FUN-MAZA-MASTI
गुमराह पिता की हमराह बेटी--1
इस कहानी के किरदार व स्थानों के नाम उनकी वास्तविक पहचान छिपाने के लिए कुछ हद तक बदले गए हैं (लेकिन पूरी तरह से नहीं), जैसे कहीं पर किरदार का वास्तविक नाम न प्रयोग में लेकर उसका घरेलू (घर का नाम) इस्तेमाल किया गया है तो कहीं पर नाम को छोटा कर के लिखा गया है. इसी प्रकार स्थानों के नाम भी बदले गए हैं. जयसिंह (संक्षिप्त नाम) राजस्थान के एक धनवान व्यापारी हैं और यह कहानी उनके जीवन के वाक्यात बयां करती है.
मनिका ने अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद एम.बी.ए. करने का मन बना लिया था और उसके लिए एक एंट्रेंस एग्जाम दिया था जिसमे वह अच्छे अंकों से पास हो गई थी. उसे दिल्ली के एक कॉलेज से एडमिशन के लिए कॉल लैटर मिला था जिसमें उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था. जयसिंह ने भी उसे वहाँ जाने के लिए हाँ कह दिया था. मनिका पहली बार घर से इतनी दूर रहने जा रही थी सो वह काफी उत्साहित थी. मनिका ने दिल्ली जाने की तैयारियाँ शुरू कर दीं. वह कुछ नए कपड़े, जूते और मेक-अप का सामान खरीद लाई थी. जब उसकी माँ ने उसे ज्यादा खर्चा न करने की हिदायत दी तो जयसिंह ने चुपके से उसे अपना ए.टी.एम. कार्ड थमा दिया था. वैसे भी पहली संतान होने के कारण वह जयसिंह की लाड़ली थी. वे हमेशा उसकी हर ख्वाहिश पूरी करते रहे थे.
आखिर वह दिन भी आ गया जब उन्हें दिल्ली जाना था, जयसिंह मनिका के साथ जा रहे थे. उन दोनों का ट्रेन में रिजर्वेशन था.
'लवली?' संचिता ने मनिका को उसके घर के नाम से पुकारते हुए आवाज़ लगाई.
'जी मम्मी?' मनिका ने चिल्ला कर सवाल किया. उसका कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था.
'तुम तैयार हुई कि नहीं? ट्रेन का टाइम हो गया है, जल्दी से नीचे आ कर नाश्ता कर लो.' उसकी माँ ने कहा.
'हाँ-हाँ आ रही हूँ मम्मा.'
कुछ देर बाद मनिका नीचे हॉल में आई तो देखा कि उसके पिता और भाई-बहन पहले से डाइनिंग टेबल पर ब्रेकफास्ट कर रहे थे.
'गुड मोर्निंग पापा. मम्मी कहाँ है?' मनिका ने अभिवादन कर सवाल किया.
'वो कपड़े बदल कर अ....आ रही है.' जयसिंह ने मनिका की ओर देख कर जवाब दिया था. लेकिन मनिका के पहने कपड़ों को देख वे हकला गए थे.
बचपन से ही जयसिंह सिंह के कोई रोक-टोक न रखने की वजह से मनिका नए-नए फैशन के कपड़े ले आया करती थी और जयसिंह भी उसकी बचकानी जिद के आगे हार मान जाया करते थे. लेकिन बड़ी होते-होते उसकी माँ संचिता ने उसे टोकना शुरू कर दिया था. आज उसने अपनी नई लाई पोशाकों में से एक चुन कर पहनी थी. उसने लेग्गिंग्स के साथ टी-शर्ट पहन रखी थी. लेग्गिंग्स एक प्रकार की पजामी होती है जो बदन से बिलकुल चिपकी रहती है सो लड़कियां उन्हें लम्बे कुर्तों या टॉप्स के साथ पहना करती हैं, लेकिन मनिका ने उनके ऊपर एक छोटी सी टी-शर्ट पहन रखी थी जो मुश्किल से उसकी नाभी तक आ रही थी. लेग्गिंग्स में ढंके मनिका के जवान बदन के उभार पूरी तरह से नज़र आ रहे थे. उसकी टी-शर्ट भी स्लीवेलेस और गहरे गले की थी. जयसिंह अपनी बेटी को इस रूप में देख झेंप गए और नज़रें झुका ली.
'पापा कैसी लगी मेरी नई ड्रेस?' मनिका उनके बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोली.
'अ..अ..अच्छी है, बहुत अच्छी है.' जयसिंह ने सकपका कर कहा.
मनिका बैठ कर नाश्ता करने लगी उतने में उसकी माँ भी आ गई लेकिन उसके कुर्सी पर बैठे होने के कारण संचिता को उसके पहने कपड़ों का पता न चला.
'जल्दी से खाना खत्म कर लो, जाना भी है, मैं जरा रसोई संभाल लूँ तब तक...' कह संचिता रसोई में चली गई. 'हर वक्त ज्ञान देती रहती है तुम्हारी माँ.' जयसिंह ने दबी आवाज़ में कहा.
तीनो बच्चे खिलखिला दिए.
नाश्ता कर चुकने के बाद मनिका उठ कर वाशबेसिन में हाथ धोने चल दी, जयसिंह भी उठ चुके थे और पीछे-पीछे ही थे. आगे चल रही मनिका की ठुमकती चाल पर न चाहते हुए भी उनकी नज़र चली गई. मनिका ने ऊँचे हील वाली सैंडिल पहन रखी थी जिस से उसकी टांगें और ज्यादा तन गईं थी और उसके नितम्ब उभर आए थे. यह देख जयसिंह का चेहरा गरम हो गया था. उधर मनिका वॉशबेसिन के पास पहुँच थोडा आगे झुकी और हाथ धोने लगी, जयसिंह की धोखेबाज़ नज़रें एक बार फिर ऊपर उठ गईं थी. मनिका के हाथ धोने के साथ-साथ उसकी गोरी कमर और नितम्ब हौले-हौले डोल रहे थे. यह देख जयसिंह को उत्तेजना का एहसास होने लगा था पर अगले ही पल वे ग्लानी और शर्म से भर उठे.
'छि...यह मैं क्या करने लगा. हे भगवान् मुझे माफ़ करना.' पछतावे से भरे जयसिंह ने प्रार्थना की.
मनिका हाथ धो कर हट चुकी थी, उसने एक तरफ हो कर जयसिंह को मुस्का कर देखा और बाहर चल दी. जयसिंह भारी मन से हाथ धोने लगे.
जब तक संचिता रसोई का काम निपटा कर बाहर आई तब तक उसके पति और बच्चे कार में बैठ चुके थे. जयसिंह आगे ड्राईवर के बगल में बैठे थे और मनिका और उसके भाई-बहन पीछे, संचिता भी पीछे वाली सीट पर बैठ गई और टीना को अपनी गोद में ले लिया. उसे अभी भी अपनी बड़ी बेटी के पहनावे का कोई अंदाजा न था. कुछ ही देर बाद वे स्टेशन पहुँच गए. वे सब कार पार्किंग में पहुँच गाड़ी से बाहर निकलने लगे. जैसे ही मनिका अपनी साइड से उतर कर संचिता के सामने आई संचिता का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा.
'ये क्या वाहियात ड्रेस पहन रखी है लवली?' संचिता ने दबी जुबान में आगबबूला होते हुए कहा.
'क्या हुआ मम्मी?' मनिका ने अनजाने में पूछा, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी माँ गुस्सा क्यूँ हो रही थी. गलती मनिका की भी नहीं थी, उसे इस बात का एहसास नहीं था कि टी.वी.-फिल्मों में पहने जाने वाले कपड़े आम-तौर पर पहने जाने लायक नहीं होते. उसने तो दिल्ली जाने के लिए नए फैशन के चक्कर में वो ड्रेस पहन ली थी.
'कपड़े पहनने की तमीज नहीं है तुमको? घर की इज्ज़त का कोई ख्याल है तुम्हें?' उसकी माँ का अपने गुस्से पर काबू न रहा और वह थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोल गईं थी 'ये क्या नाचनेवालियों जैसे कपड़े ले कर आई हो तुम इतने पैसे खर्च कर के...!'
मनिका अपनी माँ की रोक-टोक पर अक्सर चुप रह कर उनकी बात सुन लेती थी, लेकिन आज दिल्ली जाने के उत्साह और ऐन जाने के वक्त पर उसकी माँ की डांट से उसे भी गुस्सा आ गया,
'क्या मम्मी हर वक्त आप मुझे डांटते रहते हो. कभी आराम से भी बात कर लिया करो.' मनिका ने तमतमाते हुए जवाब दिया, 'क्या हुआ इस ड्रेस में ऐसा, फैशन का आपको कुछ पता है नहीं...और पापा ने कहा की बहुत अच्छी ड्रेस है...' जयसिंह उन दोनों की ऊँची आवाजें सुन उनकी तरफ ही आ रहे थे सो मनिका ने उनकी बात भी साथ में जोड़ दी थी.
'हाँ एक तुम तो हो ही नालायक ऊपर से तुम्हारे पापा की शह से और बिगड़ती जा रही हो...' उसकी माँ दहक कर बोली.
'क्या बात हुई? क्यूँ झगड़ रही हो माँ बेटी?' तभी जयसिंह पास आते हुए बोले.
'संभालो अपनी लाड़ली को, रंग-ढंग बिगड़ते ही जा रहे हैं मैडम के.' संचिता ने अब अपने पति पर बरसते हुए कहा.
