Wednesday, January 2, 2013

केले को आजमाया


केले को आजमाया
बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से फैशन डिज़ाइनिंग में ग्रैजुएशन कर रही थी। हॉस्टल के जिस रूम में मैं रहती थी उसमें एक लड़की थी- नेहा कपूर।
उसके पापा अपोलो हास्पिटल में हार्ट के बहुत बड़े सर्जन थे और मम्मी भी डाक्टर थी शायद कोई गायनोकॉलोजिस्ट। कुल मिलाकर नेहा एक अमीर और आधुनिक रहन-सहन वाली लड़की थी।
इतनी छोटी सी उम्र में उसने अमेरिका, थाइलैंड, सिंगापुर और पता नहीं कहाँ-कहाँ छुट्टियों में घूमने के लिए जा चुकी थी। जब से वो विदेश का भ्रमण करने लगी थी तब से उसमें पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा बदलाव आ गया था। आज की तारीख में उसके कम से कम 12 लड़कों से चक्कर थे। सिर्फ इतना ही नहीं वो खुद अपने मुँह से बताया करती थी कि एक लड़के से करवाने में अब उसे उतना मजा नहीं आता जितना कि दो या तीन लड़कों से। यहाँ तक कि अब उसे गोरे लड़कों से ज्यादा काले लड़कों के साथ सेक्स करने में मजा आने लगा था।
एक बार मैंने उससे पूछा-
"नेहा क्या तुझे काले लड़कों के साथ ये सब करते हुए घिन नहीं आती"
तब उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था-
"जानेमन ये वो नशा है जब तक नहीं लगता तब तक तो ठीक है लेकिन जब एक बार इसका चसका लग गया तब तो महीने में एक या दो बार बिना करवाये किसी काम में मन ही नहीं लगता।"
उसकी ऐसी बातें सुनकर मुझे लगता था कि वो मानसिक रूप से रोगी हो चुकी है। मुझे ये सोचकर डर लगता था कि कहीं मैं भी इसके साथ रहते-रहते इसी की तरह न हो जाऊं। इसीलिए मैं चुपचाप अपना ध्यान पढ़ाई में लगाती थी। सुबह उठते ही पूजा-पाठ करने से सारा दिन मन बड़ा ही शांत रहता था। मैंने कई बार नेहा से कहा की सुबह उठते ही पूजा-पाठ में मन लगाओ। बदले में हमेशा कुछ न कुछ ऐसा बोल देती थी कि मेरा भी मन भटक जाता था।
एक बार की बात मैं आप लोगों को बताना चाहूंगी-
"जानेमन जिस शंकर की तुम पूजा करती हो पता है वो कितना बड़ा चुदक्कड़ है। साला तुम्हारी जैसी जितनी लड़कियाँ है सभी इसीलिए उसके लिंग की पूजा करती हैं ताकि उनको उसी की तरह ही चुदक्कड़ पति मिले। कहीं पूजा-पाठ के चक्कर में मेरी चूत में खुजली न मच जाए। इसलिए तुम्हारी पूजा तुम्हें मुबारक।"
आखिरकार मैंने उसे समझाना ही छोड़ दिया था। मैं उसे तो नहीं बदल पाई लेकिन आजकल वो कुछ ज्यादा ही मेरे पीछे पड़ी रहती थी। हर वक्त वो मुझे लड़कों के बारे में सेक्सी-सेक्सी बातें सुनाया करती थी। उसकी बातों में पता नहीं ऐसा क्या होता था कि मेरा भी मन अशान्त होने लगता था। आखिरकार किसी न किसी बहाने से मैं कमरा छोड़कर बाहर निकल जाती थी। पर किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था।
एक दिन ऐसे ही जब वो मुझे दकियानूसी बता कर मेरा मजाक उड़ा रही थी तब गुस्से में मैं भी बोल पड़ी-
"ओफ... भगवान के लिए चुप रहो। तुम कुछ और नहीं सोच सकती?" मैं उसे चुप कराने की कोशिश करती।
"सोचती हूँ, इसीलिये तो कहती हूँ।"
"सेक्स या शारीरिक सौंदर्य मेरा निजी मामला है।"
"तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा नॉलेज भी तो तुम्हारी निजी चीज है?" उस दिन कुछ वह ज्यादा ही तीव्रता में थी।
"है, लेकिन यह मेरी अपनी योग्यता है, इसे मैंने अपनी मेहनत से, अपनी बुद्धि से अर्जित किया है।"
"और शरीर कुदरत ने तुम्हें दिया है इसलिए वह गलत है?"
"बिल्कुल नहीं, मैं मेकअप करती हूँ, इसे सजा-धजाकर अच्छे से संवार कर रखती हूँ।"
"लेकिन इससे मज़ा करना गलत समझती हो? या फिर खुद करो तो ठीक, दूसरा करे तो गलत, है ना?"
"अब तुम्हें कैसे समझाऊँ।"
वह आकर मेरे सामने बैठ गई, "माई डियर, मुझे मत समझाओ, खुद समझने की कोशिश करो।"
मैंने साँस छोड़ी, "तुम चाहती क्या हो? सबको अपना शरीर दिखाती फिरूँ?"
"बिल्कुल नहीं, लेकिन इसको दीवार नहीं बनाओ, सहज रूप से आने दो।" वह मेरी आँखों में आँखें डाले मुझे देख रही थी। वही बाँध देनेवाली नजर, जिससे बचकर दूसरी तरफ देखना मुश्किल होता। मेरे पास अभी उसके कुतर्कों के जवाब होते, मगर बोलने की इच्छा कमजोर पड़ जाती।
फिर भी मैंने कोशिश की, "मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ, प्रेम-व्रेम के चक्कर में फँसने नहीं।"
"प्रेम में न पड़ो, दोस्ती से तो इनकार नहीं? वही करो, शरीर को साथ लेकर।"
शायद नेहा की बातों और व्यवहार की प्रतिक्रिया में मेरा लड़कों से दूरी बरतना कुछ ज्यादा था। वह नहीं होती तो शायद मैं उनसे अधिक मिलती-जुलती। उसके जो दोस्त आते वे उससे ज्यादा मुझे ही बहाने से देखने की कोशिश में रहते। मुझे अच्छा लगता- कहीं पर तो उससे बीस हूँ। नेहा उनके साथ बातचीत में मुझे भी शामिल करने की कोशिश करती। मैं औपचारिकतावश थोड़ी बात कर लेती लेकिन नेहा को सख्ती से हिदायत दे रखी थी कि अपने दोस्तों के साथ मेरे बारे में कोई गंदी बात ना करे। अगर करेगी तो मैं कमरा बदलने के किए प्रार्थनापत्र दे दूंगी।
वह डर-सी गई लेकिन उसने मुझे चुनौती भी देते हुए कहा था, "मैं तो कुछ नहीं करूँगी, लेकिन देखूँगी तुम कब तक लक्ष्मण रेखा के भीतर रहती हो? अगर कभी मेरे हाथ आई तो, जानेमन, देख लेना, निराश नहीं करूँगी, वो मजा दूंगी कि जिन्दगी भर याद रखोगी।"
उस दिन मैं अनुमान भी नहीं लगा पाई थी उसकी बातों में कैसी रोंगटे खड़े कर देनेवाली मंशा छिपी थी।
वह रात देर से सोती, सुबह देर से उठती। उसका नाश्ता अक्सर मुझे कमरे में लाकर रखना पड़ता। कभी कभी मैं भी अपना नाश्ता साथ ले आती। उस दिन जरूर संभावना रहती कि वह नाश्ते के फलों को दिखाकर कुछ बोलेगी। जैसे, 'असली' केला खाकर देखो, बड़ा मजा आएगा।' वैसे तो खीरे, ककड़ियों के टुकड़ों पर भी चुटकी लेती, 'खीरा भी बुरा नहीं है, मगर वह शुरू करने के लिए थोड़ा सख्त है।' केले को दिखाकर कहती, "इससे शुरूआत करो, इसकी साइज, लम्बाई मोटाई चिकनाई सब 'उससे' मिलते है, यह 'इसके' (उंगली से योनि स्थल की ओर इशारा) के सबसे ज्यादा अनुकूल है। एक बार उसने कहा, "छिलके को पहले मत उतारो, इन्फेक्शन का डर रहेगा। बस एक तरफ से थोड़ा-सा छिलका हटाओ और गूदे को उसके मुँह पर लगाओ, फिर धीरे धीरे ठेलो। छिलका उतरता जाएगा और एकदम फ्रेश चीज अंदर जाती जाएगी। नो इन्फेक्शन।"
मुझे हँसी आ रही थी। वह कूदकर मेरे बिस्तर पर आ गई और बोली, "बाई गॉड, एक बार करके तो देखो, बहुत मजा आएगा।"
एक-दो सेकंड तक इंतजार करने के बाद बोली,"बोलो तो मैं मदद करूँ? अभी ! तुम्हें खा तो नहीं जाऊँगी।"
"क्या पता खा भी जाओ, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं।" मैं बात को मजाक में रखना चाह रही थी।
"हुम्म...." कुछ हँसती, कुछ दाँत पीसती हुई-सी बोली,"तो जानेमन, सावधान रहना, तुम जैसी परी को अकेले नहीं खाऊँगी, सबको खिलाऊँगी।"
"सबको खिलाने से क्या मतलब है?" मुझे उसकी हँसी के बावजूद डर लगा।
आज मेरा व्रत था। नेहा ये बोलकर चली गई कि अपने दोस्तों से मिलने जा रही है। आज के दिन मुझे बस फलाहार करना था। अकेले कमरे में प्लेट में रखे केले को देखकर उसकी बात याद आ रही थी,"इसका आकार, लम्बाई मोटाई चिकनाई सब 'उससे' मिलते हैं।"
मैं केले को उठाकर देखने लगी, पीला, मोटा और लम्बा। हल्का-सा टेढ़ा मानो इतरा रहा हो और मेरी हँसी उड़ाती नजर का बुरा मान रहा हो। असली लिंग को तो देखा नहीं था, मगर नेहा ने कहा था शुरू में वह भी मुँह में केले जैसा ही लगता है। मैंने कौतूहल से उसके मुँह पर से छिलके को थोड़ा अलगाया और उसे होठों पर छुलाया। नरम-सी मिठास, साथ में हल्के कसैलेपन का एहसास भी।
क्या 'वह' भी ऐसा ही लगता है?
मैं कुछ देर उसे होंठों और जीभ पर फिराती रही फिर अलग कर लिया। थूक का एक महीन तार उसके साथ खिंचकर चला आया।
लगा, जैसे योनि के रस से गीला होकर लिंग निकला हो ! (एक ब्लू फिल्म का दृश्‍य)।
धत्त ! मुझे शर्म आई, मैंने केले को मेज पर रख दिया।
मुझे लगा, मेरी योनि में भी गीलापन आने लगा है।
साढ़े आठ बज रहे थे। नेहा अब आती ही होगी। क्लास के लिए तैयार होने के लिए काफी समय था। केला मेज पर रखा था। उसे खाऊँ या रहने दूँ। मैंने उसे फिर उठाकर देखा। सिरे पर अलगाए छिलके के भीतर से गूदे का गोल मुँह झाँक रहा था। मैंने शरारत से ही उसके मुँह पर नाखून से एक चीरे का निशान बना दिया। अब वह और वास्तविक लिंग-जैसा लगने लगा। मन में एक खयाल गुजर गया- जरा इसको अपनी 'उस' में भी लगाकर देखूँ?
