Wednesday, July 16, 2014

FUN-MAZA-MASTI प्रणय-लीला--2

FUN-MAZA-MASTI

 प्रणय-लीला--2

 शयनकक्ष के दरवाजे पर फिर एक भय और सिहरन… पर कमर में लिपटी विनय की बाँह मुझे आग्रह से ठेलती अंदर ले आई। मेरी पायल की छन-छन मेरी चेतना पर तबले की तरह चोट कर रही थी। पाँव के नीचे नर्म गलीचे के स्पर्श ने मुझे होश दिलाया कि मैं कहाँ और किसलिए थी। मैं पलंग के सामने थी। पैंताने की तरफ दीवार पर बड़ा-सा आइना कमरे को प्रतिबिम्बि्त कर रहा था। रोमांटिक वतावरण था। दीवारों पर की अर्द्धनगन स्त्री छवियाँ मानो मुझे अपने में मिलने के लिए बुला रही थीं।

मैंने अपने पैरों के पीछे पैरों का स्पर्श महसूस किया … मैं पीछे घूमी। विनय के होंठ सीधे मेरे होंठों के आगे आ गए। बचने के लिए मैं पीछे झुकी लेकिन पीछे मेरे पैर पलंग से सट गए। उनके होंठ स्वत: मुझसे जुड़ गए। जब उनके होंठ अलग हुए तो मैंने देखा दरवाजा खुला था और संजय-विद्या के पाँव नजर आ रहे थे। शायद वे दोनों भी एक-दूसरे को चूम रहे थे। क्या संजय भी चुंबन में डूब गए होंगे? क्या विद्या मेरी तरह विनय के बारे में सोच रही होगी? पता नहीं। मैंने उनकी तरफ से ख्याल हटा लिया।

विनय पुन: चुंबन के लिए झुके। इस बार मन से संकोच को परे ठेलते हुए मैंने उसे स्वीकार कर लिया। एक लम्बा और भावपूर्ण चुंबन। मैंने खुद को उसमें डूबने दिया। उनके होंठ मेरे होंठों और अगल बगल को रगड़ रहे थे। उनकी जीभ मेरे मुँह के अंदर उतरी। मैंने अपनी जीभ से उसे टटोल कर उत्तर दिया। मेरी साँसें तेज हो गईं।

पतले कपड़े के ऊपर उनके हाथों का स्पर्श बहुत साफ महसूस हो रहा था। जब वे स्तनों पर उतरे तो मैं सब कुछ भूल जाने को विवश हो गई। मैंने उन्हें अपनी बाँहों से रोकना चाहा लेकिन मुझे प्राप्त हो रहा अनुभव इतना सुखद था कि बाँहें शीघ्र शिथिल हो गईं। ब्रा के अंदर चूचुक मुड़ मुड़ कर रगड़ खा रहे थे। मेरे स्तन हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और उनको थोड़ा सा भी छेडना मुझे उत्तेजित कर देता है। मेरे स्तन विद्या से बड़े थे और विनय के बड़े हाथों में निश्चय ही वह अधिक मांसलता से समा रहे होंगे। मुझे अपने बेहतर होने की खुशी हुई। मुझे भी उनकी संजय से बड़ी हथेलियाँ बहुत आनन्दित कर रही थीं। उनमें रुखाई नहीं थी - कोमलता के साथ एक आग्रह, मीठी-सी नहीं हटने की जिद।

मुझे लगा रात भर रुकने का निर्णय शायद गलत नहीं था। मन में ‘यह सब अच्छा नहीं है’ की जो कुछ भी चुभन थी वह कमजोर पड़ती जा रही था। मुझे याद आया कि हम चारों एक साथ बस एक दोस्ताना मुलाकात करने वाले थे। लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया था। अब वापसी भला क्या होनी थी। मैंने चिंता छोड़ दी, जब इसमें हूँ तो एंजॉय करूँ।

विनय धीरे-धीरे पलंग पर मेरे साथ लंबे हो गए थे। वे मेरे होंठों को चूसते-चूसते उतर कर गले, गर्दन, कंधे पर चले आते लेकिन अंत में फिर जा कर होंठों पर जम जाते। उनका भावावेग देखकर मन गर्व और आनंद से भर रहा था। लग रहा था सही व्यक्ति के हाथ पड़ी हूँ। लेकिन औरत की जन्मजात लज्जा कहाँ छूटती है। जब वे मेरे स्तनों को छोड़ कर नीचे की ओर बढ़े तो मन सहम ही गया।

पर वे चतुर निकले, सीधे योनी-प्रदेश का रुख करने की बजाय वे हौले-हौले मेरे पैरों को सहला रहे थे। तलवों को, टखनों को, पिंडलियों को … विशेषकर घुटनों के अंदर की संवेदनशील जगह को। धीरे-धीरे नाइटी के अंदर भी हाथ ले जा रहे थे। देख रहे थे मैं विरोध करती हूँ कि नहीं। मैं लज्जा-प्रदर्शन की खातिर मामूली-सा प्रतिरोध कर रही थी। जब घूमते-घूमते उनकी उंगलियाँ अंदर पैंटी से टकराईं तो पुन: मेरी जाँघें कस गईं। मुझे लगा जरूर उन्होंने अंदर का गीलापन भांप लिया होगा। हाय, लाज से मैं मर गई।

उनके हाथ एक आग्रह और जिद के साथ मुझे कोंचते रहे। मेरे पाँव धीरे-धीरे खुल गए। ... शायद संजय कहीं पास हों, काश वे आकर हमें रोक लें। मैंने उन्हें खोजा… ‘संजयऽऽ!’