जयसिंह ने बीच-बचाव की कोशिश की,
'अरे क्यूँ बेचारी को डांटती रहती हो तुम? ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा है...' वे जानते थे कि संचिता मनिका के पहने कपड़ों को लेकर उससे बहस कर रही थी पर उन्होंने आदतवश मनिका का ही पक्ष लेते हुए कहा.
'हाँ और सिर चढ़ा लो इसको आप...' संचिता का गुस्सा और बढ़ गया था.
लेकिन जयसिंह उन मर्दों में से नहीं थे जो हर काम अपनी बीवी के कहे करते हैं और संचिता के इस तरह उनकी बात काटने पर वे चिढ़ गए,
'ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं है, जो मैं कह रहा हूँ वो करो.' जयसिंह ने संचिता हो आँख दिखाते हुए कहा.
संचिता अपने पति के स्वभाव से परिचित थी. उनका गुस्सा देखते ही वह खिसिया कर चुप हो गई. जयसिंह ने घडी नें टाइम देखा और बोले,
'ट्रेन चलने को है और यहाँ तुम हमेशा की तरह फ़ालतू की बहस कर रही हो. चलो अब.'
वे सब स्टेशन के अन्दर चल दिए. जयसिंह ने देखा कि उनका ड्राईवर, जो सामान उठाए पीछे-पीछे आ रहा था, उसकी नज़र मनिका की मटकती कमर पर टिकी थी और उसकी आँखों से वासना टपक रही थी. 'साला हरामी, जिस थाली में खाता है उसी में छेद...' उन्होंने मन ही मन ड्राईवर को कोसते हुए सोचा लेकिन 'छेद' शब्द मन में आते ही उनका दीमाग भी भटक गया और वे एक बार फिर अपनी सोच पर शर्मिंदा हो उठे. वे थोड़ा सा आगे बढ़ मनिका के पीछे चलने लगे ताकि ड्राईवर की नज़रें उनकी बेटी पर न पड़ सके.
उनकी ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. जयसिंह ने ड्राईवर को अपनी बर्थ का नंबर बता कर सारा सामान वहाँ रखने भेज दिया और खुद अपने परिवार के साथ रेल के डिब्बे के बाहर खड़े हो बतियाने लगे. संचिता और मनिका अभी भी एक दूसरे से तल्खी से पेश आ रही थी. गर्वेंद्र और टीना प्लेटफार्म पर इधर-उधर दौड़ लगा रहे थे. तभी ट्रेन की सीटी बज गई, उनका ड्राईवर सामान रख बाहर आ गया था. जयसिंह ने उसे कार के पास जाने को कहा और फिर गर्वेंद्र और टीना को बुला कर उन्हें ठीक से रहने की हिदायत देते हुए ट्रेन में चढ़ गए. मनिका ने भी अपने छोटे भाई-बहन को प्यार से गले लगाया और अपनी माँ को जल्दी से अलविदा बोल कर ट्रेन में चढ़ने लगी. जयसिंह ट्रेन के दरवाजे पर ही खड़े थे, उन्होंने मनिका का हाथ थाम कर उसे अन्दर चढ़ा लिया. जब मनिका उनका हाथ थाम कर अन्दर चढ़ रही थी तो एक पल के लिए वह थोड़ा सा आगे झुक गई थी और जयसिंह की नज़रें उसके गहरे गले वाली टी-शर्ट पर चली गई थी, मनिका के झुकने से उन्हें उसके वक्ष के उभार नज़र आ गए थे. २२ साल की मनिका के दूध से सफ़ेद उरोज देख जयसिंह फिर से विचलित हो उठे. उन्होंने जल्दी से नज़र उठा कर बाहर खड़ी संचिता की ओर देखा. लेकिन संचिता दोनों बच्चों को लेकर जा चुकी थी.
एक हलके से झटके के साथ ट्रेन चल पड़ी और जयसिंह भी अपने-आप को संभाल कर अपनी बर्थ की ओर चल दिए.
जयसिंह और मनिका का रिजर्वेशन फर्स्ट-क्लास ए.सी. केबिन में था. जब उन्होंने अपने केबिन का दरवाज़ा खोला तो पाया कि मनिका बर्थ पर बैठी है और खिड़की से बाहर देख रही है. खिड़की से सूरज की तेज़ रौशनी पूरे केबिन में फैली हुई थी, वे मनिका की सामने वाली बर्थ पर बैठ गए. मनिका उनकी ओर देख कर मुस्काई,
'फाइनली हम जा रहे हैं पापा, आई एम सो एक्साइटेड!' उसने चहक के कहा.
'हाहा...हाँ भई.' जयसिंह भी हँस के बोले.
'क्या पापा मम्मी हमेशा मुझे टोकती रहती है...' मनिका ने अपनी माँ से हुई लड़ाई का जिक्र किया.
'अरे छोड़ो न उसे, उसका तो हमेशा से यही काम है. कोई काम सुख-शान्ति से नहीं होता उससे.' जयसिंह ने मनिका को बहलाने के लिए कहा.
'हाहाहा पापा, सच में जब देखो मम्मी चिक-चिक करती ही रहती है, ये करो-ये मत करो और पता नहीं क्या क्या?' मनिका ने भी अपने पिता का साथ पा कर अपनी माँ की बुराई कर दी.
'हाँ भई मुझे तो आज २३ साल हो गए सुनते हुए.' जयसिंह ने बनावटी दुःख प्रकट करते हुए कहा और खिलखिला उठे.
'हाय पापा आप बेचारे...कैसे सहा है आपने इतने साल.' मनिका भी खिलखिलाते हुए बोली और दोनों बाप-बेटी हँस पड़े. 'पर सीरियसली पापा आप ही इतने वफादार हो कोई और होता तो छोड़ के भाग जाता...' मनिका ने हँसते हुए आगे कहा.
'हाहा...भाग तो मैं भी जाता पर फिर मेरी लवली का ख्याल कौन रखता?' जयसिंह ने नहले पर देहला मारते हुए कहा.
'ओह पापा यू आर सो स्वीट!' मनिका उनकी बात से खिल उठी थी. वह खड़ी हुई और उनके बगल में आ कर बैठ गई. जयसिंह ने अपना हाथ मनिका के पीछे ले जा कर उसके कंधे पर रखा और उसे अपने से थोड़ा सटा लिया, मनिका ने भी अपना एक हाथ उनकी कमर में डाल रखा था.
वे दोनों कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे. ये पहली बार था जब जवान होने के बाद मनिका ने अपने पिता से इस तरह स्नेह जताया था, आम-तौर पर जयसिंह उसके सिर पर हाथ फेर स्नेह की अभिव्यक्ति कर दिया कर देते थे. सो अचानक बिना सोचे-समझे इस तरह करीब आ जाने पर मनिका कुछ पलों बाद थोड़ी असहज हो गई थी और उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था. दूसरी तरफ जयसिंह भी मनिका के इस अनायास ही उठाए कदम से थोड़ा विचलित हो गए थे, मनिका के परफ्यूम की भीनी-भीनी खुशबू ने उन्हें और अधिक असहज कर दिया था. इस तरह दोनों ही बिना कुछ बोले बैठे रहे.
'पता है पापा, मेरे सारी फ्रेंड्स आपसे जलती हैं?' इससे पहले कि उनके बीच की खामोशी और गहरी होती मनिका ने चहक कर माहौल बदलते हुए कहा.
'हाहाहा...अरे क्यूँ भई?' जयसिंह भी थोड़े आश्चर्य और थोड़ी राहत की सांस लेते हुए बोले.
'अब आप मेरा इतना ख्याल रखते हो न तो इसलिए...मेरी फ्रेंड्स कहती है कि उनके पापा लोग उन्हें आपकी तरह चीज़ें नहीं दिलाते यू क्नो...वे कहती हैं कि...' इतना कह मनिका सकपका के चुप हो गई.
'क्या?' जयसिंह ने उत्सुकतावश पूछा.
'कुछ नहीं पापा ऐसे ही फ्रेंड्स लोग मजाक करते रहते हैं.' मनिका ने टालने की कोशिश की.
'अरे बताओ ना?' जयसिंह ने अपना हाथ मनिका की पीठ पर ले जाते हुए कहा.
'वो सब कहते हैं कि तेरे पापा...कि तेरे पापा तो तेरे बॉयफ्रेंड जैसे हैं. पागल हैं मेरी फ्रेंड्स भी.' मनिका ने कुछ लजाते हुए बताया.
'हाहाहा...क्या सच में?' जयसिंह ने ठहाका लगाया. साथ ही वे मनिका की पीठ सहला रहे थे.
'नहीं ना पापा वो सब मजाक में कहते हैं...और मेरा कोई बॉयफ्रेंड नहीं है ओके...' मनिका ने थोड़ा सीरियस होते हुए कहा क्यूंकि उसे लगा की उसके पिता बॉयफ्रेंड की बात सुन कर कहीं नाराज न हो जाएँ.
'हाँ भई मान लिया.' जयसिंह ने मनिका की पीठ पर थपकी दे कर कहा, उन्होंने जाने-अनजाने में अपना दूसरा हाथ मनिका की जांघ पर रख लिया था.
