FUN-MAZA-MASTI
प्रणय-लीला--1
-- इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन-परिवर्तन किये हैं --
जिस दिन मैंने अपने पति की जेब से वो कागज पकड़ा, मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। कम्यूिटर का छपा कागज था। कोई ईमेल संदेश का प्रिंट।
“अरे! यह क्या है?” मैंने अपने लापरवाह पति की कमीज धोने के लिए उसकी जेब खाली करते समय उसे देखा। किसी मिस्टर विनय को संबोधित थी। कुछ संदिग्ध-सी लग रही थी, इसलिए पढ़ने लगी। अंग्रेजी मैं ज्यादा नहीं जानती फिर भी पढ़ते हुए उसमें से जो कुछ का आइडिया मिल रहा था वह किसी पहाड़ टूटकर गिरने से कम नहीं था। कितनी भयानक बात! आने दो शाम को! मैं न रो पाई, न कुछ स्पष्ट रूप से सोच पाई कि शाम को आएँगे तो क्या पूछूँगी।
मैं इतनी गुस्से में थी कि शाम को जब वे आए तो उनसे कुछ नहीं बोली सिवाय इसके कि, “ये लीजिए, आपकी कमीज में थी।”
चिट्ठी देख कर वो एकदम से सिटपिटा गए, कुछ कह नहीं पाए, मेरा चेहरा देखने लगे। शायद थाह ले रहे थे कि मैं उसे पढ़ चुकी हूँ या नहीं। उम्मीद कर रहे थे कि अंग्रेजी में होने के कारण मैंने छोड़ दिया होगा। मैं तरह-तरह के मनोभावों से गुजर रही थी। इतना सीधा-सादा सज्जन और विनम्र दिखने वाला मेरा पति यह कैसी हरकत कर रहा है? शादी के दस साल बाद! क्या करूँ? अगर किसी औरत के साथ चक्कर का मामला रहता तो हरगिज माफ नहीं करती। पर यहाँ मामला दूसरा था। दूसरी औरत तो थी मगर अपने पति के साथ। और इनका खुद का भी मामला अजीब था।
रात को मैंने इन्हें हाथ तक नहीं लगाने दिया, ये भी खिंचे रहे। मैं चाह रही थी कि ये मुझसे बोलें! बताएँ, क्या बात है। मैं बीवी हूँ, मेरे प्रति जवाबदेही बनती है। मैं ज्यादा देर तक मन में क्षोभ दबा नहीं सकती, तो अगले दिन गुस्सा फूट पड़ा। ये बस सुनते रहे।
अंत में सिर्फ इतना बोले, “तुम्हें मेरे निजी कागजों को हाथ लगाने की क्या जरूरत थी? दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़नी चाहिए।”
मैं अवाक रह गई। अगले आने वाले झंझावातों के क्रम में धीरे धीरे वास्तविकता की और इनके सोच और व्यवहार की कड़ियाँ जुड़ीं, मैं लगभग सदमे में रही, फिर हैरानी में। हँसी भी आती यह आदमी इतना भुलक्कड़ और सीधा है कि अपनी चिट्ठी तक मुझसे नहीं छिपा सका और इसकी हिम्मत देखो, कितना बड़ा ख्वााब!
एक और शंका दिमाग में उठती - ईमेल का प्रिंट लेने और उसे घर लेकर आने की क्या जरूरत थी। वो तो ऐसे ही गुप्त और सुरक्षित रहता? कहीं इन्होंने जानबूझकर तो ऐसा नहीं किया? कि मुझे उनके इरादे का पता चल जाए और उन्हें मुझ से कहना नहीं पड़े? जितना सोचती उतना ही लगता कि यही सच है। ओह, कैसी चतुराई थी!!
“तुम क्या चाहते हो?”, “मुझे तुमसे यह उम्मींद नहीं थी”, “मैं सोच भी नहीं सकती”, “तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्या्र का यही सिला दे रहे हो?”, “तुमने इतना बड़ा धक्काै दिया है कि जिंदगी भर नहीं भूल पाऊँगी?” मेरे ऐसे तानों, शिकायतों को सुनते और झेलते ये एक ही स्पष्टीकरण देते, “मैं तुम्हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो। अब क्या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं छिप कर तो किसी औरत से संबंध नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
तिरस्काैर से मेरा मन भर जाता। प्यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?
“जो करना हो वो मैं तुम्हें विश्वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। तुम नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।”
मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्योंं कर रहे थे?
“मेरी सारी कल्पना तुम्हींं में समाई हैं। तुम्हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता। यह धोखा नहीं है, तुम सोच कर देखो। छुप कर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्वास से हम कुछ भी कर सकते हैं। हम संस्कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्हें एंजाय करे और मुझे तुम्हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्या मैं तुम्हें। किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?”
यह सब फुसलाने वाली बातें थीं, मु्झे किसी तरह तैयार कर लेने की। मुझे यह बात ही बरदाश्त से बाहर लगती थी। मैं सोच ही नहीं सकती कि कोई गैर मर्द मेरे शरीर को हाथ भी लगाए। वे औरतें और होंगी जो इधर उधर मुँह मारती हैं।
पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्य हो जाती है। मैं अनिच्छा से सुन लेती थी। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस ‘ऐसा हो सकता है’, ‘कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो’, ‘बात ऐसी नही वैसी है’, वगैरह वगैरह। मैं देखती कि उच्च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।
अपनी बातों को तर्क का आधार देते, “पति-पत्नी में कितना भी प्रेम हो, एक ही आदमी के साथ सेक्स धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्छी लगती हो या मैं तुम्हें अच्छां नहीं लगता। जरूर, बहुत अच्छे लगते हैं पर …”
“पर क्या ?” मन में सोचती कि सेक्सं अच्छा नहीं लगता तो क्या, दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।
“कुछ नहीं…” अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल…. उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !
पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्तांव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्हाेरे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?
दिन, हफ्ते, महीने, वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं। लेकिन जल्दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस विनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था। अब उत्तेाजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो। मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्यों हो जाती हूँ। कभी कभी उनकी बातों पर विश्वांस करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है। पर दाम्पत्यव जीवन की पारस्पतरिक निष्ठा् इसमें कहाँ है? तर्क-वितर्क, परम्परा से मिले संस्कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्त्री -मन के भय, गृहस्थीे की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्छाा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते, “अब क्या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!”
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया, “मैं तुम्हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?”
मैं रूठने लगी। इन्होंने मजाक किया, ”मैं बतलाता हूँ कौन ज्यांदा सुखी होगा! वो होगी तुम!”
“जाओ…!” मैंने गुस्से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया। पर इन्हों ने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्हों ने अंदर भेजते हुए कहा, “मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा …” मैंने उनके मुँह पर मुँह जमा कर बोलने से रोकना चाहा पर… “... सात इंच का है” कहते हुए वे आवेश में आ गए। धक्केँ पर धक्के लगाते उन्होंने जोड़ा, “... पूरा अंदर तक मार करेगा!” और फिर वे अंधाधुंध धक्के लगाते हुए स्खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौरा गई। जैसे तेज नशे वाली कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
‘ओह...’ से तुरंत ‘आ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ह’ का सफर! मेरे अंदर भरते इनके गर्म लावे के साथ ही मैं भी किसी मशीनगन की तरह छूट पड़ी। मैंने जाना कि शरीर की अपनी मांग होती है, वह किसी नैतिकता, संस्कार, तर्क कुतर्क की नहीं सुनता। उत्तेजना के तप्त क्षणों में उसका एक ही लक्ष्य होता है– चरम सुख।
धीरे धीरे यह बात टालने की सीमा से आगे बढ़ती गई। लगने लगा कि यह चीज कभी किसी न किसी रूप में आना ही चाहती है। बस मैं बच रही हूँ। लेकिन पता नहीं कब तक। इनकी बातों में इसरार बढ़ रहा था। बिस्तर पर हमारी प्रणयक्रीड़ा में मुझे चूमते, मेरे बालों को सहलाते, मेरे स्तनों से खेलते हुए, पेट पर चूमते हुए, बाँहों, कमर से बढ़ते अंतत: योनि की विभाजक रेखा को जीभ से टटोलते, चूमते हुए बार बार ‘कोई और कर रहा है!’ की याद दिलाते। खास कर योनि और जीभ का संगम, जो मुझे बहुत ही प्रिय है, उस वक्त तो उनकी किसी बात का विरोध मैं कर ही नहीं पाती। बस उनके जीभ पर सवार वो जिधर ले जाते जाते मैं चलती चली जाती। उस संधि रेखा पर एक चुम्बन और ‘कितना स्वादिष्ट ’ के साथ ‘वो तो इसकी गंध से ही मदहोश हो जाएगा !’ की प्रशंसा, या फिर जीभ से अंदर की एक गहरी चाट लेकर ‘कितना भाग्यशाली होगा वो!’
मैं सचमुच उस वक्त किसी बिना चेहरे वाले ‘उस’ की कल्पना कर उत्तेजित हो जाती। वो मेरे नितम्बों की थरथराहटों, भगनासा के बिन्दु के तनाव से भाँप जाते। अंकुर को जीभ की नोक से चोट देकर कहते, ‘तुम्हें इस वक्तर दो और चाहिए जो (चूचुकों को पकड़ कर) इनका ध्यान रख सके। मैं उन दोनों को यहाँ पर लगा दूँगा।’
बाप रे… तीनों जगहों पर एक साथ! मैं तो मर ही जाऊँगी! मैं स्वयं के बारे में सोचती थी – कैसे शुरू में सोच में भी भयावह लगने वाली बात धीरे धीरे सहने योग्य हो गई थी। अब तो उसके जिक्र से मेरी उत्तेोजना में संकोच भी घट गया था। इसकी चर्चा जैसे जैसे बढ़ती जा रही थी मुझे दूसरी चिंता सताने लगी थी। क्या होगा अगर इन्होंने एक बार यह सुख ले लिया। क्या हमारे स्वयं के बीच दरार नहीं पड़ जाएगी? बार-बार करने की इच्छा नहीं होगी? लत नहीं लग जाएगी? अपने पर भी कभी संदेह होता कि कहीं मैं ही इसे न चाहने लगूँ। मैंने एक दिन इनसे झगड़े में कह भी दिया, “देख लेना, एक बार हिचक टूट गई तो कहीं मैं तुम से आगे ना बढ़ जाऊँ!”
