FUN-MAZA-MASTI
बदलाव के बीज--2
सोने की व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी :
मेरे पिताजी और चन्दर का बिस्तरा जमीन पर लगा था और पलंग पर माँ, मैं, भाभी और नेहा थे| हम सभी इसी कतार में लेते थे और सभी का ध्यान टी.वी की तरफ था| मैं टी.वी देखने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, मेरा ध्यान तो केवल भाभी पर था| परन्तु कमरे में जल रही तुबलाइट के कारन मैं कुछ नहीं कर सकता था| मैं बाथरूम जाने के बहाने से उठा और बहार चला गया| जब मैं वापस आया तो मैंने तुबलाइट बंद कर दी| पिताजी ने मुझे टोका, "लाइट क्यों बंद कर दी?"| मैं सकपका गया और लड़खड़ाते हुए जवाब दिए,"पिताजी …लाइट बंद करके थिएटर वाला मजा आएगा"| वे कुछ नहीं बोले और मैं वापस आकर पानी जगह लेट गया| कुछ क्षण तो मैं कुछ नहीं बोला जब मैंने देखा की सबका ध्यान टी.वी. पर है तो मैंने भाभी की तरफ मुंह किया और खुसफुसते हुए कहा:
"भाभी नेहा को सुला दो"|
भाभी :"नहीं मानु काकी देख लेंगी!!!"
मैं: "नहीं कोई नहीं देख पायेगा, लाइट बंद है|"
भाभी: "अगर काकी इधर घूम गईं तो बहुत बुरा होगा, तुम्हारी बहुत पिटाई होगी और मेरी बहुत बदनामी होगी| आज नहीं, फिर कभी कर लेना|"
मैं गुस्से में आग बबूला हुआ जा रहा था| मैंने फिर भी एक कोशिश की और कहा :
"अच्छा एक पप्पी तो दे दो?"
भाभी: "नहीं मानु बात को समझो, कोई देख लेगा|"
अब मेरे सब्र का बाँध टूट चूका था और गुस्से मेरे सर पर चढ़ चूका था| परन्तु मैं कर कुछ नहीं सकता था| मैंने गुस्से में मुंह घुमाया और दूसरी तरफ करवट ले कर सो गया| उन्होंने अपना हाथ मेरी कमर रख के मुझे मानाने की कोशिश की पर मैं कहाँ मानने वाला था| मैंने उनका हाथ झटक दिया और जोर से सब से बोला:
"शुभ रात्रि, मैं सो रहा हूँ|"
पिताजी ने डांटते हुए कहा: "क्यों क्या हुआ? इतने दिन से तूफ़ान मचाया हुआ था की पिक्चर देखनी है और अब जब पिक्चर आ गई तो सोना है?" मैंने कोई जवाब न देना सही समझा और ऐसा दिखाया की मुझे बहुत जोर से नींद आ रही हो| मन ही मन मैं भाभी को कोस रहा था की उन्होंने क्यों मुझे रोका, सारा मूड ख़राब कर दिया|
अगले दिन सुबह हुई, पर मैं अब भी भाभी से बात नहीं कर रहा था| उन्होंने एक-दो बार मुझे इशारे से बुलाया भी, पर मैंने गुस्से से उनके तरफ देखा पर बोला कुछ नहीं| ये मेरा तरीका था उन्हें ये याद दिलाने का की कल रात को आपने मेरे साथ धोका किया! सुबह नाश्ता करने के पश्चात समय था भाभी और भैया को स्टेशन छोड़ने जाने का| जैसे ही पिताजी ने कहा की जल्दी तैयार हो जाओ, मेरा तो जैसे गाला ही सुख गया| मेरी शकल पे बारह बज गए और मैं अपने ही भावों को छुपा न पाया, पिताजी को मेरे भावों को पढ़ने में ज्यादा देर नहीं लगी पर उन्होंने मेरे इन भावों का अंदाजा ठीक वैसे ही लगाया जैसे की कोई आम इंसान किसी अपने के जाने पर लगाता है| उन्हें लगा की मुझे भाभी और भैया के जाने का बहुत दुःख हो रहा है, क्योंकि उनकी नजर में मैं दोनों को ही प्यार करता था| पर वे नहीं जानते थे की मेरा प्यार केवल भाभी के लिए था, भैया के साथ तो मैं केवल इसलिए खेलता था की कहीं उन्हें मेरी भाभी