Thursday, December 5, 2013

FUN-MAZA-MASTI कामोन्माद -8

FUN-MAZA-MASTI
 कामोन्माद -8  


"कोई नहीं है …." मैंने ख़ुशी ख़ुशी उद्घोषणा की, और वापस उसको चूमने में व्यस्त हो गया। मैंने देखा की संध्या ने अपने कुर्ते के बटन वापस नहीं लगाए थे, मतलब यह की वह भी तैयार थी। मैंने उसके कुर्ते के अन्दर हाथ डाल कर उसके स्तनों को हलके हलके से दबाया और फिर उसके कुर्ते को उसके शरीर से उतारने लग गया।

"वाकई कोई नहीं है न?" संध्या ने घबराई आकुलता से पूछा - अब तक कुर्ते का दामन उसके स्तनों के स्तर तक उठ चुका था।

मैंने उसको फिर से चूम लिया।

"यहाँ बस दो ही लोग आने वाले थे … जो की आ चुके हैं" मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

संध्या भी उत्तर में मुस्कुराई और मुस्कुराते हुए उसने अपने दोनों हाथ उठा दिए, जिससे मैं उसके कुर्ते को उतार सकूं। कुरता उतरते ही उसके सुन्दर और दिलचस्प स्तन दिखने लग गए। उसके निप्पल पहले ही खड़े हुए थे - या तो यह ठंडी हवा का प्रभाव था, या फिर कामुक उत्तेजना का। मैंने उसके स्तनों को अपने हाथों में समेट लिया। संध्या के दृदय के स्पंदन, उसके स्तनों की कोमलता और उसके निप्पलों के कड़ेपन को महसूस करके मुझे उसकी उत्तेजना का अनुमान हो गया। हम वापस अपने कामुक चुम्बनों के आदान प्रदान में व्यस्त हो गए।

संध्या की उत्तेजना बढती ही जा रही थी - वह मेरे चुम्बनों का उत्तर और भी भूखे चुम्बनों से दे रही थी। उसके होंठ मेरे होंठो को बुरी तरह चूम रहे थे, और अब उसके हाथ मेरे पजामे के नाड़े को टटोल कर खोलने की कोशिश कर रहे थे। उसकी इस हरकत से मुझे आश्चर्य हुआ।

'प्रकृति और उसके अजीब प्रभाव' मैंने मन ही मन सोचा।

नाडा खुलते ही मेरा पजामा नीचे सरक गया, और सामने अंडरवियर को उभारता हुआ मेरा लिंग दिखने लगा। ठंडी हवा से मेरे जांघो और अन्य संवेदनशील स्थानों पर रोंगटे खड़े हो गए। संध्या ने कल रात की दी हुई शिक्षा का पालन करते हुए मेरे अंडरवियर को नीचे सरका दिया। मेरा उत्तेजित लिंग अब मुक्त था। बिना कोई देर किये उसने लिंग को अपने गरम हाथो में पकड़ कर प्यार से सहलाने लगी। अब तक मैंने भी उसकी शलवार को नाड़े से मुक्त कर दिया था। मैं उससे अलग हुआ और उसकी चड्ढी और शलवार को एक साथ ही नीचे सरका कर उसके शरीर से अलग कर दिया। अब पूर्णतया अनावृत संध्या इस निर्जन प्राकृतिक सौन्दर्य का एक हिस्सा बन चुकी थी। मैंने भी अपना कुरता और अन्य वस्त्र तुरंत अपने शरीर से अलग कर दिए। हम दोनों ही अब पूर्णरूपेण नग्न हो गए थे - प्रेम-योग में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए।


संध्या की कशिश ही कुछ ऐसी थी की मैं उसके साथ कितनी भी बार सम्भोग कर सकता था। हमारे इस संक्षिप्त सम्बन्ध में मुझे संध्या के संग का आनंद आने लगा - उसके शरीर का भोग करना, उसके शरीर के हर अंग और उसकी हर भावनाओं का अन्वेषण करना - यह सब मुझे बहुत आनंद देने लग गया था। संध्या का हाथ मेरे लिंग पर था, और उसको सहला रहा था। मुझे उसकी इस क्रिया से आनंद आने लग गया। उसने ऐसा बस दस बारह सेकंड ही किया होगा की उसने अपना हाथ मेरे लिंग से हटा लिया और पत्थर पर लेट गयी - सम्भोग की मुद्रा में - अपनी टाँगे थोड़ा खोल कर।

"ये क्या है? छोड़ क्यों दिया?" मैंने उसको छेड़ा।

"आइये न!"क्या बात है!