उन्होंने डरने के बजाए उस बात को तुरन्त लपक लिया, “वो मेरे लिए बेहद खुशी का दिन होगा। तुम खुद चाहो, यह तो मैं कब से चाहता हूँ!”
अब मैं विरोध कम ही कर रही थी। बीच-बीच में कुछ इस तरह की बात हो जाती मानों हम यह करने वाले हों और आगे उसमें क्या क्या कैसे कैसे करेंगे इस पर विचार कर रहे हों। पर मैं अभी भी संदेह और अनिश्चय में थी। गृहस्थी दाम्पत्य -स्नेह पर टिकी रहती है, कहीं उसमें दरार न पड़ जाए। पति-पत्नी अगर शरीर से ही वफादार न रहे तो फिर कौन सी चीज उन्हें अलग होने से रोक सकती है?
एक दिन हमने एक ब्लू फिल्म देखी जिसमें पत्नियों प्रेमिकाओं की धड़ल्ले से अदला-बदली दिखाई जा रही थी। सारी क्रिया के दौरान और उसके बाद जोड़े बेहद खुश दिख रहे थे। उसमें सेक्स कर रहे मर्दों के बड़े बड़े लिंग देख कर इनके कथन ‘उसका तो सात इंच का है’ की याद आ रही थी। संजय के औसत साइज के पांच इंच की अपेक्षा उस सात इंच के लिंग की कल्पना को दृश्य रूप में घमासान करते देखकर मैं बेहद गर्म हो गई थी। मैंने जीवन में पति के सिवा किसी और का नहीं देखा था। यह वर्जित दृश्य मुझे हिला गया था। उस रात हमारे बीच बेहद गर्म क्रीड़ा चली। फिल्म के खत्म होने से पहले ही मैं आतुर हो गई थी। मेरी साँसें गर्म और तेज हो गई थीं जबकि संजय खोए से उस दृश्य को देख रहे थे, संभवत: कल्पना में उन औरतों की जगह पर मुझे रखते हुए।
मैंने उन्हें खींच कर अपने से लगा लिया था। संभोग क्रिया के शुरू होते न होते मैं उनके चुम्बनों से ही मंद-मंद स्खलित होना शुरू हो गई थी। लिंग-प्रवेश के कुछ क्षणों के बाद तो मेरे सीत्कारों और कराहटों से कमरा गूंज रहा था और मैं खुद को रोकने की कोशिश कर रही थी कि आवाज बाहर न चली जाए। सुन कर उनका उत्साह दुगुना हो गया था। उस रात हम तीन बार संभोगरत हुए। संजय ने कटाक्ष भी किया कि, “कहती तो हो कि तुम यह नहीं चाहती हो और फिल्म देख कर ही इतनी उत्तेजित हो गई हो!”
उस रात के बाद मैंने प्रकट में आने का फैसला कर लिया। संजय को कह दिया, ‘सिर्फ एक बार! वह भी सिर्फ तुम्हारी खातिर, केवल आजमाने के लिए। मैं इन चीजों में नहीं पड़ना चाहती।’
मेरे स्वर में स्वीकृति की अपेक्षा चेतावनी थी। उस दिन के बाद से वे जोर-शोर से विनय-विद्या के साथ-साथ किसी और उपयुक्त दम्प्तति के तलाश में जुट गए। फेसबुक, एडल्ट फ्रेंडफाइ… न जाने कौन कौन सी साइटें। उन दंपतियों से होने वाली बातों की चर्चा सुनकर मेरा चेहरा तन जाता। वे मेरा डर और चिंता दूर करने की कोशिश करते, “मेरी कई दंपतियों से बात होती है। वे कहते हैं वे इस तजुर्बे के बाद बेहद खुश हैं। उनके सेक्स जीवन में नया उत्साह आ गया है। जिनका तजुर्बा अच्छां नहीं रहा उनमें ज्याददातर अच्छाक युगल नहीं मिलने के कारण असंतुष्ट हैं!”
मेरे एक बड़े डर कि ‘उनको दूसरी औरत के साथ देख कर मुझे ईर्ष्या नहीं होगी?’ के उत्तर में वे कहते ‘जिनमें आपस में ईर्ष्या होती है वे इस जीवन शैली में ज्यादा देर नहीं ठहरते। इसको एक समस्या बनने देने से पहले ही बाहर निकल जाते हैं। ऐसा हम भी कर सकते हैं।’
मैं चेताती, ‘समस्या बने न बने, सिर्फ एक बार… बस।’
उसी दंपति विनय-विद्या से सबसे ज्यादा बातें चैटिंग वगैरह हो रही थी। सब कुछ से तसल्ली होने के बाद उन्होंने उनसे मेरी बात कराई। औरत कुछ संकोची सी लगी पर पुरुष परिपक्व तरीके से संकोचहीन।
मैं कम ही बोली, उसी ने ज्यादा बात की, थोड़े बड़प्पन के भाव के साथ। मुझे वह ‘तुम’ कह कर बुला रहा था। मुझे यह अच्छा लगा। मैं चाहती थी कि वही पहल करने वाला आदमी हो। मैं तो संकोच में रहूँगी। उसकी पत्नी से बात करते समय संजय अपेक्षाकृत संयमित थे। शायद मेरी मौजूदगी के कारण। मैंने सोचा अगली बार से उनकी बातचीत के दौरान मैं वहाँ से हट जाऊँगी।
उनकी तस्वीरें अच्छी थीं। विनय अपनी पत्नी की अपेक्षा देखने में चुस्ती और स्मार्ट था और उससे काफी लम्बा भी। मैं अपनी लंबाई और बेहतर रंग-रूप के कारण उसके लिए विद्या से कहीं बेहतर जोड़ीदार दिख रही थी। संजय ने इस बात को लेकर मुझे छेड़ा भी, ‘क्या बात है भई, तुम्हारा लक तो मेरे से बढ़िया है!’
मिलने के प्रश्न पर मैं चाहती थी पहले दोनों दंपति किसी सार्वजनिक जगह में मिलकर फ्री हो लें। विनय को कोई एतराज नहीं था पर उन्होंने जोड़ा, “पब्लिक प्लेस में क्यों ? हमारे घर ही आ जाइये। हम यहीं पर ‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ मिल लेंगे!”
‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ को वह थोड़ा अलग से हँस कर बोला। मुझे स्वयं अपना विश्वास डोलता हुआ लगा– क्या वास्तव में मिलना केवल फ्रेंडली रहेगा? उससे आगे की संभावनाएँ डराने लगीं… उसके ढूंढते होंठ… मेरे शरीर को घेरती उसकी बाँहें… स्त्नों पर से ब्रा को खींचतीं परायी उंगलियां… उसके हाथों नंगी होती हुई मैं… उसकी नजरों से बचने के लिए उसके ही बदन में छिपती मैं… मेरे पर छाता हुआ वो… बेबसी से खुलती मेरी टाँगे… उसका मुझ में प्रवेश… आश्चर्य हुआ, क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? संभावना से ही मेरे रोएँ खड़े हो गए।
तय हुआ आगामी शनिवार की शाम उनके घर पर। हमने कह दिया कि हम सिर्फ मिलने आ रहे हैं, इस से आगे का कोई वादा नहीं है। सिर्फ दोस्ताना मुलाकात!
ऊपर से संयत, अंदर से शंकित, उत्तेजित, मैं उस दिन के लिए तैयार होने लगी। संजय आफिस चले जाते तो मैं ब्यूटी पार्लर जाती – भौहों की थ्रेडिंग, चेहरे का फेशियल, हाथों-पांवों का मैनीक्योर, पैडीक्योर, हाथ-पांवों के रोओं की वैक्सिंग, बालों की पर्मिंग…। गृहिणी होने के बावजूद मैं किसी वर्किंग लेडी से कम आधुनिक या स्मांर्ट नहीं दिखना चाहती थी। मैं संजय से कुछ छिपाती नहीं थी पर उनके सामने यह कराने में शर्म महसूस होती। बगलों के बाल पूरी तरह साफ करा लेने के बाद योनिप्रदेश के उभार पर बाल रखूँ या नहीं इस पर कुछ दुविधा में रही। संजय पूरी तरह रोमरहित साफ सुथरा योनिप्रदेश चाहते थे जबकि मेरी पसंद हल्की-सी फुलझड़ी शैली की थी जो होंठों के चीरे के ठीक ऊपर से निकलती हो। मैंने अपनी सुनी।
मैंने संजय की भी जिद करके फेशियल कराई। उनके असमय पकने लगे बालों में खुद हिना लगाई। मेरा पति किसी से कम नहीं दिखना चाहिए। संजय कुछ छरहरे हैं। उनकी पाँच फीट दस इंच की लम्बाई में छरहरापन ही निखरता है। मैं पाँच फीट चार इंच लम्बी, न ज्यादा मोटी, न पतली, बिल्कुूल सही जगहों पर सही अनुपात में भरी : 36-26-37, स्त्रीत्व् को बहुत मोहक अंदाज से उभारने वाली मांसलता के साथ सुंदर शरीर।
पर जैसे-जैसे समय नजदीक आता जा रहा था अब तक गौण रहा मेरे अंदर का वह भय सबसे प्रबल होता जा रहा था- वह आदमी मुझे बिना कपड़ों के, नंगी देखेगा, सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे, लेकिन साथ ही मैं उत्तेजित भी थी।
शनिवार की शाम… संजय बेहद उत्साहित थे, मैं भयभीत पर उत्तेजित भी! जब मैं बाथरूम से तौलिये में लिपटी निकली तभी से संजय मेरे इर्द गिर्द मंडरा रहे थे- ‘ओह क्या महक है। आज तुम्हारे बदन से कोई अलग ही खुशबू निकल रही है।’
मैंने कहीं बायलोजी की कक्षा में पढ़ा तो था कि कामोत्सुक स्त्री के शरीर से कोई विशेष उत्तेैजक गंध निकलती थी पर पता नहीं वह सच है या गलत।
क्या पहनूँ? इस बात पर सहमत थी कि मौके के लिए थोड़ा ‘सेक्सी’ ड्रेस पहनना उपयुक्त होगा। संजय ने अपने लिए मेरी पसंद की इनफार्मल टी शर्ट और जीन्स चुनी थी। अफसोस, लड़कों के पास कोई सेक्सीे ड्रेस नहीं होता! खैर, वे इसमें स्मार्ट दिखते हैं।
मेरे लिए पारदर्शी तो नहीं पर किंचित जालीदार ब्रा - पीच और सुनहले के बीच के रंग की। पीठ पर उसकी स्ट्रैप लगाते हुए सामने आइने में अपने तने स्तनों और जाली के बीच से आभास देती गोलाई को देखकर मैं पुन: सिहर गई। कैसे आ सकूंगी इस रूप में उसके सामने! बहुत सुंदर, बहुत उत्तेजक लग रही थी मैं। लेकिन ये उसके सामने कैसे लाऊँगी। फिर सोचा आज तो कुछ होना ही नहीं है! मन के भय, शर्म और रोमांच को दबाते हुए मैंने चौड़े और गहरे गले की स्लीवलेस ब्लाउज पहनी, कंधे पर बाहर की तरफ पतली पट्टियाँ – ब्लाेउज क्या थी, वह ब्रा का ही थोड़ा परिवर्द्धित रूप थी। उसमें स्तंनों की गहरी घाटी और कंधे के खुले हिस्सों का उत्तेजक सौंदर्य खुलकर प्रकट हो रहा था। उसका प्रभाव बढ़ाते हुए मैंने गले में मोतियों का हार पहना, कानों में उनसे मैच करते इयरिंग्स।
मुझे संजय पर गुस्सा भी आ रहा था कि यह सब किसी और के लिए कर रही हूँ। वे उत्साहित के होने के साथ कुछ डरे से भी लग रहे थे। फिर भी वे माहौल हल्का रखने की कोशिश में थे। मेरी ब्रा से मैचिंग जालीदार पैंटी उठा कर उन्होंने पूछा, “इसको पहनने की जरूरत है क्या?”
