FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--154
तैयारी पूरी : फटने की
दस मिनट बीते और मैं एकदम दबे पाँव , खामोशी से ऊपर कमरे की ओर चल दिया।
सीढ़ी पर,छत पर बिलकुल अँधेरा था।
आज चाँद भी बादलों की ओट किये शर्मा रहा था।
और बेड रूम का दरवाजा बस थोड़ा सा खुला था और बाहर हलकी हलकी रोशनी , और सिसकियों की मादक आवाज हलकी हलकी आ रही थी।
एक पल मैं ठिठका , बाहर से झाँका।
उईइइइइइइइइइइ नहीं छोड़ कमीनी , ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह हटट्ट्ट् सीइइइइइइइइइइ उह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ,रंजी की सिसकी मीठी मीठी कराह सुनाई पड़ रही थी।
सिसक वो रही थी , मस्ती से हालत मेरी ख़राब हो गयी।
मैंने अंदर झाँका , तो हलकी सी फिगर दिखाई पड़ी।
रंजी पीठ के बल लेटी थी , टाँगे फैलाये , पूरी तरह निर्वस्त्र।
और गुड्डी उसकी जाँघों के बीच मुंह घुसाये , सपड सपड चाट रही थी।
एक पल के लिए गुड्डी ने अपना चेहरा उठाया और रंजी से बोली ,
" बहुत चीखती है साल्ली छिनार , अभी हंस हंस के मोटा लंड घोंटेगी , चूत और गांड में। चल पहले तेरा मुंह सील करती हूँ फिर बताती हूँ। बहुत लिए तूने चूत चटवाने का मजा , अब तू चाट चूत चटोरी । "
और बस दोनों 69 की पोज में आ गयी , गुड्डी ऊपर रंजी नीचे।
अब रंजी किसी हालात में मुझे नहीं देख सकती थी और गुड्डी ने भी अपना मुंह शहद के छत्ते में घुसेड़ रखा था।
मैं सांस थामे अंदर घुसा और एक पल तो बस देखता रहा।
अब मैं समझा गुड्डी , हम लोगों को दूध का ग्लास पकड़ा के ऊपर क्यों आई थी।
डबल बेड की बेड शीट चेंज हो गयी थी। एकदम दूध की तरह सफेद चादर।
और लाइट की जगह , चारो कोनो पे खूब मोटी लम्बी एरोमैटिक कैंडिल जल रही थीं।
हलकी हलकी मद्धम रोशनी।
हाँ छत पर दो , नाइट लैम्प जल रहे थे थे जिनका फोकस सीधे बेड के सेंटर पर , जहाँ रंजी और गुड्डी एक दूसरे में घुसी ,
और लाइट देखते ही मेरी निगाह एक और चीज पर पड़ी ,
टिपिकल गुड्डी ,
छत के चारो कोनो पे चार कैमरे , एकदम छिपे जो डी बी ने मुझे दिए थे , बहुत कम रौशनी में भी एकदम शार्प फोटुएं खींचते थे विडयो और स्टिल दोनों।
एंगल भी चेंज कर सकते थे।
और उन का रिमोट वहीँ पड़ा था , उसी कुर्सी पे जहाँ थोड़ी देर पहले मैं गुड्डी और रंजी की ब्रा से बंधा पड़ा था।
गुड्डी ने मुझे देखा और ऊँगली से चुप रहने का इशारा करते हुए उसी कुर्सी पे बैंठने को कहा और एक बार फिर जोर जोर से रंजी की चूत चाटने में जुट गयी।
मेरी निगाह रंजी की चूत से चिपकी थी , जैसे अर्जुन की निगाह सिर्फ चिड़िया की आँख देख रही थी , बिलकुल वैसे।
गुलाब की पंखुड़ियों सी मुलायम , कोरी चिकनी , गुलाब की कच्ची कली जो बसंत की पहली किरण के साथ चटखने के लिए बेताब हो ,
बस एक पतली सी दरार , जिसमें इस मोटे बांस को पैबस्त होना था और वो भी पूरे ९ इंच।
कसी , चिपकी लेकिन बुरी तरह पनियाई , मस्ती से चूर।
रस की बूंदे बाहर एक तार की चासनी की तरह टपक रही थीं।
और गुड्डी की जीभ उसे चाटने में मशगूल थी।
गुड्डी की अंगलियाँ तो चार चार बच्चों की माँ , खूब खेली खायी , घाट घाट का पानी पी हुयी भोंसड़ी वालियों को कुछ मिनटों में झाड देती थी , और बिचारी रंजी तो नयी बछेड़ी थी।
और गुड्डी की अंगुलिया , होंठ सब उसे छेड़ने में मजे देने में लगे थे।
मस्ती से रंजी की आँखे एकदम बंद थीं।
बोल तो वो बिचारी सकती नहीं थी , उसके खुले होंठों के बीच गुड्डी की गुलाबी परी धंसी हुयी थी। और साथ ही जोर से गुड्डी ने पूरी ताकत से अपनी ताकतवर जाँघों के बीच उसके सर को दबोच रखा था , और वो एक सूत भी नहीं हिल पा रही थी।
बस मस्ती से तड़प रही थी , सिसक रही थी।
मेरे जंगबहादुर , कब के उन दो किशोरियों की मस्ती देख कर शॉर्ट्स से आजाद हो चुके थे। सुपाड़ा पूरी तरह खुला तड़प रहा था , रंजी मिलनको।
कितनी बार रंजी के गुदाज जोबन और मस्त चूतडो के बारे में सोच सोच कर , मुट्ठ मार मार कर मैं प्रेम रस बहा चूका था।
रंजी की गुलाबी चूत की पुत्तियाँ , तूफान में पत्तों की तरह कांप रही थीं।
वो हलके हलके चूतड़ उचका रही थी। बस लगा रहा था , अब झड़ी तब झड़ी।
लेकिन गुड्डी की करनी , गुड्डी ही जाने।
गुड्डी ने चूत चूसना रोक दिया और एक निपल को जोर से मरोड़ दिया।
वो एक्सलरेटर और ब्रेक दोनों पर बराबर कण्ट्रोल रखना जानती थी।
बिचारी रंजी तड़प के रह गयी।
लेकिन दो तीन मिनट रुक के फिर से गुड्डी ने शोलो को हवा देनी शुरू कर दी।
और अबकी वो पहले से भी ज्यादा दहक़ उठे थे।
चार पांच मिनट में ही रंजी फिर कसमसा रही थी , सिसक रही थी ,चूतड़ पटक रही थी।
और गुड्डी ने इशारे से मुझे बुला लिया ,पलंग पर।
…………………………….
