FUN-MAZA-MASTI
बदलाव के बीज--8
अब आगे....
घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भाभी को और भी बेसब्री से ढूंढने लगीं| भाभी मेरे लिए अपने हाथों से बना लस्सी की गिलास लेकर आई और मेरे हाथों में थमते हुए अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही परत का बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भाभी के मुख पे बनावटी गुसा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं:
भाभी: मानु ... मैं तुम से नाराज हूँ|
मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
भाभी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?
मैं: भाभी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं!
(मेरा डायलाग सुन भाभी हंस दी)
भाभी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?
मैं: पता नहीं... पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया|
भाभी: अच्छा जी!
मैं: भाभी अप वचन याद है ना?
भाभी: हाँ बाबा सब याद है... आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|
मैं: भाभी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|
हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भाभी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का| जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ और आके सीधा मेरे पास बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला:
ठाकुर: और बताओ मुन्ना क्या हाल चाल है| कैसी चल रही है पढ़ाई-लिखाई?
मैं: (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया) ठीक चल रही है|
ठाकुर: अरे भई अब तो उम्र हो गई शादी ब्याह की और तुम पढ़ाई में जुटे हो| मेरी बात मानो झट से शादी कर लो|
उनका इतना कहना था की भाभी का मुँह बन गया|
ठाकुर: मेरी बेटी से शादी करोगे? ये देखो फोटो... जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है वो भी अंग्रेजी स्कूल से|
अब भाभी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने|….. शायद अब भाभी को मेरे जवाब का इन्तेजार था...
मैं: देखिये ... आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई इंटरेस्ट है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ.. कुछ बनना चाहता हूँ|
मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और मेरा जवाब सुन भाभी को बड़ी तस्सल्ली हुई| ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया|
सच कहूँ तो मैंने ये बात सिर्फ और सिर्फ भाभी को खुश करने को बोली थी... और शयद भाभी मेरी होशियारी समझ चुकी थी... क्योंकि उनका चेहरा मुस्कान से खिल उठा था| फिर भी उन्होंने मुझे छेड़ते हुए पूछा:
"क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?"
मैं: भौजी... मुझे तो आप में दिलचस्पी है|
ये बात बिलकुल सच थी... और भाभी मेरा जवाब सुन के खिल-खिला के हँस पड़ी|
सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भाभी को पाने के लिए बेचैन था और मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| मेरे भाई जिनकी शादियां हो चुकी थीं उनके बच्चे मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे और मैं विवश हो उनको कुछ कह भी नहीं सकता था| आखिर भाभी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भाभी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल देती हैं| भाभी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था.. मैंने ना में सर हिला दिया| भाभी दबाव डालने लगीं.. परन्तु मैंने उनसे कह दिया:
"भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊंगा|" मेरा जवाब सुन भाभी थोड़ा सुन रह गईं.... क्योंकि मैंने इतना धड़ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भाभी के भाव देख हैरान था की मैंने कौन सा पाप कर दिया... सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भाभी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहां चला गया| अमावस की रात थी.... काफी अँधेरा था... और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी क्योंकि कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुंचा तो देखा भाभी खेतों की तरफ देख रही थी और मैंने पीछे से जाकर भाभी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भाभी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया.. आखिर उन्हें हो क्या गया.. अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी|
इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वे खुद ही बोलीं:
"मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है.. शहर नहीं.. यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| "
मैं: पर भौजी हुआ क्या?
भाभी: अभी तुम ने जो कहा ...की तुम मेरे साथ खाना खाओगे| और अभी तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए...
मैं: पर भाभी....
भाभी: पर-वार कुछ नहीं...
मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई.. मुझे माफ़ कर दो|
इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया.. और भाभी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पे पछतावा था| मैं वापस आँगन में अपना मुंह लटकाये लौट आया... मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भाभी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने के काम आता है|)
मैंने अपना बिस्ता स्वयं बिछाने लगा.. तभी चन्दर भैया ने पूछा:
"मानु भैया खाना खा लिया?"
मैं: नहीं भैया... भूख नहीं है|
चन्दर भैया: किसी ने कुछ कहा तुमसे?
मैं: नहीं तो.. पर क्यों?
चन्दर भैया: नहीं भैया कुछ तो बात है जो तुम खाना नहीं खा रहे| मैं अभी सबसे पूछता हूँ की किस ने तुम्हें दुःख दिया है|
मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है... दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था... इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ...
ये कहते हु मैं हाजमोला की शीशी से गोलियां निकाली और खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूके पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के .... अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई.. बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| अशोक और अजय भैया ने कहा:
"मानु भैया ... इतनी दूर क्यों सो रहे हो| अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ..."
मैं: (बात बनाते जुए) भैया आप लोग बहत थके हुए हो... और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|
मेरी बात सुन दोनों खिल-खिला के हंसने लगे और मैं अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर दोस्तों जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती... मन उधेड़-बन में लगा हुआ था की काम से काम भाभी मेरी बात तो सुन लेती| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था| पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे ... अभी मैं अपने मूल्यांकन से बहार ही नहीं आए था की मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी....
