Monday, March 17, 2014

FUN-MAZA-MASTI हाथ में हाथ

FUN-MAZA-MASTI


हाथ में हाथ

आप कहाँ जा रहे हैं? 
जहाँ तक बस जाएगी। 
बस कहाँ तक जाएगी? 
आपको कहाँ जाना है? 
खेड़ी तक ! लेकिन सुना है कि रास्ते में बाढ़ का पानी इतना है कि बस का निकलना कठिन है? 
सुना तो मैंने भी है, मगर मै'म आपको इन हालातों में यात्रा नहीं करनी चाहिए थी। मुझे तो अभी सफर के दौरान ही पता चला है कि उस तरफ बाढ़ का पानी अधिक फैला हुआ है। वैसे मेरा जाना जरूरी है, क्योंकि हमारी तीन माह के लिए हॉस्पिटल में ट्रेनिंग चल रही है। 
बस में मेरी सीट पर बैठी एक तरुणी से मेरा वार्तालाप चल रहा था। 
सुंदर युवती, फैशनेबल परिधान, किंतु सभ्य व शालीन, नेत्रों में अदभुत आकर्षण, पतले होंठ जैसे किसी चित्रकार ने अपनी कला का प्रदर्शन किया हो, नाक प्रकृति ने नाप तौलकर लगा रखी थी। उसकी यह छवि हर किसी की आँखों में पहली झलक में ही समा जाने वाली थी। 
आवाज में मधुरता, होंठों पर धीमी मुसकान उसका जैसे संपूर्ण परिचय दे गई। 
बस अपनी यात्रा पर अपनी गति से चल रही थी। दो दिन पूर्व ही राज्य भर में भयंकर बाढ़ आई थी। गाँव- कस्बों और शहरों की गलियों, घरों में पानी घुस गया था। बाढ़ का पानी इतना था कि कहीं-कहीं तो पूरे-पूरे गाँव डूब गए। अपने पशुओं को लेकर, थोड़े सामान के साथ ही गाँव के बाहर टीलों पर डेरा डालना पड़ा। शहरों में लोग छतों पर सामान रखे बैठे थे। सैकड़ों जानें जा चुकी थीं। कुछ लोग बाढ़ में बह गए, अपनों से बिछड़ गए। हमारा गाँव ऊँचाई पर है, डूबने का प्रश्न दूर था। फिर भी मैं घर वालों को संभालने के लिए अपने गांव चल पड़ा था। मैंने उस लड़की को सांत्वना देते हुए कहा- आप घबराइए नहीं ! मैं आपके साथ हूँ, कोई दिक्कत आई तो मैं संभाल लूंगा। 
थैंक्यू ! 
वैसे बस आखिरी छोर तक ही जाएगी। 
पानी सड़क पर अधिक आ गया और बस रुक गई तो? 
तो देखा जाएगा, जो होगा सो होगा। बस में अन्य सवारियाँ भी हैं, जो औरों के साथ होगा, हमारे साथ भी होगा। अकेली होतीं तो डरने की बात थी। 
बस जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, सड़क पर बाढ़ का पानी बढ़ता जा रहा था। बस की गति भी धीमी पड़ती जा रही थी, लेकिन चालक-परिचालक समेत सभी सवारियों के दिल की धड़कन तेज हो रही थी। सफर आधे से अधिक तय हो चुका था। बस वापस जाने की स्थिति में भी नहीं थी। चालक हिम्मत से आगे बढ़ता रहा। 
परन्तु कुछ और आगे जाने पर पानी इतना आ गया कि बस ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। उसके रुकते ही मन में अनेक प्रश्न खड़े हो गए। अब तक सफर तीन-चौथाई कट चुका था। आगे पानी ही पानी था और अभी गाँव 10 मील दूर था, अंधेरा हो चुका था। 
सवारियाँ बस से उतरकर हिम्मत करके पानी में से पैदल हो लीं। दो मील की दूरी पर एक गाँव और था। आधी सवारियाँ तो उसी गांव की थीं। इतने पानी में पैदल तथा लंबे सफर के बारे में सोचकर युवती घबरा गई। 
मैंने हिम्मत बंधाते हुए कहा- देखिए, घबराने से काम नहीं चलेगा। आप इस जंगल में पानी के बीच रात भर बस में तो नहीं रह सकेंगी, चलना तो पड़ेगा ही। एक औरत भी तो यहाँ है। घबराने की बात नहीं। दो मील पर एक गांव है। आगे के लिए शायद वहीं से कुछ वाहन मिल जाए। 
लेकिन इतने पानी में सड़क पर कहीं गड्ढा हुआ तो..? 
