FUN-MAZA-MASTI
बदलाव के बीज--77
सुबह की पहली किरण जैसे ही मुख पे पड़ी तो मेरी आँख खुली|आमतौर पे लोग सुयभ उठते हैं..भगवान को शुक्रिया देते हैं..माँ-बाप के पाँव षहु के आशीर्वाद लेते हैं ...पर उस दिन...उस दिन सुबह होते ही मुझे लगा की मेरी जिंदगी की शाम ढल गई हो| मन ही मन कोस रहा था की क्यों...क्यों ये सुबह आई! क्या ये रात और लम्बी नहीं हो सकती थी? आखिर क्यों..........?
खेर अपना होश संभालते हुए मैंने देखा तो भौजी मेरे पास नहीं थीं| घडी में साढ़े पाँच बजे थे.... और मुझे पे एक चादर पड़ी हुई थी| साफ़ था ये भौजी ने ही डाली थी| मुझ में जरा भी हिम्मत नहीं थी की मैं नीचे जाके भौजी का सामना करूँ वरना मैं फफफ़क के रो पड़ता| इसलिए मिअन छत पर दिवार का टेक लेके उकड़ूँ होक बैठा रहा और अपना मुंह अपने घुटनों में छुपा लिया| करीब पंद्रह मिनट बाद भौजी आइन...उनकी पायल की छम-छम आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत की तरह गूंजने लगी| वो मेरे सामने अपने घुटनों पे बैठते हुए बोलीं;
भौजी: जानू........जानू.......उठो?
पर मैंने अपना मुंह अब भी छुपा रखा था| मैं जानता था की वो मुझे इतनी जल्दी इसीलिए उठा रहीं हैं ताकि जो कुछ घंटे बचे हैं हमारे पास..कम से कम वो तो हम एक साथ गुजार लें|
भौजी: जानू....मैं जानती हूँ...मुझे आपको अभी नहीं उठाना चाहिए....पर आप का दीदार करने को ये आँखें तरस रहीं हैं!
अब उनकी ये बातें मेरे दिल को छू गईं और मैंने अपना मुंह घुटनों की गिरफ्त से छुड़ाया और मैं भौजी से गले लग गया| बहुत....बहुत रोक खुद को...संभाला.....अपनी आवाज तक को गले में दफन कर दिया ...क्योंकि जानता था की अगर मैंने कुछ बोलना चाहा तो मेरे आंसूं बाह निकलेंगे और भौजी का मनोबल आधा हो जाएगा| वो टूट जाएँगी.... चूँकि वो मुझे इतना प्यार करती थीं तो उन्हें पता तो अवश्य ही लग गया होगा की मेरी मनोदशा क्या है?
भौजी: मैं.....जानती हूँ.......(सुबकते हुए) आप पर क्या ....बीत रही है|
भौजी इतना भावुक हो गईं थीं की अपना दर्द...अपनी तड़प छुपा नहीं पा रहीं थीं और खुद को रोने से रोकने की बेजोड़ कोशिश कर रहीं थीं| इसी करन वो शब्दों को तोड़-तोड़ के बोल रहीं थीं| मैं उन्हें रोने से रोकना चाहता था ...
मैं: प्लीज......कुछ मत कहो!
बस इतना ही कह पाया क्योंकि इससे आगे कहने की मुझ में क्षमता नहीं थी| अगर आगे कुछ बोलता तो....खुद को रोक नहीं पाता| पाँच मिनट तक हम चुप-चाप ऐसे ही गले लगे रहे| फिर हम दोनों नीचे आये और मैं फ्रेश होने लगा| फ्रेश होते समय भी मन कह रहा था की जल्दी से काम निपटा और उनकी आँखों के सामने पहुँच जा...आखरी बार देख ले...फिर अगला मौका दशेरे की छुटियों में ही मिलेगा| मैं जल्दी से तैयार हो गया और इतने में पिताजी आ गए;
पिताजी: बेटा दस बजे निकलना है| अपना सामान पैक कर लो|
मैं: जी...वो ...माँ कर देगी...मैं एक बार नेहा से मिल लूँ ...फिर उसने स्कूल चले जाना है|
पिताजी: नेहा कहीं नहीं जा रही ...सुबह से रोये जा रही है| तू ऐसा कर उसे चुप करा...तबतक मैं सामान पैक कर देता हूँ|
इतने में बड़की अमा चाय लेके आ गईं| मैंने उनके पाँव हाथ लागए और चाय का कप उठाते हुए पूछा;
मैं: अम्मा...आप चाय लाय हो?
बड़की अम्मा: हाँ बेटा...वो बहु कुछ काम कर रही थी तो ....
अम्मा कुछ बात छुपाने की कोशिश करने लगीं| रोज तो भौजी ही मुझे चाय दिया करती थीं और आज वो चाय नहीं लाईं हैं तो कुछ तो गड़बड़ है| मैंने चाय का कप रखा और उनके घर के पास भगा| दरवाजा अंदर से लॉक था.... मैंने दरवाजा खटखटाया तो दो मिनट तक कोई अंदर से नहीं बोला| मैंने आस-पास नजर दौड़ाई तो पाया की नेहा भी बाहर नहीं है| अब तो मुझे घबराहट होने लगी! मैं तुरंत भौजी के घर की साइड वाली दिवार फांदने के लिए भगा| और उस वक़्त इतना जोश में था की ये भी नहीं देखा की वो दिवार आठ-नौ फुट ऊँची है!