"नहीं! ऐसे नहीं। कुछ अलग करते हैं!"

"अलग? क्या?"

"अरे! यह कोई ज़रूरी नहीं है की पीनस हमेशा वेजाइना के अन्दर ही जाए!"

"जी …. पीनस क्या होता है? और वो दूसरा आपने क्या कहा?"

"पीनस होता है यह," मैंने अपने लिंग को पकड़ कर दिखाया, "… और वेजाइना होती है यह …." मैंने उसकी योनि की तरफ इशारा किया।"अब समझ में आया आपको?"

"जी! आया …. लेकिन 'ये' 'इसके' अन्दर नहीं आएगा, तो … फिर …. कहाँ …. जाएगा?" संध्या थोड़ी अस्पष्ट लग रही थी।

"अगर बताऊँगा तो आप नाराज़ तो नहीं होंगी?"

"आप तो मेरे मालिक है … आपकी बात मानना मेरा फ़र्ज़ है!"

"हनी!" मैंने थोड़ा जोर देते हुए कहा, "मैं तुमको एक बात बोलना चाहता हूँ - और वह यह की किसी शादी में पति-पत्नी दोनों का दर्ज़ा बराबर का होता है। लिहाज़ा, कोई मालिक और कोई गुलाम नहीं हो सकता। और, सेक्स जितना मेरे मज़े के लिए है, उतना ही आपके मज़े के लिए है। इसलिए हम दोनों को ही अपने और एक-दूसरे के मज़े का ध्यान रखना होगा। समझी?"

"जी …. समझ गयी …. आप कुछ बताने वाले थे?"

"हाँ … मैं यह कह रहा था की क्यों न आज आप मेरे 'इसको', अपने मुंह में लें?"

"जीईई!!? मुंह में?"

"हाँ! अगर आप ऐसा करेंगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा …. लेकिन तभी करियेगा, जब आपका मन करे। मैं कोई दबाव नहीं डालूँगा।"

"नहीं … दबाव वाली बात नहीं है। लेकिन …." बोलते बोलते संध्या रुक गयी।

"हाँ हाँ …. बताइए न?"


"जी … लेकिन माँ ने बोला था की.…" कहते कहते संध्या के गाल सुर्ख होने लगे।

मैंने उसको आगे बोलने का हौसला देते हुए सर हिलाया।

"यही की …. आपका … 'बीज' …… बेकार … खर्च न होने दूँ!" संध्या ने जैसे तैसे अपनी बात ख़तम की।

"ह्म्म्म! माँ ने ऐसा कहा?" संध्या ने सर हिलाया, "अच्छा, मुझे एक बात बताइए …." संध्या ने बड़े भोलेपन से मुझे देखा, "…. आपको इससे क्या समझ आया?"

उसने कुछ देर सोचा और कहा, "यही की आपका … वीर्य …. मेरे अन्दर …" वह शर्म से इतनी गड़ गयी की आगे कुछ नहीं बोल पायी।

"हाँ! लेकिन, वीर्य को 'अन्दर' लेने का सिर्फ यही तो एक रास्ता नहीं है …", संध्या मेरी बात को ध्यान से सुन रही थी, "…. जहाँ तक मुझे मालूम है, तीन रास्ते हैं - पहला तो यह की आप इसको अपनी योनि में जाने दें, जैसे की हमने पहले किया है," संध्या इस बात से शर्म से और भी लाल हो गयी, लेकिन मैंने अपनी बात कहनी जारी रखी, "दूसरा यह की 'इसको' आप अपने मुँह में लें, और जब मैं वीर्य छोड़ूँ तो आप उसको पी जाएँ …." संध्या का चेहरा अनिश्चितता और जुगुप्सा से थोडा विकृत हो गया, "… और तीसरा 'गुदा मैथुन'…"

