो!
राजपूत- तेरी गांड मारने साली। मैं क्या तेरी पूँछ हूँ जो तेरे पीछे आया
हूँ। तू ही मेरे आगे आ गयी बस!
शीतल- तो कर लो जो करना है। जल्दी। मैं बाद में जाउंगी।
राजपूत- सच में कर लूं क्या?
शीतल- "अरे वो मू....पेशाब करो और चलते बनो।" उसकी आवाज मारे कामुकता के
बहक रही थी पर उसकी अकड़ कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
राजपूत में भी स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। उसने शीतल के आगे बाहर
ही अपना लंड निकाल लिया और हिलाता हुआ अन्दर घुस गया।
शीतल की आँखें कभी शर्म के मारे नीचे और कभी उत्तेजना के मारे उसके मोटे
लंड को देख रही थी।
राजपूत मूत कर बाहर आ गया और बाहर आकर ही उसने अपना लंड अन्दर किया।-
"जाओ जल्दी अन्दर...तुम्हारा निकलने वाला होगा।
शीतल- पहले तुम यहाँ से फूट लो। मैं अपने आप चली जाउंगी।
राजपूत- नहीं जाता। बोल क्या कर लेगी।
शीतल- तो मैं भी नहीं जाती। तुम क्या कर लोगे?
स्वाभिमान दोनों में कूट-कूट कर भरा हुआ था। कोई भी अपनी जिद छोड़ना नहीं
चाहता था। पर दोनों एक ही चीज चाहते थे। प्यार! पर उनकी तो तब तक बहस ही
चल रही थी जब आशीष के लंड ने आखरी सांस ली। रानी की चूत में। कुछ देर वो
यूँ ही रानी पर पड़ा रहा!
उधर युद्ध की कगार पर खड़े शीतल और राजपूत की बहस जारी थी। राजपूत ने अपना
लंड निकाल कर बाहर कर लिया।- "लो मैं तो यहाँ ऐसे खड़ा रहूँगा।
शीतल- शर्म नहीं आती!
राजपूत- जब तेरे को ही नहीं आती तो मेरे को क्या आएगी। मुझे तो रोज ही
देखना पड़ता है।
शीतल जब तुझे नहीं आती तो मुझे भी नहीं आती। निकाल के रख अपना। मुझे क्या
है। शीतल के दिल में था की उसको पकड़ कर अपनी चूत में घुसा ले। पर क्या
करें अकड़ ही इतनी थी- "जा चला जा यहाँ से!
राजपूत- नहीं जाता, बोल क्या कर लेगी।
शीतल से रहा न गया- "तो मैं भी निकाल दूंगी। देख ले "
और अंधे को क्या चाहिए। दो आँखें! राजपूत को लगा कहीं नरम होने से काम
बिगड़ न जाये- "तेरी इतनी हिम्मत तू मेरे आगे अपने कपडे निकालेगी!
शीतल- मेरे कपडे, मेरा शरीर, मैं तो निकालूंगी! "
राजपूत- तू निकाल के तो देख एक बार!
शीतल ने तुरंत अपनी स्किर्ट नीचे खींच कर पैरों में डाल दी। क्या खूबसूरत
माल थी। शीतल! चूत के नीचे से उसकी जांघें एक दूसरी को छु रही थी। बला की
खूबसूरत उसकी जाँघों के बीच उसकी योनी का आकर पैंटी के ऊपर से ही दिखाई
पड़ रही था। पैंटी नीचे से गीली हो रखी थी और उसकी दोनों फांक अलग-अलग
दिखाई दे रही थी!
राजपूत की आवाज कांप गयी- "पप...पैंटी न...निकाल के दिखा तू!"
और शीतल ने मारे गुस्से के पैंटी भी निकाल दी। भगवान ऐसे झगड़ने वाली
लड़की से रेल में सबको मिलवाए।
राजपूत ने देखा। उसकी चूत एकदम चिकनी और रस से सनी हुयी थी। उसकी चूत के
दोनों पत्ते उसकी फांको में से थोडा-थोडा झांक रहे थे। राजपूत का हाथ
अपने आप ही उसकी चूत की तरफ जाने लगा। वो झगडा ख़त्म करना चाहता था। वो
हार मानने को भी तैयार था। पर शीतल ने उसकी चूत की तरफ बढ़ते हाथ को पकड़
लिया- "क्या है!"
राजपूत की आवाज मेमने जैसी हो गयी- "मैं तो बस छूकर देख रहा था। "
बहुत हो चुका था। शीतल ने अपने हाथ में पकडे उसके हाथ को एकदम जैसे अपनी
चूत में फंसा लिया। राजपूत घुटनों के बल बैठ गया और उसकी चूत के होंठों
पर अपने होंठ लगा कर उसकी चूत के फैले पत्तो को बाहर खींचने लगा। शीतल की
चूत कितनी देर से अपने आपको रोके बैठी थी। अब उससे न रहा गया और वो बरस
पड़ी।- "आआआ। माआअ। रीईईई। मर गयीइईईई रे!"
राजपूत ने उसके चेहरे की और देखा। वो तो खेल शुरू करने से पहले ही आउट हो
गयी। टाइम आउट। उसने अपना स्कर्ट उठाया पहनने के लिए। राजपूत ने स्कर्ट
उससे पहले ही उठा लिया।
शीतल- क्या है।?
राजपूत का पारा फिर गरम होने लगा- "क्या है क्या? गेम पूरा करना है "
पर जैसे शीतल के दिमाग की गर्मी उसकी चूत के ठंडे होते ही निकल गई-
"प्लीज मुझे जाने दो। मेरी स्कर्ट और पैंटी दे दो "
राजपूत- वाह भाई वाह। तू तो बहुत सयानी है। अपना काम निकाल कर जा रही है।
मैं तुझे ऐसे नहीं छोडूंगा "
शीतल समझौते के मूड में थी- "तो कैसे छोड़ोगे?"
राजपूत- छोडूंगा नहीं चोदुंगा!
शीतल- प्लीज एक बार स्कर्ट दे दो। ठोड़ी देर में कर लेना!
