FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--155
मैं कैसे भूल सकता था , चक्रव्यूह के आखिरी द्वार को भेदना ही था।
और एक बार फिर ,
मेरा ध्यान केंद्रित हुआ , मैंने बुदबुदाना शुरू किया और सबसे पहले मेरे होंठों ने
रंजी के माथे को ,
फिर दोनों पलको को ,
अधरों को,
उरोजों को ,....
छुआ या मन्त्र से अभिषक्त किया।
रंजी की आँखे मुंद गयी। दोनों पलकें एकदम चिपक गयीं।
होंठ भी एकदम भींच गए।
जैसे अब भी उस होने वाले क्षण की प्रतीक्षा में हो।
एक बार फिर मैंने उसकी टांगो की लता को माला की तरह अपने गले में लपेटा ,
मोड़ कर उसे लगभग दुहरा कर दिया। मेरा एक हाथ उसके भारी गदराए नितम्ब पर था , और दूसरा क्षीण कटि पर।
बहुत धीमे धीमे लिंग मैंने सायास बाहर खींचा , करीब पूरा लिंग मुंड बाहर था बस थोड़ा सा फंसा और मैंने उच्चार प्रारम्भ कर दिया ,
ओेम , मम्म म कुमारी , ध :
साथ में मेरी उंगलिया तेजी से उसकी भगनासा के चारो ओर एक यंत्र बना रही थी , जिसका केंद्र उसकी भगनासा ही थी , बिंदु रूप में।
मन्त्र और यंत्र का सम्मिलित रूप ही तंत्र है , लेकिन उसके साथ सांस , ध्यान , कुण्डलिनी , सब कुछ साधना होता है साधक को और उस सबसे कठिन है साधना की जो कुमारी है ,उस के साथ मन की एक रूपता ,
मन्त्र के साथ ही बाहर अंदर सब कुछ बदलने लगा ,
बाहर शावक से खेलते बादल अचानक बढ़ कर सिंह के रूप में हो गए और चन्द्रमा उन के डर से कही दूर जाकर छिप गया।
जो चांदनी , उस की देह को सहला दुलरा रही थी , कालिमा में बदल गयी , घनघोर कालिमा।
तेजी से मदिर हवाओं की जगह झंझावात ने ले ली।
और उन तेज हवाओं से अंदर जल रही सारी मोमबत्तियां बुझ गयीं , सिवाय एक के , जो हम दोनों के संधिस्थल को आलोकित कर रही थी।
मेरी हिम्मत साहस , ताकत सब बढ़ गयी और मैंने पूरी ताकत से धक्का लगाया ,
साथ में मंत्र
ओम धर्माधर्म हविर्, … ,
वही आज समिधा थी , कुण्ड थी और अग्नि थी
और मैं उस अग्नि डालने वाला घृत ,
मेरे धक्के तेज होते जा रहे थे , जोर से मैंने उसके नितम्ब , कमर पकड़ रखी थी।
बादलों की गड़गड़ाहट के बीच , कभी रंजी की चीत्कार चीख सुनाई पड़ रही थी ,
मेरे हाथों और पैरों के जोर के बीच उसका हिलना लगभग असंभव था ,
और एक बार फिर मैंने लिंग लगभग बाहर कर , पूरी ताकत से धक्का मारा ,
जैसे हल का फाल धरती को चीर कर , बीज स्वीकार करने के लिए तैयार कर देता है ,
जैसे सूरज की किरण अपनी गर्माहट से कली का घूंघट खोल देती है ,
बस ,
तेज दामिनी की दमक में मैंने देखा , जवाकुसुम के रंग से मेरा लिंग रंग गया था ,
और उस की योनि भी रक्त स्नात थी ,
और यही समय था मैने बीज मंत्र पढना प्रारम्भ किया ,
और एक बार लिंग पूरी तरह से बाहर निकाल कर
आखिरी हवि की तरह , सब कुछ बचा खुचा अपनी पूरी ताकत
रक्त बहकर कुछ चददर पर था , उसकी गोरी चम्पई जांघो पर था ,
और मेरा लिंग एकदम विकराल लग रहा था।
मैं भी आँखे बंद कर लीं और धक्के के बाद धक्के
मैं अब मैं नहीं था
वो वो नहीं थी।
मैं मात्र लिंग था , और वो , योनि।
कितने पल बीते , मिनट बीते पता नहीं ,…
चमकती हुयी बिजली की रौशनी में कभी हिलती हुयी मोमबत्ती की लौ में रक्तस्नात उसकी गोरी चम्पई , कदली स्तम्भ सदृश चिकनी खुली जंघाओं के बीच मेरा कलाई सा मोटा , जबरदंग , मूसल सा लिंग अंदर बाहर होते दिखता
धीमे धीमे हवा कुछ हलकी हुयी
बादलों ने चाँद के ऊपर का काला पर्दा हटा दिया।
चांदनी कुछ सकुचाती , कुछ लजाती फिर कमरे में आ पहुंची।
बादलों की गरज अब बंद हो चुकी थी।
रंजी की चीख दर्द भरी आवाज की जगह , हलकी कराहों ने ले लिया था।
दर्द में वो अभी भी डूबी थी।
गुड्डी ने एक एक करके चारों मोमबत्ती जला दी और साथ ही लाइट भी आ गयी।
मैं भी अब , ....
