Sunday, December 8, 2013

FUN-MAZA-MASTI सुषमा की विनिमय-लीला

FUN-MAZA-MASTI

सुषमा की विनिमय-लीला


जिस दिन मैंने अपने पति की जेब से वो कागज पकड़ा, मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। कम्‍प्‍यूटर का छपा कागज था। कोई ईमेल संदेश का प्रिंट।
"अरे ! यह क्या है?" मैंने अपने लापरवाह पति की कमीज धोने के लिए उसकी जेब खाली करते समय उसे देखा। किसी मिस्‍टर ललित को संबोधित थी। कुछ संदिग्‍ध-सी लग रही थी, इसलिए क्‍या लिखा है पढ़ने लगी।
अंग्रेजी मैं ज्यादा नहीं जानती फिर भी पढ़ते हुए उसमें से जो कुछ का आइडिया मिल रहा था वह किसी पहाड़ टूटकर गिरने से कम नहीं था।
कितनी भयानक बात !
आने दो शाम को !
मैं न रो पाई, न कुछ स्‍पष्‍ट रूप से सोच पाई कि शाम को आएँगे तो क्‍या पूछूँगी।
मैं इतनी गुस्‍से में थी कि शाम को जब वे आए तो उनसे कुछ नहीं बोली, बोली तो सिर्फ यह कि "ये लीजिए, आपकी कमीज में थी।" कहकर चिट्ठी पकड़ा दी।
वो एकदम से सिटपिटा गए, कुछ कह नहीं पाए, मेरा चेहरा देखने लगे।
शायद थाह ले रहे थे कि मैं उसे पढ़ चुकी हूँ या नहीं।
उम्‍मीद कर रहे थे कि अंग्रेजी में होने के कारण मैंने छोड़ दिया होगा।
मैं तरह-तरह के मनोभावों से गुजर रही थी। इतना सीधा-सादा सज्‍जन और विनम्र दिखने वाला मेरा पति यह कैसी हरकत कर रहा है? शादी के दस साल बाद !
क्‍या करूँ?
अगर किसी औरत के साथ चक्‍कर का मामला रहता तो हरगिज माफ नहीं करती। पर यहाँ मामला दूसरा था।औरत तो थी, मगर पति के साथ। और इनका खुद का भी मामला अजीब था।
रात को मैंने इन्‍हें हाथ तक नहीं लगाने दिया, ये भी खिंचे रहे।
मैं चाह रही थी कि ये मुझसे बोलें ! बताएँ, क्‍या बात है। मैं बीवी हूँ, मेरे प्रति जवाबदेही बनती है।
मैं ज्‍यादा देर तक मन में क्षोभ दबा नहीं सकती, तो अगले दिन गुस्‍सा फूट पड़ा।
ये बस सुनते रहे।
अंत में सिर्फ इतना बोले,"तुम्‍हें मेरे निजी कागजों को हाथ लगाने की क्‍या जरूरत थी? दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़नी चाहिए।"
मैं अवाक रह गई।
अगले आने वाले झंझावातों के क्रम में धीरे धीरे वास्‍तविकता की और इनके सोच और व्‍यवहार की कड़ियाँ जुड़ीं, मैं लगभग सदमे में रही, फिर हैरानी में।
हँसी भी आती यह आदमी इतना भुलककड़ और सीधा है कि अपनी चिट्ठी तक मुझसे नहीं छिपा सका और इसकी हिम्‍मत देखो, कितना बड़ा ख्‍वाब !
एक और शंका दिमाग में उठती- ईमेल का प्रिंट लेने और उसे घर लेकर आने की क्या जरूरत थी, वो तो ऐसे ही गुप्त और सुरक्षित रहता?
कहीं इन्होंने जानबूझकर तो ऐसा नहीं किया? कि मुझे उनके इरादे का खुद पता चल जाए, उन्हें मुँह से कहना नहीं पड़े?
जितना सोचती उतना ही लगता कि यही सच है। ओह, कैसी चतुराई थी !!
"तुम क्‍या चाहते हो?" , "मुझे तुमसे यह उम्‍मीद नहीं थी" , "मैं सोच भी नहीं सकती" , "तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्‍यार का यही सिला दे रहे हो?" , "तुमने इतना बड़ा धक्‍का दिया है कि जिंदगीभर नहीं भूल पाऊँगी?"
मेरे तानों, शिकायतों को सुनते, झेलते ये एक ही स्‍पष्‍टीकरण देते," मैं तुम्‍हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो, तुमसे बढ़कर कोई नहीं। अब क्‍या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं किसी औरत से छिपकर संबंध तो नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्‍हें चाहता हूँ।"
तिरस्‍कार से मेरा मन भर जाता। प्‍यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?
"मैं तुम्‍हें विश्‍वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।"
मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्‍यों कर रहे थे?
"मेरी सारी कल्‍पना तुम्‍हीं में समाई हैं। तुम्‍हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता।"
"यह धोखा नहीं है, तुम सोचकर देखो। छुपकर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्‍वास से हम कुछ भी कर सकते हैं।"
"हम संस्‍कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्‍वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्‍हें एंजाय करे और मुझे तुम्‍हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्‍नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्‍या मैं तुम्‍हें किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?"
यह सब पोटने-फुसलाने वाली बातें थीं, मु्झे किसी तरह तैयार कर लेने की। मुझे यह बात ही बरदाश्‍त से बाहर लगती थी। मैं सोच ही नहीं सकती कि कोई गैर मर्द मेरे शरीर को हाथ भी लगाए। होंगी वे और औरतें जो इधर उधर फँसती, मुँह मारती चलती हैं।
पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्‍य हो जाती है। मैं सुन लेती थी, अनिच्‍छा से। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस 'ऐसा हो सकता है', 'कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो', 'बात ऐसी नही, वैसी है', वगैरह वगैरह।
मैं देखती कि उच्‍च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।
अपनी बातों को तर्क का आधार देते : " पति-पत्‍नी में कितना भी प्रेम हो, सेक्‍स एक ही आदमी से धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्‍छी लगती हो, या मैं तुम्‍हें अच्‍छा नहीं लगता, जरूर, बहुत अच्‍छे लगते हैं, पर..."
"पर क्‍या?" मन में कहती सेक्‍स अच्‍छा नहीं लगता तो क्‍या दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।
"कुछ नहीं..." अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल.... उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !
पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्‍ताव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्‍हारे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?
दिन, हफ्ते, महीने वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्‍ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं।
लेकिन जल्‍दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्‍तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस ललित नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था।
अब उत्‍तेजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो।
मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्‍तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्‍यों हो जाती हूँ।
कभी कभी उनकी बातों पर विश्‍वास करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्‍वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है।
पर दाम्‍पत्‍य जीवन की पारस्‍परिक निष्‍ठा इसमें कहाँ है?
तर्क‍-वितर्क, परम्‍परा से मिले संस्‍कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्‍त्री-मन के भय, गृहस्‍थी की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्‍तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस ललित नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था।
अब उत्‍तेजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो।
मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्‍तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्‍यों हो जाती हूँ।
कभी कभी उनकी बातों पर विश्‍वास करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्‍वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है।
पर दाम्‍पत्‍य जीवन की पारस्‍परिक निष्‍ठा इसमें कहाँ है?
तर्क‍-वितर्क, परम्‍परा से मिले संस्‍कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्‍त्री-मन के भय, गृहस्‍थी की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्‍छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्‍वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्‍छा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते। "अब क्‍या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ, पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!"
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया," मैं तुम्‍हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?"
मैं रूठने लगी।
इन्‍होंने मजाक किया,"मैं बतलाता हूँ कौन ज्‍यादा सुखी होगा ! वो होगी तुम !"
"जाओ... !" मैंने गुस्‍से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया।
पर इन्‍होंने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्‍होंने अंदर भेजते हुए कहा,"मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा ... "
मैंने उनके मुँह पर मुँह जमाकर बोलने से रोकना चाहा पर...
"सात इंच का है।" कहते हुए वे आवेश में आ गए, धक्‍के लगाने लगे।
हांफते हुए उन्‍होंने जोड़ा," पूरा अंदर तक मार करेगा, साला।"
कहते हुए वे पागल होकर जोर जोर से धक्‍के लगाते हुए स्‍खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौखला उठी। जैसे तेज नशे की कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
'ओह'.. से तुरंत 'आ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ह' का सफर ! मेरे अंदर भरते इनके गर्म लावे के तुरंत बाद ही मैं भी किसी मशीनगन की तरह तड़ तड़ छूट रही थी। मैंने जाना कि शरीर की अपनी मांग होती है, वह किसी नैतिकता, संस्‍कार, तर्क कुतर्क की नहीं सुनता।
उत्‍तेजना के तप्‍त क्षणों में उसका एक ही लक्ष्‍य होता हैचरम सुख।
धीरे धीरे यह बात टालने की सीमा से आगे बढ़ती गई। लगने लगा कि यह चीज कभी किसी न किसी रूप में आना ही चाहती है। बस मैं बच रही हूँ। लेकिन पता नहीं कब तक।
इनकी बातों में इसरार बढ़ रहा था। बिस्‍तर पर हमारी प्रेमक्रीड़ा में मुझे चूमते, मेरे बालों को सहलाते, मेरे स्‍तनों से खेलते हुए, पेट पर चूमते हुए, बाँहों, कमर से बढ़ते अंतत: योनि की विभाजक रेखा को जीभ से टटोलते, चूमते हुए बार बार 'कोई और कर रहा है !' की याद दिलाते। खासकर योनि और जीभ का संगम, जो मुझे बहुत ही प्रिय है, उस वक्‍त तो उनकी किसी बात का विरोध मैं कर ही नहीं पाती। बस उनके जीभ पर सवार वो जिधर चलाए ले जाते जाते मैं चलती चली जाती। उस संधि रेखा पर एक चुम्‍बन और 'कितना स्‍वादिष्‍ट' के साथ 'वो तो इसकी गंध से ही मदहोश हो जाएगा !' की प्रशंसा, या फिर जीभ से अंदर की एक गहरी चाट लेकर 'कितना भाग्यशाली होगा वो !'
मैं सचमुच उस वक्‍त किसी बिना चेहरे के 'वो' की कल्‍पना कर उत्‍तेजित हो जाती। वो मेरे नितम्‍बों की थरथराहटों, भगनासा के बिन्‍दु के तनाव से भाँप जाते। अंकुर को जीभ की नोक से चोट देकर कहते- 'तुम्‍हें इस वक्‍त दो और चाहिए जो इनका (चूचुकों को पकड़कर) ध्‍यान रख सके। मैं उन दोनों को यहाँ पर लगा दूँगा।'
बाप रे... तीनों जगहों पर एक साथ ! मैं तो मर ही जाऊँगी !
मैं स्‍वयं के बारे में सोचती थी कैसे शुरू में सोच में भी भयावह लगने वाली बात धीरे धीरे सहने योग्‍य हो गई थी। अब तो उसके जिक्र से मेरी उत्‍तेजना में संकोच भी घट गया था। इसकी चर्चा जैसे जैसे बढ़ती जा रही थी मुझे दूसरी चिंता सताने लगी थी। क्‍या होगा अगर इन्‍होंने एक बार ले लिया यह सुख। क्‍या हमारे स्‍वयं के बीच दरार नहीं पड़ जाएगी? बार-बार करने की इच्‍छा नहीं होगी? लत नहीं लग जाएगी?
अपने पर भी कभी कभी डर लगता, कहीं मैं ही न इसे चाहने लगूँ। मैंने एक दिन इनसे झगड़े में कह भी दिया,"देख लेना, एक बार हिचक टूट गई तो मैं ही न इसमें बढ़ जाऊँ ! मुझे देने वाले सैंकड़ों मिलेंगे।"