विनय हँस कर बोले, “उसकी चिंता मत करो। अब तक उसने विद्या को पटा लिया होगा!”

‘पटा लिया होगा’ … यहाँ मैं भी तो ‘पट’ रही थी … कैसी विचित्र बात थी। अब तक मैंने इसे इस तरह नहीं देखा था।

विनय पैंटी के ऊपर से ही मेरा पेड़ू सहला रहे थे। मुझे शरम आ रही थी कि योनि कितनी गीली हो गई है पर इसके लिए जिम्मेदार भी तो विनय ही थे। उनके हाथ पैंटी में से छनकर आते रस को आसपास की सूखी त्वचा पर फैला रहे थे। धीरे धीरे जैसे पूरा शरीर ही संवेदनशील हुआ जा रहा था। कोई भी छुअन, कैसी भी रगड़ मुझे और उत्तेैजित कर देती थी।

जब उन्होंने उंगली को होंठों की लम्बाई में रख कर अंदर दबा कर सहलाया तो मैं एक छोटे चरम सुख तक पहुँच गई। मेरी सीत्कार को तो उन्होंने मेरे मुँह पर अपना मुँह रख कर दबा दिया पर मैं लगभग अपना होश खो बैठी थी।

“लक्ष्मी, तुम ठीक तो हो ना?” मेरी कुछ क्षणों की मूर्च्छा से उबरने के बाद उन्होंने पूछा। उन्होंने इस क्रिया के दौरान पहली बार मेरा नाम लिया था। उसमें अनुराग का आभास था।

“हाँ …” मैंने शर्माते हुए उत्तर दिया। मेरे जवाब से उनके मुँह पर मुसकान फैल गई। उन्होंँने मुझे प्यार से चूम लिया। मेरी आँखें संजय को खोजती एक क्षण के लिए व्यर्थ ही घूमीं और उन्होंने देख लिया।

“संजय?” वे हँसे। वे उठे और मुझे अपने साथ ले कर दरवाजे से बाहर आ गए। सोफे खाली थे। दूसरे बेडरूम से मद्धम कराहटों की आवाज आ रही थी… दरवाजा खुला ही था। पर्दे की आड़ से देखा… संजय का हाथ विद्या के अनावृत स्तनों पर था और सिर उस की उठी टांगों के बीच। उसके चूचुक बीच बीच में प्रकट होकर चमक जाते। अचानक जैसे विद्या ने जोर से ‘आऽऽऽऽऽह!’ की और एक आवेग में नितम्ब उठा दिए। शायद संजय के होंठों या जीभ ने अंदर की ‘सही’ जगह पर चोट कर दी थी।

मेरा पति… दूसरी औरत के साथ यौन आनन्द में डूबा… इसी का तो वह ख्वाब देख रहा था।… मुझे क्या उबारेगा… मेरे अंदर कुछ डूबने लगा। मैंने विनय का कंधा थाम लिया।

विनय फुसफुसाए, “अंदर चलें? सब मिल कर एक साथ…”

मैंने उन्हें पीछे खींच लिया। वे मुझे सहारा देते लाए और सम्हाल कर बड़े प्यार से पलंग पर लिटाया जैसे मैं कोई कीमती तोहफा हूँ। मैं देख रही थी किस प्रकार वे मेरी नाइटी के बटन खोल रहे थे। इसका विरोध करना बेमानी तो क्या, असभ्यता सी लगती। वे एक एक बटन खोलते, कपड़े को सस्पेंस पैदा करते हुए धीरे धीरे सरकाते, जैसे कोई रहस्य प्रकट होने वाला हो, फिर अचानक खुल गए हिस्से को को प्यार से चूमने लगते। मैं गुदगुदी और रोमांच से उछल जाती। उनका तरीका बड़ा ही मनमोहक था। वे नाभि के नीचे वाली बटन पर पहुँचे तो मैंने हाथों से दबा लिया हालांकि अंदर अभी पैंटी की सुरक्षा थी।

“मुझे अपनी कलाकृति नहीं दिखाओगी?”

“कौन सी कलाकृति?”

“वो… फुलझड़ी…”

“हाय राम...!!” मैं लाल हो गई। तो संजय ने उन्हें इसके बारे में बता दिया था।

“और क्या क्या बताया है संजय ने मेरे बारे में?”

“यही कि मैं तुम्हारे आर्ट का दूसरा प्रशंसक बनने वाला हूँ। देखने दो ना!”

मैं हाथ दबाए रही। उन्होंने और नीचे के दो बटन खोल दिए। मैं देख रही थी कि अब वे जबरदस्ती करते हैं कि नहीं। लेकिन वे रुके, मेरी आँखों में एक क्षण देखा, फिर झुक कर मेरे हाथों को ऊपर से ही चूमने लगे। उससे बचने के लिए हाथ हटाए तो वे बटन खोल गए। इस बार उन्होंंने कोई सस्पेंस नहीं बनाया, झपट कर पैंटी के ऊपर ही जोर से मुँह जमा कर चूम लिया। मेरी कोशिश से उनका सिर अलग हुआ तो मैंने देखा वे अपने होंठों पर लगे मेरे रस को जीभ से चाट रहे थे।