पर इस खयाल को दिमाग से झटक दिया।
लेकिन केला सामने रखा था। छिलके के नीचे से झाँकते उसके नाखून से खुदे मुँह पर बार-बार नजर जाती थी। मुझे अजीब लग रहा था, हँसी भी आ रही थी और कौतुहल भी। एकांत छोटी भावनाओं को भी जैसे बड़ा कर देता है। सोचा, कौन देखेगा, जरा करके देखते हैं। नेहा डींग मारती है कि सच बोलती है पता तो चलेगा।
मैंने उठकर दरवाजा लगा दिया।
नेहा का खयाल कहीं दूर से आता लगा। जैसे वह मुझ पर हँस रही हो।
मध्यम आकार का केला। ज्यादा लम्बा नहीं। अभी थोड़ा अधपका। मोटा और स्वस्थ।
मैं बिस्तर पर बैठ गई और नाइटी को उठा लिया। कभी अपने नंगे पन को चाहकर नहीं देखा था। इस बार मैंने सिर झुकाकर देखा। बालों के झुरमुट के अंदर गुलाबी गहराई।
मैंने हाथ से महसूस किया- चिकना, गीला, गरम... मैंने खुद पर हँसते हुए ही केले को अपने मुँह से लगाकर गीला किया और उसके लार से चमक गए मुँह को देखकर चुटकी ली, 'जरूर खुश होओ बेटा, ऐसी जबरदस्त किस्मत दोबारा नहीं होगी।'
योनि के होठों को उंगलियों से फैलाया और अंदर की फाँक में केले को लगा दिया। कुछ खास तो नहीं महसूस हुआ, पर हाँ, छुआते समय एक हल्की सिहरन सी जरूर आई। उस कोमल जगह में जरा सा भी स्पर्श ज्यादा महसूस होता है। मैंने केले को हल्के से दबाया लेकिन योनि का मुँह बिस्तर में दबा था।
मैं पीछे लेट गई। सिर के नीचे अपने तकिए के ऊपर नेहा का भी तकिया खींचकर लगा लिया। पैरों को मोड़कर घुटने फैला लिये। मुँह खुलते ही केले ने दरार के अंदर बैठने की जगह पाई। योनि के छेद पर उसका मुँह टिक गया, पर अंदर ठेलने की हिम्मत नहीं हुई। उसे कटाव के अंदर ही रगड़ते हुए ऊपर ले आई। भगनासा की घुण्डी से नीचे ही, क्योंकि वहाँ मैं बहुत संवेदनशील हूँ। नीचे गुदा की छेद और ऊपर भगनासा से बचाते हुए मैंने उसकी ऊपर नीचे कई बार सैर कराई। जब कभी वह होठों के बीच से अलग होता, एक गीली 'चट' की आवाज होती। मैंने कौतुकवश ही उसे उठा-उठाकर 'चट' 'चट' की आवाज को मजे लेने के लिए सुना।
हँसी और कौतुक के बीच उत्तेजना का मीठा संगीत भी शरीर में बजने लगा था। केला जैसे अधीर हो रहा था भगनासा का शिवलिंग-स्पर्श करने को।
'कर लो भक्त !' मैंने केले को बोलकर कहा और उसे भगनासा की घुण्डी के ऊपर दबा दिया।
दबाव के नीचे वह लचीली कली बिछली और रोमांचित होकर खिंच गई। उसके खिंचे मुँह पर केले को फिराते और रगड़ते मेरे मुँह से पहली 'आह' निकली। मैंने नेहा को मन ही मन गाली दी- साली !
बगल के कमरे से कुछ आवाज सी आई। हाथ तत्क्षण रुक गया। नजर अपने आप किवाड़ की कुण्डी पर उठ गई। कुण्डी चढ़ी हुई थी। फिर भी गौर से देखकर तसल्ली की। रोंगटे खड़े हो गए। कोई देख ले तो !
नाइटी पेट से ऊपर, पाँव फैले हुए, उनके बीच होंठों को फैलाए बायाँ हाथ, दाहिने हाथ में केला।
कितनी अश्लील मुद्रा में थी मैं !!
मेरे पैर किवाड़ की ही तरफ थे। बदन में सिहरन-सी दौड़ गई। केले को देखा। वह भी जैसे बालों के बीच मुँह घुसाकर छिपने की कोशिश कर रहा था लेकिन बालों की घनी कालिमा के बीच उसका पीला शरीर एकदम प्रकट दिख रहा था। डर के बीच भी उस दृश्य को देखकर मुझे हँसी आ गई, हालाँकि मन में डर ही व्याप्त था।
लेकिन यौनांगों से उठती पुकार सम्मोहनकारी थी। मैंने बायाँ हाथ डर में ही हटा लिया था। केवल दाहिना हाथ चला रही थी। केला बंद होठों को अपनी मोटाई से ही फैलाता अंदर के कोमल मांस को ऊपर से नीचे तक मालिश कर रहा था। भगनासा के अत्यधिक संवेदनशील स्नायुकेन्द्र पर उसकी रगड़ से चारों ओर के बाल रोमांचित होकर खड़े हो गए थे। स्त्रीत्व के कोमलतम केन्द्र पर केले के नरम कठोर गूदे का टकराव बड़ा मोहक लग रहा था।
कोई निर्जीव वस्तु भी इतने प्यार से प्यार कर सकती है ! आश्चर्य हुआ।
नेहा ठीक कहती है, केले का जोड़ नहीं होगा।
मैंने योनि के छेद पर उंगली फिराई। थोड़ा-सा गूदा घिसकर उसमें जमा हो गया था। 'तुम्हें भी केले का स्वाद लग गया है !' मैंने उससे हँसी की।
मैंने उस जमे गूदे को उंगली से योनि के अंदर ठेल दिया। थोड़ी सी जो उंगली पर लगी थी उसको उठाकर मुँह में चख भी लिया। एक क्षण को हिचक हुई, लेकिन सोचा नहा-धोकर साफ तो हूँ। वही परिचित मीठा, थोड़ा कसैला स्वाद, लेकिन उसके साथ मिली एक और गंध- योनि के अंदर की मुसाई गंध।
मैंने केले को उठाकर देखा, छिलके के अंदर मुँह घिस गया था। मैंने छिलका अलग कर फिर से गूदे में नाखून से खोद दिया। देखकर मन में...
मैंने योनि के छेद पर उंगली फिराई। थोड़ा-सा गूदा घिसकर उसमें जमा हो गया था। 'तुम्हें भी केले का स्वाद लग गया है !' मैंने उससे हँसी की।
मैंने उस जमे गूदे को उंगली से योनि के अन्दर ठेल दिया। थोड़ी सी जो उंगली पर लगी थी उसको उठाकर मुँह में चख भी लिया। एक क्षण को हिचक हुई, लेकिन सोचा नहा-धोकर साफ तो हूँ। वही परिचित मीठा, थोड़ा कसैला स्वाद, लेकिन उसके साथ मिली एक और गंध- योनि के अन्दर की मुसाई गंध।
मैंने केले को उठाकर देखा, छिलके के अन्दर मुँह घिस गया था। मैंने छिलका अलग कर फिर से गूदे में नाखून से खोद दिया। देखकर मन में एक मौज-सी आई और मैंने योनि में उंगली घुसाकर कई बार कसकर रगड़ दिया।
उस घर्षण ने मुझे थरथरा दिया और बदन में बिजली की लहरें दौड़ गईं। हूबहू मोटे लिंग-से दिखते उस केले के मुँह को मैंने पुचकार कर चूम लिया।
और उसी क्षण लगा, मन से सारी चिंता निकल गई है, कोई डर या संकोच नहीं।
मैंने बेफिक्र होकर केले को योनि के मुँह पर लगा दिया और उसे रगड़ने लगी। दूसरे हाथ की तर्जनी अपने आप भगांकुर पर घूमने लगी। आनन्द की लहरों में नौका बहने लगी, साँसें तेज होने लगीं। मैंने खुद अपने यौवन कपोतों को तेज तेज उठते बैठते देख मैंने उन्हें एक बार मसल दिया।
मेरा छिद्र एक बड़े घूमते भँवर की तरह केले को अदंर लेने की कोशिश कर रहा था। मैंने केले को थपथपाया, 'अब और इंतजार की जरूरत नहीं। जाओ ऐश करो।'
मैंने उसे अन्दर दबा दिया। उसका मुँह द्वार को फैलाकर अन्दर उतरने लगा। डर लगा, लेकिन दबाव बनाए रही। उतरते हुए केले के साथ हल्का सा दर्द होने लगा था लेकिन यह दर्द उस मजे में मिलकर उसे और स्वादिष्ट बना रहा था। दर्द ज्यादा लगता तो केले को थोड़ा ऊपर लाती और फिर उसे वापस अन्दर ठेल देती।
धीरे धीरे मुझमें विश्वास आने लगा- कर लूँगी।
जब केला कुछ आश्वस्त होने लायक अन्दर घुस गया तब मैं रुकी, केले का छिलका योनि के ऊपर पत्ते की तरह फैला हुआ था। मेरी देह पसीने-पसीने हो रही थी।
अब और अन्दर नहीं लूँगी, मैंने सोचा। लेकिन पहली बार का रोमांच और योनि का प्रथम फैलाव उतने कम प्रवेश से मानना नहीं चाह रहे थे।
थोड़ा-सा और अन्दर जा सकता है !
अगर ज्यादा अन्दर चला गया तो?
मैं उतने ही पर संतोष करके केले को पिस्टन की तरह चलाने लगी।
आधे अधूरे कौर से मुँह नही भरता, उल्टे चिढ़ होती है। मैंने सोचा, थोड़ा सा और... !
सुरक्षित रखते हुए मैंने गहराई बढ़ाई और फिर उतने ही तक से अन्दर बाहर करने लगी। ऊपर बायाँ हाथ लगातार भग-मर्दन कर रहा था। शरीर में दौड़ते करंट की तीव्रता और बढ़ गई। पहले कभी इस तरह से किया नहीं था। केवल उंगली अन्दर डाली थी, उसमें वो संतोष नहीं हुआ था।
अब समझ में आ रहा था औरत के शरीर की खूबी क्या होती है, नेहा क्यों इसके पीछे पागल रहती है। जब केले से इतना अच्छा लग रहा था तो वास्तविक सम्भोग कितना अच्छा लगता होगा !?!
मेरे चेहरे पर खुशी थी। पहली बार यह चिकना-चिकना घर्षण एक नया ही एहसास था, उंगली की रगड़ से अलग, बेकार ही मैं इससे डर रही थी।
मुझे केले के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी थी, केला निश्चिंत अन्दर-बाहर हो रहा था। अब उसे योनि से बिछड़ने का डर नहीं था। मैं उसके आवागमन का मजा ले रही थी। केले के बाहर निकलते समय योनि भिंचकर अन्दर खींचने की कोशिश करती। मैं योनि को ढीला कर उसे पुन: अन्दर ठेलती। इन दो विरोधी कोशिशों के बीच केला आराम से आनन्द के झोंके लगा रहा था। मैं धीरे-धीरे सावधानी से उसे थोड़ा थोड़ा और अन्दर उतार रही थी। आनन्द की लहरें ऊँची होती जा रही थीं, भगांकुर पर उंगलियों की हरकत बढ़ रही थी, सनसनाहट बढ़ रही थी और अब किसी अंजाम तक पहुँचने की इच्छा सर उठाने लगी थी।
बहुत अच्छा लग रहा था। जी करता था केले को चूम लूँ। एक बार उसे निकालकर चूम भी लिया और पुन: छेद पर लगा दिया। अन्दर जाते ही शांति मिली। योनि जोर जोर से भिंच रही थी। मैंने अपने कमर की उचक भी महसूस की।
धीरे धीरे करके मैंने आधे से भी अधिक अन्दर उतार दिया। डर लग रहा था, कहीं टूट न जाए। हालाँकि केले में पर्याप्त सख्ती थी। मैं उसे ठीक से पकड़े थी। योनि भिंच-भिंचकर उसे और अन्दर खींचना चाह रही थी। केला भी जैसे पूरा अन्दर जाने के लिए जोर लगा रहा था। मैं भरसक नियंत्रण रखते ही अन्दर बाहर करने की गति बढ़ा रही थी। योनि की कसी चिकनी दीवारों पर आगे पीछे सरकता केला बड़ा ही सुखद अनुभव दे रहा था।
कितना अच्छा लग रहा था !! एक अलग दुनिया में खो रही थी मैं ! एक लय में मेरा हाथ और सांसें और धड़कनें चल रही थीं, तीनों धीरे धीरे तेज हो रहे थे। मैं धरती से मानो ऊपर उठ रही थी। वातावरण में मेरी आह आह की फुसफुसाहटों का संगीत गूंज रहा था। कोई मीठी सी धुन दिमाग में बज रही थी.....
"आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन
शरारत करने को ललचाए रे मेरा मन, मेरा मन ....
धीरे धीरे दाहिने हाथ ने स्वत: ही अन्दर-बाहर करने की गति सम्हाल ली। मैं नियंत्रण छोड़कर उसके उसके बहाव में बहने लगी। मैंने बाएँ हाथ से अपने स्तनों को मसलना शुरू कर दिया। उसकी नोकों पर नाइटी के ऊपर से ही उंगलियाँ गड़ाने, उन्हें चुटकी में पकड़कर दबाने की कोशिश करने लगी। योनि में कम्पन सा महसूस होने लगा। गति निरंतर बढ़ रही थी – अन्दर-बाहर, अन्दर-बाहर... सनसनी की ऊँची होती तरंगें .... 'चट' 'चट' की उत्तेजक आवाज... सुखद घर्षण.. भगनासा पर चोट से उत्पन्न बिजली की लहरें... चरम बिन्दु का क्षितिज कहीं पास दिख रहा था। मैंने उस तक पहुँचने के लिए और जोर लगा दिया .....
