FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--174
गुड्डी -रंजी
लेकिन उसके बाद जंगबहादुर ताबड़तोड़ चालु हो गए हैं। धक्के पे धक्का ,धक्के पे धक्का ,
……
गुड्डी एकदम झड़ने के कगार पे थी। रंजी ने उसकी चूत चूस चूस के , बूर में जी प्वाइंट को दबा दबा के , क्लिट मसल मसल के वैसे ही आलमोस्ट झाड़ दिया था फिर ९ इंच के लंड की ताबड़तोड़ चुदाई ५-७ मिनट में गुड्डी की देह काँप रही थी , साँस लम्बी हो रही थी ,लग रहा था अब गयी तब गयी।
लेकिन रंजी ने इशारा कर के मुझे रोक दिया। २०-२५ सेकेण्ड मैं एकदम ठहर गया और जब गुड्डी किनारे से वापस आई तो फिर , लेकिन मैं इस बार धक्के हलके हलके लगा रहा था।
स्टीरयरिंग गुड्डी की मेरे हाथ में थी लेकिन दोनों हार्न रंजी के हाथ में।
और वो छुटकी ननदिया का काम बखूबी निभा रही थी।
जोर जोर से किशोर उभार रंजी कभी प्यार से सहलाती तो कभी जोर से दबा देती तो कभी अपने होंठों में भर के गुड्डी के खड़े निपल चूस लेती।
गुड्डी सिसक रही थी ,तड़प रही थी और साथ साथ अब चूतड़ उठा उठा के मेरे धक्कों का जवाब दे रही थी।
दो चार मिनट में मेरी स्पीड फिर तूफान मेल हो गयी। चार धक्के धीमे धीमे आधे लंड से तो दो पूरा निकाल के डबल ताकत से।
उसकी क्लिट कभी मैं छेड़ता तो कभी रंजी मसलती।
और अबकी जब गुड्डी झड़ने के कगार पे पहुंची तो रंजी ने इशारा किया , हो जाने दे , बिचारी बहुत तड़प रही है।
और मैंने गुड्डी की दोनों चूंची जोर से पकड़ के दबायी , उसके होंठों को अपने होंठों से सील किया और लंड आलमोस्ट बाहर निकालकर पूरी ताकत धक्का मारा।
जैसे ही सुपाड़ा बच्चेदानी से टकराया , तूफान में पत्ते की तरह गुड्डी की देह कांपने लगी। उसने जोर से मुझे भींच लिया और उसकी कसी चूत मेरे लंड को निचोड़ने लगी।
२-४ मिनट वो ऐसे ही झड़ती रही। रुकती फिर शुरू हो जाती।
मैंने भी लंड उसकी चूत में पूरा धंसा रखा था और वो अभी भी लोहे के खम्भे की तरह टनटना रहा था।
और कुछ पलों के बाद धमाकेदार चुदाई फिर से चालू हो गयी।
मेरी और रंजी की उँगलियों और होंठों का कमाल था की गुड्डी थोड़ी देर में ही फिर गरम हो गयी थी।
एक उभार रंजी सहलाती मसलती , दूसरे को मेरे होंठ चूमते चाटते। कभी क्लिट को वो छेड़ती तो कभी मैं और मेरे जंगबहादुर , पूरी तरह से गुड्डी की योनि में पैबस्त थे।
कुछ ही देर में गुड्डी ने नीचे से अपने गोल गोल गुदाज चूतड़ उचकाने शुरू कर दिए , बस इससे बड़ा ग्रीन सिग्नल और क्या मिलता।
अबकी शुरू से ही गाड़ी फुल स्पीड पे चलने लगी।
हर धक्के में सुपाड़ा बच्चेदानी पे हथौड़े की तरह चोट मारता। और लंड का बेस जोर जोर से उसकी क्लिट रगड़ता और साथ मेरे दोनों हाथ कचकचा के गुड्डी के जोबन दबा रहे थे , मसल रहे थे।