लेकिन मंजिल अभी भी दूर थी.
मैं रंजी की खुली , फैली मखमली जाँघों के बीच था।
उसकी जांघे पूरी तरह खुली फैली थी और गुड्डी ने उन्हें अपनी पूरी ताकत से जितना वो फैल सकती थीं , उससे भी ज्यादा फैला रखा था।
गुड्डी की उँगलियों ने रंजी की बुलबुल की चोंच को पूरा फैला रखा था और उस दरार में गुड्डी की जीभ पैबस्त थी और कभी ऊपर से नीचे , कभी नीचे से ऊपर चाट रही थी।
रस की धार बह रही थी और रंजी की परी अंदर से बाहर तक उसमें नहायी हुयी थी।
और फिर गुड्डी ने वोकिया की बस , जिसके आगे शर्मीली से शर्मीली लड़की खुद अपनी प्रेमपियारी फैला दे , चियार दे ,
गुड्डी का अंगूठा जोर जोर से फूले , उत्तेजित क्लिट को दबा रहा था और फिर उसने अपनी तरजनी और अंगूठे के बीच क्लिट को दबोचना रगड़ना शुरू कर दिया।
एकबार फिर से आंधी के पत्ते की तरह रंजी की देह कापने लगी।
जिस तरह समुद्र में तूफान के थपेड़ों में , नाव हिचखोले खाती है , रंजी की देह उसी तरह कभी इधर कभी उधर हो रही थी।
रंजी ने जोर से आँखे भींच रखी थी।
और गुड्डी ने उसकी कुँवारी अनचुदी किशोर बूर को अपने दोनों हाथों से जबरन फैला के मुझे दावतनामा दे दिया ,
और अगले ही पल मेरा मोटा पगलाया , जोश में अंधा , मदमाता सुपाड़ा सीधे उस खले होंठों के बीच ,
जंगबहादुर सांडे के तेल से चिकने और
रंजी की सहेली खुद अपने रस से लिथड़ी।
अब रंजी की दोनों लम्बी खूबसूरत टाँगे मेरे कंधों पे और मेरे दोनोंदोनों हाथ उसकी पतली कटीली कमरिया पे।
जंगबहादुर खुली कांपती दरार के मुंह पे ,…
और उधर गुड्डी ने भी मोर्चा सम्हाल रखा था।
पूरी ताकत से उसने अपनी चूत रंजी के होंठों पे दबा रखी थी और उससे भी जोर से उसकी जाँघों ने रंजी के सर को दबोच रखा था।
चीख क्या चीख की बच्ची भी नहीं निकल सकती थी।
और साथ में गुड्डी के घुटने , रंजी के हाथों पे पूरी ताकत से , बनारस का जोर दिखा रहे थे।
उसकी हथेलियों ने रंजी की हथेलियों को जकड रखा था।
और अब पूरी जोर से , पूरी ताकत से ,
,गुड्डी ने याद दिलाया मन्त्र
याद मुझे था , कैसे भूल सकता था ,
पहली बार योनि प्रथम प्रवेश के समय , अच्छत योनि में , कुँवारी किशोरी की योनि में
और धक्के के साथ
मैं मैं नहीं था।
रंजी , रंजी नहीं थी।
साथ में मन्त्र का मदिर मदिर गुंजन ,
हलकी मोमबत्ती की रोशनी ,
मैं मात्र एक पुरुष था , सिर्फ एक पुरुष
उस बादल की तरह जो सावन में धरती को ढँक लेता है और भीगा कर , रस में डुबाकर हरी चादर से ढक देता है।
उस हल के फाल की तरह जो धरती को फाड़ कर बीज बो देता है , धरती की कोख भरने के लिए।
मात्र एक आदि संबंध , सृष्टि के शुरू से ,
पुरुष - नारी
और जिस संबंध से सृष्टि अब तक चली आ रही है।
मैं पुरुष , रंजी एक होने वाली नारी ,कुमारी
और मैं उसका कौमार्य भंजक ,
रंजी ज्येष्ठ बैसाख की प्यासी तपती धरती है , बारिश की एक बूँद को व्याकुल
और मैं पर्जन्य , आषाढ़ का पहला बादल।
रंजी आज रमणी है , रमण को आतुर
एक कमलिनी है , जिसके जरा सा खुले सम्पुट में , भ्रमर घुसने को आतुर है , तत्पर।
मैं सब कुछ भूल चूका था।
समय रुका हुआ था।
बाहर खिड़की से झांकता , ललचाता चाँद भी अपनी रोज की यात्रा भूल ठिठक गया था .