मैंने कहा, “तुम चाहो तो वापस आ कर उतार देना!”
पीच कलर का ही साया, और उसके ऊपर शिफ़ॉन की अर्द्धपारदर्शी साड़ी– जिसे मैंने नाभि से कुछ ज्यादा ही नीचे बांधी थी, कलाइयों में सुनहरी चूड़ियाँ, एड़ियों में पायल और थोड़ी हाई हील की डिजाइनदार सैंडल। मैं किसी ऋषि का तपभंग करने आई गरिमापूर्ण उत्ते़जक अप्सरा सी लग रही थी।
हम ड्राइव करके विनय और विद्या के घर पहुँच गए। घर सुंदर था, आसपास शांति थी। न्यू टाउन अभी नयी बन रही पॉश कॉलोनी थी। घनी आबादी से थोड़ा हट कर, खुला-खुला शांत इलाका। दोनों दरवाजे पर ही मिले। ‘हाइ’ के बाद दोनों मर्दों ने अपनी स्त्रियों का परिचय कराया और हमने बढ़ कर मुस्कुूराते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाए। मुझे याद है कैसे विद्या से हाथ मिलाते वक्त संजय के चहरे पर चौड़ी मुस्कान फैल गई थी। वे हमें अपने लिविंग रूम में ले गए। घर अंदर से सुरुचिपूर्ण तरीके से सज्जित था।
“कैसे हैं आप लोग! कोई दिक्कत तो नहीं हुई आने में”
कुछ हिचक के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। बातें घर के बारे में, काम के बारे में, ताजा समाचारों के बारे में… विनय ही बात करने में लीड ले रहे थे। बीच में कभी व्यक्तिरगत बातों की ओर उतर जाते। एक सावधान खेल, स्वाभाविकता का रूप लिए हुए…
“बहुत दिन से बात हो रही थी, आज हम लोग मिल ही लिए!”
“इसका श्रेय इनको अधिक जाता है।” संजय ने मेरी ओर इशारा किया।
“हमें खुशी है ये आईं!” मैं बात को अपने पर केन्द्रित होते शर्माने लगी। विनय ने ठहाका लगाया, “आप आए बहार आई!”
विद्या जूस, नाश्ता वगैरा ला रही थी। मैंने उसे टोका, ”तकल्लुफ मत कीजिए !”
बातें स्वाुभाविक और अनौपचारिक हो रही थीं। विनय की बातों में आकर्षक आत्मयविश्वास था। बल्कि पुरुष होने के गर्व की हल्की सी छाया, जो शिष्टााचार के पर्दे में छुपी बुरी नहीं लग रही थी। वह मेरी स्त्री की अनिश्चित मनःस्थिति को थोड़ा इत्मिनान दे रही थी। उसके साथ अकेले होना पड़ा तो मैं अपने को उस पर छोड़ सकूँगी।
विनय ने हमें अपना घर दिखाया। उसने इसे खुद ही डिजाइन किया था। घुमाते हुए वह मेरे साथ हो गया था। विद्या संजय के साथ थी। मैं देख रही थी वह भी मेरी तरह शरमा-घबरा रही है! इस बात से मुझे राहत मिली।
बेडरूम की सजावट में सुरुचिपूर्ण सुंदरता के साथ उत्तेजकता का मिश्रण था। दीवारों पर कुछ अर्द्धनग्न स्त्रियों के कलात्मंक पेंटिंग। बड़ा सा पलंग। विनय ने मेरा ध्यान पलंग के सामने की दीवार में लगे एक बड़े आइने की ओर खींचा, ”यहाँ पर एक यही चीज सिर्फ मेरी च्वाेइस है। विद्या तो अभी भी ऐतराज करती है।”
“धत्त...” कहती हुई विद्या लजाई।
“और यह नहीं?” विद्या ने लकड़ी के एक कैबिनेट की ओर इशारा किया।
“इसमें क्या है?” मैं उत्सुक हो उठी।
“सीक्रेट चीज! वैसे आपके काम की भी हो सकती है, अगर…”
मैंने दिखाने की जिद की।
“देखेंगी तो लेना पड़ेगा, सोच लीजिए।”
मैं समझ गई, “रहने दीजिए !” हमने उन्हें बता दिया था कि हम ड्रिंक नहीं करते।
लिविंग रूम में लौटे तो विनय इस बार सोफे पर मेरे साथ ही बैठे। उन्होने चर्चा छेड़ दी कि इस ‘साथियों के विनिमय’ के बारे में मैं क्या सोचती हूँ। मैं तब तक इतनी सहज हो चुकी थी कि कह सकूँ कि मैं तैयार तो हूँ पर थोड़ा डर है मन में। यह कहना अच्छाै नहीं लगा कि मैं यह संजय की इच्छा से कर रही हूँ। लगा जैसे यह अपने को बरी करने की कोशिश होगी।
“यह स्वाभाविक है!” विनय ने कहा, ”पहले पहल ऐसा लगता ही है।”
मैंने देखा सामने सोफे पर संजय और विद्या मद्धम स्वर में बात कर रहे थे। उनके सिर नजदीक थे। मैंने स्वीकार किया कि संजय तो तैयार दिखते हैं पर उन्हें विद्या के साथ करते देख पता नहीं मुझे कैसा लगेगा।
विनय ने पूछा कि क्या मैंने कभी संजय के अलावा किसी अन्य पुरुष के साथ सेक्स किया है - शादी से पहले या शादी के बाद?
“नहीं, कभी नहीं… यह पहली बार है।” बोलते ही मैं पछताई। अनजाने में मेरे मुख से आज ही सेक्सं होने की बात निकल गई थी। पर विनय ने उसका कोई लाभ नहीं उठाया।
“मुझे उम्मीद है कि आपको अच्छा लगेगा।” फिर थोड़ा ठहर कर, ”आजकल बहुत से लोग इसमें हैं। आज इंटरनेट के युग में संपर्क करना आसान हो गया है। सभी उम्र के सभी तरह के लोग यह कर रहे हैं।”
उन्होंने ‘स्विगिंग पार्टियों’ के बारे में बताया जहाँ सामूहिक रूप से लोग साथियों की अदला-बदली करते हैं। मैंने पूछना चाहा ‘आप गए हैं उस में?’ लेकिन अपनी जिज्ञासा को दबा गई।
विनय ने औरत-औरत के सेक्स की बात उठाई और पूछा कि मुझे कैसा लगता है यह?
“शुरू में जब मैंने इसे ब्लू फिल्मों में देखा था, उस समय आश्चर्य हुआ था।”
“अब?”
