FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--161
और यामिनी के आखिरी पहर के पहले , ही मुझे मन्त्र का आखिरी भाग भी पूरा करना था , रंजी का मुंह चोद के उसके मुंह में झड़ के।
गुड्डी ने फिर बोला , और मैंने उसके कान में फुसफुसाते कहा , " यार मेरा हाथ खोल न पहले। "
लेकिन गुड्डी भी न , बिना कुछ लिए करना उसकी फितरत में नहीं थी।
" लेकिन पहले वायदा करो , जो मम्मी से वायदा किया था की उनकी समधन के साथ , … बोल बिना लजाये शरमाए , ना नुकुर के "
" हाँ यार लेकिन खोल न " मैं उसकी सब बातें मानने को तैयार था।
और अगले पल मैं रंजी के ऊपर चढ़ गया , मेरा २/३ लंड उसके कोमल मुंह में था और मैं हचक हचक के मुख चोदन कर रहा था।
वो गों गों कर रही थी , सर पटक रही थी लेकिन बिना सुपाड़ा हलक तक उतारे मैं आज छोड़ने वाला नहीं था।
उसकी बड़ी बड़ी आँखे बाहर निकल रही थीं ,
गाल पूरे फूल गए थे ,
होंठ के किनारे से थोड़ी लार भी निकल रही थी लेकिन जैसे मैने उसकी चूत चोदी थी पूरे लंड से वैसे ही अब गपागप उसका मखमली मुह चोद रहा था।
वो चोक कर रही थी , गैंग कर रही थी ,उसकी सांस रुक रही थी , … और मेरे मोटे लंड के धक्के कम नहीं हो रहे थे।
लेकिन रंजी , रंजी थी। नंबरी लंड की भूखी ,चुदवासी ,
कुछ देर रुक के उसने जम के फिर से चूसना शुरू कर दिया।
और क्या चूसती थी वो , बस ,… गजब।
मुंह तो पूरा मक्खन था , और साथ में लंड को जो जीभ से चाट रही थी , नीचे से , बगल से
और जब लंड अंदर बाहर होता उसके रसीले होंठ जोर जोर से उसे रगड़ते , घिसटते।
जोश में आके मेरे मुख चोदन की रफ्तार बढ़ गयी , और कुछ ही देर में सुपाड़ा उसके गले तक उत्तर गया।
पूरा ९ इंच अंदर।
उसका मुंह खूब चौड़ा फैला हुआ था , उसकी कलाई के बराबर , लंड सटसट अंदर जा रहा था।
और अब साथ मेरे हाथ भी हरकत में आ गए , कभी उसकी गदराई चूंचियों को दबाते , और कभी दोनों जाँघों के बीच खजाने का दरवाजा खोजते।
और जल्दी ही मेरी दो उंगलिया अंदर घुस गयी ,
फिर तो वो तूफान मचा , मेरी ऊँगली बार बार अंदर बाहर हो रही थी और कुछ देर में उसकी चूत मेरी ऊँगली को जोर जोर से सिकोडने लगी।
चूंची पथरा गयी थी , निपल कड़े हो गए थे।
और मैं भी झड़ने के कगार पे थे।
मैंने मुख मैथुन का मन्त्र पढ़ना शुरू कर दिया।
रीत ने जो कार्लोस से मन्त्र सीखा था , और गुड्डी को बताया था , जिसे किसी अक्षत यौवना कच्ची कली के साथ नियत समय पर सिद्ध करना था , तीन भाग में था , और उसके भी अलग अलग भाग थे ,
योनि मंथन में , कुँवारी योनि में घुसाते समय , झिल्ली फाड़ते समय और झड़ते समय।
गुदा मैथुन में गुदा के छल्ले को फाड़कर फैला कर घुसते समय और झड़ते समय।
और मुझ मैथुन में वीर्यपात के समय।
अब उसका समय आ गया था।
मैंने मन्त्र शुरू किया और साथ में गुड्डी ने भी ,
रंजी कीचूत ने जोर जोर से पानी फेंकना शुरू किया और साथ में मेरे लंड ने भी ,
कम से कम दो अंजुरी मलाई।
और रंजी ने एक एक बूँद घोंट लिया। उसके बाद भी मैंने लंड अंदर ठेल कर रखा।
सुपाड़े पर लगी मलाई वो चाटती रही।
और जब मैंने लंड बाहर निकाला एक सफेद थक्का उसके होंठों पे था और नदीदी ने ऊँगली से लगा के उसे चाट लिया।
रात आखिरी पड़ाव पे थी।
