Thursday, December 5, 2013

FUN-MAZA-MASTI कामोन्माद -7

FUN-MAZA-MASTI
 कामोन्माद -7
 

आप सभी ने तो देखा ही होगा - 'ब्लू फिल्मों' में हीरो कुछ इस तरह दिखाए जाते हैं की मानो वो चार-चार घंटे लम्बे यौन मैराथन को भी मजे में कर सकते हैं। और इतनी देर तक उनका लिंग भी खड़ा रहता है और उनकी टांगो और जांघों में ताकत शेष रहती है। संभव है की कुछ लोग शायद ऐसा करते भी होंगे, और उनकी स्त्रियों से मुझे पूरी सहानुभूति भी है। मुझे अपने बारे में मालूम था की मैं ऐसे मैराथन नहीं खेल सकता हूँ। वैसे भी मैं आज तक किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूँ जिसने ऐसा दावा किया हो। खैर, यह सब कहने का मतलब यह है की मेरे लिए यह सब जल्दी ही ख़तम होने वाला था ....

मैंने ऊपर जा कर संध्या के होंठ चूमने शुरू कर दिए - हम दोनों ही कामुकता के उन्माद के चरम पर थे और एक दूसरे से उलझे जा रहे थे। संध्या की टाँगे मेरे कंधो पर कुछ इस तरह लिपटी हुई थी की मुझे कुछ भी करने से पहले उसकी टांगो को खोलना पड़ता। मैंने वही किया और उसके सामानांतर आकर उसको पकड़ लिया। ऐसा करने से मेरा उन्नत शिश्न अपने तय निशाने से जा चिपका।

मुझे लगता है की यौन क्रिया हम सभी को नैसर्गिक रूप में मिलती है - चाहे किसी व्यक्ति को वात्स्यायन की विभिन्न मुद्राओं का ज्ञान न भी हो, फिर भी स्त्री-पुरुष दोनों ही सेक्स की आधारभूत क्रिया से भली भाँति परिचित होते ही हैं। कुछ ऐसा ही ज्ञान इस समय संध्या भी दिखा रही थी। वह अभी भी कामुकता के सागर में गोते लगा रही थी और पूरी तरह से अन्यमनस्क थी। लेकिन उसका जघन क्षेत्र धीरे-धीरे झूल रहा था - कुछ इस तरह जिससे उसकी योनि मेरे लिंग के ऊपर चल फिर रही थी और उसके अनजाने में ही, मेरे लिंग को अपने रस से भिगो रही थी।

संध्या अचानक से रुक गयी - उसने अपनी पलकें खोल कर, अपनी नशीली आँखों से मुझे देखा। और फिर बिस्तर पर लेट गयी।

'कहीं यह आ तो नहीं गयी!' मेरे दिमाग में ख़याल आया। 'ये तो सारा खेल चौपट हो गया।'

मैं एक पल अनिश्चय की हालत में रुक गया और अगले ही पल संध्या ने लेटे-लेटे ही अपना हाथ बढ़ा कर मेरे लिंग को पकड़ लिया और उसको अपनी योनि की दिशा में खीचने लगी। मैं भी उसकी ही गति के साथ साथ चलता रहा। अंततः, वह मेरे लिंग को पकड़े हुए अपनी योनि द्वार पर सटा कर सहलाने लगी।

यह पूरी तरह से अविश्वसनीय था।

संध्या मुझे सेक्स करने के लिए खुद ही आमंत्रित कर रही थी!!

कामोन्माद का ऐसा प्रदर्शन!

वाह!

