Saturday, October 11, 2014

FUN-MAZA-MASTI बदलाव के बीज--42

 FUN-MAZA-MASTI
 बदलाव के बीज--42

अब आगे...
 बाहर आके मैंने भौजी से कहा;

मैं: चलो लगे हाथ आपको दूसरी किश्त, भी दे दूँ|

भौजी: यहाँ?

मैं: हाँ .. अब हम लंच पे जायेंगे|

भौजी: क्या? पर क्यों? और कहाँ?

जब मैं पिछली बार अजय भैया के साथ बाजार आया था, चाट लेने तभी मैंने एक दूकान देखी थी| तो मैंने उसी दूकान की ओर ऊँगली की ओर उसी दिशा में बढ़ने लगा| चूँकि बाजार में ज्यादातर दुकानें ढाबे जैसी थीं और वो एक अकेली ऐसी दूकान थी जिसमें बैठने के लिए टेबल कुर्सियां थी| गाँव के लोगों के अनुसार सोचें तो वो दूकान महंगी थी परन्तु हम शहर में रहने वाले लोग जानते हैं की जब खाना खाने की बात आती है तो सबसे अच्छी दूकान ही देखी जाती है| इधर भौजी के चेहरे से झिझक साफ़ नजर आ रही थी और मैं अपनी जिद्द में आगे बढे जा रहा था| दूकान के बाहर पहुँच के भौजी रूक गईं;

भौजी: सुनिए ना, ये तो बड़ी महंगी दूकान है| हम चाट खाते हैं ना|

मैं: मेरी बेटी को भूख लगी है और आप उसे चाट खिला के भूखा रखोगी| चलो चुप-चाप नहीं तो मैं फिर से आप से बात नहीं करूँगा|

मजबूरी में भौजी मेरे साथ चल दीं, मैंने भी बिना डर उनका हाथ पकड़ा और दूकान में घुस गया| कोने की टेबल पे हम तीनों बैठ गए, भौजी मेरे सामने बैठीं थी और नेहा मेरे बगल में| आर्डर लेने के लिए बैरा आया, मैंने उसे निम्नलिखित आर्डर दिया:

दो प्लेट चना मसाला
दो प्लेट दाल तड़का
दो प्लेट चावल
छः तंदूरी रोटी
और अंत में दो रस मलाई

भौजी मेरी और आँखें फायदे देख रहीं थी| एक बात मैं आप सभी को बताना चाहूंगा, जब मैं अजय भैया के साथ चाट लेने आया था तब मैंने बातों-बातों में अजय भैया से पूछा था की यहाँ खाने में अधिकतर क्या मिलता है| ऐसा नहीं है की मैं उस समय ही लंच के बारे में प्लान कर रहा था बल्कि मैं तो ये जानना चाहता था की इस गरीब गाँव में लोग खाते क्या हैं? तब भैया ने बताया की यहाँ ज्यादातर दुकानों में आपको आलू परमल, भिन्डी की सब्जी, समोसे, सीताफल और पूड़ी ही मिलेगी| और मुझे इनमें से एक भी चीज नहीं पसंद! अब भौजी ने जब मेरे मुँह से चना मसाला, दाल तड़का और तंदूरी रोटी जैसे शब्द सुने तो उनका हैरान होना लाज़मी था|


 भौजी: आप क्यों इतने पैसे खर्च कर रहे हो? इतना खाना कौन खायेगा?

मैं: पहली बात आप पैसों की चिंता ना करो| स्कूल जाने के समय पिताजी मुझे जेब-खर्ची दिया करते हैं| वही जोड़-जोड़ के मैंने पैसे इकट्ठे किये हैं| आप बताओ क्या मैं रोज आपको लंच या डिनर के लिए ले जाता हूँ? नहीं ना... तो फिर? और हाँ अगर रोज ले जा सकता तो भी आप चिंता ना करो| और रही बात खाना आर्डर करने की तो ये बहुत ज्यादा नहीं है| हमारे लिए काफी है, क्यों हैं ना नेहा बेटा|

नेहा: जी पापा!