के प्रति भावनाओं पर शक न हो जाये| चन्दर भैया ने मुझे आगे बढ़ कर गले लगा लिया जैसे उन्हें भी यकीन था की पिताजी जो कह रहे हैं| भैया कहने लगे, " अरे मानु भैया दुखी न हो, हम फिर आएंगे| नहीं तो आप गावों आ जाना हमसे मिलने"| मेरी आँखों में आंसूं छलक आये थे और मेरी नजरें भाभी पर टिकी थीं| उनके चेहरे से साफ़ नजर आ रहा था की वे अंदर से कितनी उदास हैं| पर उन्हें अपने भावों को छुपाने की कला में महारत थी, इसलिए की इससे पहले की कोई उनके उदास चेहरे को देख पाता उन्होंने अपने आपको संभालते हुए एक झूठी मुस्कान दी| उनकी ट्रैन 2 बजे की थी और अब स्टेशन के लिए निकलने का समय था, मैंने जिद्द की, कि मैं भी जाऊँगा| पिताजी ने हार मानते हुए कहा ठीक है, हम पांचों घर से निकल चले| पिताजी और भैया आगे चल रहे थे और आपस में कुछ बात कर रहे थे, पीछे मैं, भाभी और उनकी गोद में नेहा थी| मैंने भाभी का हाथ पकड़ा हुआ था और जैसे-जैसे हम ऑटो रिक्शा स्टैंड तक पहुंचे मेरा दबाव उनके हाथ पर गहर्रा होता जा रहा था| ऐसा लगता था जैसे मैं उन्हें रोक लूँ और अपने साथ घर वापस ले जाऊँ|
पिताजी ने रिक्शा किया और ऑटो रिक्क्षे में हम कुछ इस प्रकार बैठे:
सबसे पहले भाभी बैठीं फिर मैं अंदर घुसा फिर चन्दर भैया और मैं उनकी गोद में बैठ गया और अंत में पिता जी बैठ गए| मैंने फिर से भाभी का हाथ पकड़ लिया और आंसूं से भरी नजरों से उनकी और देखने लगा| अब उनसे भी बर्दाश्त करना मुश्किल था, उन्होंने अपने सीधे हाथ से मेरी आँख से आंसूं पोछे| अब उनकी आँखों में भी आंसूं छलक आये थे, अब मेरी बारी थी उन्हें पोछने की| मैंने उनके आंसूं पोछे और गर्दन न में हिलाते हुए नहीं रोने का संकेत दिया| पूरे रास्ते में उनका हाथ पोछते हुए भाई की गोद में बैठा था और अंदर ही अंदर अपने आप को कोस रहा था की क्यों मैंने रात में बेवकूफी की| पर अब पछताने से क्या होने वाला था, हम स्टेशन पर पहुंचे और उन्हें ट्रैन में बैठाया| कुछ ही क्षण में ट्रैन चल पड़ी और मैं स्टेशन पर खड़ा उन्हें अलविदा कहता रहा| यूँ तो बहुत से लोग स्टेशन आते हैं परन्तु मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरी आत्मा का एक टुकड़ा मुझसे दूर जा रहे है और मैं उसे चाह के भी नहीं रोक सकता| मेरी बाद किस्मती की उस दिन के पश्चात न तो उनका दुबारा शहर आना हुआ और न ही हमारा गावों जाना हुआ|
धीरे-धीरे मैं उन मीठी-मीठी सभी यादों को भूलता गया और अपनी पढ़ाई में मशगूल हो गया| कई साल बीत गए और अब मैं नौंवी कक्षा में आ चूका था| मेरे स्कूल के दोस्तों से मुझे सेक्स का ज्ञान प्राप्त हुआ| मेरी कक्षा में मेरे दोस्त इतने हरामी थे की कक्षा में शिक्षिका के होते हुए भी अपना लंड पेंट से निकाल के एक दूसरे को दिखाया करते थे| परन्तु मुझे ये सब बड़ा ही अभद्र व्यवहार लगता था इसलिए मैंने इस अश्लील काम को कभी भी कक्षा में नहीं किया और यही कारन था की मैं कक्षा का सबसे भोला- भाला विद्यार्थी था| इस साल गर्मियों की छुटियों में पिताजी ने गावों जाने का प्रोग्राम बनाया था, पिताजी की बात सुनके मेरे मन में वही भूली बिसरी यादें वापस आ गईं और में सोचने लगा की क्या भाभी को वो सब याद होगा? मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था, इतना सालों बाद वो हसीन पल आने वाला था| गावों जाने की बात से तो मैं फूला नहीं समां रहा था| अभी तक मैं अपनी इन भावनाओं को समझ नहीं सका था और न ही भाभी और मेरे इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाया था| मेरे लिए तो जैसे एक सुन्हेरा सपना था, जो मेरे अनुसार कभी खत्म नहीं होना चाहिए|