अब आगे जो मुझे करना था, वह पूरी तरह साफ़ था। मैंने बिलकुल भी देर नहीं की। संध्या को मन ही मन इस निमंत्रण के लिए धन्यवाद करते हुए मैंने उसको हौले से अपनी बाँहों में पकड़ लिया। ऐसा करने से उसके दोनों निप्पल (जो अब पूरी तरह से कड़क हो चले थे) मेरे सीने पर चुभने लगे। मैंने संध्या को फिर से कई बार चूमा - और हर बार और गहरा चुम्बन। चूमने के बाद, मैंने उसके नितम्बों को पकड़ कर हौले हौले दबा दिया; साथ ही साथ मैंने अपने पैरों को कुछ इस तरह व्यवस्थित किया जिससे मेरा लिंग, संध्या की योनि को छूने लगे।

मैंने लिंग को हाथ से पकड़ कर, पहले संध्या के भगनासे पर फिराया, और फिर वहां से होते हुए उसके भगोष्ठ के बीच में लगा कर अन्दर की यात्रा प्रारंभ की। मेरे लिंग की इस यात्रा में उसका साथ संध्या ने भी दिया। जैसे ही मैंने आगे की तरफ जोर लगाया, नीचे से संध्या ने भी जोर लगाया। इन दोनों प्रयासों के फलस्वरूप, मेरा लिंग, संध्या की योनि में कम से कम तीन चौथाई समां गया। संध्या की उत्तेजना इसी बात से प्रमाणित हो जाती है। मैंने संध्या की गर्मागरम, कसी हुई, गीली, रसीली योनि में और अन्दर सरकना चालू कर दिया। संध्या की आँखें बंद थी, और हम दोनों में से कोई भी कुछ भी नहीं बोल रहा था। लेकिन फिर भी, ऐसा लगता था मानो हम दोनों इस नए 'केबल-कनेक्शन' के द्वारा बतला रहे हों। इस समय शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं थी। मैंने महसूस किया की मैं अपनी डार्लिंग के अन्दर पूरी तरह से समां गया हूँ।

इस छण में हम दोनों कुछ देर के लिए रुक गए - अपनी साँसे संयत करने के लिए। साथ ही साथ एक दूसरे के शरीर के स्पर्श का आनंद भी लेने के लिए। करीब बीस तीस सेकंड के आराम के बाद मैंने लिंग को थोडा बाहर निकाल कर वापस उसकी योनि की आरामदायक गहराई में ठेल दिया। संध्या की योनि के अन्दर की दीवारों ने मेरे लिंग को कुछ इस तरह कस कर पकड़ लिया जैसे की ये दोनों ही एक दूसरे के लिए ही बने हुए हों। अब मैंने अपने लिंग को उसकी योनि में चिर-परिचित अन्दर बाहर वाली गति दे दी। साथ ही साथ, हम दोनों एक दूसरे को चूमते भी जा रहे थे।

मेरी कामना थी की यह कार्य कम से कम दस मिनट तक किया जा सके, लेकिन मैं सिर्फ पच्चीस से तीस धक्कों तक ही टिक सका। अपने आखिरी धक्के में मैं जितना भी अन्दर जा सकता था, चला गया। शायद मेरे इशारे को समझते हुए संध्या ने भी अपने नितम्ब को ऊपर धकेल दिया। मेरा पूरा शरीर स्खलन के आनंद में सख्त हो गया - मेरे लिंग का गर्म लावा पूरी तीव्रता से संध्या की कोख में खाली होता चला गया। पूरी तरह से खाली होने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर से उठा कर अपने से कस कर लिपटा लिया, और उसके कोमल मुख को बहुत देर तक चूमता रहा। यह आभार प्रकट करने का मेरा अपना ही तरीका था।

हम लोग कुछ समय तक ऐसे ही एक दूसरे के आलिंगन में बंधे हुए यौन क्रिया के आनंद रस पीते रहे, की अचानक संध्या कसमसाने लगी। मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर डाली।

"क्या हुआ?"

"जी ... टॉयलेट जाना है ...." उसने कसमसाते हुए बोला।

जैसा की मैंने पहले ही बताया है, संध्या को सेक्स करने के बाद मूत्र विसर्जन का अत्यधिक तीव्र एहसास होता है। वैसे भी सुबह उठने के बाद सभी को यह एहसास तो होता ही है ... लिहाज़ा संध्या को और भी तीव्र अनुभूति हो रही थी। उसके याद दिलाने से मुझे भी टॉयलेट जाने का एहसास होने लगा। और इस कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं था - मतलब अब तो कमरे से बाहर घर के अन्दर वाले बाथरूम में जाना पड़ेगा। इतनी सुबह तो बाहर बगीचे में तो जाया नहीं जा सकता न। वैसे भी अब उठने का समय तो हो ही गया था। आज के दिन कुछ पूजायें करनी थी, और उसके लिए नहाना धोना इत्यादि तो करना ही था।