उन्‍होंने डरने के बजाए उस बात को तुरन्त लपक लिया,"वो मेरे लिए बेहद खुशी का दिन होगा। तुम खुद चाहो, यह तो मैं कब से चाहता हूँ।"
फिर मजाक किया,"तुम्‍हारे लिए मर्दों की लाइन लगा दूँगा।"
मैंने तिलमिलाकर व्‍यंग्य किया,"और तुम क्‍या करोगे, मेरी दलाली?"
"गुस्‍सा मत करो ! मैंने तो मजाक किया। हम क्‍या नहीं देखेंगे कि बात हद से बारह न निकले? हम कोई बच्‍चे तो नहीं हैं। जो कुछ भी करेंगे, सोच समझकर और नियंत्रण के साथ !"
नियंत्रण के साथ अनियंत्रित होने का खेल। कैसी विचित्र बात !
अब मैं विरोध कम ही कर रही थी। बीच-बीच में कुछ इस तरह से वार्तालाप हो जाती मानों हम यह करने वाले हों और आगे उसमें क्‍या क्‍या कैसे कैसे करेंगे इस पर विचार कर रहे हों।
पर मैं अभी भी संदेह और अनिश्‍चय में थी। गृहस्‍थी दाम्पत्‍य-स्‍नेह पर टिकी रहती है, कहीं उसमें दरार न पड़ जाए। पति-पत्‍नी अगर शरीर से ही वफादार न रहे तो फिर कौन सी चीज उन्‍हें अलग होने से रोक सकती है?
एक दिन हमने एक ब्‍लू फिल्‍म देखी जिसमें पत्‍नियों प्रेमिकाओं की धड़ल्‍ले से अदला-बदली दिखाई जा रही थी। सारी क्रिया के दौरान और उसके बाद जोड़े बेहद खुश दिख रहे थे। उसमें सेक्‍स कर रहे मर्दों के बड़े बड़े लिंग देखकर 'इनके' कथन 'उसका तो सात इंच का है।' की याद आ रही थी।
विनोद के औसत साइज के पांच इंच की अपेक्षा उस सात इंच के लिंग की कल्‍पना को दृश्‍य रूप में घमासान करते देखकर मैं बेहद गर्म हो गई थी। मैंने जीवन में पति के सिवा किसी और के साथ किया नहीं था। यह वर्जित दृश्‍य मुझे हिला गया था। उस रात हमारे बीच बेहद गर्म क्रीड़ा चली। फिल्‍म के खत्म होने से पहले ही मैं आतुर हो गई थी। मेरी साँसें गर्म और तेज हो गई थीं, जबकि विनोद खोए-से उस दृश्‍य को देख रहे थे, संभवत: कल्‍पना में उन औरतों में कहीं पर मुझे रखते हुए।
मैंने उन्‍हें खींचकर अपने से लगा लिया था। संभोग क्रिया के शुरू होते न होते मैं उनके चुम्‍बनों से ही मंद-मंद स्खलित होना शुरू हो गई थी। लिंग-प्रवेश के कुछ क्षणों के बाद तो मेरे सीत्‍कारों और कराहटों से कमरा गूंज रहा था, मैं खुद को रोकने की कोशिश कर रही थी कि आवाज बाहर न चली जाए।
सुनकर उनका उत्‍साह दुगुना हो गया था। उस रात हम तीन बार संभोगरत हुए। विनोद ने कटाक्ष भी किया कि,"कहती तो हो कि नहीं चाहते हैं, और यह क्‍या है?"
उस रात के बाद मैंने प्रकट में आने का फैसला कर लिया। विनोद को कह दिया– 'सिर्फ एक बार ! वह भी सिर्फ तुम्‍हारी खातिर। केवल आजमाने के लिए। मैं इन चीजों में नहीं पड़ना चाहती।'
मेरे स्‍वर में स्‍वीकृति की अपेक्षा चेतावनी थी।
उस दिन के बाद से वे जोर-शोर से ललित-शीला के अलावा किसी और उपयुक्‍त दम्‍पति के तलाश में जुट गए। ऑर्कुट, फेसबुक, एडल्‍टफ्रेंडफाइ... न जाने कौन कौन सी साइटें। उन दंपतियों से होने वाली बातों की चर्चा सुनकर मेरा चेहरा तन जाता, वे मेरा डर और चिंता दूर करने की कोशिश करते,"मेरी कई दंपतियों से बात होती है। वे कहते हैं वे इस तजुर्बे के बाद बेहद खुश हैं। उनके सेक्‍स जीवन में नया उत्साह आ गया है। जिनका तजुर्बा अच्‍छा नहीं रहा उनमें ज्‍यादातर अच्‍छा युगल नहीं मिलने के कारण असंतुष्‍ट हैं।
मेरे एक बड़े डर कि 'दूसरी औरत के साथ उनको देखकर मुझे ईर्ष्‍या नहीं होगी?' वे कहते 'जिनमें आपस में ईर्ष्‍या होती है वे इस जीवन शैली में ज्‍यादा देर नहीं ठहरते, इसको एक समस्‍या बनने देने से पहले ही बाहर निकल जाते हैं। ऐसा हम भी कर सकते हैं।'
मैं चेताती- 'समस्‍या बने न बने, सिर्फ एक बार... बस।'
उसी दंपति ललित-शीला से सबसे ज्‍यादा बातें चैटिंग वगैरह हो रही थी। सब कुछ से तसल्‍ली होने के बाद उन्‍होंने उनसे मेरी बात कराई। औरत कुछ संकोची-सी लगी, पर पुरुष परिपक्‍व तरीके से संकोचहीन।
मैं कम ही बोली, उसी ने ज्‍यादा बात की, थोड़े बड़प्‍पन के भाव के साथ। मुझे वह 'तुम' कहकर बुला रहा था। मुझे यह अच्‍छा लगा। मैं चाहती थी कि वही पहल करने वाला आदमी हो। मैं तो संकोच में रहूँगी। उसकी पत्नी से बात करते समय विनोद अपेक्षाकृत संयमित थे। शायद मेरी मौजूदगी के कारण। मैंने सोचा अगली बार से उनकी बातचीत के दौरान मैं वहाँ से हँट जाऊँगी।
उनकी तस्‍वीरें अच्‍छी थीं। ललित अपनी पत्‍नी की अपेक्षा देखने में चुस्‍त और स्‍मार्ट था और उससे काफी लम्‍बा भी। मैं अपनी लंबाई और बेहतर रंग-रूप के कारण उसके लिए शीला से कहीं बेहतर जोड़ी दिख रही थी।
विनोद ने इस बात को लेकर मुझे छेड़ा भी- 'क्‍या बात है भई, तुम्‍हारा लक तो बढ़िया है !'
मिलने के प्रश्‍न पर मैं चाहती थी पहले दोनों दंपति किसी सार्वजनिक जगह में मिलकर फ्री हो लें। ललित को कोई एतराज नहीं था पर उन्‍होंने जोड़ा," पब्‍लिक प्‍लेस में क्‍यों, हमारे घर ही आ जाइये। यहीं हम 'सिर्फ दोस्‍त के रूप में' मिल लेंगे।"
'सिर्फ दोस्‍त के रूप में' को वह थोड़ा अलग से हँसकर बोला। मुझे स्‍वयं अपना विश्‍वास डोलता हुआ लगाक्‍या वास्‍तव में मिलना केवल फ्रेंडली तक रहेगा? उससे आगे की संभावनाएँ डराने लगीं...
मिलने के प्रश्‍न पर मैं चाहती थी पहले दोनों दंपति किसी सार्वजनिक जगह में मिलकर फ्री हो लें। ललित को कोई एतराज नहीं था पर उन्‍होंने जोड़ा," पब्‍लिक प्‍लेस में क्‍यों, हमारे घर ही आ जाइये। यहीं हम 'सिर्फ दोस्‍त के रूप में' मिल लेंगे।"
'सिर्फ दोस्‍त के रूप में' को वह थोड़ा अलग से हँसकर बोला। मुझे स्‍वयं अपना विश्‍वास डोलता हुआ लगाक्‍या वास्‍तव में मिलना केवल फ्रेंडली तक रहेगा? उससे आगे की संभावनाएँ डराने लगीं...
उसके ढूंढते होंठ... मेरे शरीर को घेरती उसकी बाँहें... स्‍तनों पर से ब्रा को खींचतीं परायी उंगलियां, नंगी होती हुई मैं उसकी नजरों से बचने के लिए उसके ही बदन में छिपती... दावा जताता, मेरे पैरों को विवश करता मुझमें उसका प्रवेश... आश्‍चर्य हुआ, क्‍या सचमुच ऐसा हो सकता है? संभावना से ही मेरे रोएँ खड़े हो गए।
आगामी शनिवार की शाम उनके घर पर, हमने कह दिया था कि हम सिर्फ मिलने आ रहे हैं, इसमें सेक्‍स का कोई वादा नहीं है, अगर इच्‍छा हुई तो करेंगे नहीं तो सिर्फ दोस्‍ताना मुलाकात !
ऊपर से संयत, अंदर से शंकित, उत्‍तेजित, मैं उस दिन के लिए मैं तैयार होने लगी। विनोद आफिस चले जाते तो मैं ब्‍यूटी पार्लर जाती - भौहों की थ्रेडिंग, चेहरे का फेशियल, हाथों-पांवों का मैनीक्‍योर, पैडीक्‍योर, हाथ-पांवों के रोओं की वैक्‍सिंग, बालों की पर्मिंग...।
गृहिणी होने के बावजूद मैं किसी वर्किंग लेडी से कम आधुनिक या स्‍मार्ट नहीं दिखना चाहती थी। मैं विनोद से कुछ छिपाती नहीं थी पर उनके सामने यह कराने में शर्म महसूस होती। बगलों के बाल पूरी तरह साफ करा लेने के बाद योनिप्रदेश के उभार पर बाल रखूँ या नहीं इस पर कुछ दुविधा में रही।
विनोद पूरी तरह रोमरहित साफ सुथरा योनिप्रदेश चाहते थे, जबकि मेरी पसंद हल्‍की-सी फुलझड़ी शैली की थी जो होंठों के चीरे के ठीक ऊपर से निकलती हो।
मैंने अपनी सुनी।
मैंने विनोद की भी जिद करके फेशियल कराई। उनके असमय पकने लगे बालों में खुद हिना लगाई। मेरा पति किसी से कम नहीं दिखना चाहिए। विनोद कुछ छरहरे हैं। उनकी पाँच फीट दस इंच की लम्‍बाई में छरहरापन ही निखरता है। मैं पाँच फीट चार इंच लम्‍बी, न ज्‍यादा मोटी, न पतली, बिल्‍कुल सही जगहों पर सही अनुपात में भरी : 36-26-37, स्‍त्रीत्‍व को बहुत मोहक अंदाज से उभारने वाली मांसलता के साथ सुंदर शरीर।
पर जैसे-जैसे समय नजदीक आता जा रहा था अब तक गौण रहा मेरे अंदर का वह भय सबसे प्रबल होता जा रहा था- वह आदमी मुझको बिना कपड़ों के, नंगी देखेगा, सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे, लेकिन साथ ही मैं उत्‍तेजित भी थी।
शनिवार मिलने के दिन के ठीक पहले की रात को बहुत मन होने के बावजूद विनोद को चुम्बनों, चाटों, मसलनों से आगे नहीं बढ़ने दिया, ताकि अगर कल हम सेक्‍स में उतरे, जिसकी संभावना बिल्‍कुल थी, तो आनंददायी मुख मैथुन के लिए योनि गीली पिच पिच नहीं रहे।
शनिवार... आज शाम...
विनोद बेहद उत्‍साहित थे, मैं भयभीत, पर उत्‍तेजित !
जब मैं बाथरूम से तौलिये में लिपटी निकली, तभी से विनोद मेरे इर्द गिर्द मंडरा रहे थे- 'ओह क्‍या खूशबू है। आज तुम्‍हारे बदन से कोई अलग ही खुशबू निकल रही है।'
मैं उन्‍हें रह रहकर 'ए:' की प्‍यार की डाँट लगा रही थी। मैंने कहीं बायलोजी की निचली कक्षा में पढ़ा तो था कि कामोत्‍सुक स्‍त्री के शरीर से कोई विशेष उत्‍तेजक गंध निकलती थी, पर पता नहीं वह सच है या गलत।
क्‍या पहनूँ? इस बात पर सहमत थी कि मौके के लिए थोड़ा 'सेक्‍सी' ड्रेस पहनना उपयुक्‍त होगा। विनोद ने अपने लिए मेरी पसंद की इनफार्मल टी शर्ट और जीन्‍स चुनी थी।
अफसोस, लड़कों के पास कोई सेक्‍सी ड्रेस नहीं होता !
खैर, वे इसमें स्‍मार्ट दिखते हैं।
पारदर्शी तो नहीं, पर लेसवाली किंचित जालीदार ब्रा, पीच और सुनहले की बीच के रंग की। पीठ पर उसकी स्‍ट्रैप लगाते हुए सामने आइने में अपने तने स्‍तनों और जाली के बीच से आभास देती गोराई को देखकर मैं पुन: सिहर गई। कैसे आ सकूंगी इस रूप में उसके सामने ! बहुत सुंदर, बहुत उत्‍तेजक लग रही थी मैं। लेकिन इसकी जगह अंतरंगता भरी गोपनीयता में थी। आज उसे सबके सामने कैसे लाऊँगी।पता नहीं कैसे मैंने मन ही मन मान लिया था कि आज 'काम' होगा ही।
मन के भय, शर्म और रोमांच को दबाते हुए मैंने चौड़े और गहरे गले की स्‍लीवलेस ब्‍लाउज पहनी, कंधे पर बाहर की तरफ पतली पट्टियाँ ब्‍लाउज क्‍या थी, वह ब्रा का ही थोड़ा परिवर्द्धित रूप थी।उसमें स्‍तनों की गहरी घाटी और कंधे के खुले हिस्‍सों का उत्‍तेजक सौंदर्य खुलकर प्रकट हो रहा था। उसका प्रभाव बढ़ाते हुए मैंने गले में बड़े मोतियों का हार पहना, कानों में उनसे मैच करते इयरिंग्स।
मुझे विनोद पर गुस्‍सा भी आ रहा था कि यह सब किसी और के लिए कर रही हूँ। वे उत्‍साहित के साथ कुछ डरे से भी थे। मैं उन्‍हें उलाहनों और चेतावनियों, कि 'बस, आज ही भर के लिए,' से डराकर उन्‍हें अपने वश में रखे थी। एक बार उन्‍होंने सहमे हुए शिकायत भी कि इतना क्‍यों सुना रही हो।
फिर भी वे माहौल हल्‍का रखने की कोशिश में थे। मेरी ब्रा की सेट लगी मैचिंग जालीदार पैंटी उठाकर उन्‍होंने पूछा," इसको पहनने की जरूरत है क्‍या?"
मैंने सुनाया,"तुम्‍हारा बस चले तो मुझे नंगी ही ले जाओ।"
पीच कलर का ही साया, और उसके ऊपर शिफ़ॉन की अर्द्धपारदर्शी साड़ीजिसे मैंने नाभि से कुछ ज्‍यादा ही नीचे बांधी थी, कलाइयों में सुनहरी चूड़ियाँ, एड़ियों में पायल और थोड़ी हाई हील की डिजाइनदार सैंडल।
मैं किसी ऋषि का तपभंग करने आई गरिमापूर्ण उत्‍तेजक अप्‍सरा सी लग रही थी।
हम ड्राइव करके ललित और शीला के घर पहुँच गए।
घर सुंदर था, आसपास शांति थी। न्‍यू टाउन अभी नयी बन रही पॉश कॉलोनी थी। घनी आबादी से थोड़ा हट कर, खुला-खुला शांत इलाका।
दोनों दरवाजे पर ही मिले। 'हाइ' के बाद दोनों मर्दों ने अपनी स्‍त्रियों का परिचय कराया और हमने बढ़कर मुस्‍कुराते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाए। मुझे याद है कैसे शीला से हाथ मिलाते वक्‍त विनोद के चहरे पर चौड़ी मुस्‍कान फैल गई थी। वे हमें अपने लिविंग रूम में ले गए। घर अंदर से सुरुचिपूर्ण तरीके से सज्‍जित था।
"कैसे हैं आप लोग ! ","कोई दिक्‍कत तो नहीं हुई आने में"
कुछ हिचक के बाद बातचीत का सिलसिला बनने लगा।
बातें घर के बारे में, काम के बारे में, ताजा समाचारों के बारे में... ललित ही बात करने में लीड ले रहे थे। बीच में जरूर व्‍यक्‍तिगत बातों की ओर उतर जाते। एक सावधान खेल, स्‍वाभाविकता का रूप लिए हुए...