कोई लहर आ रही है... कोई मुझे बाँहों में कस ले, मुझे चूर दे............... ओह......
कि तभी 'खट : खट : खट'.....
मेरी साँस रुक गई। योनि एकदम से भिंची, झटके से हाथ खींच लिया....
खट खट खट.....
हाथ में केवल डंठल और छिलका था।
क्षितिज कहीं पास दिख रहा था। मैंने उस तक पहुँचने के लिए और जोर लगा दिया.....
कोई लहर आ रही है... कोई मुझे बाँहों में कस ले, मुझे चूर दे....... ओह......
कि तभी 'खट : खट : खट'.....
मेरी साँस रुक गई। योनि एकदम से भिंची, झटके से हाथ खींच लिया....
खट खट खट.....
हाथ में केवल डंठल और छिलका था। मैं बदहवास हो गई। अब क्या करूँ?
"निशा, दरवाजा खोलो !".... खट खट खट...
मैंने तुरंत नाइटी खींची और उठ खड़ी हुई। केला अन्दर महसूस हो रहा था। चलकर दरवाजे के पास पहुँची और चिटकनी खोल दी।
नेहा मेरे उड़े चेहरे को देखकर चौंक पड़ी- क्या बात है?
मैं ठक ! मुँह में बोल नहीं थे।
"क्या हुआ, बोलो ना?"
क्या बोलती? केला अन्दर गड़ रहा था। मैंने सिर झुका लिया। आँखें डबडबा आईं।
नेहा घबराई, कुछ गड़बड़ है, कमरे में खोजने लगी। केले का छिलका बिस्तर पर पड़ा था। नाश्ते की दोनों प्लेटें एक साथ स्टडी टेबल पर रखी थीं।
"क्या बात है? कुछ बोलती क्यों नहीं?"
मेरा घबराया चेहरा देखकर संयमित हुई,"आओ, पहले बैठो, घबराओ नहीं।"
मेरा कंधा पकड़कर लाई और बिस्तर पर बिठा दिया। मैं किंचित जांघें फैलाए चल रही थी और फैलाए ही बैठी।
"अब बोलो, क्या बात है?"
मैंने भगवान से अत्यंत आर्त प्रार्थना की- प्रभो ..... बचा लो।
अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने मेरी चाल और बैठने के तरीके में कुछ फर्क महसूस किया था। केले का छिलका उठाकर बोली, "क्या मामला है?"
मैं एकदम शर्म से गड़ गई, सिर एकदम झुका लिया, आँसू की बूंदें नाइटी पर टपक पड़ी।
"अन्दर रह गया है?"
मैंने हथेलियों में चेहरा छिपा लिया। बदन को संभालने की ताकत नहीं रही। बिस्तर पर गिर पड़ी।
नेहा ठठाकर हँस पड़ी।
"मिस निशा, आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप तो बड़ी सुशील, मर्यादित और सो कॉल्ड क्या क्या हैं?" उसकी हँसी बढ़ने लगी।
मुझे गुस्सा आ गया- बेदर्द लड़की ! मैं इतनी बड़ी मुश्किल में हूँ और तुम हँस रही हो?
"हँसूं न तो क्या करूँ? मुझसे तो बड़ी बड़ी बातें कहती हो, खुद ऐसा कैसे कर लिया?"
मैंने शर्म और गुस्से से मुँह फेर लिया।
अब क्या करूँ? बेहद डर लग रहा था। देखना चाहती थी कितना अन्दर फँसा हुआ है, निकल सकता है कि नहीं। कहीं डॉक्टर बुलाना पड़ गया तो? सोचकर ही रोंगटे खड़े हो गए। कैसी किरकिरी होगी !
मैंने आँख पोछी और हिम्मत करके कमरे से बाहर निकली। कोशिश करके सामान्य चाल से चली, गलियारे में कोई देखे तो शक न करे। बाथरूम में आकर दरवाजा बंद किया और नाइटी उठाकर बैठकर नीचे देखा। दिख नहीं रहा था। काश, आइना लेकर आती। हाथ से महसूस किया। केले का सिरा हाथ से टकरा रहा था। बेहद चिकना। नाखून गड़ाकर खींचना चाहा तो गूदा खुदकर बाहर चला आया।
और खोदा।
उसके बाद उंगली से टकराने लगा और नाखून गड़ाने पर भीतर धँसने लगा।
मैंने उछल कर देखा, शायद झटके से गिर जाए। डर भी लग रहा था कि कहीं कोई पकड़ न ले।
कई बार कूदी। बैठे बैठे और खड़े होकर भी। कोई फायदा नहीं। कूदने से कुछ होने की उम्मीद करना आकाश कुसुम था।
फँस गई। कैसे निकलेगा? कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी रही। फिर निकलना पड़ा। चलना और कठिन लग रहा था। यही केला कुछ क्षणों पहले अन्दर कितना सुखद लग रहा था !
कमरे के अन्दर आते ही नेहा ने सवाल किया,"निकला?"
मैंने सिर हिलाया। हमारे बीच चुप्पी छाई रही। परिस्थिति भयावह थी।
"मैं देखूँ?"
हे भगवान, यह अवस्था ! मेरी दुर्दशा की शुरुआत हो चुकी थी। मैं बिस्तर पर बैठ गई।
नेहा ने मुझे पीछे तकिए पर झुकाया और मेरे पाँवों के पास बैठ गई। मेरी नाइटी उठाकर मेरे घुटनों को मोड़ी और उन्हें धीरे धीरे फैला दी। बालों की चमचमाती काली फसल.......... पहली बार उस पर बाहर की नजर पड़ रही थी। नेहा ने होंठों को फैलाकर अन्दर देखा।
हे भगवान कोई रास्ता निकल आए !
उसने उंगलियों से होंठों के अन्दर, अगल बगल टटोला, महसूस किया। बाएँ दाएँ, ऊपर नीचे। नाखून से खींचने की असफल कोशिश की, भगांकुर को सहलाया। ये क्यों? मन में सवाल उठा, क्या यह अभी भी तनी अवस्था में है? नेहा ने गुदा में भी उंगली कोंची, दो गाँठ अन्दर भी घुसा दी। घुसाकर दाएं बाएँ घुमाया भी।
मैं कुनमुनाई। यह क्या कर रही है?
पलकों की झिरी से उसे देखा, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। कहीं वह मुझसे खेल तो नहीं रही है?
"ओ गॉड, यह तो भीतर घुस गया है।" उसके स्वर में वास्तविक चिंता थी, "क्या करोगी?"
"डॉक्टर को बुलाओगी? वार्डन को बोलना पड़ेगा। हॉस्टल सुपरिंटेंडेंट जानेगी, फिर सारी टीचर्स, ... ना ना.... बात सब जगह फैल जाएगी।"
"ना ना ना.... " मैंने उसी की बात प्रतिध्वनित की।
कुछ देर हम सोचते रहे। समय नहीं है, जल्दी करना पड़ेगा, इन्फेक्शंन का खतरा है।
............. मैं क्या कहूँ।
"एक बात कहूँ, इफ यू डोंट माइंड?"
"............." मैं कुछ सोच नहीं पा रही।
"सुरेश को बुलाऊँ? एमबीबीएस कर रहा है। कोई राह निकाल सकता है। सबके जानने से तो बेहतर है एक आदमी जानेगा।"
बाप रे ! एक लड़का। वह भी सीधे मेरी टांगों के बीच ! ना ना....
"निशा, और कोई रास्ता नहीं है। थिंक इट। यही एक संभावना है।"
कैसे हाँ बोलूँ। अब तक किसी ने मेरे शरीर को देखा भी नहीं था। यह तो उससे भी आगे....... मैं चुप रही।
"जल्दी बोलो निशा। यू आर इन डैंजर। अन्दर बॉडी हीट से सड़ने लगेगा। फिर तो निकालने के बाद भी डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा। लोगों को पता चल जाएगा।"
इतना असहाय जिंदगी में मैंने कभी नहीं महसूस किया था,"ओके ...."
"तुम चिंता न करो। ही इज ए वेरी गुड फ्रेड ऑव मी (वह मेरा बहुत ही अच्छा दोस्त है।)" उसने आँख मारी, "हर तरह की मदद करता है।"
गजब है यह लड़की। इस अवस्था में भी मुझसे मजाक कर रही है।
उसने सुरेश को फोन लगाया, "सुरेश, क्या कर रहे हो..... नाश्ता कर लिया?... नहीं?... तुम्हारे लिए यहाँ बहुत अच्छा नाश्ता है। खाना चाहोगे? सोच लो... इटस ए लाइफटाइम चांस... नाश्ते से अधिक उसकी प्लेट मजेदार ... नहीं बताऊँगी.... अब मजाक छोड़ती हूँ। तुम तुरंत आ जाओ। माइ रूममेट इज इन अ बिग प्राब्लम। मुझे लगता है तुम कुछ मदद कर सकते हो... नहीं नहीं.. फोन पर नहीं कह सकती। इट्स अर्जेंट... बस तुरंत आ जाओ।"
मुझे गुस्सा आ रहा था। "ये नाश्ता-वाश्ता क्या बक रही थी?"
"गलत बोल रही थी?"
उसे कुछ ध्यान आया, उसने दुबारा फोन लगाया, "सुरेश , प्लीज अपना शेविंग सेट ले लेना। मुझे लगता है उसकी जरूरत पड़ेगी।"
शेविंग सेट! क्या बोल रही है?..... अचानक मेरे दिमाग में एकदम से साफ हो गया ... क्या वहाँ के बाल मूंडेगी? हाय राम!!!
कुछ ही देर में दरवाजे पर दस्तक हुई।
"हाय निशा ! " सुरेश ने भीतर आकर मुझे विश किया और समय में मैं बस एक ठंडी 'हाय' कर देती थी, इस वक्त मुस्कुराना पड़ा।
"क्या प्राब्लम है?"
नेहा ने मेरी ओर देखा, मैं कुछ नहीं बोली।
"इसने केला खाया है।"
"तो?"
"वो इसके गले में अटक गया है।"
उसके चेहरे पर उलझन के भाव उभरे,"ऐसा कैसे हो सकता है?"
"मुँह खोलो !"
नेहा हँसी रोकती हुई बोली, "उस मुँह में नहीं..... बुद्धू.... दूसरे में... उसमें।" उसने उंगली से नीचे की ओर इशारा किया।
सुरेश के चेहरे पर हैरानी, फिर हँसी ! फिर गंभीरता.....
हे भगवान, धरती फट जाए, मैं समा जाऊँ।
"यह देखो", नेहा ने उसे छिलका दिखाया, "टूटकर अन्दर रह गया है।"
"यह तो सीरियस है।" सुरेश सोचता हुआ बोला।
"बहुत कोशिश की, नहीं निकल रहा। तुम कुछ उपाय कर सकते हो?"
सुरेश विचारमग्न था। बोला, "देखना पड़ेगा।"
मैंने स्वाचालित-सा पैरों को आपस में दबा लिया।
"निशा...."
मैं कुछ नहीं सुन पा रही थी, कुछ नहीं समझ पा रही थी। कानों में यंत्रवत आवाज आ रही थी, "निशा… बी ब्रेव…! यह सिर्फ हम तीनों के बीच रहेगा…..!"
मेरी आँखों के आगे अंधेरा छाया हुआ है। मुझे पीछे ठेलकर तकिए पर लिटा रही है। मेरी नाइटी ऊपर खिंच रही है.... मेरे पैर, घुटने, जांघें... पेड़ू.... कमर....प्रकट हो रहे हैं। मेरी आत्मा पर से भी खाल खींचकर कोई मुझे नंगा कर रहा है। पैरों को घुटनों से मोड़ा जा रहा है....... दोनों घुटनों को फैलाया जा रहा है। मेरा बेबस, असहाय, असफल विरोध.... मर्म के अन्दर तक छेद करती पराई नजरें ... स्त्री की अंतरंगता के चिथड़े चिथड़े करती....
मैं कुछ नहीं सुन पा रही थी, कुछ नहीं समझ पा रही थी। कानों में यंत्रवत आवाज आ रही थी, "निशा… बी ब्रेव…! यह सिर्फ हम तीनों के बीच रहेगा…..!"