उन दो क्षणों के छोटे से उत्‍तेजक संघर्ष में पराजित होना बहुत मीठा लगा। उन्होंने आत्मविश्वाास से नाइटी के पल्ले अलग कर दिए। नाइटी के दो खुले पल्लों पर अत्यंत सुंदर डिजाइनर ब्रा पैंटी में सुसज्जित मैं किसी महारानी की तरह लेटी थी। मैंने अपना सबसे सुंदर अंतर्वस्त्र चुना था। विनय की प्रशंसा-विस्मित आंखें मुझे गर्वित कर रही थीं।

विनय ने जब मेरी पैंटी उतारने की कोशिश की तो नारी-सुलभ लज्जावश मेरे हाथ उन्हें रोकने को बढे लेकिन साथ ही मेरे नितम्ब उनके खींचते हाथों को सुविधा देने के लिए उठ गए।

“ओह हो! क्या बात है!” मेरी ‘फुलझड़ी’ को देखकर वे चहक उठे।

मैंने योनि को छिपाने के लिए पाँव कस लिए। गोरी उभरी वेदी पर बालों का धब्बा काजल के लम्बे टीके सा दिख रहा था।

“लवली! लवली! वाकई खूबसूरत बना है। इसे तो जरूर खास ट्रीटमेंट चाहिए।” कतरे हुए बालों पर उनकी उंगली का खुर-खुर स्पर्श मुझे खुद नया लग रहा था। मैं उम्मीद कर रही थी अब वे मेरे पाँवों को फैलाएंगे। जब से उन्होंने पैंटी को चूमा था मन में योनि से उनके होंठों और जीभ के बेहद सुखद संगम की कल्पना जोर मार रही थी। मैं पाँव कसे थी लेकिन सोच रही थी उन्हें खोलने में ज्यादा मेहनत नहीं करवाऊँगी। पर वे मुझसे अलग हो गए, अपने कपड़े उतारने के लिये।

वे मुझे पहले काम-तत्पर बना कर और फिर इंतजार करा कर बड़े नफीस तरीके से यातना दे रहे थे। मेरी रुचि उनमें बढ़ती जा रही थी। उन के प्रकट होते बदन को ठीक से देखने के लिए मैं तकिए का सहारा ले कर बैठ गई, ‘फुलझड़ी’ हथेली से ढके रही। पहले कमीज गई, बनियान गई, मोजे गए, कमर की बेल्ट और फिर ओह… वो अत्यंत सेक्सी काली ब्रीफ। उसमें बने बड़े से उभार ने मेरे मन में संभावनाओं की लहर उठा दी। धीरज रख, लक्ष्मी … मैंने अपनी उत्सुकता को डाँटा।

बहुत अच्छे आकार में रखा था उन्होंने खुद को। चौड़ी छाती, माँसपेशीदार बाँहें, कंधे, पैर, पेट में चर्बी नहीं, पतली कमर, छाती पर मर्दाना खूबसूरती बढ़ाते थोड़े से बाल, सही परिमाण में, इतना अधिक नहीं कि जानवर-सा लगे, न इतना कम कि चॉकलेटी महसूस हो।

वे आ कर मेरी बगल में बैठ गए। यह देख कर मन में हँसी आई कि इतने आत्मपविश्वास भरे आदमी के चेहरे पर इस वक्त संकोच और शर्म का भाव था। मैंने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। वे धीरे धीरे नीचे सरकते हुए मुझसे लिपट गए।

ओहो, तो इनको स्वीट और भोला बनना भी आता है। पर वह चतुराई थी। वे मेरे खुले कंधों, गले, गर्दन को चूम रहे थे। इस बीच पीठ पीछे मेरी ब्रा की हुक उनके दक्ष हाथों फक से खुल गई। मैंने शिकायत में उनकी छाती पर हल्का-सा मुक्का मारा, वे मुझे और जोर से चूमने लगे। उन्होंने मुझे धीरे से उठाया और एक एक करके दोनों बाँहों से नाइटी और साथ में ब्रा भी निकाल दी। मैं बस बाँहों से ही स्तन ढक सकी।

काश मैं द्वन्द्वहीन होकर इस आनन्द का भोग करती। मन में पीढ़ियों से जमे संस्कार मानते कहाँ हैं। बस एक ही बात का दिलासा था कि संजय भी संभवत: इसी तरह आनंदमग्न होंगे। इस बार विनय के बड़े हाथों को अपने नग्न स्तनों पर महसूस किया। पूर्व की अपेक्षा यह कितना आनन्ददायी था। उनके हाथ में मेरा उरोज मनोनुकूल आकारों में ढल रहा था। वे उन्हें कुम्हार की मिट्टी की तरह गूंथ रहे थे। मेरे चूचुक सख्त हो गए थे और उनकी हथेली में चुभ रहे थे।

होंठ, ठुड्डी, गले के पर्दे, कंधे, कॉलर बोन… उनके होंठों का गीला सफर मेरी संवेदनशील नोंकों के नजदीक आ रहा था। प्रत्याशा में दोनों चुंचुक बेहद सख्त हो गए थे। मैं शर्म से विनय का सिर पकड़ कर रोक रही थी हालाँकि मेरे चूचुक उनके मुँह की गर्माहट का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। उनके होंठ नोंकों से बचा-बचा कर अगल-बगल ही खेल रहे थे। लुका-छिपी का यह खेल मुझे अधीर कर रहा था।