जवा कुसुम की पंखुड़ियों की तरह खून के कुछ थक्के थोड़े जमे थोड़े गीले , रंजी की जांघो पे थे।
मेरा आधा से ज्यादा लिंग अब उसकी योनि में धंस चुका था।
अब मैंने एक पल के लिए अपने को रोका और भर आँख रंजी को देखा।
कितना दर्द सहा उसने मेरे लिए।
उसकी आँखों से निकली आंसू की मोतियों का चन्द्र हार उसके उरोजों पर पसरा था। एक एक बूँद , एक रेखा सी थी जो उसके दीप सी आँखों से उत्तर कर चिकने कपोलों पे होती हुयी , कठोर कुचो से टकराकर चूर चूर हो गयी थीं। उनकी चमक से उसका मटर के दाने सा निपल चमक रहा था।
अभी भी उसकी पलकें बंद थी और फिर भोर की कुमुदनी की तरह उसने पलकें खोली।
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था , वो क्या बोलेगी , मैं क्या बोलूंगी।
लेकिन मौन की भाषा कोई इनसे सीखे।
वो चपला , , आँखों में मुस्कराई।
और कितने इन्द्रधनुष , चंपा के फूल एक साथ खिल उठे।
मेरा सारा अपरोध बोध सुबह की ओस तरह उड़ गया।
और उस सारंग नयनी की होंठों की मुस्कान ने उसकी आँखों की भाषा की तस्दीक की।
जैसे कह रही हो बुद्धू ये तो होना ही था ,
बिना दर्द के सुख मिला है किसी नारी को।
कन्या से युवती बनने के समय का दर्द ,
युवती से माँ बनने का दर्द
सेक्स पुरुषो के लिए मात्र मजा हो सकता है , उनके लिए ये जिंदगी की सड़क के मील के पत्थर हैं।
मैं अभी भी ठिठक रहा था , झिझक रहा था की रंजी ने मुझे अपनी गलबाँहियों में बाँध लिया।
उसके पैर की लताओं ने मुझे और उसके पास खीच लिया।
आलिंगन , चुम्बन , मुख क्रीड़ा , स्तन मर्दन सब कुछ साथ शुरू हो गया।
थकी , थोड़ी क्लांत , शिथिल रंजी मेरा पूरा साथ दे रही थी।
फिर वही ताल , लय
हम दोनों गहन मुख चुम्बन में थे मेरी जीभ उसके मुंह में धंसी थी और वह कभी अपनी जीभ से उसे छेड़ती , तो कभी जोर जोर से चूसती।
और कभी , हलके से बाइट कर लेती।
मैं भला कौन शरीफ था , मेरे अंगूठे और तरजनी के नाख़ून जोर से उसके निपल को स्क्रैच कर लेते।
और अब एक बार फिर धक्के चालू हो गए थे , कभी हलके तो कभी जोर से।
मैं कभी रुकता तो वो नए पाये रस का मजा चखने को ,अपने नितम्ब को उचका देती।
और मैं कौन शरीफ था , इस मजे के लिए कित्ते दिन से तड़प रहा था , उसे दुहरा कर , लिंग पूरा बाहर निकाल एक झटके में , पूरी ताकत से पेल देता।
वो जोर से चीख उठती , लेकिन उसकी चीख सुनने वाला कौन था , कम से कम मैं तो कतई नहीं।
कचकचा के मैं गाल पे दांत से एक बना देता।
लेकिन वो कौन कम थी , आखिर थी तो वो भी ऐलवल की।
एक निशान के बदले उसके तीखे दांत , पूरी लाइन बना देते निशान की और साथ में सूद के तौर पे , उसके गाढ़े लाल नेलपालिश से रंगे लम्बे नाख़ून , मेरे शोल्डर ब्लेड्स के पास धंस के स्क्रैच कर लेते ,
और फिर मैं चीख उठता कटखनी बिल्ली कहीं की।
एक निशान के बदले उसके तीखे दांत , पूरी लाइन बना देते निशान की और साथ में सूद के तौर पे , उसके गाढ़े लाल नेलपालिश से रंगे लम्बे नाख़ून , मेरे शोल्डर ब्लेड्स के पास धंस के स्क्रैच कर लेते ,
और फिर मैं चीख उठता कटखनी बिल्ली कहीं की।
गुड्डी जो अब तक सिर्फ कैमरे से पल पल का हिसाब रख रही थी या बीच बीच में मेरे कान में फुसफुसा के उकसा रही थी , वो भी अब बोलने लगी।
'कहीं की नहीं , तेरे ही शहर की। " गुड्डी बोली।
मैं सिर्फ एक तरीके से जवाब दे सकता था था। मेरे दोनों हाथ अब रंजी की गदराई चूंची पर थे , जोर से उन्हें दबाते मैंने चार पांच धक्के एक साथ मारे।
और हर धक्के के बाद वोजोर से चीखती , झूठमूठ की नहीं सच मच की चीख। और उस का चेहरा दर्द में डूब उठता , देह पीड़ा से काँप उठती।
लेकिन अब मुझे भी मालुम पड़ गया था और मेरी इस केलि सखी को तो पहले से ही मालूम था ,
" पीड़ा में आनंद जिसे हो आये मेरी मधुशाला। "
और जब धक्के पल दो पल के लिए रुकते तो मेरे होंठ , हाथ चालू हो जाते।
रंजी के चिकने गुलाबी गोरे गाल ( जिस पर पूरे शहर के लौंडे फिसल चुके थे ) चूसते चूसते ,मैं कचकचा के काट लेता।
और साथ ही निपल की घुंडियों को मरोड़ देता।
रंजी भी चीख के साथ एक खूब गन्दी सी मोटी वाली गाली निकालती और एक हाथ के नाखून , मेरे निपल स्क्रैच करते और दूसरे से वो मेरे चूतड़ नोच लेती।
" हे ये बाकी के तीन इंच किस के लिए बचा के रखे है , " गुड्डी ने चिढ़ाया।
" तेरे लिए " नीचे से चूतड़ उठा के बाकी बचा गपकने की कोशिश की।