खेर पिताजी ने गावों जाने की टिकट निकलवाई| मैं सारी रात नहीं सो पाया, दिमाग में बस भाभी का ख़याल ही आ रहा था| उनकी वो कातिलाना मुस्कान जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता था| इस बार मैंने मन बना लिया था की इस बार मैं कोई मूर्खता नहीं दिखाऊंगा, उनसे नाराज हो के इस स्वर्णिम मौके को बेकार नहीं करूँगा| सारी रात दिमाग में रणनीतियां बनाता रहा और 4 बजे करीब मेरी आँख लगी|
गावों जाने में केवल एक दिन रह गया था और अब बारी थी पैकिंग करने की| मैंने ख़ुशी-ख़ुशी सारा सामान पैक किया और मेरा इतना उत्साह देख कर तो पिताजी भी चकित थे| उन्होंने माँ से मेरी तारीफ करते हुए कहा भी,
"क्या बात है लाड़ साहब, आज तो पैकिंग करने में बहुत उत्सुकता दिखा रहे हो? आज से पहले तो कभी इतनी उत्सुकता नहीं दिखाई, हमेशा माँ कहते-कहते थक जाती थी की अपने कपडे निकाल दे मैं पैक कर दूँ पर आपके कान पे जूं तक नहीं रेंगती थी|"
मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस हल्का सा मुस्कुरा दिया, अब उन्हें की पता की मेरे मन में क्या चल रहा है| माँ ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा :
"अरे अब बड़ा हो गया है, जिम्मेदार हो गया है| अब से हमेशा ही ये हम सबका समान पैक करेगा| क्यों करेगा ना?"
अब मैं क्या कहता, बस इतना ही बोला :
"जी"!!!
खेर वो दिन आ गए जब हम गावों पहुंचे, हमारी बड़ी आओ-भगत हुई| गावों में जिन-जिन को पता चला की शहर से सुरेश और उनका परिवार आया है, वे सब हमसे मिलने आये सब लोग हमें घेर के बैठे थे जैसे कोई फ़िल्मी हस्ती आई हो| सभी का ध्यान पिता जी की बातों पर था और मैं तो बस भाभी की एक झलक देखने को तड़प रहा था| मेरी बड़की अम्मा (बड़ी चाची) गुड और पानी लाईं, पर मेरी नजर तो भाभी को ढूंढ रही थी| मैंने गुड उठाया और मुंह में डाला, और जैसे ही पानी का गिलास उठा के पानी का पहला घूट पिया मुझे भाभी की साडी दिखाई दी| मेरे दिल में जैसे गिटार बजने लगा, जैसे-जैसे वो नजदीक आने लॉगिन मेरे चेहरे पर मुस्कान बढ़ने लगी| उन्होंने सबसे पहले मेरी तररफ देखा और एक प्यार भरी मुस्कराहट दी| हाय!!!.. इसी मुस्कराहट के लिए तो मैं कितने दिनों से तड़प रहा था| उनके हाथ में एक बड़ी सी परत थी और उसमें पानी था, मैं सवालों भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था क्योंकि मैं नहीं जानता था की इसका क्या करना है?
भाभी मई पास आई और नीचे झुक कर उन्होंने वो बर्तन ज़मीन पर रखा और और मेरे जुटे उतरने लगीं| मैंने उनसे खुद ही सवाल पूछा:
"भाभी इस बर्तन में पानी है, क्या मुझे नहलाने का इरादा है" ये कहते हुए मैंने हलकी से मुस्कान दी!