एक, दो, तीन… उन्होंने एक तने चूचुक को जीभ से छेड़ा़… एक क्षण का इंतजार… और… हठात् एकदम से मुँह में ले लिया। आऽऽऽह ... लाज की दीवार फाँद कर एक आनन्द की किलकारी मेरे मुँह से निकल ही गई। वे उन्हें हौले हौले चूस रहे थे – बच्चे की तरह। बारी बारी से उन्हें कभी चूसते, कभी चूमते, कभी होंठों के बीच दबा कर खींचते। कुछ क्षणों की हिचक के बाद मैं भी उनके सिर पर हाथ फिरा रही थी। यह संवेदन अनजाना नहीं था पर आज इसकी तीव्रता नई थी। मैं सुख की हिलोरों में झूल रही थी। निरंतर लज्जा का रोमांच उसमें सनसनी घोल रहा था। एक परपुरुष मेरी देह के अंतरंग रहस्यों से परिचित हो रहा था जो सामान्य स्थिति में शिष्टता के दायरे से बाहर होता। मेरी देह की कसमसाहट उन्हे आगे बढ़ने के लिए हरी झण्डी दिखा रही थीं। उनका दाहिना हाथ मेरे निचले उभार को सहला रहा था। ... अगर मेरे पति मुझे इस अवस्थां में देखते तो? रोंगटे खड़े हो गए। लेकिन केवल शर्म से नहीं बल्कि उस आह्लादकारी उत्तेाजना से भी जो अचानक अभी अभी मेरे पेड़ू से आई थी। विनय का दायाँ हाथ मेरे ‘त्रिभुज’ को मसलता होंठों के अंदर छिपी भगनासा को सहला गया था।

मेरी जाँघें कसी न रह पाईं। मेरी मौन अनुमति से उन्होंने उन्हें फैला दिया और मेरी इस ‘स्वीकृति’ का चुम्बन से स्वागत किया। उनकी उंगलियों ने नीचे उतरकर गर्म गीले होंठों का जायजा लिया। मैं महसूस कर रही थी अपने द्रव को अंदर से निकलते हुए। उनकी उंगली चिपचिपा रही थी। एक बार उस गीलेपन को उन्होंने ऊपर ‘फुलझड़ी’ में पोंछ भी दिया।

अब उनका मुंह स्तनों को छोड़ कर नीचे उतरा। थोड़ी देर के लिए नाभि पर ठहर कर उसमें जीभ से गुदगुदी की। उन्होंने एक हाथ से मेरे बाएँ पैर को उठाया और उसे घुटने से मोड़ दिया। अंदरूनी जाँघों को सहलाते हुए वे बीच के होठों पर ठहर गये। दोनों उंगलियों से होठों को फैला दिया।

“हे भगवान!” मैंने सोचा, “संजय के पश्चात यह पहला व्यक्ति है जो मुझे इस तरह देख रहा है।” मुझे खुद पर शर्म आई। वे उंगलियों से होठों को छेड़ रहे थे जिस से मैं मचल रही थी। एक उंगली मेरे अंदर डूब गई। मेरी पीठ अकड़ी, पाँव फैले और नितम्ब हवा में उठने को हो गये। वे उंगली अंदर-बाहर करते रहे‌ - धीरे धीरे, नजाकत से, प्यार से, बीच-बीच में उसे वृत्ताकार सीधे-उलटे घुमाते। जब उनकी उंगली मेरी भगनासा सहलाती हुई गुजरी तो मेरी साँस निकल गई। मैं स्वयं को उस उंगली पर ठेलती रही ताकि उसे जितना ज्यादा हो सके अंदर ले सकूँ।

विनय ने वो उंगली बाहर निकाली और मुझे देखते हुए उसे धीरे-धीरे मुँह में डालकर चूस लिया। मैं शरम से गड़ गई। वे भी शर्माए हुए मुझे देख रहे थे। ऊन्होंने जीभ निकालकर अपने होंठों को चाट भी लिया। क्या योनि का द्रव इतना स्वादिष्ट होता है? मेरी गीली फाँक पर ठंडी हवा का स्पर्श महसूस हो रहा था। मैंने पुनः पैर सटा लिये। उन्होंने ठेलते हुए फिर दोनों पैरों को मोड़ कर फैला दिया। मैंने विरोध नहीं के बराबर किया। वे मेरी जांघों के बीच आ गए। जैसे जैसे वे मुझे विवश करते जा रहे थे मैं हारने के आनन्द से भरती जा रही थी।

लक्ष्य अब उनके सामने खुला था। ठंड लग रही योनि को विनय के गर्म होंठों का इंतजार था। भौंरा फूल के ऊपर मँडरा रहा था। वे झुके और ‘फुलझड़ी’ से उनकी साँस टकराई। मैं उत्कंठा से भर गई। अब उस स्वर्गिक स्पर्श का साक्षात्कार होने ही वाला था। आँखों की झिरी से देखा…. वे कैसी तो एक दुष्ट मुस्कान के साथ उसे देख रहे थे… वे झुके… और…. मैंने चुम्बनों की एक श्रृंखला ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर गुजरते महसूस की। मैंने किसी तरह अपने को ढीला किया मगर जब जीभ की नोक अंदर घुसी तो मैंने बिस्तर की चादर मुट्ठियों में भींच ली।

वे देख रहे थे कि मैं कितने तनाव में हूँ। मैं इतनी जोर-जोर कराह रही थी और नितंब उठा रही थी कि मुझे चाटने में उन्हें खासी मुश्किल हो रही होगी। अब उन्होंने मेरी जाँघों को अपनी शक्तिशाली बाहों की गिरफ्त में ले लिया। वे मेरी दरार में धीरे धीरे जीभ चलाते रहे। उनके फिसलते हुए होंठ कटाव के अंदर कोमल भाग में उतरे और भगनासा को गिरफ्तार कर लिया। मैं बिस्तर पर उछल गई। पर वे मेरे नितम्बों को जकड़ कर होंठों को अंदर गड़ाए रहे। इस एकबारगी हमले ने मेरी जान निकाल दी।