"बहुत दिन से बात हो रही थी, आज हम लोग मिल ही लिए !"
"इसका श्रेय इनको अधिक जाता है।" विनोद ने मेरी ओर इशारा किया।
"हमें खुशी है ये आईं !" मैं बात को अपने पर केन्‍द्रित होते शर्माने लगी।
ललित ने ठहाका लगाया,"आप आए बहार आई !"
शीला जूस, नाश्‍ता कुछ ला रही थी। मैंने उसे टोका," तकल्‍लुफ मत कीजिए !"
बातें स्‍वाभाविक और अनौपचारिक हो रही थीं। ललित की बातों में आकर्षक आत्‍मविश्‍वास था। बल्‍कि पुरुष होने के गर्व की हल्‍की सी छाया, जो शिष्‍टाचार के पर्दे में छुपी बुरी नहीं लग रही थी। वह मेरी स्‍त्री की अनिश्‍चित मनःस्‍थिति को थोड़ा इत्मिनान ही दे रही थी।उसके साथ अकेले होना पड़ा तो मैं अपने को उस पर छोड़ सकूँगी।
ललित ने हमें अपना घर दिखाया। उसने इसे खुद ही डिजाइन किया था। घुमाते हुए वह मेरे साथ हो गया था। शीला विनोद के साथ थी। मैं देख रही थी वह भी मेरी तरह शरमा-घबरा रही है, इस बात से मुझे राहत मिली।
बेडरूम की सजावट में सुरुचि सुंदर के साथ उत्‍तेजकता का मिश्रण था। दीवारों में कुछ नग्‍न अर्द्धनग्‍न स्‍त्रियों के कलात्‍मक पेंटिंग। बड़ा सा पलंग।
ललित ने मेरा ध्‍यान उसकी बगल की दीवार में लगे एक बड़े आइने की ओर खींचा," यहाँ पर एक यही चीज सिर्फ मेरी च्‍वाइस है। शीला तो अभी भी ऐतराज करती है।"
"धत्त.." कहती हुई शीला लजाई।
"और यह नहीं?" शीला ने लकड़ी के एक छोटे से कैबिनेट की ओर इशारा किया।
"इसमें क्‍या है?" मैं उत्‍सुक हो उठी।
"सीक्रेट चीज ! वैसे आपके काम की भी हो सकती है, अगर..."
मैंने दिखाने की जिद की।
"देखेंगी तो लेना पड़ेगा, सोच लीजिए।"
मैं समझ गई," रहने दीजिए !"
हमने उन्‍हें बता दिया था कि हम ड्रिंक नहीं करते।
लौटे तो ललित इस बार सोफे पर मेरे साथ ही बैठे, उसने चर्चा छेड़ दी कि इस 'साथियों के विनिमय' के बारे में मैं क्‍या सोचती हूँ।
मैं तब तक इतनी सहज हो चुकी थी कि कह सकूँ कि मैं तैयार हूँ पर थोड़ा डर है मन में।
यह कहना अच्‍छा नहीं लगा कि मैं यह विनोद की इच्‍छा से कर रही हूँ, लगा जैसे यह अपने को बरी करने की कोशिश होगी।
"यह स्‍वाभाविक है !" ललित ने कहा," पहले पहल ऐसा लगता है।"
मैंने देखा सामने सोफे पर विनोद और शीला मद्धिम स्‍वर में बात कर रहे थे। उनके सिर नजदीक थे। मैंने स्‍वीकार किया कि विनोद तो तैयार दिखते हैं पर मुझे पता नहीं उन्‍हें शीला के साथ करते देख कैसा लगेगा।
उन्‍होंने पूछा कि क्‍या कभी मैंने दूसरे पुरुष से सेक्‍स किया है, शादी से पहले या बाद?
"नहीं, कभी नहीं... यह पहली ही बार है।" बोलते ही मैं पछताई, अनायास ही मेरे मुख से आज ही सेक्‍स की बात निकल गई।
पर ललित ने उसका कोई लाभ नहीं उठाया।
"मुझे उम्‍मीद है आपको अच्‍छा लगेगा।" फिर थोड़ा ठहरकर," बहुत से लोग इसमें हैं। आज नेट और मोबाइल के युग में संपर्क करना आसान हो गया है। सभी उम्र के सभी तरह के लोग इसको कर रहे हैं।"
उन्होंने 'स्‍विंगिंग पार्टियों' के बारे में बताया जहाँ सामूहिक रूप से लोग साथी बदल-बदल करते हैं।
मैंने पूछना चाहा 'आप गए हैं उसमें' लेकिन दबा गई।
ललित ने औरत औरत के सेक्‍स की बात उठाई, पूछा- मुझे कैसा लगता है?
"शुरू में जब मैंने इसे ब्‍लू फिल्‍मों में देखा था। उस समय आश्‍चर्य हुआ था।"
"अब?"
"अम्‍म्‍म्‍, पता नहीं, कभी ऐसी बात नहीं हुई, पता नहीं कैसा लगेगा।"
मैं धीरे धीरे खुल रही थी। उनकी बातें आश्‍वस्‍त कर रही थीं। शीला ने बताया कि कई लोग पहली बार करने वालों से 'स्‍वैप' नहीं करना चाहते, डरते हैं कि खराब अनुभव न हो। पर हम उन्‍हें अच्‍छे लग रहे थे।
अजीब लग रहा था कि मैं अपने पति नहीं किसी दूसरे पुरुष के साथ बैठी सेक्‍स की व्‍यक्‍तिगत बातें कर रही थी। मेरे सामने मेरा पति एक दूसरी औरत के साथ बैठा था।
मैं अपने अंदर टटोल रही थी मुझे कोई र्इर्ष्‍या महसूस हो रही है कि नहीं। शायद थोड़ी सी, पर दुखद नहीं, अजीब सी...
शीला उठी, कुछ नाश्‍ता ले आई। प्‍लेट में चिप्‍स, चीज रोल... ठंडा पेय... मुझे लगा वाइन साथ में न होने का ललित-शीला को जरूर अफसोस हो रहा होगा।
शाम सुखद गुजर रही थी। ललित-शीला बड़े अच्‍छे से मेहमाननवाजी कर रहे थे। न इतना अधिक कि संकोच में पड़ जाऊँ, न ही इतना कम कि अपर्याप्‍त लगे।
आरंभिक संकोच और हिचक के बाद अब बातचीत की लय कायम हो गई थी। ललित मेरे करीब बैठे थे। बात करने में उनके साँसों की गंध भी मिल रही थी। एक बार शायद गलती से या जानबूझकर उसने मेरे ही ग्‍लास से कोल्‍ड ड्रिंक पी लिया। तुरंत ही 'सॉरी' कहा। मुझे उसी के जूठे ग्‍लास से पीने में अजीब कामुक सी अनुभूति हुई।
काफी देर हो चुकी थी-
"अब चलना चाहिए।"
ललित ताज्‍जुब से बोले,"क्‍या कह रही हो? अभी तो हमने शाम एंजाय करना शुरू ही किया है। आज रात ठहर जाओ, सुबह चले जाना।" शीला ने भी जोर दिया,"हाँ हाँ, आज नहीं जाना है। सुबह जाइयेगा।"
मैंने विनोद की ओर देखा।
उनकी जाने की कोई इच्‍छा नहीं थी। शीला ने उनको एक हाथ से घेर लिया।
"मैं... हम कपड़े नहीं लाए हैं।" मुझे अपना बहाना खुद कमजोर लगा।
"कपड़े? आज उसकी जरूरत है क्‍या?" ललित ने चुटकी ली, फिर बोले,"ठीक है, तुम शीला की नाइटी पहन लेना, विनोद मेरा पैंट ले लेंगे ... अगर ऐतराज न हो..."
"नहीं, ऐतराज की क्‍या बात है, लेकिन..."
"ओह, कम ऑन..."
अब मैं क्‍या कह सकती थी।
शीला मुझे शयनकक्ष में ले गई। उसके पास नाइटवियर्स का अच्‍छा संग्रह था। पर वे या तो बहुत छोटी थीं, या पारदर्शी। उसने मेरे संकोच को देखते हुए मुझे पूरे बदन की नाइटी दी। पारदर्शी थी, मगर टू पीस की दो तहों से थोड़ी धुंधलाहट आ जाती थी। अंदर की पोशाक कंधे पर पतले स्‍ट्रैप और स्‍तनों के आधे से भी नीचे जाकर शुरू होने वाली। इतनी हल्‍की और मुलायम कपड़े की थी कि लगा बदन में कुछ पहना ही नहीं। गले पर काफी नीचे तक जाली का सुंदर काम था, उसके अंदर ब्रा से नीचे मेरा पेट साफ दिख रहा था, पैंटी भी।
मेरी शर्म यह झीनी नाइटी नहीं, ब्रा और पैंटी ही बचा रही थीं, नहीं तो चूचुक और योनि के होंठ तक पता चलते। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी, पर शीला ने जिद की,"बहुत सुंदर लग रही हो, मत उतारो। अरे क्‍या है, रोज थोड़े ही करते हैं।"
सचमुच मैं सुंदर लग रही थी, लेकिन अपने खुले बदन को देखकर कैसा तो लग रहा था। इसका आनन्द दूसरा पुरुष उठाएगा यह सोचकर झुरझुरी आ रही थी।
मैं शीला से बेहतर थी।
शीला अपनी बारी आने पर भद्र कपड़े चुनने लगी।
मैंने उसे रोका- मुझे फँसाकर बचना चाहती हो?
मैंने उसके लिए टू पीस का एक रात्रि वस्‍त्र चुना। हॉल्‍टर (नाभि तक आने वाली) जैसी टॉप, नीचे घुटनों के ऊपर तक की पैंट। वह मुझसे अधिक खुली थी, पर अपनी झीनी नाइटी में उससे अधिक नंगी मैं ही महसूस कर रही थी। उसका खुला-सा बदन देखकर एक क्षण के लिए कैसा तो लगा। विनोद का खयाल आया, फिर अपने सौंदर्य पर गर्व भी हुआ। मैंने स्‍वयं को उत्‍तेजित महसूस किया।
ललित और विनोद पुराने दोस्‍तों की तरह साथ बैठे बात कर रहे थे। मुझे देखकर दोनों के चेहरे पर आश्‍चर्य उभरा, लेकिन असहज न हो जाऊँ इसके लिए प्रकटत: सामान्‍य भाव रखते हुए प्रशंसा करके मेरा उत्‍साह बढ़ाया।
अपनी नंगी-सी अवस्‍था को लेकर मैं बहुत आत्म चैतन्य हो रही थी। इस स्‍थिति में शिष्‍टाचार के शब्‍द भी मुझ पर नई तीव्रता के साथ असर कर रहे थे। ललित के शब्‍द 'नाइस', 'ब्‍यूटीफुल', के बाद 'वेरी वेरी सेक्‍सी' सीधे छेदते हुए मुझमें घुस गए।
फिर भी मैंने हिम्‍मत की़, उनकी तारीफ के लिए उन्‍हें 'थैंक्‍यू' कहा।
शीला ने कॉफी टेबल पर दो सुगंधित कैण्‍डल जलाकर बल्‍ब बुझा दिए। कमरा एक धीमी मादक रोशनी से भर गया।
ललित ने एक अंग्रेजी फिल्‍म लगा दी। मंद रोशनी में उसका संगीत खुशबू की तरह फैलने लगा।
मन में खीझ हुई, क्‍या हिन्‍दी में कुछ नहीं है! इस काम के लिए भी क्‍या अंग्रेजी की ही जरूरत है?
शीला विनोद के पास जाकर बैठ गई थी। कम रोशनी ने उन्‍हें और नजदीक होने की सुविधा दे दी थी। दोनों की आँखें टीवी के पर्दे पर लेकिन हाथ एक-दूसरे के हाथों में उलझे खेल रहे थे। विनोद ने शीला को अपने से सटा लिया था।
'करने दो उन्‍हें...!' मैंने उन दोनों की ओर से ध्‍यान हटा लिया। मैं धड़कते दिल से इंतजार कर रही थी, अगले कदम का। ललित मेरे पास बैठे थे।
कोई हल्‍की यौनोत्‍तेजक फिल्‍म थी। एकदम से ब्‍लू फिल्‍म नहीं जिसमें सीधा यांत्रिक संभोग ही चालू हो जाता है। नायक-नायिका के प्‍यार के दृश्‍य, समुद्रतट पर, पार्क में, कॉलेज हॉस्‍टल में, कमरे में...। किसी बात पर दोनों में झगड़ा हुआ और नायिका की तीखी चिल्लाहट का जवाब देने के क्रम में अचानक नायक का मूड बदला और उसने उसके चेहरे को दबोचकर उसे चूमना शुरू कर दिया।
ललित का बायाँ हाथ मेरी कमर के पीछे रेंग गया। मैं सिमटी, थोड़ा दूसरी तरफ झुक गई। ना नहीं जताना चाहती थी, पर मुझसे वैसा ही हो गया।
उनका हाथ वैसे ही रहा। मैं भी वैसे ही दूसरी ओर झुकी। सोच रही थी सही किया या गलत।
नायक भावावेश में चूम रहा था। नायिका ने पहले तो विरोध किया, मगर धीरे-धीरे जवाब देने लगी।
ललित ने अपना दाहिना हाथ मेरी हथेली पकड़ने के लिए बढ़ाया। इसमें उनका हाथ मेरे दाएँ उभार से टकरा गया। मैंने महसूस किया, वह हाथ थोड़ा धीमा पड़ा और उसे हल्‍के से रगड़ता निकल गया...
"यू हैव नाइस ब्रेस्‍ट्स..."
उस आधे अँधेरे में मैं शर्म से लाल हो गई। मैंने उनके हाथ से हाथ छुड़ाना चाहा। उनका बायाँ हाथ मेरी कमर में कस गया...
शर्म से मेरी कान की लवें गरम होने लगी। पूरी रोशनी में उनसे बात करना और बात थी। अब मंद रोशनी में एकदम से... ! मैं पर्दे की ओर देख रही थी, और वे मेरे चेहरे, मेरे कंधों को... मेरे कानों में सीटी-सी बजने लगी।
टीवी पर्दे पर लड़का-लड़की आलिंगन में बंध गए थे, दोनों का विह्वल चुम्बन जारी था। लड़की की पीठ से टॉप उठ गया था और लड़का उसकी नंगी पीठ पर ब्रा के फीते से खेल रहा था।
मैं 'क्‍या करूँ !' की जड़ता में थी। दिल धड़क रहा था।
इंतजार कर रही थी... क्‍या यहीं पर? उन दोनों के सामने?
उनके होंठ कुछ फुसफुसाते हुए मेरे कान के ऊपर मँडरा रहे थे। बालों में उनकी गर्म साँस भर रही थी... मैं शर्म या बचाव में आगे झुकी जा रही थी।
अचानक ललित हँस पड़े। एक तनाव-सा जो बन गया था, जरा हल्‍का हुआ। वे उठ खड़े हुए और साथ आने का इशारा किया।
मैं ठिठकी। कमरे के एकांत में उसके साथ अकेले होने के ख्याल से डर लगा। मैंने सहारे के लिए पति की ओर देखा, वह दूसरी औरत में खोया था। क्‍या करूँ? लेकिन यहाँ आई भी हूँ तो इसीलिए। स्‍वयं मेरे अंदर उत्‍पन्‍न हुई गरमाहट मुझे तटस्‍थ की स्‍थिति से आगे बढ़ने के लिए ठेल रही थी।
ललित ने मेरा हाथ खींचा...
किनारे रहने की सुविधा खत्‍म हो गई थी, अब धारा में उतरना ही था।
पर्दे पर लड़का-लड़की बदहवास से एक-दूसरे को चूम, सहला, भींच रहे थे। लड़की के धड़ से टॉप जा चुका था। उसके बदन से ब्रा झटके में टूटकर हवा में उछली और लड़का उसके वक्षों पर झुक गया। लड़की अपना पेड़ू उसके पेड़ू में रगड़ने लगी। पार्श्‍व संगीत में उनकी सिसकारियाँ गूंजने लगीं।
हॉल का झुटपुटा अंधेरा, सामने सोफे पर बैठे प्यासे औरत-मर्द, एक यौनोत्‍तेजित पराए पुरुष के साथ स्‍वयं मैं... मुझे लगा इन सबके बीच यह फिल्‍म जैसे कोई सिलसिला शुरू कर रही है जिसकी अगली कड़ी मुझ पर आती है। इससे पहले कि उनका सिलसिला समाप्‍त हो, मुझे स्‍वयं अपनी कड़ी शुरू कर देनी चाहिए... रिले दौड़ की तरह, जिसमें पहले धावक के दौड़ समाप्‍त होने से पहले ही दूसरे धावक को उससे बैटन ले लेना होता है।