मेरी आँखों के आगे अंधेरा छाया हुआ है। मुझे पीछे ठेलकर तकिए पर लिटा रही है। मेरी नाइटी ऊपर खिंच रही है.... मेरे पैर, घुटने, जांघें... पेड़ू.... कमर....प्रकट हो रहे हैं। मेरी आत्मा पर से भी खाल खींचकर कोई मुझे नंगा कर रहा है। पैरों को घुटनों से मोड़ा जा रहा है....... दोनों घुटनों को फैलाया जा रहा है। मेरा बेबस, असहाय, असफल विरोध.... मर्म के अन्दर तक छेद करती पराई नजरें ... स्त्री के बेहद अंतरंगता के चिथड़े चिथड़े करती....
जांघों पर, पेड़ू पर घूमते हाथ .... बीच के बालों को सरकाते हुए... होंठों को अलग करने का खिंचाव...।
"साफ से देख नहीं पा रहा, जरा उठाओ।"
मेरे सिर के नीचे से एक तकिया खींचा है। मेरे नितंबों के नीचे हाथ डालकर उठाकर तकिया लगाया जा रहा है.... मेरे पैरों को उठाकर घुटनों को छाती तक लाकर फैला दिया गया है... सब कुछ उनके सामने खुल गया है। गुदा पर ठंडी हवा का स्पर्श महसूस हो रहा है...
ॐ भूर्भुव: .............................. धीमहि ..... पता नहीं क्यों गायत्री मंत्र का स्मरण हो रहा है। माता रक्षा करो...
केले की ऊपरी सतह दिख रही है। योनि के छेद को फैलाए हुए। काले बालों के के फ्रेम में लाल गुलाबी फाँक ... बीच में गोल सफेदी... उसमें नाखून के गड्ढे...
कुछ देर की जांच-परख के बाद मेरा पैर बिस्तर पर रख दिया जाता है। मैं नाइटी खींचकर ढकना चाहती हूँ, पर....
"एक कोशिश कर सकती है।"
"क्या?"
"मास्टरबेट (हस्तेमैथुन) करके देखे। हो सकता है ऑर्गेज्म(स्खलन) के झटके और रिलीज(रस छूटने) की चिकनाई से बाहर निकल जाए।"
नेहा सोचती है।
"निशा!"
मैं कुछ नहीं बोलती। उन लोगों के सामने हस्तमैथुन करना ! स्खलित भी होना!!! ओ माँ !
"निशा", इस बार नेहा का स्वर कठोर है,"बोलो....."
क्या बोलूँ मैं। मेरी जुबान नहीं खुलती।
"खुद करोगी या मुझे करना पड़ेगा?"
वह मेरा हाथ खींचकर वहाँ पर लगा देती है,"करो।"
मेरा हाथ पड़ा रहता है।
"डू इट यार !"
मैं कोई हरकत नहीं करती, मर जाना बेहतर है।
"लेट अस डू इट फॉर हर (चलो हम इसका करते हैं)।"
मैं हल्के से बाँह उठाकर पलकों को झिरी से देखती हूँ। सुरेश सकुचाता हुआ खड़ा है। बस मेरे उस स्थल को देख रहा है।
नेहा की हँसी,"सुंदर है ना?"
शर्म की एक लहर आग-सी जलाती मेरे ऊपर से नीचे निकल जाती है, बेशर्म लड़की...!
"क्या सोच रहे हो?"
सुरेश दुविधा में है, इजाजत के बगैर किसी लड़की का जननांग छूना ! भलामानुस है।
तनाव के क्षण में नेहा का हँसी-मजाक का कीड़ा जाग जाता है,"जिस चीज की झलक भर पाने के लिए ऋषि-मुनि तरसते हैं, वह तुम्हें यूँ ही मिल रही है, क्या किस्मत है तुम्हारी !"
मैं पलकें भींच लेती हूँ। साँस रोके इंतजार कर रही हूँ ! टांगें खोले।
"कम ऑन, लेट्स डू इट..."
बिस्तर पर मेरे दोनों तरफ वजन पड़ता है, एक कोमल और एक कठोर हाथ मेरे उभार पर आ बैठते हैं, बालों पर उंगलियाँ फेरने से गुदगुदी लग रही है, कोमल उंगलियाँ मेरे होंठों को खोलती हैं अन्दर का जायजा लेती हैं, भगनासा का कोमल पिंड तनाव में आ जाता है, छू जाने से ही बगावत करता है, कभी कोमल, कभी कठोर उंगलियाँ उसे पीड़ित करती हैं, उसके सिर को कुचलती, मसलती हैं, गुस्से में वह चिनगारियाँ सी छोड़ता है। मेरी जांघें थरथराती हैं, हिलना-डुलना चाहती हैं, पर दोनों तरफ से एक एक हाथ उन्हें पकड़े है, न तो परिस्थिति, न ही शरीर मेरे वश में है।
"यस ... ऐसे ही..." नेहा मेरा हाथ थपथपाती है तब मुझे पता चलता है कि वह मेरे स्तनों पर घूम रहा था। शर्म से भरकर हाथ खींच लेती हूँ।
नेहा हँसती है,"अब यह भी हमीं करें? ओके..."
दो असमान हथेलियाँ मेरे स्तनों पर घूमने लगती हैं। नाइटी के ऊपर से। मेरी छातियाँ परेशान दाएं-बाएँ, ऊपर-नीचे लचककर हमले से बचना चाह रही हैं पर उनकी कुछ नहीं चलती। जल्दी भी उन पर से बचाव का, कुछ नहीं-सा, झीना परदा भी खींच लिया जाता है, घोंसला उजाड़कर निकाल लिए गए दो सहमे कबूतर ... डरे हुए ! उनका गला दबाया जाता है, उन्हें दबा दबाकर उनके मांस को मुलायम बनाया जा रहा है- मजे लेकर खाए जाने के लिए शायद।
उनकी चोंचें एक साथ इतनी जोर खींची जाती है कि दर्द करती हैं, कभी दोनों को एक साथ इतनी जोर से मसला जाता है कि कराह निकल जाती है। मैं अपनी ही तेज तेज साँसों की आवाज सुन रही हूँ। नीचे टांगों के केन्द्र में लगातार घर्षण, लगातार प्रहार, कोमल उंगलियों की नाखून की चुभन... कठोर उंगलियों की ताकतवर रगड़ ! कोमल कली कुचलकर लुंज-पुंज हो गई है।
सारे मोर्चों पर एक साथ हमला... सब कुछ एक साथ... ! ओह... ओह... साँस तो लेने दो...
"हाँ... लगता है अब गर्म हो गई है।" एक उंगली मेरी गुदा की टोह ले रही है।
मैं अकबका कर उन्हें अपने पर से हटाना चाहती हूँ, दोनों मेरे हाथ पकड़ लेते हैं, उसके साथ ही मेरे दोनों चूचुकों पर दो होंठ कस जाते हैं, एक साथ उन्हें चूसते हैं !
मेरे कबूतर बेचारे !जैसे बिल्ली मुँह में उनका सिर दबाए कुचल रही हो। दोनों चोंचें उठाकर उनके मुख में घुसे जा रहे हैं।
हरकतें तेज हो जाती हैं।
"यह बहुत अकड़ती थी। आज भगवान ने खुद ही इसे मुझे गिफ्ट कर दिया।" नेहा की आवाज.... मीठी... जहर बुझी....
"तुम इसके साथ?"
"मैं कब से इसका सपना देख रही थी।"
"क्या कहती हो?"
"बहुत सुन्दर है ना यह !" कहती हुई वह मेरे स्तनों को मसलती है, उन्हें चूसती है। मैं अपने हाँफते साँसों की आवाज खुद सुन रही हूँ। कोई बड़ी लहर मरोड़ती सी आ रही है....
"निशा, जोर लगाओ, अन्दर से ठेलो।" सुरेश की आवाज में पहली बार मेरा नाम... नेहा की आवाज के साथ मिली। गुदा के मुँह पर उंगली अन्दर घुसने के लिए जोर लगाती है।
यह उंगली किसकी है?
मैं कसमसा रही हूँ, दोनों ने मेरे हाथ-पैर जकड़ रखे हैं,"जोर से .... ठेलो।"
मैं जोर लगाती हूँ। कोई चीज मेरे अन्दर से रह रहकर गोली की तरह छूट रही है....... रस से चिकनी उंगली सट से गुदा के अन्दर दाखिल हो जाती है। मथानी की तरह दाएँ-बाएँ घूमती है।
आआआआह.......... आआआआह.......... आआआआह..........
"यस यस, डू इट.......!" नेहा की प्रेरित करती आवाज, सुरेश भी कह रहा है। दोनों की हरकतें तेज हो जाती हैं, गुदा के अन्दर उंगली की भी। भगनासा पर आनन्द उठाती मसलन दर्द की हद तक बढ़ जाती है।
ओ ओ ओ ओ ओ ह............... खुद को शर्म में भिगोती एक बड़ी लहर, रोशनी के अनार की फुलझड़ी ........... आह..
एक चौंधभरे अंधेरे में चेतना गुम हो जाती है।
"यह तो नहीं हुआ? वैसे ही अन्दर है !"... मेरी चेतना लौट रही है, "अब क्या करोगी?"
कुछ देर की चुप्पी ! निराशा और भयावहता से मैं रो रही हूँ।
"रोओ मत !" सुरेश मुझे सहला रहा है, इतनी क्रिया के बाद वह भी थोड़ा-थोड़ा मुझ पर अधिकार समझने लगा है, वह मेरे आँसू पोंछता है,"इतनी जल्दी निराश मत होओ।" उसकी सहानुभूति बुरी नहीं लगती।
ओ ओ ओ ओ ओ ह............... खुद को शर्म में भिगोती एक बड़ी लहर, रोशनी के अनार की फुलझड़ी ........... आह..
एक चौंधभरे अंधेरे में चेतना गुम हो जाती है।
"यह तो नहीं हुआ? वैसे ही अन्दर है !"... मेरी चेतना लौट रही है, "अब क्या करोगी?"
कुछ देर की चुप्पी ! निराशा और भयावहता से मैं रो रही हूँ।
"रोओ मत !" सुरेश मुझे सहला रहा है, इतनी क्रिया के बाद वह भी थोड़ा-थोड़ा मुझ पर अधिकार समझने लगा है, वह मेरे आँसू पोंछता है,"इतनी जल्दी निराश मत होओ।" उसकी सहानुभूति बुरी नहीं लगती।
कुछ देर सोचकर वह एक आइडिया निकालता है। उसे लगता है उससे सफलता मिल जाएगी।
"तुम मजाक तो नहीं कर रहे, आर यू सीरियस?" नेहा संदेह करती है।
"देखो, वेजीना और एनस के छिद्र अगल-बगल हैं, दोनों के बीच पतली-सी दीवार है। जब मैंने इसकी गुदा में उंगली घुसाई तो वह केले के दवाब से बहुत कसी लग रही थी।"
अब मुझे पता चला कि वह उंगली सुरेश की थी। मैं उसे नेहा की शरारत समझ रही थी।
"तुम बुद्धिमान हो।" नेहा हँसती है, "मैंने तुम्हें बुलाकर गलती नहीं की।"
तो यह बहाने से मेरी 'वो' मारना चाह रहा है। गंदा लड़का। मुझे एक ब्लू फिल्म में देखा गुदा मैथुन का दृश्य याद हो आया। वह मुझे बड़ा गंदा लेकिन रोमांचक भी लगा था- गुदा के छेद में तनाव। कहीं सुरेश ने मेरी यह कमजोरी तो नहीं पकड़ ली? ओ गॉड।
"एक और बात है !" सुरेश नेहा की तारीफ से खुश होकर बोल रहा था,"शी इज सेंसिटिव देयर। जब मैंने उसमें उंगली की तो यह जल्दी ही झड़ गई।"
उफ !! मेरे बारे में इस तरह से बात कर रहे हैं जैसे कसाई मुर्गे के बारे में बात कर रहा हो।
"तो तुम्हें लगता है शी विल इंजॉय इट।"
"उसी से पूछ लो।"
नेहा खिलखिला पड़ी,"निशा, बोलो, तुम्हें मजा आएगा?"
वह मेरी हँसी उड़ाने का मौका छोड़ने वाली नहीं थी। पर वही मेरी सबसे बड़ी मददगार भी थी।
चुप्पी के आवरण में मैं अपनी शर्म बचा रही थी। लेकिन केला मुझे विवश किए था। मुझे सहायता की जरूरत थी। मेरा हस्तमैथुन करके उन दोनों की हिम्मत बढ़ गई थी। आश्चर्य था मैंने उसे अपने साथ होने दिया। अब तो मेरी गाण्ड मारने की ही बात हो रही थी।
मुझे तुरंत ग्लानि हुई ! छी: ! मैंने कितने गंदे शब्द सोचे। मैं कितनी जल्दी कितनी बेशर्म हो गई थी !