गुड्डी भी अपनी बाहों में मुझे भींच लेती , चूम लेती , लता की तरह उसकी टाँगे मेरी देह में लिपटी थीं और वो हर धक्के का जवाब धक्के से दे रही थी।
अखाड़े में लड़ रहे पहलवान की तरह हम दोनों गुत्थमगुथा थे।
१०-१५ मिनट में गुड्डी दुबारा झड़ने के कगार पे थी।
और रंजी जो अबकी किनारे बैठी मजा ले रही थी , मैदान में आगयी और उसकी उँगलियों ने जो गुड्डी की क्लिट को रगड़ा , बस गुड्डी जोर जोर से झड़ने लगी और अबकी मैंने चुदाई रोकी नहीं।
गुड्डी काँप रही थी , सिसक रही थी , झड़ रही थी और
मेरी चुदाई बदस्तूर चालू थी।
और जब वो एकदम थक कर चूर हो गयी तो मैं रुका लेकिन लंड अभी भी उसकी चूत में था।
बिचारी गुड्डी। आज तक उसने जंगबहादुर को कभी मना नहीं किया था ,लेकिन वो आज एकदम पस्त थी।
और कारण थी रंजी।
पहले तो रंजी की नदीदी जीभ और दुष्ट उँगलियों ने गुड्डी की क्लिट और जी प्वाइंट की ऐसी तैसी की। और उसके बाद मेरा भूखा शेर ,और वो भी अकेले नहीं रंजी के साथ।
दो बार गुड्डी बुरी तरह झड़ चुकी थी , और मेरा कुतुबमीनार वैसे का वैसे तना था।
बिचारी गुड्डी ने आँखों से इशारा किया ,अब और नहीं। निकाल लो न।
और कोई समय होता तो शायद मैं मान जाता लेकिन अभी तो जुगलबंदी थी रंजी के साथ। और रंजी की शरारती आँखों ने टोक दिया ,
उन्ह अभी नहीं। होने दो न , जरा कस के रगड़ो।
और मैं दो पाटन के बीच।
लेकिन फैसला खुद जंगबहादुर ने ले लिया। उन्हें गुड्डी की लाल परी से अलग करना कोई आसान थोड़े ही था।
पिस्टन हलके हलके आगे पीछे होने लगा , इंजन फिर से स्टार्ट हो गया।
और कुछ देर में गुड्डी भी धक्को का जवाब देने लगी , लेकिन वो समझ गयी थी रंजी की शैतानी , और चुदवाते हुए उसने रंजी पर उलटे हमला कर दिया।
रंजी की सहेली भी मेरी -गुड्डी की हचक के चुदाई देखते हुए अच्छी तरह पनिया गयी थी , ऊपर से शैम्पेन का नशा।
अपने आप उसकी जांघे फैली थीं , भरतपुर का दरवाजा खुला था और घचाक से गुड्डी ने दो उंगलिया वहां पेल दीं।
और साथ ही अंगूठा क्लिट पे।
अब जिस रफतार से मेरे मूसलचंद गुड्डी की ओखली में कूटते , उसी स्पीड से गुड्डी की उंगलियां रंजी की चूत में अंदर बाहर अंदर बाहर होने लगती।
रंजी कौन छोड़ने वाली थी , उसकी उँगलियों ने गुड्डी के निप्पल को दबोचा और लगी मजा लेने।
थोड़ी देर में ही दोनों की सिसकियाँ कमरे में गूंज रही थीं।
और उन दोनों की मस्ती , सिसकियों का असर मेरे ऊपर हुआ और गुड्डी की पतली कमरिया पकड़ के मैं धक्के पे धक्के मारे जा रहा था , और गुड्डी कभी अपनी चूत में जोर से मेरे लंड को निचोड़ लेती तोकभी अपने भारी चूतड़ उछाल के धक्के का जवाब धक्के से देती ,और साथ में उसकी उंगलिया धकापेल रंजी की चूत में अंदर बाहर हो रही थी।