मैंने मन ही मन उन अभिनेताओं को विदा कहा। दिल कड़ा करके उठ खड़ी हुई।
विनोद शीला में मग्‍न था। उसे पता भी नहीं चल पाया होगा कि उसकी पत्‍नी वहाँ से जा चुकी है, हालाँकि चलते हुए मेरी पायल बज रही थी।
शयनकक्ष के दरवाजे पर फिर एक भय और सिहरन... पर कमर में लिपटी ललित की बाँह मुझे आग्रह से ठेलती अंदर ले आई। मेरी पायल की हर छनक मेरी चेतना पर तबले की तरह चोट कर रही थी।
पाँव के नीचे नर्म गलीचे के स्‍पर्श ने मुझे होश दिलाया कि मैं कहाँ और किसलिए थी। मैं पलंग के सामने थी। पैंताने की तरफ दीवार पर बड़ा-सा आइना कमरे को प्रतिबिम्‍बित कर रहा था। रोमांटिक वतावरण था। दीवारों पर की अर्द्धनगन स्‍त्री छवियाँ मानो मुझे अपने में मिलने के लिए बुला रही थीं।
मैंने अपने पैरों के बीच फुक-फुक सी महसूस की...
मैं पीछे घूमी। ललित के होंठ सीधे मेरे होंठों के आगे आ गए। बचने के लिए मैं पीछे झुकी लेकिन पीछे मेरे पैर पलंग से अड़ गए। उनके होंठ स्वभावत: मुझसे जुड़ गए।
जब उनके होंठ अलग हुए तो मैंने देखा दरवाजा खुला था और विनोद-शालू के पाँव नजर आ रहे थे। शायद वे दोनों भी एक-दूसरे को चूम रहे थे। क्‍या विनोद भी चुंबन में डूब गए होंगे? क्‍या शालू मेरी तरह ललित के बारे में सोच रही होगी? पता नहीं। मैंने उनकी तरफ से ख्याल हटा लिया।
ललित पुन: चुंबन के लिए झुके। इस बार मन से संकोच को परे ठेलते हुए मैंने उसे स्‍वीकार कर लिया। एक लम्‍बा और भावपूर्ण चुंबन। मैंने खुद को उसमें डूबने दिया। उनके होंठ मेरे होंठों और अगल बगल को रगड़ रहे थे। उनकी जीभ मेरे मुँह के अंदर उतरी- मैंने अपनी जीभ से उसे टटोलकर उत्तर दिया। मेरी साँसें तेज हो गईं।
पतले कपड़े के ऊपर उनके हाथों का स्‍पर्श बहुत साफ महसूस हो रहा था। जब वे स्‍तनों पर उतरे तो मैं सब कुछ भूल जाने को विवश हो गई। मैंने अपनी बाँहों से रोकना चाहा लेकिन हो रहा अनुभव इतना सुखद था कि बाँहें शीघ्र शिथिल हो गईं। ब्रा के अंदर चूचुक मुड़ मुड़कर रगड़ खा रहे थे। मेरे स्‍तन हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और उनको थोड़ा सा भी छेडना मुझे उत्‍तेजित कर देता है। मेरे स्‍तन शीला से बड़े थे और ललित के बड़े हाथों में निश्‍चय ही वह अधिक मांसलता से समा रहा होगा। मुझे अपने बेहतर होने की खुशी हुई। मुझे भी उनकी विनोद से बड़ी हथेलियाँ बढ़ कर आनन्दित कर रही थीं। उनमें रुखाई नहीं थी- कोमलता के साथ एक आग्रह, मीठी-सी नहीं हटने की जिद।
मुझे लगा रातभर रुकने का निर्णय शायद गलत नहीं था। मन में 'यह सब अच्‍छा नहीं है' की जो कुछ भी चुभन थी वह कमजोर पड़ती जा रही था। मुझे याद आया कि हम चारों एक साथ बस एक दोस्‍ताना मुलाकात करने वाले थे। लेकिन मामला कुछ ज्‍यादा ही आगे बढ़ गया था। अब वापसी भला क्‍या होनी थी। मैंने चिंता छोड़ दी, जब इसमें हूँ तो एंजॉय करूँ।
ललित धीरे-धीरे पलंग पर मेरे साथ लंबे हो गए थे। वे मेरे होंठों को चूसते-चूसते उतरकर गले, गर्दन कंधे पर चले आते लेकिन अंत में फिर जाकर होंठों पर जम जाते।
उनका भावावेग देखकर मन गर्व और आनंद से भर रहा था। लग रहा था सही व्‍यक्‍ति के हाथ पड़ी हूँ।
लेकिन औरत की जन्‍मजात लज्‍जा छूटती नहीं थी। जब वे मेरे स्‍तनों को छोड़कर नीचे की ओर बढ़े तो मन सहम ही गया।
वे हौले-हौले मेरे पैरों को सहला रहे थे। तलवों को, टखनों को, पिंडलियों को... विशेषकर घुटनों के अंदर की संवेदनशील जगह को। धीरे-धीरे नाइटी के अंदर भी हाथ ले जा रहे थे। देख रहे थे मैं विरोध करती हूँ कि नहीं।
मैं लज्‍जा-प्रदर्शन की खातिर मामूली-सा प्रतिरोध कर रही थी। जब घूमते-घूमते उनकी उंगलियाँ अंदर पैंटी से टकराईं तो पुन: मेरी जाँघें कस गईं। मुझे लगा जरूर उन्‍होंने अंदर का गीलापन पकड़ लिया होगा। हाय, लाज से मैं मर गई।
उनके हाथ एक आग्रह और जिद में कोंचते रहे। मेरे पाँव धीरे-धीरे खुल गए।
शायद विनोद कहीं पास हों, काश वे आकर मुझे रोक लें। मैंने उन्‍हें खोजा... 'विनोदऽऽ !'
ललित हँसकर बोले," उसकी चिंता मत करो। अब तक उसने शीला को पटा लिया होगा।"
'पटा लिया होगा'... मैं भी 'पट' रही थी... कैसी विचित्र बात थी। अब तक मैंने इसे इस तरह देखा नहीं था।
ललित पैंटी के ऊपर से ही मेरा पेड़ू सहला रहे थे। मुझे शरम आ रही थी कि योनि कितनी गीली हो गई है, पर ललित ही तो इसके लिए जिम्‍मेदार थे। उनके हाथ पैंटी में से छनकर आते रस को आसपास की सूखी त्‍वचा पर फैला रहे थे। धीरे-धीरे जैसे पूरा शरीर ही संवेदनशील हुआ जा रहा था। कोई भी छुअन, कैसी भी रगड़ मुझे और उत्‍तेजित कर देती थी।
जब उन्‍होंने उंगली को होंठों की लम्‍बाई में रखकर अंदर दबाकर सहलाया तो मैं लगभग एक छोटे चरम सुख तक पहुँच गई थी। मेरी चिल्‍लाहटों को उन्‍होंने मेरे मुँह पर अपना मुँह रखकर दबा दिया।
"सुषमा , तुम ठीक तो हो ना?" मेरी कुछ क्षणों की मूर्च्‍छा से उबरने के बाद उन्‍होंने पूछा।
उन्‍होंने इस क्रिया के दौरान पहली बार मेरा नाम लिया था। उसमें थोड़े परिचय का साहस था।
"हाँ..." मैंने शर्माते हुए उत्‍तर दिया। मेरे जवाब से उनके मुँह पर मुसकान फैल गई, उन्‍होंने मुझे चूमा।
मेरी आँखें विनोद को खोजती एक क्षण के लिए व्‍यर्थ ही घूमीं और उन्‍होंने देख लिया।
"विनोद?" वे हँसे।
वे उठे और मुझे अपने साथ लेकर दरवाजे से बाहर आ गए। सोफे खाली थे। दूसरे बेडरूम से मद्धम कराहटों की आवाज आ रही थी... दरवाजा खुला ही था। पर्दे की आड़ से देखा... विनोद का हाथ शीला के खुले स्‍तनों पर था और सिर शीला की उठी टांगों के बीच। उसके चूचुक बीच बीच में प्रकट होकर चमक जाते।
अचानक जैसे शीला ने जोर से 'आऽऽऽऽऽह !' की और एक आवेग में नितम्‍ब उठा दिए। शायद विनोद के होंठों या जीभ ने अंदर की 'सही' जगह पर चोट कर दी थी।
मेरा पति... दूसरी औरत के साथ काम आनन्द क्रिया में डूबा... इसी का तो वह ख्वाब देख रहा था।... मुझे क्‍या उबारेगा... मेरे अंदर कुछ डूबने लगा। मैंने ललित का कंधा थाम लिया।
ललित फुसफुसाए,"अंदर चलें? सब एक साथ..."
मैंने उन्‍हें पीछे खींच लिया।
वे मुझे सहारा देते लाए और सम्‍हालकर बड़े प्‍यार से पलंग पर लिटाया, जैसे कोई कीमती तोहफा हूँ। मैं देख रही थी किस प्रकार वे मेरी नाइटी के बटन खोल रहे थे। उसमें विरोध करना बेमानी तो क्‍या, असभ्‍यता सी लगती। वे एक एक बटन खोलते, कपड़े को सस्‍पेंस पैदा करते हुए धीरे धीरे सरकाते, जैसे कोई रहस्‍य प्रकट होने वाला हो, फिर अचानक खुल गए हिस्‍से को को प्‍यार से चूमने लगते। मैं गुदगुदी और रोमांच से उछल जाती। उनका तरीका बड़ा ही मनमोहक था। वे नाभि के नीचे वाली बटन पर पहुँचे तो मैंने हाथों से दबा लिया, हालांकि अंदर अभी पैंटी की सुरक्षा थी।
"मुझे अपनी कलाकारी नहीं देखने दोगी?"
"कौन सी कलाकारी?"
"वो... फुलझड़ी..."
"हाय राम!!" मैं लाल हो गई। तो विनोद ने उन्‍हें इसके बारे में बता दिया था।
"और क्‍या क्‍या बताया है विनोद ने मेरे बारे में?"
"कि मैं एक दूसरा प्रशंसक बनने वाला हूँ, तुम्‍हारे आर्ट का। देखने दो ना !"
मैं हाथ दबाए रही। उन्‍होंने और नीचे के दो बटन खोल दिए। मैं देख रही थी कि अब वे जबरदस्‍ती करते हैं कि नहीं। लेकिन वे रुके, मेरी आँखों में एक क्षण देखा, फिर झुककर मेरे हाथों को ऊपर से ही चूमने लगे। उससे बचने के लिए हाथ हटाए तो वे बटन खोल गए। इस बार उन्‍होंने कोई सस्‍पेंस नहीं बनाया, झपट कर पैंटी के ऊपर ही जोर से मुँह जमाकर चूम लिया। मेरी कोशिश से उनका सिर अलग हुआ तो मैंने देखा वे अपने होंठों पर लगे मेरे रस को जीभ से चाट रहे थे।
उन दो क्षणों के छोटे से उत्‍तेजक संघर्ष में पराजित होना बहुत मीठा लगा। उन्‍होंने आत्‍मविश्‍वास से नाइटी के पल्‍ले अलग कर दिए। नाइटी के दो खुले पल्‍लों पर अत्‍यंत सुंदर डिजाइनर ब्रा पैंटी में सुसज्‍जित मैं किसी महारानी की तरह लेटी थी। मैंने अपना सबसे सुंदर अंतर्वस्‍त्र चुना था। ललित की प्रशंसाविस्‍मित आंखें मुझे गर्वित कर रही थीं।
ललित ने जब मेरी पैंटी उतारने की कोशिश की तो मेरे हाथ आदतवश ही रोकने को पहुँचे, लेकिन साथ ही मेरे नितम्‍ब भी उनके खींचते हाथों को सुविधा देने के लिए उठ गए।
"ओह हो, क्‍या बात है !" मेरी 'फुलझड़ी' को देखकर वे चहक उठे।
मैंने योनि को छिपाने के लिए पाँव कस लिए। गोरी उभरी वेदी पर बालों का धब्‍बा काजल के लम्बे टीके-सा दिख रहा था।
"लवली ! लवली ! वाकई खूबसूरत बना है। इसे तो जरूर खास ट्रीटमेंट चाहिए।" कतरे हुए बालों पर उनकी उंगली का खुर-खुर स्‍पर्श मुझे खुद नया लग रहा था।
मैं उम्‍मीद कर रही थी अब वे मेरे पाँवों को फैलाएंगे। जब से उन्होंने पैंटी को चूमा था मन में योनि से उनके होंठों और जीभ के बेहद सुखद संगम की कल्‍पना जोर मार रही थी। मैं पाँव कसे थी लेकिन सोच रही थी उन्हें खोलने में ज्‍यादा मेहनत नहीं करवाऊँगी।
पर वे मुझसे अलग हो गए, अपने कपड़े उतारने लगे।
वे मुझे पहले इच्‍छुक बना कर फिर इंतजार करा कर बड़े महीन तरीके से यातना दे रहे थे। मेरी रुचि उनमें बढ़ती जा रही थी।
उनके प्रकट होते बदन को ठीक से देखने के लिए मैं तकिए का सहारा लेककर बैठ गई, 'फुलझड़ी' हथेली से ढके रही। पहले कमीज गई, बनियान गई, मोजे गए, कमर की बेल्‍ट और फिर ओह... वो अत्‍यंत सेक्सी काली ब्रीफ। उसमें के बड़े से उभार ने मेरे मन में संभावनाओं की लहर उठा दी।
धीरज रख सुषमा ... मैंने अपनी उत्‍सुकता को डाँटा।
बहुत अच्‍छे आकार में रखा था उन्‍होंने खुद को। चौड़ी छाती, माँसपेशीदार बाँहें, कंधे, पैर, पेट में चर्बी नहीं, पतली कमर, छाती पर मर्दाना खूबसूरती बढ़ाते थोड़े से बाल, सही परिमाण में, इतना अधिक नहीं कि जानवर-सा लगे, न इतना कम कि चॉकलेटी महसूस हो।
वे आकर मेरी बगल में बैठ गए। यह देखकर मन में हँसी आई कि इतने आत्‍मविश्‍वास भरे आदमी के चेहरे पर इस वक्‍त संकोच और शर्म का भाव था। मैंने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। वे धीरे धीरे नीचे सरकते हुए मुझसे लिपट गए।
ओहो, तो इनको स्‍वीट और भोला बनना भी आता है।
पर वह चतुराई थी। वे मेरे खुले कंधों, गले, गर्दन को चूम रहे थे। इस बीच पीठ पीछे मेरी ब्रा की हुक पर उनके दक्ष हाथों फक से खुल गई। मैंने शिकायत में उनकी पीठ पर हल्‍का-सा मुक्‍का मारा, वे मुझे और जोर से चूमने लगे।
उन्‍होंने मुझे धीरे से उठाया और एक एक करके दोनों बाँहों से नाइटी और साथ में ब्रा भी निकाल दी। मैं बस बाँहों से ही स्‍तन ढक सकी।
काश मैं द्वन्‍द्वहीन होकर इस आनन्द का भोग करती। मन में पीढ़ियों से जमे संस्‍कार मानते कहाँ हैं। बस एक ही बात का दिलासा था कि विनोद भी संभवत: इसी तरह मजा ले रहे होंगे।
इस बार ललित के बड़े हाथों को अपने नग्‍न स्‍तनों पर महसूस किया। पूर्व की अपेक्षा यह कितना आनन्ददायी था। उनके हाथ में यह मनोनुकूल आकारों में ढल रहा था। वे उन्हें कुम्‍हार की मिट्टी की तरह गूंथ रहे थे। मेरे चूचुक सख्‍त हो गए थे और उनकी हथेली में चुभ रहे थे।
होंठ, ठुड्डी, गले के पर्दे, कंधे, कॉलर बोन... उनके होंठों का गीला सफर मेरे संवेदनशील नोंकों के नजदीक आ रहा था। प्रत्‍याशा में वे दोनों बेहद सख्‍त हो गए थे। मैं शर्म से ललित का सिर पकड़ कर रोक रही थी, हालाँकि मेरे चूचुकों को उनके मुँह की गर्माहट का इंतजार था। उनके होंठ नोंकों से बचा-बचाकर अगल-बगल ही खेल रहे थे। लुका-छिपी का यह खेल मुझे अधीर कर रहा था।
एक, दो, तीन... उन्होंने एक तने चूचुक को जीभ से छेड़ा़... एक क्षण का इंतजार... और... हठात् एकदम से मुँह में ले लिया। आऽऽऽह.. लाज की दीवार फाँदकर एक हँसी की किलकी मेरे मुँह से निकल ही गई।