राजपूत- नहीं नहीं। चल ठीक है। तू अपना टॉप उतर कर अपनी चूचियां दिखा दे।
फिर जाने दूंगा।!
शीतल- प्रामिस!
राजपूत- अरे ये संजय राजपूत की जुबान है।! राजपूत कुछ भी कर सकता है,
अपनी जुबान से नहीं फिर सकता। समझी!
शीतल ने अपना टॉप और समीज ऊपर उठा दिए- "लो देख लो!"
राजपूत उसके चिकने पत्ते और उसकी कटोरी जैसी सफ़ेद चूचियीं को देखता रह
गया। शीतल ने अपना टॉप नीचे कर दिया।
राजपूत को ऐसा लगा जैसे ब्लू फिल्म देखते हुए जब निकलने वाला हो तो लाइट
चली जाये- "ये क्या है।! बात तो निकालने की हुई थी!"
शीतल- प्लीस जाने दो न, मुझे नींद आ रही है!
राजपूत- अच्छा साली! मेरी नींद उड़ा कर तू सोने जाएगी!
शीतल ने टॉप और समीज पूरा उतार दिया और मादरजात नंगी हो गयी। जैसे आई थी
इस दुनिया में!
राजपूत तो इस माल को देखते ही बावला सा हो गया। शीतल को उलट पलट कर देखा।
कोई कमी नहीं थी, गांड चुचियों से बढ़कर और चूचियां गांड से बढ़कर!
"अब दे दो मेरा स्कर्ट!" शीतल ने राजपूत से कहा।
राजपूत ने उल्टा उससे टॉप भी छीन लिया।
शीतल उसकी नीयत भांप गयी- "तुमने जुबान दी थी। तुमने कहा था की राजपूत
जुबान के पक्के। "
"होते हैं!" राजपूत ने शीतल की बात पूरी की- "हाँ पक्के होते हैं जुबान
के पर वो अपने लंड के भी पक्के होते हैं। गंडवा समझ रखा है क्या? अगर
मैंने तेरे जैसी चिकनी चूत को ऐसे ही जाने दिया तो मेरे पूर्वज मुझ पर
थूकेंगे कि कलयुग में एक राजपूत ऐसा भी निकला। " कहते ही उसने शीतल को
अपनी बाँहों में दबोच लिया। और उसकी कटोरियों को जोर जोर से चूसने लगा।
शीतल ने अपने को छुड़ाने की पूरे मन से कोशिश की। राजपूत ने एक हाथ पीछे
ले जाकर उसकी गांड के बीचों बीच रख दिया।
उसने अपनी उंगली शीतल की गांड़ में ठोड़ी सी फंसा दी।
"ये क्या कर रहे हो। छोडो मुझे।!" शीतल बुदबुदाई
"ये तेरे चुप रहने की जमानत है मेरी जान, अब अगर तुमने नखरे किये तो
उंगली तेरी गांड में घुसेड़ दूंगा समझी! " और फिर से उसकी चूचियां चूसने
लगा। गांड़ में ऊँगली फंसाए। थोड़ी सी!
आशीष ने जब काफी देर तक शीतल के पैरों को नहीं देखा तो उसने उठकर देखा।
वहां तो कोई भी नहीं था। उसने देखा राजपूत भी गायब है तो उसके दिमाग की
बत्ती जली। वह सीट से उतरा और गुसलखाने की तरफ गया। जब आशीष वहां पहुंचा
तो राजपूत शीतल को ट्रेन की दीवार से सटाए उसकी चूचियों का मर्दन कर रहा
था। आशीष वहीँ खड़ा हो गया और छिप कर खेल देखने लगा!
धीरे धीरे शीतल के बदन की गर्मी बढ़ने लगी। अब उसको भी मजा आने लगा था।
दोनों की आँखें बंद थी। धीरे धीरे वो पीछे होते गए और राजपूत की कमर
दूसरी दीवार के साथ लग गयी। अब शीतल भी आहें भर रही थी। उसके सर को अपनी
चूचियों पर जोर जोर से दबा रही थी।
राजपूत ने दीवार से लगे लगे ही बैठना शुरू कर दिया। शीतल भी साथ साथ नीचे
होती गयी। राजपूत अपनी एड़ियों पर बैठ गया और शीतल उसकी जाँघों पर, दोनों
तरफ पैर करके। शीतल को पता भी न चला की कब राजपूत ने पूरी उंगली को अन्दर
भेज दिया है उसकी गांड में। अब राजपूत गांड में ऊँगली चलाने भी लगा था।
शीतल खूंखार होती जा रही थी। उसको कुछ पता ही न था वो क्या कर रही है। बस
करती जा रही थी, बोलती जा रही थी। कुछ का कुछ और आखिर में वो बोली- "मेरी
चूत में फंसा दो लंड।"
पर लंड तो कब का फंसा हुआ था। राजपूत की गांड में ऊँगली के दबाव से वह
आगे सरकती गयी और आगे राजपुताना लंड आक्रमण को तैयार बैठा था। चूत के पास
आते ही लंड ने अपना रास्ता खुद ही खोज लिया। और जब तक शीतल को पता चलता।
वो आधा घुस कर दहाड़ रहा था। चूत की जड़ पर कब्ज़ा करने के लिए।
राजपूत ने अपने लंड को फंसाए फंसाए ही उंगली गांड से निकाली और शीतल को
कमर से पकड़ कर जमीन पर लिटा दिया। उसकी टाँगे तो पहले ही राजपूत की
टांगों के दोनों ओर थीं। राजपूत ने उसकी टांगों को ऊपर उठा और उसकी चूत
के सुराख़ को चौड़ा करता चला गया। इस तरह से पहली बार अपनी चूत चुदवा रही
शीतल को इतने मोटे लंड का अपनी बुर में जाते हुए पता तक नहीं चला।
धक्के तेज होने लगे। सिसकियां, सिस्कारियां तेज़ होती गयी। करीब 15 मिनट
तक लगातार बिना रुके धक्के लगाने के बाद राजपूत भाई ने उसकी चूत को लबालब
कर दिया। शीतल का बुरा हाल हो गया था उसकी चूत 3-4 बार पानी छोड़ चुकी थी
और बुरी तरह से दुःख रही थी।
राजपूत अपना लंड निकाल कर चौड़ी छाती करके बोला- "ये ले अपने.......अरे
कपड़े कहाँ गए???"