मैंने अपने जूते उतारे और दिवार की तरफ भगा और किसी तरह दिवार का ऊपरी किनारा पकड़ा और खुद को खींच के दूसरी तरफ भौजी के घर के आँगन में कूद पड़ा| देखा तो भौजी नेहा को गोद में ले के अपने कमरे के दरवाजे पे बैठीं थीं| नेहा भौजी के सीने से लगी हुई थी और उसके सुअब्कने की आवाज मैं साफ़ सुन सकता था| मैं जहाँ कूड़ा था वहीँ अपने घुटनों के बल बैठ गया और भौजी ने मुझे जब ये स्टंट मारते हुए देखा और मेरे कूदने की आवाज नेहा ने सुनी तो वो भौजी की गोद से छिटक के अलग हुई और आके मेरे गले लग गई| दोस्तों मैं आपको बता नहीं सकता उस वक़्त मेरे दिल पे क्या गुजरी थी.... एक छोटी सी बच्ची जिसका उसकी माँ के अलवबा कोई ख्याल नहीं रखता...जो मुझे पापा कहती थी... जिसक ख़ुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता था ....वो बच्ची ...मुझसे लिपट के रोने लगी तो मेरा क्या हाल हुआ इसी बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| ऐसी स्थिति में चाहे जैसा भी इंसान हो...वो खुद को रोने से नहीं रोक पाता...पर मैं खुद कोकिसिस तरह रोके हुए था...आंसूं आँखों की दहलीज तक पहुँच के रूक गए थे...जैसे वो भ जानते थे की अगर वो बाहर आ गए तो यहाँ दो दिल और हैं जो टूट जायंगे| मैं फिर भी उस बच्ची को गोद में ले के पुचकारने लगा... की वो कैसे भी चुप हो जाए...
मैं: नेहा...बेटा बस...बस बेटा! चुप हो जाओ...देखो पापा अभी आपके पास हैं! बस बेटा...चुप हो जाओ! देखो...मैं बस कुछ दिनों के लिए जा रहा हूँ...और आपसे मेरी बात फोन पे होती रहेगी! प्लीज बेटा...
पर नहीं...मेरी सारी कोशिशें उस बच्ची को चुपकराने में व्यर्थ थीं| भौजी दरवाजे पे खड़ीं हम दोनों को देख रहीं थीं...अब तो उनसे बी कंट्रोल नहीं हुआ और वो भी भाग के मेरे पास आइन और मेरे गले लग गईं| गले लगते ही उन्होंने फुट-फुट के रोना शुरू कर दिया| इधर गोद में नेहा पहले ही रो रही थी और अब भौजी.....अब मुझ में जरा भी हिम्मत नहीं थी की मैं खुद को रोने से रोकूँ| आखिरकर मेरे आंसूं भी छलक आये.... आज मैं सच में टूट छुका था....दिल ने भावनाओं के आगे हार मान ली थी! अब खुद पे कोई काबू नहीं रहा...ऐसा लगा की भौजी और नेहा के बिना... मैं पागल हो जाऊँगा! मन नहीं कह रहा था की मैं उन्हें बिलखता हुआ छोड़ के दिल्ली चला जाऊँ ऊपर से जब भौजी ने बिलखते हुए हाथ जोड़ के मिन्नत की तो;
भौजी: प्लीज.....I beg of you ...प्लीज..... मत जाओ!
मेरा दिल चकना चूर हो गया| उनकी हर एक ख्वाइश पूरी करने वाला आज उनके आगे लाचार होगया....कोई जवाब नहीं था..मेरे पास.... क्या करता मैं...क्या कहता मैं....मेरे बस में कुछ नहीं था|
मैं: (सुबकते हुए) प्लीज....ऐसा मत कहो.....मैं मजबूर हूँ! मुझे माफ़ कर दो!!! प्लीज !!!
भौजी फिर से मुझसे लिपट गईं ....आधा घंटा...दोस्तों आधा घंटे तक हम रोते रहे.... नेहा तो रोते-रोते सो गई थी..पर हम दोनों की हहलात ऐसी थी जैसे कोई जिस्म से रूह को अलग कर रहा हो! मैंने नेहा को चारपाई पे लिटाया पर उसने मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द अपनी बाँहों से लॉक कर लिया था| भौजी ने मेरी मदद की तब जाके हमने उसके हाथों की पकड़ से मेरी गर्दन छुड़ाई| भौजी फिर से मेरे सीने पे सर रख के सुबकने लगीं|
मैं: देखो...I Promise मैं वापस आऊँगा... !!
भौजी ने हाँ में सर हिलाया और तब जाके उनका सुबकना बंद हुआ|
मैं: अब दरवाजा खोलो ...और बाहर चलो| (मैंने उनके आँसूं पोंछते हुए कहा|)
भौजी: आप सच में आओगे ना?
मैं: हाँ...वादा करता हूँ| दशेरे की छुटियों में अवश्य आऊँगा| बस कुछ महीनों की ही तो बात है...
भौजी ने हाँ में सर हिलाया और वो मुझे आशवस्त दिखीं| मैं बहार आया और बड़े घर की ओर चल दिया और भौजी हमारे लिए रास्ते में खाने को कुछ पैक करने लगीं| मेरी आँख सुर्ख लाल हो गईं थीं... कोई भी देख के बता सकता था की मैं कितना रोया हूँगा!
पिताजी: क्यों...जाने का मन नहीं हो रहा है?