"गुदा?" उसके पूछने पर मैंने उसके नितम्बों पर अपना हाथ फिराया।"

मतलब आपका लिंग मेरे पीछे! बाप रे!" वह थोडा सा रुकी, फिर बोली "न बाबा! मुझे नहीं लगता की यह 'वहां' पर फिट होगा।"

मैंने कुछ नहीं कहा। उसने कहना जारी रखा, "क्या आप वहाँ डालना चाहते हैं?"

"देखो, कुछ लोग ऐसा करते हैं, और कुछ स्त्रियाँ इसको पसंद भी करती हैं - अगर ठीक ढंग से किया जाए तो!"

"आप.…?"

"अगर आप ट्राई करना चाहती हैं तो.…."

"जी …. मुझे नहीं मालूम। लेकिन अगर ठीक लगा तो कर भी सकती हूँ। आप मुझे वह सब बताइए जिससे मैं आपको खुश रख सकूं।"

"हनी! मैंने पहले ही कहा है, की यह सिर्फ मेरे लिए नहीं है - आपके लिए भी उतना ही है। आप मुझे खुश करना चाहती हैं, यह एक अच्छी बात है.. लेकिन, मैंने भी आपको खुश करना चाहता हूँ।"


इतना कह कर मैं चुप हो गया.. इस सारे वार्तालाप में मेरे लिंग का उत्थान जाता रहा.. संध्या ने मन ही मन में कुछ तय किया, और फिर हलकी कंपकंपी के साथ मेरे लिंग को अपने हाथ में ले लिया। उसकी छोटी छोटी उंगलिया मेरे लिंग के चारों तरफ लिपटी हुई थीं, जिनसे वो इसको कभी दबाती, तो कभी हलके से खींचती। वह कुछ देर तक यूँ ही खेलती रही - उसने मेरे वृषण को भी अपने हाथ में लिया - उनकी हलकी हलकी मालिश की और उनको कुछ इस प्रकार अपनी हथेली में उठाया जैसे की वह उनका भार जानना चाहती हो। फिर उसने लिंग की जड़ को पकड़ कर धीरे धीरे ऊपर-नीचे वाला झटका देने लगी - मेरे लिंग के आकार में अब तक खासा बढ़ोत्तरी हो चली थी।

संध्या ने मेरी तरफ एक शरारती मुस्कान फेंकी, "मुझे नहीं लगता की यह मेरे वहां पर फिट हो पायेगा।"

उसने मेरे लिंग के साथ छेड़-खानी करनी बंद नहीं करी। इस समय वह उसकी पूरी लम्बाई पर अपना हाथ फिरा रही थी, जिसके कारण मेरे शिश्न का शिश्नग्रच्छद पीछे सरक गया और उसका गुलाबी चमकदार हिस्सा दिखने लगा। उसने अचानक ही मेरे लिंग की नालिकपथ से रिसते हुए द्रव को देखा।

"ये यहाँ से क्या निकल रहा है?" उसने उत्सुकतावश पूछा।

"इसको 'प्री-कम' कहते हैं" मैंने बताया।

उसने कुछ देर मेरे लिंग को यूँ ही देखा, और फिर धीरे से आगे झुक कर, मानो एक प्रयोगात्मक तरीके से प्री-कम को चाट लिया, और फिर मेरी तरफ देखा। मैंने उस पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली।

उसने मुस्कुराते हुए कहा, "थोड़ा नमकीन है …. लेकिन, आपका टेस्ट अच्छा है।"

फिर, थोड़ा रुक कर, "मुझे बताइये की आपको कैसा पसंद है?"

