FUN-MAZA-MASTI
लला फिर खेलन आइयो होरी-1
प्यारे नंदोई जी,
सदा सुहागिन रहो, दूधो नहाओ, पूतो फलो.
अगर तुम चाहते हो कि मैं इस होली में तुम्हारे साथ आके तुम्हारे मायके में होली खेलूं तो तुम मुझे मेरे मायके से आके ले जाओ. हाँ और साथ में अपनी मेरी बहनों, भाभियों के साथ...
हाँ ये बात जरूर है कि वो होली के मौके पे ऐसा डालेंगी, ऐसा डालेंगी जैसा आज तक तुमने कभी डलवाया नहीं होगा. माना कि तुम्हें बचपन से डलवाने का शौक है, तेरे ऐसे चिकने लौंडे के सारे लौंडेबाज दीवाने हैं और तुम 'वो वो' हलब्बी हथियार हँस के ले लेते हो जिसे लेने में चार-चार बच्चों की माँ को भी पसीना छूटता है...लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकती हूँ कि तुम्हारी भी ऐसी की तैसी हो जायेगी.
हे कहीं सोच के हीं तो नहीं फट गई...अरे डरो नहीं, गुलाबी गालों वाली सालियाँ, मस्त मदमाती, गदराई गुदाज मेरी भाभियाँ सब बेताब हैं और...उर्मी भी...”
भाभी की चिट्ठी में दावतनामा भी था और चैलेंज भी, मैं कौन होता था रुकने वाला,
चल दिया. उनके गाँव. अबकी होली की छुट्टियाँ भी लंबी थी.
पिछले साल मैंने कितना प्लान बनाया था, भाभी की पहली होली पे...पर मेरे सेमेस्टर के इम्तिहान और फिर उनके यहाँ की रसम भी कि भाभी की पहली होली, उनके मायके में हीं होगी. भैया गए थे पर मैं...अबकी मैं किसी हाल में उन्हें छोड़ने वाला नहीं था.
भाभी मेरी न सिर्फ एकलौती भाभी थीं बल्कि सबसे क्लोज दोस्त भी थीं, कॉन्फिडेंट भी. भैया तो मुझसे काफी बड़े थे, लेकिन भाभी एक दो साल हीं बड़ी रही होंगी. और मेरे अलावा उनका कोई सगा रिश्तेदार था भी नहीं. बस में बैठे-बैठे मुझे फिर भाभी की चिट्ठी की याद आ गई.
उन्होंने ये भी लिखा था कि,
“कपड़ों की तुम चिंता मत करना, चड्डी बनियान की हमारी तुम्हारी नाप तो एक हीं है और उससे ज्यादा ससुराल में, वो भी होली में तुम्हें कोई पहनने नहीं देगा.”
बात उनकी एकदम सही थी, ब्रा और पैंटी से लेके केयर फ्री तक खरीदने हम साथ जाते थे या मैं हीं ले आता था और एक से एक सेक्सी. एकाध बार तो वो चिढ़ा के कहतीं,
“लाला ले आये हो तो पहना भी दो अपने हाथ से.” और मैं झेंप जाता.
सिर्फ वो हीं खुलीं हों ये बात नहीं, एक बार उन्होंने मेरे तकिये के नीचे से मस्तराम की किताबें पकड़ ली, और मैं डर गया लेकिन उन्होंने तो और कस के मुझे छेड़ा,
“लाला अब तुम लगता है जवान हो गए हो. लेकिन कब तक थ्योरी से काम चलाओगे, है कोई तुम्हारी नजर में. वैसे वो मेरी ननद भी एलवल वाली, मस्त माल है, (मेरी कजिन छोटी सिस्टर की ओर इशारा कर के) कहो तो दिलवा दूं, वैसे भी वो बेचारी कैंडल से काम चलाती है, बाजार में कैंडल और बैंगन के दाम बढ़ रहे हैं...बोलो.”
और उसके बाद तो हम लोग न सिर्फ साथ-साथ मस्तराम पढ़ते बल्कि उसकी फंडिंग भी वही करतीं.
ढेर सारी बातें याद आ रही थीं, अबकी होली के लिए मैंने उन्हें एक कार्ड भेजा था, जिसमें उनकी फोटो के ऊपर गुलाल तो लगा हीं था, एक मोटी पिचकारी शिश्न के शेप की. (यहाँ तक की उसके बेस पे मैंने बाल भी चिपका दिए) सीधे जाँघ के बीच में सेंटर, कार्ड तो मैंने चिट्ठी के साथ भेज दिया लेकिन मुझे बाद में लगा कि शायद अबकी मैं सीमा लांघ गया पर उनका जवाब आया तो वो उससे भी दो हाथ आगे. उन्होंने लिखा था कि,
“माना कि तुम्हारे जादू के डंडे में बहुत रंग है, लेकिन तुम्हें मालूम है कि बिना रंग के ससुराल में साली सलहज को कैसे रंगा जाता है. अगर तुमने जवाब दे दिया तो मैं मान लूंगी कि तुम मेरे सच्चे देवर हो वरना समझूंगी कि अंधेरे में सासू जी से कुछ गड़बड़ हो गई थी.”