ओम मम मम्म मा म ,…
ओम मु मम्म योनि कवच , कौमार्य ,....
ओम्म दक्ष पद रक्षान्तु ,मु मम्म म मा कौमार्य ,…
ओम वाम पद , … मुम रमण्यम ,…
मन्त्र के समय मैं मूलधार चक्र में स्थित था ,और पहले शुरु में श्वास वाम नासा से फिर दक्षिण नासा से ,
साथ में मेरी दायें हाथ की ऊँगली अंगूठे के साथ योनि के त्रिभज के ठीक ऊपर चक्र खींच रही थी।
बीच में बिंदु ,योनि का चिन्ह और चारो और त्रिभुज , कमल दल और भी चिन्ह ,
मन ही मन प्रणाम किया ,
मन्त्र के बीज मन्त्र पढने का समय आगया था।
सांस रोक कर अपनी सारी चेतना वहीँ केंद्रित कर मैंने मन्त्र का वह भी भाग पढ़ा और मन्त्र पूरा किया और साथ ही ,
मेरे कुल्हो में आज दस वृषभों की ताकत आ गयी थी।
पूरी जोर का धक्का,
मैंने मन्त्र पाठ बंद कर दिया था लेकिन उसका अनुनाद , अनगूंज अभी भी मेरे कानो में गूंज रहे थे थे।
और दूसरा धक्का पहले से भी तेज , दूनी ताकत से ,
तीसरा , चौथा , पांचवा , हर धक्का पहले से तेज।
रंजी की टाँगे मजबूती से मेरे चौड़े कंधे पर चिपकी थी , उसकी जांघे फैली और खुली।
और जब मैं रुका और चारों ओर देखा
चाँद पुन: अपनी कक्षा में चल चुका था।
गुड्डी उस कुर्सी पर थी , जिसमें थोड़ी देर पहले मैं बंधा बैठा था और उसके हाथ में , एक हाई ज़ूम वाला नाइट विजन कैमरा था और उसका फोकस सीधे के संधि स्थल पर था।
रंजी का चेहरा , दर्द से नहाया था ,उसकी शंख सी बड़ी बड़ी रतनारी आँखों में आंसू तैर रहे थे।
उस शबनम का एक टुकड़ा उसके नमकीन गालों पर गिर कर उसे और नमकीन बना रहा था।
मेरा लिंग मुख , मोटा सुपाड़ा , उसकी योनि में आलमोस्ट पैबस्त हो चूका था।
वो कजरारे मतवारे नैन ,
जिन्होंने जबसे सपने देखने शुरू किये , मेरे दिन का चैन , रातों की नींद चुरा ली थी।
कटीले नैन , जिनका झुकना और झुक कर उठना
मेरे नैन कमल कोमल चंचल , मेरी चितवन घटा निराली है।
तू है नटखट भंवरा प्रेम जड़ित , मेरे यौवन पुष्प का माली है।
और उस सारंग नयनी के नयनो में तिरते आंसू ,…
मेरे होंठों ने कुछ प्यार से कुछ अपराध बोध से और कुछ गुस्ताखी से , रंजी की सपनों से लदी पलकों पे चूम लिया।
आखिर ये सपना हम दोनों का था , साझा सपना।
और फिर मेरे होंठ थोड़े नीचे आये और , उस खारे आंसू के टुकड़े पे मिश्री घोल दी।
रंजी हलकी सी मुस्करा दी।
बस क्या मेरे होंठों को , हाथों को तो एकदम खुली आजादी मिल गयी।
कभी में उसके मक्खन मिश्री से मीठे गालों को चूमता , तो कभी रस से भरे होंठों को ,होंठ के बीच में ले काटता चुभलाता
हाथ उसके उभरे सपुष्ट जोबन पे था , कभी वो उसे छेड़ते तो कभी मेरा चौड़ा सीना उन्हें दबा के दिल की बातें सीधे उसके दिल से कहता।
और एक बार फिर हाथ उसके खुले कमल पे आ गए जिसमें अब मेरा भौंरा घुस चुका था , और बहुत हलके हलके मेरी उंगलिया , उसकी खुली कमल पंखुड़ियों सहलाने लगीं।
मैंने उस चटकी हुयी गुलाबी कली को बहुत दर्द दिया था और अभी बहुत दर्द देना बाकी था।
ये वो जानती थी और मैं भी।
मेरे होंठ उसके उपत्यकाओं का , उन जवानी के कलशों का रस ले रहे थे , जोबन रस छलक रहा था।
मैं प्यासा यौवन का , वो अपने यौवन घट से रस पिला रही थी।
मुझसे ज्यादा वो जानती थी कैसे उसके उठते गदराये जोबन का मैं गवाह था , चोरी छुपे रस लेता रहता था ,
और उसकी हलकी हंसी , छिपी मुस्कान बता देती थी , उसे सब मालूम है।
मेरे मन की चाह , देह की प्यास।
उसकी खुली जांघे अभी भी पहले धक्को के दर्द में डूबी थीं , पूरी तरह फैली छितराई।
मेरे धक्के तो बंद थे , लेकिन लिंग अभी भी पुश कर रहा था, ठेल रहा था , कमर के जोर से घुसेड़ रहा था।
पर उस कुँवारी गुलाबी प्यार की संकरी गली में रस्ता बनाना इत्ता आसान नहीं था।
एक बार मेरी निगाह गुड्डी पे पड़ी और उसने सैन किया , प्यार दुलार तो ठीक है लेकिन कभी बेरहमी भी दिखानी पड़ती है।