हम दोनों ही उठ गए। मूर्खता की बात यह की हम दोनों के सामान इस कमरे में नहीं थे। संध्या ने न जाने कैसे कैसे अपने आप को सम्हाल कर साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज पहना। यह सब करते करते हम दोनों को कम से कम दस मिनट लग गए। इस बीच मैंने भी अपना कुरता और पजामा पहन लिया। उस बेचारी का इस समय बुरा हाल हो रहा होगा - एक तो सेक्स का दर्द और ऊपर से मूत्र का तीव्र एहसास! संध्या धीरे-धीरे चलते हुए दरवाज़े तक पहुंची। दरवाज़ा खोलने से पहले उसको कुछ याद आया, और उसने अपने सर को पल्लू से ढक लिया।

'हह! भारतीय बहुओं के तौर तरीके! ये लड़की तो अपने मायके से ही शुरू हो गयी!' मैंने मज़े लेते हुए सोचा।

"जाग गयी बेटा!" ये शक्ति सिंह थे ... अब उनको क्या बताया जाए की जाग तो बहुत देर पहले ही गए हैं। और ऐसा तो हो नहीं सकता की अपनी बेटी की कामुक कराहें उन्होंने न सुनी हो। संध्या प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी। उसने जल्दी से बाथरूम की तरफ का रुख किया। संध्या के पीछे ही मैं कमरे से बाहर निकला।

"... आइये आइये .." मुझे देख कर उन्होंने कहना जारी रखा, "बैठिये .. नीलम बेटा, जीजाजी के लिए चाय लाओ ..... आप जल्दी से फ्रेश हो जाइये ... आज भी काफी सारे काम हैं।"

कम जान पहचान होने के कारण मैं मना नहीं कर सका। वैसे भी, गरम चाय इस ठण्डक में आराम तो देगी ही। अब मैंने अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाई - घर में सामान्य से अधिक लोग थे। 'शादी-ब्याह का घर है', मैंने सोचा, '... सारे रिश्तेदार आये होंगे ..'

सभी लोग मेरी तरफ उत्सुकतापूर्वक देख रहे थे .. लेकिन अगर मेरी नज़र किसी की नज़र से मिलती तो वो तुरंत अपनी नज़र नीची कर लेते - मानो को कोई चोरी पकड़ी गयी हो। एक-दो औरतें लेकिन बड़ी ढिठाई से मुझे घूरे जा रही थी। मैंने उनको नज़रंदाज़ करना ही उचित समझा। शक्ति सिंह से आगे कोई बात नहीं हो पायी ... वो आगे के इंतजाम के लिए कमरे से बाहर चले गए थे। लिहाज़ा, अब मेरे पास चाय आने के इंतज़ार के अतिरिक्त और कोई काम नहीं बचा था।
 मुझे अब ठण्ड लगने लग गयी थी .. मेरे पास इस समय कोई गरम कपड़ा नहीं था। मेरा सामान कहीं नहीं दिख रहा था। 'इतनी ठण्ड में तो जान निकल जायेगी' मैंने सोचा।

"जीजू, आपकी चाय ...." यह सुन कर मेरी जान में जान आई।

"थैंक यू!" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

".. और ये है आपके लिए शाल!" नीलम ने बाल-सुलभ चंचलता के साथ कहा।

"नीलम! यू आर अन एंजेल! .... फ़रिश्ता हो तुम!" मैंने मुस्कुराते हुए मन से आभार प्रकट किया।


नीलम के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।

"जीजू ... आपकी स्माइल मुझे बहुत पसंद है ..." नीलम ने चंचलता से कहना जारी रखा, "... और आपसे मैं एक बात कहूँ?"

"हाँ .. बोलो न" मैंने चाय की पहली चुस्की लेते हुए कहा।

"मैं आपको जीजू न बोलूँ तो चलेगा?"