अंदर उनकी जीभ तेजी से अंदर-बाहर हो रही थी। यह एक नया तूफानी अनुभव था। मैं साँस भी ले नहीं पा रही थी। उनकी नाक मेरी भगनासा को रगड़ रही थी। ठुड्डी के रूखे बाल गुदा के आसपास गड़ रहे थे, जीभ योनि के अंदर लपलपा रही थी… ओ माँ… ओ माँ… ओ माँ… मैं मूर्छित हो गई। कुछ क्षण के लिये लगा मेरी साँस बंद हो गई है। वे रुक गये… मेरे लिये यह एक अद्भुत अनुभव था। मुझे उनके मुँह में स्खलित होना बहुत अच्छा लगा।

... वे अचानक उठे और चड्ढी को सामने से थामे तेजी से बाथरूम की ओर लपके। मैं समझ गई कि उत्तेजना ने उनकी भी छुट्टी कर दी थी। मुझे अपने ऊपर गर्व हुआ कि मैंने विनय जैसे परिष्कृत पुरुष को बिना कुछ किये ही स्खलित कर दिया। मैं आंख मूँद कर चरमोत्कर्ष-पश्चात के सुखद एहसास का आनन्द ले रही थी।

मुझे उनके लौटने का आभास तब हुआ जब उन्होंने मेरे संतुष्ट चेहरे को प्यार से चूमा। वे मेरे हाथ, पाँव, बाँहें, कंधे, पेट सहला रहे थे। एक संक्षिप्त सी मालिश ही शुरू कर दी उन्होंने। मेरी आँखें फिर मुंद गयीं। संजय…! मुझे मेरे पति का ख्याल आया …! क्या कर रहे होंगे वे? क्या उनके बिस्तर पर भी विद्या ऐसे ही निढाल पड़ी होगी? क्या वे उसे ऐसे ही प्यार कर रहे होंगे? मैंने अपने दिल को टटोला कि कहीं मुझे ईर्ष्या तो नहीं हो रही थी? लेकिन ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ!

आँखें खोली तो पाया विनय मुझे ही देख रहे थे – मेरे सिरहाने बैठे। मैंने शर्मा कर पुन: आँखें मूँद लीं। उन्होंने झुक कर मुझे चू्मा - लगा जैसे यह मेरे सफल स्खलन का पुरस्कार हो। मैंने उस चुम्बन को दिल के अंदर उतार लिया।

मैंने आंखें खोलीं। तौलिया सामने से थोडा खुला हुआ था। नजर एकदम से अंदर गई। शिथिल लिंग की अस्पष्ट झलक … “सात इंच … पूरा अंदर तक मार करेगा” … संजय की बात कान में गूँज गई। अभी सिकुड़ी अवस्था में कैसा लग रहा था वो? बच्चे सा - मानो कोई गलती कर के सजा के इंतजार में सिर झुकाए हुए हो … गलती तो उसने की ही थी - काम करने से पहले ही झड़ गया था। अच्छा भी लगा। दो बार चरमोत्कर्ष के बाद मैं थकी हुई थी। स्तऩ, चुंचुक, भगनासा आदि इतने संवेदनशील हो गए थे कि उनको छूना भी पीड़ाजनक था।

संजय की बात फिर मन में घूम गई, “पूरा अंदर तक मार करेगा!” हुँह ...! पुरुषों का घमंड ...! जैसे स्त्री लिंग की दया पर निर्भर हो! एक क्षण को लगा कि योनि-प्रवेश के समय उनका लिंग न उठ पाए तो मैं उनकी लज्जित-चिंतित अवस्‍था पर दया करूँ।

ओह ...! कहाँ तो परपुरुष के स्पर्श की कल्पना भी भयावह लगती थी, कहाँ मैं उसके लिंग के बारे में सोच रही थी। किस अवस्था में पहुँच गई थी मैं!

उन्होंने कटोरी उठाई।

“क्या है?”

मुस्कुराते हुए उन्होंने उसमें उंगली डुबाकर मेरे मुँह पर लगा दी। ठंडा, मीठा, स्वादिष्ट चाकलेट। गाढ़ा। होंठों पर बचे हिस्से को मैंने जीभ निकाल कर चाट लिया।

“थकान उतारने का टानिक! पसंद आया?”

सचमुच इस वक्त की थकान में चाकलेट बहुत उपयुक्त लगा। चाकलेट मुझे यों भी बहुत पसंद था। मैंने और के लिए मुँह खोला। उन्होंने मेरी आखों पर हथेली रख दी, “अब इसका पूरा स्वाद लो।”

होंठों पर किसी गीली चीज का दबाव पड़ा। मैं समझ गई। योनि को मुख से आनन्दित करने के बाद इसके आने की स्वाभाविक अपेक्षा थी। मैंने उसे मुँह खोल कर ग्रहण दिया। चाकलेट में लिपटा लिंग। फिर भी उनकी यह हरकत मुझे हिमाकत जान पड़ी। एक स्त्री से प्रथम मिलन में लिंग चूसने की मांग … यद्यपि वे मेरी योनि को चूम-चाट चुके थे पर फिर भी …