मैडम ! आपको बुरा न लगे तो मेरा हाथ पकड़ लीजिए, मुझे तैरना आता है। आपको डूबने नहीं दूँगा। आप बैग को एक हाथ से ऊपर उठाइए तथा दूसरा हाथ मुझे थमा दीजिए। 
थैंक्यू ! 
उसने अपना हाथ मुझे पकड़ाते हुए आभार व्यक्त किया। हम दोनों अन्य लोगों के पीछे-पीछे संभल कर चल पड़े। 
"अगर बुरा न लगे तो क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?" 
"मेरा नाम रंजीता है। घर वाले मुझे.." 
"रंजू कहते हैं ! है ना?" 
"हाँ ! आपने सही अंदाजा लगाया।" कहते हुए वह मुस्कुराई। 
उदास चेहरे पर क्षणिक मुस्कान भी अच्छी लगी। मैंने उस मुस्कान में मिठास घोलते हुए पूछा,"क्या मैं आपको रंजू कह सकता हूँ?" 
"ओ श्योर.. आपने अपना नाम नहीं बताया?" 
"मनीष… लेकिन घर वाले मुझे प्यार से मनु कहते हैं.." 
बढ़ते हुए अंधेरे को देख कर अगले ही क्षण रंजू के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ खिंच गई। बाढ़ के पानी को चीरते हुए हम अन्य लोगों से दस-पंद्रह कदम पीछे-पीछे आगे बढ़ रहे थे। जैसे-जैसे बाढ़ का पानी आगे सड़क पर बढ़ता गया, रंजू मेरे हाथ को मजबूती से पकड़ती गई। हाथ के कसाव के साथ ही मेरा दिल भी धड़कता चला गया। 
घना अंधेरा था, हम थोड़ी दूर चले थे, पूरे आकाश को बादलों ने घेर कर चांद-तारों को अपने आगोश में ले लिया। बादलों की गड़गड़ाहट के साथ चमकती बिजली जहाँ मन में डर जगा रही थी, वहीं अपनी रोशनी से बार-बार हमें रास्ता भी दिखा रही थी। थोड़ी-थोड़ी ठंड भी महसूस होने लगी थी। 
हम धीरे-धीरे पानी को मापते हुए चल रहे थे। आगे-आगे चलने वाले कुछ गांव वाले पीछे मुड़कर हमें बार-बार देख रहे थे। शायद वे सोच रहे थे कि हम दोनों संबंधी ही हैं। 
उन्होंने कई बार पीछे मुड़कर कहा,"आप हमारे साथ चलिए।" 
हमने कहा,"हम आपके पीछे-पीछे आ रहे हैं। आप हमारी चिंता न करें, हम आ जाएँगे।" 
थोड़ा आगे बढ़े तो सड़क पर एक हलका-सा गड्ढा आ गया। रंजू का पैर उसमें गया तो वह संतुलन खो बैठी और हल्की सी चीख के साथ वह आगे गिरने लगी। मैंने तुरंत उसे अपनी बांहों में संभाल लिया। रंजू कए उन्नत वक्ष मेरी बाजू से छुए लेकिन मुझे कोई कामुक अहसास नहीं हुआ। 
थैंक्यू कह कर उसने चैन की सांस ली। कुछ देर पहले तक हम दोनों अजनबी थे, लेकिन अब हमारे बीच एक अजीब आकर्षण-सा पनपता जा रहा था। मेरी नीयत बुरी नहीं थी, बस उसके प्रति एक लगाव-अपनापन सा महसूस होने लगा था। चाहने लगा कि इसे सुरक्षित मंजिल तक पहुँचा सकूँ। 
लेकिन शायद मेरे अन्तर्मन में कहीं एक चाहत पैदा होने लगी। 
एक अनजान लड़की का अजनबी लड़के के साथ यों अनिश्चित सफर ! हल्के सर्द मौसम में हथेलियों का गर्म स्पर्श कहीं मन में भावनाएँ जगा रहा था। बादलों की गड़गड़ाहट से भी ज्यादा मेरे मन में भावनाओं और विचारों की टकराहट हो रही थी। 
हम पानी में संभल-संभल कर कदम रखते हुए बढ़ रहे थे। बूंदें पड़नी शुरु हुई तो रंजू और घबरा गई। 