मैंने कुछ जवाब नहीं दिया...देता भी तो उन्होंने मेरी क्लास लगा देनी थी| मैं बिना कुछ कहे अंदर चला गया और मन ही मन प्रार्थना करने लगा की कैसे भी जाना रूक जाए| इधर पिताजी ने अजय भैया को रोइक्क्षव लेने के लिए भेज दिया| ये रिक्शा हमें Main रोड तक छोड़ने वाला था और वहाँ से हमें लखनऊ की बस मिलती ...वहां से रात दस बजे की लखनऊ मेल हमें सीधा दिल्ली छोड़ती| अब मैं मन ही मन मना रहा था की भैया को रिक्शा ना मिले! और मेरा बचपना तो देखिये...जैसे रिक्शा ना मिलने पे पिताजी जाना कैंसिल कर देंगे जब की हमारे पास कन्फर्म टिकट है! इधर माँ और बड़की अम्मा जो साथ में बैठे बात कर रहे थे उन्होंने मेरी लाल आँखें देखीं तो बिना कहे ही सारी बात समझ गए|
बड़की अम्मा: मुन्ना...तुम्हारी बड़ी याद आएगी! और तुम चिंता ना करो...हम लोग हैं यहाँ...तुम्हारी भौजी का ध्यान रखने को!
मैंने उन्हें कुछ कहा नहीं पर मन ही मन कहा की आप तो हो पर उस चुडेल(रसिका) का क्या और उस दैत्य (चन्दर भैया) का क्या? पर मन ही मन खुद को धन्यवाद दिया की कम से कम तूने भौजी को अपने मायके जाने को तो बोल दिया है ना! वो वहाँ सुरक्षित रहेंगी! इतने में भौजी नाश्ता ले आईं. और उन्होंने एक प्लेट मेरी ओर बढ़ाई;
भौजी: लीजिये
मैं: आपकी प्लेट कहाँ है? और नेहा कहाँ है?
भौजी: नेहा सो रही है ...आप खा लो...मैं बाद में खा लुंगी!
मैं: आजतक कभी हुआ है की मैंने आपके पहले खाया हो? कम से कम मुझे पता तो होता था की आपने खाया जर्रूर होगा...आखरी बार ही सही मेरे हाथ से खा लो.... (मैंने पराठे का एक टुकड़ा उन्हें खिलाने को उठाया)
ये बात मैंने बड़की अम्मा और माँ के सामने बिना डरे कह दी थी| पर मैं उस वक़्त इतना भावुक था की मुझे कोई फर्क नहीं था की मेरे आस-पास कौन है और मुझे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं? मुझे चिंता थी...बल्कि पता था की मेरे जाने के बाद मेरे गम में भौजी खाना नहीं खायेंगी|
बड़की अम्मा: खा ले बहु...प्यार से खिला रहा है ... सच कहूँ छोटी (माँ) इन दोनों का प्यार बड़ा अद्भुत है! जब से मानु आया है...दोनों एक पल के लिए भी अलग नहीं हुए| और जब हुए तो दोनों का क्या हाल था ये तो सब को पता है| जब मानु तुम्हारे साथ वाराणसी गया तब बहु ने खाट पकड़ ली...खाना-पीना बंद कर के| और जब बहु को मानु ने शादी में भेजा तो इसने खाट पकड़ ली...अपर खेर उस समय बात कुछ और थी|
माँ: हाँ दीदी... पता नहीं दोनों कैसे रहेंगे...एक दूसरे के बिना?
बड़की अम्मा: अरे छोटी...जैसे-जैसे दिन बीतेंगे...दोनों भूल जायेंगे ...आखिर दूर रहने से रिश्तों में दूरियाँ तो आ ही जाती हैं| फिर मानु की शादी हो.....
मैं नहीं जानता की अम्मा क्या सोच के वो सब कह रहीं थीं| मेरा और भौजी का रिश्ता कोई कच्चे धागे की गाँठ नहीं थी जिसे दूरियाँ तोड़ दें! ये तो एक बंधन था...एक अनोखा बंधन...जो तोड़े ना टूटे! और जब उन्होंने शादी की बात की तो मैं नाश्ता छोड़ के उठ गया और बाहर आ गया|
भौजी मेरी प्लेट ले के मेरे पास आईं;
मैं: क्या जर्रूरत थी अम्मा को वो सब कहने की?
भौजी: छोडो उन्हें... आ नाश्ता करो| देखो बड़े प्यार से मैंने बनाया है! (भौजी ने परांठे का एक कौर मेरी ओर बढ़ाया)
मैं: चलो आपके घर में बैठ के खाते हैं|
फिर हम भौजी के घर में आ गए और आँगन में चारपाई पे दोनों बैठ गए| भौजी मुझे अपने हाथ से खिला रहीं थीं और मैं उन्हें अपने हाथ से खिला रहा था|
भौजी: अच्छा मैं एक बात कहूँ? आप मानोगे?
मैं: आपके लिए जान हाज़िर है...माँग के तो देखो!
भौजी: जाने से पहले एक बार.... (बस भौजी आगे कुछ नहीं कह पाईं|)
पर मैं उनकी बात उनके बिना कहे समझ चूका था|मैं उनकी तरफ बढ़ा और उनके चेहरे को अपने दोनों हाथों के बीच थाम और उनके थिरकते होटों को Kiss किया| ये Kiss शायद Goodbye Kiss था ....आखरी Kiss ... कम से कम कुछ महीनों तक तो आखरी Kiss ही था! Kiss करते समय मैंने उनके होंठों को हलके से अपने मुँह में भर के चूसा बस...इस Kiss में जरा भी वासना...या जिस्म की अगन नहीं थी| केवल प्यार था...पाक प्यार... पवित्र! जब हम अलग हुए तो नेहा उठ चुकी थी और हमें Kiss करते हुए देख रही थी| फिर उसने अपनी बाहें खोल के मेरी गोद में आने की इच्छा प्रकट की| मैंने उसे झट से गोद में उठा लिया और बाहर निकल आया| मैं जानता था की अब किसी भी पल अजय भैया रिक्शा लेके आ जायेंगे और मुझे जाता हुआ देख नेहा फिर रो पड़ेगी| इसलिए मैं उसे गोद में लिए दूकान की ओर चल दिया ओर उसे एक बड़ा चिप्स का पैकेट दिलाया| कम से कम उसका ध्यान इसमें लगा रहेगा और वो रोयेगी नहीं| जब मैं नेहा को लेके वापस आया तब तक रिक्शा आ चूका था और अजय भैया हमारा सामान रिक्क्षे में रख रहे थे| मेरे पाँव जैसे जम गए...वो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते थे| सारा बदन साथ छोड़ रहा था...जैसे एक साथ शरीर के सारे अंगों ने बगावत कर दी थी की भैया हम आगे नहीं जायेंगे,हमें यहीं रहना है...