गुड्डी ने मुझे रंजी की ओर दिखाकर इशारा किया , और मैं समझ गया।
गुड्डी की दो उंगलिया और अंगूठा तो रंजी की बुर और क्लिट में फंसे थे।
मेरे हाथ मैदान में आगये और एक हाथ ने कककचा के रंजी के किशोर उभार जिसने सारे शहर में , जबसे वो जवान हुयी आग लगा रखे थे , को दबोच लिया। कभी मेरा अंगूठा उसके निपल को फ्लिक करता ,रगड़ता तो कभी तर्जनी और अंगूठे के बीच मैं जोर से मूंगफली के दाने के बराबर खड़े निपल को पिंच कर लेता।
और दूसरा हाथ गुड्डी के जोबन का रस भी ले रहा था और उसे दबाते मैं गुड्डी की चूत में दमादम मस्त कलंदर भी कर रहा था।
" क्यों किसका जोबन ज्यादा रसीला लग रहा है। " गुड्डी हंस के बोली।
दोनों की चूंची एकसाथ दबाते मैं बोला ,दोनों की एक से बढ़ कर एक है।
गुड्डी को चिढ़ाते रंजी बोली , " अरे क्यों फट रही है तेरी ,२७ मई को जब से इस घर में आओगी न तो रोज बिना नागा इसी तरह रगड़ाई होगी , अभी तो ट्रेलर है। "
गुड्डी कौन चुप रहती बोली , " अरे महीने में पांच दिन छुट्टी के भी तो होते हैं , बस उस पांच दिन तेरी ड्यूटी रहेगी , अब तेरे भैया उपवास तो करेंगे नहीं। फिर पूछूंगी तुझसे हालत। "
उन दोनों का तो पता नहीं लेकिन उन की बातें सुन के मेरी हालत जरूर खराब हो गयी और मैंने सब कुछ छोड़कर गुड्डी की टांगो को मोड़कर दुहरा कर दिया और हचक हचक के पेलने लगा।
साथ में मेरा अंगूठा क्लिट पे रगड़ रहा था।
गुड्डी की अंगुली का पिस्टन रंजी की बिल में अदंर बाहर हो रहा था।
और गुड्डी कुछ देर में फिर झड़ने लगी।
तीसरी बार।
और अबकी वो देर तक झड़ती रही। चूत पूरी तरह गीली , देह थक कर चूर।
मैं जानता था अब निकाल लेने में ही भलाई है।
और पुच्च की आवाज से जंगबहादुर बाहर आ गए।
गुड्डी की थकी हुयी बड़ी बड़ी रतनारी आँखों ने झुक कर मुस्करा कर थैंक यू , बोला और फिर उसने पल भर के लिए पलकें बंद कर लीं , जैसे इन सारे पलों को सहेज लेना चाहती हो।
फिर अपने दोनों हाथों के जोर से अपनी देह को उठाया और मुझसे सट के , बौराये , पगलाए , जंगबहादुर को देखते बोली ,
" सॉरी मुन्ना भूख लगी है न बड़ी जोर से "
जवाब मेरे मूसलचंद की ओर से रंजी ने दिया ,
" तू भी न बिचारे के आगे से सजी सजाई थाली छीन कर पूछ रही हो भूखे हो क्या , देख बिचारा कैसे तड़प रहा है "
पलट के रंजी का हाथ पकड़ के मेरे पास खींचती गुड्डी बोली ,
" अरे बिचारे की बिचारी तू ही भूख मिटा दे न इसकी , देख इसने कल रात तेरे अगवाड़े का रास्ता खोला , पिछवारे का रास्ता साफ किया है और फिर कल से वैसे भी तू बनारस छैलों के हवाले हो जायेगी , तो मिटा दे न बिचारे मुन्ने की भूख देख कैसे तन्नाया खड़ा है। "