मैंने समझाया,"रंजू ! घबराने से बात नहीं बनेगी। आगे बढ़ने के सिवा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। गांव वाले भी साथ में हैं। अब पानी, बारिश और ठंडी हवा को तो सहन करना ही पड़ेगा।" 
बारिश धीमी थी, लेकिन इतनी तो थी ही कि हम पूरी तरह भीग गए। रंजू का कमीज उसके उरोजों से चिपक कर उनका पूरा सही आकार बता रहा था और साथ ही उसकी ब्रा का डिजाइन भी ! 
रंजू ठंड़ से कुछ कांपने-सी लगी थी तो मैंने अपने बैग से अपनी कमीज निकाली और रंजू की ओर बढ़ा दी,"और कुछ नहीं है तो यही सही, कुछ तो बचाव होगा।" 
वास्तव में अपने बेकाबू होते जा रहे मन को काबू में रखने के लिए मुझे कुछ नहीं सूझा इसके सिवा ! 


वह चुपचाप रही, लेकिन चमकती हुई बिजली की रोशनी में उसकी टिमटिमाती आँखें स्नेह से भरकर मुझे देख रही थीं। फिर थोड़ा मुस्कुरा कर उसने नजरें हटा लीं। 
सफर अचानक सुहाना लगने लगा, तभी जोरदार गर्जन हुआ। अकस्मात बिजली के इस प्रचंड रूप से घबराई रंजू मुझमें सिमट गई। मेरे हाथ उसकी पीठ पर आना चाह ही रहे थे कि उतनी ही तेजी से सॉरी कहते हुए उसने खुद को मुझसे अलग किया। 
बादलों और बारिश वाली गहराती शाम और चमकती बिजली में किनारे के खेतों के झाड़ भुतहा से प्रतीत होने लगे थे। रंजू बार-बार पूछती,"ये अजीब-सी आकृतियाँ क्या हैं?" 
मैंने समझाया,"डरने की जरूरत नहीं है। ये झाड़-झंखाड़ रात में ऐसे ही डराते हैं, खासकर विपरीत मौसम में।" 
अब हमें आगे आने वाले गाँव की बेहद कम रोशनी वाली बिजली दिखाई दी तो थोड़ा संतोष हुआ। गाँव पास आया तो हमने लोगों से वाहन के बाबत पूछा, लेकिन हर बार नकारात्मक उत्तर मिला। 
एक साहब ने कहा,"आखिरी बस जा चुकी है। छोटे वाहन भारी पानी जमाव के कारण नहीं चल रहे।" 
हमारी खेड़ी जाने की योजना एक बार फिर ध्वस्त होती नजर आई। रात गहरा गई थी। वैसे भी हम पहले ठंडी हवा और हल्की बारिश की चपेट में आ चुके थे। अब तक लगभग हमारे साथ चल रहे हमसफर इधर-उधर होने लगे थे। कुछ तो इसी गांव के थे। खेड़ी तक जाने वाले दो-तीन यात्री ही और थे। एक स्त्री को भी देखकर रंजू का हौसला थोड़ा बढ़ा। 
सफर अभी 8 मील और था। हम लोग एक चाय की दुकान पर खड़े हो गए। शुक्र है दुकान अभी खुली हुई थी। मैंने दो कप चाय बनवा ली। चाय की चुस्कियों से शरीर में कुछ गर्माहट आई। दुकान की भट्टी के पास लगकर हमने गीले कपड़े सुखाए। करीब एक घंटा और बीत गया तो खेड़ी पहुंचने की संभावना और कम हो गई। 
दुकानदार बोला,"बाबू जी ! अब तो जाने का ख्याल छोड़ ही दें, क्योंकि अब कोई सवारी नहीं मिलेगी। आपके साथ एक स्त्री भी है, सड़क पर पानी भी ज्यादा है। आप यहीं रात गुजार सकते हैं। मेरे पास बिस्तर तो है नहीं, रात बैठकर ही बितानी होगी। दो खेस हैं, दोनों बहनजी को मैं ये खेस दे दूंगा।" 
मुझे दुकानदार की बातों में वजन लगा। 
रंजू ने सकुचाते हुए कहा,"लेकिन यहाँ हम रात कैसे बिता सकते हैं?" 