पर दिमाग...वो सब को आगे चलने पे मजबूर करने पे तुला था| बारबार धमका रहा था की अगर पिताजी बरस पड़े तो? मैं भारी-भारी क़दमों से रिक्क्षे की तरफ बढ़ा| अब तक सारा सामान रखा जा चूका था और माँ-पिताजी सबसे विदा ले रहे थे| रिक्क्षे के पास सब खड़े थे; बड़के दादा, चन्दर भैया, अजय भैया, भौजी, रसिका भाभी, बड़की अम्मा, सुनीता और ठाकुर साहब|
मैंने नेहा को गोद से उतार दिया और बड़के दादा के पाँव छुए;
बड़के दादा: जीतो रहो मुन्ना...और अगली बार जल्दी आना|
फिर मैं बड़की अम्मा के पास पहुंचा और उनके पाँव छुए;
बड़की अम्मा: सुखी रहो मुन्ना.... (उन्होंने मेरे माथे को चूम लिया...उनकी आँखें छलक आईं थीं| अम्मा ने मेरे हाथ में कुछ पैसे थम दिए और मेरे मन करने के बावजूद मेरी मुट्ठी बंद कर दी|)
फिर मैं चन्दर भैया के पास पहुंचा और उनके पाँव छूने की बजाय उनसे नमस्ते की, मेरे मन में उनके लिए वो स्थान नहीं था जो पहले हुआ करता था| चन्दर भैया मुझे खुश लगे, शायद मेरे जाने के बाद उनकी पत्नी पर अब कोई हक़ नहीं जताएगा|;
चन्दर भैया: नमस्ते (उन्होंने बस मेरी नमस्ते का जवाब दिया|)
फिर मैं अजय भैया के पास पहुंचा और उनके गले लगा और उनके कान में फुस-फुसाया;
मैं: भैया मेरे एक काम करोगे?
अजय भैया: हाँ भैया बोलो|
मैं: आज अपना फ़ोन उनके (भौजी) पास छोड़ देना...मैं ट्रैन में बैठने पे उन्हें फोन कर के बता दूँगा वरना वो चिंता करेंगी|
अजय भैया: कोई दिक्कत नहीं भैया ....
फिर मैं भौजी और नेहा के पास पहुंचा, नेहा चिप्स खा रही थी पर जैसे ही उसने मुझे देखा वो मुझसे लिपट गई और रोने लगी| मुझे लगा था की वो चिप्स खाने में बिजी रहेगी... पर नहीं... उसने तो वो चिप्स का पैकेट छोड़ दिया और मेरे गाल पे Kiss किया| मानो वो जाता रही हो की मैं आपसे प्यार करती हूँ...चिप्स से नहीं! अब तो मेरी आँखें भी नम हो गेन थीं पर मैं खुद को रोके हुए था| मैंने थोड़ा पुचकार के नेहा को चुप कराया और उसे गोद से निचे उतारा और वो जाके पिताजी के और माँ के पाँव छूने लगी| जब मैं भौजी के पास पहुँचा तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने भौजी को सब के सामने गले लगा लिया और भौजी टूट के रोने लगीं| मुझसे अब काबू नहीं हुआ और मेरी आँखों से भी आँसूं बह निकले| खुद को संभालते हुए उनके कान में कहा;
मैं: Hey ....Hey .... बस ...जान मैं ...वापस आऊँगा| और हाँ अजय भैया को मैंने कह दिया है...वो आप को अपना फोन दे देंगे| मैं आपको ट्रैन में बैठते ही फोन करूँगा| अपना ख़याल रखना और हमारे बच्चों का भी?
भौजी ने हाँ में सर हिलाया| और बोलीं;
भौजी: आप भी अपना ख़याल अच्छे से रखना|
फिर मैंने अपने आँसूं पोछे और सुनीता के पास आया
मैं: (गहरी साँस छोड़ते हुए) अब मैं आपको Hi कहूँ या Bye समझ नहीं आता| But anyways it was nice knowing you ! GoodBye !
सुनीता: Same here !!!
फिर मैं ठाकुर साहब के पास पहुंचा और उनके पाँव छुए;
ठाकुर साहब: जीते रहो बेटा! अगली बार कब आओगे?
मैं: जी दशेरे की छुटियों में?
मेरा जवाब सुन के पिताजी हैरान दिखे! और चन्दर भैया का मुँह फीका पड़ गया|
ठाकुर साहब: बहुत अच्छा बेटा...जल्दी मुलाकात होगी|
अब बचीं तो बची रसिका भाभी, जो सबसे पीछे खड़ी थीं| मैं उनकी ओर बढ़ा ओर हाथ जोड़ के उन्हें नमस्ते कहा| जवाब में उन्होंने भी नमस्ते कहा| शायद उन्होंने उम्मीद नहीं की थी की मैं जाने से पहले उनको "नमस्ते" तक कह के जाऊँगा|
पिताजी: चल भई..देर हो रही है|
साफ़ था की कोई नहीं चाहता था की मैं उसे आखरी बार मिलूं...पर मैं उसके पास इस लिए गया था ताकि सब के सामने उस की कुछ तो इज्जत रह जाए!