"मानु.. चलो खाना खा लो|"
ये आवाज भाभी की थी.. और मैं अभी भी नाराज था.... इसीलिए मैं कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ" तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाया....
"मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो.. भूखे पेट कभी नींद नहीं आती..."
मैं अब भी कुछ नहीं बोला...
"मानु .. मुझे माफ़ कर दो... मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|"
मैं अब भी खामोश था...
"देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी... मैं भी भूखे पेट सो जाउंगी|"
मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था... मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा रहा| भाभी को दर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं| सच कहूँ तो मित्रों मैं उनके साथ जाना चाहता था परन्तु मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फंस चूका था| अब यदि चन्दर भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ लेता की मैंने झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| अब अगर मैं शहर में अपने घर में होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गावों में ये काम करने से बहुत डर लग रहा था इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा .. और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई|
गावों में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं| मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा... अशोक भैया लोटा लेके सोच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मन कर दिया... अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!
नहा-धो के एक दम टिप-टॉप होक तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| भाभी अपने हाथ में दो चाय ले के मेरा समक्ष प्रकट हो गईं ... मुझसे पूछने लगीं की नींद कैसी आई ? नाराजगी आप भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी ... और मैंने उनके हाथ से चाय का कप लेते हुए कहा
"बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की ... क्या बताऊँ... सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो शहर में रहता| "
इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई.. इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| मैं तो जलन सह गया पर नेहा एक दम रो पड़ी.. और भाभी एक दम से तमतमति हुई नेहा को देखने लगी और उसे डाटने लगी,
"ये क्या हरकत है?? .. देख तूने सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी... तू ऐसे नहीं मैंने वाली"...
और मारने के लिए हाथ उठाया| नेहा अपनी माँ के मुख पे गुस्सा देख मेरे पीछे छुप गई और सुबक ने लगी| मैंने भाभी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के मैं अंदर ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पे दवाई लगा सकूँ| भाभी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी:
"इसे छोडो ... ये लो मानु तुम ये चाय पी लो... मैं इसे डआई लगा देती हूँ|"
मैं: नहीं रहने दो... जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो चाय कैसे पीऊं???
भाभी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ|
ये कहते हुए भाभी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं... और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ पोछें और दवाई लगा दी| नेहा अभी भी सुबक रही थी... मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई जबान में बोली:
"सॉरी चाचू...."
मैंने उसे कहा की
"कोई बात नहीं.. मैं जब तुम्हारी उम्र का था तो मैं तुमसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो...मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|"
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अब आगे....
घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भाभी को और भी बेसब्री से ढूंढने लगीं| भाभी मेरे लिए अपने हाथों से बना लस्सी की गिलास लेकर आई और मेरे हाथों में थमते हुए अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही परत का बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भाभी के मुख पे बनावटी गुसा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं:
भाभी: मानु ... मैं तुम से नाराज हूँ|
मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
भाभी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?
मैं: भाभी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं!
(मेरा डायलाग सुन भाभी हंस दी)
भाभी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?
मैं: पता नहीं... पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया|
भाभी: अच्छा जी!
मैं: भाभी अप वचन याद है ना?
भाभी: हाँ बाबा सब याद है... आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|
मैं: भाभी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|
हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भाभी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का| जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ और आके सीधा मेरे पास बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला:
ठाकुर: और बताओ मुन्ना क्या हाल चाल है| कैसी चल रही है पढ़ाई-लिखाई?
मैं: (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया) ठीक चल रही है|
ठाकुर: अरे भई अब तो उम्र हो गई शादी ब्याह की और तुम पढ़ाई में जुटे हो| मेरी बात मानो झट से शादी कर लो|
उनका इतना कहना था की भाभी का मुँह बन गया|
ठाकुर: मेरी बेटी से शादी करोगे? ये देखो फोटो... जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है वो भी अंग्रेजी स्कूल से|
अब भाभी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने|….. शायद अब भाभी को मेरे जवाब का इन्तेजार था...
मैं: देखिये ... आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई इंटरेस्ट है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ.. कुछ बनना चाहता हूँ|
मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और मेरा जवाब सुन भाभी को बड़ी तस्सल्ली हुई| ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया|
सच कहूँ तो मैंने ये बात सिर्फ और सिर्फ भाभी को खुश करने को बोली थी... और शयद भाभी मेरी होशियारी समझ चुकी थी... क्योंकि उनका चेहरा मुस्कान से खिल उठा था| फिर भी उन्होंने मुझे छेड़ते हुए पूछा:
"क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?"