"और कोई चारा भी तो नहीं। हाँ, इस गांव में मेरे दो-तीन दोस्त हैं। अगर आप चाहें तो उनके घर जा सकते हैं। वहाँ रहने-ठहरने की व्यवस्था हो सकती है।" मैंने कहा। 
"लेकिन आप उन्हें मेरे बारे में क्या बताएंगे?" 
"वह तुम मुझ पर छोड़ दो।" 
"नहीं, इतनी रात गए क्यों किसी को तंग किया जाए।" 
"दोस्त के घर को आप मेरा ही घर समझें।" 
"नहीं, अब तो जैसे-तैसे यहीं रात बिता लेंगे।" 
"यहाँ एक महिला और हैं, मुझे डर नहीं लगेगा।" 
रंजू की बात भी ठीक थी। हमारे पास बैठी दूसरी स्त्री अब तक यह नहीं समझ पाई थी कि हम-दोनों एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं। उसने अब आशा भरी नजर से हमारी ओर देखकर कहा,"आप लोग हैं तो मैं भी यहाँ निश्चिंत होकर ठहर जाऊँगी।" 
मेरे, रंजू और उस स्त्री के अलावा वहाँ दो अन्य युवक भी बैठे थे, जो हमारी तरह आगे जाने वाले थे। दुकानदार ने नीचे बोरियाँ बिछा दी थीं। रंजू को ओढ़ने के लिए खेस मिल गया। घंटे भर बैठे-बैठे सभी की आँख लग गई। दुकानदार भी अंगीठी के पास अधलेटा सा सिकुड़ कर सो गया। 
रंजू की आँखों में नींद नहीं थी। उसके मन के किसी कोने में अनजानी जगह पर ठहरने का डर था। मैंने उसकी आँखों में तैरती उदासी को देख लिया था। सांत्वना देने के लिए मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा। उसने अपनेपन के भाव से गर्दन हिला दी। 
दुकान का दरवाजा खुला था। बाहर काली घनी रात, सुनसान माहौल। सन्नाटे को चीरती मेढकों की टरटराहट सुनाई दे रही थी तो झींगुरों ने भी अपना राग छेड़ रखा था। लालटेन शांत होकर एक लौ से जल रही थी। 
यही लौ ही थी जो सभी को निश्चत होकर सुला रही थी। यही लौ मुझे बार-बार रंजू का उदास, शांत या बेचैन चेहरा दिखा रही थी। इस लौ की तरह मेरा मन भी बार-बार प्रेम भाव से भर जा रहा था। यह वही चेहरा था जिसकी मैं वर्षों से तलाश में था, जिसे मैं कल्पनाओं में निहारता था। 
रात धीरे-धीरे बीत रही थी। लालटेन का तेल धीरे-धीरे कम हो रहा था। खत्म हो गया तो रंजू को डर लगेगा। मन विचारों के ताने-बाने बुन रहा था। 
मुझे अपनी नहीं, उसकी चिंता है। 
वह मेरी क्या लगती है? 