पर गलती की रंजी ने ,
मेरी ओर देख के पहले उसने पलकें खोली , उसकी आँखे मुस्कराई और सर उठा के
उसने मुझे चूम लिया।
पागल करने के लिए जैसे इतना काफी नहीं था , उसकी बाँहो ने मुझे अपनी ओर खींच लिया ,
उसकी लम्बी लता की तरह मेरी देह में लिपटी टांगो ने जोर से भींच लिया।
बस,…
अब मैं फिर मात्र एक देह था।
उसकी पतली २६ इंच की कमर को दोनों हाथों ने जोर से पकड़ा , और मैंने भाले की तरह अंदर तक धंसे लिंग को बड़ी मुश्किल से थोड़ा सा बाहर निकाला और
फिर ,… पूरी ताकत से , फिर दुबारा , फिर ,…
और अबकी न रंजी ने आँखे बंद की न मैंने।
वो नटखट , शरीर कभी मुस्कराती , कभी दर्द से दोहरी हो जाती , कभी सिसकती , तो कभी जोर से अपने होंठों को काट के चीख रोकने की कोशिश करती।
पर उसकी मुस्कराहट , उसकी प्यासी देह , नशीले सुरमयी आँखे , मुझे चिढ़ाती रहती , चैलेंज करती रहती , बुलाती रहती ,
और , … और,,… और
बाहर अमलताश झर रहे थे
उसकी संदल देह को देखने को लालची चांदनी ,खिड़की से लांघकर , उसकी देह को उबटन की तरह लपेट रही थी।
और इस नेह निमंत्रण को कौन ठुकराता ,
मेरे धक्के की रफ्तार और बढ़ती गयी
साथ में चुम्बन , जोबन मर्दन ,और बीच बीच में दर्द में डूबी खुली कोमल कमल पंखुड़ियों को मेरी उँगलिया छेड़ देती।
जैसे सहस्त्राब्दियों से चुप चाप पड़े तालाब में कोई कंकड़ी फ़ेंक दे , कोई अपने पैर की किंकिणि हिला के संगीत गूंजा दे बस उसी तरह आज वो कमल दल एक नए रस का आनंद ले रहे थे।
वह कम्पन , तरंग रंजी की देह में काम लहर की तरह फैल रहे थे ,
एक नए सुख , एक नए वेदना के अहसास की तरह ,
अब मेरी देह उसकी देह एक वाद्य वृंद की तरह हो गए थे ,
मैं वादक , वह वीना , बांसुरी , ताल वाद्य ,
मेरी उँगलियों उसके उभारों पर कभी थिरकतीं कभी थाप देती , मेरे होंठ उसके होंठों में मधुर रस फूंकते ,
और इस ताल ,लय , धुन के साथ ही मेरी देह सूत सूत , उसकी देह में सरक रही थी।
उसकी प्रेम सुरंग मुझे रास्ता दे रही थी , वो कभी मजे से सिसक रही थी , कभी दर्द से चिहुंक रही थी।
लेकिन तभी मेरे काम दंड ने हाथ खड़े कर लिए ,
आगे कैशोर्य की , कौमार्य की , बालेपन और यौवन के बीच की दीवार खड़ी थी।
वह आखिरी सीढ़ी जो रंजी को तरुणी बना देती।
चटक कर खिलने के पहले , कली को जो दर्द होना है , वो तो होना था।
मैं एक पल के लिए ठिठका , सिहरा।
लेकिन गुड्डी ,जो कुछ देर पहले तक कुर्सी पर बैठी इन पलों को कैमरे में कैद कर रही थी ,अब मेरे पीछे खड़े थी।
मेरी पीठ सहला रही थी।
मेरे कान में वो बुदबुदाई ,
" ऐसे नहीं , थोड़ा जोर , बल्कि बहुत जोर ,और रुकना मत , पूरी ताकत से न कुछ सुनना , न देखना , बस,जीतनी ताकत हो उससे भी ज्यादा।
गुड्डी ने मुझे पहले ही चेताया था , " अरे यार उस का अक्षत पर्दा बहुत ही मोटा और कड़ा है , बहुत ताकत लगेगी तुझे , और हाँ याद रखना उस समय का मन्त्र अलग है। "
मैं कैसे भूल सकता था , चक्रव्यूह के आखिरी द्वार को भेदना ही था।
और एक बार फिर ,
फागुन के दिन चार--154
तैयारी पूरी : फटने की
दस मिनट बीते और मैं एकदम दबे पाँव , खामोशी से ऊपर कमरे की ओर चल दिया।
सीढ़ी पर,छत पर बिलकुल अँधेरा था।
आज चाँद भी बादलों की ओट किये शर्मा रहा था।
और बेड रूम का दरवाजा बस थोड़ा सा खुला था और बाहर हलकी हलकी रोशनी , और सिसकियों की मादक आवाज हलकी हलकी आ रही थी।
एक पल मैं ठिठका , बाहर से झाँका।
उईइइइइइइइइइइ नहीं छोड़ कमीनी , ओह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह हटट्ट्ट् सीइइइइइइइइइइ उह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ,रंजी की सिसकी मीठी मीठी कराह सुनाई पड़ रही थी।
सिसक वो रही थी , मस्ती से हालत मेरी ख़राब हो गयी।
मैंने अंदर झाँका , तो हलकी सी फिगर दिखाई पड़ी।
रंजी पीठ के बल लेटी थी , टाँगे फैलाये , पूरी तरह निर्वस्त्र।