गुड्डी की उँगलियों ने रंजी की प्रेम गुफा में हलचल मचा रखी थी , वो बुरी तरह पनियाई थी , और जिस तरह से वो जंगबहादुर को देख रही थी , साफ लग रहा था वो ललच रही है। लेकिन इत्ती जल्दी कैसे माने ,झिझकते हुए वो बोली ,
" चल हट कमीनी , तूने शुरू किया था , तू ही मलाई निकाल बिचारा भूख से तड़प रहा है। "
रंजी की आँखे एकदम मेरे पहाड़ी आलू ऐसे मोटे कड़क , धूसर खुले सुपाड़े पे चिपकी थीं।
गुड्डी ने मुझे आँख मार के इशारा किया ,चढ़ जा इसपे , पूरी पनियाई है।
" चल एक बार हाथ से पकड़ के तो देख ये तेरा बिचारा कितना तड़प रहा है"
और रंजी का हाथ पकड़ के मेरे लंड पे गुड्डी ने लगा दिया। बड़ी मुश्किल से रंजी की मुट्ठी में समाया वो।
" ले ले , यार घोंट ले। नखड़ा मत कर कमीनी अब बहुत छिनारपना हो गया। " गुड्डी ने फिर उकसाया।
मैं भी मैदान में आ गया ,
" अरे यार ले ले न , इसकी तो फट गयी है , तू ही कुछ कर न बहुत मन कर रहा है " मैंने बोला।
रंजी ने मन बना लिया ,चुदवासी तो वो पहले ही हो रही थी और अब मेरा मोटा सख्त औजार पकड़ने के बाद उसके लिए मना करना ,मुश्किल था , फिर भी वो बोली ,
" चल यार तू भी क्या याद करेगी। ले लेती हूँ , लेकिन अगली बार मलाई तू हो घोटेगी। "
झट्ट से गुड्डी बोली , " अरे मेरी नानी , ठीक है ,अगली बार मेरा नंबर , लेकिन अभी तो तू घोंट न"
मैं रंजी की ओर आगे बढ़ा तो गुड्डी ने मुझे बरज दिया , और रंजी से बोली ,
" कमीनी बचपन की छिनार , क्या घोंटेगी तेरी प्यासी चुनमुनिया ये तो बता "
रंजी एक पल के लिए झिझकी फिर मेरे मोटे बित्ते भर के खड़े लंड को मुठियाते बोली ,
" ये यही , जिसे तू अभी चूतड़ उचका उचका के घोंट रही थी , और जिसे घोंटने २७ मई को बनारस छोड़ के मेरे शहर आएगी वो। "
"अरे छिनाल ये , वो क्या लगा रखा है , साफ साफ बोल न मुठियाने में शर्म नही , चूसने में शरम नहीं , चूतड़ उठा उठा के घोंटने में शर्म नहीं और ,"
रंजी की बिल से मस्ती का झरना बह रहा था , और वो कौन बनारस वाली से कम थी , हुलस कर बोली ,
" ये मस्त लंड घोंटूँगी , जो तेरे और तेरे सारे खानदान की ऐसी की तैसी करेगा , जानू। "
गुड्डी ने मुझे हल्का सा धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया। खूंटा अभी भी रंजी के हाथ में था।
लंड हवा में मोटे खम्भे की तरह तना खड़ा था।
मैने उठ के फिर रंजी को अपने नीचे लेने की कोशिश की तो गुड्डी की नशीली आँखों ने फिर बरज दिया और रंजी के निपल मरोड़ते बोली ,
"मेरे सारे भाइयों की रखैल , मेरे सारे गाँव वाले तेरी फुद्दी मारें , गांड मारें , अरे ये भी तो इतने थके हैं ,चल आज तू चढ़ जा इस कुतुबमीनार पे , वरना मैं मानूंगी तुझे ये अच्छा नहीं लगता।