अब मेरी बारी थी. मैंने भी लिख भेजा, “हाँ भाभी, गाल को चूम के, चूचि को मीज के और चूत को रगड़-रगड़ के चोद के.”
फागुनी बयार चल रही थी. पलाश के फूल मन को दहका रहे थे, आम के बौर लदे पड़ रहे थे.
फागुन बाहर भी पसरा था और बस के अंदर भी.
आधे से ज्यादा लोगों के कपड़े रंगे थे. एक छोटे से स्टॉप पे बस थोड़ी देर को रुकी और एक कोई अंदर घुसा. घुसते-घुसते भी घर की औरतों ने बाल्टी भर रंग उड़ेल दिया और जब तक वो कुछ बोलता, बस चल दी.
रास्ते में एक बस्ती में कुछ औरतों ने एक लड़की को पकड़ रखा था और कस के पटक-पटक के रंग लगा रही थी, (बेचारी कोई ननद भाभियों के चंगुल में आ गई थी.)
कुछ लोग एक मोड़ पे जोगीड़ा गा रहे थे, और बच्चे भी. तभी खिड़की से रंग, कीचड़ का एक...खिड़की बंद कर लो, कोई बोला.
लेकिन फागुन तो यहाँ कब का आँखों से उतर के तन से मन को भीगा चुका था. कौन कौन खिड़की बंद करता. भाभी की चिट्ठी में से छलक गया और...उर्मी भी.
किसी ने पीठ पे टॉर्च चमकाई (फ्लैश बैक) और कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ा के पीछे पलटे,
भैया की शादी...तीन दिन की बारात...गाँव में बगीचे में जनवासा.
द्वार पूजा के पहले भाभी की कजिंस, सहेलियाँ आईं लेकिन सब की सब भैया को घेर के, कोई अपने हाथ से कुछ खिला रहा है, कोई छेड़ रहा है.
मैं थोड़ी दूर अकेले, तब तक एक लड़की पीले शलवार कुर्ते में मेरे पास आई एक कटोरे में रसगुल्ले.
“मुझे नहीं खाना है...” मैं बेसाख्ता बोला.
“खिला कौन रहा है, बस जरा मुँह खोल के दिखाइये, देखूं मेरी दीदी के देवर के अभी दूध के दाँत टूटे हैं कि नहीं.”
झप्प में मैंने मुँह खोल दिया और सट्ट से उसकी उंगलियाँ मेरे मुँह में, एक खूब बड़े रसगुल्ले के साथ.
और तब मैंने उसे देखा, लंबी तन्वंगी, गोरी. मुझसे दो साल छोटी होगी. बड़ी बड़ी रतनारी आँखें.
रस से लिपटी सिपटी उंगलियाँ उसने मेरे गाल पे साफ कर दीं और बोली,
“जाके अपनी बहना से चाट-चाट के साफ करवा लीजियेगा.”
और जब तक मैं कुछ बोलूं वो हिरणी की तरह दौड़ के अपने झुंड में शामिल हो गई.
उस हिरणी की आँखें मेरी आँखों को चुरा ले गईं साथ में.
द्वार पूजा में भाभी का बीड़ा सीधे भैया को लगा और उसके बाद तो अक्षत की बौछार (कहते हैं कि जिस लड़की का अक्षत जिसको लगता है वो उसको मिल जाता है) और हमलोग भी लड़कियों को ताड़ रहे थे.
तब तक कस के एक बड़ा सा बीड़ा सीधे मेरे ऊपर...मैंने आँखें उठाईं तो वही सारंग नयनी.
“नजरों के तीर कम थे क्या...” मैं हल्के से बोला.
पर उसने सुना और मुस्कुरा के बस बड़ी-बड़ी पलकें एक बार झुका के मुस्कुरा दी.
मुस्कुराई तो गाल में हल्के गड्ढे पड़ गए. गुलाबी साड़ी में गोरा बदन और अब उसकी देह अच्छी खासी साड़ी में भी भरी-भरी लग रही थी.
पतली कमर...मैं कोशिश करता रहा उसका नाम जानने की पर किससे पूछता.
रात में शादी के समय मैं रुका था. और वहीं औरतों, लड़कियों के झुरमुट में फिर दिख गई वो. एक लड़की ने मेरी ओर दिखा के कुछ इशारा किया तो वो कुछ मुस्कुरा के बोली, लेकिन जब उसने मुझे अपनी ओर देखते देखा तो पल्लू का सिरा होंठों के बीच दबा के बस शरमा गई.
शादी के गानों में उसकी ठनक अलग से सुनाई दे रही थी. गाने तो थोड़ी हीं देर चले, उसके बाद गालियाँ, वो भी एकदम खुल के...दूल्हे का एकलौता छोटा भाई, सहबाला था मैं, तो गालियों में मैं क्यों छूट पाता.
लेकिन जब मेरा नाम आता तो खुसुर पुसुर के साथ बाकी की आवाज धीमी हो जाती और...ढोलक की थाप के साथ बस उसका सुर...और वो भी साफ-साफ मेरा नाम ले के.
और अब जब एक दो बार मेरी निगाहें मिलीं तो उसने आँखें नीची नहीं की बस आँखों में हीं मुस्कुरा दी. लेकिन असली दीवाल टूटी अगले दिन.
