Thursday, December 5, 2013

FUN-MAZA-MASTI कामोन्माद -2

FUN-MAZA-MASTI          
 कामोन्माद -2

"साहब! यह तो अपने शक्ति सिंह की बेटी है।" उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, "साहब! माज़रा क्या है?"

"माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है!"

"क्या! सचमुच?"

"हाँ! क्या शक्ति सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?"

"साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?"

"यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में?"

"पता नहीं! साहब, ये बहुत भले लोग हैं - सीधे सादे। शक्ति सिंह खेती करते हैं - कुल मिला कर चार जने हैं: शक्ति सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम संध्या है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना।"

"नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की बहुत पसंद है।"

"अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।"

"नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।"


रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, संध्या से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे संध्या से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, "हाँ"!

सवेरे उठ कर मैंने निश्चय कर लिया की मैं शक्ति सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज संध्या का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, संध्या के घर पहुच कर मैंने तीन चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा संध्या ने ही खोला।

'हे भगवान्!' मेरा दिल धक् से हो गया। संध्या पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी। 'कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।'

"जी?" मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।


"अ अ आपके पिताजी हैं?" मैंने जैसे तैसे अपने आपको संयत किया।


"आप अन्दर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।"

"जी ठीक है"


संध्या ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो रहा था। करीब दो मिनट बाद शक्ति सिंह बैठक में आये। शक्ति सिंह साधारण कद काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। 'एक आत्मसम्मानी पुरुष!' मैंने मन ही मन आँकलन किया, 'बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।'


"नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?" शक्ति सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।


"नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।"

"अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।"

"नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाह तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।"

"अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?"

"ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है ... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ...." बोलते बोलते मैं रुक गया।

"बोलिए न?"

"जी वो मैं .... मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ!" मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई .. 'मारे गए अब!'

"क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।"

मैंने इस बार अपने आपको काफी संयत किया, "जी मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ।"

...........................................

"मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।"


"आप संध्या को जानते हैं?"


"जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।"

"और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?" शक्ति सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।

"जी।"

"मैं पूछ सकता हूँ की आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते है?"


"मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।"

"हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और ... शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।" यह कह कर शक्ति सिंह अन्दर चले गए।

मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए। 'अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।' शक्ति सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।

"यह मेरी छोटी बेटी नीलम है।" नीलम करीब चौदह पंद्रह साल की रही होगी।


"नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं?"

मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया ... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।

"मुझे आपकी स्माइल पसंद है ..." नीलम ने बड़ी सहजता से कह दिया।

वाकई शक्ति सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। नीलम एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा,

"नमस्ते नीलम। मेरा नाम रूद्र है।" आखिरी प्रश्न का उत्तर देना मैंने ठीक नहीं समझा क्योंकि लड़की के पिता वहीँ पर खड़े थे।

इतने में शक्ति सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।


"जी नमस्ते!" मैंने उठते हुए कहा।


"नमस्ते! बैठिये न।" उन्होंने बस इतना ही कहा।


मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारो लोग अभी बस बैठे ही थे की उधर से संध्या नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगो की तरफ कर लीं।

"नीलम बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।"

कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया गया। लगता है की वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया होगा। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई की मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।

शक्ति सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "रूद्र, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए संध्या यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है की आपको कोई आपत्ति नहीं।"

"बिलकुल ठीक है। भला मुझे क्यों आपत्ति होगी?" मैंने संध्या की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।

फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदाई बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा की मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर शक्ति सिंह की पत्नी और संध्या दोनों के ही आँखों से आंसू निकल आये।

उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया की वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। इत्यादि इत्यादि।

"रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी नहीं।" शक्ति सिंह ने पूछा।

मैंने कुछ सोच के बोला, "ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता संध्या में दिखी। इसलिए।" फिर मैंने बात आगे जोड़ी, "आप बेशक मेरे बारे में पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रखिये - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में पूछ सकते हैं। मैं यहाँ पर वैसे भी अगले दो सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं तो आसानी से हो सकती है।"

शक्ति सिंह ने सर हिलाया, फिर कुछ सोच कर बोले, "संध्या और आप आपस में कुछ बात करना चाहते हैं, तो हम बाहर चले जाते हैं।" और ऐसा कह कर तीनो लोग बैठक से बाहर चले गए। अब वहां पर सिर्फ मैं और संध्या रह गए थे। ऐसे ही किसी और पुरुष के साथ एक कमरे में अकेले रह जाने का संध्या का यह पहला अनुभव था। घबराहट और संकोच से उसने अपना सर नीचे कर लिया। मैंने देखा की वो अपने पाओं के अंगूठे से फर्श को कुरेद रही थी। उसके कुर्ते की आस्तीन से गोरी गोरी बाहें निकल कर आपस में उलझी जा रही थी।

"संध्या! मेरी तरफ देखिए।" उसने बड़े जतन से मेरी तरफ देखा।


"आपको मुझसे कुछ पूछना है?" मैंने पूछा।


उसने सिर्फ न में सर हिलाया।


"तो मैं आपसे कुछ पूछूं?" उसने सर हिला के हाँ कहा।


"आप मुझसे शादी करेंगी?"

मेरे इस प्रश्न पर मानो उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे में आ गया। घबराहट में उसका चेहरा एकदम गुलाबी हो चला। वो शर्म के मारे उठी और भाग कर कमरे से बाहर चली गयी। कुछ देर में शक्ति सिंह अन्दर आये, उन्होंने मुझे अपना फ़ोन नंबर और पता लिख कर दिया और बोले की वो मुझे फ़ोन करेंगे। जाते जाते उन्होंने अपने कैमरे से मेरी एक तस्वीर भी खीच ली।

मुझे समझ आ गया की आगे की तहकीकात के लिए यह प्रबंध है। अच्छा है - एक पिता को अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी चाहिए। आखिर अपनी लड़की किसी और के सुपुर्द कर रहे हैं!

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