" इत्ते से किसका काम चलेगा " आँख नचा के गुड्डी बोली।
" मालूम है मालूम है , चल तुझे पूरा दिलवा दूंगी और उससे भी मन न भरा तो मेरी गली के बाहर जो गदहे खड़े रहते हैं , उनका भी दिलवा दूंगी। " रंजी कौन कम थी। "
लेकिन जिस तरह रंजी ने चूतड़ उचकाया और मेरे नितम्बो में फंसे अपनी टांगों से मुझे अपने अंदर की ओर खींचा , मैं समझ गया , उसे पूरा ९ इंच घोंटना है।
और मुझे भी आज उसे पूरा ९इञ्च घोटाना था।
आधे तीहे में न उसे मजा आना था और न , मुझे।
फिर क्या था मैंने आसन जमाया। एक बार से रंजी की गोरी लम्बी टाँगे , मैंने अपने कंधे पे सेट कीं , और डबल बेड पे रखे ढेर सारे मखमली रंग बिरंगे कुशन उठाये।
दोनों हाथों से मैंने रंजी के गोरे गुदाज गदराये , भारी भारी चूतड़ों को उठाया , जैसे दो आधे कटे तरबूज हों।
और उनके नीचे एक एक कर के तीन मोटे कुशन लगा दिए।
अब उसके चूतड़ पूरी तरह ऊपर उठे थे।
भरतपुर के किले में सेंध लग चुकी थी।
उसका सिंह द्वार भी टूट चुका था।
अब बस बचा था , जम कर भरतपुर लूटने का काम , और वो अब शुरू होने वाला था , मजे ले ले कर।
जंगबहादुर को पहले मैंने थोड़ा सा बाहर निकाला , अभी भी १/३ लिंग रंजी के अंदर था। और धीमे धीमे घस्समघस्स शुरू कर दी , आधे लंड से।
मजे से रंजी सिसक रही थी , धीमे धीमे खुद अपने चूतड़ उचका रही थी , बुदबुदा रही थी ,
ओह हाँ , और्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र , अच्छाा , मजाआ , करो न , ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह अह्ह्ह्ह , हाँ
मैं धीमे धीमे लंड के धक्कों के साथ उसकी चूंची भी बहुत प्यार से मसल रहा था , कभी निपल पकड़ के खींच लेता जैसे किसी शरारती बच्चे के कोई कान ऐंठे।
रंजी पूरी मस्ती में चुदवा रही थी।
चार पांच मिनट के बाद मैंने गियर बदला। अब बजाय आगे पीछे करने के मेरा लंड रंजी की कसी चूत में गोल गोल घूम रहा था। घूर्णन आसन में , एक चक्की की तरह
साथ में मेरी पूरी देह उसकी देह को रगड़ रही, मसल रही थी , और
मेरी उँगलियों , होंठों ने तिहरा हमला शुरू कर दिया था।
एक निपल मेरे होंठ चूस रहे थे ,दूसरा निपल मेरी उँगलियों के कब्जे में था और
दूसरा हाथ सीधे अब उसकी क्लिट को छेड़ने में लगा था , कभी उसे दबाता , कभी हलके से नोच लेता कभी नाखून से फ्लिक कर देता।
मस्ती से रंजी सातवें आसमान पे पहुँच गयी थी।
उसकी सिसकियां पूरे जोर पर थीं, ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह आह्ह उह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह करो नाआआआआआआआ , उह्ह्ह्ह आह
और पूरे जोर से कुशन पर उठे चूतड़ वो जोर जोर से उचका रही थी।
चार पांच मिनट उसे इसी तरह गरम करने तड़पाने के बाद , मैंने वही किया जो मैं चाहता था और रंजी भी।
हलके से लंड मैंने आलमोस्ट पूरा निकाल लिया। सुपाड़ा भी आलमोस्ट बाहर था।
दोनों हाथों से कस के रंजी की गदराई मस्त गोल गोल चूंची पकड़ी और ,....
और
एक बार में पूरी ताकत से जोर का धक्का लगाया।
अगले पल सिसकी चीख में बदल गयी।
नहीईइइइइइइइइइइइइइइइइइ ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह लगता है नहीईइइइइइइइइइइइइ दर्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्
मैंने लंड फिर बाहर निकाला लेकिन दुबारा दूनी ताकत से पेलने के लिए ,
रंजी की चीख के साथ अब आाँखों में आंसू भी छलछला उठे थे।
लंड दरेरता , रगड़ता , चीरता , अंदर घुस रहा था। जहाँ चूत की झिल्ली अभी अभी फटी थी जब लंड वहां दरेरता , रगड़ता तो बस बिचारी की जान निकल जाती।
अब लंड वहां तक घुस गया , जहाँ अब तक नहीं गया था। एकाध इंच ही बाहर रहा होगा।
मैं पल भर के लिए रुका , रंजी के निपल को एक बार बाइट किया जोर से , लंड बाहर निकाल के जिस ताकत से पेला ,
रंजी उस तरह से चीखी , जीतनी जोर से उस समय नहीं चिल्लाई थी , जब उस की फटी थी।
और चीखती रही देर तक , कराहती रही।
लेकिन लंड पूरा अंदर था।
कुछ देर लंड के बेस से मैं उसकी क्लिट को रगड़ता रहा , फिर आधा बाहर निकाल कर जोर जोर के धक्के बिना रुके मारने शुरू किये।
हर धक्का सीधे उसकी बच्चेदानी से लड़ रहा था।
मैं महसूस कर रहा था , अपने सुपाड़े पे उसकी बच्चेदानी को।
और दो मिनट में ही उसका दर्द , चीख , कराह सिसकियों में बदल गयी।
मजे में उसकी देह कांपने लगी।