"बिलकुल!"

"मैं आपको दाजू कहूँ?"

"कह सकती हो .. लेकिन इसका मतलब क्या होता है?"

"दाजू होता है बड़ा भाई ... आप मेरे बड़े भैया ही तो हैं न..." नीलम की इस स्नेह भरी बात ने मेरे ह्रदय के न जाने कैसे अनजान तार छेड़ दिए। मेरा मन हुआ की इस बच्ची को जोर से गले लगा लूँ! एक रोड-ट्रिप पर निकला था, और आज एक पूरा परिवार है मेरे पास!

नहा-धो कर मैंने नाश्ता किया - इस बीच संध्या मेरे सामने नहीं आई। वह अन्दर ही थी ... अपने परिजनों के साथ बात-चीत कर रही होगी। खैर, जब वह बाहर निकली, तो उसने नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। बाकी का पहनावा कल के जैसा ही था। मैंने भी एक कुर्ता और चूड़ीदार पजामा पहना हुआ था। हम दोनों ने ही शाल ओढ़ा हुआ था। दिन में भी ठंडक काफी थी। आज की व्यवस्था यह थी की इस कसबे की मानी हुई संरक्षक देवी के दर्शन और पूजा-पाठ करनी थी। उनका मंदिर घर से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ के ऊपर बना था। लिहाज़ा वहां पर जाने के लिए पैदल ही रास्ता था। अगर मुझे मालूम होता, तो संध्या को रात में इतना परेशान न करता। खैर, अब किया भी क्या जा सकता था।

पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए मैंने संध्या से पूछा की क्या वह ठीक से चल पा रही है …. जिसका उत्तर उसने हाँ में दिया। कुछ देर चलते रहने के बाद मंदिर आया। वहां पंडित जी पहले से ही तैयार थे, और हमारे आते ही उनके मंत्रोच्चारण शुरू हो गए। कुछ देर में पूजा सम्पन्न हुई और हम लोग मंदिर के बाहर एक चौरस मैदान में आकर रुके। पंडित जी यहाँ भी आकर मंत्र पढने लगे और कुछ ही देर में उन्होंने मुझे एक पौधा दिया, और मुझे उसको रोपने को बोला। मुझे उस समय याद आया की उत्तराँचल में कुछ वर्षो से एक आन्दोलन जैसा चला हुआ है, जिसको "मैती" कहा जाता है।

आज के दौर में "ग्लोबल वार्मिंग" मानवता और धरती दोनों के लिए एक बड़ी समस्या बनकर उभरा, ऐसे में मैती आंदोलन अपने आप में एक बड़ी मिसाल है। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ रस्म भर हो सकता हैं, लेकिन वास्तविकता में यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है जिसे अगर व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। इस रीति में शादी के समय वैदिक मंत्रेच्चार के बीच दूल्हा-दुल्हन द्वारा फलदार पौधों का रोपण किया जाता है। जब भी उत्तराँचल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है, तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा लगवाया जाता है। दूल्हा पौधो को रोपित करता है और दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर गाँव के बड़े बूढ़े लोग नव-दम्पत्ति को आशीर्वाद देते हैं।


मुझे पता चला की दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती संरक्षकों (जिनको मैती बहन कहा जाता है) को पैसे भी देता है, जो की रस्म के बाद रोपे गए पौधों की रक्षा करती हैं, खाद, पानी देती हैं, जानवरों से बचाती हैं। मैती बहनों को जो पैसा दूल्हों के द्वारा इच्छानुसार मिलता है, उसे रखने के लिए मैती बहनों द्वारा संयुक्त रूप से खाता खुलवाया जाता है। उसमें यह राशि जमा होती है। खाते में अधिक धानराशि जमा होने पर इसे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया जाता है। 'ऐसे प्रयास के लिए तो मैं कितने ही पैसे दे सकता हूँ' मैंने सोचा, लेकिन उस समय मेरी जेब में इतने पैसे नहीं थे। इसलिए मैंने उन लोगो को घर पर अपने साथ बुलाया। वहां पर मैंने एक लाख रुपये का चेक काट कर उनको दिया। मुझे लगा की आज का दिन कुछ सार्थक हुआ। 