मनिका की जांघें लेग्गिंग्स में से उभर कर बेहद सुडौल और कसी हुई नज़र आ रही थी. जयसिंह की नज़र उन पर कुछ पल से टिकी हुईं थी और उनके अवचेतन मन ने यंत्रवत उनका हाथ उठा कर मनिका की जांघ पर रख दिया था. अपने हाथ से मनिका की जांघ महसूस करते ही वे और अधिक भटक गए, मनिका की जांघ एकदम कसी हुई और माँसल थी. उन्होंने हलके से अपना हाथ उस पर फिराया, उन्हें लगा की बातों में लगी मनिका को इस का एहसास शायद न हो लेकिन उधर मनिका भी उनके हाथ की पोजीशन से अनजान नहीं थी. जयसिंह के उसकी जांघ पर हाथ रखते ही मनिका की नजर उस पर जा टिकी थी, लेकिन उसने अपनी बात जारी रखी और अपने पिता के इस तरह उसे छूने को नज़रन्दाज कर दिया, उसे लगा कि वे बस उससे स्नेह जताने के लिए ऐसा कर रहे हैं.
'चलो पापा अब आप आराम से बैठ जाओ. मैं अपनी बर्थ पे जाती हूँ.' कह मनिका उठने को हुई. जयसिंह ने भी अपने हाथ उसकी पीठ और जांघ से हटा लिए थे. उनका मन कुछ अशांत था.
'क्या मैंने जानबूझकर लवली...मनिका के बदन पर हाथ लगाया? पता नहीं कैसे मेरा हाथ मानो अपने आप ही वहाँ चला गया हो. ये मैं क्या सोचने लगा हूँ...अपनी बेटी के लिए. नहीं-नहीं अब से ऐसा फिर कभी नहीं होगा. हे ईश्वर मुझे क्षमा करना.' जयसिंह ने मन ही मन सोचा और आँखें मूँद प्रार्थना कर वचन लिया. वे अब थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे, उन्होंने आँखें खोली और उसी के साथ ही जयसिंह पर मानो बिजली गिर गई.
जयसिंह ने जैसे ही आँखें खोली तो सामने का नज़ारा देख उनका सिर चकरा गया था, मनिका की पीठ उनकी तरफ थी और वह खड़ी-खड़ी ही कमर से झुकी हुई थी. उसके दोनों नितम्ब लेग्गिंग्स के कपड़े में से पूरी तरह उभर कर नज़र आ रहे थे वह उसकी पतली गोरी कमर केबिन में फैली सूरज की रौशनी में चमक रही थी. जयसिंह का चेहरा अपनी बेटी के अधो-भाग के बिलकुल सामने था. जयसिंह ने अपने लिए प्रण के वास्ते से अपनी नज़रें घुमानी चाही पर उनका दीमाग अब उनके काबू से बाहर जा चुका था. अगले ही पल उनकी आँखें फिर से मनिका के मोटे कसे हुए नितम्बों पर जा टिकीं. उन्होंने गौर किया कि मनिका असल में सामने वाली बर्थ के नीचे रखे बैग में कुछ टटोल रही थी. उनसे रहा न गया.
'क्या ढूँढ रही हो मनिका?' उन्होंने पूछा.
'कुछ नहीं पापा मेरे ईयरफोंस नहीं मिल रहे, डाले तो इसी बैग में थे.' मनिका ने झुके-झुके ही पीछे मुड़ कर कहा.
मनिका को इस पोज़ में देख जयसिंह और बेकाबू हो गए थे. मनिका वापस अपने ईयरफोंस ढूँढने में लग गई थी. जयसिंह ने ध्यान दिया की मनिका के इस तरह झुके होने की वजह से उसकी लेग्गिंग्स का महीन कपड़ा खिंच कर थोड़ा पारदर्शी हो गया था और केबिन में इतनी रौशनी थी कि उन्हें उसकी सफ़ेद लेग्गिंग्स में से गुलाबी कलर का अंडरवियर नज़र आ रहा था. उन पर एक बार फिर जैसे बिजली गिर पड़ी. उन्होंने अपनी नज़रें अपनी बेटी मनिका के नितम्बों पर पूरी शिद्दत से गड़ा लीं, वे सोच रहे थे कि पहली बार में उन्हें उसकी अंडरवियर क्यूँ नहीं दिखाई दी थी, और उन्हें एहसास हुआ की मनिका जो अंडरवियर पहने थी वह कोई सीधी-सिम्पल अंडरवियर नहीं थी बल्कि एक थोंग था, जो कि एक प्रकार का मादक (सेक्सी) अंडरवियर होता है जिससे पीछे का अधिकतर भाग ढंका नहीं जाता. जयसिंह पर गाज पर गाज गिरती चली जा रही थी. ट्रेन के हिचकोलों से हिलते मनिका के नितम्बों ने उनके लिए वचन की धज्जियाँ उड़ा दीं थी.
आज तक जयसिंह ने किसी को इस तरह की सेक्सी अंडरवियर पहने नहीं देखा था, अपनी बीवी संचिता को भी नहीं. उनके मन में अनेक ख्याल एक साथ जन्म ले रहे थे, 'ये मनिका कब इतनी जवान हो गई? पता ही नहीं चला, आज तक इसकी माँ ने भी कभी ऐसी पैंटी पहन कर नहीं दिखाई जैसी ये पहने घूम रही है...ओह्ह मेरे से पैसे ले जा कर ऐसी कच्छियाँ लाती है ये...' जयसिंह जैसे सुध-बुध खो बैठे थे, 'ओह्ह क्या....क्या कसी हुई गांड है साली की...ये मैं क्या सोच रहा हूँ? सच ही तो है...साली कुतिया कैसे अधनंगी घूम रही है देखो जरा. साली चिनाल के बोबे भी बहुत बड़े हो रहे हैं...म्म्म्म्म्म्म...हे प्रभु...' जयसिंह के दीमाग में बिजलियाँ कौंध रहीं थी.
जयसिंह के कई दोस्त ऐसे थे जिनके शादी के बाद भी अफेयर्स रहे थे लेकिन उन्होंने कभी संचिता के साथ दगा नहीं की थी, उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी कामिच्छा भी मंद पड़ने लगी थी और अब वे कभी-कभार ही संचिता के साथ संभोग किया करते थे. लेकिन आज अचानक जैसे उनके अन्दर सोया हुआ मर्द फिर से जाग उठा था उन्होंने पाया की उनकी पेंट में उनका लिंग तन के खड़ा हो गया था. अब तक मनिका को उसके ईयरफोंस मिल चुके थे और वह सामने की बर्थ पर बैठी गाने सुन रही थी, उसने मुस्का कर अपने पिता की ओर देखा, उसे नहीं पता था कि सामने बैठे उसके पापा किस कदर उस के जिस्म के दीवाने हुए जा रहे थे.
जयसिंह ने पाया कि उनका लिंग खड़ा होकर उन्हें तकलीफ दे रहा था क्यूंकि उनके बैठे होने की वजह से लिंग को जगह नहीं मिल पा रही थी, उन्हें ऐसा लग रहा था मानो एक दिल उनके सीने में धड़क रहा था और एक उनके लिंग में, 'साला लौड़ा भी फटने को हो रहा है और ये साली कुतिया मुस्कुरा रही है सामने बैठ कर...ओह क्या मोटे होंठ है साली के, गुलाबी-गुलाबी...मुहं में भर दूँ लंड इसके...आह्ह्ह...' जयसिंह भूल चुके थे कि मनिका उनकी बेटी है. पर सच से भी मुहं नहीं फेरा जा सकता था, थोड़ी देर बाद जब उनका दीमाग कुछ शांत हुआ तो वे फिर सोच में पड़ गए, 'मनिका...मेरी बेटी है...साली कुतिया छोटी-छोटी कच्छियाँ पहनती है...उफ़ पर वो मेरी बेटी...साली का जिस्म ओह्ह...उसकी फ्रेंड्स मुझे उसका बॉयफ्रेंड कहती हैं...ओह मेरी ऐसी किस्मत कहाँ...काश ये मुझसे पट जाए...कयामत आ जाएगी...पर वो मेरी प्यारी बिटिया...रांड है.'
जयसिंह इसी उधेड़बुन में लगे थे जब मनिका ने अपनी सैंडिल खोली और पैर बर्थ पर करके लेट गई, एक बार फिर उनके कुछ शांत होते बदन में करंट दौड़ गया. मनिका उनकी तरफ करवट ले कर लेटी हुई थी और उसकी डीप-नेक टी-शर्ट में से उसका वक्ष उभर कर बाहर निकल आया था, इससे पहले की जयसिंह का दीमाग इस नए झटके से उबर पाता उनकी नज़र मनिका की टांगों के बीच बन रही 'V' आकृति पर जा ठहरी. वे तड़प उठे, 'ओह्ह्ह मनिकाआआ...' और उसी क्षण जयसिंह ने फैसला कर लिया कि ये आग मनिका के जिस्म से ही बुझेगी, जो भी हो उन्हें किसी तरह अपनी बेटी के साथ हमबिस्तर होने का रास्ता खोजना होगा वरना शायद उन्हें ज़िन्दगी भर चैन नहीं मिलेगा.