फागुन के दिन चार--174
गुड्डी -रंजी
लेकिन उसके बाद जंगबहादुर ताबड़तोड़ चालु हो गए हैं। धक्के पे धक्का ,धक्के पे धक्का ,
……
गुड्डी एकदम झड़ने के कगार पे थी। रंजी ने उसकी चूत चूस चूस के , बूर में जी प्वाइंट को दबा दबा के , क्लिट मसल मसल के वैसे ही आलमोस्ट झाड़ दिया था फिर ९ इंच के लंड की ताबड़तोड़ चुदाई ५-७ मिनट में गुड्डी की देह काँप रही थी , साँस लम्बी हो रही थी ,लग रहा था अब गयी तब गयी।
लेकिन रंजी ने इशारा कर के मुझे रोक दिया। २०-२५ सेकेण्ड मैं एकदम ठहर गया और जब गुड्डी किनारे से वापस आई तो फिर , लेकिन मैं इस बार धक्के हलके हलके लगा रहा था।
स्टीरयरिंग गुड्डी की मेरे हाथ में थी लेकिन दोनों हार्न रंजी के हाथ में।
और वो छुटकी ननदिया का काम बखूबी निभा रही थी।
जोर जोर से किशोर उभार रंजी कभी प्यार से सहलाती तो कभी जोर से दबा देती तो कभी अपने होंठों में भर के गुड्डी के खड़े निपल चूस लेती।
गुड्डी सिसक रही थी ,तड़प रही थी और साथ साथ अब चूतड़ उठा उठा के मेरे धक्कों का जवाब दे रही थी।
दो चार मिनट में मेरी स्पीड फिर तूफान मेल हो गयी। चार धक्के धीमे धीमे आधे लंड से तो दो पूरा निकाल के डबल ताकत से।
उसकी क्लिट कभी मैं छेड़ता तो कभी रंजी मसलती।
और अबकी जब गुड्डी झड़ने के कगार पे पहुंची तो रंजी ने इशारा किया , हो जाने दे , बिचारी बहुत तड़प रही है।
और मैंने गुड्डी की दोनों चूंची जोर से पकड़ के दबायी , उसके होंठों को अपने होंठों से सील किया और लंड आलमोस्ट बाहर निकालकर पूरी ताकत धक्का मारा।
जैसे ही सुपाड़ा बच्चेदानी से टकराया , तूफान में पत्ते की तरह गुड्डी की देह कांपने लगी। उसने जोर से मुझे भींच लिया और उसकी कसी चूत मेरे लंड को निचोड़ने लगी।
२-४ मिनट वो ऐसे ही झड़ती रही। रुकती फिर शुरू हो जाती।
मैंने भी लंड उसकी चूत में पूरा धंसा रखा था और वो अभी भी लोहे के खम्भे की तरह टनटना रहा था।
और कुछ पलों के बाद धमाकेदार चुदाई फिर से चालू हो गयी।
मेरी और रंजी की उँगलियों और होंठों का कमाल था की गुड्डी थोड़ी देर में ही फिर गरम हो गयी थी।
एक उभार रंजी सहलाती मसलती , दूसरे को मेरे होंठ चूमते चाटते। कभी क्लिट को वो छेड़ती तो कभी मैं और मेरे जंगबहादुर , पूरी तरह से गुड्डी की योनि में पैबस्त थे।
कुछ ही देर में गुड्डी ने नीचे से अपने गोल गोल गुदाज चूतड़ उचकाने शुरू कर दिए , बस इससे बड़ा ग्रीन सिग्नल और क्या मिलता।
अबकी शुरू से ही गाड़ी फुल स्पीड पे चलने लगी।
हर धक्के में सुपाड़ा बच्चेदानी पे हथौड़े की तरह चोट मारता। और लंड का बेस जोर जोर से उसकी क्लिट रगड़ता और साथ मेरे दोनों हाथ कचकचा के गुड्डी के जोबन दबा रहे थे , मसल रहे थे।