“अम्म्मे , पता नहीं! कभी ऐसी बात नहीं हुई। पता नहीं कैसा लगेगा।”
मैं धीरे धीरे खुल रही थी। उनकी बातें आश्वस्त कर रही थीं। विद्या ने बताया कि कई लोग अनुभवहीन लोगों के साथ ‘स्वैप’ नहीं करना चाहते, डरते हैं कि खराब अनुभव न हो। पर हम उन्हें अच्छे लग रहे थे।
अजीब लग रहा था कि मैं किसी दूसरे पुरुष के साथ बैठी सेक्स की व्यतक्तिकगत बातें कर रही थी जबकि मेरे सामने मेरा पति एक दूसरी औरत के साथ बैठा था। मैं अपने अंदर टटोल रही थी कि मुझे कोई र्इर्ष्याे महसूस हो रही है कि नहीं। शायद थोड़ी सी, पर दुखद नहीं …
विद्या उठ कर कुछ नाश्ता ले आई। मुझे लगा कि वाइन साथ में न होने का विनय-विद्या को जरूर अफसोस हो रहा होगा। शाम सुखद गुजर रही थी। विनय-विद्या बड़े अच्छेे से मेहमाननवाजी कर रहे थे। न इतना अधिक कि संकोच में पड़ जाऊँ, न ही इतना कम कि अपर्याप्त लगे।
आरंभिक संकोच और हिचक के बाद अब बातचीत की लय कायम हो गई थी। विनय मेरे करीब बैठे थे। बात करने में उनके साँसों की गंध भी मिल रही थी। एक बार शायद गलती से या जानबूझ कर उसने मेरे ही ग्लास से कोल्ड ड्रिंक पी लिया। तुरंत ही ‘सॉरी’ कहा। मुझे उनके जूठे ग्लास से पीने में अजीब कामुक सी अनुभूति हुई।
काफी देर हो चुकी थी। मैंने कहा, “अब चलना चाहिए।”
विनय ताज्जुब से बोले,”क्या कह रही हो? अभी तो हमने शाम एंजाय करना शुरू ही किया है। आज रात ठहर जाओ, सुबह चले जाना।”
विद्या ने भी जोर दिया, ”हाँ हाँ, आज नहीं जाना है। सुबह ही जाइयेगा।”
मैंने संजय की ओर देखा। उनकी जाने की कोई इच्छा नहीं थी। विद्या ने उनको एक हाथ से घेर लिया था।
“मैं… हम कपड़े नहीं लाए हैं।” मुझे अपना बहाना खुद कमजोर लगा।
“कपडों की जरूरत हो तो ...” कह कर विनय रुके और फिर बोले, “... तुम विद्या की नाइटी पहन लेना और संजय मेरे कपड़े पहन लेंगे … अगर तुम दोनों को ऐतराज न हो …”
“नहीं, ऐतराज की क्याे बात है लेकिन …”
“ओह, कम ऑन…”
अब मैं क्या कह सकती थी।
विद्या मुझे शयनकक्ष में ले गई। उसके पास नाइटवियर्स का अच्छा संग्रह था। पर वे या तो बहुत छोटी थीं या पारदर्शी। उसने मेरे संकोच को देखते हुए मुझे पूरे बदन की नाइटी दी। पारदर्शी थी मगर टू पीस की दो तहों से थोड़ी धुंधलाहट आ जाती थी। अंदर की पोशाक कंधे पर पतले स्ट्रैप और स्तनों के आधे से भी नीचे जाकर शुरू होने वाली। इतनी हल्की और मुलायम कपड़े की थी कि लगा बदन में कुछ पहना ही नहीं। गले पर काफी नीचे तक जाली का सुंदर काम था, उसके अंदर ब्रा से नीचे मेरा पेट साफ दिख रहा था, पैंटी भी।
मेरी मर्यादा यह झीनी नाइटी नहीं बल्कि ब्रा और पैंटी बचा रहे थे नहीं तो चूचुक और योनि के होंठ तक दिखाई देते। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी पर विद्या ने जिद की, ”बहुत सुंदर लग रही हो इस में, लगता है तुम्हारे लिए ही बनी है।”
सचमुच मैं सुंदर लग रही थी लेकिन अपने खुले बदन को देख कर कैसा तो लग रहा था। इस दृश्य का आनन्द दूसरा पुरुष उठाएगा यह सोचकर झुरझुरी आ रही थी।
विद्या अपने लिए भद्र कपड़े चुनने लगी। मैंने उसे रोका- मुझे फँसा कर खुद बचना चाहती हो? मैंने उसके लिए टू पीस का एक रात्रि वस्त्र चुना। हॉल्टर (नाभि तक आने वाली) जैसी टॉप, नीचे घुटनों के ऊपर तक की पैंट। वह मुझसे अधिक खुली थी, पर अपनी झीनी नाइटी में उससे अधिक नंगी मैं ही महसूस कर रही थी। संजय का खयाल आया, विद्या का अर्धनग्न बदन देख कर उसे कैसा लगेगा! पर अपने पर गर्व भी हुआ क्योंकि मैं विद्या से निश्चित ही अधिक सुन्दर लग रही थी।
विनय और संजय पुराने दोस्तों की तरह साथ बैठे बात कर रहे थे। मुझे देख कर दोनों के चेहरे पर आनन्द-मिश्रित आश्चर्य उभरा लेकिन मैं असहज न हो जाऊँ यह सोच कर उन्होंने मेरी प्रशंसा करके मेरा उत्साह बढ़ाया। अपनी नंगी-सी अवस्था को लेकर मैं बहुत आत्म चैतन्य हो रही थी। इस स्थिीति में शिष्टाचार के शब्द भी मुझ पर कामुक असर कर रहे थे। ‘लवली’, ‘ब्यूटीफुल’ के बाद ‘वेरी सेक्सी’ सीधे भेदते हुए मुझ में घुस गए। फिर भी मैंने हिम्मत से उनकी तारीफ के लिए उन्हें ‘थैंक्यूं’ कहा।
विद्या ने कॉफी टेबल पर दो सुगंधित कैण्डल जला कर बल्ब बुझा दिए। कमरा एक धीमी मादक रोशनी से भर गया। विनय ने एक अंग्रेजी फिल्म लगा दी। मंद रोशनी में उसका संगीत खुशबू की तरह फैलने लगा।
मन में खीझ हुई, क्या हिन्दी में कुछ नहीं है! इस शाम के लिए भी क्या अंग्रेजी की ही जरूरत है? विद्या संजय के पास जा कर बैठ गई थी। कम रोशनी ने उन्हें और नजदीक होने की सुविधा दे दी थी। दोनों की आँखें टीवी के पर्दे पर लेकिन हाथ एक-दूसरे के हाथों में थे। संजय विद्या से सटा हुआ था।
‘करने दो जो कर रहे हैं …!’ मैंने उन दोनों की ओर से ध्यान हटा लिया। मैं धड़कते दिल से इंतजार कर रही थी अगले कदम का। विनय मेरे पास बैठे थे।
कोई हल्की यौनोत्तेजक फिल्म थी। एकदम से ब्लूे फिल्म नहीं जिसमें सीधा यांत्रिक संभोग चालू हो जाता है। नायक-नायिका के प्यार के दृश्य, समुद्र तट पर, पार्क में, कॉलेज हॉस्टल में, कमरे में…। किसी बात पर दोनों में झगड़ा हुआ और नायिका की तीखी चिल्लाहट का जवाब देने के क्रम में अचानक नायक का मूड बदला और उसने उसके चेहरे को दबोच कर उसे चूमना शुरू कर दिया।
विनय का बायाँ हाथ मेरी कमर के पीछे रेंग गया। मैं सिमटी, थोड़ा दूसरी तरफ झुक गई। ना नहीं जताना चाहती थी पर वैसा हो ही गया। उनका हाथ वैसे ही रहा। मैं भी वैसे ही दूसरी ओर झुकी रही। सोच रही थी सही किया या गलत।
नायक भावावेश में नायिका को चूम रहा था। नायिका ने पहले तो विरोध किया मगर धीरे-धीरे जवाब देने लगी। अब दोनों बदहवास से एक-दूसरे को चूम, सहला, भींच रहे थे। लड़की के धड़ से टॉप जा चुका था। उसके बदन से ब्रा झटके से हट कर हवा में उछली और लड़का उसके वक्षस्थल पर झुक गया। लड़की अपना पेड़ू उसके पेड़ू में रगड़ने लगी। पार्श्वे संगीत में उनकी सिसकारियाँ गूंजने लगीं।
कमरे का झुटपुटा अंधेरा ..., सामने सोफे पर एक परायी औरत से सटे संजय ..., एक यौनोत्तेजित पराए पुरुष के साथ स्वयं मै ...! मैं अपने घुटने को खुजलाने के लिए नीचे झुकी और मेरा बांया उभार विनय के हाथ मे आ गया। मैंने महसूस किया कि वह हाथ पहले थोड़ा ढीला पड़ा और फिर कस गया…
उस आधे अँधेरे में मैं शर्म से लाल हो गई। शर्म से मेरी कान की लवें गरम होने लगी। पूरी रोशनी में उनसे बात करना और बात थी। अब मंद रोशनी में एक दम से... और उनका हाथ...! मैं स्क्रीन की ओर देख रही थी और वे मेरे चेहरे, मेरे कंधों को… मेरे कानों में सीटी-सी बजने लगी।
टीवी पर्दे पर लड़का-लड़की आलिंगन में बंध गए थे। दोनों का काम-विह्वल चुम्बन जारी था। लड़की के नीचे के वस्त्र उतर चुके थे और लड़का उसकी नंगी जाँघों को सहला रहा था।
इधर विनय मेरे वक्षस्थल को सहला रहे थे। मैं ‘क्या करूँ’ की जड़ता में थी। दिल धड़क रहा था। मैं इंतजार में थी… क्या यहीं पर…? उन दोनों के सामने…?