जयसिंह भी अब अपनी बर्थ पर लेट गए और मनिका पर से नज़रें हटा लीं. वे जानते थे कि अगर वे उसकी तरफ देखते रहे तो उनका दीमाग सोचने-समझने के काबिल नहीं रहेगा और इस वक्त उन्हें दिल से ज्यादा दीमाग की जरूरत थी, 'मैं और मनिका इस ट्रिप पर अकेले जा रहे हैं, इस को पटाने के लिए इससे ज्यादा सुनहरा मौका शायद ही फिर मिले, सो मुझे दीमाग से काम लेना होगा. अगर प्लान में थोड़ी भी गड़बड़ हुई तो मामला बहुत बिगड़ सकता है इसलिए बहुत सोच समझ कर कदम उठाने होंगे ताकि अगर बात न बनती दिखे तो पीछे हटा जा सके.' जयसिंह अब मनिका के स्वाभाव और स्कूल कॉलेज के ज़माने के अपने अनुभव का मेल करने की कोशिश करने लगे, 'हम्म लड़कियों के बारे में मैं क्या जानता हूँ..? हमेशा से ही लड़कियां पैसे वाले लौंडों के चक्करों में जल्दी आती हैं, सो पहली समस्या का हल तो मेरे पास है और दूसरा लड़कियों को पसंद है अपनी तारीफ करवाना, वो भी कोई दिक्कत नहीं है और लड़कियाँ स्वाभाव से सीक्रेटिव भी होतीं है, उन्हें चुपके-चुपके शरारत करना बहुत भाता है, सो साली की इस कमजोरी पर भी ध्यान देना होगा. फिर आती है भरोसे की बात;एक बार अगर लड़की को आपने भरोसे में ले लिया तो उस से कुछ भी करवाया जा सकता है, मनिका मुझ पर भरोसा तो करती है लेकिन अपने पैरेंट के रूप में सो वहाँ दिक्कत आने वाली है और लास्ट स्टेप है मनिका की जवानी, उसमें भी आग लगानी होगी. वैसे इन मामलों में लडकियाँ मर्दों से कम तो नहीं होती बस वे जाहिर नहीं होने देती, लेकिन यहाँ सबसे बड़ी दिक्कत आने वाली है. मनिका के तन में इतनी हवस जगानी होगी कि वह सामाज के नियम तोड़ कर मेरी बात मान लेने पर मजबूर हो जाए. यह आखिरी काम सबसे मुश्किल होगा, लेकिन अब मैं पीछे नहीं हट सकता, या तो आर है या पार है.' जयसिंह ने इसी तरह सोचते हुए दो घंटे बिता दिए, मनिका को लगा कि वे सो रहे हैं.
उनका प्लान बन चुका था, पहले वे अपने पैसे और तारीफों से मनिका को दोस्ती के ऐसे जाल में फँसाने वाले थे ताकि वह उनको अपने पिता के रूप में देखना कुछ हद तक छोड़ दे. फिर वे धीरे-धीरे अपना चँगुल कसने वाले थे और मनिका के साथ बिलकुल किसी अच्छे दोस्त की तरह पेश आ कर उसका भरोसा पूरी तरह जीतने की कोशिश करने वाले थे ताकि उन दोनों के बीच कुछ ऐसे अन्तरंग वाकये हों जो मनिका को उनके और करीब ले आए. उसके इतना फंस जाने के बाद जयसिंह हौले-हौले उसकी कमसिन जवानी की आग को हवा देने का काम करने वाले थे. जयसिंह का मन अब शांत था, वे हमेशा से ही अपने बिज़नस के क्षेत्र में एक मंजे हुए खिलाड़ी माने जाते थे क्यूंकि एक बार जो वे ठान लेते थे उसे पा कर ही दम लेते थे और उसी एकाग्रता के साथ वे अपनी बेटी को अपनी रखैल बनाने के अपने प्लान पर अमल लाने वाले थे.
शाम होते-होते वे लोग दिल्ली पहुँच गए, स्टेशन से बाहर आ कर उन्होंने एक कैब ली और जब ड्राईवर ने पूछा कि वे कहाँ जाना चाहते हैं तो जयसिंह बोले,
'मेरियट गुडगाँव.' और कनखियों से मनिका की तरफ देखा. मनिका के चेहरे पर ख़ुशी साफ़ झलक रही थी.
'वाओ पापा हम मेरियट में रुकेंगे?' मनिका ने खुश हो कर पूछा.
'और नहीं तो क्या? अब तुम साथ आई हो तो किसी अच्छी जगह ही रुकेंगे ना.' जयसिंह उसे हवा देते हुए बोले.
'ओह गॉड पापा आई एम सो हैप्पी.'
'हाहा...थेट्स व्हाट आई वांट फॉर यू मनिका.' जयसिंह ने कहा. मनिका यह सुन और खुश हो गई लेकिन उसने मन ही मन नोटिस किया कि जयसिंह सुबह से उसे उसके निकनेम लवली की बजाय 'मनिका' कह कर पुकार रहे थे जो उसे थोड़ा अटपटा लगा.
कुछ देर के सफ़र के बाद वे हॉटेल पहुँच गए. मेरियट दिल्ली-गुडगाँव बेहद आलिशान हॉटेल है, अन्दर पहुँचने पर मनिका वहाँ के डेकोर को देख बहुत खुश हुई. जयसिंह ने उसे सामान के पास छोड़ा और चेक-इन काउंटर पर पहुंचे. वहाँ बैठे फ्रंट-ऑफिस क्लर्क ने उनका अभिवादन किया,
'वेलकम टू द मेरियट सर. डू यू हैव अ रिजर्वेशन?'
'एक्चुअली नो. आई ऍम लुकिंग फॉर अ स्टे.'
'ओह वैरी वेल सर, आर यू अलोन?'
'नो आई एम हेयर विद माय वाइफ.' जयसिंह ने मुस्कुरा कर कहा.
'वेल सर हाओ लॉन्ग विल यू बी स्टेइंग विद अस?'
'आई डोंट क्नो एक्चुअली सो कैन यू पुट अस डाउन फॉर अ वीक फॉर नाओ?' जयसिंह ने जरा सोच कर कहा.
'वैरी वेल सर. हेयर आर योर की-कार्ड्स सर थैंक यू फॉर चूजिंग द मेरियट. हैव अ प्लीजेंट स्टे.'
जयसिंह रूम बुक करा कर मनिका के पास लौटे. तभी हेल्पर भी आ गया और उनका रूम नंबर पूछ कर उनका लगेज रखने चल दिया. वे भी एलीवेटर से अपने रूम की तरफ चल पड़े.
जब वे अपने रूम में पहुंचे तो पाया की हेल्पर ने उनका सामान वहाँ पहुँचा दिया था और खड़ा उनका वेट कर रहा था. जयसिंह समझ गए कि वह टिप चाहता है. उन्होंने जेब से दो सौ रूपए निकाल उसे थमा दिए और वह ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से चल दिया. मनिका ने जब रूम देखा तो उसकी बांछें खिल उठी, कमरा इतना बड़ा व शानदार था और उसमे ऐशो-आराम की सभी चीजें मौजूद थीं कि वो खुश होकर इधर-उधर जा-जा कर वहाँ रखी चीज़ें उलट-पलट कर देखने लगी.
'पापा क्या रूम है ये...वाओ.' उसने जयसिंह से अपनी ख़ुशी का इज़हार किया.
'हाँ-हाँ. अच्छा है.' जयसिंह ने कुछ ख़ास महत्व न देते हुए कहा.
'बस अच्छा है? पापा! इतना सुपर रूम है ये...' मनिका ने इंसिस्ट किया.
'हाँ भई बहुत अच्छा है, बस?' जयसिंह ने उसी टोन में कहा, 'तुमने पहली बार देखा है इसीलिए ऐसा लग रहा है तुम्हें.'
'मतलब..? मतलब आप पहले भी आए हो यहाँ पर पापा?' मनिका ने आश्चर्य से पूछा.
'और नहीं तो क्या, बिज़नस मीटिंग्स के सिलसिले में आता तो रहता हूँ मैं दिल्ली, जैसे तुम्हें नहीं पता...' जयसिंह बोले.
'हाँ आई क्नो दैट पापा पर मुझे नहीं पता था कि आप यहाँ रुकते हो.' मनिका बोली, 'पहले पता होता तो मैं भी आपके साथ आ जाती.' जयसिंह उसकी बात पर मन ही मन मुस्कुराए.
'हाहा..अच्छा जी. चलो कोई बात नहीं अब तो तुम यहीं हॉस्टल में रहा करोगी, सो जब मैं दिल्ली आया करूँगा तो तुम यहाँ आ जाया करना मेरे पास हॉटेल में.' जयसिंह का आशय अभी मनिका कैसे समझ सकती थी, सो वह खुश हो गई और बोली,
'वाओ हाँ पापा ये तो मैंने सोचा ही नहीं था. आई विश की मेरा एडमिशन हो जाए यहाँ...और आपकी बिज़नस मीटिंग्स जल्दी-जल्दी हुआ करें.'
'हाहाहा...अरे हो जाएगा, तुम इतनी इंटेलीजेंट हो, डोंट वरी.' जयसिंह मनिका की तारीफ करते हुए बोले, 'चलो अब बताओ की डिनर रूम में मंगवाएं या नीचे रेस्टोरेंट में करना है?'
गुमराह पिता की हमराह बेटी--1
इस कहानी के किरदार व स्थानों के नाम उनकी वास्तविक पहचान छिपाने के लिए कुछ हद तक बदले गए हैं (लेकिन पूरी तरह से नहीं), जैसे कहीं पर किरदार का वास्तविक नाम न प्रयोग में लेकर उसका घरेलू (घर का नाम) इस्तेमाल किया गया है तो कहीं पर नाम को छोटा कर के लिखा गया है. इसी प्रकार स्थानों के नाम भी बदले गए हैं. जयसिंह (संक्षिप्त नाम) राजस्थान के एक धनवान व्यापारी हैं और यह कहानी उनके जीवन के वाक्यात बयां करती है.