मुझे लगा की जैसे वह मुझसे पूछ रही हो की वह मुख-मैथुन कैसे करे।

मैंने पूछा, "आपने लोलीपॉप खाया है?" उसने हाँ में सर हिलाया।

"बस इस गुलाबी हिस्से को लोलीपॉप के जैसे ही चूसो और चाटो। आप चाहे तो लिंग का और हिस्सा भी अन्दर ले सकती हैं.…. लेकिन, ध्यान से - यह बहुत ही नाज़ुक होता है - दांत न लगने देना।

"संध्या ने समझते हुए अपनी जीभ पुनः बाहर निकाली और धीरे धीरे से मेरे लिंग के इस गुलाबी हिस्से को चारो तरफ से चाटा, और फिर इस प्रक्रिया में पुनः निकले हुए प्री-कम को चाट लिया। मेरे सात इंच लम्बे लिंग को बीच से पकड़ कर उसने अपने मुंह को धीरे धीरे खोलना शुरू किया। जब मेरा लिंग उसके मुंह के बिलकुल करीब आया, तब मुझे उसकी गरम साँसे अपने लिंग पर महसूस हुई। यह कुछ ऐसा संवेदन था, जिससे मुझे लगा की मैं अभी स्खलित हो जाऊँगा।
 अब उसके होंठ मेरे लिंग के गुलाबी हिस्से के करीब आधे भाग पर जम गए। संध्या बस एक पल को ठहरी, और फिर उसने लिंग को अपने मुँह में सरका लिया। मुझको एक जबरदस्त संवेदी अघात लगा। आप लोगो में जो लोग इतने भाग्यवान हैं, जिनको अपनी पत्नी या प्रेमिका से मुख-मैथुन का सुख मिला है, वो लोग यह बात समझ सकते हैं। और जिन लोगो को यह सुख नहीं मिला हैं, उनको अवश्य ही अपनी पत्नी या प्रेमिका से यह विनती करनी चाहिए। यह आघात था संध्या के गरमागरम मुंह में निगले जाने का.. और यह आघात था इस संज्ञान का की एक अति-सुन्दर किशोरी यह कर रही थी.… 


जैसा मैंने पहले भी बताया है, मेरा लिंग संध्या की कलाई से भी ज्यादा मोटा है। लिहाज़ा, यह बहुत अन्दर नहीं जा सकता था। संध्या ने भी यह अनुमान लगा लिया होगा की कितना अन्दर जा सकता था, क्योंकि उसने करीब करीब तीन इंच अपने मुंह में लिया होगा जब उसको घुटन सी महसूस हुई।

"बहुत ज्यादा अन्दर लेने की ज़रुरत नहीं है।" मैंने उसको कहा. उसने मेरे लिंग को मुंह में लिए लिए ही सर हिलाया, और धीरे धीरे अपनी जीभ को मेरे लिंग के सर और बाकी हिस्से पर फिरना शुरू कर दिया। मैंने महसूस किया की वह इसको थोड़ा चूस भी रही थी (उसके गाल वैसे ही हो रहे थे जैसा की चूसते समय होते हैं)…

"थोडा और तेज़!" मैंने उसको प्रोत्साहित किया। उसकी गति बढ़ गयी.. संध्या इसको हलके से चूसती और शिश्नाग्र को चुभलाती थी - जिससे मेरे लिंग का कड़ापन और बढ़ जा रहा था।

कभी कभी वो गलती से अपने दांतों से लिंग को हलके हलके काट भी रही थी और जोर जोर से चूस रही थी। इस चूषण का असर मेरे लिंग पर वैसा ही जैसे उसकी योनि की मांस-पेशियाँ मेरे लिंग पर कसती हैं। इस क्रिया में बीच बीच में संध्या मेरे शिश्नाग्र के छेद के अन्दर अपनी जीभ भी घुसाने का प्रयास कर रही थी। इसके कारण मुखो रह रह के बिजली के झटके जैसे लग रहे थे। मेरे गले से उन्माद की तेज़ आवाज़ छूट पड़ी, और पूरा शरीर थरथराने लगा।

कुछ ही समय बीता होगा की मुझे अपने वृषण पर वैसा ही एहसास हुआ जैसा स्खलन के पूर्व होता है.… संभवतः, संध्या ने भी यह महसूस किया होगा (हमारे प्रेम-मिलन के पूर्व अनुभव से उसको यह ज्ञान तो हो ही गया होगा)…. अब चूँकि वह मेरा 'बीज' नष्ट नहीं कर सकती थी, अतः उसको मेरा वीर्य पीना तय था!