"यहाँ हैं भाई साहब!" आशीष ने मुस्कुराते हुए कपडे राजपूत को दिखाए।
ओह यार! ये तो अब मर ही जाएगी। आधे घंटे से तो मैं रगड़ रहा था इसको "
राजपूत को जैसे आईडिया हो गया था अब क्या होगा।
शीतल को तो अब वैसे भी उल्टियां सी आने लगी थी। पहली ही बार में इतनी
लुम्बी चुदाई। उसके मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे। न ही उसने कपडे
मांगे।
राजपूत- यार मेरा तो अभी एक गेम और खेलने का मूड है। पर यार ये मर जाएगी।
अगर तेरे बाद मैंने भी कर दिया तो!
शीतल को लगा की अगर ये मान गया तो राजपूत फिर करेगा। इससे अच्छा तो मैं
इसी को तरी कर लूं। वो खड़ी हो चुकी थी।
आशीष- एक बार और करने का मूड है क्या भाई!
राजपूत- है तो अगर तू छोड़ दे तो।
आशीष ने उसको कविता के पास चढ़ा दिया। और वापस आ गया!
आशीष ने आकर उसको बाँहों में लिया और आराम से उसके शरीर को चूमने लगा।
जैसे प्रेमी प्रेमिका को चूमता है। सेक्स से पहले!
इस प्यार भरे दुलार से शीतल के मन को ठंडक मिली और वो भी उसको चूमने लगी।
आशीष ने चूमते हुए ही उसको कहा- "कर सकती हो या नहीं। एक बार और!"
अब शीतल को कम से कम डर नहीं था। शीतल ने कहा अगर आप बुरा न मानो तो मेरी
सीट पर चलते हैं। फिर देख लेंगे।!
आशीष ने उसको कपडे दे दिए और वो सीट पर चले गए!
शीतल ने अपनी कमर आशीष की छाती से लगा रखी थी। आशीष उसके गले को चूम रहा
था। अब शीतल को डर नहीं था। इसीलिए वो जल्दी जल्दी तैयार होने लगी। उसने
अपनी गर्दन घुमा कर आशीष के होंठों को अपने मुंह में ले लिया और चूसने
लगी। ऐसा करने से आशीष के लंड में तनाव आ गया और वो शीतल की गांड पर दबाव
बढ़ाने लगा। शीतल की चूत में फिर से वासना का पानी तैरने लगा! उसने पीछे
से अपना स्कर्ट उठा दिया। आशीष के हाथ उसके टॉप में घुस कर उसकी चूचियों
और निप्पलों से खेल रहे थे!
शीतल ने ऐसे ही पैंटी नीचे कर दी और अपने चुतड़ पीछे धकेल दिए। लंड अपनी
जगह पर जाकर सेट हो गया।
आशीष ने शीतल की एक टांग को घुटने से मोड़ कर आगे कर दिया। इससे एक तो
चूत थोड़ी बाहर को आ गयी दूसरे उसका मुंह भी खुल गया।
आशीष को रास्ता बताने की जरुरत ही न पड़ी। लंड खुद ही रास्ता बनाता अन्दर
सरकता चला गया।
इस प्यार में मज़बूरी न होने की वजह से शीतल को ज्यादा मजे आ रहा था। वो
अपनी गांड को आशीष के लंड के धक्कों की ताल से ताल मिला कर आगे पीछे करने
लगी। दोनों जैसे पागल से हो गए। धक्के लगते रहे। लगाते रहे। कभी आशीष
तेज़ तो कभी शीतल तेज़। धक्के लगते रहे। और जब धक्के रुके तो एक साथ।
दोनों पसीने में नहाए हुए थे। एक दुसरे से चिपके हुए से। आशीष ने भी यही
किया। उसकी चूत को एक बार फिर से भर दिया। दोनों काफी देर तक चिपके रहे।
फिर उठकर गुसलखाने की और चले गए। वहां राजपूत कविता को अपने तरीके सिखा
रहा था।
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अगले दिन ट्रेन मुंबई रेलवे स्टेशन पर रुकी। कविता ने नीचे उतरते ही आशीष
का हाथ थाम लिया और उसकी ओर मुस्कुराती हुयी बोली- "तुम कह रहे थे
तुम्हारा यहाँ कोई नहीं है। अगर तुम चाहो तो हमारे साथ चल सकते हो।"
आशीष की तो पाँचों उंगलियाँ अब घी में थी- "ठीक है, तुम कहती हो तो चल
पड़ता हूँ।" उसने कविता का हाथ दबाते हुए उसकी ओर आँख मारी।
"हाँ। हाँ। क्यूँ नहीं। तुम शहर में अजनबी हो बेटा। कुछ दिन हमारे साथ
रहोगे तो तुम्हे इधर-उधर का ज्ञान हो जायेगा। चलो हमारे साथ। कुछ दिन
आराम से रहना-खाना।" ताऊ न कहा और चारों साथ-साथ स्टेशन से बाहर निकल गए!