अगले दिन शाम को कलेवा या खिचड़ी की रस्म होती है, जिसमें दूल्हे के साथ छोटे भाई आंगन में आते हैं और दुल्हन की ओर से उसकी सहेलियां, बहनें, भाभियाँ...इस रसम में घर के बड़े और कोई और मर्द नहीं होते इसलिए...माहौल ज्यादा खुला होता है. सारी लड़कियाँ भैया को घेरे थीं.
मैं अकेला बैठा था. गलती थोड़ी मेरी भी थी. कुछ तो मैं शर्मीला था और कुछ शायद...अकड़ू भी. उसी साल मेरा सी.पी.एम.टी. में सेलेक्शन हुआ था.
तभी मेरी मांग में...मैंने देखा कि सिंदूर सा...मुड़ के मैंने देखा तो वही. मुस्कुरा के बोली,
“चलिए आपका भी सिंदूर दान हो गया.”
उठ के मैंने उसकी कलाई थाम ली. पता नहीं कहाँ से मेरे मन में हिम्मत आ गई.
“ठीक है, लेकिन सिंदूर दान के बाद भी तो बहुत कुछ होता है, तैयार हो...”
अब उसके शर्माने की बारी थी. उसके गाल गुलाल हो गये. मैंने पतली कलाई पकड़ के हल्के से मरोड़ी तो मुट्ठी से रंग झरने लगा. मैंने उठा के उसके गुलाबी गालों पे हल्के से लगा दिया.
पकड़ा धकड़ी में उसका आँचल थोड़ा सा हटा तो ढेर सारा गुलाल मेरे हाथों से उसकी चोली के बीच, (आज चोली लहंगा पहन रखा था उसने).
कुछ वो मुस्कुराई कुछ गुस्से से उसने आँखें तरेरी और झुक के आँचल हटा के चोली में घुसा गुलाल झाड़ने लगी.
मेरी आँखें अब चिपक गईं, चोली से झांकते उसके गदराए, गुदाज, किशोर, गोरे-गोरे उभार,
पलाश सी मेरी देह दहक उठी. मेरी चोरी पकड़ी गई. मुझे देखते देख वो बोली,
“दुष्ट...” और आंचल ठीक कर लिया.
उसके हाथ में ना सिर्फ गुलाल था बल्कि सूखे रंग भी...बहाना बना के मैं उन्हें उठाने लगा.
लाल हरे रंग मैंने अपने हाथ में लगा लिए लेकिन जब तक मैं उठता, झुक के उसने अपने रंग समेट लिए और हाथ में लगा के सीधे मेरे चेहरे पे.
उधर भैया के साथ भी होली शुरू हो गई थी. उनकी एक सलहज ने पानी के बहाने गाढ़ा लाल रंग उनके ऊपर फेंक दिया था और वो भी उससे रंग छीन के गालों पे...बाकी सालियाँ भी मैदान में आ गईं. उस धमा चौकड़ी में किसी को हमारा ध्यान देने की फुरसत नहीं थी.
उसके चेहरे की शरारत भरी मुस्कान से मेरी हिम्मत और बढ़ गई.
लाल हरी मेरी उंगलियाँ अब खुल के उसके गालों से बातें कर रही थीं, छू रही थीं, मसल रही थीं.
पहली बार मैंने इस तरह किसी लड़की को छुआ था. उन्चासो पवन एक साथ मेरी देह में चल रहे थे. और अब जब आँचल हटा तो मेरी ढीठ दीठ...चोली से छलकते जोबन पे गुलाल लगा रही थी.
लेकिन अब वो मुझसे भी ज्यादा ढीठ हो गई थी. कस-कस के रंग लगाते वो एकदम पास...उसके रूप कलश...मुझे तो जैसे मूठ मार दी हो. मेरी बेकाबू...और गाल से सरक के वो चोली के... पहले तो ऊपर और फिर झाँकते गोरे गुदाज जोबन पे...
वो ठिठक के दूर हो गई.
मैं समझ गया ये ज्यादा हो गया. अब लगा कि वो गुस्सा हो गई है.
झुक के उसने बचा खुचा सारा रंग उठाया और एक साथ मेरे चेहरे पे हँस के पोत दिया.
और मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा, “मैं तैयार हूँ, तुम हो, बोलो.”
मेरे हाथ में सिर्फ बचा हुआ गुलाल था. वो मैंने, जैसे उसने डाला था, उसकी मांग में डाल दिया.
भैया बाहर निकलने वाले थे.
“डाल तो दिया है, निभाना पड़ेगा...वैसे मेरा नाम उर्मी है.” हँस के वो बोली. और आपका नाम मैं जानती हूँ ये तो आपको गाना सुन के हीं पता चल गया होगा. वो अपनी सहेलियों के साथ मुड़ के घर के अंदर चल दी.
अगले दिन विदाई के पहले भी रंगों की बौछार हो गई.
फिर हम दोनों एक दूसरे को कैसे छोड़ते.