***
जयसिंह राजस्थान के बाड़मेर शहर के एक धनवान व्यापारी
थे. उनका शेयर ट्रेडिंग का बिज़नस था. जयसिंह दिखने में ठीक-ठाक और थोड़े
पक्के रंग के थे लेकिन एक अच्छे धनी परिवार से होने की वजह से उनका विवाह
संचिता से हो गया था जो कि गोरी-चिट्टी और बेहद खूबसूरत थी. ज्योतिस्वरूप
का विवाह हुए २३ साल बीत चुके थे और वे तीन बच्चों के पिता बन चुके थे,
जिनमें सबसे बड़ी थी मनिका जो २२ साल की थी और अपने कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर
चुकी थी, उस से छोटा गर्वेंद्र था जो अभी ९वीं कक्षा में था और सबसे छोटी
थी टीना जो ५वीं में पढ़ती थी. जयसिंह की तीनों संतान रंग-रूप में अपनी माँ
पर गईं थी. जिनमें से मनिका को तो कभी-कभी लोग उसकी माँ की छोटी बहन समझ
लिया करते थे.मनिका ने अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद एम.बी.ए. करने का मन बना लिया था और उसके लिए एक एंट्रेंस एग्जाम दिया था जिसमे वह अच्छे अंकों से पास हो गई थी. उसे दिल्ली के एक कॉलेज से एडमिशन के लिए कॉल लैटर मिला था जिसमें उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था. जयसिंह ने भी उसे वहाँ जाने के लिए हाँ कह दिया था. मनिका पहली बार घर से इतनी दूर रहने जा रही थी सो वह काफी उत्साहित थी. मनिका ने दिल्ली जाने की तैयारियाँ शुरू कर दीं. वह कुछ नए कपड़े, जूते और मेक-अप का सामान खरीद लाई थी. जब उसकी माँ ने उसे ज्यादा खर्चा न करने की हिदायत दी तो जयसिंह ने चुपके से उसे अपना ए.टी.एम. कार्ड थमा दिया था. वैसे भी पहली संतान होने के कारण वह जयसिंह की लाड़ली थी. वे हमेशा उसकी हर ख्वाहिश पूरी करते रहे थे.
***
आखिर वह दिन भी आ गया जब उन्हें दिल्ली जाना था, जयसिंह मनिका के साथ जा रहे थे. उन दोनों का ट्रेन में रिजर्वेशन था.
'लवली?' संचिता ने मनिका को उसके घर के नाम से पुकारते हुए आवाज़ लगाई.
'जी मम्मी?' मनिका ने चिल्ला कर सवाल किया. उसका कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था.
'तुम तैयार हुई कि नहीं? ट्रेन का टाइम हो गया है, जल्दी से नीचे आ कर नाश्ता कर लो.' उसकी माँ ने कहा.
'हाँ-हाँ आ रही हूँ मम्मा.'
कुछ देर बाद मनिका नीचे हॉल में आई तो देखा कि उसके पिता और भाई-बहन पहले से डाइनिंग टेबल पर ब्रेकफास्ट कर रहे थे.
'गुड मोर्निंग पापा. मम्मी कहाँ है?' मनिका ने अभिवादन कर सवाल किया.
'वो कपड़े बदल कर अ....आ रही है.' जयसिंह ने मनिका की ओर देख कर जवाब दिया था. लेकिन मनिका के पहने कपड़ों को देख वे हकला गए थे.
बचपन से ही जयसिंह सिंह के कोई रोक-टोक न रखने की वजह से मनिका नए-नए फैशन के कपड़े ले आया करती थी और जयसिंह भी उसकी बचकानी जिद के आगे हार मान जाया करते थे. लेकिन बड़ी होते-होते उसकी माँ संचिता ने उसे टोकना शुरू कर दिया था. आज उसने अपनी नई लाई पोशाकों में से एक चुन कर पहनी थी. उसने लेग्गिंग्स के साथ टी-शर्ट पहन रखी थी. लेग्गिंग्स एक प्रकार की पजामी होती है जो बदन से बिलकुल चिपकी रहती है सो लड़कियां उन्हें लम्बे कुर्तों या टॉप्स के साथ पहना करती हैं, लेकिन मनिका ने उनके ऊपर एक छोटी सी टी-शर्ट पहन रखी थी जो मुश्किल से उसकी नाभी तक आ रही थी. लेग्गिंग्स में ढंके मनिका के जवान बदन के उभार पूरी तरह से नज़र आ रहे थे. उसकी टी-शर्ट भी स्लीवेलेस और गहरे गले की थी. जयसिंह अपनी बेटी को इस रूप में देख झेंप गए और नज़रें झुका ली.
'पापा कैसी लगी मेरी नई ड्रेस?' मनिका उनके बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोली.
'अ..अ..अच्छी है, बहुत अच्छी है.' जयसिंह ने सकपका कर कहा.
मनिका बैठ कर नाश्ता करने लगी उतने में उसकी माँ भी आ गई लेकिन उसके कुर्सी पर बैठे होने के कारण संचिता को उसके पहने कपड़ों का पता न चला.
'जल्दी से खाना खत्म कर लो, जाना भी है, मैं जरा रसोई संभाल लूँ तब तक...' कह संचिता रसोई में चली गई. 'हर वक्त ज्ञान देती रहती है तुम्हारी माँ.' जयसिंह ने दबी आवाज़ में कहा.
तीनो बच्चे खिलखिला दिए.
नाश्ता कर चुकने के बाद मनिका उठ कर वाशबेसिन में हाथ धोने चल दी, जयसिंह भी उठ चुके थे और पीछे-पीछे ही थे. आगे चल रही मनिका की ठुमकती चाल पर न चाहते हुए भी उनकी नज़र चली गई. मनिका ने ऊँचे हील वाली सैंडिल पहन रखी थी जिस से उसकी टांगें और ज्यादा तन गईं थी और उसके नितम्ब उभर आए थे. यह देख जयसिंह का चेहरा गरम हो गया था. उधर मनिका वॉशबेसिन के पास पहुँच थोडा आगे झुकी और हाथ धोने लगी, जयसिंह की धोखेबाज़ नज़रें एक बार फिर ऊपर उठ गईं थी. मनिका के हाथ धोने के साथ-साथ उसकी गोरी कमर और नितम्ब हौले-हौले डोल रहे थे. यह देख जयसिंह को उत्तेजना का एहसास होने लगा था पर अगले ही पल वे ग्लानी और शर्म से भर उठे.
'छि...यह मैं क्या करने लगा. हे भगवान् मुझे माफ़ करना.' पछतावे से भरे जयसिंह ने प्रार्थना की.
मनिका हाथ धो कर हट चुकी थी, उसने एक तरफ हो कर जयसिंह को मुस्का कर देखा और बाहर चल दी. जयसिंह भारी मन से हाथ धोने लगे.
जब तक संचिता रसोई का काम निपटा कर बाहर आई तब तक उसके पति और बच्चे कार में बैठ चुके थे. जयसिंह आगे ड्राईवर के बगल में बैठे थे और मनिका और उसके भाई-बहन पीछे, संचिता भी पीछे वाली सीट पर बैठ गई और टीना को अपनी गोद में ले लिया. उसे अभी भी अपनी बड़ी बेटी के पहनावे का कोई अंदाजा न था. कुछ ही देर बाद वे स्टेशन पहुँच गए. वे सब कार पार्किंग में पहुँच गाड़ी से बाहर निकलने लगे. जैसे ही मनिका अपनी साइड से उतर कर संचिता के सामने आई संचिता का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा.
'ये क्या वाहियात ड्रेस पहन रखी है लवली?' संचिता ने दबी जुबान में आगबबूला होते हुए कहा.
'क्या हुआ मम्मी?' मनिका ने अनजाने में पूछा, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी माँ गुस्सा क्यूँ हो रही थी. गलती मनिका की भी नहीं थी, उसे इस बात का एहसास नहीं था कि टी.वी.-फिल्मों में पहने जाने वाले कपड़े आम-तौर पर पहने जाने लायक नहीं होते. उसने तो दिल्ली जाने के लिए नए फैशन के चक्कर में वो ड्रेस पहन ली थी.
'कपड़े पहनने की तमीज नहीं है तुमको? घर की इज्ज़त का कोई ख्याल है तुम्हें?' उसकी माँ का अपने गुस्से पर काबू न रहा और वह थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोल गईं थी 'ये क्या नाचनेवालियों जैसे कपड़े ले कर आई हो तुम इतने पैसे खर्च कर के...!'
मनिका अपनी माँ की रोक-टोक पर अक्सर चुप रह कर उनकी बात सुन लेती थी, लेकिन आज दिल्ली जाने के उत्साह और ऐन जाने के वक्त पर उसकी माँ की डांट से उसे भी गुस्सा आ गया,
'क्या मम्मी हर वक्त आप मुझे डांटते रहते हो. कभी आराम से भी बात कर लिया करो.' मनिका ने तमतमाते हुए जवाब दिया, 'क्या हुआ इस ड्रेस में ऐसा, फैशन का आपको कुछ पता है नहीं...और पापा ने कहा की बहुत अच्छी ड्रेस है...' जयसिंह उन दोनों की ऊँची आवाजें सुन उनकी तरफ ही आ रहे थे सो मनिका ने उनकी बात भी साथ में जोड़ दी थी.