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खेर अपना होश संभालते हुए मैंने देखा तो भौजी मेरे पास नहीं थीं| घडी में साढ़े पाँच बजे थे.... और मुझे पे एक चादर पड़ी हुई थी| साफ़ था ये भौजी ने ही डाली थी| मुझ में जरा भी हिम्मत नहीं थी की मैं नीचे जाके भौजी का सामना करूँ वरना मैं फफफ़क के रो पड़ता| इसलिए मिअन छत पर दिवार का टेक लेके उकड़ूँ होक बैठा रहा और अपना मुंह अपने घुटनों में छुपा लिया| करीब पंद्रह मिनट बाद भौजी आइन...उनकी पायल की छम-छम आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत की तरह गूंजने लगी| वो मेरे सामने अपने घुटनों पे बैठते हुए बोलीं;
भौजी: जानू........जानू.......उठो?
पर मैंने अपना मुंह अब भी छुपा रखा था| मैं जानता था की वो मुझे इतनी जल्दी इसीलिए उठा रहीं हैं ताकि जो कुछ घंटे बचे हैं हमारे पास..कम से कम वो तो हम एक साथ गुजार लें|
भौजी: जानू....मैं जानती हूँ...मुझे आपको अभी नहीं उठाना चाहिए....पर आप का दीदार करने को ये आँखें तरस रहीं हैं!
अब उनकी ये बातें मेरे दिल को छू गईं और मैंने अपना मुंह घुटनों की गिरफ्त से छुड़ाया और मैं भौजी से गले लग गया| बहुत....बहुत रोक खुद को...संभाला.....अपनी आवाज तक को गले में दफन कर दिया ...क्योंकि जानता था की अगर मैंने कुछ बोलना चाहा तो मेरे आंसूं बाह निकलेंगे और भौजी का मनोबल आधा हो जाएगा| वो टूट जाएँगी.... चूँकि वो मुझे इतना प्यार करती थीं तो उन्हें पता तो अवश्य ही लग गया होगा की मेरी मनोदशा क्या है?
भौजी: मैं.....जानती हूँ.......(सुबकते हुए) आप पर क्या ....बीत रही है|
भौजी इतना भावुक हो गईं थीं की अपना दर्द...अपनी तड़प छुपा नहीं पा रहीं थीं और खुद को रोने से रोकने की बेजोड़ कोशिश कर रहीं थीं| इसी करन वो शब्दों को तोड़-तोड़ के बोल रहीं थीं| मैं उन्हें रोने से रोकना चाहता था ...
मैं: प्लीज......कुछ मत कहो!
बस इतना ही कह पाया क्योंकि इससे आगे कहने की मुझ में क्षमता नहीं थी| अगर आगे कुछ बोलता तो....खुद को रोक नहीं पाता| पाँच मिनट तक हम चुप-चाप ऐसे ही गले लगे रहे| फिर हम दोनों नीचे आये और मैं फ्रेश होने लगा| फ्रेश होते समय भी मन कह रहा था की जल्दी से काम निपटा और उनकी आँखों के सामने पहुँच जा...आखरी बार देख ले...फिर अगला मौका दशेरे की छुटियों में ही मिलेगा| मैं जल्दी से तैयार हो गया और इतने में पिताजी आ गए;
पिताजी: बेटा दस बजे निकलना है| अपना सामान पैक कर लो|
मैं: जी...वो ...माँ कर देगी...मैं एक बार नेहा से मिल लूँ ...फिर उसने स्कूल चले जाना है|
पिताजी: नेहा कहीं नहीं जा रही ...सुबह से रोये जा रही है| तू ऐसा कर उसे चुप करा...तबतक मैं सामान पैक कर देता हूँ|
इतने में बड़की अमा चाय लेके आ गईं| मैंने उनके पाँव हाथ लागए और चाय का कप उठाते हुए पूछा;
मैं: अम्मा...आप चाय लाय हो?
बड़की अम्मा: हाँ बेटा...वो बहु कुछ काम कर रही थी तो ....
अम्मा कुछ बात छुपाने की कोशिश करने लगीं| रोज तो भौजी ही मुझे चाय दिया करती थीं और आज वो चाय नहीं लाईं हैं तो कुछ तो गड़बड़ है| मैंने चाय का कप रखा और उनके घर के पास भगा| दरवाजा अंदर से लॉक था.... मैंने दरवाजा खटखटाया तो दो मिनट तक कोई अंदर से नहीं बोला| मैंने आस-पास नजर दौड़ाई तो पाया की नेहा भी बाहर नहीं है| अब तो मुझे घबराहट होने लगी! मैं तुरंत भौजी के घर की साइड वाली दिवार फांदने के लिए भगा| और उस वक़्त इतना जोश में था की ये भी नहीं देखा की वो दिवार आठ-नौ फुट ऊँची है!