लगभग आधे घंटे बाद चारों एक मैली कुचैली सी बस्ती में पहुँच गए। हर जगह
गंदगी का आलम था। मकानों के नाम पर या तो छोटे-छोटे कच्चे घर थे। या फिर
झुग्गी झोपड़ियाँ।
"हम यहाँ रहेंगे?" आशीष ने मरी सी आवाज में पूछा।
"अरे चलो तो सही। अपना घर ऐसा नहीं है। अच्छा खासा है भगवान की दया से।
तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी वहां" बूढ़े ने आशीष की ओर खिसियाते हुए
कहा।
"हम्म्म! !" आशीष ने हामी भरी और रानी की और देखा। वो भी इस जगह से अनजान
थी। इसीलिए उनके पीछे-पीछे चल रही थी।
"लो भाई, ये आ गया अपना घर, ठीक है न?" बूढ़ा मुस्कुराते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया।
घर वास्तव में ही काफी बड़ा था। पुराना जरूर था। पर उन झुग्गी-झौपड़ियों
के बीच खड़ा किसी महल से कम नहीं लग रहा था।
"ए बापू आ गए, चलो उठो!" अन्दर से किसी लड़की की आवाज आई। दरवाजा खुला और
चारों अन्दर चले गए।
अन्दर जाते ही आशीष की आँखें आश्चर्य से फ़ैल सी गयी। अब उसका विश्वास
पुख्ता हो चला था की 'बापू ' दल्ला है लड़कियों का। घर में घुसते ही उसकी
नजर 14 से 22-23 साल की बीसियों लड़कियों पर पड़ी। सभी ने अश्लील से आधे
अधूरे कपडे डाल रखे थे। लड़कियां पंक्तिबद्ध होकर आशीष को टुकुर-टुकुर
देखने लगी। मनो देख रही हों की किसकी लोटरी लगेगी। उनके पास ही कोई 20-22
साल की उम्र के 2 लड़के भी खड़े थे।
"चलो चलो। अपना अपना काम करो। ये हमारा मेहमान है। 'वो ' नहीं जो तुम समझ
रही हो। " बूढ़े के ऐसा कहते ही लड़कियां छिन्न-भिन्न हुई और एक-एक करके
वहां से गायब हो गयी।
"ये सब कौन हैं ताऊ?" आशीष ने अनजान सा बनकर पूछा।
"कविता तुम्हे सब समझा देगी बेटा। कविता बेटी। एक कमरा खाली करवा कर इसका
सामन उसमें रखवा दो। देखना इसको कोई परेशानी न हो। मैं थोड़ी देर में आता
हूँ। " कहकर बूढ़ा बाहर निकल गया।
"ए राजू। अपने वाला कमरा खाली करो जल्दी। पुष्प अकेली है न। तुम उसके
कमरे में चले जाओ और विष्णु को बापू के साथ भेज दो। जल्दी करो। और ये
रानी कहाँ रहेगी?" कविता अपने माथे पर हाथ रख कर सोचने लगी।
"ये सब कौन हैं? " आशीष ने पूछा।
"कुछ भी समझ लो ", कविता मुस्कुरायी! " जो भी पसंद हो। मुझे बता देना।
तुम्हारे कमरे में पहुँच जाएगी! " कविता ने आशीष की ओर आँख मारी और फिर
जा रहे राजू को वापस बुलाया- "ए सुन राजू। इसको कहाँ रखेंगे?"
"अब मुझे क्या पता। बाकी कमरों में तो पहले ही दो-दो हैं! !" राजू ने कहा
और रानी के पास खड़ा होकर उसके गालों का चुम्मा लेने लगा।
"ये...ये क्या कर रहे हो!? शर्म नहीं आती क्या?" रानी गुस्से से बोली।
"हा-हा-हा शरम! " राजू ने उससे दूर होकर हवा में एक और 'किस' उसकी और
उछाली और मुस्कुराकर पलट गया।
"तुम ऐसा करो। इसको पुष्प के पास भेज दो। तुम्हारा मैं देखती हूँ।" कविता
ने राजू से कहा।
"अगर कोई दिक्कत न हो तो रानी मेरे साथ रह लेगी।!" आशीष ने कहा!
"हाँ। हाँ। भाभी। मैं आशीष के साथ ही रहूंगी! " रानी तुरंत बोल पड़ी।
"दरअसल! चलो आओ। पहले कमरा देख लो। फिर जैसा तुम कहोगे कर लेंगे। " कविता
ने कहा और कोने वाले कमरे की और चल पड़ी।
आशीष की कमरे में जाते ही नाक भौं सिकुड़ गयी। कमरे के नाम पर एक छोटा सा
पलंग डालने की जगह ही थी। जिसको शायद लकड़ी की चारदीवारी से कमरे का रूप
दिया गया था। कमरे से थूके हुए पान के धब्बों और कंडाम्स की बदबू आ रही
थी!- "ओह्ह। तो ये कमरा है?"
आशीष के बोलने का अंदाज और उसके चेहरे के भाव पढ़ कर कविता गुस्से से बाहर
निकली- "ए राजू। ये क्या है रे। सारे कमरे को पान की पीकों से भर रखा है,
चल। मिनट से पहले इसको धो दे! " कह कर वापस कविता अन्दर आई और बोली-
"चिंता मत करो। अभी सब ठीक हो जायेगा। पर अब बोलो। रानी को साथ रख लोगे?"
आशीष ने घूम कर बाहर खड़ी रानी को देखा। रानी आँखों ही आँखों में खुद को
उससे दूर न करने की प्रार्थना करती हुयी लग रही थी- "हम्म...रख लूँगा।!"
"ठीक है। रानी! तुम राजू के साथ मिलकर इस कमरे की सफाई करवा दो। तुम मेरे
साथ आओ आशीष। तब तक मैं तुम्हे यहाँ लड़कियों से मिलवाती हूँ! " कहकर
कविता आशीष का हाथ पकड़ कर बाहर ले गयी।
आशीष उस घर की एक एक लड़की से मिला। सभी भूखी प्यासी सी नजरों से उसको देख
कर मुस्कुरा रही थी। भूख उनके पते की थी या शरीर की। ये आशीष समझ नहीं
पाया। कहने को सभी एक से एक सुन्दर और जवान थी। पर ये सुन्दरता और जवानी
उनके शरीर तक ही सीमित थी। किसी की आँखों में अपनी जवानी और सौंदर्य को
लेकर गर्व की भंगिमाएं नहीं थी। उनको देख कर आशीष को लगा जैसे यह चार दिन
की जवानी ही उनका सहारा है और यह जवानी ही उनकी दुश्मन!..