और गुड्डी उसकी जाँघों के बीच मुंह घुसाये , सपड सपड चाट रही थी।
एक पल के लिए गुड्डी ने अपना चेहरा उठाया और रंजी से बोली ,
" बहुत चीखती है साल्ली छिनार , अभी हंस हंस के मोटा लंड घोंटेगी , चूत और गांड में। चल पहले तेरा मुंह सील करती हूँ फिर बताती हूँ। बहुत लिए तूने चूत चटवाने का मजा , अब तू चाट चूत चटोरी । "
और बस दोनों 69 की पोज में आ गयी , गुड्डी ऊपर रंजी नीचे।
अब रंजी किसी हालात में मुझे नहीं देख सकती थी और गुड्डी ने भी अपना मुंह शहद के छत्ते में घुसेड़ रखा था।
मैं सांस थामे अंदर घुसा और एक पल तो बस देखता रहा।
अब मैं समझा गुड्डी , हम लोगों को दूध का ग्लास पकड़ा के ऊपर क्यों आई थी।
डबल बेड की बेड शीट चेंज हो गयी थी। एकदम दूध की तरह सफेद चादर।
और लाइट की जगह , चारो कोनो पे खूब मोटी लम्बी एरोमैटिक कैंडिल जल रही थीं।
हलकी हलकी मद्धम रोशनी।
हाँ छत पर दो , नाइट लैम्प जल रहे थे थे जिनका फोकस सीधे बेड के सेंटर पर , जहाँ रंजी और गुड्डी एक दूसरे में घुसी ,
और लाइट देखते ही मेरी निगाह एक और चीज पर पड़ी ,
टिपिकल गुड्डी ,
छत के चारो कोनो पे चार कैमरे , एकदम छिपे जो डी बी ने मुझे दिए थे , बहुत कम रौशनी में भी एकदम शार्प फोटुएं खींचते थे विडयो और स्टिल दोनों।
एंगल भी चेंज कर सकते थे।
और उन का रिमोट वहीँ पड़ा था , उसी कुर्सी पे जहाँ थोड़ी देर पहले मैं गुड्डी और रंजी की ब्रा से बंधा पड़ा था।
गुड्डी ने मुझे देखा और ऊँगली से चुप रहने का इशारा करते हुए उसी कुर्सी पे बैंठने को कहा और एक बार फिर जोर जोर से रंजी की चूत चाटने में जुट गयी।
मेरी निगाह रंजी की चूत से चिपकी थी , जैसे अर्जुन की निगाह सिर्फ चिड़िया की आँख देख रही थी , बिलकुल वैसे।
गुलाब की पंखुड़ियों सी मुलायम , कोरी चिकनी , गुलाब की कच्ची कली जो बसंत की पहली किरण के साथ चटखने के लिए बेताब हो ,
बस एक पतली सी दरार , जिसमें इस मोटे बांस को पैबस्त होना था और वो भी पूरे ९ इंच।
कसी , चिपकी लेकिन बुरी तरह पनियाई , मस्ती से चूर।
रस की बूंदे बाहर एक तार की चासनी की तरह टपक रही थीं।
और गुड्डी की जीभ उसे चाटने में मशगूल थी।
गुड्डी की अंगलियाँ तो चार चार बच्चों की माँ , खूब खेली खायी , घाट घाट का पानी पी हुयी भोंसड़ी वालियों को कुछ मिनटों में झाड देती थी , और बिचारी रंजी तो नयी बछेड़ी थी।
और गुड्डी की अंगुलिया , होंठ सब उसे छेड़ने में मजे देने में लगे थे।
मस्ती से रंजी की आँखे एकदम बंद थीं।
बोल तो वो बिचारी सकती नहीं थी , उसके खुले होंठों के बीच गुड्डी की गुलाबी परी धंसी हुयी थी। और साथ ही जोर से गुड्डी ने पूरी ताकत से अपनी ताकतवर जाँघों के बीच उसके सर को दबोच रखा था , और वो एक सूत भी नहीं हिल पा रही थी।
बस मस्ती से तड़प रही थी , सिसक रही थी।
मेरे जंगबहादुर , कब के उन दो किशोरियों की मस्ती देख कर शॉर्ट्स से आजाद हो चुके थे। सुपाड़ा पूरी तरह खुला तड़प रहा था , रंजी मिलनको।
कितनी बार रंजी के गुदाज जोबन और मस्त चूतडो के बारे में सोच सोच कर , मुट्ठ मार मार कर मैं प्रेम रस बहा चूका था।
रंजी की गुलाबी चूत की पुत्तियाँ , तूफान में पत्तों की तरह कांप रही थीं।
वो हलके हलके चूतड़ उचका रही थी। बस लगा रहा था , अब झड़ी तब झड़ी।
लेकिन गुड्डी की करनी , गुड्डी ही जाने।
गुड्डी ने चूत चूसना रोक दिया और एक निपल को जोर से मरोड़ दिया।
वो एक्सलरेटर और ब्रेक दोनों पर बराबर कण्ट्रोल रखना जानती थी।
बिचारी रंजी तड़प के रह गयी।
लेकिन दो तीन मिनट रुक के फिर से गुड्डी ने शोलो को हवा देनी शुरू कर दी।
और अबकी वो पहले से भी ज्यादा दहक़ उठे थे।
चार पांच मिनट में ही रंजी फिर कसमसा रही थी , सिसक रही थी ,चूतड़ पटक रही थी।
और गुड्डी ने इशारे से मुझे बुला लिया ,पलंग पर।
…………………………….