विनय के होंठ कुछ फुसफुसाते हुए मेरे कान के ऊपर मँडरा रहे थे। शर्म और उत्तेजना के कारण मैं कुछ सुन या समझ नहीं पा रही थी। बालों में उनकी गर्म साँस भर रही थी… अचानक विनय उठ खड़े हुए और उन्होंने मुझे अपने साथ आने का इशारा किया।
मैं ठिठकी। कमरे के एकांत में उनके साथ अकेले होने के ख्याल से डर लगा। मैंने सहारे के लिए पति की ओर देखा ... वे दूसरी स्त्री में खोये हुए लगे। क्या करूँ? मेरे अंदर उत्पन्न हुई गरमाहट मुझे तटस्थता की स्थिति से आगे बढ़ने के लिए ठेल रही थी। विनय ने मेरा हाथ खींचा…
किनारे पर रहने की सुविधा खत्मे हो गई थी, अब धारा में उतरना ही था। फिल्म में नायक-नायिका की प्रणय-लीला आगे बढ़ रही थी … मैंने मन ही मन उन अभिनेताओं को विदा कहा। दिल कड़ा कर के उठ खड़ी हुई। संजय विद्या में मग्न थे। उन्हे पता भी नहीं चला होगा कि उनकी पत्नी वहाँ से जा चुकी है।
क्रमश:
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प्रणय-लीला--1
-- इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन-परिवर्तन किये हैं --
जिस दिन मैंने अपने पति की जेब से वो कागज पकड़ा, मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। कम्यूिटर का छपा कागज था। कोई ईमेल संदेश का प्रिंट।
“अरे! यह क्या है?” मैंने अपने लापरवाह पति की कमीज धोने के लिए उसकी जेब खाली करते समय उसे देखा। किसी मिस्टर विनय को संबोधित थी। कुछ संदिग्ध-सी लग रही थी, इसलिए पढ़ने लगी। अंग्रेजी मैं ज्यादा नहीं जानती फिर भी पढ़ते हुए उसमें से जो कुछ का आइडिया मिल रहा था वह किसी पहाड़ टूटकर गिरने से कम नहीं था। कितनी भयानक बात! आने दो शाम को! मैं न रो पाई, न कुछ स्पष्ट रूप से सोच पाई कि शाम को आएँगे तो क्या पूछूँगी।
मैं इतनी गुस्से में थी कि शाम को जब वे आए तो उनसे कुछ नहीं बोली सिवाय इसके कि, “ये लीजिए, आपकी कमीज में थी।”
चिट्ठी देख कर वो एकदम से सिटपिटा गए, कुछ कह नहीं पाए, मेरा चेहरा देखने लगे। शायद थाह ले रहे थे कि मैं उसे पढ़ चुकी हूँ या नहीं। उम्मीद कर रहे थे कि अंग्रेजी में होने के कारण मैंने छोड़ दिया होगा। मैं तरह-तरह के मनोभावों से गुजर रही थी। इतना सीधा-सादा सज्जन और विनम्र दिखने वाला मेरा पति यह कैसी हरकत कर रहा है? शादी के दस साल बाद! क्या करूँ? अगर किसी औरत के साथ चक्कर का मामला रहता तो हरगिज माफ नहीं करती। पर यहाँ मामला दूसरा था। दूसरी औरत तो थी मगर अपने पति के साथ। और इनका खुद का भी मामला अजीब था।
रात को मैंने इन्हें हाथ तक नहीं लगाने दिया, ये भी खिंचे रहे। मैं चाह रही थी कि ये मुझसे बोलें! बताएँ, क्या बात है। मैं बीवी हूँ, मेरे प्रति जवाबदेही बनती है। मैं ज्यादा देर तक मन में क्षोभ दबा नहीं सकती, तो अगले दिन गुस्सा फूट पड़ा। ये बस सुनते रहे।
अंत में सिर्फ इतना बोले, “तुम्हें मेरे निजी कागजों को हाथ लगाने की क्या जरूरत थी? दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़नी चाहिए।”
मैं अवाक रह गई। अगले आने वाले झंझावातों के क्रम में धीरे धीरे वास्तविकता की और इनके सोच और व्यवहार की कड़ियाँ जुड़ीं, मैं लगभग सदमे में रही, फिर हैरानी में। हँसी भी आती यह आदमी इतना भुलक्कड़ और सीधा है कि अपनी चिट्ठी तक मुझसे नहीं छिपा सका और इसकी हिम्मत देखो, कितना बड़ा ख्वााब!
एक और शंका दिमाग में उठती - ईमेल का प्रिंट लेने और उसे घर लेकर आने की क्या जरूरत थी। वो तो ऐसे ही गुप्त और सुरक्षित रहता? कहीं इन्होंने जानबूझकर तो ऐसा नहीं किया? कि मुझे उनके इरादे का पता चल जाए और उन्हें मुझ से कहना नहीं पड़े? जितना सोचती उतना ही लगता कि यही सच है। ओह, कैसी चतुराई थी!!
“तुम क्या चाहते हो?”, “मुझे तुमसे यह उम्मींद नहीं थी”, “मैं सोच भी नहीं सकती”, “तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्या्र का यही सिला दे रहे हो?”, “तुमने इतना बड़ा धक्काै दिया है कि जिंदगी भर नहीं भूल पाऊँगी?” मेरे ऐसे तानों, शिकायतों को सुनते और झेलते ये एक ही स्पष्टीकरण देते, “मैं तुम्हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो। अब क्या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं छिप कर तो किसी औरत से संबंध नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
तिरस्काैर से मेरा मन भर जाता। प्यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?
“जो करना हो वो मैं तुम्हें विश्वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। तुम नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।”
मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्योंं कर रहे थे?
“मेरी सारी कल्पना तुम्हींं में समाई हैं। तुम्हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता। यह धोखा नहीं है, तुम सोच कर देखो। छुप कर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्वास से हम कुछ भी कर सकते हैं। हम संस्कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्हें एंजाय करे और मुझे तुम्हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्या मैं तुम्हें। किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?”
यह सब फुसलाने वाली बातें थीं, मु्झे किसी तरह तैयार कर लेने की। मुझे यह बात ही बरदाश्त से बाहर लगती थी। मैं सोच ही नहीं सकती कि कोई गैर मर्द मेरे शरीर को हाथ भी लगाए। वे औरतें और होंगी जो इधर उधर मुँह मारती हैं।
पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्य हो जाती है। मैं अनिच्छा से सुन लेती थी। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस ‘ऐसा हो सकता है’, ‘कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो’, ‘बात ऐसी नही वैसी है’, वगैरह वगैरह। मैं देखती कि उच्च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।
अपनी बातों को तर्क का आधार देते, “पति-पत्नी में कितना भी प्रेम हो, एक ही आदमी के साथ सेक्स धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्छी लगती हो या मैं तुम्हें अच्छां नहीं लगता। जरूर, बहुत अच्छे लगते हैं पर …”
“पर क्या ?” मन में सोचती कि सेक्सं अच्छा नहीं लगता तो क्या, दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।
“कुछ नहीं…” अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल…. उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !
पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्तांव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्हाेरे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?
दिन, हफ्ते, महीने, वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं। लेकिन जल्दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस विनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था। अब उत्तेाजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो। मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्यों हो जाती हूँ। कभी कभी उनकी बातों पर विश्वांस करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है। पर दाम्पत्यव जीवन की पारस्पतरिक निष्ठा् इसमें कहाँ है? तर्क-वितर्क, परम्परा से मिले संस्कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्त्री -मन के भय, गृहस्थीे की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्छाा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते, “अब क्या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!”
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया, “मैं तुम्हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?”
मैं रूठने लगी। इन्होंने मजाक किया, ”मैं बतलाता हूँ कौन ज्यांदा सुखी होगा! वो होगी तुम!”
“जाओ…!” मैंने गुस्से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया। पर इन्हों ने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्हों ने अंदर भेजते हुए कहा, “मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा …” मैंने उनके मुँह पर मुँह जमा कर बोलने से रोकना चाहा पर… “... सात इंच का है” कहते हुए वे आवेश में आ गए। धक्केँ पर धक्के लगाते उन्होंने जोड़ा, “... पूरा अंदर तक मार करेगा!” और फिर वे अंधाधुंध धक्के लगाते हुए स्खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौरा गई। जैसे तेज नशे वाली कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
‘ओह...’ से तुरंत ‘आ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ह’ का सफर! मेरे अंदर भरते इनके गर्म लावे के साथ ही मैं भी किसी मशीनगन की तरह छूट पड़ी। मैंने जाना कि शरीर की अपनी मांग होती है, वह किसी नैतिकता, संस्कार, तर्क कुतर्क की नहीं सुनता। उत्तेजना के तप्त क्षणों में उसका एक ही लक्ष्य होता है– चरम सुख।
धीरे धीरे यह बात टालने की सीमा से आगे बढ़ती गई। लगने लगा कि यह चीज कभी किसी न किसी रूप में आना ही चाहती है। बस मैं बच रही हूँ। लेकिन पता नहीं कब तक। इनकी बातों में इसरार बढ़ रहा था। बिस्तर पर हमारी प्रणयक्रीड़ा में मुझे चूमते, मेरे बालों को सहलाते, मेरे स्तनों से खेलते हुए, पेट पर चूमते हुए, बाँहों, कमर से बढ़ते अंतत: योनि की विभाजक रेखा को जीभ से टटोलते, चूमते हुए बार बार ‘कोई और कर रहा है!’ की याद दिलाते। खास कर योनि और जीभ का संगम, जो मुझे बहुत ही प्रिय है, उस वक्त तो उनकी किसी बात का विरोध मैं कर ही नहीं पाती। बस उनके जीभ पर सवार वो जिधर ले जाते जाते मैं चलती चली जाती। उस संधि रेखा पर एक चुम्बन और ‘कितना स्वादिष्ट ’ के साथ ‘वो तो इसकी गंध से ही मदहोश हो जाएगा !’ की प्रशंसा, या फिर जीभ से अंदर की एक गहरी चाट लेकर ‘कितना भाग्यशाली होगा वो!’
मैं सचमुच उस वक्त किसी बिना चेहरे वाले ‘उस’ की कल्पना कर उत्तेजित हो जाती। वो मेरे नितम्बों की थरथराहटों, भगनासा के बिन्दु के तनाव से भाँप जाते। अंकुर को जीभ की नोक से चोट देकर कहते, ‘तुम्हें इस वक्तर दो और चाहिए जो (चूचुकों को पकड़ कर) इनका ध्यान रख सके। मैं उन दोनों को यहाँ पर लगा दूँगा।’
बाप रे… तीनों जगहों पर एक साथ! मैं तो मर ही जाऊँगी! मैं स्वयं के बारे में सोचती थी – कैसे शुरू में सोच में भी भयावह लगने वाली बात धीरे धीरे सहने योग्य हो गई थी। अब तो उसके जिक्र से मेरी उत्तेोजना में संकोच भी घट गया था। इसकी चर्चा जैसे जैसे बढ़ती जा रही थी मुझे दूसरी चिंता सताने लगी थी। क्या होगा अगर इन्होंने एक बार यह सुख ले लिया। क्या हमारे स्वयं के बीच दरार नहीं पड़ जाएगी? बार-बार करने की इच्छा नहीं होगी? लत नहीं लग जाएगी? अपने पर भी कभी संदेह होता कि कहीं मैं ही इसे न चाहने लगूँ। मैंने एक दिन इनसे झगड़े में कह भी दिया, “देख लेना, एक बार हिचक टूट गई तो कहीं मैं तुम से आगे ना बढ़ जाऊँ!”