चांदनी भी अपना जादू समेत रही थी।
हम तीनो भी थक के एक दूसरे की बाँहों में सिमट के सो गए।
रंजी मेरी बाँहों में थी और गुड्डी ने पीछे से मुझे भींच रखा था।
बीच में मेरी नींद खुली , जंगबहादुर तन्नाये खड़े थे , कुतुबमीनार को मात करते।
चंदा मामा ( मेरे नहीं गुड्डी के ) टाटा बाई बाई कर चुके थे ,लेकिन भोर अभी ठीक से हुयी नहीं थी।
नींद तो खुल गयी थी लेकिन आधी तीही , उनींदी अलसायी।
बस जंगबहादुर को गंध लग गयी।
सुरंग ठीक सामने थी , किसकी हो इससे क्या फरक पड़ता है , बस प्रेमकुमारी की संकरी संकरी गली ,
मक्खन सी मुलायम , और उन्होंने सेंध लगा दी।
कुछ देर मैंने कमर उचकाई , कुछ देर उस सुनयना ने।
कब गाडी अपनी पूरी स्पीड पर आई कब मंजिल पर पहुंची। पता नहीं।
कब आॅंख लगी ये भी पता नहीं।
बीच में एक बार आँख खुली , तो जंगबहादुर अभी भी पतली गली में ,
सो रहे थे , रात की लम्बी लड़ाई के बाद।
और मैं फिर सो गया।
जब उठा तो ,भगवान भुवन भास्कर अपनी यात्रा न सिर्फ शुरू करचुके थे बल्कि पहला राउंड खत्म भी होने वाला था।
आखिरी राउंड किसके साथ हुआ कुछ याद नहीं आ रहा था।
और उठा क्या उठाया गया , रोज की तरह , गुड्डी की हंकार के साथ और साथ में गरम चाय की प्याली।
फरक इतना था की साथ में , रंजी भी थी।
और मेरे बिन पूछे सवाल का जवाब गुड्डी ने बिन कहे दे दिया रंजी को कुहनी मार के
" हे सूना है कुछ लोगों की गुड मॉर्निंग हो गयी , रात में मन नहीं भरा था क्या। "
और उस के बाद रंजी जिस शरमाई ,एक बार मुझे देख के पलकें गिराई ,
मैं समझ गया आखिरी राउंड किसके साथ हुआ था।
दोनो अच्छी बच्ची की तरह तैयार हो के पूरी तरह , ढंकी शलवार कुर्ते में थी और यहाँ तक की दुपट्टा भी , कोई सोच भी नहीं सकता था की रात कितनी जबरदस्त कबड्डी हुयी थी।
मैंने बात बदल दी और गुड्डी को छेड़ा ,
क्या हुआ सुबह सबेरे , नहा धो के।तैयार , इरादा क्या है
लेकिन जवाब रंजी की ओर से आया।
' तुम उठोगे नहीं तो सबेरा नहीं होगा क्या आठ बज गए हैं , रात में सोये नहीं थे क्या। "
और गुड्डी ने और चरस बोई ,
" सिर्फ धोया है , नहाया नहीं। और वो भी सिर्फ गले के ऊपर वाला हिस्सा धोया है , मैंने बहुत कहा लेकिन तेरा माल तैयार ही नहीं हुआ ,बोली नहायेगी भी तेरे संग और धुलवाएगी भी तुमसे। "
हम तीनो चाय पी रहे थे की गुड्डी ने अगला हुक्मनामा सुना दिया ,
" चाय तो मिल गयी लेकिन नाश्ता नहीं मिलेगा। ये तेरी बहिनिया बहुत निदासी हो रही है। तो चाय के बाद , बस जाके जरा जल्दी से ६ समोसे और २५० ग्रामजलेबी ले आओ , तब तक हम दोनों आराम फरमाएंगे। "
रंजी ने कुछ मेरा साथ देने की कोशिश की " रहने दे न , कहाँ सुबह सुबह चक्कर लगवाएगी इनसे। हम दोनों कुछ बना लेंगे न। "
लेकिन उसे भी गुड्डी की डाँट पड़ गयी , और मुझे भी सीख मिल गयी।
" हे समोसे की दूकान पे वो तेरी समोसे वाली भी मिलेगी , लेकिन उससे ज्यादा नैन मटक्का मत करने लगना ,
और नैन मटक्का करना भी तो 'और कुछ ' मत करने लग जाना। "
वो दोनों चाय पी के बेड पर लम्बी हो गयीं और मैं एक छोटी सी टी शर्ट टांग , पड़ोस के हलवाई के यहाँ निकल पड़ा। जहाँ चाय पर चरचा के साथ समोसे वाली चर्चा का विषय रहते थे।
और उस पार,...