वे उन्‍हें हौले हौले चूस रहे थेबच्‍चे की तरह। बारी बारी से उन्हें कभी चूसते, कभी चूमते, कभी होंठों के बीच दबाकर खींचते। कुछ क्षणों की हिचक के बाद मैं भी उनके सिर पर हाथ फिरा रही थी। यह संवेदन अनजाना नहीं था, पर आज इसकी तीव्रता नई थी। हिलोरों में झूल रही थी। निरंतर लज्‍जा का रोमांच उसमें सनसनी घोल रहा था। एक गैर पुरुष मेरी देह के अंतरंग रहस्‍यों से परिचित हो रहा था, जिसे सामान्‍य स्‍थिति में मुझे गौर से देखने तक की भी शिष्‍टता के दायरे में इजाजत नहीं थी। मेरी देह की कसमसाहटें और मरोड़ उसे आगे बढ़ने के लिए हरी झण्‍डी दिखा रही थीं। उनका दाहिना हाथ मेरे निचले उभार को सहला रहा था।
अगर मेरे माता-पिता, कोई भाई-बहन मुझे इस अवस्‍था में देख ले तो? रोंगटे खड़े हो गए। लेकिन केवल शर्म से नहीं, बल्‍कि उस आह्लादकारी उत्‍तेजना से भी जो अचानक अभी अभी मेरे पेड़ू पर से आई थी। ललित का दायाँ हाथ मेरे 'त्रिभुज' को रुखाई से मसलता होंठों के अंदर छिपी भगनासा को सहला गया था।
मेरी जाँघें कसी न रह पाईं। उन्‍होंने उन्‍हें फैला दिया और मेरी इस 'स्‍वीकृति' का चुम्‍बन से स्‍वागत किया।
उनकी उंगलियों ने नीचे उतरकर गर्म गीले होंठों का जायजा लिया। मैं महसूस कर रही थी अपने द्रव को अंदर से निकलते हुए। उनकी उंगली चिपचिपा रही थी। एक बार उस गीलेपन को उन्‍होंने ऊपर 'फुलझड़ी' में पोंछ भी दिया।
अब वे स्‍तनों को छोड़कर नीचे उतरे। थोड़ी देर के लिए नाभि पर ठहरकर उसमें जीभ से गुदगुदी की। उन्होंने एक हाथ से मेरे बाएँ पैर को उठाया और उसे घुटने से मोड़ दिया। अंदरूनी जाँघों को सहलाते हुए आकर बीच के होठों पर ठहर गये। दोनों उंगलियों से होठों को फैला दिया।
"हे भगवान", मैंने सोचा, "विनोद के सिवा यह पहला व्यक्ति था जो मुझे इस तरह देख रहा था।" मुझे खुद पर शर्म आई
वे उंगलियों से होठों को छेड़ रहे थे, जिससे मैं मचल रही थी। एक उंगली मेरे अंदर डूब गई। मेरी पीठ अकड़ी, पाँव फैले और नितम्ब हवा में उठने को हो गये। वे उंगली अंदर-बाहर करते रहे‌- धीरे धीरे, नजाकत से, प्यार से, बीच-बीच में उसे वृत्ताकार सीधे-उलटे घुमाते। जब उनकी उंगली मेरी भगनासा सहलाती हुई गुजरी तो मेरी साँस निकल गई। मैं स्वयं को उस उंगली पर ठेलती रही ताकि उसे जितना ज्यादा हो सके अंदर ले सकूँ।
ललित ने वो उंगली बाहर निकाली और मुझे देखते हुए उसे धीरे-धीरे मुँह में डालकर चूस लिया। मैं शरम से गड़ गई। वे भी शर्माए हुए मुझे देख रहे थे। ऊन्होंने जीभ निकालकर अपने होंठों को चाट भी लिया। क्या योनि का द्रव इतना स्वादिष्ट होता है? मुझे आश्चर्य हुआ, वासना कैसी गंदी चीज को भी प्यारी बना देती है।
मेरी गीली फाँक पर ठंडी हवा का स्‍पर्श महसूस हो रहा था। मैंने पुनः पैर सटा लिये। उन्होंने ठेलते हुए फिर दोनों पैरों को मोड़कर फैला दिया। मैंने विरोध नहीं के बराबर किया। वे मेरे बीच आ गए।
जैसे जैसे वे मुझे विवश करते जा रहे थे मैं हारने के आनन्द से भरती जा रही थी।
लक्ष्‍य अब उनके सामने खुला था। ठंड लग रही योनि को ललित के गर्म होंठों का इंतजार था।
भौंरा फूल के ऊपर मँडरा रहा था।
वे झुके, 'फुलझड़ी' में उनकी साँस भरी। मैं उत्‍कंठा से भर गई। अब उस स्‍वर्गिक स्‍पर्श का साक्षात होने ही वाला था। आँखों की झिरी से देखा.... वे कैसी तो एक दुष्‍ट मुस्‍कान के साथ उसे देख रहे थे...
वे झुके... और....
फूले होंठों को ऊपर-ऊपर आधा छूती आधा मँडराती चुम्बनों की एक श्रृंखला ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर गुजरने लगी। मैंने कैसे करके तो अपने को ढीला किया, मगर जब जीभ की नोंक अंदर सरकी तो मैंने बिस्तर की चादर मुट्ठियों में भींच ली।
वे देख रहे थे मैं कितने तनाव में हूँ। उन्होंने बिस्तर पर अपनी पकड़ छोड़ी और मेरे हाथ अपने हाथों में ले लिये। मेरी दरार में धीरे धीरे जीभ चलाते हुए वे रस का स्वाद लेने लगे। उनके मुँह से संतुष्टि की आवाजें निकल रही थीं। मैं इतनी जोर-जोर कराह रही थी और चूतड़ हिला रही थी कि मुझे चाटने में उन्हें शायद खासी मुश्किल हो रही होगी।
उन्होंने मेरे हाथ छोड़ दिये। मेरी जाँघें उनकी शक्तिशाली बाहों की गिरफ्त में आ गईं। कुरेदते हुए होंठ कटाव के अंदर कोमल भाग में उतरे और भगनासा को गिरफ्तार कर लिया। मैं बिस्‍तर पर उछल गई। पर वे मेरे नितम्‍बों को जकड़कर होंठों को अंदर गड़ाए रहे। इस एकबारगी हमले ने मेरी जान निकाल दी।
अंदर उनकी जीभ तेजी से सरक रही थी। यह एक तूफानी नया अनुभव था। मैं साँस भी ले नहीं पा रही थी। उनकी नाक मेरी भगनासा को रगड़ रही थी। ठुड्डी के रूखे बाल गुदा के आसपास गड़ रहे थे, जीभ योनि के अंदर लपलपा रही थी... ओ माँ ओ माँ ओ माँ
मैं मूर्छित हो गई। कुछ क्षण के लिये मेरी साँस बंद हो गई। वे रुक गये...
यह अद्भुत अनुभव था। पुरुष की चाहे जो भी फैंटसी रहती हो पर मुझे उनके मुँह में स्खलित होना बहुत अच्छा लगा।
वे अचानक उठे और चड्ढी को सामने से दबोचे तेजी से बाहर बाथरूम चले गए। इतनी उत्तेजना ने उनकी भी छुट्टी कर दी थी।
मेरे नीचे चादर भीगकर ठंडी लग रही थी। मैं यहाँ पड़ी थी, पूरी तरह नंगी और उत्तेजित ! अकेली कमरे में !
मैंने इधर उधर देखा। हालाँकि यह अशिष्टता होती मगर मैंने बिस्तर के बगल वाली दराज को खींचा। उसमें कागज में कोई चीज लिपटी थी। कवर पर बनी तस्वीर से समझ गई कि क्या चीज है पर वास्तव में इसे कभी देखा नहीं था।
यह एक वाइब्रेटर था। हाथ में लेते ही सिहर गई।
"वाह, स्मार्ट लड़की की तरह तुमने बिल्कुल काम की चीज खोजी है !" वे कमरे में प्रवेश करते हुए बोले। उनकी कमर में तौलिया लिपटा था और हाथ में एक छोटी सी कटोरी थी, जिसे उन्होंने पास रखी तिपाई पर रख दिया।
"शायद हर लड़की पसंद करती होगी !" उन्होंने वाइब्रेटर की ओर इशारा किया।
मैंने शर्माकर उसे तुरंत नीचे रख दिया,"सॉरी !"
"इसमें सॉरी की कोई बात नहीं ! कभी आजमाया होगा !"
मैंने बहुत हिचकते हुए ना में सिर हिलाया।
"केले से या बैंगन से? जब विनोद नहीं रहते होंगे, मन होने पर?"
'हाँ यह तो किया था।' पर चुप रह गई।
वे हँसे, "यह तो एकदम स्वाभाविक बात है। आओ मैं तुम्हें दिखाता हूँ इससे कैसे करते हैं।"
उन्होंने मुझे लिटा दिया। मेरे नितम्बों के नीचे तकिया डालकर पाँव फैला दिये। मेंने विरोध नहीं किया।
"अब आँखें बंद कर लो और एंजॉय करो !"
भगोष्ठों पर वाइब्रेटर का ठंडा स्पर्श महसूस हुआ। यह काफी मोटा था, और लम्‍बा भी, कुदरती लिंग से बहुत ज्यादा।
मैं सिहरी।
"प्लीज पूरा मत डालना !" मैं फुसफुसाई।
वे हँस पड़े, "अरे नहीं ! अगर अंदर घुस गया तो मुझे डॉक्टर को बुलाना पड़ेगा।
मैं समझ रही थी अब वाइब्रेटर को सम्भोग के धक्कों की तरह अंदर बाहर करेंगे, पर वह तो मुझे आश्‍चर्य में डालता भौंरे की तरह गुंजार करने लगा। उसके कंपन से शरीर में आनन्द की लहरें दौड़ने लगीं।
एक पराया आदमी मेरा अप्राकृतिक मैथुन कर रहा था, अजीब लग रहा था, लेकिन मैं आनन्द से सीत्‍कार भर रही थी। वे 'बहुत अच्छी, बहुत सुंदर' कहकर उत्साह बढ़ा रहे थे और वाइब्रेटर की गति तेज कर रहे थे।
यह बहुत ही आनन्दायी था, तकलीफदेह हद तक। मैं झड़ने लगी। ललित ने मुझे बाँहों में जकड़ लिया। तब तक जकड़े रहे जब तक मेरी थरथराहटें नहीं पड़ गईं।
मेरे संतुष्ट चेहरे को उन्होंने प्यार से चूमा। वे मेरे हाथ पाँव, बाँहें, कंधे, पेट सहला रहे थे। एक छोटी-मोटी मालिश ही कर दी उन्होंने।
विनोद... मेरे पति का ख्याल मेरा पीछा कर रहा था... क्या कर रहे होंगे वे? क्या उनके बिस्तर पर भी शीला ऐसे ही निढाल पड़ी होगी? क्‍या वे उसे ऐसे ही प्‍यार कर रहे होंगे? मैंने अपने दिल में टटोला, कहीं मुझे ईर्ष्या तो नहीं हो रही थी?
आँखें खोली, ललित मुझे ही देख रहे थे - मेरे सिरहाने बैठे। मैंने शर्माकर पुन: आँखें मूँद लीं। उन्होंने झुककर मुझे चू्मा- लगा जैसे यह मेरे सफल स्‍खलन का पुरस्‍कार हो। मैंने उस चुम्बन को दिल के अंदर उतार लिया।
मैंने आंखें खोलीं- तौलिए की फाँक सामने खुली थी। नजर एकदम से अंदर दौड़ गई। अंधेरे में सिकुड़े लिंग की अस्पष्ट झलक...
सात इंच... "पूरा अंदर तक मार करेगा, साला।" विनोद की बात कान में गूँज गई।
अभी सिकुड़ी अवस्था में कैसा होगा वो? भूरा, गुलाबी, नोंक पर सिमटी त्वचा, अंदर से झाँकता गुलाबी मुख... मासूम... बच्चे-सा, मानो कोई गलती करके सजा के इंतजार में सिर झुकाए...
गलती तो उसने की ही थी- काम करने से पहले ही झड़ गया था।
अच्‍छा है। मैं दो दो चरम सुखों से थकी हुई थी। स्तऩ चूचुक, भगनासा आदि इतने संवेदनशील हो गए थे कि उनको छूना भी पीड़ाजनक था। एक क्षण को लगा वह सचमुच योनि-प्रवेश के समय न उठे, बस थोड़ी देर के लिए। उस समय उनकी लज्‍जित चिंतित अवस्‍था पर दया करूँ।
विनोद की बात मन में घूम गई," पूरा अंदर तक मार करेगा, साला !"
हुँह ! कितना फुलाया हुआ घमंड। पुरुष खाली लिंग ही रहता है।
ओह ! कहाँ तो पर पुरुष के स्पर्श की कल्पना भी भयावह लगती थी, कहाँ मैं उसके लिंग के बारे में सोच रही थी। किस अवस्था में पहुँच गई मैं !
उन्होंने कटोरी उठाई।
"क्या है?"
मुस्कुराहते हुए उन्होंने उसमें उंगली डुबाकर मेरे मुँह पर लगा दिया।
ठंडा, मीठा, स्‍वादिष्‍ट चाकलेट। गाढ़ा। होंठों पर बचे हिस्से को मैंने जीभ निकालकर चाट लिया।
"थकान उतारने का टानिक ! पसंद आया न?"
सचमुच इस वक्त की थकान में चाकलेट बहुत उपयुक्त लगा। चाकलेट मुझे यों भी बहुत पसंद था। मैंने और के लिए मुँह खोला।
उन्होंने मेरी आखों पर हथेली रख दी, "अब इसका पूरा स्‍वाद लो।"
होंठों पर किसी गीली चीज का दबाव पड़ा। मैं समझ गई। योनि को मुख से और फिर वाइब्रेटर से भी आनन्दित करने करने के बाद इसके आने की स्वाभाविक अपेक्षा थी।
मैंने उसे मुँह खोलकर ग्रहण दिया। चाकलेट से लथपथ लिंग। फिर भी उनकी यह हरकत मुझे हिमाकत जान पड़ी। एक स्‍त्री से प्रथम मिलन में लिंग चूसने की मांग... स्वयं उसकी योनि को चूमने-चाटने के बावजूद...
उत्‍थित कठोर की अपेक्षा सिकु़ड़े कोमल लिंग को चूसना आसान होता है। मुँह के अंदर उसकी इधर से उधर लचक मन में कौतुक जगाती है। प्रथम स्खलन के बाद उसे अभी बढ़ने की जल्दी नहीं थी। मैं उसमें लगे चा़कलेट को चूस रही थी। उसकी गर्दन तक के संवेदनशील क्षेत्र को जीभ से सहलाने रगड़ने में खास ध्यान दे रही थी। वह मेरे मुँह में ऊभ-चूभ कर रहा था।
चाकलेट की मिठास में रिसते वीर्य और प्रीकम का हल्का चूना मिला-सा नमकीन स्वाद उसे अप्रिय बना रहा था। लेकिन साथ ही मन में कहीं एक गर्व भी था- उन पर अपने असर के प्रति...
मिठास घटती जा रही थी और नमकीन स्वाद बढ़ रहा था। लिंग फूलता जा रहा था। धीरे धीरे उसे मुँह में समाना मुश्किल हो गया। पति की अपेक्षा यह लम्बा ही नहीं, मोटा भी था। उसे वे मेरे मुँह में संकोचसहित अंदर ठेल रहे थे।
यह पुरुष की सबसे असहाय अवस्था होती है। वह मुक्ति की याचना में गिड़गिड़ाता सा होता है जबकि उसे वह सुख देने का सारा अधिकार स्त्री के हाथ में होता है। ललित तो दुर्बल होकर बिस्तर पर गिर ही गए थे। मैं उन पर चढ़ गई थी। आक्रामक होकर गुलाबी टोपे पर संभालकर दाँत गड़ाती और फिर उस पर जीभ लपेटकर चुभन के दर्द को आनन्द में मिलाती उन्हें एकदम अंदर खींच लेती।
वे मेरा सिर पकड़कर उस पर दबा रहे थे। उनका मुंड मेरे गले की कोमल त्वचा में टकरा रहा था। मैं उबकाई के आवेग को दबा जाती। अपने पति के साथ मुझे इसका अच्छा अभ्यास था। यह कहानी आप अन्तर्वासना.कॉम पर पढ़ रहे हैं।