मैंने अपने जूते उतारे और दिवार की तरफ भगा और किसी तरह दिवार का ऊपरी किनारा पकड़ा और खुद को खींच के दूसरी तरफ भौजी के घर के आँगन में कूद पड़ा| देखा तो भौजी नेहा को गोद में ले के अपने कमरे के दरवाजे पे बैठीं थीं| नेहा भौजी के सीने से लगी हुई थी और उसके सुअब्कने की आवाज मैं साफ़ सुन सकता था| मैं जहाँ कूड़ा था वहीँ अपने घुटनों के बल बैठ गया और भौजी ने मुझे जब ये स्टंट मारते हुए देखा और मेरे कूदने की आवाज नेहा ने सुनी तो वो भौजी की गोद से छिटक के अलग हुई और आके मेरे गले लग गई| दोस्तों मैं आपको बता नहीं सकता उस वक़्त मेरे दिल पे क्या गुजरी थी.... एक छोटी सी बच्ची जिसका उसकी माँ के अलवबा कोई ख्याल नहीं रखता...जो मुझे पापा कहती थी... जिसक ख़ुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता था ....वो बच्ची ...मुझसे लिपट के रोने लगी तो मेरा क्या हाल हुआ इसी बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं| ऐसी स्थिति में चाहे जैसा भी इंसान हो...वो खुद को रोने से नहीं रोक पाता...पर मैं खुद कोकिसिस तरह रोके हुए था...आंसूं आँखों की दहलीज तक पहुँच के रूक गए थे...जैसे वो भ जानते थे की अगर वो बाहर आ गए तो यहाँ दो दिल और हैं जो टूट जायंगे| मैं फिर भी उस बच्ची को गोद में ले के पुचकारने लगा... की वो कैसे भी चुप हो जाए...
मैं: नेहा...बेटा बस...बस बेटा! चुप हो जाओ...देखो पापा अभी आपके पास हैं! बस बेटा...चुप हो जाओ! देखो...मैं बस कुछ दिनों के लिए जा रहा हूँ...और आपसे मेरी बात फोन पे होती रहेगी! प्लीज बेटा...
पर नहीं...मेरी सारी कोशिशें उस बच्ची को चुपकराने में व्यर्थ थीं| भौजी दरवाजे पे खड़ीं हम दोनों को देख रहीं थीं...अब तो उनसे बी कंट्रोल नहीं हुआ और वो भी भाग के मेरे पास आइन और मेरे गले लग गईं| गले लगते ही उन्होंने फुट-फुट के रोना शुरू कर दिया| इधर गोद में नेहा पहले ही रो रही थी और अब भौजी.....अब मुझ में जरा भी हिम्मत नहीं थी की मैं खुद को रोने से रोकूँ| आखिरकर मेरे आंसूं भी छलक आये.... आज मैं सच में टूट छुका था....दिल ने भावनाओं के आगे हार मान ली थी! अब खुद पे कोई काबू नहीं रहा...ऐसा लगा की भौजी और नेहा के बिना... मैं पागल हो जाऊँगा! मन नहीं कह रहा था की मैं उन्हें बिलखता हुआ छोड़ के दिल्ली चला जाऊँ ऊपर से जब भौजी ने बिलखते हुए हाथ जोड़ के मिन्नत की तो;
भौजी: प्लीज.....I beg of you ...प्लीज..... मत जाओ!
मेरा दिल चकना चूर हो गया| उनकी हर एक ख्वाइश पूरी करने वाला आज उनके आगे लाचार होगया....कोई जवाब नहीं था..मेरे पास.... क्या करता मैं...क्या कहता मैं....मेरे बस में कुछ नहीं था|
मैं: (सुबकते हुए) प्लीज....ऐसा मत कहो.....मैं मजबूर हूँ! मुझे माफ़ कर दो!!! प्लीज !!!
भौजी फिर से मुझसे लिपट गईं ....आधा घंटा...दोस्तों आधा घंटे तक हम रोते रहे.... नेहा तो रोते-रोते सो गई थी..पर हम दोनों की हहलात ऐसी थी जैसे कोई जिस्म से रूह को अलग कर रहा हो! मैंने नेहा को चारपाई पे लिटाया पर उसने मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द अपनी बाँहों से लॉक कर लिया था| भौजी ने मेरी मदद की तब जाके हमने उसके हाथों की पकड़ से मेरी गर्दन छुड़ाई| भौजी फिर से मेरे सीने पे सर रख के सुबकने लगीं|
मैं: देखो...I Promise मैं वापस आऊँगा... !!
भौजी ने हाँ में सर हिलाया और तब जाके उनका सुबकना बंद हुआ|
मैं: अब दरवाजा खोलो ...और बाहर चलो| (मैंने उनके आँसूं पोंछते हुए कहा|)
भौजी: आप सच में आओगे ना?
मैं: हाँ...वादा करता हूँ| दशेरे की छुटियों में अवश्य आऊँगा| बस कुछ महीनों की ही तो बात है...
भौजी ने हाँ में सर हिलाया और वो मुझे आशवस्त दिखीं| मैं बहार आया और बड़े घर की ओर चल दिया और भौजी हमारे लिए रास्ते में खाने को कुछ पैक करने लगीं| मेरी आँख सुर्ख लाल हो गईं थीं... कोई भी देख के बता सकता था की मैं कितना रोया हूँगा!
पिताजी: क्यों...जाने का मन नहीं हो रहा है?
मैंने कुछ जवाब नहीं दिया...देता भी तो उन्होंने मेरी क्लास लगा देनी थी| मैं बिना कुछ कहे अंदर चला गया और मन ही मन प्रार्थना करने लगा की कैसे भी जाना रूक जाए| इधर पिताजी ने अजय भैया को रोइक्क्षव लेने के लिए भेज दिया| ये रिक्शा हमें Main रोड तक छोड़ने वाला था और वहाँ से हमें लखनऊ की बस मिलती ...वहां से रात दस बजे की लखनऊ मेल हमें सीधा दिल्ली छोड़ती| अब मैं मन ही मन मना रहा था की भैया को रिक्शा ना मिले! और मेरा बचपना तो देखिये...जैसे रिक्शा ना मिलने पे पिताजी जाना कैंसिल कर देंगे जब की हमारे पास कन्फर्म टिकट है! इधर माँ और बड़की अम्मा जो साथ में बैठे बात कर रहे थे उन्होंने मेरी लाल आँखें देखीं तो बिना कहे ही सारी बात समझ गए|
बड़की अम्मा: मुन्ना...तुम्हारी बड़ी याद आएगी! और तुम चिंता ना करो...हम लोग हैं यहाँ...तुम्हारी भौजी का ध्यान रखने को!