कुछ नहीं। 
फिर भी मन क्यों इतना उलझ गया है कि सिर्फ उसी की फिक्र करने लगा है। कौन किसी अजनबी की इतनी चिंता करता है। 
हाँ, मानवता के नाते अवश्य दूसरों की चिंता हो जाती है। लेकिन यहाँ तो कुछ घंटों का साथ जैसे सदियों के साथ का अनुभव करा गया था। 
नींद से लड़ते-लड़ते वह सो गई थी। मेरी आंख भी कब लगी, पता नहीं चला। हल्की-हल्की सर्दी बार-बार जगाती, उनींदी आंखों से सबको देखता और फिर सो जाता। 
न जाने कब रंजू ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया, पता नहीं। मुझे महसूस हुआ तो आंखें खुलीं। मैं फिर सो गया। 
अब आंखें खुलीं तो उजाले के संकेत मिले। सुबह हो रही थी। सूरज की किरणें नभ मंडल में अपना जाल फैला रही थीं। खगवृंदों का कलरव प्रारंभ हुआ तो मैंने रंजू को उठा दिया। 
चाय वाला तथा अन्य सभी उठ गए। चाय वाले ने अपनी लालटेन बंद की और अंगीठी सुलगा दी। हमारे कहने पर उसने चाय तो स्टोव पर बना दी। हमने दुकानदार के पैसे सधन्यवाद चुका दिए। 
रंजू ने घड़ी देखते हुए कहा,"बस कब आएगी?" 
"समय तो सात बजे का है, लेकिन..।" 
"लेकिन क्या?" 
"बाढ़ की स्थिति में आएगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता।" 
"न आई तो..?" 
"कोई न कोई वाहन तो आ ही जाएगा, घबराइए नहीं, आप मेडिकल तक पहुँच जाएँगी।" 
आखिर सात बजे बस आ ही गई। रंजू ने दोनों का टिकट लेना चाहा, लेकिन मैंने उसका हाथ पकड़कर मना करते हुए परिचालक को पैसे थमा दिए। पानी को चीरती हुई बस आगे बढ़ रही थी। मेरा मन कल की स्मृतियों में बार-बार डुबकी ले रहा था। थोड़ी देर में खेड़ी का बस अड्डा आ जाएगा। यात्री उतर कर अपनी-अपनी राह चल देंगे। हम दोनों भी अलग-अलग रास्तों पर हो लेंगे। क्या कभी हम फिर मिलेंगे? 
एकाएक मुझे महसूस हुआ कि मैं उससे प्रेम करने लगा हूँ और यह मेरा पहला प्रेम था। 
कहते हैं पहले प्यार को कभी नहीं भुलाया जा सकता। 
फिर ऐसा सफर, भय, ठिठुरन और साथ के इस सफर को रंजू भी कहाँ भुला पाएगी। मन ने मानो कहा-प्यार का इजहार कर दे। लेकिन दूसरे ही पल संस्कारों ने चेताया, इतनी जल्दबाजी अच्छी नहीं। कहीं वह मुझे गलत न सोच ले। हालांकि मैंने इसका हाथ मानवता के नाते ही थामा था, प्रेयसी समझकर नहीं, लेकिन कब हाथ का भाव बदल गया, मालूम नहीं चला। 
हमारा गांव आ गया। दोनों बस से उतर गए। 
मैंने रंजू को घर पर निमंत्रण देते हुए कहा,"रंजू ! आपको डयूटी पर जाना है। उससे पहले मैं चाहूंगा कि आप हमारे घर चलें। आप आराम से फ्रेश होकर तैयार हो लें और फिर मेडिकल जाएँ। घर पर मम्मी और भाभी हैं..।" 
"ठीक है, आपने इतना साथ निभाया है तो कुछ देर और सही। लेकिन आपके घर वाले..?" 