गुड्डी भी अपनी बाहों में मुझे भींच लेती , चूम लेती , लता की तरह उसकी टाँगे मेरी देह में लिपटी थीं और वो हर धक्के का जवाब धक्के से दे रही थी।
अखाड़े में लड़ रहे पहलवान की तरह हम दोनों गुत्थमगुथा थे।
१०-१५ मिनट में गुड्डी दुबारा झड़ने के कगार पे थी।
और रंजी जो अबकी किनारे बैठी मजा ले रही थी , मैदान में आगयी और उसकी उँगलियों ने जो गुड्डी की क्लिट को रगड़ा , बस गुड्डी जोर जोर से झड़ने लगी और अबकी मैंने चुदाई रोकी नहीं।
गुड्डी काँप रही थी , सिसक रही थी , झड़ रही थी और
मेरी चुदाई बदस्तूर चालू थी।
और जब वो एकदम थक कर चूर हो गयी तो मैं रुका लेकिन लंड अभी भी उसकी चूत में था।
बिचारी गुड्डी। आज तक उसने जंगबहादुर को कभी मना नहीं किया था ,लेकिन वो आज एकदम पस्त थी।
और कारण थी रंजी।
पहले तो रंजी की नदीदी जीभ और दुष्ट उँगलियों ने गुड्डी की क्लिट और जी प्वाइंट की ऐसी तैसी की। और उसके बाद मेरा भूखा शेर ,और वो भी अकेले नहीं रंजी के साथ।
दो बार गुड्डी बुरी तरह झड़ चुकी थी , और मेरा कुतुबमीनार वैसे का वैसे तना था।
बिचारी गुड्डी ने आँखों से इशारा किया ,अब और नहीं। निकाल लो न।
और कोई समय होता तो शायद मैं मान जाता लेकिन अभी तो जुगलबंदी थी रंजी के साथ। और रंजी की शरारती आँखों ने टोक दिया ,
उन्ह अभी नहीं। होने दो न , जरा कस के रगड़ो।
और मैं दो पाटन के बीच।
लेकिन फैसला खुद जंगबहादुर ने ले लिया। उन्हें गुड्डी की लाल परी से अलग करना कोई आसान थोड़े ही था।
पिस्टन हलके हलके आगे पीछे होने लगा , इंजन फिर से स्टार्ट हो गया।
और कुछ देर में गुड्डी भी धक्को का जवाब देने लगी , लेकिन वो समझ गयी थी रंजी की शैतानी , और चुदवाते हुए उसने रंजी पर उलटे हमला कर दिया।
रंजी की सहेली भी मेरी -गुड्डी की हचक के चुदाई देखते हुए अच्छी तरह पनिया गयी थी , ऊपर से शैम्पेन का नशा।
अपने आप उसकी जांघे फैली थीं , भरतपुर का दरवाजा खुला था और घचाक से गुड्डी ने दो उंगलिया वहां पेल दीं।
और साथ ही अंगूठा क्लिट पे।
अब जिस रफतार से मेरे मूसलचंद गुड्डी की ओखली में कूटते , उसी स्पीड से गुड्डी की उंगलियां रंजी की चूत में अंदर बाहर अंदर बाहर होने लगती।
रंजी कौन छोड़ने वाली थी , उसकी उँगलियों ने गुड्डी के निप्पल को दबोचा और लगी मजा लेने।
थोड़ी देर में ही दोनों की सिसकियाँ कमरे में गूंज रही थीं।
और उन दोनों की मस्ती , सिसकियों का असर मेरे ऊपर हुआ और गुड्डी की पतली कमरिया पकड़ के मैं धक्के पे धक्के मारे जा रहा था , और गुड्डी कभी अपनी चूत में जोर से मेरे लंड को निचोड़ लेती तोकभी अपने भारी चूतड़ उछाल के धक्के का जवाब धक्के से देती ,और साथ में उसकी उंगलिया धकापेल रंजी की चूत में अंदर बाहर हो रही थी।
