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जुनून भाग-1
इस कहानी की शुरुवात अगस्त १९९८ से होती है जब मैं
बिहार के एक छोटे से शहर से अपने भैया के पास मुम्बई आई । इसी साल मेरी BA
की परिक्षा खतम हुई थी । मेरा मुम्बई आने का एक ही मकसद था कि मैं stage
कलाकार बन जाऊँ । बचपन से ही मेरी कला में बहुत रुचि थी। हमारे विद्यालय के
वार्षिकोत्सव में हर साल मै नाटक में अभिनय करती थी।
नाटक
के पात्र का विशलेषण करना फिर उस पात्र को नाटक खतम होने तक अपने जीवन में
जीना, मानो यही मेरे जीवन क एक मात्र लक्ष्य था। इस प्रकार बचपन की रुचि
कब मेरा जुनून बन गयी मुझे पता ही नहीं चला। और अब मै सपनों की नगरी मुम्बई
में थी अपने सपनो को साकार करने के लिये।
मुम्बई
पहुंचने के बाद मेरे भैया मुझे अपने खार स्थित घर में के गये। उस घर में
उनके साथ उनका एक मित्र भी रहता था। वह मुम्बई में किसी कम्पनी में बहुत
उँचे पद पर कार्यरत था। जब हम घर पहुँचे तो शाम ढल चुकी थी और मेरे भैया के
मित्र घर आ गये थे। दिखने में वह काफ़ी आकर्षक थे और उनकी कद काठी भी काफ़ी
अच्छी थी। मेरे भाई का घर दूसरी मंजिल पर था इसलिये मेरे भैया के घर के
अन्दर आने से पहले मै घर मे पहुँच गयी। मुझे दरवाजे पर देख कर मेरे भैया के
मित्र पहले तो एकदम सकपका गये। शायद उन्हे मालूम नहीं था। फ़िर एकदम उनकी
आँखों मे एक अजीब सी चमक आ गयी। वे मेरे पास आकर बोले - आपको किससे मिलना
है ? उनके शरीर के हावभाव देखकर मेरे पूरे शरीर में एक सिरहन सी दौङ गयी।
मै एकदम घबरा गयी और् कुछ बोल ना पाई। पता नहीं क्यों अन्दर से मुझे उन
आँखों की चमक में कुछ अजीब लगा। इतने मे मेरे भैया ऊपर आ गये और उन्होने
अपने मित्र से मेरा परिचय कराया। जब मेरे भैया के मित्र, जिनका नाम आदित्य
है, को पता चला की मै उनके मित्र की बहन हूँ, उनकी आँखों मे फिर वही अजीब
सी चमक आ गयी। ऐसा प्रतीत हो रहा थ मानो उन्हें बहुत बङा खजाना मिल गया हो।
खैर लम्बे सफर के कारण हम बहुत थक गये थे तो हम सोने चले गये।
अगले
दिन मानो सब कुछ सामान्य हो गया। हमारे भैया और आदित्य दोनो ही सुबह सुबह
काम पर चले जाते हैं । हमने उनके जाने के बाद अपना पूरा दिन आराम करने और
घर के आसपास विचरण में व्यतीत किया। पूरा अगस्त महीना इसी प्रकार निकल गया।
ईसके
पश्चात हमें यह लगा की अब काफ़ी मौज मस्ती हो गयी है और हमें अपने मकसद की
और अग्रसर होना चाहिये। हमारे भैया तो काम पर जा चुके थे तो हम उन्के आने
का इंतजार करने लगे। शाम को लगभग ७:३० की बात है, हमारे भैया और आदित्य
दोनो बैठक में बैठे थे। हमने दोनो को चाय दी और भैया को हमारे मकसद के बारे
में बताया। हमारे भैया तो पूरी बात सुनकर कुछ सोचने लगे परन्तु आदित्य
एकदम बोले -
अरे कुनाल! तुम्हारी बहन तो बहुत समझदार है। आजकल जब हर लङकी सिनेमा और माडलिङ्ग मे जाना चाहती है तुम्हारी बहन कला की सेवा करना चाहती है। यह तो बहुत अच्छी बात है।
पर
हमारे भैया कुछ नहीं बोले और उन्होने बात को वहीं छोङ दिया। रात में जब हम
सोने जा रहे थे तो हमारे भैया हमारे कमरे में आये और बोले की ये नाटक आदि
सब कुछ बेकार है अगर हमें कला का शौक है तो हम MA(Fine Arts) करले। हमारे