मैं: Awww मेरा बच्चा!!! (मैंने नेहा के सर पे हाथ फेरा|)

कुछ ही देर में बैरा आर्डर लेके आ गया, उसने एक-एक कर खाना परोस दिया और चला गया| टेबल जरा ऊँचा था इसलिए नेहा बैठ-बैठे नहीं खा सकती थी, उसे खड़ा होना पड़ता|

भौजी: बेटा मेरे पास आओ|

मैं: नहीं रहने दो आप खाना शुरू करो मैं नेहा को खिला दूँगा|

भौजी जिद्द करने लगीं पर मैं अपने हाथों से नेहा को खाना खिलाने लगा| ऐसा नहीं था की नेहा खुद नहीं खा सकती थी, ये तो आज मुझे नेहा पर कुछ ज्यादा ही प्यार आ रहा था| मैं उसे रोटी के छोटे-छोटे कौर बना के खिलाने लगा| नेहा भी बड़े चाव से खा रही थी| और मुझे उसे खिलाने में बहुत मज़ा आ रहा था| और इधर भौजी को मुझे इस तरह खाना खिलाते देख के बहुत मज़ा आ रह था और उनकी ख़ुशी उनके चेहरे से झलक रही थी| अचानक उन्होंने मुझे खाना खिलाने के लिए चमच मसे चावल उठाये और मेरी ओर चमच बढ़ा दी| मैं एक दम से हैरान था क्योंकि ऐसा नहीं था की मैं उनके हाथ से खाने के लिए संकुचा रह था, बल्कि वो एक सार्वजानिक स्थान था| हमारे आलावा वहां दो परिवार और बैठे थे और वो भी बीच-बेच में हमें देख रहे थे| मैंने भौजी से कहा; "आप खाओ मैं खा लूंगा|" पर भौजी अपनी जिद्द पे अड़ीं थी; "नहीं मेरे हाथ से खाओ!" अब मैं उनके इस भोलेपन का ही तो कायल था| मैंने आखिर उनके हाथ से खा लिया और फिर से नेहा को खिलाने लगा| भौजी एक कौर खुद खाती तो दूसरा कौर मुझे खिलाती| मैं अब भी बीच-बीच में बाकी लोगों की ओर देखता तो लोग हमें देख के जलते-भूनते नजर आये| भौजी ओर नेहा रस मलाई खा रहे थे तो मैं टेबल से उठा ओर भौजी को कह गया की मैं अभी आता हूँ| मैं पहले काउंटर पे गया ओर काउंटर पे खड़ा आदमी कुछ ज्याद ही मुस्कुरा रहा था|


 मैं: क्या हुआ क्यों हँस रहा है?

आदमी: अरे कुछ नहीं|

मैं: काम में ध्यान दिया कर समझा!

बस उसको थोड़ा अकड़ से डांटते हुए मैं वहां से बहार आया और इधर-उधर दूकान देखने लगा| अब मुझे तीसरे सरप्राइज की तैयार जो करनी थी| करीब बीस कदम की दुरी पे एक सुनार की दूकान थी| मैं तेजी से उसकी ओर लपका| दूकान पे एक बुजुर्ग सा आदमी था, जो कपड़ों से सेठ यानी दूकान का मालिक लग रहा था| वो मेरी ओर बड़े प्यार से देखते हुए बोला;

सेठ: आओ..आओ बेटा!

एक पल के लिए तो मैं ठिठक गया क्योंकि मुझे लगा की कहीं ये मुझे पहचान तो नहीं गया| पर मैं तो इसे नहीं जानता...

मैं: अरे काका मुझे एक "मंगलसूत्र" दिखाओ|

सेठ: अभी लो बेटा... ये देखो|

मैं बड़ी उत्सुकता से देखता रहा परन्तु मेरे पास समय ज्यादा नहीं था| मैंने आखिर में पड़े एक पीस को उठाया| पेन्डेन्ट दिखने बहुत आकरशक लग रहा था उसमें छोटे-छोटे लाल रंग के नग जड़े थे, और मेरे मन उसपे ही आ गया|

मैं: काका ये वाला दे दो| कितने का है?