मैंने धक्को की रफ्तार और जोर दोनों बढ़ा दिया , खूब जोर से सुपाड़ा उसकी बच्चेदानी को ठोंक रहा था।
उसके हाथ मेंरे कंधे पे जम गए थे , तेज लम्बे नाखून मेरे शोल्डर ब्लेड में धसं गए थे , जोर जोर से वो स्क्रैच कर रही थी।
जब मेरा सुपाड़ा उसकी बच्चेदानी पे धक्का मारता वो खुद चूतड़ उठा देती।
बड़ी बड़ी आँखे बंद दी , मस्ती से वो काँप रही थी , सिसक रही थी ओह्ह्ह ,
( मुझे चंदा भाभी की सीख याद थी , कोई भी लड़की हो अगर उसकी बच्चेदानी पे सुपाड़े पांच सात ठोकरे पड़ जाय , तो वो अपने को झड़ने से नहीं रोक सकती )
रंजी झड़ रही थी जोर जोर से।
लेकिन मैंने चुदाई की रफ्तार नहीं कम की।
वो जब एक बार झड़ के रुकती , तो मैं दुबारा पूरा लंड बाहर निकाल के उसकी चूंची मसलते हुए पेल देता और एक बार फिर सुपाड़े की बच्चेदानी पे ठोकर के साथ वो कांपने , झड़ने लगती।
जब वो दो चार बार झड़ के एकदम शिथिल हो गयी तो मैं रुका , लेकिन उस समय भी मेरा पूरा ९ इंच उसके अंदर धंसा था।
कुछ पल के लिए मैं भी स्थिर हो गया , एकदम शांत।
लेकिन एक नई चीज मैंने महसूस की , जिसके बारे में सिर्फ पढ़ा सूना था।
योनि की क्रमाकुंचन गति , उसके योनि की मसल्स मेरे लिंग को हलके हलके दबोच सिकोड़ रही थीं जब वो झड़ रही थी ,लेकिन उसके झड़ने के बाद भी हलके हलके ये होता रहा ,
और मस्ती से जंगबहादुर पागल हो गए।
खेली खायी , मजे ली हुयी, केजल एक्सरसाइज की अभ्यस्त , ये कर सकती हैं , लेकिन एक ऐसी कच्ची कली जिसने सेक्स का सुख अभी अभी भोगा हो , प्रथम मिलन के दर्द में डूब उतरा रही हो , इसका सिर्फ एक मतलब है ,
वो नेचुरल है , ये गुण प्रकृति प्रदत्त है। और कुछ अनुभव के बाद तो मजे देने में वो बड़े बडे प्रोफेशनल के कान काटेगी।
गुड्डी जो उसे बोलती थी की बनारस में सोनल ( रिश्ते में तो वो भी रंजी की भाभी लगेगी ) के कोठे पे उसे एक रात गुजारनी पड़ेगी , अगर सच हुआ तो वहां भी ये झंडे गाड़ देगी।
मेरा लंड तो उसी तरह तन्नाया , पगलाया एकदम जड़ तक रंजी की चूत में धंसा घुसा था।
थोड़ी देर में उसने करवट ली और हलके हलके आगे पीछे होने लगा।
मेरी उँगलियों और होंठों ने शोलों को हवा देनी शुरू की।
गालों को चूम कर चूंचियों को मसल कर रगड़ कर।
और कुछ देर में उंगलिया रंजी के कमलपत्र सदृश भगोष्ठों को सहलाने लगी भगनासा भी दबाने लगी।
बस कुछ देर में ही काम के उंचासों पवन चलने लगे , मदन उसकी देह को मथने लगा और वो मेरे चुम्बन का जवाब चुम्बन से देने लगी बल्कि मेरे होंठ को उसन काट लिया , नीचे से चूतड़ उचकाने लगी।
लोहा एक बार फिर गरम हो गया था।
बस चुदायी फूल स्पीड में चालू हो गयी।
धकापेल।
क्या कोई धुनिया रुई धुनेगा , जिस तरह से अब मैं उसको धुन रहा था।
सटासट सटासट , गपागप गपागप ,
पूरा ९ इंच , मैं आलमोस्ट पूरा बाहर निकालकर , एक झटके में अंदर पेल देता।
उईइइइइइइइइइइइइइ नहीईइइइइइइइइइइइइइ,... प्लिज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज मत करोओओओओओओओओओओओओओओओ , लगता है इइइइइइइइइइइइइ
रंजी की की चीखें सिर्फ कमरे के बाहर नहीं , बल्कि घर के बाहर पहुँच रही होंगी।
जहां झिल्ली फटी थी , जब वहां रगड़ता चीरता कलाई के बराबर मोटा लंड दरेरता घुसता जो उसकी जान निकल जाती ,वो दर्द से दुहरी हो जाती।
मेरे दोनों हाथों ने उसकी कलाई को जोर से दबा रखा था जिससे वो बिचारी ज्यादा हिल डुल नहीं सकती थी और नीचे तो भाले की तरह उसकी कसी चूत में मेरा मोटा बित्ते भर का लंड घुसा ही था।
और जब लंड पूरा अंदर घुस जाता था तो मैं जोर जोर से लंड के बेस को उसकी चूत के उपर , उसकी क्लिट को जोर जोर से रगड़ता , कचकचा के उसके निपल को काट लेता।
वो मजे से गिनगिना उठती।
उसके नाख़ून मेरे पीठ में जोर से धंस जाते।
और फिर धीमे धीमे लंड बाहर निकाल कर दुबारा , हचक के दूनी ताकत से धक्का , और एक बार फिर दरेररता हुआ पूरा बित्ते भर का लंड अंदर
।
उधर गुड्डी अब पलंग पे ही आके बैठ गयी थी और रंजी को चिढ़ा रही थी , अपनी सहेली और छुटकी ननदिया को ,…
फागुन के दिन चार--155
मैं कैसे भूल सकता था , चक्रव्यूह के आखिरी द्वार को भेदना ही था।
और एक बार फिर ,
मेरा ध्यान केंद्रित हुआ , मैंने बुदबुदाना शुरू किया और सबसे पहले मेरे होंठों ने
रंजी के माथे को ,
फिर दोनों पलको को ,
अधरों को,
उरोजों को ,....