उत्थित कठोर लिंग की अपेक्षा शिथिल कोमल लिंग को चूसना आसान होता है। मुँह के अंदर उसकी लचक मन में कौतुक जगाती है। एक बार स्खलित होने के बाद उसे अभी उठने की जल्दी नहीं थी। मैं उस पर लगे चा़कलेट को चूस रही थी। उसकी गर्दन तक के संवेदनशील क्षेत्र को जीभ से सहलाने रगड़ने में खास ध्यान दे रही थी। वह मेरे मुँह में थोड़ी उछल-कूद करने लगा था। मुझे एक बार फिर गर्व महसूस हुआ - उन पर होते अपने असर को देख कर … पर मिठास घटती जा रही थी और नमकीन स्वाद बढ़ रहा था। लिंग का आकार भी बढ़ रहा था। धीरे धीरे उसे मुँह में समाना मुश्किल हो गया। पति की अपेक्षा यह लम्बा ही नहीं, मोटा भी था। वे उसे मेरे मुँह में कुछ संकोच के साथ ठेल रहे थे।

यह पुरुष की सबसे असहाय अवस्था होती है। वह मुक्ति की याचना में गिड़गिड़ाता सा होता है और उसे वह सुख देने का सारा अधिकार स्त्री के हाथ में होता है। विनय तो दुर्बल हो कर बिस्तर पर गिर ही गए थे। मैं उनकी जांघों पर चढ़ गई। उनके विवश लिंग को मैंने अपने मुंह में पनाह दे दी। मैं कभी आक्रामक हो कर लिंग के गुलाबी अग्रभाग पर संभाल कर दाँत गड़ाती तो कभी उस पर जीभ फिसला कर चुभन के दर्द को आनन्द में परिवर्तित कर देती।

वे मेरा सिर पकड़ कर उसे अपने लिंग पर दबा रहे थे। उनका मुंड मेरे गले की कोमल त्वचा से टकरा रहा था। मैं उबकाई के आवेग को दबा जाती। अपने पति के साथ मुझे इस क्रिया का अच्छा अभ्यास था। पर यह उनसे काफी लम्बा था। रह-रह कर मेरे गले की गहराई में घुस जाता। मैं साँस रोक कर दम घुटने पर विजय पाती। जाने क्यों मुझे यकीन था कि विद्या के पास इतना हुनर नहीं होगा। विनय मेरी क्षमता पर विस्मित थे। सीत्कारों के बीच उनके बोल फूट रहे थे, “आह...! कितना अच्छा लग रहा है! यू आर एक्सलेंट़... ओ माई गौड...”

उनका अंत नजदीक था। मुझे डर था कि दूसरे स्खलन के बाद वे संभोग करने लायक नहीं रहेंगे! लेकिन हमारे पास सारी रात थी। वे कमर उचका उचका कर अनुरोध कर रहे थे। मेरे सिर को पकड़े थे। क्या करूँ? उन्हें मुँह में ही प्राप्त कर लूँ? मुझे वीर्य का स्वाद अच्छा़ नहीं लगता था पर मैं अपने पति को यह सुख कई बार दे चुकी थी। लेकिन इन महाशय को? इनके लिंग को मैं इतने उत्साह और कुशलता से चूस रही थी ... फिर उन्हे उनके सबसे बड़े आनन्द के समय बीच रास्ते छो़ड देना स्वार्थपूर्ण नहीं होगा? उन्होंने कितनी उदारता और उमंग से अपने मुँह से मुझे अपनी मंजिल तक पहुंचाया था। मैंने निर्णय कर लिया।

जब अचानक लिंग अत्यंत कठोर हो कर फड़का तो मैं तैयार थी। मैंने साँस रोक कर उसे कंठ के कोमल गद्दे में बैठा लिया। गर्म लावे की पहली लहर हलक के अंदर उतर गई। ... एक और लहर! मैंने मुंह थोडा पीछे किया। हाथ से उसकी जड़ पकड़ कर उसे घर्षण की आवश्यक खुराक देने लगी। साथ ही शक्ति से प्रवाहित होते वीर्य को जल्दी-जल्दी निगलने लगी।

संजय का और इनका स्वाद एक जैसा ही था। क्या सारे मर्द एक जैसे होते हैं? इस ख्याल पर हँसी आई। मैंने मुँह में जमा हुई अंतिम बूंदों को गले के नीचे धकेला और जैसे उन्होंने किया था वैसे ही मैंने झुक कर उनके मुँह को चूम लिया। लो भाई, मेरा जवाबी इनाम भी हो गया। किसी का एहसान नहीं रखना चाहिए अपने ऊपर।

उनके चेहरे पर बेहद आनन्द और कृतज्ञता का भाव था। थोड़े लजाए हुए भी थे। सज्जन व्यक्ति थे। मेरा कुछ भी करना उन के लिये उपकार जैसा था जबकि उनका हर कार्य अपनी योग्यता साबित करने की कोशिश। मैंने तौलिए से उनके लिंग और आसपास के भीगे क्षेत्र को पोंछ दिया। उनके साथ उस समय पत्नी-सा व्येवहार करते हुए थोड़ी शर्म आई पर खुशी भी हुई …

अपनी नग्नता के प्रति चैतन्य होकर मैंने चादर को अपने ऊपर खींच लिया। बाँह बढ़ा कर उन्होंने मुझे समेटा और खुद भी चादर के अंदर आ गए। मैं उनकी छाती से सट गई। दो स्खलनों के बाद उन्हें आराम की जरूरत थी। अब संभोग भला क्या होना था। पर उसकी जगह यह इत्मींनान भरी अंतरंगता, यह थकन-मिश्रित शांति एक अलग ही सुख दे रही थी। मैंने आँखें मूंद लीं। एक बार मन में आया कि जा कर संजय को देखूँ। पर फिर यह ख्याल दिल से निकाल दिया!