मैंने उन्हें कुछ कहा नहीं पर मन ही मन कहा की आप तो हो पर उस चुडेल(रसिका) का क्या और उस दैत्य (चन्दर भैया) का क्या? पर मन ही मन खुद को धन्यवाद दिया की कम से कम तूने भौजी को अपने मायके जाने को तो बोल दिया है ना! वो वहाँ सुरक्षित रहेंगी! इतने में भौजी नाश्ता ले आईं. और उन्होंने एक प्लेट मेरी ओर बढ़ाई;
भौजी: लीजिये
मैं: आपकी प्लेट कहाँ है? और नेहा कहाँ है?
भौजी: नेहा सो रही है ...आप खा लो...मैं बाद में खा लुंगी!
मैं: आजतक कभी हुआ है की मैंने आपके पहले खाया हो? कम से कम मुझे पता तो होता था की आपने खाया जर्रूर होगा...आखरी बार ही सही मेरे हाथ से खा लो.... (मैंने पराठे का एक टुकड़ा उन्हें खिलाने को उठाया)
ये बात मैंने बड़की अम्मा और माँ के सामने बिना डरे कह दी थी| पर मैं उस वक़्त इतना भावुक था की मुझे कोई फर्क नहीं था की मेरे आस-पास कौन है और मुझे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं? मुझे चिंता थी...बल्कि पता था की मेरे जाने के बाद मेरे गम में भौजी खाना नहीं खायेंगी|
बड़की अम्मा: खा ले बहु...प्यार से खिला रहा है ... सच कहूँ छोटी (माँ) इन दोनों का प्यार बड़ा अद्भुत है! जब से मानु आया है...दोनों एक पल के लिए भी अलग नहीं हुए| और जब हुए तो दोनों का क्या हाल था ये तो सब को पता है| जब मानु तुम्हारे साथ वाराणसी गया तब बहु ने खाट पकड़ ली...खाना-पीना बंद कर के| और जब बहु को मानु ने शादी में भेजा तो इसने खाट पकड़ ली...अपर खेर उस समय बात कुछ और थी|
माँ: हाँ दीदी... पता नहीं दोनों कैसे रहेंगे...एक दूसरे के बिना?
बड़की अम्मा: अरे छोटी...जैसे-जैसे दिन बीतेंगे...दोनों भूल जायेंगे ...आखिर दूर रहने से रिश्तों में दूरियाँ तो आ ही जाती हैं| फिर मानु की शादी हो.....
मैं नहीं जानता की अम्मा क्या सोच के वो सब कह रहीं थीं| मेरा और भौजी का रिश्ता कोई कच्चे धागे की गाँठ नहीं थी जिसे दूरियाँ तोड़ दें! ये तो एक बंधन था...एक अनोखा बंधन...जो तोड़े ना टूटे! और जब उन्होंने शादी की बात की तो मैं नाश्ता छोड़ के उठ गया और बाहर आ गया|
भौजी मेरी प्लेट ले के मेरे पास आईं;
मैं: क्या जर्रूरत थी अम्मा को वो सब कहने की?
भौजी: छोडो उन्हें... आ नाश्ता करो| देखो बड़े प्यार से मैंने बनाया है! (भौजी ने परांठे का एक कौर मेरी ओर बढ़ाया)
मैं: चलो आपके घर में बैठ के खाते हैं|
फिर हम भौजी के घर में आ गए और आँगन में चारपाई पे दोनों बैठ गए| भौजी मुझे अपने हाथ से खिला रहीं थीं और मैं उन्हें अपने हाथ से खिला रहा था|
भौजी: अच्छा मैं एक बात कहूँ? आप मानोगे?
मैं: आपके लिए जान हाज़िर है...माँग के तो देखो!
भौजी: जाने से पहले एक बार.... (बस भौजी आगे कुछ नहीं कह पाईं|)
पर मैं उनकी बात उनके बिना कहे समझ चूका था|मैं उनकी तरफ बढ़ा और उनके चेहरे को अपने दोनों हाथों के बीच थाम और उनके थिरकते होटों को Kiss किया| ये Kiss शायद Goodbye Kiss था ....आखरी Kiss ... कम से कम कुछ महीनों तक तो आखरी Kiss ही था! Kiss करते समय मैंने उनके होंठों को हलके से अपने मुँह में भर के चूसा बस...इस Kiss में जरा भी वासना...या जिस्म की अगन नहीं थी| केवल प्यार था...पाक प्यार... पवित्र! जब हम अलग हुए तो नेहा उठ चुकी थी और हमें Kiss करते हुए देख रही थी| फिर उसने अपनी बाहें खोल के मेरी गोद में आने की इच्छा प्रकट की| मैंने उसे झट से गोद में उठा लिया और बाहर निकल आया| मैं जानता था की अब किसी भी पल अजय भैया रिक्शा लेके आ जायेंगे और मुझे जाता हुआ देख नेहा फिर रो पड़ेगी| इसलिए मैं उसे गोद में लिए दूकान की ओर चल दिया ओर उसे एक बड़ा चिप्स का पैकेट दिलाया| कम से कम उसका ध्यान इसमें लगा रहेगा और वो रोयेगी नहीं| जब मैं नेहा को लेके वापस आया तब तक रिक्शा आ चूका था और अजय भैया हमारा सामान रिक्क्षे में रख रहे थे| मेरे पाँव जैसे जम गए...वो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते थे| सारा बदन साथ छोड़ रहा था...जैसे एक साथ शरीर के सारे अंगों ने बगावत कर दी थी की भैया हम आगे नहीं जायेंगे,हमें यहीं रहना है...