उन्होंने डरने के बजाए उस बात को तुरन्त लपक लिया, “वो मेरे लिए बेहद खुशी का दिन होगा। तुम खुद चाहो, यह तो मैं कब से चाहता हूँ!”
अब मैं विरोध कम ही कर रही थी। बीच-बीच में कुछ इस तरह की बात हो जाती मानों हम यह करने वाले हों और आगे उसमें क्या क्या कैसे कैसे करेंगे इस पर विचार कर रहे हों। पर मैं अभी भी संदेह और अनिश्चय में थी। गृहस्थी दाम्पत्य -स्नेह पर टिकी रहती है, कहीं उसमें दरार न पड़ जाए। पति-पत्नी अगर शरीर से ही वफादार न रहे तो फिर कौन सी चीज उन्हें अलग होने से रोक सकती है?
एक दिन हमने एक ब्लू फिल्म देखी जिसमें पत्नियों प्रेमिकाओं की धड़ल्ले से अदला-बदली दिखाई जा रही थी। सारी क्रिया के दौरान और उसके बाद जोड़े बेहद खुश दिख रहे थे। उसमें सेक्स कर रहे मर्दों के बड़े बड़े लिंग देख कर इनके कथन ‘उसका तो सात इंच का है’ की याद आ रही थी। संजय के औसत साइज के पांच इंच की अपेक्षा उस सात इंच के लिंग की कल्पना को दृश्य रूप में घमासान करते देखकर मैं बेहद गर्म हो गई थी। मैंने जीवन में पति के सिवा किसी और का नहीं देखा था। यह वर्जित दृश्य मुझे हिला गया था। उस रात हमारे बीच बेहद गर्म क्रीड़ा चली। फिल्म के खत्म होने से पहले ही मैं आतुर हो गई थी। मेरी साँसें गर्म और तेज हो गई थीं जबकि संजय खोए से उस दृश्य को देख रहे थे, संभवत: कल्पना में उन औरतों की जगह पर मुझे रखते हुए।
मैंने उन्हें खींच कर अपने से लगा लिया था। संभोग क्रिया के शुरू होते न होते मैं उनके चुम्बनों से ही मंद-मंद स्खलित होना शुरू हो गई थी। लिंग-प्रवेश के कुछ क्षणों के बाद तो मेरे सीत्कारों और कराहटों से कमरा गूंज रहा था और मैं खुद को रोकने की कोशिश कर रही थी कि आवाज बाहर न चली जाए। सुन कर उनका उत्साह दुगुना हो गया था। उस रात हम तीन बार संभोगरत हुए। संजय ने कटाक्ष भी किया कि, “कहती तो हो कि तुम यह नहीं चाहती हो और फिल्म देख कर ही इतनी उत्तेजित हो गई हो!”
उस रात के बाद मैंने प्रकट में आने का फैसला कर लिया। संजय को कह दिया, ‘सिर्फ एक बार! वह भी सिर्फ तुम्हारी खातिर, केवल आजमाने के लिए। मैं इन चीजों में नहीं पड़ना चाहती।’
मेरे स्वर में स्वीकृति की अपेक्षा चेतावनी थी। उस दिन के बाद से वे जोर-शोर से विनय-विद्या के साथ-साथ किसी और उपयुक्त दम्प्तति के तलाश में जुट गए। फेसबुक, एडल्ट फ्रेंडफाइ… न जाने कौन कौन सी साइटें। उन दंपतियों से होने वाली बातों की चर्चा सुनकर मेरा चेहरा तन जाता। वे मेरा डर और चिंता दूर करने की कोशिश करते, “मेरी कई दंपतियों से बात होती है। वे कहते हैं वे इस तजुर्बे के बाद बेहद खुश हैं। उनके सेक्स जीवन में नया उत्साह आ गया है। जिनका तजुर्बा अच्छां नहीं रहा उनमें ज्याददातर अच्छाक युगल नहीं मिलने के कारण असंतुष्ट हैं!”
मेरे एक बड़े डर कि ‘उनको दूसरी औरत के साथ देख कर मुझे ईर्ष्या नहीं होगी?’ के उत्तर में वे कहते ‘जिनमें आपस में ईर्ष्या होती है वे इस जीवन शैली में ज्यादा देर नहीं ठहरते। इसको एक समस्या बनने देने से पहले ही बाहर निकल जाते हैं। ऐसा हम भी कर सकते हैं।’
मैं चेताती, ‘समस्या बने न बने, सिर्फ एक बार… बस।’
उसी दंपति विनय-विद्या से सबसे ज्यादा बातें चैटिंग वगैरह हो रही थी। सब कुछ से तसल्ली होने के बाद उन्होंने उनसे मेरी बात कराई। औरत कुछ संकोची सी लगी पर पुरुष परिपक्व तरीके से संकोचहीन।
मैं कम ही बोली, उसी ने ज्यादा बात की, थोड़े बड़प्पन के भाव के साथ। मुझे वह ‘तुम’ कह कर बुला रहा था। मुझे यह अच्छा लगा। मैं चाहती थी कि वही पहल करने वाला आदमी हो। मैं तो संकोच में रहूँगी। उसकी पत्नी से बात करते समय संजय अपेक्षाकृत संयमित थे। शायद मेरी मौजूदगी के कारण। मैंने सोचा अगली बार से उनकी बातचीत के दौरान मैं वहाँ से हट जाऊँगी।
उनकी तस्वीरें अच्छी थीं। विनय अपनी पत्नी की अपेक्षा देखने में चुस्ती और स्मार्ट था और उससे काफी लम्बा भी। मैं अपनी लंबाई और बेहतर रंग-रूप के कारण उसके लिए विद्या से कहीं बेहतर जोड़ीदार दिख रही थी। संजय ने इस बात को लेकर मुझे छेड़ा भी, ‘क्या बात है भई, तुम्हारा लक तो मेरे से बढ़िया है!’
मिलने के प्रश्न पर मैं चाहती थी पहले दोनों दंपति किसी सार्वजनिक जगह में मिलकर फ्री हो लें। विनय को कोई एतराज नहीं था पर उन्होंने जोड़ा, “पब्लिक प्लेस में क्यों ? हमारे घर ही आ जाइये। हम यहीं पर ‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ मिल लेंगे!”
‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ को वह थोड़ा अलग से हँस कर बोला। मुझे स्वयं अपना विश्वास डोलता हुआ लगा– क्या वास्तव में मिलना केवल फ्रेंडली रहेगा? उससे आगे की संभावनाएँ डराने लगीं… उसके ढूंढते होंठ… मेरे शरीर को घेरती उसकी बाँहें… स्त्नों पर से ब्रा को खींचतीं परायी उंगलियां… उसके हाथों नंगी होती हुई मैं… उसकी नजरों से बचने के लिए उसके ही बदन में छिपती मैं… मेरे पर छाता हुआ वो… बेबसी से खुलती मेरी टाँगे… उसका मुझ में प्रवेश… आश्चर्य हुआ, क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? संभावना से ही मेरे रोएँ खड़े हो गए।
तय हुआ आगामी शनिवार की शाम उनके घर पर। हमने कह दिया कि हम सिर्फ मिलने आ रहे हैं, इस से आगे का कोई वादा नहीं है। सिर्फ दोस्ताना मुलाकात!
ऊपर से संयत, अंदर से शंकित, उत्तेजित, मैं उस दिन के लिए तैयार होने लगी। संजय आफिस चले जाते तो मैं ब्यूटी पार्लर जाती – भौहों की थ्रेडिंग, चेहरे का फेशियल, हाथों-पांवों का मैनीक्योर, पैडीक्योर, हाथ-पांवों के रोओं की वैक्सिंग, बालों की पर्मिंग…। गृहिणी होने के बावजूद मैं किसी वर्किंग लेडी से कम आधुनिक या स्मांर्ट नहीं दिखना चाहती थी। मैं संजय से कुछ छिपाती नहीं थी पर उनके सामने यह कराने में शर्म महसूस होती। बगलों के बाल पूरी तरह साफ करा लेने के बाद योनिप्रदेश के उभार पर बाल रखूँ या नहीं इस पर कुछ दुविधा में रही। संजय पूरी तरह रोमरहित साफ सुथरा योनिप्रदेश चाहते थे जबकि मेरी पसंद हल्की-सी फुलझड़ी शैली की थी जो होंठों के चीरे के ठीक ऊपर से निकलती हो। मैंने अपनी सुनी।
मैंने संजय की भी जिद करके फेशियल कराई। उनके असमय पकने लगे बालों में खुद हिना लगाई। मेरा पति किसी से कम नहीं दिखना चाहिए। संजय कुछ छरहरे हैं। उनकी पाँच फीट दस इंच की लम्बाई में छरहरापन ही निखरता है। मैं पाँच फीट चार इंच लम्बी, न ज्यादा मोटी, न पतली, बिल्कुूल सही जगहों पर सही अनुपात में भरी : 36-26-37, स्त्रीत्व् को बहुत मोहक अंदाज से उभारने वाली मांसलता के साथ सुंदर शरीर।
पर जैसे-जैसे समय नजदीक आता जा रहा था अब तक गौण रहा मेरे अंदर का वह भय सबसे प्रबल होता जा रहा था- वह आदमी मुझे बिना कपड़ों के, नंगी देखेगा, सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे, लेकिन साथ ही मैं उत्तेजित भी थी।
शनिवार की शाम… संजय बेहद उत्साहित थे, मैं भयभीत पर उत्तेजित भी! जब मैं बाथरूम से तौलिये में लिपटी निकली तभी से संजय मेरे इर्द गिर्द मंडरा रहे थे- ‘ओह क्या महक है। आज तुम्हारे बदन से कोई अलग ही खुशबू निकल रही है।’
मैंने कहीं बायलोजी की कक्षा में पढ़ा तो था कि कामोत्सुक स्त्री के शरीर से कोई विशेष उत्तेैजक गंध निकलती थी पर पता नहीं वह सच है या गलत।
क्या पहनूँ? इस बात पर सहमत थी कि मौके के लिए थोड़ा ‘सेक्सी’ ड्रेस पहनना उपयुक्त होगा। संजय ने अपने लिए मेरी पसंद की इनफार्मल टी शर्ट और जीन्स चुनी थी। अफसोस, लड़कों के पास कोई सेक्सीे ड्रेस नहीं होता! खैर, वे इसमें स्मार्ट दिखते हैं।
मेरे लिए पारदर्शी तो नहीं पर किंचित जालीदार ब्रा - पीच और सुनहले के बीच के रंग की। पीठ पर उसकी स्ट्रैप लगाते हुए सामने आइने में अपने तने स्तनों और जाली के बीच से आभास देती गोलाई को देखकर मैं पुन: सिहर गई। कैसे आ सकूंगी इस रूप में उसके सामने! बहुत सुंदर, बहुत उत्तेजक लग रही थी मैं। लेकिन ये उसके सामने कैसे लाऊँगी। फिर सोचा आज तो कुछ होना ही नहीं है! मन के भय, शर्म और रोमांच को दबाते हुए मैंने चौड़े और गहरे गले की स्लीवलेस ब्लाउज पहनी, कंधे पर बाहर की तरफ पतली पट्टियाँ – ब्लाेउज क्या थी, वह ब्रा का ही थोड़ा परिवर्द्धित रूप थी। उसमें स्तंनों की गहरी घाटी और कंधे के खुले हिस्सों का उत्तेजक सौंदर्य खुलकर प्रकट हो रहा था। उसका प्रभाव बढ़ाते हुए मैंने गले में मोतियों का हार पहना, कानों में उनसे मैच करते इयरिंग्स।
मुझे संजय पर गुस्सा भी आ रहा था कि यह सब किसी और के लिए कर रही हूँ। वे उत्साहित के होने के साथ कुछ डरे से भी लग रहे थे। फिर भी वे माहौल हल्का रखने की कोशिश में थे। मेरी ब्रा से मैचिंग जालीदार पैंटी उठा कर उन्होंने पूछा, “इसको पहनने की जरूरत है क्या?”