छुआ या मन्त्र से अभिषक्त किया।
रंजी की आँखे मुंद गयी। दोनों पलकें एकदम चिपक गयीं।
होंठ भी एकदम भींच गए।
जैसे अब भी उस होने वाले क्षण की प्रतीक्षा में हो।
एक बार फिर मैंने उसकी टांगो की लता को माला की तरह अपने गले में लपेटा ,
मोड़ कर उसे लगभग दुहरा कर दिया। मेरा एक हाथ उसके भारी गदराए नितम्ब पर था , और दूसरा क्षीण कटि पर।
बहुत धीमे धीमे लिंग मैंने सायास बाहर खींचा , करीब पूरा लिंग मुंड बाहर था बस थोड़ा सा फंसा और मैंने उच्चार प्रारम्भ कर दिया ,
ओेम , मम्म म कुमारी , ध :
साथ में मेरी उंगलिया तेजी से उसकी भगनासा के चारो ओर एक यंत्र बना रही थी , जिसका केंद्र उसकी भगनासा ही थी , बिंदु रूप में।
मन्त्र और यंत्र का सम्मिलित रूप ही तंत्र है , लेकिन उसके साथ सांस , ध्यान , कुण्डलिनी , सब कुछ साधना होता है साधक को और उस सबसे कठिन है साधना की जो कुमारी है ,उस के साथ मन की एक रूपता ,
मन्त्र के साथ ही बाहर अंदर सब कुछ बदलने लगा ,
बाहर शावक से खेलते बादल अचानक बढ़ कर सिंह के रूप में हो गए और चन्द्रमा उन के डर से कही दूर जाकर छिप गया।
जो चांदनी , उस की देह को सहला दुलरा रही थी , कालिमा में बदल गयी , घनघोर कालिमा।
तेजी से मदिर हवाओं की जगह झंझावात ने ले ली।
और उन तेज हवाओं से अंदर जल रही सारी मोमबत्तियां बुझ गयीं , सिवाय एक के , जो हम दोनों के संधिस्थल को आलोकित कर रही थी।
मेरी हिम्मत साहस , ताकत सब बढ़ गयी और मैंने पूरी ताकत से धक्का लगाया ,
साथ में मंत्र
ओम धर्माधर्म हविर्, … ,
वही आज समिधा थी , कुण्ड थी और अग्नि थी
और मैं उस अग्नि डालने वाला घृत ,
मेरे धक्के तेज होते जा रहे थे , जोर से मैंने उसके नितम्ब , कमर पकड़ रखी थी।
बादलों की गड़गड़ाहट के बीच , कभी रंजी की चीत्कार चीख सुनाई पड़ रही थी ,
मेरे हाथों और पैरों के जोर के बीच उसका हिलना लगभग असंभव था ,
और एक बार फिर मैंने लिंग लगभग बाहर कर , पूरी ताकत से धक्का मारा ,
जैसे हल का फाल धरती को चीर कर , बीज स्वीकार करने के लिए तैयार कर देता है ,
जैसे सूरज की किरण अपनी गर्माहट से कली का घूंघट खोल देती है ,
बस ,
तेज दामिनी की दमक में मैंने देखा , जवाकुसुम के रंग से मेरा लिंग रंग गया था ,
और उस की योनि भी रक्त स्नात थी ,
और यही समय था मैने बीज मंत्र पढना प्रारम्भ किया ,
और एक बार लिंग पूरी तरह से बाहर निकाल कर
आखिरी हवि की तरह , सब कुछ बचा खुचा अपनी पूरी ताकत
रक्त बहकर कुछ चददर पर था , उसकी गोरी चम्पई जांघो पर था ,
और मेरा लिंग एकदम विकराल लग रहा था।
मैं भी आँखे बंद कर लीं और धक्के के बाद धक्के
मैं अब मैं नहीं था
वो वो नहीं थी।
मैं मात्र लिंग था , और वो , योनि।
कितने पल बीते , मिनट बीते पता नहीं ,…
चमकती हुयी बिजली की रौशनी में कभी हिलती हुयी मोमबत्ती की लौ में रक्तस्नात उसकी गोरी चम्पई , कदली स्तम्भ सदृश चिकनी खुली जंघाओं के बीच मेरा कलाई सा मोटा , जबरदंग , मूसल सा लिंग अंदर बाहर होते दिखता
धीमे धीमे हवा कुछ हलकी हुयी
बादलों ने चाँद के ऊपर का काला पर्दा हटा दिया।
चांदनी कुछ सकुचाती , कुछ लजाती फिर कमरे में आ पहुंची।
बादलों की गरज अब बंद हो चुकी थी।
रंजी की चीख दर्द भरी आवाज की जगह , हलकी कराहों ने ले लिया था।
दर्द में वो अभी भी डूबी थी।
गुड्डी ने एक एक करके चारों मोमबत्ती जला दी और साथ ही लाइट भी आ गयी।
मैं भी अब , ....