पीठ पर हल्की-हल्की थपकी… हल्का-हल्का पलकों पर उतरता खुमार… पेट पर नन्हें लिंग का दबाव… स्तनों पर उनकी छाती के बालों का स्पर्श… मन को हल्केँ-हल्के आनंदित करता उत्तेजनाहीन प्या‍र… मैंने खुद को खो जाने दिया।

उत्तेजनाहीन…? बस, थो़ड़ी देर के लिए। निर्वस्त्र हो कर परस्पर लिपटे दो युवा नग्न शरीरों को नींद का सौभाग्य कहाँ। बस थकान दूर होने का इंतज़ार। उतनी ही देर का विश्राम जो पुन: सक्रिय होने की ऊर्जा भर दे। फिर पुन: सहलाना, चुम्बन, आलिंगऩ, मर्दन … सिर्फ इस बार उनमें खोजने की बेकरारी कम थी और पा लेने का विश्वास अधिक! हम फिर गरम हो गए थे। एक बार फिर मेरी टांगें फैली थीं और वे उनके बीच में थे।

“प्रवेश की इजाज़त है?” मेरी नजर उनके तौलिए के उभार पर गडी थी। मैंने शरमाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाया।

वे थोडा संकुचाते हुए बोले, “मेरी भाषा के लिये माफ करना पर मैं प्रार्थना करता हूं कि ये चुदाई तुम्हारे लिये यादगार हो।” शब्द मुझे अखरा यद्यपि उनका आशय अच्छा लगा। मेरा अपना संजय भी इस मामले में कम नहीं था – चुदाई का रसिया। अपने शब्द पर मैं चौंकी - हाय राम, मैं यह क्या सोच गई। इस आदमी ने इतनी जल्दी मुझे प्रभावित कर दिया?

“कंडोम लगाने की जरूरत है?”

मैंने इंकार में सिर हिलाया।

“तो फिर एकदम रिलैक्स हो जाओ, नो टेंशन!”

उन्होंने तौलिया हटा दिया। वह सीधे मेरी दिशा में बंदूक की तरह तना था। अभी मैंने अपने मुँह में इसका करीब से परिचय प्राप्त किया था फिर भी इसे अपने अंदर लेने का खयाल मुझे डरा रहा था। मुझे फिर संजय की बात याद आ रही थी ‘सात इंच का …!’ ‘अंदर तक मार …!’ मैंने सोचा – विद्या का भाग्य अच्छा है क्योंकि उसे पांच इंच का ही लेना पड़ रहा है!

उन्होंने मेरी जांघों के बीच अपने को स्थित किया और लिंग को भगोष्ठों के बीच व्यवस्थित किया। मैंने पाँव और फैला दिए और थोड़ा सा नितम्बों को उठा दिया ताकि वे लक्ष्य को सीध में पा सकें। लिंग ने फिसल कर गुदा पर दस्तक दी, “कभी इसमें लिया है?”

“नहीं! कभी नहीं!”

“ठीक है!” उन्होंने उसे वहाँ से हटाकर योनिद्वार पर टिका दिया। मैं इंतजार कर रही थी…

“ओके, रिलैक्स!”

भगोष्ठ खिंच कर फैले … उनमे कहाँ सामर्थ्य था हठीले लिंग को रोकने का। सतीत्व की सब से पवित्र गली में एक परपुरुष की घुसपैठ। पातिव्रत्य का इतनी निष्ठा से सुरक्षित रखा गया किला टूट रहा था। मेरा समर्पित पत्नी मन पुकार उठा, “संजय, ... मेरे स्वामी, तुमने कहाँ पहुँचा दिया मुझे।”

विनय लिंग को थोड़ा बाहर खींचते और फिर उसे थोड़ा और अंदर ठेल देते। अंदर की दीवारों में इतना खिंचाव पहले कभी नहीं महसूस हुआ था। कितना अच्छा लग रहा था, मैं एक साथ दु:ख और आनन्द से रो पड़ी। वे मेरे पाँवों को मजबूती से फैलाए थे। मेरी आँखें बेसुध हो गई थीं। मैं हल्के-हल्के कराहती उन्हें मुझ में और गहरे उतरने के लिए प्रेरित कर रही थी। थो़ड़ी देर लगी लेकिन वे अंतत: मुझ में पूरा उतर जाने में कामयाब हो गए।

वे झुके और मेरे गले और कंधे को चूमते हुए मेरे स्तनों को सहलाने लगे, चूचुकों को चुटकियों से मसलने लगे। मैं तीव्र उत्तेजना को किसी तरह सम्हाल रही थी। आनन्द में मेरा सिर अगल बगल घूम रहा था। उन्होंने अपनी कुहनियों को मेरे बगलों के नीचे जमाया और अपने विशाल लिंग से आहिस्ता आहिस्ता लम्बे धक्के देने लगे। वे उसे लगभग पूरा निकाल लेते फिर उसे अंदर भेज देते। जैसे-जैसे मैं उनके कसाव की अभ्यस्त हो रही थी, वे गति बढ़ाते जा रहे थे। उनके आघात शक्तिशाली हो चले थे। मैंने उन्हें कस लिया और नीचे से प्रतिघात करने लगी। मेरे अंदर फुलझड़ियाँ छूटने लगीं।