पिताजी ठीक मेरे पीछे ही बैठे थे, उन्होंने मेरी बात सुन ली और पीछे घूम के देखा और बोले :
"अरे नहलाने नहीं, इसमें तेरे पैर धोएंगे, जिससे तेरी सारी थकान उतर जाएगी|"
मैं बड़ी हैरत वाली नज़रों से भाभी की और देखने लगा और अपने पैर भाभी के हाथ से ऐसे छुड़ाय जैसे वो मेरे पैर काटने वालीं हों| भाभी हैरान मेरी और देख रही थी, इससे पहले की वो कुछ कहती मैं स्वयं बोल पड़ा :
"नहीं भाभी मैं आपसे पैर नहीं धुलवाउंगा| आप मुझसे बड़े हो मैं आपको अपने पैर हाथ नहीं लगाने दूंगा|"
मेरी बात सुन भाभी और सब के सब सुन रह गए| दरअसल हमारे गावों में औरत को बहुत निचला दर्जा दिया जाता है, सामान्य भाषा में कहूँ तो उसे पैर की जूती समझा जाता है| परन्तु मेरा व्यवहार ऐसा नहीं है, शायद मेरे पिताजी के शिष्टाचार ने मेरी सोच इस प्रकार बदल दी| हालाँकि मेरे पिताजी की सोच मेरे विचारों के एक दम विपरीत है, उन्होंने मेरी माँ को शुरू से ही दबा के रखा है| मेरी इस सोच का श्रेय में अपनी माँ को देना चाहूंगा, जिन्होंने मुझे सब के प्रति आदर भाव की शिक्षा दी|
खेर वहां सभी मर्द मेरे पिताजी की तारीफ करने लगे की उन्होंने क्या शिक्षा दी है| उनके शब्द और चहरे के भाव एक साथ मेल नहीं खा रहे थे और ये पिताजी भी समझ चुके थे| वहां जितनी औरतें थीं वे सब मेरी माँ के पास बैठीं थी और मेरी तारीफ कर रहीं थी| ये बात मुझे माँ ने रात्रि भोज के समय बताईं| भाभी मेरे इस बर्ताव से बहुत प्रभावित लग रहीं थी और उन्हें मुझ पे गर्व होने लगा था|
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बदलाव के बीज--2
सोने की व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी :
मेरे पिताजी और चन्दर का बिस्तरा जमीन पर लगा था और पलंग पर माँ, मैं, भाभी और नेहा थे| हम सभी इसी कतार में लेते थे और सभी का ध्यान टी.वी की तरफ था| मैं टी.वी देखने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, मेरा ध्यान तो केवल भाभी पर था| परन्तु कमरे में जल रही तुबलाइट के कारन मैं कुछ नहीं कर सकता था| मैं बाथरूम जाने के बहाने से उठा और बहार चला गया| जब मैं वापस आया तो मैंने तुबलाइट बंद कर दी| पिताजी ने मुझे टोका, "लाइट क्यों बंद कर दी?"| मैं सकपका गया और लड़खड़ाते हुए जवाब दिए,"पिताजी …लाइट बंद करके थिएटर वाला मजा आएगा"| वे कुछ नहीं बोले और मैं वापस आकर पानी जगह लेट गया| कुछ क्षण तो मैं कुछ नहीं बोला जब मैंने देखा की सबका ध्यान टी.वी. पर है तो मैंने भाभी की तरफ मुंह किया और खुसफुसते हुए कहा:
"भाभी नेहा को सुला दो"|
भाभी :"नहीं मानु काकी देख लेंगी!!!"
मैं: "नहीं कोई नहीं देख पायेगा, लाइट बंद है|"
भाभी: "अगर काकी इधर घूम गईं तो बहुत बुरा होगा, तुम्हारी बहुत पिटाई होगी और मेरी बहुत बदनामी होगी| आज नहीं, फिर कभी कर लेना|"
मैं गुस्से में आग बबूला हुआ जा रहा था| मैंने फिर भी एक कोशिश की और कहा :
"अच्छा एक पप्पी तो दे दो?"
