FUN-MAZA-MASTI
कामोन्माद -1
कायाकल्प एक कहानी है भौतिकतावादी संसार से दूर, भगवान की बनायीं हुई प्रकृति का नैसर्गिक आनंद लेने की। रोज़ रोज़ की टी-टी-पो-पो से दूर पक्षियों के कलरव का आनंद लेने की। और, बनावटी लोगो के दूर, सरल सुन्दर लोगो के साथ की।
खैर, उनसे मुक्ति पाकर जैसे तैसे मेरा दाखिला भारत देश के एक सर्वोच्च अभियांत्रिकी संस्थान में हुआ, जहाँ से मैंने इलेक्ट्रॉनिक अभियांत्रिकी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। लेकिन यह सब करते करते मेरे माँ बाप की सारी कमाई और उनका बनाया घर सब बिक गया। अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षात्रवृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार मार कर लहू-लुहान कर देना पड़ा। खैर, चार साल जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री और नौकरी भी थी, किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनायी गयी निशानी।
घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता की आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक काम किया - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते दौड़ते मेरी कमर टूट गयी है। दर्द अस्थि-मज्जा में समा सा गया है। ह्रदय में एक काँटा सा लगा हुआ है और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लडकियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और अमानवता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेइमान और अमानवीय मिली। शुरू शुरू में सभी मीठी मीठी बाते करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे धीरे उनकी प्याज़ की परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।
सच मानिए, मेरा स्त्री जाती से विश्वास उठता जा रहा है और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो अब आप मेरी मनःस्तिथि समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिन्दगी!
पिछले दिनों मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने फिरने) नहीं गया। अपनी जड़ता पर विजय पाकर मैंने मन बनाया की उत्तराँचल जाऊंगा! अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। छुट्टी लेकर, सामान पैक कर मैं पहला वायुयान लेकर उत्तराँचल की राजधानी देहरादून पहुच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनायीं थी - मेरा मन था की एक गाडी किराए से लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य ज़रूरी सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।
अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य मंदिर इत्यादि देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले बदन ही प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।
सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की यही पर बस जाऊं।
कामोन्माद -1
कायाकल्प एक कहानी है भौतिकतावादी संसार से दूर, भगवान की बनायीं हुई प्रकृति का नैसर्गिक आनंद लेने की। रोज़ रोज़ की टी-टी-पो-पो से दूर पक्षियों के कलरव का आनंद लेने की। और, बनावटी लोगो के दूर, सरल सुन्दर लोगो के साथ की।
हम
लोग आज उस युग में रहते हैं, जहाँ चहुओर भागमभाग मची हुई है। बचपन से ही
एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है - जो भिन्न भिन्न लोगों के
लिए भिन्न भिन्न होती है। मैंने भी इसी युग में जनम लिया है और पिछले तीस
साल से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी हूँ। अन्य लोगो से मेरी घुड़दौड़
शायद थोड़ी अलग है - लोग मेरी घुड़दौड़ को थोडा सम्मान से देखते हैं। और देखे
भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा
दर्जा दिया हुआ है।
अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! मैं हूँ रूद्र - तीस साल का तथाकथित सफल और संपन्न आदमी। मेरे माँ बाप ने बहुत से कष्ट देखे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया की मैं वैसे कष्ट न देख सकूँ। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी न आने दी। सदा यही सिखाया की 'पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!' मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की मेरे माँ बाप की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, मेहनत करना अच्छी बाते हैं - दरअसल यह सब नैतिक गुण हैं। इनका 'जीवन के सुख' (सुख की आज-कल की परिभाषा) से कोई खास लेना देना नहीं है। लेकिन, मेरी घुड़दौड़ अभी शुरू भी नहीं हुई। मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के सामान एक बार में ही टूट पड़ी।
जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितान्त अकेला रह गया। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - या ऐसा मुझे लगा। वस्तुतः वो दोनों आये इसलिए थे की उनको मेरे माँ बाप की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।
अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! मैं हूँ रूद्र - तीस साल का तथाकथित सफल और संपन्न आदमी। मेरे माँ बाप ने बहुत से कष्ट देखे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया की मैं वैसे कष्ट न देख सकूँ। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी न आने दी। सदा यही सिखाया की 'पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!' मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की मेरे माँ बाप की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, मेहनत करना अच्छी बाते हैं - दरअसल यह सब नैतिक गुण हैं। इनका 'जीवन के सुख' (सुख की आज-कल की परिभाषा) से कोई खास लेना देना नहीं है। लेकिन, मेरी घुड़दौड़ अभी शुरू भी नहीं हुई। मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के सामान एक बार में ही टूट पड़ी।
जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितान्त अकेला रह गया। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - या ऐसा मुझे लगा। वस्तुतः वो दोनों आये इसलिए थे की उनको मेरे माँ बाप की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।
खैर, उनसे मुक्ति पाकर जैसे तैसे मेरा दाखिला भारत देश के एक सर्वोच्च अभियांत्रिकी संस्थान में हुआ, जहाँ से मैंने इलेक्ट्रॉनिक अभियांत्रिकी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। लेकिन यह सब करते करते मेरे माँ बाप की सारी कमाई और उनका बनाया घर सब बिक गया। अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षात्रवृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार मार कर लहू-लुहान कर देना पड़ा। खैर, चार साल जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री और नौकरी भी थी, किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनायी गयी निशानी।
घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता की आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक काम किया - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते दौड़ते मेरी कमर टूट गयी है। दर्द अस्थि-मज्जा में समा सा गया है। ह्रदय में एक काँटा सा लगा हुआ है और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लडकियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और अमानवता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेइमान और अमानवीय मिली। शुरू शुरू में सभी मीठी मीठी बाते करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे धीरे उनकी प्याज़ की परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।
सच मानिए, मेरा स्त्री जाती से विश्वास उठता जा रहा है और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो अब आप मेरी मनःस्तिथि समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिन्दगी!