"इसमें कोई नहीं है क्या?" कविता चलते हुए जब एक कमरे को छोड़ कर आगे जाने
लगी तो आशीष ने यूँही पूछ लिया।
"है। पर तुम्हारे मतलब की नहीं। साली नखरैल है। " कहकर कविता वापस मुड़ी
और कमरे का लकड़ी के फत्ते का दरवाजा खोल दिया!- "वैसे क़यामत है। पता नहीं
किस दिन तैयार होगी। "
आशीष ने अन्दर झाँका तो अचरज से देखता ही रह गया। अन्दर अपनी आँखें बंद
किये लेटी लड़की का रंग थोडा सांवला था। पर नयन नक्स इतने कटीले और सुंदर
थे की आशीष का मुंह खुला का खुला रह गया। उस लड़की का चेहरा सोने की तरह
अजीब सी आभा लिए हुए था। गालों पर एक अन्छुयी सी कशिश थी। होंठ गुलाब की
पंखुड़ियों के माफिक थे। एक दम रसीले! ! आशीष को उसी पल में उसको बाहों
में समेट कर प्यार करने का ख्याल आया!- "इसको मैंने बाहर तो नहीं देखा।?"
"हम्म्म। बताया तो तुम्हे की बड़ी नखरैल है साली। ये बाहर नहीं निकलती।
देखते हैं कब तक भूख के आगे इसके नखरे टिकते हैं। आओ!" कविता ने दरवाजा
बंद कर दिया।
"क्या मतलब?" आशीष की आँखों के सामने अब भी वही प्यारा सा चेहरा घूम रहा था!
"कुछ नहीं। आओ। तुम्हारा कमरा तैयार हो गया होगा। "कविता ने कहा और वापस
चल पड़ी!- "थोडा आराम कर लो। थके हुए आये हो। मैं भी लेट लेती हूँ थोड़ी
देर।!"
आशीष वापस अपने कमरे में गया तो दंग रह गया। बिस्तर पर बैठी रानी उसका
इन्तजार कर रही थी। आशीष को देखते ही मुस्कुराने लगी- "ठीक हो गया न।
अपना कमरा?"
कमरे को रानी ने इस तरह सजा दिया था मानो वह कोई सुहाग की सेज हो। सारा
कमरा अच्छी तरह से धोकर, बिस्तरे की चादर बदली करके और दीवार पर टंगे
नंगे पोस्टर को हटा कर कोने में उसने अगरबत्ती जला रखी थी। कविता के वापस
जाते ही आशीष ने बिस्तर पर चढ़ कर रानी को अपनी गोद में बैठा लिया।
आशीष रानी को प्यार करने के बाद नंगी ही बाहों में लिए पड़ा हुआ था। तभी
अचानक बाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया। रानी डरकर तुरंत आशीष की और देखने
लगी।
"घबरा क्यूँ रही हो!? लो। ये चद्दर औढ़ लो! " आशीष ने उसके जिस्म पर चादर
लपेटी और बिस्तर से ही झुकते हुए चिटकनी खोल दी। बाहर राजू खड़ा था!
"खाना ले लो भैया!" कह कर उसने एक खाने का डिब्बा आशीष की और बढ़ा दिया।
"थैंक्स! " आशीष ने कहा और दरवाजा बंद कर लिया।- "लो। खाओगी न?"
"और नहीं तो क्या? मुझे तो बहुत भूख लगी है। मैं कपडे पहन लूं एक बार! "
रानी उठी और अपने गले में समीज डालते हुए बोली।
अचानक आशीष के मन में कविता की बात कौंध गयी। 'देखते हैं कब तक भूख के
आगे इसके नखरे टिकते हैं '
"एक मिनट। तुम खाना शुरू करो। मैं अभी आता हूँ "- आशीष ने कहा और दरवाजा
खोल कर उस 'खोखे ' से बाहर निकल गया।
आशीष ने देखा। सभी दरवाजे खुले थे और सभी लड़कियां खाना खाने में व्यस्त
थी। सिर्फ 'उस ' लड़की का कमरा छोड़ कर। आशीष ने धीरे से दरवाजा अन्दर की
और धकेला। वो खुल गया। अन्दर बैठी वो लड़की सुबक रही थी। उसने धीरे से
अपना चेहरा दरवाजे की और घुमाया। अपने सामने अजनबी इंसान को देख कर 'वो
सहम सी गयी और अपनी छातियों पर चुन्नी डाल ली।
"क्या नाम है तुम्हारा?" आशीष ने कमरे के अन्दर घुस कर दरवाजा थोडा सा बंद किया।
"देखो! मुझसे जबरदस्ती करने की कोशिश की तो तुम्हारा सर फोड़ दूँगी। यकीन
नहीं आता हो तो बाहर पूछ लो। 2 दिन पहले भी आया था एक। तुम्हारी तरह! "
लड़की ने आशीष की तरफ घूरते हुए कहा। पर सच तो ये था की वो खुद आशीष को
'ग्राहक ' जान कर डर के मारे कांपने लगी थी।
"मैं.....मैंने तो सिर्फ नाम पूछा है। मैं 'गलत ' लड़का नहीं हूँ। " आशीष
ने प्यार से दूर खड़े-खड़े ही कहा।
लड़की ने एक बार फिर आशीष की नजरों में देखा। इस बार वह थोड़ी आश्वस्त सी
हो गयी थी- "मुझे किसी से कोई बात नहीं करनी। किसी को कुछ नहीं बताना। "
कहकर उसने फिर से रोना शुरू कर दिया।
"ऐसा मत करो। रो क्यूँ रही हो? आओ। मेरे पास आकर खाना खा लो। मैं दो चार
दिन यहीं रहूँगा। तब तक मुझसे दोस्ती करोगी?" कहकर आशीष ने अपना हाथ उसकी
और बाढ़ा दिया।
पर लड़की ने आशीष का हाथ नहीं थमा। हालाँकि वह अब उस पर विश्वास करने की
कोशिश कर रही थी!- "नहीं। खाना खाऊँगी तो 'वो ' लोग मुझे भी मारेंगे। और
आपको भी! !" सहमी सी नजरों से उसने आशीष को देखा।
"क्या मतलब? खाना खाने पर मारेंगे क्यूँ?" आशीष ने अचरज से पूछा।
"कल साइड वाली दीदी ने थोडा सा दे दिया था मुझे। आंटी ने मुझे भी बहुत
मारा और दीदी को भी शाम को खाना नहीं दिया।"
"क्या? पर क्यूँ?" आशीष का दिल कराह उठा।
"क्यूंकि...क्यूंकि मैं। तुम्हारे जैसे आने वाले लोगों के साथ सोती नहीं
हूँ। इसीलिए। कहते हैं की जब तक मैं नंगी होकर किसी के साथ सौउंगी नहीं।
मुझे खाना नहीं मिलेगा। " लड़की की आँखें द्रवित हो उठी।!