मैं: भौजी... मुझे तो आप में दिलचस्पी है|
ये बात बिलकुल सच थी... और भाभी मेरा जवाब सुन के खिल-खिला के हँस पड़ी|
सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भाभी को पाने के लिए बेचैन था और मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| मेरे भाई जिनकी शादियां हो चुकी थीं उनके बच्चे मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे और मैं विवश हो उनको कुछ कह भी नहीं सकता था| आखिर भाभी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भाभी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल देती हैं| भाभी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था.. मैंने ना में सर हिला दिया| भाभी दबाव डालने लगीं.. परन्तु मैंने उनसे कह दिया:
"भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊंगा|" मेरा जवाब सुन भाभी थोड़ा सुन रह गईं.... क्योंकि मैंने इतना धड़ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भाभी के भाव देख हैरान था की मैंने कौन सा पाप कर दिया... सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भाभी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहां चला गया| अमावस की रात थी.... काफी अँधेरा था... और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी क्योंकि कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुंचा तो देखा भाभी खेतों की तरफ देख रही थी और मैंने पीछे से जाकर भाभी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भाभी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया.. आखिर उन्हें हो क्या गया.. अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी|
इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वे खुद ही बोलीं:
"मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है.. शहर नहीं.. यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| "
मैं: पर भौजी हुआ क्या?
भाभी: अभी तुम ने जो कहा ...की तुम मेरे साथ खाना खाओगे| और अभी तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए...
मैं: पर भाभी....
भाभी: पर-वार कुछ नहीं...
मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई.. मुझे माफ़ कर दो|
इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया.. और भाभी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पे पछतावा था| मैं वापस आँगन में अपना मुंह लटकाये लौट आया... मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भाभी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने के काम आता है|)
मैंने अपना बिस्ता स्वयं बिछाने लगा.. तभी चन्दर भैया ने पूछा:
"मानु भैया खाना खा लिया?"
मैं: नहीं भैया... भूख नहीं है|
चन्दर भैया: किसी ने कुछ कहा तुमसे?
मैं: नहीं तो.. पर क्यों?
चन्दर भैया: नहीं भैया कुछ तो बात है जो तुम खाना नहीं खा रहे| मैं अभी सबसे पूछता हूँ की किस ने तुम्हें दुःख दिया है|
मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है... दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था... इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ...
ये कहते हु मैं हाजमोला की शीशी से गोलियां निकाली और खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूके पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के .... अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई.. बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| अशोक और अजय भैया ने कहा:
"मानु भैया ... इतनी दूर क्यों सो रहे हो| अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ..."
मैं: (बात बनाते जुए) भैया आप लोग बहत थके हुए हो... और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|
मेरी बात सुन दोनों खिल-खिला के हंसने लगे और मैं अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर दोस्तों जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती... मन उधेड़-बन में लगा हुआ था की काम से काम भाभी मेरी बात तो सुन लेती| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था| पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे ... अभी मैं अपने मूल्यांकन से बहार ही नहीं आए था की मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी....
"मानु.. चलो खाना खा लो|"
ये आवाज भाभी की थी.. और मैं अभी भी नाराज था.... इसीलिए मैं कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ" तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाया....
"मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो.. भूखे पेट कभी नींद नहीं आती..."
मैं अब भी कुछ नहीं बोला...
"मानु .. मुझे माफ़ कर दो... मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|"
मैं अब भी खामोश था...
"देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी... मैं भी भूखे पेट सो जाउंगी|"
मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था... मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा रहा| भाभी को दर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं| सच कहूँ तो मित्रों मैं उनके साथ जाना चाहता था परन्तु मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फंस चूका था| अब यदि चन्दर भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ लेता की मैंने झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| अब अगर मैं शहर में अपने घर में होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गावों में ये काम करने से बहुत डर लग रहा था इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा .. और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई|
गावों में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं| मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा... अशोक भैया लोटा लेके सोच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मन कर दिया... अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!
नहा-धो के एक दम टिप-टॉप होक तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| भाभी अपने हाथ में दो चाय ले के मेरा समक्ष प्रकट हो गईं ... मुझसे पूछने लगीं की नींद कैसी आई ? नाराजगी आप भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी ... और मैंने उनके हाथ से चाय का कप लेते हुए कहा
"बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की ... क्या बताऊँ... सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो शहर में रहता| "
इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई.. इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| मैं तो जलन सह गया पर नेहा एक दम रो पड़ी.. और भाभी एक दम से तमतमति हुई नेहा को देखने लगी और उसे डाटने लगी,
"ये क्या हरकत है?? .. देख तूने सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी... तू ऐसे नहीं मैंने वाली"...
और मारने के लिए हाथ उठाया| नेहा अपनी माँ के मुख पे गुस्सा देख मेरे पीछे छुप गई और सुबक ने लगी| मैंने भाभी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के मैं अंदर ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पे दवाई लगा सकूँ| भाभी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी:
"इसे छोडो ... ये लो मानु तुम ये चाय पी लो... मैं इसे डआई लगा देती हूँ|"
मैं: नहीं रहने दो... जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो चाय कैसे पीऊं???
भाभी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ|
ये कहते हुए भाभी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं... और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ पोछें और दवाई लगा दी| नेहा अभी भी सुबक रही थी... मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई जबान में बोली:
"सॉरी चाचू...."
मैंने उसे कहा की
"कोई बात नहीं.. मैं जब तुम्हारी उम्र का था तो मैं तुमसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो...मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|"
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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