"घबराइए नहीं। मैं समझता हूँ कि आपको मेरे घर वालों से मिलकर खुशी ही होगी।" 
"ठीक है, चलिए !" रंजू ने मुसकरा कर कहा। 
घर में पूरी घटना सुनाई तो मां ने कहा,"बेटा, अच्छा किया जो तू इसे ले आया। भली लड़की लगती है।" 
रंजू एक घंटे में ही तैयार हो गई और जाने की इजाजत मांगने लगी। 
फिर मेरे पास आकर बोली,"आप मुझे मेडिकल तक छोड़कर नहीं आएंगे?" 
"क्यों नहीं, आपको मंजिल तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है तो मझधार में कैसे छोड़ दूँ।" 
मैं रंजू को स्कूटर पर बैठाकर चल पड़ा। 
मेडिकल पास आ गया तो रंजू ने कहा,"यहाँ से मैं चली जाऊंगी।" 
"मेडिकल तक क्यों नहीं?" 
"नहीं ! माफ कीजिए, मुझे देर हो रही है। फिर कभी भी आप..।" 
"ठीक है। अब आपसे मिलना होता रहेगा।" 
विदा के लिए हाथ हिलाती हुई वह मुस्कुराती चली गई। 
मैं खुश था। भीतर की खुशी होंठों और आंखों से छलक रही थी। 
घर लौटा, दो दिन बीत गए। लेकिन पल भर के लिए भी उसकी सुंदर छवि मेरे मन से विस्मृत नहीं हुई। 
दो दिन किसी तरह बीते तो मैं मुलाकात की कल्पनाएँ सहेजता रंजू से मिलने मेडिकल की ओर गया। 
वहाँ किसी के मार्फत रंजू तक संदेश पहुँचाया और उसे वार्ड से बुलवा लिया। दूर से उसे आते देख मेरा मन उत्साह से भर गया। मन में कहीं कोई छल-कपट नहीं था, था तो सिर्फ दिली लगाव। दो पल उसके साथ बैठने और बातें करने की तमन्ना। 
रंजू निकट आकर गंभीर स्वर से बोली,"आपने मुझे बुलाया?" 
"हाँ।" 
"कोई काम है?" 
"नहीं। कोई विशेष काम तो नहीं, लेकिन रंजू..।" 
"लेकिन क्या..?" 
"आपसे मिलने की चाहत हुई। इसलिए..।" 
"देखिए मनीष जी..।" 
"आप प्यार से मनु नहीं कहेंगी?" 
"नहीं। मैं प्यार से मनु नहीं, आदर से मनीष ही कहूँगी, क्योंकि आपका नाम मनीष है।" 
ओह रंजू ! माफ करना। आपका नाम भी रंजीता है, मैंने भूल से रंजू कहा। लेकिन आज आपके चेहरे की वह मधुरता, आंखों से वह अपनापन कहाँ चला गया है?" 
"वह अपनापन अपनों से ही होता है, आप तो मेरे कुछ नहीं लगते।" 
"लगता है आप नाराज हैं। क्या बात है? कोई गलती हो गई क्या?" 
"नहीं, मैं नाराज नहीं हूं, न कोई ऐसी बात है। हाँ, यह गुजारिश जरूर करूंगी कि कृपया आइंदा मुझसे मिलने न आएं। आपने सफर में मेरी जो मदद की, उसकी मैं आभारी हूँ। आपका धन्यवाद करना चाहती हूं, लेकिन प्लीज माफ कीजिए, मुझे बहुत काम है। मैं जा रही हूँ।" 
"सॉरी !" कहते हुए वह जाने लगी। 
मैं आश्चर्य से भरा हुआ बरामदे में खड़ा रह गया। 
मन ने कहा, एक बार उसे आवाज दे, लेकिन दिमाग ने आदेश दिया- उसे जाने दे, वह नहीं रुकेगी, क्योंकि उसे तुमसे कोई लगाव नहीं। 
मैं चुपचाप खड़ा था। मुझे लगा, जैसे वह मेरा सब कुछ लेकर जा रही है और मैं बिल्कुल खाली हो चुका हूँ। मन इतना भारी हो गया कि खड़ा रहते न बना। किसी तरह खुद को संभाला और घर को लौट चला, खाली हाथ..।


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