"ओह्ह। तुम आओ मेरे पास। मैं देखता हूँ। कौन तुम्हे खाना खाने से रोकता
है, उठो!" आशीष ने जबड़ा भींच कर कहते हुए उसका हाथ पकड़ लिया!
लड़की ने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की- "नहीं। वो मारेंगे!"
"तुम उठो तो सही! " कहकर आशीष ने लगभग जबरदस्ती उसको बिस्तर से खींच लिया।
जैसे ही वो बाहर आये। बाहर बैठा राजू दूर से ही चिल्लाया!- "ए भैया। इसको
कहाँ लिए जा रहे हो। पागल है ये!"
"आशीष ने घूर कर उसकी तरफ देखा और सीधा अपने कमरे में घुस गया। रानी खाना
शुरू कर चुकी थी। आशीष की ओर देख कर पहले हंसी। और फिर उस लड़की का हाथ
उसके हाथ में देख कर बेचैन हो गयी- "ये कौन है?"
"दोस्त है। तुम इसको खाना खिलाओ। मुझे भूख नहीं है। " आशीष ने मुस्कुराते हुए कहा।
"तो क्या! अब मैं आपके पास नहीं रहूंगी। मुझे यहाँ डर लगता है। आपके जाते
ही!" रानी मायूस होकर बोली।
"तुम कहीं नहीं जा रही मेरे पास से। खाना खाओ। फिर बात करेंगे!" आशीष ने
मुस्कुराकर रानी से कहा और बिस्तर पर एक कोने में बैठ गया।
कृतज्ञ सी होकर वो लड़की काफी देर तक आशीष को देखती रही। रानी की बातों से
उसको लगने लगा था की आशीष बुरा आदमी नहीं है। उसका दिल कह रहा था की 'वो'
उससे एक बार और नाम पूछ ले।
"खाना खाओ आराम से। किसी से डरने की जरुरत नहीं। इनकी तो मैं! " आशीष के
दिमाग में कुछ चल रहा था।
लड़की रानी के साथ बैठ कर खाना खाने लगी।!।
"हेल्लो, मुंबई पुलिस!" आशीष के फ़ोन पर आवाज आई।
"जी। मैं आशीष बोल रहा हूँ। धरावी से!" आशीष ने संभल कर उन दोनों को चुप
रहने का इशारा किया।
"जी, बताईये हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं!?" उधर से इस बार भी थकी थकी
सी आवाज आई।
"जी। जहाँ अभी मैं गलती से आ गया हूँ। वहां नाबालिग लडकियों को जबरजस्ती
लाकर उनसे वैश्यावृति करायी जा रही है। यहाँ.." आशीष की बात को उधर से
बीच में ही काट दिया गया।
"जी। पता लिखवाईये। "
"जी एक मिनट! " आशीष ने एक मिनट पहले ही मकान के बाहर से नोट करके लाया
पता ज्यों का त्यों लिखवा दिया।
"आप का नाम? "
"जी। आशीष!"
"मोबाइल नम्बर।?"
"जी 9215..........!"
"ठीक है। मैं अभी रिपोर्ट करता हूँ। " उधर से फोन कट गया।
"कहाँ फोन किया है आपने?" लड़की ने पूछा।
"पुलिस को। यहाँ किसी से बात मत करना!" आशीष ने कहा।
लड़की का चेहरा उतर गया!- "पुलिस तो यहाँ रोज ही आती रहती है। एक बार तो
पुलिस वाला मुझे गाली भी देकर गया था। इनकी बात न मानने के लिए! "
"अच्छा? आशीष ने कुछ सोचा और एक बार फिर 100 नम्बर ड़ायल कर दिया।
"हेल्लो, मुंबई पुलिस!" इस बार आवाज किसी महिला पुलिसकर्मी की थी!
"जी, मैं आशीष बोल रहा हूँ।!"
"जी, कहिये। पुलिस आपकी क्या मदद कर सकती है। "
आशीष ने पूरी बात कहने के बाद उसको बताया की लोकल पुलिस पर उसका भरोसा
कतई नहीं है। वो यहाँ से 'महीना ' लेकर जाते हैं। इसीलिए खानापूर्ति करके
चले जायेंगे। "
"OK! मैं आपकी कॉल फॉरवर्ड कर रही हूँ। कृपया लाइन पर बने रहिये।" महिला
पुलिसकर्मी ने कहा!
"जी धन्यवाद!" कहकर आशीष कॉल के कोनेक्ट होने का इंतज़ार करने लगा।
"हेल्लो! मुंबई मुख्यालय!"
आशीष ने पूरी बात विस्तार से कही और उनको अपना नाम, मोबाइल नम्बर। और
यहाँ का पता दे दिया। पर आवाज यहाँ भी ढीली इतनी थी की कोई उम्मीद आशीष
के मनन में न जगी!
तभी दरवाजा खुला और बूढ़ा दरवाजे पर चमका- "क्यूँ भाई? क्यूँ हमारी रोज़ी
पर लात मार रहे हो? इसको ऐसे ही खाना खिलाते रहे तो हम तो भिखारी बन
जायेंगे न!" बूढ़े के बात ख़तम करते ही दरवाजे पर उनके पीछे मोटे तगड़े
तीन मुस्टंडों के सर दिखाई दिए।
"खाना ही तो खिला रहा हूँ ताऊ। इसमें क्या है?" आशीष पीछे खड़े लोगों के
तेवर देख कर सहम सा गया।
"वो तो मैं देख ही रहा हूँ। तेरा खाना हमें 50,000 में पड़ेगा। पता है
क्या? ये साली किसी को हाथ तक नहीं लगाने देती अपने बदन पर। चल फुट यहाँ
से! " ताऊ ने उसके बाल पकड़ कर बिस्टर से उठा दिया! " वह कराह उठी!