गुड्डी ने मुझे रंजी की ओर दिखाकर इशारा किया , और मैं समझ गया।
गुड्डी की दो उंगलिया और अंगूठा तो रंजी की बुर और क्लिट में फंसे थे।
मेरे हाथ मैदान में आगये और एक हाथ ने कककचा के रंजी के किशोर उभार जिसने सारे शहर में , जबसे वो जवान हुयी आग लगा रखे थे , को दबोच लिया। कभी मेरा अंगूठा उसके निपल को फ्लिक करता ,रगड़ता तो कभी तर्जनी और अंगूठे के बीच मैं जोर से मूंगफली के दाने के बराबर खड़े निपल को पिंच कर लेता।
और दूसरा हाथ गुड्डी के जोबन का रस भी ले रहा था और उसे दबाते मैं गुड्डी की चूत में दमादम मस्त कलंदर भी कर रहा था।
" क्यों किसका जोबन ज्यादा रसीला लग रहा है। " गुड्डी हंस के बोली।
दोनों की चूंची एकसाथ दबाते मैं बोला ,दोनों की एक से बढ़ कर एक है।
गुड्डी को चिढ़ाते रंजी बोली , " अरे क्यों फट रही है तेरी ,२७ मई को जब से इस घर में आओगी न तो रोज बिना नागा इसी तरह रगड़ाई होगी , अभी तो ट्रेलर है। "
गुड्डी कौन चुप रहती बोली , " अरे महीने में पांच दिन छुट्टी के भी तो होते हैं , बस उस पांच दिन तेरी ड्यूटी रहेगी , अब तेरे भैया उपवास तो करेंगे नहीं। फिर पूछूंगी तुझसे हालत। "
उन दोनों का तो पता नहीं लेकिन उन की बातें सुन के मेरी हालत जरूर खराब हो गयी और मैंने सब कुछ छोड़कर गुड्डी की टांगो को मोड़कर दुहरा कर दिया और हचक हचक के पेलने लगा।
साथ में मेरा अंगूठा क्लिट पे रगड़ रहा था।
गुड्डी की अंगुली का पिस्टन रंजी की बिल में अदंर बाहर हो रहा था।
और गुड्डी कुछ देर में फिर झड़ने लगी।
तीसरी बार।
और अबकी वो देर तक झड़ती रही। चूत पूरी तरह गीली , देह थक कर चूर।
मैं जानता था अब निकाल लेने में ही भलाई है।
और पुच्च की आवाज से जंगबहादुर बाहर आ गए।
गुड्डी की थकी हुयी बड़ी बड़ी रतनारी आँखों ने झुक कर मुस्करा कर थैंक यू , बोला और फिर उसने पल भर के लिए पलकें बंद कर लीं , जैसे इन सारे पलों को सहेज लेना चाहती हो।
फिर अपने दोनों हाथों के जोर से अपनी देह को उठाया और मुझसे सट के , बौराये , पगलाए , जंगबहादुर को देखते बोली ,
" सॉरी मुन्ना भूख लगी है न बड़ी जोर से "
जवाब मेरे मूसलचंद की ओर से रंजी ने दिया ,
" तू भी न बिचारे के आगे से सजी सजाई थाली छीन कर पूछ रही हो भूखे हो क्या , देख बिचारा कैसे तड़प रहा है "
पलट के रंजी का हाथ पकड़ के मेरे पास खींचती गुड्डी बोली ,
" अरे बिचारे की बिचारी तू ही भूख मिटा दे न इसकी , देख इसने कल रात तेरे अगवाड़े का रास्ता खोला , पिछवारे का रास्ता साफ किया है और फिर कल से वैसे भी तू बनारस छैलों के हवाले हो जायेगी , तो मिटा दे न बिचारे मुन्ने की भूख देख कैसे तन्नाया खड़ा है। "