मैंने कहा, “तुम चाहो तो वापस आ कर उतार देना!”
पीच कलर का ही साया, और उसके ऊपर शिफ़ॉन की अर्द्धपारदर्शी साड़ी– जिसे मैंने नाभि से कुछ ज्यादा ही नीचे बांधी थी, कलाइयों में सुनहरी चूड़ियाँ, एड़ियों में पायल और थोड़ी हाई हील की डिजाइनदार सैंडल। मैं किसी ऋषि का तपभंग करने आई गरिमापूर्ण उत्ते़जक अप्सरा सी लग रही थी।
हम ड्राइव करके विनय और विद्या के घर पहुँच गए। घर सुंदर था, आसपास शांति थी। न्यू टाउन अभी नयी बन रही पॉश कॉलोनी थी। घनी आबादी से थोड़ा हट कर, खुला-खुला शांत इलाका। दोनों दरवाजे पर ही मिले। ‘हाइ’ के बाद दोनों मर्दों ने अपनी स्त्रियों का परिचय कराया और हमने बढ़ कर मुस्कुूराते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाए। मुझे याद है कैसे विद्या से हाथ मिलाते वक्त संजय के चहरे पर चौड़ी मुस्कान फैल गई थी। वे हमें अपने लिविंग रूम में ले गए। घर अंदर से सुरुचिपूर्ण तरीके से सज्जित था।
“कैसे हैं आप लोग! कोई दिक्कत तो नहीं हुई आने में”
कुछ हिचक के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। बातें घर के बारे में, काम के बारे में, ताजा समाचारों के बारे में… विनय ही बात करने में लीड ले रहे थे। बीच में कभी व्यक्तिरगत बातों की ओर उतर जाते। एक सावधान खेल, स्वाभाविकता का रूप लिए हुए…
“बहुत दिन से बात हो रही थी, आज हम लोग मिल ही लिए!”
“इसका श्रेय इनको अधिक जाता है।” संजय ने मेरी ओर इशारा किया।
“हमें खुशी है ये आईं!” मैं बात को अपने पर केन्द्रित होते शर्माने लगी। विनय ने ठहाका लगाया, “आप आए बहार आई!”
विद्या जूस, नाश्ता वगैरा ला रही थी। मैंने उसे टोका, ”तकल्लुफ मत कीजिए !”
बातें स्वाुभाविक और अनौपचारिक हो रही थीं। विनय की बातों में आकर्षक आत्मयविश्वास था। बल्कि पुरुष होने के गर्व की हल्की सी छाया, जो शिष्टााचार के पर्दे में छुपी बुरी नहीं लग रही थी। वह मेरी स्त्री की अनिश्चित मनःस्थिति को थोड़ा इत्मिनान दे रही थी। उसके साथ अकेले होना पड़ा तो मैं अपने को उस पर छोड़ सकूँगी।
विनय ने हमें अपना घर दिखाया। उसने इसे खुद ही डिजाइन किया था। घुमाते हुए वह मेरे साथ हो गया था। विद्या संजय के साथ थी। मैं देख रही थी वह भी मेरी तरह शरमा-घबरा रही है! इस बात से मुझे राहत मिली।
बेडरूम की सजावट में सुरुचिपूर्ण सुंदरता के साथ उत्तेजकता का मिश्रण था। दीवारों पर कुछ अर्द्धनग्न स्त्रियों के कलात्मंक पेंटिंग। बड़ा सा पलंग। विनय ने मेरा ध्यान पलंग के सामने की दीवार में लगे एक बड़े आइने की ओर खींचा, ”यहाँ पर एक यही चीज सिर्फ मेरी च्वाेइस है। विद्या तो अभी भी ऐतराज करती है।”
“धत्त...” कहती हुई विद्या लजाई।
“और यह नहीं?” विद्या ने लकड़ी के एक कैबिनेट की ओर इशारा किया।
“इसमें क्या है?” मैं उत्सुक हो उठी।
“सीक्रेट चीज! वैसे आपके काम की भी हो सकती है, अगर…”
मैंने दिखाने की जिद की।
“देखेंगी तो लेना पड़ेगा, सोच लीजिए।”
मैं समझ गई, “रहने दीजिए !” हमने उन्हें बता दिया था कि हम ड्रिंक नहीं करते।
लिविंग रूम में लौटे तो विनय इस बार सोफे पर मेरे साथ ही बैठे। उन्होने चर्चा छेड़ दी कि इस ‘साथियों के विनिमय’ के बारे में मैं क्या सोचती हूँ। मैं तब तक इतनी सहज हो चुकी थी कि कह सकूँ कि मैं तैयार तो हूँ पर थोड़ा डर है मन में। यह कहना अच्छाै नहीं लगा कि मैं यह संजय की इच्छा से कर रही हूँ। लगा जैसे यह अपने को बरी करने की कोशिश होगी।
“यह स्वाभाविक है!” विनय ने कहा, ”पहले पहल ऐसा लगता ही है।”
मैंने देखा सामने सोफे पर संजय और विद्या मद्धम स्वर में बात कर रहे थे। उनके सिर नजदीक थे। मैंने स्वीकार किया कि संजय तो तैयार दिखते हैं पर उन्हें विद्या के साथ करते देख पता नहीं मुझे कैसा लगेगा।
विनय ने पूछा कि क्या मैंने कभी संजय के अलावा किसी अन्य पुरुष के साथ सेक्स किया है - शादी से पहले या शादी के बाद?
“नहीं, कभी नहीं… यह पहली बार है।” बोलते ही मैं पछताई। अनजाने में मेरे मुख से आज ही सेक्सं होने की बात निकल गई थी। पर विनय ने उसका कोई लाभ नहीं उठाया।
“मुझे उम्मीद है कि आपको अच्छा लगेगा।” फिर थोड़ा ठहर कर, ”आजकल बहुत से लोग इसमें हैं। आज इंटरनेट के युग में संपर्क करना आसान हो गया है। सभी उम्र के सभी तरह के लोग यह कर रहे हैं।”
उन्होंने ‘स्विगिंग पार्टियों’ के बारे में बताया जहाँ सामूहिक रूप से लोग साथियों की अदला-बदली करते हैं। मैंने पूछना चाहा ‘आप गए हैं उस में?’ लेकिन अपनी जिज्ञासा को दबा गई।
विनय ने औरत-औरत के सेक्स की बात उठाई और पूछा कि मुझे कैसा लगता है यह?
“शुरू में जब मैंने इसे ब्लू फिल्मों में देखा था, उस समय आश्चर्य हुआ था।”
“अब?”