"निशा, मजाक की बात नहीं। बी सीरियस।" नेहा ने अचानक मूड बदल कर मुझे चेतावनी दी। उसका हाथ मेरे योनि पर आया और एक उंगली गुदा के छेद पर आकर ठहर गई।
"तुम इसके लिए तैयार हो ना?"
मेरी चुप्पी से परेशान होकर उसने कहा,"चुप रहने से काम नहीं चलेगा, यह छोटी बात नहीं है। तुम्हें बताना होगा तैयार हो कि नहीं। अगर तुम्हें आपत्ति्जनक लगता है तो फिर हम छोड़ देते हैं ! बोलो?"
मेरी चुप्पी यथावत् थी।
नेहा ने सुरेश से पूछा- बोलो क्या करें? यह तो बोलती ही नहीं।
"क्या कहेगी बेचारी ! बुरी तरह फँसी हुई है। शी इज टू मच इम्बैरेस्ड !" कुछ रुककर वह फिर बोला,"लेकिन अब जो करना है उसमें पड़े रहने से काम नहीं चलेगा। उठकर सहयोग करना होगा।"
"निशा, सुन रही हो ना। अगर मना करना है तो अभी करो।"
"निशा, तुम.... मैं नहीं चाहता, लेकिन इसमें तुम पर... कुछ जबरदस्ती करनी पड़ेगी, तुम्हें सहना भी होगा।" सुरेश की आवाज में हमदर्दी थी। या पता नहीं मतलब निकालने की चतुराई।
कुछ देर तक दोनों ने इंतजार किया,"चलो इसे सोचने देते हैं। लेकिन जितनी देर होगी, उतना ही खतरा बढ़ता जाएगा।"
सोचने को क्या बाकी था ! मेरे सामने कोई और उपाय था क्या?
मेरी खुली टांगों के बीच योनिप्रदेश काले बालों की समस्त गरिमा के साथ उनके सामने लहरा रहा था।
मैंने नेहा के हाथ के ऊपर अपना हाथ रख दिया- जो सही समझो, करो !
"लेकिन मुझे सही नहीं लग रहा।" सुरेश ने बम जैसे फोड़ा,"मुझे लग रहा है, निशा समझ रही है कि मैं इसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठा रहा हूँ।"
बात तो सच थी मगर मैं इसे स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थी। वे मेरी मजबूरी का फायदा तो उठा ही रहे थे।
"खतरा निशा को है। उसे इसके लिए प्रार्थना करनी चाहिए। पर यहाँ तो उल्टे हम इसकी मिन्नतें कर रहे हैं। जैसे मदद की जरूरत उसे नहीं हमें है।"
उसका पुरुष अहं जाग गया था। मैं तो समझ रही थी वह मुझे भोगने के लिए बेकरार है, मेरा सिर्फ विरोध न करना ही काफी है। मगर यह तो अब .....
"मगर यह तो सहमति दे रही है !", नेहा ने मेरे पेड़ू पर दबे उसके हाथ को दबाए मेरे हाथ की ओर इशारा किया। उसे आश्चर्य हो रहा था।
"मैं क्यों मदद करूँ? मुझे क्या मिलेगा?"
सुनकर नेहा एक क्षण तो अवाक रही फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी,"वाह, क्या बात है !"
सुरेश इतनी सुंदर लड़की को न केवल मुफ्त में ही भोगने को पा रहा था, बल्कि वह इस 'एहसान' के लिए ऊपर से कुछ मांग भी रहा था। मेरी ना-नुकुर पर यह उसका जोरदार दहला था।
"सही बात है।" नेहा ने समर्थन किया।
"देखो, मुझे नहीं लगता यह मुझसे चाहती है। इसे किसी और को ही दिखा लो।"
मैं घबराई। इतना करा लेने के बाद अब और किसके पास जाऊँगी। सुरेश चला गया तो अब किसका सहारा था?
"मेरा एक डॉक्टर दोस्त है। उसको बोल देता हूँ।" उसने परिस्थिति को और अपने पक्ष में मोड़ते हुए कहा।
मैं एकदम असहाय, पंखकटी चिड़िया की तरह छटपटा उठी। कहाँ जाऊँ? अन्दर रुलाई की तेज लहर उठी, मैंने उसे किसी तरह दबाया। अब तक नग्नता मेरी विवशता थी पर अब इससे आगे रोना-धोना अपमानजनक था।
मैं उठकर बैठ गई। केले का दबाव अन्दर महसूस हुआ। मैंने कहना चाहा,"तुम्हें क्या चाहिए?"
पर भावुकता की तीव्रता में मेरी आवाज भर्रा गई।
नेहा ने मुझे थपथपाकर ढांढस दिया और सुरेश को डाँटा,"तुम्हें दया नहीं आती?"
मुझे नेहा की हमदर्दी पर विश्वास नहीं हुआ। वह निश्चय ही मेरी दुर्दशा का आनन्द ले रही थी।
"मुझे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए।"
"क्या लोगे?"
सुरेश ने कुछ क्षणों की प्रतीक्षा कराई और बात को नाटकीय बनाने के लिए ठहर ठहरकर स्पष्ट उच्चारण में कहा,"जो इज्जत इन्होंने केले को बख्शी है वह मुझे भी मिले।"
मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। अब क्या रहेगा मेरे पास? योनि का कौमार्य बचे रहने की एक जो आखिरी उम्मीद बनी हुई थी वह जाती रही। मेरे कानों में उसके शब्द सुनाई पड़े, "और वह मुझे प्यार और सहयोग से मिले, न कि अनिच्छा और जबरदस्ती से।"
पता नहीं क्यों मुझे सुरेश की अपेक्षा नेहा से घोर वितृष्णा हुई। इससे पहले कि वह मुझे कुछ कहती मैंने सुरेश को हामी भर दी।
मुझे कुछ याद नहीं, उसके बाद क्या कैसे हुआ। मेरे कानों में शब्द असंबद्ध-से पड़ रहे थे जिनका सिलसिला जोड़ने की मुझमें ताकत नहीं थी। मैं समझने की क्षमता से दूर उनकी
हरकतों को किसी विचारशून्य गुड़िया की तरह देख रही थी, उनमें साथ दे रही थी। अब नंगापन एक छोटी सी बात थी, जिससे मैं काफी आगे निकल गई थी।
'कैंची', 'रेजर', 'क्रीम', 'ऐसे करो', 'ऐसे पकड़ो', 'ये है', 'ये रहा', 'वहाँ बीच में', 'कितने गीले', 'सम्हाल के', 'लोशन', 'सपना-सा है'…………… वगैरह वगैरह स्त्री-पुरुष की
मिली-जुली आवाजें, मिले-जुले स्पर्श।
बस इतना समझ पाई थी कि वे दोनों बड़ी तालमेल और प्रसन्नता से काम कर रहे थे। मैं बीच बीच में मन में उठनेवाले प्रश्नों को 'पूर्ण सहमति दी है' के रोडरोलर के नीचे रौंदती चली गई। पूछा नहीं कि वे वैसा क्यों कर रहे थे, मुझे वहाँ पर मूँडने की क्या आवश्यकता थी।
लोशन के उपरांत की जलन के बाद ही मैंने देखा वहाँ क्या हुआ है। शंख की पीठ-सी उभरी गोरी चिकनी सतह ऊपर ट्यूब्लाइट की रोशनी में चमक रही थी। नेहा ने जब एक उजला टिशू पेपर मेरे होंठों के बीच दबाकर उसका गीलापन दिखाया तब मैंने समझा कि मैं किस स्तर तक गिर चुकी हूँ। एक अजीब सी गंध, मेरे बदन की, मेरी उत्तेजना की, एक नशा, आवेश, बदन में गर्मी का एहसास… बीच बीच में होश और सजगता के आते द्वीप।
जब नेहा ने मेरे सामने लहराती उस चीज की दिखाते हुए कहा, 'इसे मुँह में लो !'
नेहा ने जब एक उजला टिशू पेपर मेरे होंठों के बीच दबाकर उसका गीलापन दिखाया तब मैंने समझा कि मैं किस स्तर तक गिर चुकी हूँ। एक अजीब सी गंध, मेरे बदन की, मेरी उत्तेजना की, एक नशा, आवेश, बदन में गर्मी का एहसास… बीच बीच में होश और सजगता के आते द्वीप।
जब नेहा ने मेरे सामने लहराती उस चीज की दिखाते हुए कहा, 'इसे मुँह में लो !'
तब मुझे एहसास हुआ कि मैं उस चीज को जीवन में पहली बार देख रही हूँ। साँवलेपन की तनी छाया, मोटी, लंबी, क्रोधित ललाट-सी नसें, सिलवटों की घुंघचनों के अन्दर से आधा झाँकता मुलायम गोल गुलाबी मुख- शर्माता, पूरे लम्बाई की कठोरता के प्रति विद्रोह-सा करता। मैं नेहा के चेहरे को देखती रह गई। यह मुझे क्या कह रही है!
"इसे गीला करो, नहीं तो अन्दर कैसे जाएगा।" नेहा ने मेरा हाथ पकड़कर उसे पकड़ा दिया।
"निशा, यू हैव प्रॉमिस्ड।"
मेरा हाथ अपने आप उस पर सरकने लगा। आगे-पीछे, आगे-पीछे।
"हाँ, ऐसे ही।" मैं उस चीज को देख रही थी। उसका मुझसे परिचय बढ़ रहा था।
"अब मुँह में लो।"
मुझे अजीब लग रहा था। गंदा भी........... ।
"हिचको मत। साफ है। सुबह ही नहाया है।" नेहा की मजाक करने की कोशिश........।
मेरे हाथ यंत्रवत हरकत करते रहे।
"लो ना !" नेहा ने पकड़कर उसे मेरे मुँह की ओर बढ़ाया। मैंने मुँह पीछे कर लिया।
"इसमें कुछ मुश्किल नहीं है। मैं दिखाऊँ?"
नेहा ने उसे पहले उसकी नोक पर एक चुम्बन दिया और फिर उसे मुँह के अन्दर खींच लिया। सुरेश के मुँह से साँस निकली। उसका हाथ नेहा के सिर के पीछे जा लगा। वह उसे चूसने लगी। जब उसने मुँह निकाला तो वह थूक में चमक रहा था। मैं आश्चर्य में थी कि सदमे में, पता नहीं।
नेहा ने अपने थूक को पोंछा भी नहीं, मेरी ओर बढ़ा दिया- यह लो।
"लो ना.......!" उसने उसे पकड़कर मेरी ओर बढ़ाया। सुरेश ने पीछे से मेरा सिर दबाकर आगे की ओर ठेला। लिंग मेरे होंठों से टकराया। मेरे होंठों पर एक मुलायम, गुदगुदा एहसास। मैं दुविधा में थी कि मुँह खोलूँ या हटाऊँ कि "निशा, यू हैव प्रॉमिस्ड" की आवाज आई।
मैंने मुँह खोल दिया।
मेरे मुँह में इस तरह की कोई चीज का पहला एहसास था। चिकनी, उबले अंडे जैसी गुदगुदी, पर उससे कठोर, खीरे जैसी सख्त, पर उससे मुलायम, केले जैसी। हाँ, मुझे याद आया। सचमुच इसके सबसे नजदीक केला ही लग रहा था। कसैलेपन के साथ। एक विचित्र-सी गंध, कह नहीं सकती कि अच्छी लग रही थी या बुरी। जीभ पर सरकता हुआ जाकर गले से सट जा रहा था। नेहा मेरा सिर पीछे से ठेल रही थी। गला रुंध जा रहा था और भीतर से उबकाई का वेग उभर रहा था।
"हाँ, ऐसे ही ! जल्दी ही सीख जाओगी।"
मेरे मुँह से लार चू रहा था, तार-सा खिंचता। मैं कितनी गंदी, घिनौनी, अपमानित, गिरी हुई लग रही हूँगी।
सुरेश आह ओह करता सिसकारियाँ भर रहा था।
फिर उसने लिंग मेरे मुँह से खींच लिया। "ओह अब छोड़ दो, नहीं तो मुँह में ही........."
मेरे मुँह से उसके निकलने की 'प्लॉप' की आवाज निकलने के बाद मुझे एहसास हुआ मैं उसे कितनी जोर से चूस रही थी। वह साँप-सा फन उठाए मुझे चुनौती दे रहा था।
उन दोनों ने मुझे पेट के बल लिटा दिया। पेड़ू के नीचे तकिए डाल डालकर मेरे नितम्बों को उठा दिया। मेरे चूतड़ों को फैलाकर उनके बीच कई लोंदे वैसलीन लगा दिया।
कुर्बानी का क्षण ! गर्दन पर छूरा चलने से पहले की तैयारी।
"पहले कोई पतली चीज से !"