मैंने आज उसे धर दबोचा. ढलकते आँचल से...अभी भी मेरी उंगलियों के रंग उसके उरोजों पे और उसकी चौड़ी मांग में गुलाल...चलते-चलते उसने फिर जब मेरे गालों को लाल पीला किया तो मैं शरारत से बोला,
“तन का रंग तो छूट जायेगा लेकिन मन पे जो रंग चढ़ा है उसका...”
“क्यों वो रंग छुड़ाना चाहते हो क्या.” आँख नचा के, अदा के साथ मुस्कुरा के वो बोली और कहा,
“लल्ला फिर अईयो खेलन होरी.”
एकदम, लेकिन फिर मैं डालूँगा तो...मेरी बात काट के वो बोली,
“एकदम जो चाहे, जहाँ चाहे, जितनी बार चाहे, जैसे चाहे...मेरा तुम्हारा फगुआ उधार रहा.”
मैं जो मुड़ा तो मेरे झक्काक सफेद रेशमी कुर्ते पे...लोटे भर गाढ़ा गुलाबी रंग मेरे ऊपर.
रास्ते भर वो गुलाबी मुस्कान. वो रतनारे कजरारे नैन मेरे साथ रहे.
अगले साल फागुन फिर आया, होली आई. मैं इन्द्रधनुषी सपनों के ताने बाने बुनता रहा, उन गोरे-गोरे गालों की लुनाई, वो ताने, वो मीठी गालियाँ, वो बुलावा...लेकिन जैसा मैंने पहले बोला था, सेमेस्टर इम्तिहान, बैक पेपर का डर...जिंदगी की आपाधापी...मैं होली में भाभी के गाँव नहीं जा सका.
भाभी ने लौट के कहा भी कि वो मेरी राह देख रही थी.
यादों के सफर के साथ भाभी के गाँव का सफर भी खतम हुआ.
भाभी की भाभियाँ, सहेलियाँ, बहनें...घेर लिया गया मैं. गालियाँ, ताने, मजाक...लेकिन मेरी निगाहें चारों ओर जिसे ढूंढ रही थी, वो कहीं नहीं दिखी.
तब तक अचानक एक हाथ में ग्लास लिए...जगमग दुती सी...
खूब भरी-भरी लग रही थी. मांग में सिंदूर...मैं धक से रह गया (भाभी ने बताया तो था कि अचानक उसकी शादी हो गई लेकिन मेरा मन तैयार नहीं था),
वही गोरा रंग लेकिन स्मित में हल्की सी शायद उदासी भी...
“क्यों क्या देख रहे हो, भूल गए क्या...?” हँस के वो बोली.
“नहीं, भूलूँगा कैसे...और वो फगुआ का उधार भी...” धीमे से मैंने मुस्कुरा के बोला.
“एकदम याद है...और साल भर का सूद भी ज्यादा लग गया है. लेकिन लो पहले पानी तो लो.”
मैंने ग्लास पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक झटके में...झक से गाढ़ा गुलाबी रंग...मेरी सफेद शर्ट.”
“हे हे क्या करती है...नयी सफेद कमीज पे अरे जरा...” भाभी की माँ बोलीं.
“अरे नहीं, ससुराल में सफेद पहन के आएंगे तो रंग पड़ेगा हीं.” भाभी ने उर्मी का साथ दिया.
“इतना डर है तो कपड़े उतार दें...” भाभी की भाभी चंपा ने चिढ़ाया.
“और क्या, चाहें तो कपड़े उतार दें...हम फिर डाल देंगे.” हँस के वो बोली. सौ पिचकारियाँ गुलाबी रंग की एक साथ चल पड़ीं.
“अच्छा ले जाओ कमरे में, जरा आराम वाराम कर ले बेचारा...” भाभी की माँ बोलीं.
उसने मेरा सूटकेस थाम लिया और बोली,
“बेचारा...चलो.”
कमरे में पहुँच के मेरी शर्ट उसने खुद उतार के ले लिया और ये जा वो जा.
कपड़े बदलने के लिए जो मैंने सूटकेस ढूंढा तो उसकी छोटी बहन रूपा बोली, “वो तो जब्त हो गया.”
मैंने उर्मी की ओर देखा तो वो हँस के बोली, “देर से आने की सजा.”
बहुत मिन्नत करने के बाद एक लुंगी मिली उसे पहन के मैंने पैंट चेंज की तो वो भी रूपा ने हड़प कर ली.
मैंने सोचा था कि मुँह भर बात करूँगा पर भाभी...वो बोलीं कि हमलोग पड़ोस में जा रहे हैं, गाने का प्रोग्राम है. आप अंदर से दरवाजा बंद कर लीजिएगा.
मैं सोच रहा था कि...उर्मी भी उन्हीं लोगों के साथ निकल गई. दरवाजा बंद कर के मैं कमरे में आ के लेट गया. सफर की थकान, थोड़ी हीं देर में आँख लग गई.
सपने में मैंने देखा कि उर्मी के हाथ मेरे गाल पे हैं. वो मुझे रंग लगा रही है, पहले चेहरे पे, फिर सीने पे...और मैंने भी उसे बाँहों में भर लिया. बस मुझे लग रहा था कि ये सपना चलता रहे...डर के मैं आँख भी नहीं खोल रहा था कि कहीं सपना टूट ना जाये. सहम के मैंने आँख खोली...
वो उर्मी हीं थी.