पर यह उनसे काफी लम्बा था। रह-रहकर मेरे गले की खोखल में घुस जाता। मैं साँस रोककर उबकाई और दम घुटने पर विजय पाती। जाने क्यों मुझे पूरा यकीन था शीला के पास इतनी दूर जाने का हुनर नहीं होगा। ललित मेरी क्षमता पर विस्मित थे। सीत्कारों के बीच उनके बोल फूट रहे थे, "आह, कितना अच्छा, यू आर एक्सलेंट़, ओ माई गौड..."
उनका अंत नजदीक था। मुझे डर था दो बार स्‍खलन के बाद वे संभोग करने लायक रहेंगे? लेकिन हमारे पास सारी रात थी। वे कमर उचका उचकाकर अनुरोध कर रहे थे। मेरे सिर को पकड़े थे।
क्‍या करूँ? उन्‍हें मुँह में ही प्राप्‍त कर लूँ? मुझे वीर्य का स्‍वाद अच्‍छा नहीं लगता था पर अपने पति को यह सुख कई बार दे चुकी थी। लेकिन इन महाशय को? इनके लिंग को मैं कितने उत्‍साह और कुशलता से चूस रही थी। फिर उसको उसके सबसे बड़े आनन्द के समय रास्ते में छो़ड देना स्‍वार्थपूर्ण नहीं होगा? उन्‍होंने कितनी उदारता और उमंग से मुझे मुँह से आनन्दित किया था।
अचानक लिंग पत्‍थर-सा सख्त होकर जोर से धड़का। मैं तैयार थी। साँस रोककर उसे कंठ के कोमल गद्दे में बैठा लिया। गर्म लावे की पहली लहर हलक के अंदर ही उतर गई।
एक और लहर !
मैं पीछे हटी। हाथ से उसकी जड़ पकड़ी और घर्षण की आवश्‍यक खुराक देते रहने के लिए सहलाने लगी। वीर्य उगलते छिद्र को जीभ से चाटते, कुरेदते़, रगड़ते द्रव को जल्‍दी-जल्‍दी निगलने लगी।
विनोद और इनका स्‍वाद एक जैसा था। सचमुच सारे मर्द एक जैसे होते हैं। इस ख्याल पर हँसी आई। मैंने मुँह में जमा हो गए अंतिम द्रव को जबरदस्‍ती गले के नीचे धकेला और जैसे उन्‍होंने मुझे किया था वैसे ही मैंने झुककर उनके मुँह को चूम लिया। लो भाई, मेरा भी जवाबी इनाम हो गया। किसी का एहसान नहीं रखना चाहिए अपने ऊपर।
उनके चेहरे पर बेहद आनन्द और कृतज्ञता का भाव था। थोड़े लजाए हुए भी। सज्‍जन व्‍यक्‍ति थे। मेरा कुछ भी करना उन पर उपकार था जबकि उनका हर कार्य अपनी योग्यता साबित करने की कोशिश। मैंने तौलिए से उनके लिंग और आसपास के भीगे क्ष्‍ोत्र को पोंछ दिया। उनके साथ उस समय पत्‍नी का-सा व्‍यवहार करते हुए शर्म आई..
विनोद और इनका स्‍वाद एक जैसा था। सचमुच सारे मर्द एक जैसे होते हैं। इस खयाल पर हँसी आई। मैंने मुँह में जमा हो गए अंतिम द्रव को जबरदस्‍ती गले के नीचे धकेला और जैसे उन्‍होंने मुझे किया था वैसे ही मैंने झुककर उनके मुँह को चूम लिया। लो भाई, मेरा भी जवाबी इनाम हो गया। किसी का एहसान नहीं रखना चाहिए अपने ऊपर।
उनके चेहरे पर बेहद आनंद और कृतज्ञता का भाव था। थोड़े लजाए हुए भी। सज्‍जन व्‍यक्‍ति थे। मेरा कुछ भी करना उनपर उपकार था जबकि उनका हर कार्य अपनी योग्यता साबित करने की कोशिश। मैंने तौलिए से उनके लिंग और आसपास के भीगे क्ष्‍ोत्र को पोंछ दिया। उनके साथ उस समय पत्‍नी का-सा व्‍यवहार करते हुए शर्म आई...
अपनी नग्‍नता के प्रति चैतन्‍य होकर मैंने चादर खींच लिया। बाँह बढ़ाकर उन्होंने मुझे समेटा और खुद भी चादर के अंदर आ गए। मैं उनकी छाती से सट गई। दो स्‍खलनों के बाद उन्‍हें भी आराम की जरूरत थी। अभी संभोग भला क्‍या होना था। पर उसकी जगह यह इत्‍मीनान भरी अंतरंगता, यह थकान मिली शांति एक अलग ही सुख दे रही थी। मैंने आँखें मूंद लीं। एक बार मन में आया जाकर विनोद को देखूँ। पर उनका ख्याल दिल से निकाल दिया, चाहे जो करें !
पीठ पर हल्‍की-हल्‍की थपकी... हल्का-हल्का पलकों पर उतरता खुमार... पेट पर नन्‍हें लिंग-शिशु का दबाव... स्‍तनों पर, स्तनाग्रों पर उनकी छाती के बालों का स्‍पर्श... मन को हल्‍के-हल्‍के आनंदित करता उत्‍तेजनाहीन प्‍यार... मैंने खुद को खो जाने दिया।
उत्तेजनाहीनता... बस थो़ड़ी देर के लिए। वस्‍त्र खोकर परस्पर लिपटे दो युवा नग्न शरीरों को नींद का सौभाग्य कहाँ। बस थकान की खुमार। उतनी ही देर का विश्राम जो पुन: सक्रिय होने की ऊर्जा भर सकने में समर्थ हो जाए। पुन: सहलाहटें, चुम्बन, आलिंगऩ, मर्दन... सिर्फ इस बार उनमें खोजने की बेकरारी कम थी, पा लेने का विश्वास अधिक, हम फिर गरम हो गए थे।
एक बार फिर मेरी टांगें फैली थीं, वे बीच में।
"ओके, तो अब असली चीज के लिए तैयार हो?" मेरी नजर उनके तौलिए के उभार पर टिकी थी। मैंने शरमाते हुए मुस्‍कुराते हुए सिर हिलाया।
वे हँसे।
"मेरी भाषा को माफ करना, लेकिन अब तुम जिन्‍दगी की वन आफ दि बेस्‍ट 'चुदाई' पाने जा रही हो।" शब्द मुझे अखरा यद्यपि उनका घमण्ड अच्‍छा लगा। मेरा अपना विनोद भी कम बड़ा चुदक्‍कड़ नहीं था। अपने शब्‍द पर मैं चौंकी, हाय राम, क्‍या सोच गई। इस आदमी ने इतनी जल्‍दी मुझे प्रभावित कर दिया?
"कंडोम लगाने की जरूरत तो नहीं है? गोली ले रही हो क्‍या?"
मैंने सहमति में सिर हिलाया।
"तो फिर एकदम रिलैक्‍स हो जाओ, कोई टेंशन नहीं !"
उन्होंने तौलिया हटा दिया। वह सीधे मेरी दिशा में बंदूक की तरह तना था। अभी मैंने अपने मुँह में इसका करीब से परिचय प्राप्त किया था फिर भी यह मुझे अपने अंदर लेने के खयाल से डरा रहा था। विनोद की अपेक्षा यह 'सात इंच'... "हाय राम !"
उन्होंने पाँवों के बीच अपने को व्यवस्थित किया, लिंग को भग-होंठों के बीच ऊपर-नीचे चलाकर भिगोया, उससे रिसता चिकना पूर्वस्राव यानि Pre-cum महसूस हो रहा था।
मैंने पाँव और फैला दिए, थोड़ा सा नितम्‍बों को उठा दिया ताकि वे लक्ष्‍य को सीध में पा सकें।
लिंग ने फिसलकर गुदा पर चोट की, "कभी इसमें किया है?"
"कभी नहीं ! बिल्कुल नहीं !"
मुझे यह बेहद गंदा लगता था।
"ठीक है !" उन्‍होंने उसे वहाँ से हटाकर योनिद्वार पर टिका दिया।
मैं इंतजार कर रही थी...
"ओके, रिलैक्स !"
भग-होंठ खिंचे। बहुत ही मोटे थूथन का दबाव... सतीत्व की सबसे पवित्र गली में एक परपुरुष की घुसपैठ। मेरा समर्पित पत्नी मन पुकार उठा," विनोद, मेरे स्वामी, तुमने मुझे कहाँ पहुँचा दिया।"
पातिव्रत्य का इतनी निष्ठा से सुरक्षित रखा गया किला सम्हालकर हल्के-हल्के दिए जा रहे धक्कों से टूट रहा था। लिंग को वे थोड़ा बाहर खींचते फिर उसे थोड़ा और अंदर ठेल देते। अंदर की दीवारों में इतना खिंचाव पहले कभी नहीं महसूस हुआ था। कितना अच्छा लग रहा था, मैं एक साथ दु:ख और आनन्द से रो पड़ी। वे मेरे पाँवों को मजबूती से फैलाए थे। मेरी आँखें बेसुध उलट गईं थीं। मैं हल्के-हल्के कराहती, उन्हें मुझमें और गहरे उतरने के लिए प्रेरित कर रही थी।
थो़ड़ी देर लगी लेकिन वे अंतत: मुझमें पूरा उतर जाने में कामयाब हो गए। मेरी गुदा के पास उनके सख्त फोतों का दबाव महसूस हुआ।
वे झुके और मेरे कंठ को बगल से चूमते हुए मेरे स्तनों को सहलाने लगे, चूचुकों को पुनः दबा, रगड़, उन्हें चुटकियों से मसल रहे थे।
मैं तीव्र उत्तेजना को किसी तरह सम्हाल रही थ, वे उतरकर उन्हें बारी-बारी से पीने लगे।
आनन्द में मेरा सिर अगल बगल घूम रहा था। उन्होंने कुहनियों को मेरे बगलों के नीचे जमाया और अपने विशाल लिंग से आहिस्ता आहिस्ता लम्बे धक्के देने लगे। वे धीरे-धीरे लगभग पूरा निकाल लेते फिर उसे अंदर भेज देते। जैसे-जैसे मैं उनके कसाव की अभ्यस्त हो रही थी, वे गति बढ़ाते जा रहे थे। धक्कों में जोर आ रहा था। शीघ्र ही उनके फोते गुदा की संवेदनशील दरार में चोट करने लगे। मैंने उन्हें कस लिया और नीचे से जवाब देने लगी। मेरे अंदर फुलझड़ियाँ छूटने लगीं।
वे लाजवाब प्रेमी थे।
आहऽऽऽऽह........ आहऽऽऽऽह ........... आहऽऽऽऽह... सुख की बेहोश कर देने वाली तीव्रता में मैंने उनके कंधों में दाँत गड़ा दिए।
वे दर्द से छटपटाकर मुझे जोर जोर कूटने लगे। धचाक, धचाक, धचाक... मानों झंझोड़कर मेरा पुर्जा पुर्जा तोड़कर बिखेर देना चाहते थे।
हम दोनों किसी मशीनगन की तरह छूट रहे थे। मेरे नाखूनों ने उनकी पीठ पर कितने ही गहरे खुरचनें बनाई होंगी।
मुझे कुछ आभास सा हुआ कोई दरवाजे पर है:
दो छायाएँ !
पर चोटों की बमबारी ने उधर ध्यान ही नहीं देने दिया। हम इतनी जोर से मैथुन कर रहे थे कि सरककर बिस्तर के किनारे पर आ गए थे। गिरने से बचने के लिए हम एक-दूसरे को जकड़े थे, जोर लगाकर पलटियाँ खाते हम बीच में आ गए। दो दो स्खलनों ने हममें टिके रहने की अपार क्षमता ला दी थी।
"ओ माय गॉड !.."
उनका शरीर अकड़ा, अंतिम प्रक्रिया शुरू हो गई, मुझमें उनका गर्म लावा भरने लगा। मैं बस बेहोश हो गई। अंतिम सुख ने बस मेरी सारी ताकत निचोड़ ली। वे गुर्राते मुझमें स्खलित हो रहे थे। मैं स्वयं मोम सी पिघलती उस द्रव में मिलती जा रही थी।
मैंने दरवाजे पर देखा, कोई नहीं था। शायद मेरा भ्रम था।
उन्होंने मुझे बार बार चूमकर मेरी तारीफ की और धन्यवाद दिया- "It was wonderful ! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। तुम कमाल की हो।"
मुझे निश्चित लगा कि शीला ने इतना मजा उन्हें जिन्दगी में नहीं दिया होगा। मैंने खुद को बहुत श्रेष्ठ महसूस किया।
मैंने बिस्तर से उतरकर खुद को आइने में देखा। चरम सुख से चमकता नग्ऩ शरीर, काम-वेदी़ घर्षण से लाल, जाँघों पर रिसता हुआ वीर्य।
मैंने झुककर ब्रा और पैंटी उठाई, उन्होंने मेरी झुकी मुद्रा में मेरे पृष्ठ भाग के सौंदर्य का पान कर लिया। मैं बाथरूम में भाग गई।
रात की घड़िया संक्षिप्त हो चली थी।
नींद खुली तो शीला चाय लेकर आ गई थी। उसने हमें गुड मार्निंग कहा। मुझे उस वक्त उसके पति के साथ बिस्तर पर चादर के अंदर नग्नप्राय लेटे बड़ी शर्म आई और अजीब सा लगा।
लेकिन शीला के चेहरे पर किसी प्रकार की ईर्ष्या के बजाय खुशी थी। वह मेरी आँखों में देखकर मुस्कुराई। मुझे उसके और विनोद के बीच 'क्या हुआ' की बहुत सारी जिज्ञासा थी।
अगली रात विनोद और मैं बिस्तर पर एक-दूसरे के बारे में पूछ रहे थे।
"कैसा लगा तुम्हें?" विनोद ने पूछा।
"तुम बोलो? तुम्हारा बहुत मन था !" मैं व्यंग्य करने से खुद को रोक नहीं पा रही थी, हालाँकि मैंने स्वयं अभूतपूर्व आनन्द उठाया था।
"ठीक ही रहा।"
" 'ठीक ही' क्यों?"
"सब कुछ हुआ तो सही, पर उस लड़की में वो रिस्पांस नहीं था।"
"अच्छा! सुंदर तो वो थी।"
"हाँऽऽऽ शायद पाँच इंच में उसे मजा नहीं आया होगा।"
"तुम साइज वगैरह की बात क्यों सोचते हो, ऐसा नहीं है।" मैं उन्हें दिलासा देना चाहती थी, पर बात सच लग रही थी। मुझे ललित के बड़े आकार के कसाव और घर्षण का कितना आनन्द मिला था।
"तुम्हारा कैसा रहा?"
मैं खुलकर बोल नहीं पाई। बस 'ठीक ही' तक कह पाई।
"कुछ खास नहीं हुआ?"
"नहीं, बस वैसे ही..."
विनोद की हँसी ने मुझे अनिश्चय में डाल दिया। क्या ललित ने इन्हें बता दिया? या क्या ये सचमुच उस समय दरवाजे पर खड़े थे?
"तुम तो एकदम गीली हो।" उनकी उंगलियाँ मेरी योनि को टोह रही थीं, "अच्छा है उसने तुम्हें इतना उत्तेजित किया।"
ललित के साथ की याद और विनोद के स्पर्श ने मुझे सचमुच बहुत गीली कर दिया था।
"ललित इधर आता रहता है। शायद जल्दी ही वे दोनों आएँ !"
मैं समझ नहीं पा रही थी खुश होऊँ या उदास।
"एक बात कहूँ?"
"बोलो?"
"पता नहीं क्यों, पर मेरा एक चीज खाने का मन कर रहा है।"
"क्या?"
"चाकलेट !"
"चाकलेट?"
"हाँ चाकलेट !"
"क्या तुमने हाल में खाया है?"
...
मैं अवाक ! क्या कहूँ।
"तुमको मालूम है?"
विनोद ठठाकर हँस पड़े। मैं खिसियाकर उन्हें मारने लगी।
मेरे मुक्कों से बचते हुए बोले, "अगली बार चाकलेट खाना तो अपने पति को नहीं भूल जाना।"
मैंने शर्माकर उनकी छाती में चेहरा घुसा दिया।
"मुझे तुम्हें देखने में बहुत मजा आया। मुझे कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता। शीला अच्छी थी, मगर तुमसे उसकी कोई तुलना नहीं।"
"तुम भी मेरे लिए सबसे अच्छे हो।" मैंने उन्हें आलिंगन में जकड़ लिया।