तो मानो सब कुछ लुट गया। हमारे सपने बिखर गये और हम रात भर रोते रहे।
हमारे भैया के मना करने के बाद अगले दिन हम बहुत उदास
थे। हमारी उदासी शाम को आदित्य के आने पर भी बरकरार थी। हमारे मुम्बई आने
के बाद आज पहली बार ऐसा हुआ की भैया देर से घर आने वाले थे। मै और आदित्य
घर में अकेले थे। हम तो कल के वाक्या से बहुत उदास थे। आदित्य हमारी उदासी
भाँप गया और हमसे उसका कारण पूछ्ने लगा। पहले पहल तो हमने कुछ बताने से मना
कर दिया परन्तु उसके बहुत प्यार से पुछने पर और लगातार पूछने पर हमने सब
कुछ बता दिया। इस पर आदित्य एक दम चौक गये। वे बोले की हमारे भैया भी अजीब
हैं। आखिर रंगमंच में बुराई क्या है। उनकी बात सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा
और उम्मीद भी जागी कि शायद कुछ हो सकता है।
फ़िर आदित्य बोले -
देखो क्षमा! क्योंकि तुम्हारे भैया ने मना कर दिया है, तो मैं तुम्हारी प्रत्यक्ष रूप में तो सहायता नहीं कर सकता, परन्तु तुम्हें अपने एक मित्र से परिचय करवा सकता हूँ जो रंगमंच से सम्बन्ध रखता है। जो कुछ करना है तुम्हे खुद करना है।
मैं तो खुशी से
उछल गयी। मैने तुरन्त ही हामी भर दी। अगले दिन भैया के जाने के बाद एक मयंक
नाम का पुरुष हमारे घर आया। आदित्य ने बताया कि मयंक उनका मित्र है और
उसने पूना से एक्टिंग स्कूल से कोर्स किया है। अब तो मेरा मन में खुशी के
मारे पागल सा हो रहा था। मै सोच रही थी कि शायद मुझे मेरा लक्ष्य मिल गया
है।
मै उन लोगों के लिये चाय लायी, फ़िर हमारी बातें होने लगी।
मयंक - चलिये
ये परिचय आदि तो बहुत हो गया, कुछ काम की बात की जाए। क्षमा तुम रंगमंच का
अभ्यास कहाँ करोगी, अपने घर पर या मेरी कार्यशाला में।
मै
एकदम सोच में पढ गयी। बहुत सोच विचारकर मैने निश्चय किया कि मयंक को अपने
घर ही बुला लिया जाये। फ़िर मैने मयंक से कहा कि अगर उन्हें परेशानी ना हो
तो क्या वे मुझे सिखाने यहीं आ सकते हैं। मयंक बोले कि कोई बात नहीं और
हमारी ट्रेनिंग आज ही से शुरु होगी। इतने में आदित्य बोले कि उन्हें काम पर
जाना है और वे चले गये।
अब घर पर मै और मयंक थे।
मयंक - तुमने पहले अभिनय किया है।
मैं - हाँ बहुत बार। हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव में हर साल मैं अभिनय करती थी।
मयंक - बहुत
अच्छी बात है। तब तो तुम्हारा अभिनय के प्रति बचपन से ही रुझान है। परन्तु
विद्यालय स्तर पर तो ज्यादातर बचकाने नाटक होते हैं, इसके अलावा अभिनय का
कोई तजुर्बा।
मैं - हमारे घर में किसी को हमारा अभिनय करना पसंद नहीं है तो विद्यालय के अतिरिक्त तो हमारा कोई अनुभव नहीं है।
मयंक -
कोई बात नहीं हम अभिनय के प्रथम चरण से प्रारम्भ करेंगे। चलो सर्वप्रथम
तुमको एक माँ का अभिनय करना है जिसका लङका अभी अभी युद्ध में मारा गया है।
इसके
पश्चात उन्होंने मुझे संवादो का पुलिन्दा दे दिया। मैने अपनी पूरी मेहनत
लगा कर अभिनय किया। कुछ बार गल्तियाँ हुई तो मयंक ने मुझे सही करा और इस
प्रकार ४-५ घंटे की मेहनत के बाद मैने पूरा दृश्य एकबार में कर दिया।
इसके पश्चात तो यह सिलसिला चल पङा। हर रोज ४-५ घंटे की मेहनत और मैने कई किरदारों को जी लिया।
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