और उस पार,...
इधर सब चैन सुकून और मस्ती थी।
रात भर रीत आराम से नेवी हॉस्पिटल में सोयी। दवा के असर से नहीं , बल्कि अपनी गाढ़ी नीद , और इतने दिनों के रतजगों की थकान उतारने वाली , रतजगा चाहे बनारस और मुम्बई में दुष्ट दमन का रहा हो था ट्रेन में रात भर छुक छुक छक छक , करन के साथ बिछोह के पलों का उधार चुकता करने का। और उसी हास्पिटल में बगल के कमरे में करन भी सो रहा था , बिना किसी चिंता के।
सुबह पांच बजे , एक नेवी के शिप से उन्हें हजीरा जाना था , जहाँ मीनल उनका इन्तजार कर रही थी , एक दिन रात वहां और फिर अगली सुबह बनारस।
आनंद बाबू , गुड्डी और रंजी की रात मुम्बई से १५०० किलोमीटर दूर मस्ती में बीत रही थी।
लेकिन उस पार , पड़ोस के देश में जहाँ सारे ताने बाने बुने गए , जाल रचे गए वहां न चैन था न सुकून।
सारी बाजी उलट पुलट गयी थी , सारे दांव उलटे पड़े थे।
और वहीँ , मुम्बई से लगभग उतनी ही दूर ( सौ सवा सौ ज्यादा ) , जितना दूर आनद बाबू और रंजी का मायका था और २५ के बाद जो गुड्डी की ससुराल होने वाली थी , जहाँ रात भर गुड्डी अपनी छुटकी ननदिया, के सब बंद दरवाजे खुलवा रही थी , पड़ोस के देश के एक शहर में जो उनकी पहले राजधानी हुआ करता था और अभी भी सेना का एक महत्वपूर्ण केंद्र था ,....
वहीँ शहर के बाहरी हिस्से में ,
एक बड़ा सा बंगला था।
वैसे उस तरह के कई बंगले इस इलाके में थे जिनमे रिटायर्ड या सेमी रिटायर्ड हुक्मरान रहते थे।
लेकिन कुछ फर्क था इस बंगले में ,
एक तो ये आखिरी बंगला था और दूसरे इस के सामने , एक हमवी खड़ी रहती थी और अगर किसी ने उसे पार कर उस बंगले में जाने की कोशिश की , तो उसे उसके अंदर बैठे उस आदमी से रूबरू होना पड़ता था , जो फौजी वर्दी में तो नहीं था ,लेकिन चाल चलन से , फिजिक से एक आर्मी कमांडो लगता था।
बंगले के बाहर एक पुराना सा गेट था , लेकिन कोई चेतावनी वाला बोर्ड नहीं था जैसे कुत्ते से सावधान या ट्रेसपासर्स विल बी प्राजिक्यूटेड। लेकिन वहां पर कोई नेम प्लेट भी नहीं थी। और दीवालों का रंग रोगन काफी उतर गया था। लेकिन दीवालें बहुत ऊँची थी और घने पेड़ों के साये में कटीले तार कभी कभी दिख जाते थे। बंगले के अंदर भी सूखे पत्ते , टूटी टहनियां इस तरह बिखरी पड़ीं थी , जैसे बहुत अरसे से लोगों का आना जाना कम हो यहाँ।
लेकिन बाहर से भले न लग रहा हो , आज सुबह से ही बंगले के अंदर कुछ फर्क लग रहा था , और दोपहर होने तक वो बहुत साफ हुआ।
और उसको नोटिस करने वाला और कोई नहीं सिर्फ वली था। उनका बावर्ची , बल्कि पीर , बावर्ची ,भिश्ती , सब कुछ।
कितने अरसे से इस घर में बस सुबह होती थी शाम होती थी।
लेकिन कुछ दिनों से , साहब अकसर फोन पर बिजी रहने लगे थे।
कुछ पुराने लोग भी आने जाने लगे थे , लेकिन आज सुबह से तो ,
सुबह का नाश्ता करने के बाद वो अखबार पढ़ने बैठ जाते थे। आज अखबार धरा रह गया हाँ क्रासवर्ड जरूर वो कर रहे थे लेकिन वो भी आधा तिहा ,
वैसे ही रह गया।
फिर दो तीन फोन आये फिर तो वो उदासी तारी हुयी , कुछ गुस्सा कुछ अफसोस लेकिन वो बाद में पुराने वकत के जोश में बदल गया।