पर दिमाग...वो सब को आगे चलने पे मजबूर करने पे तुला था| बारबार धमका रहा था की अगर पिताजी बरस पड़े तो? मैं भारी-भारी क़दमों से रिक्क्षे की तरफ बढ़ा| अब तक सारा सामान रखा जा चूका था और माँ-पिताजी सबसे विदा ले रहे थे| रिक्क्षे के पास सब खड़े थे; बड़के दादा, चन्दर भैया, अजय भैया, भौजी, रसिका भाभी, बड़की अम्मा, सुनीता और ठाकुर साहब|
मैंने नेहा को गोद से उतार दिया और बड़के दादा के पाँव छुए;
बड़के दादा: जीतो रहो मुन्ना...और अगली बार जल्दी आना|
फिर मैं बड़की अम्मा के पास पहुंचा और उनके पाँव छुए;
बड़की अम्मा: सुखी रहो मुन्ना.... (उन्होंने मेरे माथे को चूम लिया...उनकी आँखें छलक आईं थीं| अम्मा ने मेरे हाथ में कुछ पैसे थम दिए और मेरे मन करने के बावजूद मेरी मुट्ठी बंद कर दी|)
फिर मैं चन्दर भैया के पास पहुंचा और उनके पाँव छूने की बजाय उनसे नमस्ते की, मेरे मन में उनके लिए वो स्थान नहीं था जो पहले हुआ करता था| चन्दर भैया मुझे खुश लगे, शायद मेरे जाने के बाद उनकी पत्नी पर अब कोई हक़ नहीं जताएगा|;
चन्दर भैया: नमस्ते (उन्होंने बस मेरी नमस्ते का जवाब दिया|)
फिर मैं अजय भैया के पास पहुंचा और उनके गले लगा और उनके कान में फुस-फुसाया;
मैं: भैया मेरे एक काम करोगे?
अजय भैया: हाँ भैया बोलो|
मैं: आज अपना फ़ोन उनके (भौजी) पास छोड़ देना...मैं ट्रैन में बैठने पे उन्हें फोन कर के बता दूँगा वरना वो चिंता करेंगी|
अजय भैया: कोई दिक्कत नहीं भैया ....
फिर मैं भौजी और नेहा के पास पहुंचा, नेहा चिप्स खा रही थी पर जैसे ही उसने मुझे देखा वो मुझसे लिपट गई और रोने लगी| मुझे लगा था की वो चिप्स खाने में बिजी रहेगी... पर नहीं... उसने तो वो चिप्स का पैकेट छोड़ दिया और मेरे गाल पे Kiss किया| मानो वो जाता रही हो की मैं आपसे प्यार करती हूँ...चिप्स से नहीं! अब तो मेरी आँखें भी नम हो गेन थीं पर मैं खुद को रोके हुए था| मैंने थोड़ा पुचकार के नेहा को चुप कराया और उसे गोद से निचे उतारा और वो जाके पिताजी के और माँ के पाँव छूने लगी| जब मैं भौजी के पास पहुँचा तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने भौजी को सब के सामने गले लगा लिया और भौजी टूट के रोने लगीं| मुझसे अब काबू नहीं हुआ और मेरी आँखों से भी आँसूं बह निकले| खुद को संभालते हुए उनके कान में कहा;
मैं: Hey ....Hey .... बस ...जान मैं ...वापस आऊँगा| और हाँ अजय भैया को मैंने कह दिया है...वो आप को अपना फोन दे देंगे| मैं आपको ट्रैन में बैठते ही फोन करूँगा| अपना ख़याल रखना और हमारे बच्चों का भी?
भौजी ने हाँ में सर हिलाया| और बोलीं;
भौजी: आप भी अपना ख़याल अच्छे से रखना|
फिर मैंने अपने आँसूं पोछे और सुनीता के पास आया
मैं: (गहरी साँस छोड़ते हुए) अब मैं आपको Hi कहूँ या Bye समझ नहीं आता| But anyways it was nice knowing you ! GoodBye !
सुनीता: Same here !!!
फिर मैं ठाकुर साहब के पास पहुंचा और उनके पाँव छुए;
ठाकुर साहब: जीते रहो बेटा! अगली बार कब आओगे?
मैं: जी दशेरे की छुटियों में?
मेरा जवाब सुन के पिताजी हैरान दिखे! और चन्दर भैया का मुँह फीका पड़ गया|
ठाकुर साहब: बहुत अच्छा बेटा...जल्दी मुलाकात होगी|
अब बचीं तो बची रसिका भाभी, जो सबसे पीछे खड़ी थीं| मैं उनकी ओर बढ़ा ओर हाथ जोड़ के उन्हें नमस्ते कहा| जवाब में उन्होंने भी नमस्ते कहा| शायद उन्होंने उम्मीद नहीं की थी की मैं जाने से पहले उनको "नमस्ते" तक कह के जाऊँगा|
पिताजी: चल भई..देर हो रही है|
साफ़ था की कोई नहीं चाहता था की मैं उसे आखरी बार मिलूं...पर मैं उसके पास इस लिए गया था ताकि सब के सामने उस की कुछ तो इज्जत रह जाए!
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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