नेहा मोमबत्ती का पैकेट ले आई। हमने नया ही खरीदा था। पैकेट फाड़कर एक मोमबत्ती निकाली। कुछ ही क्षणों में गुदा के मुँह पर उसकी नोक गड़ी। नेहा मेरे चूतड़ फैलाए थी। नाखून चुभ रहे थे। सुरेश मोमबत्ती को पेंच की तरह बाएँ दाएँ घुमाते हुए अन्दर ठेल रहा था। मेरी गुदा की पेशियाँ सख्त होकर उसके प्रवेश का विरोध कर रही थीं। वहाँ पर अजीब सी गुदगुदी लग रही थी।
जल्दी ही मोम और वैसलीन के चिकनेपन ने असर दिखाया और नोक अन्दर घुस गई। फिर उसे धीरे धीरे अन्दर बाहर करने लगा।
मुझसे कहा जा रहा था,"रिलैक्सन... रिलैक्सव... टाइट मत करो... ढीला छोड़ो... रिलैक्स ... रिलैक्स....."
मैं रिलैक्स करने, ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही थी।
कुछ देर के बाद उन्होंने मोमबत्ती निकाल ली। गुदा में गुदगुदी और सुरसुरी उसके बाद भी बने रहे।
कितना अजीब लग रहा था यह सब ! शर्म नाम की चिड़िया उड़कर बहुत दूर जा चुकी थी।
"अब असली चीज !" उसके पहले सुरेश ने उंगली घुसाकर छेद को खींचकर फैलाने की कोशिश की, "रिलैक्स ... रिलैक्स .. रिलैक्स....."
जब 'असली चीज' गड़ी तो मुझे उसके मोटेपन से मैं डर गई। कहाँ मोमबत्ती का नुकीलापन और कहाँ ये भोथरा मुँह। दुखने लगा। सुरेश ने मेरी पीठ को दोनों हाथों से थाम लिया। नेहा ने दोनों तरफ मेरे हाथ पकड़ लिए, गुदा के मुँह पर कसकर जोर पड़ा, उन्होंने एक-एक करके मेरे घुटनों को मोड़कर सामने पेट के नीचे घुसा दिया गया। मेरे नितम्ब हवा में उठ गए। मैं आगे से दबी, पीछे से उठी। असुरक्षित। उसने हाथ घुसाकर मेरे पेट को घेरा ...
अन्दर ठेलता जबर्दस्तब दबाव…
ओ माँ.ऽऽऽऽऽऽऽ…
पहला प्यार, पहला प्रवेश, पहली पीड़ा, पहली अंतरंगता, पहली नग्नता... क्या-क्या सोचा था। यहाँ कोई चुम्बन नहीं था, न प्यार भरी कोई सहलाहट, न आपस की अंतरंगता जो वस्त्रनहीनता को स्वादिष्ट और शोभनीय बनाती है। सिर्फ रिलैक्स... रिलैक्स .. रिलैक्सप का यंत्रगान.....
मोमबत्ती की अभ्‍यस्त‍ गुदा पर वार अंतत: सफल रहा- लिंग गिरह तक दाखिल हो गया। धीरे धीरे अन्दर सरकने लगा। अब योनि में भी तड़तड़ाहट होने लगी। उसमें ठुँसा केला दर्द करने लगा।
"हाँ हाँ हाँ, लगता है निकल रहा है !" नेहा मेरे नितम्बों के अन्दर झाँक रही थी।
"मुँह पर आ गया है... मगर कैसे खींचूं?"
लिंग अन्दर घुसता जा रहा था। धीरे धीरे पूरा घुस गया और लटकते फोते ने केले को ढक दिया।
"बड़ी मुश्किल है।" नेहा की आवाज में निराशा थी।
"दम धरो !" सुरेश ने मेरे पेट के नीचे से तकिए निकाले और मेरे ऊपर लम्बा होकर लेट गया। एक हाथ से मुझे बांधकर अन्दर लिंग घुसाए घुसाए वह पलटा और मुझे ऊपर करता हुआ मेरे नीचे आ गया। इस दौरान मेरे घुटने पहले की तरह मुड़े रहे।
मैं उसके पेट के ऊपर पीठ के बल लेटी हो गई और मेरा पेट, मेरा योनिप्रदेश सब ऊपर सामने खुल गए।
नेहा उसकी इस योजना से प्रशंसा से भर गई,"यू आर सो क्लैवर !"
उसने मेरे घुटने पकड़ लिए। मैं खिसक नहीं सकती थी। नीचे कील में ठुकी हुई थी।
मेरी योनि और केला उसके सामने परोसे हुए थे। नेहा उन पर झुक गई।
'ओह...' न चाहते हुए भी मेरी साँस निकल गई। नेहा के होठों और जीभ का मुलायम, गीला, गुलगुला... गुदगुदाता स्पर्श। होंठों और उनके बीच केले को चूमना चूसना... वह जीभ के अग्रभाग से उपर के दाने और खुले माँस को कुरेद कुरेदकर जगा रही थी। गुदगुदी लग रही थी और पूरे बदन में सिहरनें दौड़ रही थीं। गुदा में घुसे लिंग की तड़तड़ाहट,योनि में केले का कसाव, ऊपर नेहा की जीभ की रगड़... दर्द और उत्तेजना का गाढ़ा घोल...
मेरा एक हाथ नेहा के सिर पर चला गया। दूसरा हाथ बिस्तर पर टिका था, संतुलन बनाने के लिए।
सुरेश ने लिंग को किंचित बाहर खींचा और पुन: मेरे अन्दर धक्का दिया। नेहा को पुकारा, "अब तुम खींचो....."
नेहा के होंठ मेरी पूरी योनि को अपने घेरे में लेते हुए जमकर बैठ गए। उसने जोर से चूसा। मेरे अन्दर से केला सरका....
एक टुकड़ा उसके दाँतों से कटकर होंठों पर आ गया। पतले लिसलिसे द्रव में लिपटा। नेहा ने उसे मुँह के अन्दर खींच लिया और "उमऽऽऽ, कितना स्वादिष्ट है !" करती हुई चबाकर खा गई।
मैं देखती रह गई, कैसी गंदी लड़की है !
मेरे सिर के नीचे सुरेश के जोर से हँसने की आवाज आई। उसने उत्साठहित होकर गुदा में दो धक्के और जड़ दिये।
नेहा पुन: चूसकर एक स्लाइस निकाली।
सुरेश पुकारा,"मुझे दो।"
पर नेहा ने उसे मेरे मुँह में डाल दिया, "लो, तुम चखो।"
वही मुसाई-सी गंध मिली केले की मिठास। बुरा नहीं लगा। अब समझ में आया क्यों लड़के योनि को इतना रस लेकर चाटते चूसते हैं। अब तक मुझे यह सोचकर ही कितना गंदा लगता था पर इस समय वह स्वाभाविक, बल्कि करने लायक लगा। मैं उसे चबाकर निगल गई।
नेहा ने मेरा कंधा थपथपाया,"गुड..... स्वादिष्ट है ना?"
वह फिर मुझ पर झुक गई। कम से कम आधा केला अभी अन्दर ही था।
"खट खट खट" ............. दरवाजे पर दस्तक हुई।
वह फिर मुझ पर झुक गई। कम से कम आधा केला अभी अन्दर ही था।
"खट खट खट !" ............. दरवाजे पर दस्तक हुई।
मैं सन्न। वे दोनों भी सन्न। यह क्या हुआ?
"खट खट खट" ..... "सुरेश, दरवाजा खोलो।"
निर्मल उसके हॉस्टल से आया था। उसको मालूम था कि सुरेश यहाँ है।
किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। लड़कियों के कमरे में लड़का घुसा हुआ और दरवाजा बंद? क्या कर रहे हैं वे !!
"खट खट खट.... क्या कर रहे हो तुम लोग?"
जल्दी खोलना जरूरी था। नेहा बोली, "मैं देखती हूँ।" सुरेश ने रोकना चाहा पर समय नहीं था। नेहा ने अपने बिस्तर की बेडशीट खींचकर मेरे उपर डाली और दरवाजे की ओर बढ़ गई। निर्मल नेहा की मित्र मंडली में काफी करीब था।
किवाड़ खोलते ही "बंद क्यों है?" कहता निर्मल अन्दर आ गया। नेहा ने उसे दरवाजे पर ही रोककर बात करने की कोशिश की मगर वह "सुरेश बता रहा था निशा को कुछ परेशानी है?" कहता हुआ भीतर घुस गया।
मुझे गुस्सा आया कि नेहा ने किवाड़ खोल क्यों दिया, बंद दरवाजे के पीछे से ही बात करके उसे टालने की कोशिश क्यों नहीं की।
उसकी नजर चादर के अन्दर मेरी बेढब ऊँची-नीची आकृति पर पड़ी।
"यह क्या है?"उसने चादर खींच दी। सब कुछ नंगा, खुल गया..... चादर को पकड़कर रोक भी नहीं पाई। उसकी आँखें फैल गर्इं।
मुझे काटो तो खून नहीं। कोई कुछ नहीं बोला। न नेहा, न मेरे नीचे दबा सुरेश, न मैं।
निर्मल ढिठाई से हँसा, "तो यह परेशानी है निशा को... इसे तो मैं भी दूर कर सकता था।" वह सुरेश की तरह जेंटलमैन नहीं था।
'नहीं, यह परेशानी नहीं है !' नेहा ने आगे बढ़कर टोका।
"तो फिर?"
"इसके अन्दर केला फँस गया है। देखते नहीं?"
सुरेश मेरे नीचे दुबका था। मेरे दोनों पाँव सहारे के लिए सुरेश की जांघों के दोनों तरफ बिस्तर पर जमे थे। टांगें समेटते ही गिर जाती। निर्मल बिना संकोच के कुछ देर वहाँ पर देखा। फिर उसने नजर उठाकर मुझे, फिर निशा को देखा। हम दोनों के मुँह पर केला लगा हुआ था। मुझे लग गया कि वह समझ गया है। व्यंग्य भरी हँसी से बोला, "तो केले का भोज चल रहा है!!" उंगली बढ़ाकर उसने मेरे मुँह पर लगे केले को पोछा और मेरी योनि की ओर इशारा करके बोला, "इसमें पककर तो और स्वादिष्ट हो गया होगा?"
हममें से कौन भला क्या कहता?
"मुझे भी खिलाओ।" वह हमारे हवाइयाँ उड़ते चेहरे का मजा ले रहा था।
"नहीं खिलाना चाहते? ठीक है, मैं चला जाता हूँ।"
रक्त शरीर से उठकर मेरे माथे में चला आया। बाहर जाकर यह बात फैला देगा। पता नही मैंने क्या कहा या किया कि नेहा ने निर्मल को पकड़कर रोक लिया। वह बिस्तर पर चढ़ी, मेरे पैरों को फैलाकर मेरी योनि में मुँह लगाकर चूसकर एक टुकड़ा काट ली। निर्मल ने उसे टोका, 'मुँह में ही रखो, मैं वहीं से खाऊँगा।' उसने नेहा का चेहरा अपनी ओर घुमा लिया।
दोनों के मुँह जुड़ गए।
यह सब क्या हो रहा था? मेरी आंखों के सामने दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पकड़कर चूम चूस रहे थे। नेहा उसे खिला रही थी, वह खा रहा था।
निर्मल मुँह अलग कर बोला, "आहाहा, क्या स्वाद है। दिव्य, सोमरस में डूबा, आहाहा, आहाहा… दो दो जगहों का।" फिर मुँह जोड़ दिया।
दो दो जगहों का? हाँ, मेरी योनि और नेहा के मुख का। सोमरस। मेरी योनि की मुसाई गंध के सिवा उसमें नेहा के मुँह की ताजी गंध भी होगी। कैसा स्वाद होगा? छि: ! मैंने अपनी बेशर्मी के लिए खुद को डाँटा।
"अब मुझे सीधे प्याले से ही खाने दो।"
नेहा हट गई। निर्मल उसकी जगह आ गया। मैंने न जाने कौन सेी हिम्मत जुटा ली थी। जब सब कुछ हो ही गया था तो अब लजाने के लिए क्या बाकी रहा था। मैंने उसे अपने मन की करने दिया। अंतिम छोटा-सा ही टुकड़ा अन्दर बचा था। अंतिम कौर।
"मेरे लिए भी रहने देना।" मेरे नीचे से सुरेश ने आवाज लगाई। अब तक उसमें हिम्मत आ गई थी।
"तुम कैसे खाओगे? तुम तो फँसे हुए हो।" निर्मल ने कहकहा लगाया, "फँसे नहीं, धँसे हुए....."