"ये क्या कर रहे हो। छोड़ दो इसको! !" आशीष ने दबी सहमी सी आवाज में कहा।
"हाँ हाँ। छोड़ देंगे। एक लड़की का 2 लाख लगेगा। ला निकाल और ले जा जिसको
लेकर जाना है। " बूढ़े ने गुर्राकर कहा।
"तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? " आशीष ने हडबडा कर कहा।
"अभी पता चल जायेगा हम कैसे करते हैं। अपना ATM इधर दो। वरना ये पहलवान
मार मार कर तुम्हारा भुरता बना देंगे।" ताऊ ने धमकी दी।
"पर...पर! " आशीष ने सहम कर उन गुंडों की और देखा। वो सभी बाहों में
बाहें डाले उसकी और देख कर मुस्कुरा रहे थे। आशीष ने जैसे ही ATM निकलने
के लिए अपना पर्स निकाला। बूढ़े ने पर्स ही हड़प लिया- "ला। छुट्टे भी
चलेंगे थोड़े बहुत। अब ATM का नम्बर बता और जिसकी मारनी है, मार कर चुप
चाप पतली गली से निकल ले!" पुर्से में 4-5 हज़ार रुपैये देख कर बूढ़ा खुश
हो गया।
आशीष बेबस था। पर उसको पुलिस के आने की उम्मीद थी। उसने बूढ़े को गलत
नम्बर बता दिया।
"शाबाश बेटा, जुग जुग जियो। हे हे हे ले ये रख ले। वापस जाते हुए काम
आयेंगे! " बूढ़े ने एक 500 का नोट उसकी जेब में डाल दिया!
"क्या है रे बूढ़े। तू अपने ग्राहक को चेक करके इधर क्यूँ नहीं बुलाता है।
खाली पीली किसी ने 100 नम्बर घुमा दिया। अपुन की वाट लग जाती है फ़ोकट
में! " बहार से आये एक पुलिस वाले ने पान का पीक दीवार पर थूकते हुए कहा।
"अरे पाटिल साहब। आईये आईये। " उसके स्वागत में सर झुका कर ताऊ चौंक कर
बोला- "क्या? 100 नम्बर।? जरूर इस हरामी ने ही मिलाया होगा! " बूढ़े ने
गुर्राकर कहते हुए आशीष की और देखा।
"ये काहे को मिलाएगा 100 नम्बर।। दो दो को बगल में दबाये बैठा है। अरे ये
भी!" पाटिल ने आश्चर्य से उस लड़की की और देखा!- "बधाई हो, ये लड़की भी
चालू हो गयी। अब तो तेरी फैक्ट्री में पैसे ही पैसे बरसेंगे। ला! थोड़े
इधर दे। " पाटिल ने पर्स से दो हज़ार के नोट झटक लिए।
"कहे की फैक्ट्री साहब। साली एक नम्बर की बिगडैल है। सुनती ही नहीं। ये
तो इसको खाना खिला रहा है भूतनी का। " बूढ़े ने पाटिल की जेब में जा टंगे
दोनों नोटों को मायूसी से देखते हुए कहा।
"अरे मान कहे नहीं जाती साली। अपने जवानी को इस तरह छुपा कर बैठी है जैसे
इसका कोई यार आकर इसको यहाँ से निकाल कर ले जायेगा। कोई नहीं आने वाला
इधर। तू निश्चिंत होकर अपनी चूत का रिब्बों कटवा ले। साली। छा जाएगी
अक्खी मुंबई में। मेरे से लिखवा ले तू तो। साली तू तो हेरोइन बनने के
लायक है। मुझसे कहे तो मैं बात करूं। फिलम इन्डस्ट्री में एक यार है अपुन
का भी। बस एक बार! " कहकर पाटिल ने अपनी बत्तीसी निकाल ली!- "बोल क्या
कहती है?"
लड़की ने शर्म से अपनी नजरें झुका ली।
"मान जा बहन चोद। यूँ ही सड़ जाएगी यहाँ। भूखी मार देंगे तुझे ये। एक
बार। बस एक बार नंगी होकर नाच के दिखा दे यहाँ। मैं खुद खाना लाऊंगा तेरे
लिए। " पाटिल अपनी जाँघों के बीच हाथ से मसलते हुए बोला।
"छोडो न साहब। ये देखो। आज ही नया माल लाया हूँ। दिल्ली से। एक दम करारी
है। एक दम सील पैक। उसे करके देखो!" बूढ़े ने रानी की और इशारा किया।
पाटिल ने दरवाजे से अन्दर हाथ करके रानी के गालों पर हाथ मारा!- "हम्म।
आइटम तो ये भी झकास है। चल। ड्यूटी ऑफ करके आता हूँ शाम को। फिर इसका
श्री गणेश करेंगे। अभी तो मेरे को जल्दी है। साला कैसी कैसी तन्सिओं देते
हैं ये लोग। मुझे तो पटवारी का काम लग रहा है। मुकाबले की वजह से जरूर
उसने ही फ़ोन करवाया होगा। वैसे तेरे माल का कोई मुकाबला नहीं भाऊ...एक
एक जाने कहाँ से बना कर लाता है। "
"हे हे हे सब ऊपर वाले की और आपकी दया है पाटिल साहब! !" बूढ़े ने मक्खन लगाया।
"ठीक है। ठीक है। अभी मेरे को दो चार पड़ोसियों के बयां लिखवा दे। 100
नम्बर की कॉल पर साला ऊपर तक रिपोर्ट बनाकर देनी होती है। जाने किस
मादरचोद...."