जवा कुसुम की पंखुड़ियों की तरह खून के कुछ थक्के थोड़े जमे थोड़े गीले , रंजी की जांघो पे थे।
मेरा आधा से ज्यादा लिंग अब उसकी योनि में धंस चुका था।
अब मैंने एक पल के लिए अपने को रोका और भर आँख रंजी को देखा।
कितना दर्द सहा उसने मेरे लिए।
उसकी आँखों से निकली आंसू की मोतियों का चन्द्र हार उसके उरोजों पर पसरा था। एक एक बूँद , एक रेखा सी थी जो उसके दीप सी आँखों से उत्तर कर चिकने कपोलों पे होती हुयी , कठोर कुचो से टकराकर चूर चूर हो गयी थीं। उनकी चमक से उसका मटर के दाने सा निपल चमक रहा था।
अभी भी उसकी पलकें बंद थी और फिर भोर की कुमुदनी की तरह उसने पलकें खोली।
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था , वो क्या बोलेगी , मैं क्या बोलूंगी।
लेकिन मौन की भाषा कोई इनसे सीखे।
वो चपला , , आँखों में मुस्कराई।
और कितने इन्द्रधनुष , चंपा के फूल एक साथ खिल उठे।
मेरा सारा अपरोध बोध सुबह की ओस तरह उड़ गया।
और उस सारंग नयनी की होंठों की मुस्कान ने उसकी आँखों की भाषा की तस्दीक की।
जैसे कह रही हो बुद्धू ये तो होना ही था ,
बिना दर्द के सुख मिला है किसी नारी को।
कन्या से युवती बनने के समय का दर्द ,
युवती से माँ बनने का दर्द
सेक्स पुरुषो के लिए मात्र मजा हो सकता है , उनके लिए ये जिंदगी की सड़क के मील के पत्थर हैं।
मैं अभी भी ठिठक रहा था , झिझक रहा था की रंजी ने मुझे अपनी गलबाँहियों में बाँध लिया।
उसके पैर की लताओं ने मुझे और उसके पास खीच लिया।
आलिंगन , चुम्बन , मुख क्रीड़ा , स्तन मर्दन सब कुछ साथ शुरू हो गया।
थकी , थोड़ी क्लांत , शिथिल रंजी मेरा पूरा साथ दे रही थी।
फिर वही ताल , लय
हम दोनों गहन मुख चुम्बन में थे मेरी जीभ उसके मुंह में धंसी थी और वह कभी अपनी जीभ से उसे छेड़ती , तो कभी जोर जोर से चूसती।
और कभी , हलके से बाइट कर लेती।
मैं भला कौन शरीफ था , मेरे अंगूठे और तरजनी के नाख़ून जोर से उसके निपल को स्क्रैच कर लेते।
और अब एक बार फिर धक्के चालू हो गए थे , कभी हलके तो कभी जोर से।
मैं कभी रुकता तो वो नए पाये रस का मजा चखने को ,अपने नितम्ब को उचका देती।
और मैं कौन शरीफ था , इस मजे के लिए कित्ते दिन से तड़प रहा था , उसे दुहरा कर , लिंग पूरा बाहर निकाल एक झटके में , पूरी ताकत से पेल देता।
वो जोर से चीख उठती , लेकिन उसकी चीख सुनने वाला कौन था , कम से कम मैं तो कतई नहीं।
कचकचा के मैं गाल पे दांत से एक बना देता।
लेकिन वो कौन कम थी , आखिर थी तो वो भी ऐलवल की।
एक निशान के बदले उसके तीखे दांत , पूरी लाइन बना देते निशान की और साथ में सूद के तौर पे , उसके गाढ़े लाल नेलपालिश से रंगे लम्बे नाख़ून , मेरे शोल्डर ब्लेड्स के पास धंस के स्क्रैच कर लेते ,
और फिर मैं चीख उठता कटखनी बिल्ली कहीं की।
एक निशान के बदले उसके तीखे दांत , पूरी लाइन बना देते निशान की और साथ में सूद के तौर पे , उसके गाढ़े लाल नेलपालिश से रंगे लम्बे नाख़ून , मेरे शोल्डर ब्लेड्स के पास धंस के स्क्रैच कर लेते ,
और फिर मैं चीख उठता कटखनी बिल्ली कहीं की।
गुड्डी जो अब तक सिर्फ कैमरे से पल पल का हिसाब रख रही थी या बीच बीच में मेरे कान में फुसफुसा के उकसा रही थी , वो भी अब बोलने लगी।
'कहीं की नहीं , तेरे ही शहर की। " गुड्डी बोली।
मैं सिर्फ एक तरीके से जवाब दे सकता था था। मेरे दोनों हाथ अब रंजी की गदराई चूंची पर थे , जोर से उन्हें दबाते मैंने चार पांच धक्के एक साथ मारे।
और हर धक्के के बाद वोजोर से चीखती , झूठमूठ की नहीं सच मच की चीख। और उस का चेहरा दर्द में डूब उठता , देह पीड़ा से काँप उठती।
लेकिन अब मुझे भी मालुम पड़ गया था और मेरी इस केलि सखी को तो पहले से ही मालूम था ,
" पीड़ा में आनंद जिसे हो आये मेरी मधुशाला। "
और जब धक्के पल दो पल के लिए रुकते तो मेरे होंठ , हाथ चालू हो जाते।
रंजी के चिकने गुलाबी गोरे गाल ( जिस पर पूरे शहर के लौंडे फिसल चुके थे ) चूसते चूसते ,मैं कचकचा के काट लेता।
और साथ ही निपल की घुंडियों को मरोड़ देता।
रंजी भी चीख के साथ एक खूब गन्दी सी मोटी वाली गाली निकालती और एक हाथ के नाखून , मेरे निपल स्क्रैच करते और दूसरे से वो मेरे चूतड़ नोच लेती।
" हे ये बाकी के तीन इंच किस के लिए बचा के रखे है , " गुड्डी ने चिढ़ाया।