पिछले दिनों मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने फिरने) नहीं गया। अपनी जड़ता पर विजय पाकर मैंने मन बनाया की उत्तराँचल जाऊंगा! अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। छुट्टी लेकर, सामान पैक कर मैं पहला वायुयान लेकर उत्तराँचल की राजधानी देहरादून पहुच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनायीं थी - मेरा मन था की एक गाडी किराए से लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य ज़रूरी सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।
अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य मंदिर इत्यादि देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले बदन ही प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।
सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की यही पर बस जाऊं।
खैर,
मैं इस समय 'फूलों की घाटी' से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं
कभी नहीं भूल पाऊँगा। मैं तो इतना कहूँगा की वह जगह वाकई देवों और अप्सराओं
का स्थान होगा। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो
गया की इस जगह से "मानव सभ्यता" से दूर दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न
कोई मुझे परेशां करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई,
और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी
की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता
रहा।
खैर, एक घने बसे कस्बे में मैंने गाडी रोक दी की थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तारो ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दुसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था की मैंने स्कूल यूनिफार्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा की शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही अपनी कार के पास खड़े खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था की मेरी नज़र अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा जैसे धूप से तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से लगता होगा।
खैर, एक घने बसे कस्बे में मैंने गाडी रोक दी की थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तारो ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दुसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था की मैंने स्कूल यूनिफार्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा की शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही अपनी कार के पास खड़े खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था की मेरी नज़र अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा जैसे धूप से तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से लगता होगा।
वह
लड़की आसमानी रंग का कुरता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे
वाला दुपट्टा पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ
था। अब मैंने उसको गौर से देखा - उसका रंग साफ़ गोरा था, चेहरे की बनावट में
पहाड़ी विशेषता थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और
अन्दर सफ़ेद दांत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए
गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, इससे मैंने अंदाजा लगाया की
वह बारहवीं में पढ़ती होगी।
'कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!'
"संध्या ... रुक जा दो मिनट के लिए ..." उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।
'संध्या ..! हम्म .. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल पल नए नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!' मैंने मन ही मन सोचा।
मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?
'कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!'
"संध्या ... रुक जा दो मिनट के लिए ..." उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।
'संध्या ..! हम्म .. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल पल नए नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!' मैंने मन ही मन सोचा।
मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?
'क्या
लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?' मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़
गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके
भोलेपन ने मुझे मोह लिया था - या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया
था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे
में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह
बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी
दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है,
और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।
'हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!'
उसी के बारे में सोचते सोचते शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान कम हुआ ही नहीं - सवेरा होते होते उसकी इच्छा इतनी प्रबल हो गयी की ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - संध्या! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ संध्या पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है।
अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को अब मैं ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया - छोटे छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी ... और अब मेरे सामने थी।
यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया .... मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार बार पुनरावृत्ति होने लगी - उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन ... जैसे जैसे मेरा मष्तिष्क संध्या को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी .... साथ ही साथ मेरे लिंग में दबाव बढ़ता जा रहा था - एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया - मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
'हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!'
उसी के बारे में सोचते सोचते शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान कम हुआ ही नहीं - सवेरा होते होते उसकी इच्छा इतनी प्रबल हो गयी की ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - संध्या! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ संध्या पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है।
अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को अब मैं ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया - छोटे छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी ... और अब मेरे सामने थी।
यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया .... मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार बार पुनरावृत्ति होने लगी - उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन ... जैसे जैसे मेरा मष्तिष्क संध्या को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी .... साथ ही साथ मेरे लिंग में दबाव बढ़ता जा रहा था - एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया - मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
अगले
दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा
में पानी की अति-सूछ्म बूंदे (जिसको मेरी तरफ "झींसी पड़ना" भी कहते हैं)
मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से - शायद किसी मंदिर से - हरीओम शरण के
गाये हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फ़ोल्डिंग
कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा।
अनायास ही मुझे ध्यान आया की उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने
झटपट अपने कपडे बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए उस लड़की के दर्शन फिर से हो सकेंगे।
मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया ... अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो उसकी पूरी नाप तौल बता चूका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है - संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं।
मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा। अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुद कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।
'तो यह है इसका घर!'
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
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मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा। अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुद कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।
'तो यह है इसका घर!'
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
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