“अम्म्मे , पता नहीं! कभी ऐसी बात नहीं हुई। पता नहीं कैसा लगेगा।”
मैं धीरे धीरे खुल रही थी। उनकी बातें आश्वस्त कर रही थीं। विद्या ने बताया कि कई लोग अनुभवहीन लोगों के साथ ‘स्वैप’ नहीं करना चाहते, डरते हैं कि खराब अनुभव न हो। पर हम उन्हें अच्छे लग रहे थे।
अजीब लग रहा था कि मैं किसी दूसरे पुरुष के साथ बैठी सेक्स की व्यतक्तिकगत बातें कर रही थी जबकि मेरे सामने मेरा पति एक दूसरी औरत के साथ बैठा था। मैं अपने अंदर टटोल रही थी कि मुझे कोई र्इर्ष्याे महसूस हो रही है कि नहीं। शायद थोड़ी सी, पर दुखद नहीं …
विद्या उठ कर कुछ नाश्ता ले आई। मुझे लगा कि वाइन साथ में न होने का विनय-विद्या को जरूर अफसोस हो रहा होगा। शाम सुखद गुजर रही थी। विनय-विद्या बड़े अच्छेे से मेहमाननवाजी कर रहे थे। न इतना अधिक कि संकोच में पड़ जाऊँ, न ही इतना कम कि अपर्याप्त लगे।
आरंभिक संकोच और हिचक के बाद अब बातचीत की लय कायम हो गई थी। विनय मेरे करीब बैठे थे। बात करने में उनके साँसों की गंध भी मिल रही थी। एक बार शायद गलती से या जानबूझ कर उसने मेरे ही ग्लास से कोल्ड ड्रिंक पी लिया। तुरंत ही ‘सॉरी’ कहा। मुझे उनके जूठे ग्लास से पीने में अजीब कामुक सी अनुभूति हुई।
काफी देर हो चुकी थी। मैंने कहा, “अब चलना चाहिए।”
विनय ताज्जुब से बोले,”क्या कह रही हो? अभी तो हमने शाम एंजाय करना शुरू ही किया है। आज रात ठहर जाओ, सुबह चले जाना।”
विद्या ने भी जोर दिया, ”हाँ हाँ, आज नहीं जाना है। सुबह ही जाइयेगा।”
मैंने संजय की ओर देखा। उनकी जाने की कोई इच्छा नहीं थी। विद्या ने उनको एक हाथ से घेर लिया था।
“मैं… हम कपड़े नहीं लाए हैं।” मुझे अपना बहाना खुद कमजोर लगा।
“कपडों की जरूरत हो तो ...” कह कर विनय रुके और फिर बोले, “... तुम विद्या की नाइटी पहन लेना और संजय मेरे कपड़े पहन लेंगे … अगर तुम दोनों को ऐतराज न हो …”
“नहीं, ऐतराज की क्याे बात है लेकिन …”
“ओह, कम ऑन…”
अब मैं क्या कह सकती थी।
विद्या मुझे शयनकक्ष में ले गई। उसके पास नाइटवियर्स का अच्छा संग्रह था। पर वे या तो बहुत छोटी थीं या पारदर्शी। उसने मेरे संकोच को देखते हुए मुझे पूरे बदन की नाइटी दी। पारदर्शी थी मगर टू पीस की दो तहों से थोड़ी धुंधलाहट आ जाती थी। अंदर की पोशाक कंधे पर पतले स्ट्रैप और स्तनों के आधे से भी नीचे जाकर शुरू होने वाली। इतनी हल्की और मुलायम कपड़े की थी कि लगा बदन में कुछ पहना ही नहीं। गले पर काफी नीचे तक जाली का सुंदर काम था, उसके अंदर ब्रा से नीचे मेरा पेट साफ दिख रहा था, पैंटी भी।
मेरी मर्यादा यह झीनी नाइटी नहीं बल्कि ब्रा और पैंटी बचा रहे थे नहीं तो चूचुक और योनि के होंठ तक दिखाई देते। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी पर विद्या ने जिद की, ”बहुत सुंदर लग रही हो इस में, लगता है तुम्हारे लिए ही बनी है।”
सचमुच मैं सुंदर लग रही थी लेकिन अपने खुले बदन को देख कर कैसा तो लग रहा था। इस दृश्य का आनन्द दूसरा पुरुष उठाएगा यह सोचकर झुरझुरी आ रही थी।
विद्या अपने लिए भद्र कपड़े चुनने लगी। मैंने उसे रोका- मुझे फँसा कर खुद बचना चाहती हो? मैंने उसके लिए टू पीस का एक रात्रि वस्त्र चुना। हॉल्टर (नाभि तक आने वाली) जैसी टॉप, नीचे घुटनों के ऊपर तक की पैंट। वह मुझसे अधिक खुली थी, पर अपनी झीनी नाइटी में उससे अधिक नंगी मैं ही महसूस कर रही थी। संजय का खयाल आया, विद्या का अर्धनग्न बदन देख कर उसे कैसा लगेगा! पर अपने पर गर्व भी हुआ क्योंकि मैं विद्या से निश्चित ही अधिक सुन्दर लग रही थी।
विनय और संजय पुराने दोस्तों की तरह साथ बैठे बात कर रहे थे। मुझे देख कर दोनों के चेहरे पर आनन्द-मिश्रित आश्चर्य उभरा लेकिन मैं असहज न हो जाऊँ यह सोच कर उन्होंने मेरी प्रशंसा करके मेरा उत्साह बढ़ाया। अपनी नंगी-सी अवस्था को लेकर मैं बहुत आत्म चैतन्य हो रही थी। इस स्थिीति में शिष्टाचार के शब्द भी मुझ पर कामुक असर कर रहे थे। ‘लवली’, ‘ब्यूटीफुल’ के बाद ‘वेरी सेक्सी’ सीधे भेदते हुए मुझ में घुस गए। फिर भी मैंने हिम्मत से उनकी तारीफ के लिए उन्हें ‘थैंक्यूं’ कहा।
विद्या ने कॉफी टेबल पर दो सुगंधित कैण्डल जला कर बल्ब बुझा दिए। कमरा एक धीमी मादक रोशनी से भर गया। विनय ने एक अंग्रेजी फिल्म लगा दी। मंद रोशनी में उसका संगीत खुशबू की तरह फैलने लगा।
मन में खीझ हुई, क्या हिन्दी में कुछ नहीं है! इस शाम के लिए भी क्या अंग्रेजी की ही जरूरत है? विद्या संजय के पास जा कर बैठ गई थी। कम रोशनी ने उन्हें और नजदीक होने की सुविधा दे दी थी। दोनों की आँखें टीवी के पर्दे पर लेकिन हाथ एक-दूसरे के हाथों में थे। संजय विद्या से सटा हुआ था।
‘करने दो जो कर रहे हैं …!’ मैंने उन दोनों की ओर से ध्यान हटा लिया। मैं धड़कते दिल से इंतजार कर रही थी अगले कदम का। विनय मेरे पास बैठे थे।
कोई हल्की यौनोत्तेजक फिल्म थी। एकदम से ब्लूे फिल्म नहीं जिसमें सीधा यांत्रिक संभोग चालू हो जाता है। नायक-नायिका के प्यार के दृश्य, समुद्र तट पर, पार्क में, कॉलेज हॉस्टल में, कमरे में…। किसी बात पर दोनों में झगड़ा हुआ और नायिका की तीखी चिल्लाहट का जवाब देने के क्रम में अचानक नायक का मूड बदला और उसने उसके चेहरे को दबोच कर उसे चूमना शुरू कर दिया।
विनय का बायाँ हाथ मेरी कमर के पीछे रेंग गया। मैं सिमटी, थोड़ा दूसरी तरफ झुक गई। ना नहीं जताना चाहती थी पर वैसा हो ही गया। उनका हाथ वैसे ही रहा। मैं भी वैसे ही दूसरी ओर झुकी रही। सोच रही थी सही किया या गलत।
नायक भावावेश में नायिका को चूम रहा था। नायिका ने पहले तो विरोध किया मगर धीरे-धीरे जवाब देने लगी। अब दोनों बदहवास से एक-दूसरे को चूम, सहला, भींच रहे थे। लड़की के धड़ से टॉप जा चुका था। उसके बदन से ब्रा झटके से हट कर हवा में उछली और लड़का उसके वक्षस्थल पर झुक गया। लड़की अपना पेड़ू उसके पेड़ू में रगड़ने लगी। पार्श्वे संगीत में उनकी सिसकारियाँ गूंजने लगीं।
कमरे का झुटपुटा अंधेरा ..., सामने सोफे पर एक परायी औरत से सटे संजय ..., एक यौनोत्तेजित पराए पुरुष के साथ स्वयं मै ...! मैं अपने घुटने को खुजलाने के लिए नीचे झुकी और मेरा बांया उभार विनय के हाथ मे आ गया। मैंने महसूस किया कि वह हाथ पहले थोड़ा ढीला पड़ा और फिर कस गया…
उस आधे अँधेरे में मैं शर्म से लाल हो गई। शर्म से मेरी कान की लवें गरम होने लगी। पूरी रोशनी में उनसे बात करना और बात थी। अब मंद रोशनी में एक दम से... और उनका हाथ...! मैं स्क्रीन की ओर देख रही थी और वे मेरे चेहरे, मेरे कंधों को… मेरे कानों में सीटी-सी बजने लगी।
टीवी पर्दे पर लड़का-लड़की आलिंगन में बंध गए थे। दोनों का काम-विह्वल चुम्बन जारी था। लड़की के नीचे के वस्त्र उतर चुके थे और लड़का उसकी नंगी जाँघों को सहला रहा था।
इधर विनय मेरे वक्षस्थल को सहला रहे थे। मैं ‘क्या करूँ’ की जड़ता में थी। दिल धड़क रहा था। मैं इंतजार में थी… क्या यहीं पर…? उन दोनों के सामने…?
विनय के होंठ कुछ फुसफुसाते हुए मेरे कान के ऊपर मँडरा रहे थे। शर्म और उत्तेजना के कारण मैं कुछ सुन या समझ नहीं पा रही थी। बालों में उनकी गर्म साँस भर रही थी… अचानक विनय उठ खड़े हुए और उन्होंने मुझे अपने साथ आने का इशारा किया।
मैं ठिठकी। कमरे के एकांत में उनके साथ अकेले होने के ख्याल से डर लगा। मैंने सहारे के लिए पति की ओर देखा ... वे दूसरी स्त्री में खोये हुए लगे। क्या करूँ? मेरे अंदर उत्पन्न हुई गरमाहट मुझे तटस्थता की स्थिति से आगे बढ़ने के लिए ठेल रही थी। विनय ने मेरा हाथ खींचा…
किनारे पर रहने की सुविधा खत्मे हो गई थी, अब धारा में उतरना ही था। फिल्म में नायक-नायिका की प्रणय-लीला आगे बढ़ रही थी … मैंने मन ही मन उन अभिनेताओं को विदा कहा। दिल कड़ा कर के उठ खड़ी हुई। संजय विद्या में मग्न थे। उन्हे पता भी नहीं चला होगा कि उनकी पत्नी वहाँ से जा चुकी है।
क्रमश:
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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