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लला फिर खेलन आइयो होरी-1
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥
प्यारे नंदोई जी,
सदा सुहागिन रहो, दूधो नहाओ, पूतो फलो.
अगर तुम चाहते हो कि मैं इस होली में तुम्हारे साथ आके तुम्हारे मायके में होली खेलूं तो तुम मुझे मेरे मायके से आके ले जाओ. हाँ और साथ में अपनी मेरी बहनों, भाभियों के साथ...
हाँ ये बात जरूर है कि वो होली के मौके पे ऐसा डालेंगी, ऐसा डालेंगी जैसा आज तक तुमने कभी डलवाया नहीं होगा. माना कि तुम्हें बचपन से डलवाने का शौक है, तेरे ऐसे चिकने लौंडे के सारे लौंडेबाज दीवाने हैं और तुम 'वो वो' हलब्बी हथियार हँस के ले लेते हो जिसे लेने में चार-चार बच्चों की माँ को भी पसीना छूटता है...लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकती हूँ कि तुम्हारी भी ऐसी की तैसी हो जायेगी.
हे कहीं सोच के हीं तो नहीं फट गई...अरे डरो नहीं, गुलाबी गालों वाली सालियाँ, मस्त मदमाती, गदराई गुदाज मेरी भाभियाँ सब बेताब हैं और...उर्मी भी...”
भाभी की चिट्ठी में दावतनामा भी था और चैलेंज भी, मैं कौन होता था रुकने वाला,
चल दिया. उनके गाँव. अबकी होली की छुट्टियाँ भी लंबी थी.
पिछले साल मैंने कितना प्लान बनाया था, भाभी की पहली होली पे...पर मेरे सेमेस्टर के इम्तिहान और फिर उनके यहाँ की रसम भी कि भाभी की पहली होली, उनके मायके में हीं होगी. भैया गए थे पर मैं...अबकी मैं किसी हाल में उन्हें छोड़ने वाला नहीं था.
भाभी मेरी न सिर्फ एकलौती भाभी थीं बल्कि सबसे क्लोज दोस्त भी थीं, कॉन्फिडेंट भी. भैया तो मुझसे काफी बड़े थे, लेकिन भाभी एक दो साल हीं बड़ी रही होंगी. और मेरे अलावा उनका कोई सगा रिश्तेदार था भी नहीं. बस में बैठे-बैठे मुझे फिर भाभी की चिट्ठी की याद आ गई.
उन्होंने ये भी लिखा था कि,
“कपड़ों की तुम चिंता मत करना, चड्डी बनियान की हमारी तुम्हारी नाप तो एक हीं है और उससे ज्यादा ससुराल में, वो भी होली में तुम्हें कोई पहनने नहीं देगा.”
बात उनकी एकदम सही थी, ब्रा और पैंटी से लेके केयर फ्री तक खरीदने हम साथ जाते थे या मैं हीं ले आता था और एक से एक सेक्सी. एकाध बार तो वो चिढ़ा के कहतीं,
“लाला ले आये हो तो पहना भी दो अपने हाथ से.” और मैं झेंप जाता.
सिर्फ वो हीं खुलीं हों ये बात नहीं, एक बार उन्होंने मेरे तकिये के नीचे से मस्तराम की किताबें पकड़ ली, और मैं डर गया लेकिन उन्होंने तो और कस के मुझे छेड़ा,
“लाला अब तुम लगता है जवान हो गए हो. लेकिन कब तक थ्योरी से काम चलाओगे, है कोई तुम्हारी नजर में. वैसे वो मेरी ननद भी एलवल वाली, मस्त माल है, (मेरी कजिन छोटी सिस्टर की ओर इशारा कर के) कहो तो दिलवा दूं, वैसे भी वो बेचारी कैंडल से काम चलाती है, बाजार में कैंडल और बैंगन के दाम बढ़ रहे हैं...बोलो.”
और उसके बाद तो हम लोग न सिर्फ साथ-साथ मस्तराम पढ़ते बल्कि उसकी फंडिंग भी वही करतीं.
ढेर सारी बातें याद आ रही थीं, अबकी होली के लिए मैंने उन्हें एक कार्ड भेजा था, जिसमें उनकी फोटो के ऊपर गुलाल तो लगा हीं था, एक मोटी पिचकारी शिश्न के शेप की. (यहाँ तक की उसके बेस पे मैंने बाल भी चिपका दिए) सीधे जाँघ के बीच में सेंटर, कार्ड तो मैंने चिट्ठी के साथ भेज दिया लेकिन मुझे बाद में लगा कि शायद अबकी मैं सीमा लांघ गया पर उनका जवाब आया तो वो उससे भी दो हाथ आगे. उन्होंने लिखा था कि,
“माना कि तुम्हारे जादू के डंडे में बहुत रंग है, लेकिन तुम्हें मालूम है कि बिना रंग के ससुराल में साली सलहज को कैसे रंगा जाता है. अगर तुमने जवाब दे दिया तो मैं मान लूंगी कि तुम मेरे सच्चे देवर हो वरना समझूंगी कि अंधेरे में सासू जी से कुछ गड़बड़ हो गई थी.”