नेहा ने बड़े अभिभावक की तरह हस्तक्षेप किया, "निर्मल, तुम सुरेश की जगह लो। सुरेश को फ्री करो।"
क्या ????
हैरानी से मेरा मुँह इतना बड़ा खुल गया। नेहा यह क्या कर रही है?
निर्मल ने झुककर मेरे खुले मुँह पर चुंबन लगाया, "अब शोर मत करो।"
उसने जल्दी से बेल्ट की बकल खोली, पैंट उतारी। चड़ढी सामने बुरी तरह उभरी तनी हुई थी। उभरी जगह पर गीला दाग।
वह मेरे देखने को देखता हुआ मुसकुराया, "अच्छी तरह देख लो।" उसने चड्डी नीचे सरका दी। "यह रहा, कैसा है?"
इस बार डर और आश्चर्य से मेरा मुँह खुला रह गया।
वह बिस्तर पर चढ़ गया और मेरे खुले मुँह के सामने ले आया,"लो, चखो।"
मैंने मुँह घुमाना चाहा पर उसने पकड़ लिया,"मैंने तुम्हारा वाला तो स्वाद लेकर खाया, तुम मेरा चखने से भी डरती हो?"
मेरी स्थिति विकट थी, क्या करूँ, लाचार मैंने नेहा की ओर देखा, वह बोली, "चिंता न करो। गो अहेड, अभी सब नहाए धोए हैं।"
मुझे हिचकिचाते देखकर उसने मेरा माथा पकड़ा और उसके लिंग की ओर बढ़ा दिया।
निर्मल का लिंग सुरेश की अपेक्षा सख्त और मोटा था। उसके स्वभाव के अनुसार। मुँह में पहले स्पर्श में ही लिसलिसा नमकीन स्वाद भर गया। अधिक मात्रा में रिसा हुआ रस। मुझे वह अजीब तो नहीं लगा, क्योंकि सुरेश के बाद यह स्वाद और गंध अजनबी नहीं रह गए थे लेकिन अपनी असहायता और दुर्गति पर बेहद क्षोभ हो रहा था। मोटा लिंग मुँह में भर गया था। निर्मल उसे ढिठाई से मेरे गले के अन्दर ठेल रहा था। मुझे बार बार उबकाई आती। दम घुटने लगता। पर कमजोर नहीं दिखने की कोशिश में किए जा रही थी। नेहा प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी लेकिन साथ-साथ मेरी विवशता का आनन्द भी ले रही थी। जब जब निर्मल अन्दर ठेलता वह मेरे सिर को पीछे से रोककर सहारा देती। दोनों के चेहरे पर खुशी थी। नेहा हँस रही थी। मैं समझ रही थी उसने मुझे फँसाया है।
अंतत: निर्मल ने दया की। बाहर निकाला। आसन बदले जाने लगे। मुझे जिस तरह से तीनों किसी गुड़िया की तरह उठा उठाकर सेट करने लगे उससे मुझे बुरा लगा। मैंने विरोध करते हुए निर्मल को गुदा के अन्दर लेने से मना कर दिया,"मार ही डालोगे क्या?"
मुझे सुरेश की ही वजह से अन्दर काफी दुख रहा था। निर्मल के से तो फट ही जाती। और मैं उस ढीठ को अन्दर लेकर पुरस्कृत भी नहीं करना चाहती थी।
केला इतनी देर में अन्दर ढीला भी हो गया था। जितना बचा था वह आसानी से सुरेश के मुँह में खिंच गया। वह स्वाद लेकर केले को खा रहा था। उसके चेहरे पर बच्चे की सी प्रसन्नता थी।
उसने नेहा की तरह मुझे फँसाया नहीं था, न ही निर्मल की तरह ढीठ बनकर मुझे भोगने की कोशिश की थी। उसने तो बल्कि आफर भी किया था कि मैं नहीं चाहती हूँ तो वह चला जाएगा। पहली बार वह मुझे तीनों में भला लगा।
योनि खाली हुई लेकिन सिर्फ थोड़ी देर के लिए। उसकी अगली परीक्षाएँ बाकी थीं। सुरेश को दिया वादा दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था,'जो इज्जत केले को मिली है वह मुझे भी मिले।'
समस्या की सिर्फ जड़ खत्म हुई थी, डालियाँ-पत्ते नहीं।
काश, यह सब सिर्फ एक दु:स्वप्न निकले। मां संतोषी !
लेकिन दु:स्वप्न किसी न समाप्त होने वाली हॉरर फिल्म की तरह चलता जा रहा था। मैं उसकी दर्शक नहीं, किरदार बनी सब कुछ भुगत रही थी। मेरी उत्तेजना की खुराक बढ़ाई जा रही थी। सुरेश मेरी केले से खाली हुई योनि को पागल-सा चूम, चाट, चूस रहा था। उसकी दरार में जीभ घुसा-घुसाकर ढूँढ रहा था। गुदगुदी, सनसनाहट की सीटी कानों में फिर बजनी शुरू हो गई। होश कमजोर होने लगे।
क्या, क्यों, कैसे हो रहा है..... पता नहीं। नशे में मुंदती आँखों से मैंने देखा कि मेरी बाईं तरफ निर्मल, दार्इं तरफ नेहा लम्बे होकर लेट रहे हैं।
उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने शरीरों के नीचे दबा लिया है और मेरे पैरों को अपने पैरों के अन्दर समेट लिया है। मेरे माथे के नीचे तकिया ठीक से सेट किया जा रहा है और ..... स्तनों पर उनके हाथों का खेल। वे उन्हें सहला, दबा, मसल रहे हैं, उन्हें अलग अलग आकृतियों में मिट्टी की तरह गूंध रहे हैं। चूचुकों को चुटकियों में पकड़कर मसल रहे हैं, उनकी नोकों में उंगलियाँ गड़ा रहे हैं।
दर्द होता है, नहीं दर्द नहीं, उससे ठीक पहले का सुख, नहीं सुख नहीं, दर्द। दर्द और सुख दोनों ही।
वे चूचुकों को ऐसे खींच रहे हैं मानों स्तनों से उखाड़ लेंगे। खिंचाव से दोनों स्तन उल्टे शंकु के आकार में तन जाते हैं। नीचे मेरी योनि शर्म से आँखें भींचे है। सुरेश उसकी पलकों पर प्यार से ऊपर से नीचे जीभ से काजल लगा रहा है। उसकी पलकों को खोलकर अन्दर से रिसते आँसुओं को चूस चाट रहा है। पता नहीं उसे उसमें कौन-सा अद़भुत स्वाद मिल रहा है। मैं टांगें बंद करना चाहती हूँ लेकिन वे दोनों तरफ से दबी हैं।
विवश, असहाय। कोई रास्ता नहीं। इसलिए कोई दुविधा भी नहीं।
जो कुछ आ रहा है उसका सीधा सीधा बिना किसी बाधा के भोग कर रही हूँ। लाचार समर्पण। और मुझे एहसास होता है- इस निपट लाचारी, बेइज्जंती, नंगेपन, उत्तेजना, जबरदस्ती भोग के भीतर एक गाढ़ा स्वाद है, जिसको पाकर ही समझ में आता है।
शर्म और उत्तेजना के गहरे समुद्र में उतरकर ही देख पा रही हूँ आनन्दानुभव के चमकते मोती। चारों तरफ से आनन्द का दबाव। चूचुकों, योनि, भगनासा, गुदा का मुख, स्तनों का पूरा उभार, बगलें... सब तरफ से बाढ़ की लहरों पर लहरों की तरह उत्तेकजना का शोर।
पूरी देह ही मछली की तरह बिछल रही है। मैं आह आह कर कर रही हूँ वे उन आहों में मेरी छोड़ी जा रही सुगंधित साँस को अपनी साँस में खीच रहे हैं। मेरे खुलते बंद होते मुँह को चूम रहे हैं।
निर्मल, नेहा, सुरेश.... चेहरे आँखों के सामने गड्डमड हो रहे हैं, वे चूस रहे हैं, चूम रहे हैं, सहला रहे हैं,… नाभि, पेट,, नितंब, कमर, बांहें, गाल, सभी… एक साथ..। प्यार? वह तो कोई दूसरी चीज है- दो व्यक्तियों का बंधन, प्रतिबद्धता। यह तो शुद्ध सुख है, स्वतंत्र, चरम, अपने आप में पूरा। कोई खोने का डर नहीं, कोई पाने का लालच नहीं। शुद्ध शारीरिक, प्राकृतिक, ईश्वर के रचे शरीर का सबसे सुंदर उपहार।
ह: ह: ह: तीनों की हँसी गूंजती है। वे आनन्दमग्न हैं। मेरा पेट पर्दे की तरह ऊपर नीचे हो रहा है, कंठ से मेरी ही अनपहचानी आवाजें निकल रही हैं।
मैं आँखें खोलती हूँ, सीधी योनि पर नजर पड़ती है और उठकर सुरेश के चेहरे पर चली जाती है, जो उसे दीवाने सा सहला, पुचकार रहा है। उससे नजर मिलती है और झुक जाती है। आश्चर्य है इस अवस्था में भी मुझे शर्म आती है।
वह झुककर मेरी पलकों को चूमता है। नेहा हँसती है। निर्मल, वह बेशर्म, कठोर मेरी बाईं चुचूक में दाँत काट लेता है। दर्द से भरकर मैं उठना चाहती हूँ। पर उनके भार से दबी हूँ। नेहा मेरे होंठ चूस रही है।
सुरेश कह रहा है,"अब मैं वह इज्जत लेने जा रहा हूँ जो तुमने केले को दी।"
मैं उसके चेहरे को देखती हूँ, एक अबोध की तरह, जैसे वह क्या करने वाला है मुझे नहीं मालूम।
नेहा मुझे चिकोटी काटती है,"डार्लिंग, तैयार हो जाओ, इज्जत देने के लिए। तुम्हारा पहला अनुभव। प्रथम संभोग, हर लड़की का संजोया सपना।"
सुरेश अपना लिंग मेरी योनि पर लगाता है, होंठों के बीच धँसाकर ऊपर नीचे रगड़ता है।
नेहा अधीर है,"अब और कितनी तैयारी करोगे? लाओ मुझे दो।"
उठकर सुरेश के लिंग को खींचकर अपने मुँह में ले लेती है।
मैं ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ उसे यह करते देखकर गुस्सा भी नही आ रहा।
नेहा कुछ देर तक लिंग को चूसकर पूछती है,"अब तैयार हो ना? करो !"
निर्मल बेसब्र होकर होकर सुरेश को कहता है,"तुम हटो, मैं करके दिखाता हूँ।"
मैं अपनी बाँह से पकड़कर उसे रोकती हूँ। वह मुझे थोड़ा आश्चर्य से देखता है।
नेहा झुककर मेरे योनि के होंठों को खोलती है। निर्मल मेरा बायाँ पैर अपनी तरफ खींचकर दबा देता है, ताकि विरोध न कर सकूँ।
मैं विरोध करूंगी भी नहीं, अब विरोध में क्या रखा है, मैं अब परिणाम चाहती हूँ।
सुरेश छेद के मुँह पर लिंग टिकाता है, दबाव देता है। मैं साँस रोक लेती हूँ, मेरी नजर उसी बिन्दु पर टिकी है। केले से दुगुना मोटा और लम्बा।
छेद के मुँह पर पहली खिंचाव से दर्द होता है, मैं उसे महत्व नहीं देती।
सुरेश फिर से ठेलता है, थोड़ा और दर्द। वह समझ जाता है मुझे तोड़ने में श्रम करना होगा।
नेहा को अंदाजा हो रहा है, वह उसका चेहरा देख रही है। वह उसे हमेशा निर्मल की अपेक्षा अधिक तरजीह देती है। मुझे यह बात अच्छी लगती है। निर्मल जबर्दस्ती घुस आया है।
नेहा पूछती है,"वैसलीन लाऊँ?" पर इसकी जरूरत नहीं, चूमने चाटने से पहले से ही काफी गीली है।
सुरेश बोलता है,"इसको ठीक से पकड़ो।"
दोनों मुझे कसकर पकड़ लेते हैं। सुरेश, एक भद्रपुरुष अब एक जानवर की तरह जोर लगाता है, मेरे अन्दर लकड़ी-सी घुसती है, चीख निकल जाती है मेरी।
मैं हटाने के लिए जोर लगाती हूँ, पर बेबस।
सुरेश बाहर निकालता है, लेकिन थोड़ा ही। लिंग का लाल डरावना माथा अन्दर ही है। मेरा पेट जोर जोर से ऊपर नीचे हो रहा है।
मेरी सिसकियाँ सुनकर नेहा दिलासा दे रही है,"बस पहली बार ही...... "
निर्मल- असभ्य जानवर क्रूर खुशी से हँस रहा है, कहता है,"बस, अबकी बार इसे फाड़ दे।"
नेहा उसे डाँटती है।
ललकार सुनकर सुरेश की आँखों में खून उतर आया है।
मुझे मर्दों से डर लगता है, कितने भी सभ्य हों, कब वहशी बन जाएँ, ठिकाना नहीं।
नेहा सुरेश को टोकती है,"धीरे से !"