यहाँ तक की खाना दस्तरख्वान पर धरा का धरा रह गया।
एकदम उस तरह जब उन का सितारा पूरे परवान पर था , सिर्फ काफी पीना , फोन , फाइलें और टहलते हुए सोचना।
उस समय वो सिर्फ ब्रिगेडियर गुल थे , आई इस आई के सदर हुए ही थे , और क्या गहमागहमी रहती थी , एक से एक बड़े अंग्रेजी अफसर , अफगानी , तुर्की , अरबी जाने कहाँ कहाँ के लोग , और दिन में दो चार बार तो सीधे जनरल साहब का फोन आता ,
अफगानिस्तान की लड़ाई चालू हुयी ही।
और फिर वो लेफ्टिनेंट जनरल हुए , फिर रिटायर हो गए , लेकिन रिटायर होने के बाद भी ,…
आज उनकी शक्ल से गुस्सा , अफ़सोस सब कुछ झलक रहा था।
लेफ्टिनेंट जनरल गुल , के एक ओर शतरंज लगी रहती थी जिसे वो अक्सर अकेले खेलते थे और साथ में क्रासवर्ड पजल भी
एक मुहरे को चलने के बाद वो बोर्ड पर देखने लगे , उनके चेहरे पर जैसे किसी मुअम्मे को सुलझा लेने की ख़ुशी चमक रही थी।…
Aaj आज तक एक से एक बड़ी जंग उन्होंने लड़ी थी और सब यहीं कुर्सी पर बैठकर
लेकिन ऐसी उलझी हुयी पहेली , इतनी फँसी हुयी चाल वो पहली बार देख रहे थे , हर ओर से मात ही नजर आ रही थी , दो चाल पीछे जाके चाल बदल के भी ,
जब अमेरिका ने तय किया तालिबान के जरिये अफगानिस्तान से रूस को भगाने का ,
उन पनाहजगिनो के बीच नेता ढूंढना उन के जरिये लड़ाई लड़ना , और इस तरह की लगे भी नहीं ,की उनके पीछे हाथ , हथियार और दिमाग किसका है ,
सी आई ए के बड़े से बड़े लोग उनका लोहा मानते थे।
और सबसे बड़ी चाल तो उन्होंने ये चली की उसी पैसे , असलहा और ट्रेनिंग से मुल्क के पूरबी मोर्चे के लिए नए लोग तैयार कर लिए जो अंदर घुस कर दहशत गर्दी फैलाएं , इन्स्टेबिलिटी पैदा करें।
जब १९८९ में रुसी सेनाएं अफगानिस्तान से कूच कर गयीं और सोवियत रूस का ,' इम्प्लोजन ' हो गया , उन्होंने सारे 'लड़ाकुओं ' को पूरब का रास्ता दिखा दिया और केसर की क्यारी शोलों से दहकने लगी।
मरकज़ में हुकरान कोई भी हों , वर्दी वाले , बिना वर्दी वाले , बिना उनकी राय के बगैर कदम भी नहीं रखते थे।
और अमेरिका के अफगानिस्तान में घुसने के बाद , एक बार फिर उनकी अहमियत बढ़ गयी। चाहे रबानी हो , मसूद हो या हेक्मत्यार , हर कबीली गुटों में उनकी पैठ थी , दोस्ताना था।
लेकिन पिछले कुछ सालों से कुछ जिस्म साथ नही दे रहा था और कुछ सियासी हालात ऐसे बदल गए थे , उनपर कई बातों के इल्ज़ामात लगे , उन्होंने की चहारदीवारी में समेटलिया।
कभी कभार अभी भी कोई अखबार /नेटवर्क वाला आ ही जाता था।
वो सिमट के रह गए थे लेकिन खबर उन्हें पूरी तरह से रहती थी।
अभी भी सब लोग ये मानते थे की जो बात तीन दिन बाद होने वाली है उसका पता उन्हें हो जाता था।
और अभी भी उनकी सबसे बड़ी स्ट्रेंथ थी ,
उनका नेटवर्क ,कॉन्टैक्ट्स जो दुनिया की तमाम स्पाई एजेंसीज से लेकर टेरर नेटवर्क के अंदर तक था ,
उनकी प्लानिंग
और सबसे बढ़कर उलझी हुयी , जटिल बातों में भी पैटर्न ढूंढ लेना और उसे सुलझा देना।
लेकिन आज उनका प्रोटीजी जो प्राबलम लाया था वो सबसे टेढ़ी थी।
फागुन के दिन चार--161
और यामिनी के आखिरी पहर के पहले , ही मुझे मन्त्र का आखिरी भाग भी पूरा करना था , रंजी का मुंह चोद के उसके मुंह में झड़ के।