सेठ: बस 500/- का|

मैं: (बिना भाव-ताव किये) ठीक है इसे पैक कर दो|

सेठ: अरे बेटा इस्पे सोने का पानी चढ़ा है| अंदर से ये चांदी का है, तुम सोने का क्यों नहीं ले लेते? बहु खुश हो जाएगी|

मैं समझ गया की काका यही सोच रहे हैं की मैं शादी-शुदा हूँ और देखा जाए तो उनका अनुमान लगाना गलत नहीं था| हमारे गाँव में मेरी उम्र के लड़के-लड़कियों का ब्याह कर दिया जाता था|

मैं: जी नहीं... अभी कमाता नहीं हूँ| जब कमाऊँगा तो आपसे ही सोने का ले जाऊँगा|

सेठ: ठीक है बेटा... ये लो|

काका ने मंगलसूत्र एक पतले लम्बे से लाल रंग के केस (Case) में पैक कर के दिया था| मैंने एक बार उसे खोला और चेक किया की चीज़ तो वही है ना|


 फिर मैं तुरंत वहाँ से वापस रेस्टुरेंट आया| देखा तो भौजी परेशान हो रहीं थी क्योंकि मुझे गए हुए करी पंद्रह मिनट होने को आये थे| मैं वापस आया तो भौजी पूछने लगीं;

भौजी: कहाँ रह गए थे आप?

मैं: कुछ नहीं... बस बहार कुछ देख रहा था|

इतने में बैरा बर्तन उठाने आया तो मैंने उसे दस रुपये का नोट टिप (Tip) में दिया, जिसे पाके वो बहुत खुश हो गया और भौजी तो जैसे हैरान हो के मुझे देख रहीं थी| मैंने कुछ चाट भी घरवालों के लिए पैक कराई और दुबारा भौजी के पास आगया|

भौजी: आपने उसे पैसे क्यों दिए?

मैं: वो टिप (टिप) थी| शहर में खाना खाने के बाद बैरा को टिप देना रिवाज है|

भौजी: तो कितने पैसे कर्च किये खाने पे?

मैं: क्यों? (मैंने गुस्से में कहा)

भौजी: सॉरी बाबा| अब ये बताओ की बहार आप क्या देख रहे थे?

मैं: बस वापस जाने के लिए जीप देख रहा था| (मैंने भौजी से मंगलसूत्र की बात छुपाते हुए झूठ कहा|)

हम बस स्टैंड पहुंचे और वहाँ कड़ी जीप में बैठने लगे| इस बार मैं भौजी के साथ नहीं बैठ पाया क्योंकि एक लाइन में महिलाएं बैठी थीं और दूसरी लाइन में पुरुष यात्री| मैं ठीक भौजी के सामने बैठा और नेहा मेरी गोद में बैठी थी| भौजी ने फिर से घूँघट काढ़ा, और हम हिलते डुलते घर पहुंचे| अब हमें फिर से मुख सड़क छोड़ के कच्ची सड़क पकड़ के घर जाना था| नेहा फिर से आगे-आगे भाग रही थी और मैं और भौजी एक साथ चल रहे थे| घडी में शाम के चार बजे थे और हम तिराहे पे पहुंचे| तिराहे से हमारा घर दिख रहा था, एक रास्ता सीधा दूसरे गाँव जाता था और उसी रास्ते पे स्कूल भी पड़ता था| दूसरा रास्ता हमारे घर की ओर जाता था| तीसरा रास्ता वो था जो मुख्य सड़क की ओर जाता था| अब वो हुआ जिसकी आशंका मुझे तनिक भी नहीं थी; सामने स्कूल के पास हाथ बंधे माधुरी खड़ी थी| जैसे ही माधुरी ने मुझे देखा वो मेरी ओर बढ़ी और इधर भौजी ने जैसे ही माधुरी को देखा उनका गुस्सा सातवें आसमान पे था| जब माधुरी हमारे नजदीक आई तो भौजी उसपे बरस पड़ीं;

भौजी: अब क्या लेने आई है तू यहाँ? जो तुझे चाहिए था वो तो मिल गया न तुझे! अब भी तेरा मन नहीं भरा इन से?
माधुरी चुप-चाप नजरें झुकाये नीचे देखती रही और भौजी का बरसना जारी था|
भौजी: मुझे सब पता है की कैसे तूने इन्हें ब्लैकमेल किया! इनका दिल सोने का है और तुझे जरा भी शर्म नहीं आई ऐसे इंसान के साथ धोका करते? तू ने इनका इस्तेमाल किया और इन्होने सिर्फ तेरा भला चाहा और अब तू फिर इनके पीछे पड़ी है| छोटी (रसिका भाभी) के हाथों पैगाम भिजवाती है की मुझे स्कूल पे मिलो, क्यों? वो तेरी नौकर है? तू साफ़-साफ़ बता क्या चाहिए तुझे?