'हाँ एक तुम तो हो ही नालायक ऊपर से तुम्हारे पापा की शह से और बिगड़ती जा रही हो...' उसकी माँ दहक कर बोली.
'क्या बात हुई? क्यूँ झगड़ रही हो माँ बेटी?' तभी जयसिंह पास आते हुए बोले.
'संभालो अपनी लाड़ली को, रंग-ढंग बिगड़ते ही जा रहे हैं मैडम के.' संचिता ने अब अपने पति पर बरसते हुए कहा.
जयसिंह ने बीच-बचाव की कोशिश की,
'अरे क्यूँ बेचारी को डांटती रहती हो तुम? ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा है...' वे जानते थे कि संचिता मनिका के पहने कपड़ों को लेकर उससे बहस कर रही थी पर उन्होंने आदतवश मनिका का ही पक्ष लेते हुए कहा.
'हाँ और सिर चढ़ा लो इसको आप...' संचिता का गुस्सा और बढ़ गया था.
लेकिन जयसिंह उन मर्दों में से नहीं थे जो हर काम अपनी बीवी के कहे करते हैं और संचिता के इस तरह उनकी बात काटने पर वे चिढ़ गए,
'ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं है, जो मैं कह रहा हूँ वो करो.' जयसिंह ने संचिता हो आँख दिखाते हुए कहा.
संचिता अपने पति के स्वभाव से परिचित थी. उनका गुस्सा देखते ही वह खिसिया कर चुप हो गई. जयसिंह ने घडी नें टाइम देखा और बोले,
'ट्रेन चलने को है और यहाँ तुम हमेशा की तरह फ़ालतू की बहस कर रही हो. चलो अब.'
वे सब स्टेशन के अन्दर चल दिए. जयसिंह ने देखा कि उनका ड्राईवर, जो सामान उठाए पीछे-पीछे आ रहा था, उसकी नज़र मनिका की मटकती कमर पर टिकी थी और उसकी आँखों से वासना टपक रही थी. 'साला हरामी, जिस थाली में खाता है उसी में छेद...' उन्होंने मन ही मन ड्राईवर को कोसते हुए सोचा लेकिन 'छेद' शब्द मन में आते ही उनका दीमाग भी भटक गया और वे एक बार फिर अपनी सोच पर शर्मिंदा हो उठे. वे थोड़ा सा आगे बढ़ मनिका के पीछे चलने लगे ताकि ड्राईवर की नज़रें उनकी बेटी पर न पड़ सके.
उनकी ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. जयसिंह ने ड्राईवर को अपनी बर्थ का नंबर बता कर सारा सामान वहाँ रखने भेज दिया और खुद अपने परिवार के साथ रेल के डिब्बे के बाहर खड़े हो बतियाने लगे. संचिता और मनिका अभी भी एक दूसरे से तल्खी से पेश आ रही थी. गर्वेंद्र और टीना प्लेटफार्म पर इधर-उधर दौड़ लगा रहे थे. तभी ट्रेन की सीटी बज गई, उनका ड्राईवर सामान रख बाहर आ गया था. जयसिंह ने उसे कार के पास जाने को कहा और फिर गर्वेंद्र और टीना को बुला कर उन्हें ठीक से रहने की हिदायत देते हुए ट्रेन में चढ़ गए. मनिका ने भी अपने छोटे भाई-बहन को प्यार से गले लगाया और अपनी माँ को जल्दी से अलविदा बोल कर ट्रेन में चढ़ने लगी. जयसिंह ट्रेन के दरवाजे पर ही खड़े थे, उन्होंने मनिका का हाथ थाम कर उसे अन्दर चढ़ा लिया. जब मनिका उनका हाथ थाम कर अन्दर चढ़ रही थी तो एक पल के लिए वह थोड़ा सा आगे झुक गई थी और जयसिंह की नज़रें उसके गहरे गले वाली टी-शर्ट पर चली गई थी, मनिका के झुकने से उन्हें उसके वक्ष के उभार नज़र आ गए थे. २२ साल की मनिका के दूध से सफ़ेद उरोज देख जयसिंह फिर से विचलित हो उठे. उन्होंने जल्दी से नज़र उठा कर बाहर खड़ी संचिता की ओर देखा. लेकिन संचिता दोनों बच्चों को लेकर जा चुकी थी.
एक हलके से झटके के साथ ट्रेन चल पड़ी और जयसिंह भी अपने-आप को संभाल कर अपनी बर्थ की ओर चल दिए.
***
जयसिंह और मनिका का रिजर्वेशन फर्स्ट-क्लास ए.सी. केबिन में था. जब उन्होंने अपने केबिन का दरवाज़ा खोला तो पाया कि मनिका बर्थ पर बैठी है और खिड़की से बाहर देख रही है. खिड़की से सूरज की तेज़ रौशनी पूरे केबिन में फैली हुई थी, वे मनिका की सामने वाली बर्थ पर बैठ गए. मनिका उनकी ओर देख कर मुस्काई,
'फाइनली हम जा रहे हैं पापा, आई एम सो एक्साइटेड!' उसने चहक के कहा.
'हाहा...हाँ भई.' जयसिंह भी हँस के बोले.
'क्या पापा मम्मी हमेशा मुझे टोकती रहती है...' मनिका ने अपनी माँ से हुई लड़ाई का जिक्र किया.
'अरे छोड़ो न उसे, उसका तो हमेशा से यही काम है. कोई काम सुख-शान्ति से नहीं होता उससे.' जयसिंह ने मनिका को बहलाने के लिए कहा.
'हाहाहा पापा, सच में जब देखो मम्मी चिक-चिक करती ही रहती है, ये करो-ये मत करो और पता नहीं क्या क्या?' मनिका ने भी अपने पिता का साथ पा कर अपनी माँ की बुराई कर दी.
'हाँ भई मुझे तो आज २३ साल हो गए सुनते हुए.' जयसिंह ने बनावटी दुःख प्रकट करते हुए कहा और खिलखिला उठे.
'हाय पापा आप बेचारे...कैसे सहा है आपने इतने साल.' मनिका भी खिलखिलाते हुए बोली और दोनों बाप-बेटी हँस पड़े. 'पर सीरियसली पापा आप ही इतने वफादार हो कोई और होता तो छोड़ के भाग जाता...' मनिका ने हँसते हुए आगे कहा.
'हाहा...भाग तो मैं भी जाता पर फिर मेरी लवली का ख्याल कौन रखता?' जयसिंह ने नहले पर देहला मारते हुए कहा.
'ओह पापा यू आर सो स्वीट!' मनिका उनकी बात से खिल उठी थी. वह खड़ी हुई और उनके बगल में आ कर बैठ गई. जयसिंह ने अपना हाथ मनिका के पीछे ले जा कर उसके कंधे पर रखा और उसे अपने से थोड़ा सटा लिया, मनिका ने भी अपना एक हाथ उनकी कमर में डाल रखा था.
वे दोनों कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे. ये पहली बार था जब जवान होने के बाद मनिका ने अपने पिता से इस तरह स्नेह जताया था, आम-तौर पर जयसिंह उसके सिर पर हाथ फेर स्नेह की अभिव्यक्ति कर दिया कर देते थे. सो अचानक बिना सोचे-समझे इस तरह करीब आ जाने पर मनिका कुछ पलों बाद थोड़ी असहज हो गई थी और उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था. दूसरी तरफ जयसिंह भी मनिका के इस अनायास ही उठाए कदम से थोड़ा विचलित हो गए थे, मनिका के परफ्यूम की भीनी-भीनी खुशबू ने उन्हें और अधिक असहज कर दिया था. इस तरह दोनों ही बिना कुछ बोले बैठे रहे.
'पता है पापा, मेरे सारी फ्रेंड्स आपसे जलती हैं?' इससे पहले कि उनके बीच की खामोशी और गहरी होती मनिका ने चहक कर माहौल बदलते हुए कहा.
'हाहाहा...अरे क्यूँ भई?' जयसिंह भी थोड़े आश्चर्य और थोड़ी राहत की सांस लेते हुए बोले.
'अब आप मेरा इतना ख्याल रखते हो न तो इसलिए...मेरी फ्रेंड्स कहती है कि उनके पापा लोग उन्हें आपकी तरह चीज़ें नहीं दिलाते यू क्नो...वे कहती हैं कि...' इतना कह मनिका सकपका के चुप हो गई.
'क्या?' जयसिंह ने उत्सुकतावश पूछा.
'कुछ नहीं पापा ऐसे ही फ्रेंड्स लोग मजाक करते रहते हैं.' मनिका ने टालने की कोशिश की.
'अरे बताओ ना?' जयसिंह ने अपना हाथ मनिका की पीठ पर ले जाते हुए कहा.
'वो सब कहते हैं कि तेरे पापा...कि तेरे पापा तो तेरे बॉयफ्रेंड जैसे हैं. पागल हैं मेरी फ्रेंड्स भी.' मनिका ने कुछ लजाते हुए बताया.
'हाहाहा...क्या सच में?' जयसिंह ने ठहाका लगाया. साथ ही वे मनिका की पीठ सहला रहे थे.
'नहीं ना पापा वो सब मजाक में कहते हैं...और मेरा कोई बॉयफ्रेंड नहीं है ओके...' मनिका ने थोड़ा सीरियस होते हुए कहा क्यूंकि उसे लगा की उसके पिता बॉयफ्रेंड की बात सुन कर कहीं नाराज न हो जाएँ.