पाटिल ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी की बाहर पुलिस सायरन बज उठा।
"ए अब यहाँ मुनादी करनी जरूरी है क्या? ड्राईवर को बोल होर्न बंद कर देने
का। साला इस सायरन से इतनी चिढ़ है की! " एक बार फिर पाटिल की आवाज उसके
हलक में ही रह गयी। अगले ही पल पुलिस के आदमी पूरे मकान में फ़ैल गए।
घबराकर पाटिल ने बूढ़े का कालर पकड़ लिया- "साले। बूढ़े। यहाँ धंधा करता है।
मेरे इलाके में। चल ठाणे तेरी अकड़ निकालता हूँ। " पाटिल ने कहा और अन्दर
आ चुके इंस्पेक्टर को देखते ही गला छोड़ कर सलाम ठोका- "सलाम साहब! आपने
क्यूँ तकलीफ की। मैं पहले ही आ गया था इसको पकड़ने। खैर। अब आप आ गए हो तो
संभालो। मैं चलता हूँ। "
"तुम कहीं नहीं जाओगे पाटिल? इंस्पेक्टर ने अपनी टोपी उतारते हुए कहा-
"तुम्हारे ही खिलाफ शिकायत हुई है। यहीं खड़े रहो! " इंस्पेक्टर ने कहा और
पूछा- "आशीष कौन है!?"
"जी मैं। मैंने ही फ़ोन किया था।!" आशीष ने रहत की सांस ली!
"हम्म। वैरी गुड! पर तुम ये कैसे कह रहे हो की लोकल पुलिस कार्यवाही नहीं
कर रही। क्या पहले भी तुमने शिकायत की है?" इंस्पेक्टर ने पूछा।
"जी नहीं। इस लड़की ने बताया है। " आशीष ने अन्दर इशारा किया।
"हम्म....बाहर बुलाओ जरा इसको!" इंस्पेक्टर ने अन्दर देखते हुए कहा।
आशीष के इशारा करने पर डरी सहमी सी वो लड़की बाहर आ गयी। बाहर आते ही उसने
आशीष का हाथ पकड़ लिया।
"घबराओ नहीं बेटी। खुल कर बताओ। क्या पुलिस तुम्हे बचाने के लिए नहीं आ
रही।?" इंस्पेक्टर ने प्यार से पूछा।
आशीष के साथ खड़े होने और इंस्पेक्टर के प्यार से बोलने के कारण लड़की में
हिम्मत बंधी। उसने कडवी निगाह से पाटिल की और देखा- "ये ये पुलिस वाला तो
यहाँ रोज आता है। ये ये कुत्ता मुझे गन्दी गन्दी गालियाँ देता है और
उल्टा इन लोगों की बात मानने को कहता है। इसी ने इन लोगों को बोला है की
मैं जब तक इनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं होती मेरा खाना बंद कर दो।
मैंने इसको हाथ जोड़ कर कहा था की मैं यहाँ नहीं रह सकती। ये कहने लगा की
मेरे साथ कर लो। फिर मैं तुझे छुडवा दूंगा......थू है इस पर "
इंस्पेक्टर की नजरें पुलिस वाले की तरफ लड़की को इस तरह थूकता देख शर्म से
झुक गयी।- "क्या नाम है बेटी तुम्हारा?"
"रजनी!" कहते हुए लड़की ने सर उठा कर आशीष के चेहरे की और देखा। मनो कह
रही हो। मैं तुम्हे बताने ही वाली थी। पहले ही।
"हम्म....बेटा, ऐसे गंदे लोग भी पुलिस में हैं जो वर्दी की इज्जत को यूँ
तार तार करते हैं। ये जान कर मैं शर्मिंदा हूँ। पर अब फिकर मत करो!" फिर
आशीष की और देखते हुए बोला- "और कुछ मिस्टर आशीष!"
"जी। इस बूढ़े ने मेरा पर्स छीन लिया है। और उसमें से 2000 रुपैये आपके इस
पाटिल ने निकाल लिए हैं। "
पाटिल ने तुरंत अपनी जेब में ऊपर से ही चमक रहे नोटों को छिपाने की कोशिश
की। इंस्पेक्टर ने रुपैये निकाल लिए।
"नहीं! जनाब ये रुपैये तो मेरी पगार में से बचे हुए हैं। वो आज मैडम ने
कुछ समान मंगाया था। माँ कसम। " पाटिल ने आखिर आते आते धीमा होकर अपना सर
झुका लिया।
इंस्पेक्टर ने बूढ़े के हाथ से पर्स लिया। उसमें कुछ और भी हज़ार के नोट
थे। इंस्पेक्टर ने कुछ देर सोचा और फिर बोले- "शिंदे।!"
"जी जनाब!" शिंदे पीछे से आगे आ गया!
रजनी बिटिया का बयान लो और पाटिल को अन्दर डालो। बूढ़े को और जो लोग इसके
साथ हैं। उनको भी ले लो। सारी लड़कियों का घर पता करके उन्हें घर भिजवाओ
और जिनका घर नहीं है। उनको महिला आश्रम भेजने का प्रबंध करो!" इंस्पेक्टर
ने लम्बी सांस ली।
इंस्पेक्टर की बात सुनते ही रानी अन्दर से बाहर आई और रजनी से आशीष का
हाथ छुडवा कर खुद पकड़ने की कोशिश करने लगी। पर रजनी ने हाथ और भी सख्ती
से पकड़ लिया। इस पर रानी आशीष के दूसरी तरफ पहुँच गयी और उसका दूसरा हाथ
पकड़ लिया।
आशीष ने हडबडा कर अपने दोनों हाथ पकडे खड़ी लड़कियों को देखा और फिर
शर्मिंदा सा होकर इंस्पेक्टर की और देखने लगा।
"वेल डन माय बॉय! यू आर हीरो!" इंस्पेक्टर ने पास आकार आशीष का कन्धा
थपथपाया और मुड़ गया।
रेलवे स्टेशन पर पहुँच कर आशीष ने रहत की सांस ली। हीरो बनने का ख्वाब
अधूरा छोड़ वह वापस अपने घर जा रहा था। बेशक वह हीरो नहीं बन पाया। पर
इंस्पेक्टर के 'वो' शब्द उसकी छाती चौड़ी करने के लिए काफी थे!
"वेल डन माय बॉय! यू आर हीरो!"
इन्ही रोमांचक ख्यालों में खोये हुए तत्काल की लाइन में आशीष का नम्बर कब
खिड़की पर आ गया। उसको पता ही नहीं चला!
"अरे भाई बोलो तो सही!" खिड़की के अन्दर से आवाज आई।
"थ्री टिकट टू दिल्ली!" आशीष ने आरक्षण फाम अन्दर सरकते हुए जवाब दिया!
--
Raj Sharma
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