" तेरे लिए " नीचे से चूतड़ उठा के बाकी बचा गपकने की कोशिश की।
" इत्ते से किसका काम चलेगा " आँख नचा के गुड्डी बोली।
" मालूम है मालूम है , चल तुझे पूरा दिलवा दूंगी और उससे भी मन न भरा तो मेरी गली के बाहर जो गदहे खड़े रहते हैं , उनका भी दिलवा दूंगी। " रंजी कौन कम थी। "
लेकिन जिस तरह रंजी ने चूतड़ उचकाया और मेरे नितम्बो में फंसे अपनी टांगों से मुझे अपने अंदर की ओर खींचा , मैं समझ गया , उसे पूरा ९ इंच घोंटना है।
और मुझे भी आज उसे पूरा ९इञ्च घोटाना था।
आधे तीहे में न उसे मजा आना था और न , मुझे।
फिर क्या था मैंने आसन जमाया। एक बार से रंजी की गोरी लम्बी टाँगे , मैंने अपने कंधे पे सेट कीं , और डबल बेड पे रखे ढेर सारे मखमली रंग बिरंगे कुशन उठाये।
दोनों हाथों से मैंने रंजी के गोरे गुदाज गदराये , भारी भारी चूतड़ों को उठाया , जैसे दो आधे कटे तरबूज हों।
और उनके नीचे एक एक कर के तीन मोटे कुशन लगा दिए।
अब उसके चूतड़ पूरी तरह ऊपर उठे थे।
भरतपुर के किले में सेंध लग चुकी थी।
उसका सिंह द्वार भी टूट चुका था।
अब बस बचा था , जम कर भरतपुर लूटने का काम , और वो अब शुरू होने वाला था , मजे ले ले कर।
जंगबहादुर को पहले मैंने थोड़ा सा बाहर निकाला , अभी भी १/३ लिंग रंजी के अंदर था। और धीमे धीमे घस्समघस्स शुरू कर दी , आधे लंड से।
मजे से रंजी सिसक रही थी , धीमे धीमे खुद अपने चूतड़ उचका रही थी , बुदबुदा रही थी ,
ओह हाँ , और्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र , अच्छाा , मजाआ , करो न , ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह अह्ह्ह्ह , हाँ
मैं धीमे धीमे लंड के धक्कों के साथ उसकी चूंची भी बहुत प्यार से मसल रहा था , कभी निपल पकड़ के खींच लेता जैसे किसी शरारती बच्चे के कोई कान ऐंठे।
रंजी पूरी मस्ती में चुदवा रही थी।
चार पांच मिनट के बाद मैंने गियर बदला। अब बजाय आगे पीछे करने के मेरा लंड रंजी की कसी चूत में गोल गोल घूम रहा था। घूर्णन आसन में , एक चक्की की तरह
साथ में मेरी पूरी देह उसकी देह को रगड़ रही, मसल रही थी , और
मेरी उँगलियों , होंठों ने तिहरा हमला शुरू कर दिया था।
एक निपल मेरे होंठ चूस रहे थे ,दूसरा निपल मेरी उँगलियों के कब्जे में था और
दूसरा हाथ सीधे अब उसकी क्लिट को छेड़ने में लगा था , कभी उसे दबाता , कभी हलके से नोच लेता कभी नाखून से फ्लिक कर देता।
मस्ती से रंजी सातवें आसमान पे पहुँच गयी थी।
उसकी सिसकियां पूरे जोर पर थीं, ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह आह्ह उह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह करो नाआआआआआआआ , उह्ह्ह्ह आह
और पूरे जोर से कुशन पर उठे चूतड़ वो जोर जोर से उचका रही थी।
चार पांच मिनट उसे इसी तरह गरम करने तड़पाने के बाद , मैंने वही किया जो मैं चाहता था और रंजी भी।
हलके से लंड मैंने आलमोस्ट पूरा निकाल लिया। सुपाड़ा भी आलमोस्ट बाहर था।
दोनों हाथों से कस के रंजी की गदराई मस्त गोल गोल चूंची पकड़ी और ,....
और
एक बार में पूरी ताकत से जोर का धक्का लगाया।
अगले पल सिसकी चीख में बदल गयी।
नहीईइइइइइइइइइइइइइइइइइ ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह लगता है नहीईइइइइइइइइइइइइ दर्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्
मैंने लंड फिर बाहर निकाला लेकिन दुबारा दूनी ताकत से पेलने के लिए ,
रंजी की चीख के साथ अब आाँखों में आंसू भी छलछला उठे थे।
लंड दरेरता , रगड़ता , चीरता , अंदर घुस रहा था। जहाँ चूत की झिल्ली अभी अभी फटी थी जब लंड वहां दरेरता , रगड़ता तो बस बिचारी की जान निकल जाती।
अब लंड वहां तक घुस गया , जहाँ अब तक नहीं गया था। एकाध इंच ही बाहर रहा होगा।
मैं पल भर के लिए रुका , रंजी के निपल को एक बार बाइट किया जोर से , लंड बाहर निकाल के जिस ताकत से पेला ,
रंजी उस तरह से चीखी , जीतनी जोर से उस समय नहीं चिल्लाई थी , जब उस की फटी थी।
और चीखती रही देर तक , कराहती रही।
लेकिन लंड पूरा अंदर था।
कुछ देर लंड के बेस से मैं उसकी क्लिट को रगड़ता रहा , फिर आधा बाहर निकाल कर जोर जोर के धक्के बिना रुके मारने शुरू किये।
हर धक्का सीधे उसकी बच्चेदानी से लड़ रहा था।