खूबसूरत खता


"डार्लिंग ! आज तो बहुत सेक्सी दिख रही हो ! किस पर कयामत गिराने का
इरादा है?" विनोद ने अपनी पत्नी को देखकर हंसते हुए कहा जिसे वो अपने बॉस
की पार्टी में अपनी कार में ले जा रहा था।

"
धत्त ! आप भी ना !" सुषमा ने शरमा कर अपने पति से कहा।

आज विनोद के बॉस सूरज वर्मा की पार्टी थी जो उसने अपने इकलौते बेटे ललित
के लिए दी थी क्योंकि वो अगले दिन बिजनेस के सिलसिले में कुछ समय के लिए
विदेश जाने वाला था...

विनोद ने अपनी कार को एक आलीशान बंगल के सामने रोक दिया जहाँ पर पहले से
बहुत गाड़ियाँ खड़ी थी और वो पूरा बंगला रोशनी से चमक रहा था।

विनोद कार को पार्क करने के बाद सुषमा के साथ बंगले में दाखिल हो गया
जहाँ पर उसने पहले सूरज वर्मा और फिर ललित से सुषमा का परिचय कराया।

"
हेलो सुषमा जी !" ललित ने अपना हाथ आगे सुषमा की तरफ बढ़ाते हुए कहा।

सुषमा का सर तो ललित को देखते ही चक्कर खाने लगा था, उसने ललित से हाथ
मिलाया... और फिर ललित और विनोद से नज़रें चुराकर दूसरी तरफ आ गई।

सुषमा के दिमाग़ में पुरानी यादें घूमने लगी उसने जब कॉलेज में प्रवेश
लिया था तो ललित भी वहीं पढ़ता था, वो बहुत ही शरीफ और बुद्धिमान लड़का
था...

सुषमा को देखते ही वो उसके प्यार में डूब गया, सुषमा को भी ललित पसंद
था, उन दोनों के बीच बहुत जल्द ही दोस्ती हो गई... और वो दोस्ती कब प्यार
में तबदील हुई, दोनों को पता ही नहीं चला।

अचानक सुषमा की माँ की मौत हो गई और उसके पिता ने अपनी पत्नी के मौत के
बाद अपना तबादला कहीं और करा लिया जहाँ पर बहुत जल्द ही उसने सुषमा की
शादी विनोद के साथ तय हो गई।

सुषमा को ललित से मिलने या बताने का कोई मौका ही नहीं मिला... और उसने
फिर से ललित से मिलने की कोई कोशिश भी नहीं की। किस्मत का खेल समझकर वो
विनोद के साथ खुश रहने लगी, मगर आज 4 सालों बाद उसकी मुलाक़ात फिर से
ललित से हुई थी।

"
सुषमा जी, क्या मैं आपके साथ डान्स कर सकता हूँ?" अचानक ललित ने
सुषमा के पास आते हुए कहा।

"
व्हाय नोट सर !" तभी विनोद भी कहीं से उधर आ गया... और सुषमा के हाथ को
पकड़ कर ललित के हाथ में थमा दिया।

ललित ने ड्रिंक की हुई थी क्योंकि वो चलते हुए लड़खड़ा रहे थे।

"
सुषमा, कहाँ गायब हो गई थी तुम? मैं आज तक तुम्हें नहीं भुला पाया हूँ
!"
ललित ने डान्स करते हुए सुषमा की आँखों में देखते हुए कहा।

"
ललित, प्लीज़ मुझे भूल जाओ ! मैं अब एक शादीशुदा औरत हूँ !" सुषमा ने
ललित को समझाते हुए कहा।

"
हाँ, मैं जानता हूँ कि तुम्हारी शादी हो चुकी है।" ललित ने सुषमा की
बात सुनकर जज़्बाती होकर उसकी कमर को पकड़ कर अपने से सटाते हुए कहा।

"
ललित क्या कर रहे हो?" सुषमा ने ललित को देखते हुए कहा, ललित के हाथ
को अपनी कमर पर महसूस कर के न चाहते हुए भी सुषमा को अपने जिस्म में कुछ
अजीब किस्म के आनन्द का अहसास हो रहा था।

"
सुषमा, मैं तुम्हें करीब से महसूस कर रहा हूँ !" ललित ने सुषमा से
डान्स करते हुए अपना चेहरा उसके चहरे के बिल्कुल करीब करते हुए कहा, इतना
करीब कि उसकी गर्म साँसें सुषमा को अपने होंठों पर महसूस होने लगी।

"
ललित, प्लीज़ मुझे छोड़ दो !" सुषमा ने कहा ललित को देखते हुए कहा।
उसका सारा बदन उत्तेजना के मारे काँप रहा था।

"
ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी !" ललित ने सुषमा से दूर हटते हुए कहा।

और विनोद के साथ जाकर बातें करने लगा।

पार्टी रात के एक बजे तक चली, सभी लोग अब धीरे धीरे जाने लगे।

जब सुषमा विनोद के पास पुहँची तो वो नशे में सोफे पर गिरे हुए थे,
सुषमा के उठाने पर भी वो नहीं उठे। सुषमा बहुत परेशान हो गई क्योंकि
ड्राइविंग तो वो जानती नहीं थी।

"
क्या हुआ सुषमा?" ललित ने सुषमा को परेशान देखकर उसके पास आते हुए कहा।

"
ललित, ये तो बेहोश हो गये हैं... और मुझे ड्राइविंग नहीं आती !" सुषमा
ने ललित को देखते हुए कहा।

"
कोई बात नहीं मैं विनोद और आपको अपनी कार पर घर छोड़ आता हूँ !" ललित
ने सुषमा को देखते हुए कहा।

ललित की बात मानने के सिवा सुषमा के पास कोई चारा नहीं था।

ललित ने अपनी गाड़ी निकाली और अपने नौकरों की मदद से विनोद को कार में
पीछे लिटा दिया, सुषमा भी ललित के साथ आगे कार में बैठ गई।

सारे रास्ते सुषमा ने ललित से कोई बात नहीं की।

घर पहुँच कर ललित ने सुषमा के साथ मिलकर विनोद को बेडरूम में ले जा कर
लेटा दिया और वो खुद भी वहीं बैठ कर हाँफने लगा, वो बहुत थक चुका था।

"
यह लीजिए, पानी पी लीजिए !" सुषमा ने ललित को पानी का गिलास देते हुए कहा।

"
थैंक्स !" ललित ने लिलास लेकर सुषमा को घूरते हुए कहा।

सुषमा ने जब गौर किया तो उसे पता चला कि ललित उसकी चूचियों को घूर रहा
है, नीचे झुकने की वजह से उसका पल्लू उसके सीने से नीचे गिर गया था जिस
वजह से सुषमा की चूचियों के उभार ब्रा के उपर से ही आधे नंगे होकर ललित
की आँखों के सामने आ गये थे।

सुषमा ने सीधा होकर अपने पल्लू को वापस अपने सीने पर रख लिया। ललित ने
पानी पीने के बाद गिलास वहीं रखा और उठकर खड़ा हो गया।