गुड्डी ने फिर बोला , और मैंने उसके कान में फुसफुसाते कहा , " यार मेरा हाथ खोल न पहले। "
लेकिन गुड्डी भी न , बिना कुछ लिए करना उसकी फितरत में नहीं थी।
" लेकिन पहले वायदा करो , जो मम्मी से वायदा किया था की उनकी समधन के साथ , … बोल बिना लजाये शरमाए , ना नुकुर के "
" हाँ यार लेकिन खोल न " मैं उसकी सब बातें मानने को तैयार था।
और अगले पल मैं रंजी के ऊपर चढ़ गया , मेरा २/३ लंड उसके कोमल मुंह में था और मैं हचक हचक के मुख चोदन कर रहा था।
वो गों गों कर रही थी , सर पटक रही थी लेकिन बिना सुपाड़ा हलक तक उतारे मैं आज छोड़ने वाला नहीं था।
उसकी बड़ी बड़ी आँखे बाहर निकल रही थीं ,
गाल पूरे फूल गए थे ,
होंठ के किनारे से थोड़ी लार भी निकल रही थी लेकिन जैसे मैने उसकी चूत चोदी थी पूरे लंड से वैसे ही अब गपागप उसका मखमली मुह चोद रहा था।
वो चोक कर रही थी , गैंग कर रही थी ,उसकी सांस रुक रही थी , … और मेरे मोटे लंड के धक्के कम नहीं हो रहे थे।
लेकिन रंजी , रंजी थी। नंबरी लंड की भूखी ,चुदवासी ,
कुछ देर रुक के उसने जम के फिर से चूसना शुरू कर दिया।
और क्या चूसती थी वो , बस ,… गजब।
मुंह तो पूरा मक्खन था , और साथ में लंड को जो जीभ से चाट रही थी , नीचे से , बगल से
और जब लंड अंदर बाहर होता उसके रसीले होंठ जोर जोर से उसे रगड़ते , घिसटते।
जोश में आके मेरे मुख चोदन की रफ्तार बढ़ गयी , और कुछ ही देर में सुपाड़ा उसके गले तक उत्तर गया।
पूरा ९ इंच अंदर।
उसका मुंह खूब चौड़ा फैला हुआ था , उसकी कलाई के बराबर , लंड सटसट अंदर जा रहा था।
और अब साथ मेरे हाथ भी हरकत में आ गए , कभी उसकी गदराई चूंचियों को दबाते , और कभी दोनों जाँघों के बीच खजाने का दरवाजा खोजते।
और जल्दी ही मेरी दो उंगलिया अंदर घुस गयी ,
फिर तो वो तूफान मचा , मेरी ऊँगली बार बार अंदर बाहर हो रही थी और कुछ देर में उसकी चूत मेरी ऊँगली को जोर जोर से सिकोडने लगी।
चूंची पथरा गयी थी , निपल कड़े हो गए थे।
और मैं भी झड़ने के कगार पे थे।
मैंने मुख मैथुन का मन्त्र पढ़ना शुरू कर दिया।
रीत ने जो कार्लोस से मन्त्र सीखा था , और गुड्डी को बताया था , जिसे किसी अक्षत यौवना कच्ची कली के साथ नियत समय पर सिद्ध करना था , तीन भाग में था , और उसके भी अलग अलग भाग थे ,
योनि मंथन में , कुँवारी योनि में घुसाते समय , झिल्ली फाड़ते समय और झड़ते समय।
गुदा मैथुन में गुदा के छल्ले को फाड़कर फैला कर घुसते समय और झड़ते समय।
और मुझ मैथुन में वीर्यपात के समय।
अब उसका समय आ गया था।
मैंने मन्त्र शुरू किया और साथ में गुड्डी ने भी ,
रंजी कीचूत ने जोर जोर से पानी फेंकना शुरू किया और साथ में मेरे लंड ने भी ,
कम से कम दो अंजुरी मलाई।
और रंजी ने एक एक बूँद घोंट लिया। उसके बाद भी मैंने लंड अंदर ठेल कर रखा।
सुपाड़े पर लगी मलाई वो चाटती रही।
और जब मैंने लंड बाहर निकाला एक सफेद थक्का उसके होंठों पे था और नदीदी ने ऊँगली से लगा के उसे चाट लिया।
रात आखिरी पड़ाव पे थी।
चांदनी भी अपना जादू समेत रही थी।
हम तीनो भी थक के एक दूसरे की बाँहों में सिमट के सो गए।