लेकिन मंजिल अभी भी दूर थी.
मैं रंजी की खुली , फैली मखमली जाँघों के बीच था।
उसकी जांघे पूरी तरह खुली फैली थी और गुड्डी ने उन्हें अपनी पूरी ताकत से जितना वो फैल सकती थीं , उससे भी ज्यादा फैला रखा था।
गुड्डी की उँगलियों ने रंजी की बुलबुल की चोंच को पूरा फैला रखा था और उस दरार में गुड्डी की जीभ पैबस्त थी और कभी ऊपर से नीचे , कभी नीचे से ऊपर चाट रही थी।
रस की धार बह रही थी और रंजी की परी अंदर से बाहर तक उसमें नहायी हुयी थी।
और फिर गुड्डी ने वोकिया की बस , जिसके आगे शर्मीली से शर्मीली लड़की खुद अपनी प्रेमपियारी फैला दे , चियार दे ,
गुड्डी का अंगूठा जोर जोर से फूले , उत्तेजित क्लिट को दबा रहा था और फिर उसने अपनी तरजनी और अंगूठे के बीच क्लिट को दबोचना रगड़ना शुरू कर दिया।
एकबार फिर से आंधी के पत्ते की तरह रंजी की देह कापने लगी।
जिस तरह समुद्र में तूफान के थपेड़ों में , नाव हिचखोले खाती है , रंजी की देह उसी तरह कभी इधर कभी उधर हो रही थी।
रंजी ने जोर से आँखे भींच रखी थी।
और गुड्डी ने उसकी कुँवारी अनचुदी किशोर बूर को अपने दोनों हाथों से जबरन फैला के मुझे दावतनामा दे दिया ,
और अगले ही पल मेरा मोटा पगलाया , जोश में अंधा , मदमाता सुपाड़ा सीधे उस खले होंठों के बीच ,
जंगबहादुर सांडे के तेल से चिकने और
रंजी की सहेली खुद अपने रस से लिथड़ी।
अब रंजी की दोनों लम्बी खूबसूरत टाँगे मेरे कंधों पे और मेरे दोनोंदोनों हाथ उसकी पतली कटीली कमरिया पे।
जंगबहादुर खुली कांपती दरार के मुंह पे ,…
और उधर गुड्डी ने भी मोर्चा सम्हाल रखा था।
पूरी ताकत से उसने अपनी चूत रंजी के होंठों पे दबा रखी थी और उससे भी जोर से उसकी जाँघों ने रंजी के सर को दबोच रखा था।
चीख क्या चीख की बच्ची भी नहीं निकल सकती थी।
और साथ में गुड्डी के घुटने , रंजी के हाथों पे पूरी ताकत से , बनारस का जोर दिखा रहे थे।
उसकी हथेलियों ने रंजी की हथेलियों को जकड रखा था।
और अब पूरी जोर से , पूरी ताकत से ,
,गुड्डी ने याद दिलाया मन्त्र
याद मुझे था , कैसे भूल सकता था ,
पहली बार योनि प्रथम प्रवेश के समय , अच्छत योनि में , कुँवारी किशोरी की योनि में
और धक्के के साथ
मैं मैं नहीं था।
रंजी , रंजी नहीं थी।
साथ में मन्त्र का मदिर मदिर गुंजन ,
हलकी मोमबत्ती की रोशनी ,
मैं मात्र एक पुरुष था , सिर्फ एक पुरुष
उस बादल की तरह जो सावन में धरती को ढँक लेता है और भीगा कर , रस में डुबाकर हरी चादर से ढक देता है।
उस हल के फाल की तरह जो धरती को फाड़ कर बीज बो देता है , धरती की कोख भरने के लिए।
मात्र एक आदि संबंध , सृष्टि के शुरू से ,
पुरुष - नारी
और जिस संबंध से सृष्टि अब तक चली आ रही है।
मैं पुरुष , रंजी एक होने वाली नारी ,कुमारी
और मैं उसका कौमार्य भंजक ,
रंजी ज्येष्ठ बैसाख की प्यासी तपती धरती है , बारिश की एक बूँद को व्याकुल
और मैं पर्जन्य , आषाढ़ का पहला बादल।
रंजी आज रमणी है , रमण को आतुर
एक कमलिनी है , जिसके जरा सा खुले सम्पुट में , भ्रमर घुसने को आतुर है , तत्पर।
मैं सब कुछ भूल चूका था।
समय रुका हुआ था।
बाहर खिड़की से झांकता , ललचाता चाँद भी अपनी रोज की यात्रा भूल ठिठक गया था .