"
सुषमा, मैं जा रहा हूँ !" ललित ने सुषमा के हाथ को पकड़ते हुए कहा।

"
ठीक है !" सुषमा ने ललित के हाथों से अपने हाथ पकड़ने पर हैरान होते हुए कहा।

जाने क्यों ललित का हाथ लगते ही सुषमा के जिस्म में कुछ अजीब किस्म की
सिहरन हो रही थी।
"सुषमा, मैं अब कभी भी तुमसे नहीं मिलूँगा ! क्या तुम मेरी एक ख्वाहिश
पूरी कर सकती हो?" ललित ने सुषमा के हाथ को सहलाते हुए कहा।

"
क्या ललित?" सुषमा ने ललित की आँखों में देखते हुए कहा।

"
सुषमा, मैं बस एक बार तुम्हें अपनी बाहों में भरना चाहता हूँ !" ललित
ने भी सुषमा की आँखों में देखते हुए कहा।

"
ललित, तुम यह क्या कह रहे हो? मैं एक शादीशुदा औरत हूँ... और मैं क़िसी
भी कीमत पर अपने पति को धोखा नहीं दे सकती।" सुषमा ने ललित की बात
सुनकर चौंकते हुए कहा।

"
सुषमा, मैं जानता हूँ कि मैं ग़लत कह रहा हूँ, मगर मैंने भी तुमसे
सच्चा प्यार किया था, इसीलिए मैं तुम्हें आखरी बार गले लगाना चाहता हूँ
!"
ललित ने अपने एक हाथ से सुषमा की नंगी कमर को पकड़ कर अपने से सटाते
हुए कहा।

"
आ आहह ललित ! यह ठीक नहीं है।" सुषमा ने ललित के हाथ को अपनी नंगी
कमर पर महसूस करते ही सिसकारते हुए कहा।

"
मैं जानता हूँ, लेकिन मैं मजबूर हूँ !" ललित ने अपना मुँह सुषमा के
चहरे के करीब करते हुए कहा।

सुषमा की साड़ी का पल्लू फिर से नीचे गिर गया... और उसकी बड़ी बड़ी
चूचियाँ उसकी साँसों के साथ ऊपर-नीचे होने लगी। ललितकी गर्म साँसें अब
उसे अपने चेहरे पर महसूस हो रही थी।

ललित अपने होंठ धीरे धीरे सुषमा के गुलाबी लबों के करीब ले जाने लगा।

सुषमा का पूरा बदन काँपने लगा... और उसके होंठ भी ललित के होंटों को
अपने इतना नज़दीक देखकर फड़क रहे थे...

ललित ने अपने होंटों को सुषमा के तपते होंठों पर रख दिया, ललित के
होंठ अपने होंटों पर पाते ही सुषमा की आँखें अपने आप बंद हो गई... और
उसके हाथ ललित के पीठ पर चले गये।

ललित भी सुषमा के होंटों को बड़े प्यार से चूसता हुआ उसके बालों को
सहलाने लगा। सुषमा को एक नशा सा चढ़ गया था, वो खुद नहीं समझ पा रही थी
कि उसे क्या हो गया है। ललित के होंटों के स्पर्श से ही उस पर बस मदहोशी
छा गई थी...

ललित दो मिनट तक ऐसे ही सुषमा के होंटो को चाटता और चूसता रहा...

जब दोनों की सांसें फूलने लगी तो ललित ने सुषमा के गुलाबी लबों से अपने
होंटों को अलग किया।

सुषमा ललित के अलग होते ही ज़ोर से हाँफने लगी उसकी साड़ी का पल्लू नीचे
होने की वजह से उसकी बड़ी बड़ी चूचियाँ भी ऊपर नीचे होने लगी...

ललित ने सुषमा की साड़ी को पकड़ा... और उसे उसके जिस्म से अलग करने लगा।

"
ललित, बस बहुत हो चुका ! मैं बहक गई थी ! छोड़ो मुझे !" सुषमा ने
ललित को रोकते हुए कहा।
"सुषमा, आज मुझे मत रोको ! जो होता है होने दो !" ललित ने सुषमा की
साड़ी को उसके जिस्म से खींचकर अलग कर दिया।

"
नहीं ललित ! यह सही नहीं है।" सुषमा ने अपनी साड़ी के हटते ही ज़ोर से
हाँफ़ते हुए कहा।

"
सुषमा, मैं तुम्हें अपने प्यार का तोहफा देना चाहता हूँ !" ललित ने
सुषमा को अपनी बाहों में उठाकर बिस्तर पर ले जाकर लिटाते हुए कहा।

"
ललित ! प्लीज़, मुझे छोड़ो ! विनोद भी यहीं है, अगर उसने देख लिया तो
मेरी ज़िंदगी तबाह हो ज़ायगी।" सुषमा ने ललित को मना करते हुए कहा।

"
यह बेवड़ा सुबह से पहले नहीं उठने वाला ! आज मैं अपने प्यार को पूरी तरह
से अपने रंग में रंग दूँगा !" ललित ने बेड के ऊपर चढ़ कर अपनी शर्ट को
उतारते हुए कहा।

ललित सुषमा के पैर को पकड़ कर अपनी जीभ से चाटने लगा।

"
आअहह ललित ! प्लीज़ ऐसा मत करो !" सुषमा अपने पैर पर ललित की जीभ के
लगते ही सिसकारने लगी...

ललित अपनी जीभ से सुषमा को पैर से लेकर उसकी चिकनी टाँगों को चाटते हुए
ऊपर बढ़ने लगा।

"
आअहह ललित नहीं !" सुषमा का सारा बदन उत्तेजना के मारे काँपने लगा और
उसके मुँह से सिसकारियाँ निकलने लगी...

ललित ने सुषमा की चूत के करीब पहुँच कर उसके पेटिकोट और पैंटी को उसके
जिस्म से अलग कर दिया।

"
सुषमा, मुझे पता है कि तुम भी मुझसे उतना ही प्यार करती हो, जितना मैं
!
यह देखो तुम्हारी चूत मुझे सब कुछ बता रही है कि मेरी हरकतों से तुम भी
मज़ा ले रही हो !" ललित ने सुषमा की गीली चूत को देखकर खुश होते हुए
कहा।

...
और अगले पल ही वो अपने होंटों और जीभ से पागलों की तरह सुषमा की चूत
को चाटने लगा- आअहह ललित इस्श !

सुषमा जो इतनी देर से ललित की हरकतों से गर्म हो चुकी थी, वो अपनी चूत
पर एक गैर मर्द की जीभ के लगते ही ज़ोर से चिल्लाते हुए झरने लगी।

ललित ने सुषमा के झरने के बाद अपना मुँह उसकी चूत से हटाया... और अपने
पूरे कपड़े निकाल दिए, उसने सुषमा को भी पूरी तरह नंगा कर दिया...

ललित सुषमा के साथ लेटते हुए उसकी बड़ी बड़ी चूचियों से खेलने लगा, वो
सुषमा की चूचियों को अपने हाथों से मसलते हुए अपने मुँह में लेकर चाटने
लगा।

"
आअहह ललित ! बस करो।" सुषमा के मुँह से सिर्फ़ सिसकारियाँ निकल रही
थी। उसकी आँखें मज़े से बंद थी, वो ललित की हर हरकत का पूरा मज़ा ले रही
थी क्योंकि आज तक उसके साथ उसके पति ने ऐसे प्यार नहीं किया था।

"
सुषमा, आँखें खोलकर मुझे देखो !" ललित ने सुषमा के हाथ को पकड़कर
अपने खड़े लंड पर रखते हुए कहा।

"
आअहह ललित, तुम्हारा तो बहुत बड़ा है?" सुषमा ने अपने आँखें खोलते ही
ललित के तगड़े लंड को देखकर उसे अपने हाथों से सहलाते हुए कहा।

"
हाँ सुषमा, आज मैं तुम्हें ऐसा मज़ा दूँगा जो तुम सारी ज़िंदगी नहीं
भुला पाओगी।" ललित यह कहते हुए सुषमा की टाँगों के बीच आ गया और अपने
लंड को सुषमा की काली झांटों वाली गुलाबी चूत पर घिसने लगा।

"
ओह ललित !" सुषमा ललित के लंड को अपनी चूत पर महसूस करते ही ज़ोर से
सीत्कार उठी।
"
सुषमा, आज के बाद ज़िंदगी भर तुम्हें इसका अहसास याद रहेगा !" ललित ने
अपने लंड को सुषमा की चूत के छेद पर रखकर एक ज़ोरदार धक्का मारते हुए
कहा।

"
आअहह ललित, बहुत मोटा है तुम्हारा !" सुषमा ललित के आधे लंड के घुसते
ही हल्की चीख उठी क्योंकि उसने आज तक सिर्फ़ अपने पति के लंड से ही
चुदवाया था और ललित का लंड उसके पति से बहुत ज्यादा मोटा और लंबा था।

ललित सुषमा की चीख सुनकर कुछ देर तक उसकी चूत में अपने आधे लंड से ही
धक्के मारता रहा जब सुषमा भी मज़े से सिसकारने लगी तो ललित ने 3-4
ज़ोरदार धक्के मारते हुए अपना पूरा लंड उसकी चूत में जड़ तक घुसा दिया।

"
ओइईई ईश्ह्ह्ह्ह्ह ललित ! बहुत दर्द हो रहा है !" ललित का पूरा लंड
घुसते ही सुषमा की चीखें निकलने लगी।

"
बस हो गया डार्लिंग !" ललित ने सुषमा के ऊपर झुककर उसकी बड़ी बड़ी
चूचियों को चूसते हुए कहा।

और नीचे से अपने लंड को भी धीरे धीरे उसकी चूत में अंदर-बाहर करने लगा।

"
आअहह ललित ! तुमने यह क्या कर दिया? ओह तेज़ करो !" कुछ ही देर में
सुषमा भी फिर से गर्म होकर सिसकारते हुए कहने लगी।

ललित भी सुषमा की बात सुनकर जोश में आते हुए सीधा होकर उसकी चूत में
बहुत ज़ोर के धक्के मारने लगा, ललित अपना पूरा लंड निकालकर फिर से उसे
सुषमा की चूत में घुसा रहा था जिस वजह से उसके हर धक्के के साथ सुषमा
के मुँह से उत्तेजना के मारे सिसकारियाँ निकल रही थी और उसकी मोटी मोटी
चूचियाँ हर धक्के के साथ बहुत ज़ोर से हिल रही थी।

"
आआहह ललित ! और तेज़ ! ओह मैं झरने वाली हूँ ईश्ह्ह्ह !" सुषमा का
जिस्म अचानक अकड़ने लगा... और वो चिल्ला कर अपने चूतड़ों को ज़ोर से
उछालते हुए झरने लगी.... ललित भी सुषमा को झरता देखकर उसकी चूत में
बहुत तेज़ी और ताक़त के साथ धक्के मारने लगा, सुषमा की चूत झरते हुए
ललित के लंड पर ज़ोर से सिकोड़ने और खुलने लगी जिस वजह से ललित भी ज़ोर
से हाँफ़ते हुए सुषमा की चूत को अपने गरम वीर्य से भरने लगा।

"
सुषमा, आई लव यू वेरी मच !" ललित झरते हुए नीचे झुककर अपने लंड को
पूरा सुषमा की चूत में जड़ तक घुसा दिया।

"
ललित आइ लव यू टू !" सुषमा भी ललित के गरम वीर्य को अपनी चूत की
गहराइयों में गिरता हुया महसूस करके उसे अपनी बाँहो में भरते हुए कहने
लगी।

ललित कुछ देर तक यों ही नंगा ही सुषमा की बाहों में पड़े रहने के बाद
उठकर कपड़े पहनने लगा..... सुषमा वैसे ही लेटे हुए हाँफ रही थी, उसकी
चूत का छेद अब भी खुला हुआ था... और उसकी चूत से ललित का वीर्य निकल रहा
था, ललित की चुदाई से सुषमा की चूत सूजकर लाल हो चुकी थी।

"
ललित, यह सब ठीक नहीं हुआ !" सुषमा ने ललित के कपड़े पहनने के बाद
उसे देखते हुए कहा।

"
सुषमा, आज के बाद में कभी भी तुम्हारी ज़िंदगी में नहीं आऊँगा, जो कुछ
भी हुआ, वो हम दोनों की एक भूल थी !" ललित ने सुषमा को देखते हुए
कहा... और सुषमा के करीब आकर उसके होंटों पर अपने होंठ रख दिए...

सुषमा ललित के लबों को अपने लबों पर महसूस करते ही फिर से एक अजीब नशे
में डूब गई.... और ललित को ज़ोर से अपनी बाहों में भरते हुए चूमने लगी।

ललित कुछ देर तक सुषमा के होंटों से वैसे ही खेलने के बाद उसे वहीं
छोड़ कर बाहर निकल गया.... सुषमा ललित के जाने के बेड से उठकर अपने
कपड़े पहनने लगी। वो मन ही मन में सोचने लगी कि उसने आज एक बड़ी खता की
है मगर वो खता उसके लिए एक खूबसूरत खता थी जिसे वो चाहकर भी कभी नहीं
भुला पाएगी।Tags = Future | Money | Finance | Loans | Banking | Stocks | Bullion | Gold | HiTech | Style | Fashion | WebHosting | Video | Movie | Reviews | Jokes | Bollywood | Tollywood | Kollywood | Health | Insurance | India | Games | College | News | Book | Career | Gossip | Camera | Baby | Politics | History | Music | Recipes | Colors | Yoga | Medical | Doctor | Software | Digital | Electronics | Mobile | Parenting | Pregnancy | Radio | Forex | Cinema | Science | Physics | Chemistry | HelpDesk | Tunes| Actress | Books | Glamour | Live | Cricket | Tennis | Sports | Campus | Mumbai | Pune | Kolkata | Chennai | Hyderabad | New Delhi | कामुकता | kamuk kahaniya | उत्तेजक | मराठी जोक्स | ट्रैनिंग | kali | rani ki | kali | boor | सच | | sexi haveli | sexi haveli ka such | सेक्सी हवेली का सच | मराठी सेक्स स्टोरी | हिंदी | bhut | gandi | कहानियाँ | छातियाँ | sexi kutiya | मस्त राम | chehre ki dekhbhal | khaniya hindi mein | चुटकले | चुटकले व्‍यस्‍कों के लिए | pajami kese banate hain | हवेली का सच | कामसुत्रा kahaniya | मराठी | मादक | कथा | सेक्सी नाईट | chachi | chachiyan | bhabhi | bhabhiyan | bahu | mami | mamiyan | tai | sexi | bua | bahan | maa | bharat | india | japan |funny animal video , funny video clips , extreme video , funny video , youtube funy video , funy cats video , funny stuff , funny commercial , funny games ebaums , hot videos ,Yahoo! Video , Very funy video , Bollywood Video , Free Funny Videos Online , Most funy video ,funny beby,funny man,funy women

1 comment:

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