अब मेरी बारी थी. मैंने भी लिख भेजा, “हाँ भाभी, गाल को चूम के, चूचि को मीज के और चूत को रगड़-रगड़ के चोद के.”
फागुनी बयार चल रही थी. पलाश के फूल मन को दहका रहे थे, आम के बौर लदे पड़ रहे थे.
फागुन बाहर भी पसरा था और बस के अंदर भी.
आधे से ज्यादा लोगों के कपड़े रंगे थे. एक छोटे से स्टॉप पे बस थोड़ी देर को रुकी और एक कोई अंदर घुसा. घुसते-घुसते भी घर की औरतों ने बाल्टी भर रंग उड़ेल दिया और जब तक वो कुछ बोलता, बस चल दी.
रास्ते में एक बस्ती में कुछ औरतों ने एक लड़की को पकड़ रखा था और कस के पटक-पटक के रंग लगा रही थी, (बेचारी कोई ननद भाभियों के चंगुल में आ गई थी.)
कुछ लोग एक मोड़ पे जोगीड़ा गा रहे थे, और बच्चे भी. तभी खिड़की से रंग, कीचड़ का एक...खिड़की बंद कर लो, कोई बोला.
लेकिन फागुन तो यहाँ कब का आँखों से उतर के तन से मन को भीगा चुका था. कौन कौन खिड़की बंद करता. भाभी की चिट्ठी में से छलक गया और...उर्मी भी.
किसी ने पीठ पे टॉर्च चमकाई (फ्लैश बैक) और कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ा के पीछे पलटे,
भैया की शादी...तीन दिन की बारात...गाँव में बगीचे में जनवासा.
द्वार पूजा के पहले भाभी की कजिंस, सहेलियाँ आईं लेकिन सब की सब भैया को घेर के, कोई अपने हाथ से कुछ खिला रहा है, कोई छेड़ रहा है.
मैं थोड़ी दूर अकेले, तब तक एक लड़की पीले शलवार कुर्ते में मेरे पास आई एक कटोरे में रसगुल्ले.
“मुझे नहीं खाना है...” मैं बेसाख्ता बोला.
“खिला कौन रहा है, बस जरा मुँह खोल के दिखाइये, देखूं मेरी दीदी के देवर के अभी दूध के दाँत टूटे हैं कि नहीं.”
झप्प में मैंने मुँह खोल दिया और सट्ट से उसकी उंगलियाँ मेरे मुँह में, एक खूब बड़े रसगुल्ले के साथ.
और तब मैंने उसे देखा, लंबी तन्वंगी, गोरी. मुझसे दो साल छोटी होगी. बड़ी बड़ी रतनारी आँखें.
रस से लिपटी सिपटी उंगलियाँ उसने मेरे गाल पे साफ कर दीं और बोली,
“जाके अपनी बहना से चाट-चाट के साफ करवा लीजियेगा.”
और जब तक मैं कुछ बोलूं वो हिरणी की तरह दौड़ के अपने झुंड में शामिल हो गई.
उस हिरणी की आँखें मेरी आँखों को चुरा ले गईं साथ में.
द्वार पूजा में भाभी का बीड़ा सीधे भैया को लगा और उसके बाद तो अक्षत की बौछार (कहते हैं कि जिस लड़की का अक्षत जिसको लगता है वो उसको मिल जाता है) और हमलोग भी लड़कियों को ताड़ रहे थे.
तब तक कस के एक बड़ा सा बीड़ा सीधे मेरे ऊपर...मैंने आँखें उठाईं तो वही सारंग नयनी.
“नजरों के तीर कम थे क्या...” मैं हल्के से बोला.
पर उसने सुना और मुस्कुरा के बस बड़ी-बड़ी पलकें एक बार झुका के मुस्कुरा दी.
मुस्कुराई तो गाल में हल्के गड्ढे पड़ गए. गुलाबी साड़ी में गोरा बदन और अब उसकी देह अच्छी खासी साड़ी में भी भरी-भरी लग रही थी.
पतली कमर...मैं कोशिश करता रहा उसका नाम जानने की पर किससे पूछता.
रात में शादी के समय मैं रुका था. और वहीं औरतों, लड़कियों के झुरमुट में फिर दिख गई वो. एक लड़की ने मेरी ओर दिखा के कुछ इशारा किया तो वो कुछ मुस्कुरा के बोली, लेकिन जब उसने मुझे अपनी ओर देखते देखा तो पल्लू का सिरा होंठों के बीच दबा के बस शरमा गई.
शादी के गानों में उसकी ठनक अलग से सुनाई दे रही थी. गाने तो थोड़ी हीं देर चले, उसके बाद गालियाँ, वो भी एकदम खुल के...दूल्हे का एकलौता छोटा भाई, सहबाला था मैं, तो गालियों में मैं क्यों छूट पाता.
लेकिन जब मेरा नाम आता तो खुसुर पुसुर के साथ बाकी की आवाज धीमी हो जाती और...ढोलक की थाप के साथ बस उसका सुर...और वो भी साफ-साफ मेरा नाम ले के.
और अब जब एक दो बार मेरी निगाहें मिलीं तो उसने आँखें नीची नहीं की बस आँखों में हीं मुस्कुरा दी. लेकिन असली दीवाल टूटी अगले दिन.