रंजी मेरी बाँहों में थी और गुड्डी ने पीछे से मुझे भींच रखा था।
बीच में मेरी नींद खुली , जंगबहादुर तन्नाये खड़े थे , कुतुबमीनार को मात करते।
चंदा मामा ( मेरे नहीं गुड्डी के ) टाटा बाई बाई कर चुके थे ,लेकिन भोर अभी ठीक से हुयी नहीं थी।
नींद तो खुल गयी थी लेकिन आधी तीही , उनींदी अलसायी।
बस जंगबहादुर को गंध लग गयी।
सुरंग ठीक सामने थी , किसकी हो इससे क्या फरक पड़ता है , बस प्रेमकुमारी की संकरी संकरी गली ,
मक्खन सी मुलायम , और उन्होंने सेंध लगा दी।
कुछ देर मैंने कमर उचकाई , कुछ देर उस सुनयना ने।
कब गाडी अपनी पूरी स्पीड पर आई कब मंजिल पर पहुंची। पता नहीं।
कब आॅंख लगी ये भी पता नहीं।
बीच में एक बार आँख खुली , तो जंगबहादुर अभी भी पतली गली में ,
सो रहे थे , रात की लम्बी लड़ाई के बाद।
और मैं फिर सो गया।
जब उठा तो ,भगवान भुवन भास्कर अपनी यात्रा न सिर्फ शुरू करचुके थे बल्कि पहला राउंड खत्म भी होने वाला था।
आखिरी राउंड किसके साथ हुआ कुछ याद नहीं आ रहा था।
और उठा क्या उठाया गया , रोज की तरह , गुड्डी की हंकार के साथ और साथ में गरम चाय की प्याली।
फरक इतना था की साथ में , रंजी भी थी।
और मेरे बिन पूछे सवाल का जवाब गुड्डी ने बिन कहे दे दिया रंजी को कुहनी मार के
" हे सूना है कुछ लोगों की गुड मॉर्निंग हो गयी , रात में मन नहीं भरा था क्या। "
और उस के बाद रंजी जिस शरमाई ,एक बार मुझे देख के पलकें गिराई ,
मैं समझ गया आखिरी राउंड किसके साथ हुआ था।
दोनो अच्छी बच्ची की तरह तैयार हो के पूरी तरह , ढंकी शलवार कुर्ते में थी और यहाँ तक की दुपट्टा भी , कोई सोच भी नहीं सकता था की रात कितनी जबरदस्त कबड्डी हुयी थी।
मैंने बात बदल दी और गुड्डी को छेड़ा ,
क्या हुआ सुबह सबेरे , नहा धो के।तैयार , इरादा क्या है
लेकिन जवाब रंजी की ओर से आया।
' तुम उठोगे नहीं तो सबेरा नहीं होगा क्या आठ बज गए हैं , रात में सोये नहीं थे क्या। "
और गुड्डी ने और चरस बोई ,
" सिर्फ धोया है , नहाया नहीं। और वो भी सिर्फ गले के ऊपर वाला हिस्सा धोया है , मैंने बहुत कहा लेकिन तेरा माल तैयार ही नहीं हुआ ,बोली नहायेगी भी तेरे संग और धुलवाएगी भी तुमसे। "
हम तीनो चाय पी रहे थे की गुड्डी ने अगला हुक्मनामा सुना दिया ,
" चाय तो मिल गयी लेकिन नाश्ता नहीं मिलेगा। ये तेरी बहिनिया बहुत निदासी हो रही है। तो चाय के बाद , बस जाके जरा जल्दी से ६ समोसे और २५० ग्रामजलेबी ले आओ , तब तक हम दोनों आराम फरमाएंगे। "
रंजी ने कुछ मेरा साथ देने की कोशिश की " रहने दे न , कहाँ सुबह सुबह चक्कर लगवाएगी इनसे। हम दोनों कुछ बना लेंगे न। "
लेकिन उसे भी गुड्डी की डाँट पड़ गयी , और मुझे भी सीख मिल गयी।
" हे समोसे की दूकान पे वो तेरी समोसे वाली भी मिलेगी , लेकिन उससे ज्यादा नैन मटक्का मत करने लगना ,
और नैन मटक्का करना भी तो 'और कुछ ' मत करने लग जाना। "
वो दोनों चाय पी के बेड पर लम्बी हो गयीं और मैं एक छोटी सी टी शर्ट टांग , पड़ोस के हलवाई के यहाँ निकल पड़ा। जहाँ चाय पर चरचा के साथ समोसे वाली चर्चा का विषय रहते थे।
और उस पार,...