आज का कार्यक्रम अब समाप्त हो गया था, खाना-पीना करने के बाद अब मेरे पास कुछ भी करने को नहीं था। मुझे संध्या का साथ चाहिए था, लेकिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा था। जो भी अंतरंगता और एकांत मुझे उसके साथ मिला था, वह सिर्फ रात को सोते समय ही था। मैं उसके साथ कहीं खुले में या अकेले बिताना चाहता था। मैं अपनी कुर्सी से उठ कर अन्दर के कमरे में गया, जहाँ संध्या थी। मैंने देखा की अनगिनत औरतें और लड़कियां उसको घेर कर बैठी हुई थी। मुझे उनको देख कर चिढ़ हो गयी। मुझे वहां दरवाज़े पर सभी ने खड़ा हुआ देखा … संध्या ने भी। मैंने उसको इशारे से मेरी ओर आने को कहा। संध्या उठी, और अपना पल्लू ठीक करती हुई मेरी तरफ आई।

"जी?"

"संध्या … कहीं बाहर चलते हैं।"

"कहाँ?"

"मुझे क्या मालूम? आपका शहर है …. आपको जो ठीक लगे, मुझे दिखाइए …."

"लेकिन, यहाँ पर इतने सारे लोग हैं …"

"अरे! इनसे तो आप रोज़ मिलती होंगी। मुझे आपके साथ कुछ अकेले में समय चाहिए …"

संध्या के गाल यह सुन कर सुर्ख लाल हो गए। संभवतः, उसको रात और सुबह की याद हो आई हो।

"जी, ठीक है।"

"और एक बात, यह साड़ी उतार दीजिये।"

"जी???"

"अरे! मेरा मतलब है की शलवार कुरता पहन कर आओ। चलने फिरने में आसानी रहेगी। हाँ, मुझे आप शलवार कुर्ते में ज्यादा पसंद हैं …." मैंने उसको आँख मारते हुए कहा।

"जी, ठीक है। मैं थोड़ी देर में बाहर आ जाऊंगी।"
 मुझे नहीं पता की उसने शलवार कुर्ता पहन कर बाहर आने के लिए अपने घर में क्या क्या झिक झिक करी होगी, लेकिन क्योंकि यह आदेश मेरी तरफ से आया था, कोई उसका विरोध नहीं कर सका। संध्या ने हलके हरे रंग का बूटेदार शलवार कुर्ता और उससे मिलान किया हुआ दुपट्टा पहना हुआ था। उसके ऊपर उसने लगभग मिलते रंग का स्वेटर पहना हुआ था। इस पहनावे और लाल रंग की चूड़ियों में वह बला की खूबसूरत लग रही थी। इस समय दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। ठंडक और दोपहर होने के कारण आस पास कोई लोग भी नहीं दिखाई दे रहे थे। अच्छी बात यह थी की ठंडी हवा नहीं चल रही थी, नहीं तो यूँ बाहर घूमने से तबियत भी बिगड़ सकती थी। संध्या मुझे मुख्या सड़क से पृथक, पहाड़ी रास्तों से प्रकृति के सुन्दर दृश्यों के दर्शन करने को ले गयी। कुछ देर तक पैदल चढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन एक समय पर समतल मैदान जैसा भी आ गया। संध्या ने बताया की इसको बुग्याल बोलते हैं। इन चौरस घास के मैदानों में हरी घास और मौसमी फूलों की मानो एक कालीन सी बिछी हुई रहती है। यहाँ से चारों तरफ दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे देवदार और चीड के पेड़ देखे जा सकते थे।

"क्या मस्त जगह है …" कहते हुए मैंने संध्या का हाथ थाम लिया, और उसने भी मेरा हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया।

"मैं आपको अपनी सबसे फेवरिट जगह ले चलूँ?" संध्या ने उत्साह के साथ पूछा।

"बिलकुल! इसीलिए तो आपके साथ बाहर आया हूँ।"