भौजी के बात करने के ढंग से साफ़ था की वो मुझपे कितना हक़ जताती हैं, और अगर मैं उनकी जगह होता तो मैं भी यही हक़ जताता! जब भौजी ने उसकी साड़ी पोल-पट्टी खोल दी तो माधुरी मेरी और सवालिया नज़रों से देखते हुए बोली;

माधुरी: आपने.....
(उसकी बात पूरी होने से पहले ही भौजी ने उसे टोक दिया)
भौजी: हाँ मुझे सब पता है, उसदिन जब तू इनसे बात कर रही थी तब मैंने दोनों की बात सुन ली थी|

माधुरी: मैं वो...

भौजी: तू रहने दे! मुझे सब पता है तू क्या चाहती है, एक बार और....

मैंने भौजी के कंधे पे हाट रख के उन्हें वो बोलने से रोक दिया|

मैं: आप प्लीज शांत हो जाओ! प्लीज यहाँ सीन मत बनाओ|
(क्योंकि आते जाते लोग अब इक्कट्ठा होने लगे थे| दूसरा कारन ये था की मैं नहीं चाहता था की नेहा वो सब सुने...)

माधुरी की आँखों से आंसुओं की धरा बह रही थी, और मेरे दिल पे थोड़ा पसीज गया था| पर मैं वहाँ सब के सामने बात नहीं कर सकता था| मैंने भौजी के दोनों कन्धों पे पीछे से हाथ रखा और उन्हें अपनी ओर मोड़ा ताकि हम घर वापस जा सकें और उधर माधुरी अब भी खड़ी मुझे जाता देख रही थी| नेहा तो अपनी मम्मी का रोद्र रूप देख के मेरी टांगें पकड़े पीछे छुप गई थी| जब हम वहाँ से चले आये तो जो दो-चार लोग वहाँ इकठ्ठा हुए थे वो चले गए और बस माधुरी अकेली खड़ी मुझे देख रही थी| घर बस पाँच मिनट की दूरी पे था, भौजी एक डैम से रुकीं और मेरी ओर मुड़ीं

भौजी: आप मुझसे एक वादा कर सकते हो?

मैं: हाँ बोलो

भौजी: आप चाहे मुझे मार लो, डाँट लो, काट दो पर मुझसे कभी बात करना बंद मत करना... मुझसे नाराज मत होना, वरना मैं सच में मर जाऊँगी!

मैं: आप ऐसा मत बोलो... मैं वादा करता हूँ कभी आपसे नाराज़ नहीं हूँगा!

जहाँ हम खड़े थे वहाँ हलकी से झाड़ियाँ थी, जिसका फायदा मैंने उठाया और भौजी को अपने गले लगा लिया| भौजी ने मुझे बहुत कस के जकड लिया जैसे मुझसे अलग ही ना होना चाहती हों और मुझमें समा जाना चाहती हों| करीब पाँच मिनट बाद जब नेहा हमें इस तरह गले लगा देख के छटपटाने लगी तब जाके हमारा आलिंगन टूटा| अब भौजी का गुस्सा समाप्त हो चूका था और दिल भर आया था, पर मैंने उनकी पीठ सहला के उन्हें शांत किया पर नेहा मेरी ऊँगली पकडे चल रही थी और भौजी से बात करने में भी कतरा रही थी और बार मेरी आड़ ले के छुप जाती थी| मैंने नेहा को गोद में उठा लिया और उसने बड़े भोलेपन से पूछा;

नेहा: पापा ... माँ गुस्से में क्यों थी?

मैं: बेटा मम्मी को माधुरी ज़रा भी अच्छी नहीं लगती और जब वो अचानक सामने आ गई तो मम्मी को गुस्सा आ गया|

भौजी: बेटा आप भी माधुरी से दूर रहा करो और उससे कभी बात मत करना और ना ही कोई चीज लेना| ठीक है?

नेहा अब भी डरी हुई थी और उसने बस हाँ में सर हिलाया पर बोली कुछ नहीं|

मैं भौजी से उनके इस व्यवहार के लिए बहुत कुछ पूछना चाहता था परन्तु ये समय ठीक नहीं था| खेर हम घर पहुंचे तो .....




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