इस संज्ञान से मेरा स्खलन बहुत ही तीव्र हुआ - मेरे गले से साथ ही साथ एक भारी कराह भी निकली। संभवतः उसको यह उम्मीद नहीं थी की मैं इस तीव्रता के साथ स्खलित होऊंगा। उसको थोड़ी सी उबकाई आ गयी, और इस कारण से मेरे दुसरे और तीसरे स्खलन का कुछ वीर्य उसके होंठो से बाहर ही छलक गया। लेकिन उसने अपने आपको संयत किया और आगे आने वाले स्खलनों को पी गयी। तत्पश्चात उसने मेरे लिंग को पम्प की तरह से चला कर बाकी बचा हुआ वीर्य भी निकाल कर गटक गयी।मेरे घुटने कमज़ोर होकर कांपने लगे - मुझे लगा की मैं अभी चक्कर खाकर गिर जाऊँगा।

ऐसा ख़याल आते ही, मैंने संध्या के दोनों कंधे थाम लिए, लेकिन फिर भी मेरे पैरों का कम्पन गया नहीं। संध्या ने मेरा लिंग अभी भी अपने मुंह से बाहर नहीं निकाला था, लेकिन अभी वह उसको बहुत ही नरमी से चूस रही थी। उसको संभवतः महसूस हुआ होगा की अब कुछ भी नहीं निकल रहा है - उसने मेरी तरफ देखा और अपने मुंह को मेरे लिंग से अलग कर के कहा, "मैंने ठीक से किया?"

मैंने हामी भरी तो उसने आगे कहा, "आपने कितना ढेर सारा छोड़ा! … आप अभी खुश हैं?"

"बहुत!" मैं बस इतना ही बोल पाया।

 वह खिलखिला कर हंस पड़ी.… मैं नीचे संध्या के बराबर आकर बैठ गया और उसको चूमने लगा। मुझे अपने वीर्य का स्वाद आने लगा.. लेकिन संध्या के स्वाद से मिलने के कारण मुझे ये अभी स्वादिष्ट लग रहा था। उसको चूमते हुए मैं उसकी पीठ सहलाने लगा - हवा की ठंडी के कारण उसकी त्वचा की सतह ठंडी हो गयी थी, लेकिन शरीर के अन्दर की गर्मी ख़तम नहीं हुई थी।

मुझे अचानक ही वातावरण की ठंडी का एहसास हुआ, तो मैंने उठ कर संध्या को अपने साथ ही उठा लिया और चट्टान पर अपने कपड़े बिछा कर फिर उसको बैठने को बोला।

जब वो बैठ गयी, तो मैंने कहा, "अब मेरी बारी है …. आपको खुश करने की!"

यह कहते हुए मैंने संध्या को हल्का सा धक्का देकर उस जुगाड़ी बिस्तर पर लिटा दिया, और उसके मुख को पूरी कामुकता के साथ चूमने लगा। मेरे मुख को जगह देने के लिए संध्या का मुख भी पूरी तरह से खुला हुआ था। उसकी जीभ मेरी जीभ के साथ टैंगो नृत्य कर रही थी। कुछ देर उसके मुख को चूमने के बाद मैंने उसके दाहिने कंधे को चूमना शुरू किया और उसके ऊपरी सीने को चूमते हुए उसके बाएँ स्तन पर आकर टिक गया। संध्या ने अपने हाथो की गोद बना कर मेरे सर को सहारा दिया, और मैंने उसके स्तन को शाही अंदाज़ में भोगना आरम्भ कर दिया - पहले मैंने उसके बाएं स्तन को चूसा, चूमा और दबाया, और फिर यही क्रिया उसके दायें स्तन पर की।