इस समय अचानक ही किसी तरफ से करारी ठंडी हवा चली।

"अगर ऐसे ही हवा चलती रही तो ठंडक बढ़ जायेगी" मैंने कहा। संध्या ने सहमती में सर हिलाया।

"हाँ, इस समय तक पहाडो पर बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है …. लेकिन अभी ठीक है… चार बजे से पहले लौट चलेंगे लेकिन, नहीं तो बहुत ठंडक हो जायेगी।" उसने कहा, और बुग्याल में एक तरफ को चलती रही। कोई पांच-छः मिनट चलने पर मुझे सामने की तरफ एक झील दिखने लगी। उसके बगल में ही एक झोपड़ा भी बना हुआ था। संध्या वहां जा कर रुक गयी। पास से देखने पर यह झोपड़ा नहीं, एक घर जैसा लग रहा था। कहने को तो एकदम वीरान जगह थी, लेकिन कितनी रोमांटिक! एक भी आदमी नहीं था आस पास।

"यहाँ मैं बचपन में कई बार आती थी …. यह घर मेरे दादाजी ने बनवाया था, लेकिन दादाजी के बाद पिताजी नीचे कस्बे में रहने लगे - वहां हमारी खेती है। पिछले दस साल से हम लोग यहाँ नहीं रहते हैं। लेकिन मैं यहाँ अक्सर आती हूँ। मुझे यह जगह बहुत पसंद है।"

"क्या बात है!" मैंने एक बाल-सुलभ उत्साह से कहा, "मैंने इससे सुन्दर जगह नहीं देखी …" मैंने रुकते हुए कहा, "और मैंने तुमसे सुन्दर लड़की आज तक नहीं देखी।"

संध्या उत्तर में हलके से मुस्कुरा दी। घर के सामने, झील के लगा हुआ पत्थर का बैठने का स्थान बना हुआ था। हम दोनों उसी पर बैठ गए। इसी समय बदल का एक छोटा सा टुकड़ा सूरज के सामने आ गया और एक ताज़ी बयार भी चली। मौसम एकदम से रोमांटिक हो चला। ऐसे में एक सुन्दर सी झील के सामने, अपनी प्रेमिका के साथ बैठ कर आनंद उठाना अत्यंत सुखद था।
 मेरे मन में एक कल्पना थी - और वह यह की खुले में - संभवतः किसी खेत में या किसी एकांत, निर्जन जगह में - सम्भोग करना। यह स्थान कुछ वैसा ही था। वैसे यह बहुत संभव था की गाँव और कसबे का कोई व्यक्ति यहाँ आ सकता, लेकिन मेरे हिसाब से इस समय और इस मौसम में यह होने की सम्भावना थोड़ी कम थी। यह देख कर मेरे दिमाग में अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने की संभावना जाग उठी। ताज़ी, सुगन्धित हवा ने मेरे अन्दर एक नया जोश भर दिया था।

मैंने संध्या की छरहरी कमर में अपनी बाँह डाल कर उसको अपने से चिपटा लिया। संध्या भी बहुत ही मुश्किल से मिले इस एकांत का आनंद उठाना चाहती थी - वह भी मुझसे सिमट सी गयी। मैंने अपना गाल, संध्या के गाल से सटा दिया और सामने के सुन्दर दृश्य का आनंद लेने लगा। ऐसे सुन्दर पर्वतों की गोद में, दुनिया के भीड़-भाड़ से दूर …. यह एक ऐसी दुनिया थी, जहाँ जीवन पर्यन्त रहा जा सकता था।

"आई लव यू" मैंने कहा और संध्या के गाल को चूम लिया। संध्या ने फिर से मुझे अपनी भोली मुस्कान दिखाई। उसके ऐसा करते ही मैंने उसके मुखड़े को अपनी बाँहों में भरा और उसके सुन्दर कोमल होंठों को चूम लिया। मैंने उसको विशुद्ध प्रेम और अभिलाषा के साथ चूम रहा था। संध्या मेरे लिए पूरी तरह से "परफेक्ट" थी। हाँलाकि वह अभी नव-तरुणी ही थी, और उसके शरीर के विकास की बहुत संभावनाएं थी। मुझे उसके शरीर से बहुत लगाव था - लेकिन मेरे मन में उसके लिए प्रेम सिर्फ शारीरिक बंधन से नहीं बंधा हुआ था, बल्कि उससे काफी ऊपर था। लेकिन यह सब कहने का यह अर्थ नहीं है की मुझे उसके शरीर के भोग करने में कोई एतराज़ था। मैं उससे जब भी मौका मिले, प्रेम-योग करने की इच्छा रखता था। संध्या मेरे चुम्बन से पहले तो एकदम से पिघल गयी - उसका शरीर ढीला पड़ गया। उसकी इस निष्क्रियता ने असाधारण रूप से मेरे अन्दर की लालसा को जगा दिया।