अगले दिन शाम को कलेवा या खिचड़ी की रस्म होती है, जिसमें दूल्हे के साथ छोटे भाई आंगन में आते हैं और दुल्हन की ओर से उसकी सहेलियां, बहनें, भाभियाँ...इस रसम में घर के बड़े और कोई और मर्द नहीं होते इसलिए...माहौल ज्यादा खुला होता है. सारी लड़कियाँ भैया को घेरे थीं.
मैं अकेला बैठा था. गलती थोड़ी मेरी भी थी. कुछ तो मैं शर्मीला था और कुछ शायद...अकड़ू भी. उसी साल मेरा सी.पी.एम.टी. में सेलेक्शन हुआ था.
तभी मेरी मांग में...मैंने देखा कि सिंदूर सा...मुड़ के मैंने देखा तो वही. मुस्कुरा के बोली,
“चलिए आपका भी सिंदूर दान हो गया.”
उठ के मैंने उसकी कलाई थाम ली. पता नहीं कहाँ से मेरे मन में हिम्मत आ गई.
“ठीक है, लेकिन सिंदूर दान के बाद भी तो बहुत कुछ होता है, तैयार हो...”
अब उसके शर्माने की बारी थी. उसके गाल गुलाल हो गये. मैंने पतली कलाई पकड़ के हल्के से मरोड़ी तो मुट्ठी से रंग झरने लगा. मैंने उठा के उसके गुलाबी गालों पे हल्के से लगा दिया.
पकड़ा धकड़ी में उसका आँचल थोड़ा सा हटा तो ढेर सारा गुलाल मेरे हाथों से उसकी चोली के बीच, (आज चोली लहंगा पहन रखा था उसने).
कुछ वो मुस्कुराई कुछ गुस्से से उसने आँखें तरेरी और झुक के आँचल हटा के चोली में घुसा गुलाल झाड़ने लगी.
मेरी आँखें अब चिपक गईं, चोली से झांकते उसके गदराए, गुदाज, किशोर, गोरे-गोरे उभार,
पलाश सी मेरी देह दहक उठी. मेरी चोरी पकड़ी गई. मुझे देखते देख वो बोली,
“दुष्ट...” और आंचल ठीक कर लिया.
उसके हाथ में ना सिर्फ गुलाल था बल्कि सूखे रंग भी...बहाना बना के मैं उन्हें उठाने लगा.
लाल हरे रंग मैंने अपने हाथ में लगा लिए लेकिन जब तक मैं उठता, झुक के उसने अपने रंग समेट लिए और हाथ में लगा के सीधे मेरे चेहरे पे.
उधर भैया के साथ भी होली शुरू हो गई थी. उनकी एक सलहज ने पानी के बहाने गाढ़ा लाल रंग उनके ऊपर फेंक दिया था और वो भी उससे रंग छीन के गालों पे...बाकी सालियाँ भी मैदान में आ गईं. उस धमा चौकड़ी में किसी को हमारा ध्यान देने की फुरसत नहीं थी.
उसके चेहरे की शरारत भरी मुस्कान से मेरी हिम्मत और बढ़ गई.
लाल हरी मेरी उंगलियाँ अब खुल के उसके गालों से बातें कर रही थीं, छू रही थीं, मसल रही थीं.
पहली बार मैंने इस तरह किसी लड़की को छुआ था. उन्चासो पवन एक साथ मेरी देह में चल रहे थे. और अब जब आँचल हटा तो मेरी ढीठ दीठ...चोली से छलकते जोबन पे गुलाल लगा रही थी.
लेकिन अब वो मुझसे भी ज्यादा ढीठ हो गई थी. कस-कस के रंग लगाते वो एकदम पास...उसके रूप कलश...मुझे तो जैसे मूठ मार दी हो. मेरी बेकाबू...और गाल से सरक के वो चोली के... पहले तो ऊपर और फिर झाँकते गोरे गुदाज जोबन पे...
वो ठिठक के दूर हो गई.
मैं समझ गया ये ज्यादा हो गया. अब लगा कि वो गुस्सा हो गई है.
झुक के उसने बचा खुचा सारा रंग उठाया और एक साथ मेरे चेहरे पे हँस के पोत दिया.
और मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा, “मैं तैयार हूँ, तुम हो, बोलो.”
मेरे हाथ में सिर्फ बचा हुआ गुलाल था. वो मैंने, जैसे उसने डाला था, उसकी मांग में डाल दिया.
भैया बाहर निकलने वाले थे.
“डाल तो दिया है, निभाना पड़ेगा...वैसे मेरा नाम उर्मी है.” हँस के वो बोली. और आपका नाम मैं जानती हूँ ये तो आपको गाना सुन के हीं पता चल गया होगा. वो अपनी सहेलियों के साथ मुड़ के घर के अंदर चल दी.
अगले दिन विदाई के पहले भी रंगों की बौछार हो गई.
फिर हम दोनों एक दूसरे को कैसे छोड़ते.