काफी समय स्तनों को भोगने के बाद मैं उसके धड़ को चूमते हुए उसके पेट तक आ गया। वहां मैंने उसकी नाभि के चारों तरफ अपनी जीभ से वृत्ताकार तरीके से चाटा, और फिर नाभि के अन्दर जीभ डाल कर कुछ देर चाटने का प्रोग्राम किया। मेरी इस हरकत से संध्या की खिलखिलाहट छूट गयी। इसके बाद मैंने उसको सरल रेखा में चूमना शुरू किया और उसकी योनि के दरार के एकदम शुरूआती को चूम लिया। संध्या के गले से आनंद की चीख निकल गयी और साथ ही साथ उसने अपने नितम्ब कुछ इस तरह उठा दिए जिससे उसकी योनि और मेरे मुख का संपर्क न छूटे! इस निर्जन स्थान में निर्बाध प्रेम संयोग करने के कारण वह बहुत ही आश्वस्त लग रही थी। लेकिन मैंने वह हिस्सा फिलहाल छोड़ दिया और उसके जांघ के भीतरी हिस्से को चूमने लगा। संध्या ने अपनी जांघे खोल दी - इस उम्मीद में की मैं उसकी योनि पर हमला करूंगा। मैंने देखा की संध्या की योनि के दोनों होंठ उसके काम-रस से भीग गए थे। मैंने उसके दाहिने पैर को उठाया और उसको चूमना शुरू किया - मैं उसकी पिंडली चूमते हुए टखने तक पहुंचा और उसके मेहंदी से सजे पैर को चूमा।

चूमते हुए मैंने उसके पैर के अंगूठे को कुछ देर चूसा भी।मेरे ऐसा करने से संध्या ने खिलखिलाते हुए अपना पैर वापस खीच लिया, और बोली, "गुदगुदी होती है!"मैंने फिर यही क्रिया उसके बाएं पैर पर करनी शुरू की। कुछ देर ऐसे ही खिलवाड़ करने के बाद मैं वापस जांघो के रास्ते होते हुए उसकी योनि की तरफ बढ़ने लगा। हाँलाकि, हम लोग पहले भी सम्भोग कर चुके थे, लेकिन संध्या की योनि का ऐसा प्रदर्शन नहीं हुआ था। दिन के उजाले में मुझे उसका आकार प्रकार ठीक से दिखा - उसकी योनि के मांसल होंठ उसके टांगों के बीच के हिस्से की तरफ झुके हुए थे और चिकने और स्थूल थे (जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ, इनका रंग सामन मछली के मांस के रंग का था)। इनके ऊपरी हिस्से में गुलाबी मूंगे के रंग का हुड था, जिसमे से उसका भगनासा दिख रहा था। संध्या की साँसे अब तक बहुत भारी हो चली थीं।

मैंने संध्या की टाँगे पूरी तरह से खोल दीं - उसके शरीर का लचीलापन मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक था! उसकी जांघे लगभग एक-सौ-साठ अंश तक खुल गयी थीं! मैंने अपनी जीभ से उसकी योनि के निचले हिस्से को ढंका और नीचे से ऊपर की तरफ चाटा - बहुत ही धीरे धीरे! जैसे ही मेरी जीभ का संपर्क उसके भगनासे से हुआ, उसकी सिसकी छूट गयी, और साथ ही साथ उसके शरीर में एक थरथराहट भी।

"हे भगवान!" वो बस इतना ही बोल पायी। लेकिन मेरे लिए यह काफी था।मैंने अपने मुख को वहां से हटाया और बैठे हुए ही अपने दोनों अंगूठों की सहायता से उसके योनि पुष्प की पंखुड़ियों को खोल कर उसके भगनासे को अनावृत कर दिया। उसकी योनि के अंदरूनी होंठ पतले थे और काफी छोटे थे। योनि-छिद्र गुलाबी लाल रंग का था, और उसका व्यास करीब करीब चौथाई इंच रहा होगा। उसकी योनि में से जिसमे दूधिया, लेकिन पारभासी द्रव रिस रहा था और योनि से होते हुए उसकी गुदा की तरफ जा रहा था।



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