'हाँ भई मान लिया.' जयसिंह ने मनिका की पीठ पर थपकी दे कर कहा, उन्होंने जाने-अनजाने में अपना दूसरा हाथ मनिका की जांघ पर रख लिया था.
मनिका की जांघें लेग्गिंग्स में से उभर कर बेहद सुडौल और कसी हुई नज़र आ रही थी. जयसिंह की नज़र उन पर कुछ पल से टिकी हुईं थी और उनके अवचेतन मन ने यंत्रवत उनका हाथ उठा कर मनिका की जांघ पर रख दिया था. अपने हाथ से मनिका की जांघ महसूस करते ही वे और अधिक भटक गए, मनिका की जांघ एकदम कसी हुई और माँसल थी. उन्होंने हलके से अपना हाथ उस पर फिराया, उन्हें लगा की बातों में लगी मनिका को इस का एहसास शायद न हो लेकिन उधर मनिका भी उनके हाथ की पोजीशन से अनजान नहीं थी. जयसिंह के उसकी जांघ पर हाथ रखते ही मनिका की नजर उस पर जा टिकी थी, लेकिन उसने अपनी बात जारी रखी और अपने पिता के इस तरह उसे छूने को नज़रन्दाज कर दिया, उसे लगा कि वे बस उससे स्नेह जताने के लिए ऐसा कर रहे हैं.
'चलो पापा अब आप आराम से बैठ जाओ. मैं अपनी बर्थ पे जाती हूँ.' कह मनिका उठने को हुई. जयसिंह ने भी अपने हाथ उसकी पीठ और जांघ से हटा लिए थे. उनका मन कुछ अशांत था.
'क्या मैंने जानबूझकर लवली...मनिका के बदन पर हाथ लगाया? पता नहीं कैसे मेरा हाथ मानो अपने आप ही वहाँ चला गया हो. ये मैं क्या सोचने लगा हूँ...अपनी बेटी के लिए. नहीं-नहीं अब से ऐसा फिर कभी नहीं होगा. हे ईश्वर मुझे क्षमा करना.' जयसिंह ने मन ही मन सोचा और आँखें मूँद प्रार्थना कर वचन लिया. वे अब थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे, उन्होंने आँखें खोली और उसी के साथ ही जयसिंह पर मानो बिजली गिर गई.
जयसिंह ने जैसे ही आँखें खोली तो सामने का नज़ारा देख उनका सिर चकरा गया था, मनिका की पीठ उनकी तरफ थी और वह खड़ी-खड़ी ही कमर से झुकी हुई थी. उसके दोनों नितम्ब लेग्गिंग्स के कपड़े में से पूरी तरह उभर कर नज़र आ रहे थे वह उसकी पतली गोरी कमर केबिन में फैली सूरज की रौशनी में चमक रही थी. जयसिंह का चेहरा अपनी बेटी के अधो-भाग के बिलकुल सामने था. जयसिंह ने अपने लिए प्रण के वास्ते से अपनी नज़रें घुमानी चाही पर उनका दीमाग अब उनके काबू से बाहर जा चुका था. अगले ही पल उनकी आँखें फिर से मनिका के मोटे कसे हुए नितम्बों पर जा टिकीं. उन्होंने गौर किया कि मनिका असल में सामने वाली बर्थ के नीचे रखे बैग में कुछ टटोल रही थी. उनसे रहा न गया.
'क्या ढूँढ रही हो मनिका?' उन्होंने पूछा.
'कुछ नहीं पापा मेरे ईयरफोंस नहीं मिल रहे, डाले तो इसी बैग में थे.' मनिका ने झुके-झुके ही पीछे मुड़ कर कहा.
मनिका को इस पोज़ में देख जयसिंह और बेकाबू हो गए थे. मनिका वापस अपने ईयरफोंस ढूँढने में लग गई थी. जयसिंह ने ध्यान दिया की मनिका के इस तरह झुके होने की वजह से उसकी लेग्गिंग्स का महीन कपड़ा खिंच कर थोड़ा पारदर्शी हो गया था और केबिन में इतनी रौशनी थी कि उन्हें उसकी सफ़ेद लेग्गिंग्स में से गुलाबी कलर का अंडरवियर नज़र आ रहा था. उन पर एक बार फिर जैसे बिजली गिर पड़ी. उन्होंने अपनी नज़रें अपनी बेटी मनिका के नितम्बों पर पूरी शिद्दत से गड़ा लीं, वे सोच रहे थे कि पहली बार में उन्हें उसकी अंडरवियर क्यूँ नहीं दिखाई दी थी, और उन्हें एहसास हुआ की मनिका जो अंडरवियर पहने थी वह कोई सीधी-सिम्पल अंडरवियर नहीं थी बल्कि एक थोंग था, जो कि एक प्रकार का मादक (सेक्सी) अंडरवियर होता है जिससे पीछे का अधिकतर भाग ढंका नहीं जाता. जयसिंह पर गाज पर गाज गिरती चली जा रही थी. ट्रेन के हिचकोलों से हिलते मनिका के नितम्बों ने उनके लिए वचन की धज्जियाँ उड़ा दीं थी.
आज तक जयसिंह ने किसी को इस तरह की सेक्सी अंडरवियर पहने नहीं देखा था, अपनी बीवी संचिता को भी नहीं. उनके मन में अनेक ख्याल एक साथ जन्म ले रहे थे, 'ये मनिका कब इतनी जवान हो गई? पता ही नहीं चला, आज तक इसकी माँ ने भी कभी ऐसी पैंटी पहन कर नहीं दिखाई जैसी ये पहने घूम रही है...ओह्ह मेरे से पैसे ले जा कर ऐसी कच्छियाँ लाती है ये...' जयसिंह जैसे सुध-बुध खो बैठे थे, 'ओह्ह क्या....क्या कसी हुई गांड है साली की...ये मैं क्या सोच रहा हूँ? सच ही तो है...साली कुतिया कैसे अधनंगी घूम रही है देखो जरा. साली चिनाल के बोबे भी बहुत बड़े हो रहे हैं...म्म्म्म्म्म्म...हे प्रभु...' जयसिंह के दीमाग में बिजलियाँ कौंध रहीं थी.
***
जयसिंह के कई दोस्त ऐसे थे जिनके शादी के बाद भी अफेयर्स रहे थे लेकिन उन्होंने कभी संचिता के साथ दगा नहीं की थी, उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी कामिच्छा भी मंद पड़ने लगी थी और अब वे कभी-कभार ही संचिता के साथ संभोग किया करते थे. लेकिन आज अचानक जैसे उनके अन्दर सोया हुआ मर्द फिर से जाग उठा था उन्होंने पाया की उनकी पेंट में उनका लिंग तन के खड़ा हो गया था. अब तक मनिका को उसके ईयरफोंस मिल चुके थे और वह सामने की बर्थ पर बैठी गाने सुन रही थी, उसने मुस्का कर अपने पिता की ओर देखा, उसे नहीं पता था कि सामने बैठे उसके पापा किस कदर उस के जिस्म के दीवाने हुए जा रहे थे.
जयसिंह ने पाया कि उनका लिंग खड़ा होकर उन्हें तकलीफ दे रहा था क्यूंकि उनके बैठे होने की वजह से लिंग को जगह नहीं मिल पा रही थी, उन्हें ऐसा लग रहा था मानो एक दिल उनके सीने में धड़क रहा था और एक उनके लिंग में, 'साला लौड़ा भी फटने को हो रहा है और ये साली कुतिया मुस्कुरा रही है सामने बैठ कर...ओह क्या मोटे होंठ है साली के, गुलाबी-गुलाबी...मुहं में भर दूँ लंड इसके...आह्ह्ह...' जयसिंह भूल चुके थे कि मनिका उनकी बेटी है. पर सच से भी मुहं नहीं फेरा जा सकता था, थोड़ी देर बाद जब उनका दीमाग कुछ शांत हुआ तो वे फिर सोच में पड़ गए, 'मनिका...मेरी बेटी है...साली कुतिया छोटी-छोटी कच्छियाँ पहनती है...उफ़ पर वो मेरी बेटी...साली का जिस्म ओह्ह...उसकी फ्रेंड्स मुझे उसका बॉयफ्रेंड कहती हैं...ओह मेरी ऐसी किस्मत कहाँ...काश ये मुझसे पट जाए...कयामत आ जाएगी...पर वो मेरी प्यारी बिटिया...रांड है.'
जयसिंह इसी उधेड़बुन में लगे थे जब मनिका ने अपनी सैंडिल खोली और पैर बर्थ पर करके लेट गई, एक बार फिर उनके कुछ शांत होते बदन में करंट दौड़ गया. मनिका उनकी तरफ करवट ले कर लेटी हुई थी और उसकी डीप-नेक टी-शर्ट में से उसका वक्ष उभर कर बाहर निकल आया था, इससे पहले की जयसिंह का दीमाग इस नए झटके से उबर पाता उनकी नज़र मनिका की टांगों के बीच बन रही 'V' आकृति पर जा ठहरी. वे तड़प उठे, 'ओह्ह्ह मनिकाआआ...' और उसी क्षण जयसिंह ने फैसला कर लिया कि ये आग मनिका के जिस्म से ही बुझेगी, जो भी हो उन्हें किसी तरह अपनी बेटी के साथ हमबिस्तर होने का रास्ता खोजना होगा वरना शायद उन्हें ज़िन्दगी भर चैन नहीं मिलेगा.