मगर सुरेश के मुँह से 'हुम्म' की-सी आवाज निकलती है और एक भीषण वार होता है।
मेरी आँखों के आगे तारे नाच जाते हैं, निर्मल और नेहा मुँह बंद कर मेरी चीख दबा देते हैं।
कुछ देर के लिए चेतना लुप्त हो जाती है...
मेरी आँखें खुलती हैं, नजर सीधी वहीं पर जाती है। सुरेश का पेडू मेरे पेडू से मिला हुआ है। लिंग अदृश्य है। मेरे ताजे मुंडे हुए पेडू में उसके पेड़ू के छोटे छोटे बालों की खूंटियाँ गड़ रही हैं।
सब मेरा चेहरा देख रहे हैं। नेहा से नजर मिलने पर वह मुसकुराती है। सुरेश धीरे धीरे लिंग निकालता है। लिंग का माथा लाल खून में चमक रहा है। मुझे खून देखकर डर लगता है। आँसू निकल जाते हैं, यह मेरा क्या कर डाला।
लेकिन नेहा प्रफुल्लित है, वह 'बधाई हो' कहकर मेरा गाल थपथपाती है।
निर्मल ताली बजाता है,"क्या बात है यार, एकदम फाड़ डाला !"
सुरेश मानों सिर झुकाकर प्रशंसा स्वीकार करता है।
सभी मुस्कुरा रहे हैं, मैं सिर घुमा लेती हूँ।
निर्मल बढ़ता है और मेरी योनि से रिस रहे रक्त को उंगली पर उठाता है और उसे चाट जाता है,"आइ लाइक ब्ल्ड" (मुझे खून पसंद है।)
नेहा उसे देखती रह जाती है, कैसा आदमी है !
निर्मल उत्साह में है,"तगड़ा माल तोड़ा है तूने याऽऽऽऽर...... "
बार-बार बहते खून को देख रहा है।
सुरेश आवेश में है, खून और निर्मल की उकसाहटें उसे भी जानवर बना देती हैं। वह फिर से लिंग को मेरी योनि पर लगाता है और एक ही धक्के में पूरा अन्दर भेज देता है। मैं विरोध नहीं करती, हालाँकि अब मेरे हाथ पैर छोड़ दिए गए हैं, पर अब बचाने को क्या बचा है?
नेहा भी उत्साहित है,"अब मालूम हो रहा होगा इसको असली सेक्स का स्वाद। इतने दिन से मेरे सामने सती माता बनी हुई थी। आज इसका घमण्ड टूटा। जब से इसे देखा था तभी से मैं इस क्षण का इंतजार कर रही थी।"
निर्मल भी साथ देता है।
रक्त और चिकने रसों की फिसलन से ही लिंग बार बार घुस जा रहा है, नहीं तो रास्ता बहुत तंग है और इतना खिंचाव होता है कि दर्द करता है। केले से दुगुना लम्बा और मोटा होगा। मैं सह रही हूँ। योनि को ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही हूँ ताकि दर्द कम हो।
सुरेश मेरे ऊपर लेट गया है और मुझमें हाथ घुसाकर लपेट लिया है, मुझे चूम रहा है, कोंच रहा है कि उसके चुम्बनों का जवाब दूँ।
मेरी इच्छा नहीं है लेकिन....।
वह जितना हो सकता है मुझमें धँसे हुए ही ऊपर-नीचे कर रहा है। मुझे छूटने, साँस लेने, योनि को राहत देने का मौका ही नहीं मिलता।
इससे अच्छा तो है यह जल्दी खत्म हो।
मैं उसके चुम्बनों का जवाब देती हूँ।
मेरी जांघों पर उसकी जांघें सरक रही हैं, मेरे हाथ उसकी पीठ के पसीने पर फिसल रहे हैं। मेरी गुदा के अगल बगल नितम्बों पर जांघें टकरा रही हैं- थप थप थप थप।
रह-रहकर गुदा के मुँह पर फोते की गोली चोट कर जाती है। उससे गुदा में मीठी गुदगुदी होती है। निर्मल और नेहा मेरे स्तन चूस रहे हैं, मेरे पेट को, नितम्बों को सहला रहे हैं।
अचानक गति बढ़ जाती है, शायद सुरेश कगार पर है, जोर जोर की चोट पड़ने लगी है, योनि में चल रहा घर्षण मुझे कुछ सोचने ही नहीं दे रहा, हाँफ रही हूँ, हर तरफ चोट, हर तरफ से वार।
दिमाग में बिजलियाँ चमक रही हैं।
"अब मेरा झड़ने वाला है।"
"देखो, यह भी पीक पर आ गई है।"
"अन्दर ही कर रहा हूँ।"
"तुम केला निकालने आए हो या इसे प्रेग्नेंट करने?"
"याऽऽर... अन्दर ही कर दे। मजा आएगा।"
निर्मल उसे निकालने से रोक रहा है। "साली की मासिक रुक गई तब तो और मजा आ जाएगा।"
"आह, आह, आह" मेरे अन्दर झटके पड़ रहे हैं।
"गुड, गुड, गुड, नेहा, तुम इसकी क्लिेटोरिस सहलाओ। इसको भी साथ फॉल कराओ।"
एक हाथ मेरे अन्दर रेंग जाता है। सुरेश मुझ पर लम्बा हो गया है। मुझे कसकर जकड़ लेता है। जैसे हड़डी तोड़ देगा। भगनासा बुरी तरह कुचल रही है। ओऽऽऽह... ओऽऽऽह... ओऽऽऽह.....
गुदा के अन्दर कोई चीज झटके से दाखिल हो जाती है।
मैं खत्म हूँ .........
मैं खत्म हूँ .........
मैं खत्म हूँ .........
जिंदगी वापस लौटती है। नेहा सीधे मेरी आँखों में देख रही है, चेहरे पर विजयभरी मुस्कान, बड़ी ममता से मेरी ललाट का पसीना पोछती है, होंठों के एक किनारे से मेरी निकल आई लार को जीभ पर उठा लेती है। लगता है वह सचमुच वह मुझे प्यार करती है? बहुत तकलीफ होती है मुझे इस बात से।
वह रुमाल से मेरी योनि, मेरी गुदा पोंछ रही है। मेरा सारा लाज-शर्म लुट चुका है। फिर भी पाँव समेटना चाहती हूँ। नेहा रुमाल उठाकर दिखाती है। उसमें खून और वीर्य के भीगे धब्बे हैं।
वह उसे सुरेश को दे देती है,"तुम्हारी यादगार।"
मैं उठने का उपक्रम करती हूँ, निर्मल मुझे रोकता है,"रुको, अभी मेरी बारी है।"
"तुम्हारी बारी क्यों?" नेहा आपत्ति करती है।
"क्यों? मैं इसे नहीं लूँगा?"
"तुमने क्या इसे वेश्या समझ रखा है?" नेहा की आवाज अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है।
'क्यों ? फिर सुरेश ने कैसे लिया?"
"उसने तो उसे समस्या से निकाला। तुमने क्या किया?"
निर्मल नहीं मानता। "नहीं मैं करूँगा।"
सुरेश कपड़े पहन रहा है। उसका हमदर्दी दोस्त के प्रति है। कमीज के बटन लगाते हुए कहता है,"करने दो ना इसे भी।"
नेहा गुस्से में आ जाती है, "तुम लोग लड़की को क्या समझते हो? खिलौना?" नेहा मुझे बिस्तर से खींचकर खड़ी कर देती है,"तुम कपड़े पहनो।"
फिर वह उन दोनों की ओर पलट कर बोलती है,"लगता है तुम लोगों ने मेरे व्यवहार का गलत मतलब निकाला है। सुनो निर्मल, जितना तुम्हें मिल गया वही तुम्हारा बहुत बड़ा भाग्य है। अब यहीं से लौट जाओ। तुम मेरे दोस्त हो। मैं नहीं चाहती मुझे तुम्हा‍रे खिलाफ कुछ करना पड़े।
निर्मल कहता है,"यह तो अन्याय है। एक दोस्त‍ को फेवर करती हो एक को नहीं।"
नेहा,"तुम मुझे न्याय सिखा रहे हो? जबरदस्ती घुस आए और ....."
निर्मल,"सुरेश को तो बुलाकर दिलवाया, मैं खुद आया तब भी नहीं? यह क्या तुम्हारा यार लगता है?"
नेहा की तेज आवाज गूंजी,"तुम मुझे गाली दे रहे हो?"
सुरेश को भी उसके ताने से से क्रोध आ जाता है,"निर्मल, छोड़ो इसे।"
"चुप रह बे ! तू क्या नेहा का भड़ुआ है? एक लड़की चुदवा दी तो बड़ा पक्ष लेने लगा।"
पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है। दोनों की एक साथ 'खबरदार' गूंज जाती है, मारने के लिए दौड़े सुरेश को नेहा रोकती है।
निर्मल पर उसकी उंगली तन जाती है,"खबरदार एक लफ्ज भी आगे बोले, चुपचाप यहाँ से निकल जाओ। मत भूलो कि लड़कियों के हॉस्टल में एक लड़की के कमरे में खड़े हो। यहीं खड़े खड़े अरेस्ट हो जाओगे।"
मैं जल्दी-जल्दी कपड़े पहन रही हूँ।
कमरे की चिल्लाहटें बाहर चली जाती हैं, दस्तक होने लगती है,"क्या़ बात है नेहा, दरवाजा खोलो !"
अब मामला निर्मल के हाथ से निकल चुका है, वह कुंठा में अपने मुक्के में मुक्का मारता है।
मैं सुरक्षित हूँ। मेरा खून चखने वाले उसे राक्षस को एक लात जमाने की इच्छा होती है !
दुर्घटना से उबर चुकी हूँ। लेकिन स्थाई जख्म के साथ।
नेहा निर्देश देती है,"कोई कुछ नहीं बोलेगा। सब कोई एकदम सामान्य सा व्यवहार करेंगे।"
नेहा दरवाजा खोलकर साथियों से बात कर रही है,'हाय अल्का, हाय प्रीति.... कुछ नहीं, हम लोग ऐसे ही सेलीब्रेट कर रहे थे। एक खास बाजी जीतने की।"
मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है, कहीं बता न दे। पर नेहा को गेंद गोल तक ले जाने फिर वहाँ से वापस लौटा लाने में मजा आता है। ऐसे सामान्य ढंग से बात कर रही है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बड़ी अभिनय-कुशल है।
उस दिन नेहा ने अपने करीबी दोस्त‍ निर्मल को खो दिया- मेरी खातिर। उस वहशी से मेरी रक्षा की। एक से बाद एक अपमान के दौर में एक जगह मेरे छोटे से सम्मान को बचाया।उसने मुझे केले के गहरे संकट से निकाला। कितना बड़ा एहसान किया उसने मुझपर !
लेकिन किस कीमत पर? मेरे मन और आत्मा में जो घाव लगा, मैं किसी तरह मान नहीं पाती कि उसके लिए नेहा जिम्मेदार नहीं थी। बल्कि उसी ने मेरी दुर्दशा कराई। उसी के उकसावे पर मैंने केले को आजमाया था। मेरी उस छोटी सी गलती को नेहा ने पतन की हर इंतिहा से आगे पहुँचा दिया।
फिर भी पहला दोष तो मेरा ही था। मैंने नेहा से दोस्ती तोड़ देनी चाही- बेहद अप्रत्यक्ष तरीके से, ताकि अहसान फरामोश नहीं दिखूँ।
पर मेरा उससे पिंड कहाँ छूटा। शायद न चाहते हुए भी मुझे उसे आगे और झेलना था।
 




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Raj Sharma

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