ओम मम मम्म मा म ,…
ओम मु मम्म योनि कवच , कौमार्य ,....
ओम्म दक्ष पद रक्षान्तु ,मु मम्म म मा कौमार्य ,…
ओम वाम पद , … मुम रमण्यम ,…
मन्त्र के समय मैं मूलधार चक्र में स्थित था ,और पहले शुरु में श्वास वाम नासा से फिर दक्षिण नासा से ,
साथ में मेरी दायें हाथ की ऊँगली अंगूठे के साथ योनि के त्रिभज के ठीक ऊपर चक्र खींच रही थी।
बीच में बिंदु ,योनि का चिन्ह और चारो और त्रिभुज , कमल दल और भी चिन्ह ,
मन ही मन प्रणाम किया ,
मन्त्र के बीज मन्त्र पढने का समय आगया था।
सांस रोक कर अपनी सारी चेतना वहीँ केंद्रित कर मैंने मन्त्र का वह भी भाग पढ़ा और मन्त्र पूरा किया और साथ ही ,
मेरे कुल्हो में आज दस वृषभों की ताकत आ गयी थी।
पूरी जोर का धक्का,
मैंने मन्त्र पाठ बंद कर दिया था लेकिन उसका अनुनाद , अनगूंज अभी भी मेरे कानो में गूंज रहे थे थे।
और दूसरा धक्का पहले से भी तेज , दूनी ताकत से ,
तीसरा , चौथा , पांचवा , हर धक्का पहले से तेज।
रंजी की टाँगे मजबूती से मेरे चौड़े कंधे पर चिपकी थी , उसकी जांघे फैली और खुली।
और जब मैं रुका और चारों ओर देखा
चाँद पुन: अपनी कक्षा में चल चुका था।
गुड्डी उस कुर्सी पर थी , जिसमें थोड़ी देर पहले मैं बंधा बैठा था और उसके हाथ में , एक हाई ज़ूम वाला नाइट विजन कैमरा था और उसका फोकस सीधे के संधि स्थल पर था।
रंजी का चेहरा , दर्द से नहाया था ,उसकी शंख सी बड़ी बड़ी रतनारी आँखों में आंसू तैर रहे थे।
उस शबनम का एक टुकड़ा उसके नमकीन गालों पर गिर कर उसे और नमकीन बना रहा था।
मेरा लिंग मुख , मोटा सुपाड़ा , उसकी योनि में आलमोस्ट पैबस्त हो चूका था।
वो कजरारे मतवारे नैन ,
जिन्होंने जबसे सपने देखने शुरू किये , मेरे दिन का चैन , रातों की नींद चुरा ली थी।
कटीले नैन , जिनका झुकना और झुक कर उठना
मेरे नैन कमल कोमल चंचल , मेरी चितवन घटा निराली है।
तू है नटखट भंवरा प्रेम जड़ित , मेरे यौवन पुष्प का माली है।
और उस सारंग नयनी के नयनो में तिरते आंसू ,…
मेरे होंठों ने कुछ प्यार से कुछ अपराध बोध से और कुछ गुस्ताखी से , रंजी की सपनों से लदी पलकों पे चूम लिया।
आखिर ये सपना हम दोनों का था , साझा सपना।
और फिर मेरे होंठ थोड़े नीचे आये और , उस खारे आंसू के टुकड़े पे मिश्री घोल दी।
रंजी हलकी सी मुस्करा दी।
बस क्या मेरे होंठों को , हाथों को तो एकदम खुली आजादी मिल गयी।
कभी में उसके मक्खन मिश्री से मीठे गालों को चूमता , तो कभी रस से भरे होंठों को ,होंठ के बीच में ले काटता चुभलाता
हाथ उसके उभरे सपुष्ट जोबन पे था , कभी वो उसे छेड़ते तो कभी मेरा चौड़ा सीना उन्हें दबा के दिल की बातें सीधे उसके दिल से कहता।
और एक बार फिर हाथ उसके खुले कमल पे आ गए जिसमें अब मेरा भौंरा घुस चुका था , और बहुत हलके हलके मेरी उंगलिया , उसकी खुली कमल पंखुड़ियों सहलाने लगीं।
मैंने उस चटकी हुयी गुलाबी कली को बहुत दर्द दिया था और अभी बहुत दर्द देना बाकी था।
ये वो जानती थी और मैं भी।
मेरे होंठ उसके उपत्यकाओं का , उन जवानी के कलशों का रस ले रहे थे , जोबन रस छलक रहा था।
मैं प्यासा यौवन का , वो अपने यौवन घट से रस पिला रही थी।
मुझसे ज्यादा वो जानती थी कैसे उसके उठते गदराये जोबन का मैं गवाह था , चोरी छुपे रस लेता रहता था ,
और उसकी हलकी हंसी , छिपी मुस्कान बता देती थी , उसे सब मालूम है।
मेरे मन की चाह , देह की प्यास।
उसकी खुली जांघे अभी भी पहले धक्को के दर्द में डूबी थीं , पूरी तरह फैली छितराई।