मैं महसूस कर रहा था , अपने सुपाड़े पे उसकी बच्चेदानी को।
और दो मिनट में ही उसका दर्द , चीख , कराह सिसकियों में बदल गयी।
मजे में उसकी देह कांपने लगी।
मैंने धक्को की रफ्तार और जोर दोनों बढ़ा दिया , खूब जोर से सुपाड़ा उसकी बच्चेदानी को ठोंक रहा था।
उसके हाथ मेंरे कंधे पे जम गए थे , तेज लम्बे नाखून मेरे शोल्डर ब्लेड में धसं गए थे , जोर जोर से वो स्क्रैच कर रही थी।
जब मेरा सुपाड़ा उसकी बच्चेदानी पे धक्का मारता वो खुद चूतड़ उठा देती।
बड़ी बड़ी आँखे बंद दी , मस्ती से वो काँप रही थी , सिसक रही थी ओह्ह्ह ,
( मुझे चंदा भाभी की सीख याद थी , कोई भी लड़की हो अगर उसकी बच्चेदानी पे सुपाड़े पांच सात ठोकरे पड़ जाय , तो वो अपने को झड़ने से नहीं रोक सकती )
रंजी झड़ रही थी जोर जोर से।
लेकिन मैंने चुदाई की रफ्तार नहीं कम की।
वो जब एक बार झड़ के रुकती , तो मैं दुबारा पूरा लंड बाहर निकाल के उसकी चूंची मसलते हुए पेल देता और एक बार फिर सुपाड़े की बच्चेदानी पे ठोकर के साथ वो कांपने , झड़ने लगती।
जब वो दो चार बार झड़ के एकदम शिथिल हो गयी तो मैं रुका , लेकिन उस समय भी मेरा पूरा ९ इंच उसके अंदर धंसा था।
कुछ पल के लिए मैं भी स्थिर हो गया , एकदम शांत।
लेकिन एक नई चीज मैंने महसूस की , जिसके बारे में सिर्फ पढ़ा सूना था।
योनि की क्रमाकुंचन गति , उसके योनि की मसल्स मेरे लिंग को हलके हलके दबोच सिकोड़ रही थीं जब वो झड़ रही थी ,लेकिन उसके झड़ने के बाद भी हलके हलके ये होता रहा ,
और मस्ती से जंगबहादुर पागल हो गए।
खेली खायी , मजे ली हुयी, केजल एक्सरसाइज की अभ्यस्त , ये कर सकती हैं , लेकिन एक ऐसी कच्ची कली जिसने सेक्स का सुख अभी अभी भोगा हो , प्रथम मिलन के दर्द में डूब उतरा रही हो , इसका सिर्फ एक मतलब है ,
वो नेचुरल है , ये गुण प्रकृति प्रदत्त है। और कुछ अनुभव के बाद तो मजे देने में वो बड़े बडे प्रोफेशनल के कान काटेगी।
गुड्डी जो उसे बोलती थी की बनारस में सोनल ( रिश्ते में तो वो भी रंजी की भाभी लगेगी ) के कोठे पे उसे एक रात गुजारनी पड़ेगी , अगर सच हुआ तो वहां भी ये झंडे गाड़ देगी।
मेरा लंड तो उसी तरह तन्नाया , पगलाया एकदम जड़ तक रंजी की चूत में धंसा घुसा था।
थोड़ी देर में उसने करवट ली और हलके हलके आगे पीछे होने लगा।
मेरी उँगलियों और होंठों ने शोलों को हवा देनी शुरू की।
गालों को चूम कर चूंचियों को मसल कर रगड़ कर।
और कुछ देर में उंगलिया रंजी के कमलपत्र सदृश भगोष्ठों को सहलाने लगी भगनासा भी दबाने लगी।
बस कुछ देर में ही काम के उंचासों पवन चलने लगे , मदन उसकी देह को मथने लगा और वो मेरे चुम्बन का जवाब चुम्बन से देने लगी बल्कि मेरे होंठ को उसन काट लिया , नीचे से चूतड़ उचकाने लगी।
लोहा एक बार फिर गरम हो गया था।
बस चुदायी फूल स्पीड में चालू हो गयी।
धकापेल।
क्या कोई धुनिया रुई धुनेगा , जिस तरह से अब मैं उसको धुन रहा था।
सटासट सटासट , गपागप गपागप ,
पूरा ९ इंच , मैं आलमोस्ट पूरा बाहर निकालकर , एक झटके में अंदर पेल देता।
उईइइइइइइइइइइइइइ नहीईइइइइइइइइइइइइइ,... प्लिज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज मत करोओओओओओओओओओओओओओओओ , लगता है इइइइइइइइइइइइइ
रंजी की की चीखें सिर्फ कमरे के बाहर नहीं , बल्कि घर के बाहर पहुँच रही होंगी।
जहां झिल्ली फटी थी , जब वहां रगड़ता चीरता कलाई के बराबर मोटा लंड दरेरता घुसता जो उसकी जान निकल जाती ,वो दर्द से दुहरी हो जाती।
मेरे दोनों हाथों ने उसकी कलाई को जोर से दबा रखा था जिससे वो बिचारी ज्यादा हिल डुल नहीं सकती थी और नीचे तो भाले की तरह उसकी कसी चूत में मेरा मोटा बित्ते भर का लंड घुसा ही था।
और जब लंड पूरा अंदर घुस जाता था तो मैं जोर जोर से लंड के बेस को उसकी चूत के उपर , उसकी क्लिट को जोर जोर से रगड़ता , कचकचा के उसके निपल को काट लेता।
वो मजे से गिनगिना उठती।
उसके नाख़ून मेरे पीठ में जोर से धंस जाते।
और फिर धीमे धीमे लंड बाहर निकाल कर दुबारा , हचक के दूनी ताकत से धक्का , और एक बार फिर दरेररता हुआ पूरा बित्ते भर का लंड अंदर
।
उधर गुड्डी अब पलंग पे ही आके बैठ गयी थी और रंजी को चिढ़ा रही थी , अपनी सहेली और छुटकी ननदिया को ,…
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