और उस पार,...
इधर सब चैन सुकून और मस्ती थी।
रात भर रीत आराम से नेवी हॉस्पिटल में सोयी। दवा के असर से नहीं , बल्कि अपनी गाढ़ी नीद , और इतने दिनों के रतजगों की थकान उतारने वाली , रतजगा चाहे बनारस और मुम्बई में दुष्ट दमन का रहा हो था ट्रेन में रात भर छुक छुक छक छक , करन के साथ बिछोह के पलों का उधार चुकता करने का। और उसी हास्पिटल में बगल के कमरे में करन भी सो रहा था , बिना किसी चिंता के।
सुबह पांच बजे , एक नेवी के शिप से उन्हें हजीरा जाना था , जहाँ मीनल उनका इन्तजार कर रही थी , एक दिन रात वहां और फिर अगली सुबह बनारस।
आनंद बाबू , गुड्डी और रंजी की रात मुम्बई से १५०० किलोमीटर दूर मस्ती में बीत रही थी।
लेकिन उस पार , पड़ोस के देश में जहाँ सारे ताने बाने बुने गए , जाल रचे गए वहां न चैन था न सुकून।
सारी बाजी उलट पुलट गयी थी , सारे दांव उलटे पड़े थे।
और वहीँ , मुम्बई से लगभग उतनी ही दूर ( सौ सवा सौ ज्यादा ) , जितना दूर आनद बाबू और रंजी का मायका था और २५ के बाद जो गुड्डी की ससुराल होने वाली थी , जहाँ रात भर गुड्डी अपनी छुटकी ननदिया, के सब बंद दरवाजे खुलवा रही थी , पड़ोस के देश के एक शहर में जो उनकी पहले राजधानी हुआ करता था और अभी भी सेना का एक महत्वपूर्ण केंद्र था ,....
वहीँ शहर के बाहरी हिस्से में ,
एक बड़ा सा बंगला था।
वैसे उस तरह के कई बंगले इस इलाके में थे जिनमे रिटायर्ड या सेमी रिटायर्ड हुक्मरान रहते थे।
लेकिन कुछ फर्क था इस बंगले में ,
एक तो ये आखिरी बंगला था और दूसरे इस के सामने , एक हमवी खड़ी रहती थी और अगर किसी ने उसे पार कर उस बंगले में जाने की कोशिश की , तो उसे उसके अंदर बैठे उस आदमी से रूबरू होना पड़ता था , जो फौजी वर्दी में तो नहीं था ,लेकिन चाल चलन से , फिजिक से एक आर्मी कमांडो लगता था।
बंगले के बाहर एक पुराना सा गेट था , लेकिन कोई चेतावनी वाला बोर्ड नहीं था जैसे कुत्ते से सावधान या ट्रेसपासर्स विल बी प्राजिक्यूटेड। लेकिन वहां पर कोई नेम प्लेट भी नहीं थी। और दीवालों का रंग रोगन काफी उतर गया था। लेकिन दीवालें बहुत ऊँची थी और घने पेड़ों के साये में कटीले तार कभी कभी दिख जाते थे। बंगले के अंदर भी सूखे पत्ते , टूटी टहनियां इस तरह बिखरी पड़ीं थी , जैसे बहुत अरसे से लोगों का आना जाना कम हो यहाँ।
लेकिन बाहर से भले न लग रहा हो , आज सुबह से ही बंगले के अंदर कुछ फर्क लग रहा था , और दोपहर होने तक वो बहुत साफ हुआ।
और उसको नोटिस करने वाला और कोई नहीं सिर्फ वली था। उनका बावर्ची , बल्कि पीर , बावर्ची ,भिश्ती , सब कुछ।
कितने अरसे से इस घर में बस सुबह होती थी शाम होती थी।
लेकिन कुछ दिनों से , साहब अकसर फोन पर बिजी रहने लगे थे।
कुछ पुराने लोग भी आने जाने लगे थे , लेकिन आज सुबह से तो ,
सुबह का नाश्ता करने के बाद वो अखबार पढ़ने बैठ जाते थे। आज अखबार धरा रह गया हाँ क्रासवर्ड जरूर वो कर रहे थे लेकिन वो भी आधा तिहा ,
वैसे ही रह गया।
फिर दो तीन फोन आये फिर तो वो उदासी तारी हुयी , कुछ गुस्सा कुछ अफसोस लेकिन वो बाद में पुराने वकत के जोश में बदल गया।