मैंने उसके होंठो को चूमना जारी रखा - मेरे मन में उम्मीद थी की वह भी मेरे चुम्बन पर कोई प्रतिक्रिया दिखाएगी। मुझे बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ा। उसने बहुत नरमी से मेरे होंठो को चूमना शुरू कर दिया, और मुझे अपनी बांहों में बाँध लिया। मैंने उसको अपनी बांहों में वैसे ही पकड़े रखा हुआ था, बस उसको अपनी तरफ और समेट लिया। हम दोनों के अन्दर से अपने इस चुम्बन के आनंद की कराहें निकलने लगीं। पहाड़ की ताज़ी, सुगन्धित हवा ने हम दोनों के अन्दर स्फूर्ति भर दी।

न जाने कैसे और क्यों मैंने इन चुम्बनों के बीच संध्या के स्वेटर को उसके शरीर से उतार दिया। संध्या पहाड़ो पर ही पली बढ़ी थी - यह ठंडक वस्तुतः उसके लिए सुखदायक थी। स्वेटर तो उसने बस किसी अप्रत्याशित ठंडक से बचने के लिए पहना हुआ था। ठंडी ताज़ी बयार के सुख से संध्या के मुंह से सुख वाली आह निकल गयी। मैंने उसको पुनः चूमना शुरू कर दिया और साथ ही साथ उसके कुर्ते के ऊपरी बटन खोलने लगा। मुझे ऐसा करते देख कर संध्या चुम्बन तोड़ कर पीछे हट गयी।

"रुकिए! प्लीज!" उसने अपनी आँखें सिकोड़ते हुए कहा, "… यहाँ नहीं। अगर कोई देख लेगा तो?"

"मुझे नहीं लगता यहाँ कोई इस समय आएगा।"

"लेकिन दिन में ….?"

"क्यों? दिन में क्या बुराई है? सब कुछ साफ़ साफ़ दिखता है!" मैंने शैतानी भरा जवाब दिया।

"आप भी न … आपकी बीवी को अगर कोई ऐसी हालत में देखेगा तो क्या आपको अच्छा लगेगा?"

"ह्म्म्म … इस बारे में सोचा नहीं कभी। लेकिन अभी लग रहा है की मेरी इतनी सेक्सी बीवी है, तो क्या ही बुराई है?" मैंने उल्टा जवाब देना जारी रखा।

"प्लीज …." संध्या ने विनती की। लेकिन मेरे हाथ तब तक उसके कुर्ते के सारे बटन खोल चुके थे (सिर्फ तीन बटन ही तो थे)।

उसने हथियार डाल ही दिए, "अच्छा ठीक है … लेकिन प्लीज एक बार देख लीजिये की कोई आस पास नहीं है।" वो बेचारी मेरी किसी भी बात का विरोध नहीं कर रही थी।

"ओके स्वीट हार्ट!" मैंने अनिच्छा से उससे अलग होते हुए कहा। मैंने जल्दी से चारों तरफ का सर्वेक्षण किया। वैसे मेरे ऐसा करने का कोई फायदा नहीं था। मुझे पहाड़ी इलाको की कोई जानकारी नहीं थी। कोई भी व्यक्ति, जो इस इलाके का जानकार हो, अगर चाहे तो बड़ी आसानी से मेरी दृष्टि से बच सकता था। मुझे यह पूरा काम समय की बर्बादी ही लग रहा था। मैं जल्दी ही वापस आ गया।

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