जयसिंह भी अब अपनी बर्थ पर लेट गए और मनिका पर से नज़रें हटा लीं. वे जानते थे कि अगर वे उसकी तरफ देखते रहे तो उनका दीमाग सोचने-समझने के काबिल नहीं रहेगा और इस वक्त उन्हें दिल से ज्यादा दीमाग की जरूरत थी, 'मैं और मनिका इस ट्रिप पर अकेले जा रहे हैं, इस को पटाने के लिए इससे ज्यादा सुनहरा मौका शायद ही फिर मिले, सो मुझे दीमाग से काम लेना होगा. अगर प्लान में थोड़ी भी गड़बड़ हुई तो मामला बहुत बिगड़ सकता है इसलिए बहुत सोच समझ कर कदम उठाने होंगे ताकि अगर बात न बनती दिखे तो पीछे हटा जा सके.' जयसिंह अब मनिका के स्वाभाव और स्कूल कॉलेज के ज़माने के अपने अनुभव का मेल करने की कोशिश करने लगे, 'हम्म लड़कियों के बारे में मैं क्या जानता हूँ..? हमेशा से ही लड़कियां पैसे वाले लौंडों के चक्करों में जल्दी आती हैं, सो पहली समस्या का हल तो मेरे पास है और दूसरा लड़कियों को पसंद है अपनी तारीफ करवाना, वो भी कोई दिक्कत नहीं है और लड़कियाँ स्वाभाव से सीक्रेटिव भी होतीं है, उन्हें चुपके-चुपके शरारत करना बहुत भाता है, सो साली की इस कमजोरी पर भी ध्यान देना होगा. फिर आती है भरोसे की बात;एक बार अगर लड़की को आपने भरोसे में ले लिया तो उस से कुछ भी करवाया जा सकता है, मनिका मुझ पर भरोसा तो करती है लेकिन अपने पैरेंट के रूप में सो वहाँ दिक्कत आने वाली है और लास्ट स्टेप है मनिका की जवानी, उसमें भी आग लगानी होगी. वैसे इन मामलों में लडकियाँ मर्दों से कम तो नहीं होती बस वे जाहिर नहीं होने देती, लेकिन यहाँ सबसे बड़ी दिक्कत आने वाली है. मनिका के तन में इतनी हवस जगानी होगी कि वह सामाज के नियम तोड़ कर मेरी बात मान लेने पर मजबूर हो जाए. यह आखिरी काम सबसे मुश्किल होगा, लेकिन अब मैं पीछे नहीं हट सकता, या तो आर है या पार है.' जयसिंह ने इसी तरह सोचते हुए दो घंटे बिता दिए, मनिका को लगा कि वे सो रहे हैं.
उनका प्लान बन चुका था, पहले वे अपने पैसे और तारीफों से मनिका को दोस्ती के ऐसे जाल में फँसाने वाले थे ताकि वह उनको अपने पिता के रूप में देखना कुछ हद तक छोड़ दे. फिर वे धीरे-धीरे अपना चँगुल कसने वाले थे और मनिका के साथ बिलकुल किसी अच्छे दोस्त की तरह पेश आ कर उसका भरोसा पूरी तरह जीतने की कोशिश करने वाले थे ताकि उन दोनों के बीच कुछ ऐसे अन्तरंग वाकये हों जो मनिका को उनके और करीब ले आए. उसके इतना फंस जाने के बाद जयसिंह हौले-हौले उसकी कमसिन जवानी की आग को हवा देने का काम करने वाले थे. जयसिंह का मन अब शांत था, वे हमेशा से ही अपने बिज़नस के क्षेत्र में एक मंजे हुए खिलाड़ी माने जाते थे क्यूंकि एक बार जो वे ठान लेते थे उसे पा कर ही दम लेते थे और उसी एकाग्रता के साथ वे अपनी बेटी को अपनी रखैल बनाने के अपने प्लान पर अमल लाने वाले थे.
***
शाम होते-होते वे लोग दिल्ली पहुँच गए, स्टेशन से बाहर आ कर उन्होंने एक कैब ली और जब ड्राईवर ने पूछा कि वे कहाँ जाना चाहते हैं तो जयसिंह बोले,
'मेरियट गुडगाँव.' और कनखियों से मनिका की तरफ देखा. मनिका के चेहरे पर ख़ुशी साफ़ झलक रही थी.
'वाओ पापा हम मेरियट में रुकेंगे?' मनिका ने खुश हो कर पूछा.
'और नहीं तो क्या? अब तुम साथ आई हो तो किसी अच्छी जगह ही रुकेंगे ना.' जयसिंह उसे हवा देते हुए बोले.
'ओह गॉड पापा आई एम सो हैप्पी.'
'हाहा...थेट्स व्हाट आई वांट फॉर यू मनिका.' जयसिंह ने कहा. मनिका यह सुन और खुश हो गई लेकिन उसने मन ही मन नोटिस किया कि जयसिंह सुबह से उसे उसके निकनेम लवली की बजाय 'मनिका' कह कर पुकार रहे थे जो उसे थोड़ा अटपटा लगा.
कुछ देर के सफ़र के बाद वे हॉटेल पहुँच गए. मेरियट दिल्ली-गुडगाँव बेहद आलिशान हॉटेल है, अन्दर पहुँचने पर मनिका वहाँ के डेकोर को देख बहुत खुश हुई. जयसिंह ने उसे सामान के पास छोड़ा और चेक-इन काउंटर पर पहुंचे. वहाँ बैठे फ्रंट-ऑफिस क्लर्क ने उनका अभिवादन किया,
'वेलकम टू द मेरियट सर. डू यू हैव अ रिजर्वेशन?'
'एक्चुअली नो. आई ऍम लुकिंग फॉर अ स्टे.'
'ओह वैरी वेल सर, आर यू अलोन?'
'नो आई एम हेयर विद माय वाइफ.' जयसिंह ने मुस्कुरा कर कहा.
'वेल सर हाओ लॉन्ग विल यू बी स्टेइंग विद अस?'
'आई डोंट क्नो एक्चुअली सो कैन यू पुट अस डाउन फॉर अ वीक फॉर नाओ?' जयसिंह ने जरा सोच कर कहा.
'वैरी वेल सर. हेयर आर योर की-कार्ड्स सर थैंक यू फॉर चूजिंग द मेरियट. हैव अ प्लीजेंट स्टे.'
जयसिंह रूम बुक करा कर मनिका के पास लौटे. तभी हेल्पर भी आ गया और उनका रूम नंबर पूछ कर उनका लगेज रखने चल दिया. वे भी एलीवेटर से अपने रूम की तरफ चल पड़े.
जब वे अपने रूम में पहुंचे तो पाया की हेल्पर ने उनका सामान वहाँ पहुँचा दिया था और खड़ा उनका वेट कर रहा था. जयसिंह समझ गए कि वह टिप चाहता है. उन्होंने जेब से दो सौ रूपए निकाल उसे थमा दिए और वह ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से चल दिया. मनिका ने जब रूम देखा तो उसकी बांछें खिल उठी, कमरा इतना बड़ा व शानदार था और उसमे ऐशो-आराम की सभी चीजें मौजूद थीं कि वो खुश होकर इधर-उधर जा-जा कर वहाँ रखी चीज़ें उलट-पलट कर देखने लगी.
'पापा क्या रूम है ये...वाओ.' उसने जयसिंह से अपनी ख़ुशी का इज़हार किया.
'हाँ-हाँ. अच्छा है.' जयसिंह ने कुछ ख़ास महत्व न देते हुए कहा.
'बस अच्छा है? पापा! इतना सुपर रूम है ये...' मनिका ने इंसिस्ट किया.
'हाँ भई बहुत अच्छा है, बस?' जयसिंह ने उसी टोन में कहा, 'तुमने पहली बार देखा है इसीलिए ऐसा लग रहा है तुम्हें.'
'मतलब..? मतलब आप पहले भी आए हो यहाँ पर पापा?' मनिका ने आश्चर्य से पूछा.
'और नहीं तो क्या, बिज़नस मीटिंग्स के सिलसिले में आता तो रहता हूँ मैं दिल्ली, जैसे तुम्हें नहीं पता...' जयसिंह बोले.
'हाँ आई क्नो दैट पापा पर मुझे नहीं पता था कि आप यहाँ रुकते हो.' मनिका बोली, 'पहले पता होता तो मैं भी आपके साथ आ जाती.' जयसिंह उसकी बात पर मन ही मन मुस्कुराए.
'हाहा..अच्छा जी. चलो कोई बात नहीं अब तो तुम यहीं हॉस्टल में रहा करोगी, सो जब मैं दिल्ली आया करूँगा तो तुम यहाँ आ जाया करना मेरे पास हॉटेल में.' जयसिंह का आशय अभी मनिका कैसे समझ सकती थी, सो वह खुश हो गई और बोली,
'वाओ हाँ पापा ये तो मैंने सोचा ही नहीं था. आई विश की मेरा एडमिशन हो जाए यहाँ...और आपकी बिज़नस मीटिंग्स जल्दी-जल्दी हुआ करें.'
'हाहाहा...अरे हो जाएगा, तुम इतनी इंटेलीजेंट हो, डोंट वरी.' जयसिंह मनिका की तारीफ करते हुए बोले, 'चलो अब बताओ की डिनर रूम में मंगवाएं या नीचे रेस्टोरेंट में करना है?'
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