गुड्डी की उँगलियों ने रंजी की प्रेम गुफा में हलचल मचा रखी थी , वो बुरी तरह पनियाई थी , और जिस तरह से वो जंगबहादुर को देख रही थी , साफ लग रहा था वो ललच रही है। लेकिन इत्ती जल्दी कैसे माने ,झिझकते हुए वो बोली ,
" चल हट कमीनी , तूने शुरू किया था , तू ही मलाई निकाल बिचारा भूख से तड़प रहा है। "
रंजी की आँखे एकदम मेरे पहाड़ी आलू ऐसे मोटे कड़क , धूसर खुले सुपाड़े पे चिपकी थीं।
गुड्डी ने मुझे आँख मार के इशारा किया ,चढ़ जा इसपे , पूरी पनियाई है।
" चल एक बार हाथ से पकड़ के तो देख ये तेरा बिचारा कितना तड़प रहा है"
और रंजी का हाथ पकड़ के मेरे लंड पे गुड्डी ने लगा दिया। बड़ी मुश्किल से रंजी की मुट्ठी में समाया वो।
" ले ले , यार घोंट ले। नखड़ा मत कर कमीनी अब बहुत छिनारपना हो गया। " गुड्डी ने फिर उकसाया।
मैं भी मैदान में आ गया ,
" अरे यार ले ले न , इसकी तो फट गयी है , तू ही कुछ कर न बहुत मन कर रहा है " मैंने बोला।
रंजी ने मन बना लिया ,चुदवासी तो वो पहले ही हो रही थी और अब मेरा मोटा सख्त औजार पकड़ने के बाद उसके लिए मना करना ,मुश्किल था , फिर भी वो बोली ,
" चल यार तू भी क्या याद करेगी। ले लेती हूँ , लेकिन अगली बार मलाई तू हो घोटेगी। "
झट्ट से गुड्डी बोली , " अरे मेरी नानी , ठीक है ,अगली बार मेरा नंबर , लेकिन अभी तो तू घोंट न"
मैं रंजी की ओर आगे बढ़ा तो गुड्डी ने मुझे बरज दिया , और रंजी से बोली ,
" कमीनी बचपन की छिनार , क्या घोंटेगी तेरी प्यासी चुनमुनिया ये तो बता "
रंजी एक पल के लिए झिझकी फिर मेरे मोटे बित्ते भर के खड़े लंड को मुठियाते बोली ,
" ये यही , जिसे तू अभी चूतड़ उचका उचका के घोंट रही थी , और जिसे घोंटने २७ मई को बनारस छोड़ के मेरे शहर आएगी वो। "
"अरे छिनाल ये , वो क्या लगा रखा है , साफ साफ बोल न मुठियाने में शर्म नही , चूसने में शरम नहीं , चूतड़ उठा उठा के घोंटने में शर्म नहीं और ,"
रंजी की बिल से मस्ती का झरना बह रहा था , और वो कौन बनारस वाली से कम थी , हुलस कर बोली ,
" ये मस्त लंड घोंटूँगी , जो तेरे और तेरे सारे खानदान की ऐसी की तैसी करेगा , जानू। "
गुड्डी ने मुझे हल्का सा धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया। खूंटा अभी भी रंजी के हाथ में था।
लंड हवा में मोटे खम्भे की तरह तना खड़ा था।
मैने उठ के फिर रंजी को अपने नीचे लेने की कोशिश की तो गुड्डी की नशीली आँखों ने फिर बरज दिया और रंजी के निपल मरोड़ते बोली ,
"मेरे सारे भाइयों की रखैल , मेरे सारे गाँव वाले तेरी फुद्दी मारें , गांड मारें , अरे ये भी तो इतने थके हैं ,चल आज तू चढ़ जा इस कुतुबमीनार पे , वरना मैं मानूंगी तुझे ये अच्छा नहीं लगता।
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