भाभी: "नहीं मानु बात को समझो, कोई देख लेगा|"
अब मेरे सब्र का बाँध टूट चूका था और गुस्से मेरे सर पर चढ़ चूका था| परन्तु मैं कर कुछ नहीं सकता था| मैंने गुस्से में मुंह घुमाया और दूसरी तरफ करवट ले कर सो गया| उन्होंने अपना हाथ मेरी कमर रख के मुझे मानाने की कोशिश की पर मैं कहाँ मानने वाला था| मैंने उनका हाथ झटक दिया और जोर से सब से बोला:
"शुभ रात्रि, मैं सो रहा हूँ|"
पिताजी ने डांटते हुए कहा: "क्यों क्या हुआ? इतने दिन से तूफ़ान मचाया हुआ था की पिक्चर देखनी है और अब जब पिक्चर आ गई तो सोना है?" मैंने कोई जवाब न देना सही समझा और ऐसा दिखाया की मुझे बहुत जोर से नींद आ रही हो| मन ही मन मैं भाभी को कोस रहा था की उन्होंने क्यों मुझे रोका, सारा मूड ख़राब कर दिया|
अगले दिन सुबह हुई, पर मैं अब भी भाभी से बात नहीं कर रहा था| उन्होंने एक-दो बार मुझे इशारे से बुलाया भी, पर मैंने गुस्से से उनके तरफ देखा पर बोला कुछ नहीं| ये मेरा तरीका था उन्हें ये याद दिलाने का की कल रात को आपने मेरे साथ धोका किया! सुबह नाश्ता करने के पश्चात समय था भाभी और भैया को स्टेशन छोड़ने जाने का| जैसे ही पिताजी ने कहा की जल्दी तैयार हो जाओ, मेरा तो जैसे गाला ही सुख गया| मेरी शकल पे बारह बज गए और मैं अपने ही भावों को छुपा न पाया, पिताजी को मेरे भावों को पढ़ने में ज्यादा देर नहीं लगी पर उन्होंने मेरे इन भावों का अंदाजा ठीक वैसे ही लगाया जैसे की कोई आम इंसान किसी अपने के जाने पर लगाता है| उन्हें लगा की मुझे भाभी और भैया के जाने का बहुत दुःख हो रहा है, क्योंकि उनकी नजर में मैं दोनों को ही प्यार करता था| पर वे नहीं जानते थे की मेरा प्यार केवल भाभी के लिए था, भैया के साथ तो मैं केवल इसलिए खेलता था की कहीं उन्हें मेरी भाभी के प्रति भावनाओं पर शक न हो जाये| चन्दर भैया ने मुझे आगे बढ़ कर गले लगा लिया जैसे उन्हें भी यकीन था की पिताजी जो कह रहे हैं| भैया कहने लगे, " अरे मानु भैया दुखी न हो, हम फिर आएंगे| नहीं तो आप गावों आ जाना हमसे मिलने"| मेरी आँखों में आंसूं छलक आये थे और मेरी नजरें भाभी पर टिकी थीं| उनके चेहरे से साफ़ नजर आ रहा था की वे अंदर से कितनी उदास हैं| पर उन्हें अपने भावों को छुपाने की कला में महारत थी, इसलिए की इससे पहले की कोई उनके उदास चेहरे को देख पाता उन्होंने अपने आपको संभालते हुए एक झूठी मुस्कान दी| उनकी ट्रैन 2 बजे की थी और अब स्टेशन के लिए निकलने का समय था, मैंने जिद्द की, कि मैं भी जाऊँगा| पिताजी ने हार मानते हुए कहा ठीक है, हम पांचों घर से निकल चले| पिताजी और भैया आगे चल रहे थे और आपस में कुछ बात कर रहे थे, पीछे मैं, भाभी और उनकी गोद में नेहा थी| मैंने भाभी का हाथ पकड़ा हुआ था और जैसे-जैसे हम ऑटो रिक्शा स्टैंड तक पहुंचे मेरा दबाव उनके हाथ पर गहर्रा होता जा रहा था| ऐसा लगता था जैसे मैं उन्हें रोक लूँ और अपने साथ घर वापस ले जाऊँ|
पिताजी ने रिक्शा किया और ऑटो रिक्क्षे में हम कुछ इस प्रकार बैठे:
सबसे पहले भाभी बैठीं फिर मैं अंदर घुसा फिर चन्दर भैया और मैं उनकी गोद में बैठ गया और अंत में पिता जी बैठ गए| मैंने फिर से भाभी का हाथ पकड़ लिया और आंसूं से भरी नजरों से उनकी और देखने लगा| अब उनसे भी बर्दाश्त करना मुश्किल था, उन्होंने अपने सीधे हाथ से मेरी आँख से आंसूं पोछे| अब उनकी आँखों में भी आंसूं छलक आये थे, अब मेरी बारी थी उन्हें पोछने की| मैंने उनके आंसूं पोछे और गर्दन न में हिलाते हुए नहीं रोने का संकेत दिया| पूरे रास्ते में उनका हाथ पोछते हुए भाई की गोद में बैठा था और अंदर ही अंदर अपने आप को कोस रहा था की क्यों मैंने रात में बेवकूफी की| पर अब पछताने से क्या होने वाला था, हम स्टेशन पर पहुंचे और उन्हें ट्रैन में बैठाया| कुछ ही क्षण में ट्रैन चल पड़ी और मैं स्टेशन पर खड़ा उन्हें अलविदा कहता रहा| यूँ तो बहुत से लोग स्टेशन आते हैं परन्तु मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरी आत्मा का एक टुकड़ा मुझसे दूर जा रहे है और मैं उसे चाह के भी नहीं रोक सकता| मेरी बाद किस्मती की उस दिन के पश्चात न तो उनका दुबारा शहर आना हुआ और न ही हमारा गावों जाना हुआ|
धीरे-धीरे मैं उन मीठी-मीठी सभी यादों को भूलता गया और अपनी पढ़ाई में मशगूल हो गया| कई साल बीत गए और अब मैं नौंवी कक्षा में आ चूका था| मेरे स्कूल के दोस्तों से मुझे सेक्स का ज्ञान प्राप्त हुआ| मेरी कक्षा में मेरे दोस्त इतने हरामी थे की कक्षा में शिक्षिका के होते हुए भी अपना लंड पेंट से निकाल के एक दूसरे को दिखाया करते थे| परन्तु मुझे ये सब बड़ा ही अभद्र व्यवहार लगता था इसलिए मैंने इस अश्लील काम को कभी भी कक्षा में नहीं किया और यही कारन था की मैं कक्षा का सबसे भोला- भाला विद्यार्थी था| इस साल गर्मियों की छुटियों में पिताजी ने गावों जाने का प्रोग्राम बनाया था, पिताजी की बात सुनके मेरे मन में वही भूली बिसरी यादें वापस आ गईं और में सोचने लगा की क्या भाभी को वो सब याद होगा? मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था, इतना सालों बाद वो हसीन पल आने वाला था| गावों जाने की बात से तो मैं फूला नहीं समां रहा था| अभी तक मैं अपनी इन भावनाओं को समझ नहीं सका था और न ही भाभी और मेरे इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाया था| मेरे लिए तो जैसे एक सुन्हेरा सपना था, जो मेरे अनुसार कभी खत्म नहीं होना चाहिए|
खेर पिताजी ने गावों जाने की टिकट निकलवाई| मैं सारी रात नहीं सो पाया, दिमाग में बस भाभी का ख़याल ही आ रहा था| उनकी वो कातिलाना मुस्कान जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता था| इस बार मैंने मन बना लिया था की इस बार मैं कोई मूर्खता नहीं दिखाऊंगा, उनसे नाराज हो के इस स्वर्णिम मौके को बेकार नहीं करूँगा| सारी रात दिमाग में रणनीतियां बनाता रहा और 4 बजे करीब मेरी आँख लगी|
गावों जाने में केवल एक दिन रह गया था और अब बारी थी पैकिंग करने की| मैंने ख़ुशी-ख़ुशी सारा सामान पैक किया और मेरा इतना उत्साह देख कर तो पिताजी भी चकित थे| उन्होंने माँ से मेरी तारीफ करते हुए कहा भी,
"क्या बात है लाड़ साहब, आज तो पैकिंग करने में बहुत उत्सुकता दिखा रहे हो? आज से पहले तो कभी इतनी उत्सुकता नहीं दिखाई, हमेशा माँ कहते-कहते थक जाती थी की अपने कपडे निकाल दे मैं पैक कर दूँ पर आपके कान पे जूं तक नहीं रेंगती थी|"
मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस हल्का सा मुस्कुरा दिया, अब उन्हें की पता की मेरे मन में क्या चल रहा है| माँ ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा :
"अरे अब बड़ा हो गया है, जिम्मेदार हो गया है| अब से हमेशा ही ये हम सबका समान पैक करेगा| क्यों करेगा ना?"