यहाँ तक की खाना दस्तरख्वान पर धरा का धरा रह गया।
एकदम उस तरह जब उन का सितारा पूरे परवान पर था , सिर्फ काफी पीना , फोन , फाइलें और टहलते हुए सोचना।
उस समय वो सिर्फ ब्रिगेडियर गुल थे , आई इस आई के सदर हुए ही थे , और क्या गहमागहमी रहती थी , एक से एक बड़े अंग्रेजी अफसर , अफगानी , तुर्की , अरबी जाने कहाँ कहाँ के लोग , और दिन में दो चार बार तो सीधे जनरल साहब का फोन आता ,
अफगानिस्तान की लड़ाई चालू हुयी ही।
और फिर वो लेफ्टिनेंट जनरल हुए , फिर रिटायर हो गए , लेकिन रिटायर होने के बाद भी ,…
आज उनकी शक्ल से गुस्सा , अफ़सोस सब कुछ झलक रहा था।
लेफ्टिनेंट जनरल गुल , के एक ओर शतरंज लगी रहती थी जिसे वो अक्सर अकेले खेलते थे और साथ में क्रासवर्ड पजल भी
एक मुहरे को चलने के बाद वो बोर्ड पर देखने लगे , उनके चेहरे पर जैसे किसी मुअम्मे को सुलझा लेने की ख़ुशी चमक रही थी।…
Aaj आज तक एक से एक बड़ी जंग उन्होंने लड़ी थी और सब यहीं कुर्सी पर बैठकर
लेकिन ऐसी उलझी हुयी पहेली , इतनी फँसी हुयी चाल वो पहली बार देख रहे थे , हर ओर से मात ही नजर आ रही थी , दो चाल पीछे जाके चाल बदल के भी ,
जब अमेरिका ने तय किया तालिबान के जरिये अफगानिस्तान से रूस को भगाने का ,
उन पनाहजगिनो के बीच नेता ढूंढना उन के जरिये लड़ाई लड़ना , और इस तरह की लगे भी नहीं ,की उनके पीछे हाथ , हथियार और दिमाग किसका है ,
सी आई ए के बड़े से बड़े लोग उनका लोहा मानते थे।
और सबसे बड़ी चाल तो उन्होंने ये चली की उसी पैसे , असलहा और ट्रेनिंग से मुल्क के पूरबी मोर्चे के लिए नए लोग तैयार कर लिए जो अंदर घुस कर दहशत गर्दी फैलाएं , इन्स्टेबिलिटी पैदा करें।
जब १९८९ में रुसी सेनाएं अफगानिस्तान से कूच कर गयीं और सोवियत रूस का ,' इम्प्लोजन ' हो गया , उन्होंने सारे 'लड़ाकुओं ' को पूरब का रास्ता दिखा दिया और केसर की क्यारी शोलों से दहकने लगी।
मरकज़ में हुकरान कोई भी हों , वर्दी वाले , बिना वर्दी वाले , बिना उनकी राय के बगैर कदम भी नहीं रखते थे।
और अमेरिका के अफगानिस्तान में घुसने के बाद , एक बार फिर उनकी अहमियत बढ़ गयी। चाहे रबानी हो , मसूद हो या हेक्मत्यार , हर कबीली गुटों में उनकी पैठ थी , दोस्ताना था।
लेकिन पिछले कुछ सालों से कुछ जिस्म साथ नही दे रहा था और कुछ सियासी हालात ऐसे बदल गए थे , उनपर कई बातों के इल्ज़ामात लगे , उन्होंने की चहारदीवारी में समेटलिया।
कभी कभार अभी भी कोई अखबार /नेटवर्क वाला आ ही जाता था।
वो सिमट के रह गए थे लेकिन खबर उन्हें पूरी तरह से रहती थी।
अभी भी सब लोग ये मानते थे की जो बात तीन दिन बाद होने वाली है उसका पता उन्हें हो जाता था।
और अभी भी उनकी सबसे बड़ी स्ट्रेंथ थी ,
उनका नेटवर्क ,कॉन्टैक्ट्स जो दुनिया की तमाम स्पाई एजेंसीज से लेकर टेरर नेटवर्क के अंदर तक था ,
उनकी प्लानिंग
और सबसे बढ़कर उलझी हुयी , जटिल बातों में भी पैटर्न ढूंढ लेना और उसे सुलझा देना।
लेकिन आज उनका प्रोटीजी जो प्राबलम लाया था वो सबसे टेढ़ी थी।
No comments:
Post a Comment