वे लाजवाब प्रेमी थे। आहऽऽऽऽह… आहऽऽऽऽह … आहऽऽऽऽह… सुख की बेहोश कर देने वाली तीव्रता में मैंने उनके कंधों में दाँत गड़ा दिए। उनके प्रहार अब और भी शक्तिशाली हो गये थे। धचाक, धचाक, धचाक… मानो योनी को तहस-नहस कर देना चाहते हों। मार वास्तव में अंदर तक हो रही थी पर अत्यंत आनंददायक! दो दो स्खलनों ने उन में टिके रहने की अपार क्षमता भर दी थी।

“आहऽऽऽऽह…!” अंततः उनका शरीर अकड़ा और अंतिम चरण का आरम्भ हो गया। लगा कि बिजलियाँ कड़क रही हैं और मेरे अंदर बरसात हो रही है। अंतिम क्षरण के सुख ने मेरी सारी ताकत निचोड़ ली। वे गुर्राते हुए मुझ पर गिरे और मैंने उन्हें अपनी बाहों में भींच लिया। फिर मैं होश खो बैठी।

जब हम सुख की पराकाष्ठा से उबरे तो उन्होंने मुझे बार बार चूम कर मेरी तारीफ की और धन्यवाद दिया, “लक्ष्मी, यू आर वंडरफुल! ऐसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया। तुम कमाल की हो।”

मुझे गर्व हुआ कि विद्या ने इतना मजा उन्हें कभी नहीं दिया होगा। मैंने खुद को बहुत श्रेष्ठ महसूस किया। मैंने बिस्तर से उतर कर खुद को आइने में देखा। चरम सुख से चमकता नग्ऩ शरीर, काम-वेदी़ घर्षण से लाल और जाँघों पर रिसता हुआ वीर्य। मैंने झुक कर ब्रा और पैंटी उठाई तो उन्होंने मेरी झुकी मुद्रा में मेरे पृष्ठ भाग के सौंदर्य का पान कर लिया। मैं बाथरूम में भाग गई।

रात की घड़िया संक्षिप्त हो चली थीं। नींद खुली तो विद्या चाय ले कर आ गई थी। उसने हमें गुड मार्निंग कहा। मुझे उस वक्त उसके पति के साथ चादर के अंदर नग्नप्राय लेटे बड़ी शर्म आई और अजीब सा लगा। ... लेकिन विद्या के चेहरे पर किसी प्रकार की ईर्ष्या के बजाय खुशी थी। वह मेरी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराई। मुझे उसके और संजय के बीच ‘क्या हुआ’ जानने की बहुत जिज्ञासा थी।

अगली रात संजय और मैं बिस्तर पर एक-दूसरे के अनुभव के बारे में पूछ रहे थे।

“कैसा लगा तुम्हें?” संजय ने पूछा।

“तुम बोलो? तुम्हारा बहुत मन था ना!” मैं व्यंग्य करने से खुद को रोक नहीं पायी हालाँकि मैंने स्वयं अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव किया था।

“ठीक ही रहा।”

“ठीक ही क्यों?”

“सब कुछ हुआ तो सही पर उस में तुम्हारे जैसी उत्तेजना नहीं दिखी।”

“अच्छा! पर सुंदर तो थी वो।”

“हाँऽऽऽ, लेकिन पाँच इंच में शायद उसे भी मजा नहीं आया होगा।”

“तुम साइज की व्यर्थ चिन्ता करते हो। सुबह विद्या तो बहुत खुश दिख रही थी।” मैं उन्हें दिलासा दिया पर बात सच लग रही थी। मुझे विनय के बड़े आकार से गहरी पैठ और घर्षण का कितना आनन्द मिला था!

“अच्छा? तुम्हारा कैसा रहा?”

मैं खुल कर बोल नहीं पाई। बस ‘ठीक ही’ कह पाई।

“कुछ खास नहीं हुआ?”

“नहीं, बस वैसे ही…”

संजय की हँसी ने मुझे अनिश्चय में डाल दिया। क्या विनय ने इन्हें कुछ बताया है? या इन्होने कुछ देखा था?

“यह तो अभी भी इतनी गीली है ...” उनकी उंगलियाँ मेरी योनि को टोह रही थीं, “... लगता है उसने तुम्हें काफी उत्तेजित किया होगा।”

विनय के संसर्ग की याद और संजय के स्पर्श ने मुझे सचमुच बहुत गीली कर दिया था। पर मैंने कहा, “शायद विद्या का भी यही हाल हो!”

“एक बात कहूँ?”

“बोलो?”

“पता नहीं क्यों मेरा एक चीज खाने का मन हो रहा है।”

“क्या?”

“चाकलेट!”

“चाकलेट?”

“हाँ, चाकलेट!”

“…”

“क्या तुमने हाल में खाई है?”

मैं अवाक! क्या कहूँ, “तुमको मालूम है?”

संजय ठठा कर हँस पड़े। मैं खिसिया कर उन्हें मारने लगी।

मेरे मुक्कों से बचते हुए वो बोले, “तुम्हे खानी हो तो बताना। मैं खिला भी सकता हूं।”

मैंने शर्मा कर उनकी छाती में मुंह छिपा लिया।

“तुम्हें खुश देख कर कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता। बहुत मजा आया। विद्या भी बहुत अच्छी थी मगर तुम तुम ही हो।”

“तुम भी किसी से कम नहीं हो।” मैंने उन्हें आलिंगन में जकड़ लिया।

“विनय अगले सप्ताह यहाँ आने की कह रहा था ... विद्या के साथ! उन्हें बुला लूं क्या?”

अब आप ही बताइये मैं क्या उत्तर दूं?

--- इस विनिमय का समापन ---











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