मेरे धक्के तो बंद थे , लेकिन लिंग अभी भी पुश कर रहा था, ठेल रहा था , कमर के जोर से घुसेड़ रहा था।
पर उस कुँवारी गुलाबी प्यार की संकरी गली में रस्ता बनाना इत्ता आसान नहीं था।
एक बार मेरी निगाह गुड्डी पे पड़ी और उसने सैन किया , प्यार दुलार तो ठीक है लेकिन कभी बेरहमी भी दिखानी पड़ती है।
पर गलती की रंजी ने ,
मेरी ओर देख के पहले उसने पलकें खोली , उसकी आँखे मुस्कराई और सर उठा के
उसने मुझे चूम लिया।
पागल करने के लिए जैसे इतना काफी नहीं था , उसकी बाँहो ने मुझे अपनी ओर खींच लिया ,
उसकी लम्बी लता की तरह मेरी देह में लिपटी टांगो ने जोर से भींच लिया।
बस,…
अब मैं फिर मात्र एक देह था।
उसकी पतली २६ इंच की कमर को दोनों हाथों ने जोर से पकड़ा , और मैंने भाले की तरह अंदर तक धंसे लिंग को बड़ी मुश्किल से थोड़ा सा बाहर निकाला और
फिर ,… पूरी ताकत से , फिर दुबारा , फिर ,…
और अबकी न रंजी ने आँखे बंद की न मैंने।
वो नटखट , शरीर कभी मुस्कराती , कभी दर्द से दोहरी हो जाती , कभी सिसकती , तो कभी जोर से अपने होंठों को काट के चीख रोकने की कोशिश करती।
पर उसकी मुस्कराहट , उसकी प्यासी देह , नशीले सुरमयी आँखे , मुझे चिढ़ाती रहती , चैलेंज करती रहती , बुलाती रहती ,
और , … और,,… और
बाहर अमलताश झर रहे थे
उसकी संदल देह को देखने को लालची चांदनी ,खिड़की से लांघकर , उसकी देह को उबटन की तरह लपेट रही थी।
और इस नेह निमंत्रण को कौन ठुकराता ,
मेरे धक्के की रफ्तार और बढ़ती गयी
साथ में चुम्बन , जोबन मर्दन ,और बीच बीच में दर्द में डूबी खुली कोमल कमल पंखुड़ियों को मेरी उँगलिया छेड़ देती।
जैसे सहस्त्राब्दियों से चुप चाप पड़े तालाब में कोई कंकड़ी फ़ेंक दे , कोई अपने पैर की किंकिणि हिला के संगीत गूंजा दे बस उसी तरह आज वो कमल दल एक नए रस का आनंद ले रहे थे।
वह कम्पन , तरंग रंजी की देह में काम लहर की तरह फैल रहे थे ,
एक नए सुख , एक नए वेदना के अहसास की तरह ,
अब मेरी देह उसकी देह एक वाद्य वृंद की तरह हो गए थे ,
मैं वादक , वह वीना , बांसुरी , ताल वाद्य ,
मेरी उँगलियों उसके उभारों पर कभी थिरकतीं कभी थाप देती , मेरे होंठ उसके होंठों में मधुर रस फूंकते ,
और इस ताल ,लय , धुन के साथ ही मेरी देह सूत सूत , उसकी देह में सरक रही थी।
उसकी प्रेम सुरंग मुझे रास्ता दे रही थी , वो कभी मजे से सिसक रही थी , कभी दर्द से चिहुंक रही थी।
लेकिन तभी मेरे काम दंड ने हाथ खड़े कर लिए ,
आगे कैशोर्य की , कौमार्य की , बालेपन और यौवन के बीच की दीवार खड़ी थी।
वह आखिरी सीढ़ी जो रंजी को तरुणी बना देती।
चटक कर खिलने के पहले , कली को जो दर्द होना है , वो तो होना था।
मैं एक पल के लिए ठिठका , सिहरा।
लेकिन गुड्डी ,जो कुछ देर पहले तक कुर्सी पर बैठी इन पलों को कैमरे में कैद कर रही थी ,अब मेरे पीछे खड़े थी।
मेरी पीठ सहला रही थी।
मेरे कान में वो बुदबुदाई ,
" ऐसे नहीं , थोड़ा जोर , बल्कि बहुत जोर ,और रुकना मत , पूरी ताकत से न कुछ सुनना , न देखना , बस,जीतनी ताकत हो उससे भी ज्यादा।
गुड्डी ने मुझे पहले ही चेताया था , " अरे यार उस का अक्षत पर्दा बहुत ही मोटा और कड़ा है , बहुत ताकत लगेगी तुझे , और हाँ याद रखना उस समय का मन्त्र अलग है। "
मैं कैसे भूल सकता था , चक्रव्यूह के आखिरी द्वार को भेदना ही था।
और एक बार फिर ,
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