अब मैं क्या कहता, बस इतना ही बोला :
"जी"!!!
खेर वो दिन आ गए जब हम गावों पहुंचे, हमारी बड़ी आओ-भगत हुई| गावों में जिन-जिन को पता चला की शहर से सुरेश और उनका परिवार आया है, वे सब हमसे मिलने आये सब लोग हमें घेर के बैठे थे जैसे कोई फ़िल्मी हस्ती आई हो| सभी का ध्यान पिता जी की बातों पर था और मैं तो बस भाभी की एक झलक देखने को तड़प रहा था| मेरी बड़की अम्मा (बड़ी चाची) गुड और पानी लाईं, पर मेरी नजर तो भाभी को ढूंढ रही थी| मैंने गुड उठाया और मुंह में डाला, और जैसे ही पानी का गिलास उठा के पानी का पहला घूट पिया मुझे भाभी की साडी दिखाई दी| मेरे दिल में जैसे गिटार बजने लगा, जैसे-जैसे वो नजदीक आने लॉगिन मेरे चेहरे पर मुस्कान बढ़ने लगी| उन्होंने सबसे पहले मेरी तररफ देखा और एक प्यार भरी मुस्कराहट दी| हाय!!!.. इसी मुस्कराहट के लिए तो मैं कितने दिनों से तड़प रहा था| उनके हाथ में एक बड़ी सी परत थी और उसमें पानी था, मैं सवालों भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था क्योंकि मैं नहीं जानता था की इसका क्या करना है?
भाभी मई पास आई और नीचे झुक कर उन्होंने वो बर्तन ज़मीन पर रखा और और मेरे जुटे उतरने लगीं| मैंने उनसे खुद ही सवाल पूछा:
"भाभी इस बर्तन में पानी है, क्या मुझे नहलाने का इरादा है" ये कहते हुए मैंने हलकी से मुस्कान दी!
पिताजी ठीक मेरे पीछे ही बैठे थे, उन्होंने मेरी बात सुन ली और पीछे घूम के देखा और बोले :
"अरे नहलाने नहीं, इसमें तेरे पैर धोएंगे, जिससे तेरी सारी थकान उतर जाएगी|"
मैं बड़ी हैरत वाली नज़रों से भाभी की और देखने लगा और अपने पैर भाभी के हाथ से ऐसे छुड़ाय जैसे वो मेरे पैर काटने वालीं हों| भाभी हैरान मेरी और देख रही थी, इससे पहले की वो कुछ कहती मैं स्वयं बोल पड़ा :
"नहीं भाभी मैं आपसे पैर नहीं धुलवाउंगा| आप मुझसे बड़े हो मैं आपको अपने पैर हाथ नहीं लगाने दूंगा|"
मेरी बात सुन भाभी और सब के सब सुन रह गए| दरअसल हमारे गावों में औरत को बहुत निचला दर्जा दिया जाता है, सामान्य भाषा में कहूँ तो उसे पैर की जूती समझा जाता है| परन्तु मेरा व्यवहार ऐसा नहीं है, शायद मेरे पिताजी के शिष्टाचार ने मेरी सोच इस प्रकार बदल दी| हालाँकि मेरे पिताजी की सोच मेरे विचारों के एक दम विपरीत है, उन्होंने मेरी माँ को शुरू से ही दबा के रखा है| मेरी इस सोच का श्रेय में अपनी माँ को देना चाहूंगा, जिन्होंने मुझे सब के प्रति आदर भाव की शिक्षा दी|
खेर वहां सभी मर्द मेरे पिताजी की तारीफ करने लगे की उन्होंने क्या शिक्षा दी है| उनके शब्द और चहरे के भाव एक साथ मेल नहीं खा रहे थे और ये पिताजी भी समझ चुके थे| वहां जितनी औरतें थीं वे सब मेरी माँ के पास बैठीं थी और मेरी तारीफ कर रहीं थी| ये बात मुझे माँ ने रात्रि भोज के समय बताईं| भाभी मेरे इस बर्ताव से बहुत प्रभावित लग रहीं थी और उन्हें मुझ पे गर्व होने लगा था|
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