मैंने आज उसे धर दबोचा. ढलकते आँचल से...अभी भी मेरी उंगलियों के रंग उसके उरोजों पे और उसकी चौड़ी मांग में गुलाल...चलते-चलते उसने फिर जब मेरे गालों को लाल पीला किया तो मैं शरारत से बोला,
“तन का रंग तो छूट जायेगा लेकिन मन पे जो रंग चढ़ा है उसका...”
“क्यों वो रंग छुड़ाना चाहते हो क्या.” आँख नचा के, अदा के साथ मुस्कुरा के वो बोली और कहा,
“लल्ला फिर अईयो खेलन होरी.”
एकदम, लेकिन फिर मैं डालूँगा तो...मेरी बात काट के वो बोली,
“एकदम जो चाहे, जहाँ चाहे, जितनी बार चाहे, जैसे चाहे...मेरा तुम्हारा फगुआ उधार रहा.”
मैं जो मुड़ा तो मेरे झक्काक सफेद रेशमी कुर्ते पे...लोटे भर गाढ़ा गुलाबी रंग मेरे ऊपर.
रास्ते भर वो गुलाबी मुस्कान. वो रतनारे कजरारे नैन मेरे साथ रहे.
अगले साल फागुन फिर आया, होली आई. मैं इन्द्रधनुषी सपनों के ताने बाने बुनता रहा, उन गोरे-गोरे गालों की लुनाई, वो ताने, वो मीठी गालियाँ, वो बुलावा...लेकिन जैसा मैंने पहले बोला था, सेमेस्टर इम्तिहान, बैक पेपर का डर...जिंदगी की आपाधापी...मैं होली में भाभी के गाँव नहीं जा सका.
भाभी ने लौट के कहा भी कि वो मेरी राह देख रही थी.
यादों के सफर के साथ भाभी के गाँव का सफर भी खतम हुआ.
भाभी की भाभियाँ, सहेलियाँ, बहनें...घेर लिया गया मैं. गालियाँ, ताने, मजाक...लेकिन मेरी निगाहें चारों ओर जिसे ढूंढ रही थी, वो कहीं नहीं दिखी.
तब तक अचानक एक हाथ में ग्लास लिए...जगमग दुती सी...
खूब भरी-भरी लग रही थी. मांग में सिंदूर...मैं धक से रह गया (भाभी ने बताया तो था कि अचानक उसकी शादी हो गई लेकिन मेरा मन तैयार नहीं था),
वही गोरा रंग लेकिन स्मित में हल्की सी शायद उदासी भी...
“क्यों क्या देख रहे हो, भूल गए क्या...?” हँस के वो बोली.
“नहीं, भूलूँगा कैसे...और वो फगुआ का उधार भी...” धीमे से मैंने मुस्कुरा के बोला.
“एकदम याद है...और साल भर का सूद भी ज्यादा लग गया है. लेकिन लो पहले पानी तो लो.”
मैंने ग्लास पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक झटके में...झक से गाढ़ा गुलाबी रंग...मेरी सफेद शर्ट.”
“हे हे क्या करती है...नयी सफेद कमीज पे अरे जरा...” भाभी की माँ बोलीं.
“अरे नहीं, ससुराल में सफेद पहन के आएंगे तो रंग पड़ेगा हीं.” भाभी ने उर्मी का साथ दिया.
“इतना डर है तो कपड़े उतार दें...” भाभी की भाभी चंपा ने चिढ़ाया.
“और क्या, चाहें तो कपड़े उतार दें...हम फिर डाल देंगे.” हँस के वो बोली. सौ पिचकारियाँ गुलाबी रंग की एक साथ चल पड़ीं.
“अच्छा ले जाओ कमरे में, जरा आराम वाराम कर ले बेचारा...” भाभी की माँ बोलीं.
उसने मेरा सूटकेस थाम लिया और बोली,
“बेचारा...चलो.”
कमरे में पहुँच के मेरी शर्ट उसने खुद उतार के ले लिया और ये जा वो जा.
कपड़े बदलने के लिए जो मैंने सूटकेस ढूंढा तो उसकी छोटी बहन रूपा बोली, “वो तो जब्त हो गया.”
मैंने उर्मी की ओर देखा तो वो हँस के बोली, “देर से आने की सजा.”
बहुत मिन्नत करने के बाद एक लुंगी मिली उसे पहन के मैंने पैंट चेंज की तो वो भी रूपा ने हड़प कर ली.
मैंने सोचा था कि मुँह भर बात करूँगा पर भाभी...वो बोलीं कि हमलोग पड़ोस में जा रहे हैं, गाने का प्रोग्राम है. आप अंदर से दरवाजा बंद कर लीजिएगा.
मैं सोच रहा था कि...उर्मी भी उन्हीं लोगों के साथ निकल गई. दरवाजा बंद कर के मैं कमरे में आ के लेट गया. सफर की थकान, थोड़ी हीं देर में आँख लग गई.
सपने में मैंने देखा कि उर्मी के हाथ मेरे गाल पे हैं. वो मुझे रंग लगा रही है, पहले चेहरे पे, फिर सीने पे...और मैंने भी उसे बाँहों में भर लिया. बस मुझे लग रहा था कि ये सपना चलता रहे...डर के मैं आँख भी नहीं खोल रहा था कि कहीं सपना टूट ना जाये. सहम के मैंने आँख खोली...
वो उर्मी हीं थी.
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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