FUN-MAZA-MASTI
कामोन्माद -9
मैंने अपनी जीभ से उसके योनि रस का आस्वादन करते हुए, भगनासे को चाटना आरम्भ कर दिया।
"आऊऊ!" संध्या कराही, "थोडा थोड़ा दर्द होता है!"
अरे! अगर मज़ा लेना है तो कुछ तो सहना पड़ेगा न! लेकिन मेरे पास संध्या को यह समझाने का समय और संयम नहीं था। मैंने उस छोटे से बिंदु को चाटना जारी रखा। संध्या ने एक गहरी सांस छोड़ी, और अपने नितम्बो को मेरे चाटने की ताल में ऊपर की तरफ हिलाना शुरू कर दिया - मानो वह स्वयं ही अपनी योनि का भोग चढ़ा रही हो। कुछ देर तक यूँ ही चाटने के बाद मैंने अचानक से उसके समस्त गुप्तांग को अपने मुंह में भर कर कास के चूस लिया और अपनी जीभ को बड़े ही हिंसात्मक तरीके से उसके भगनासे पर फिराने लगा।
संध्या की गले से एक अत्यंत कामुक सिसकारी छूट गयी और उसका शरीर कामोत्तेजना में दोहरा हो गया। उसके हाथ मेरे सर को बलपूर्वक पकड़ कर अपनी योनि में खीचने लगे। उसके हाँफते हुए गले से आहें निकलने लगीं।
उसका शरीर एक कमानी जैसा हो गया, और मेरे सर पर उसकी पकड़ और भी मजबूत हो गयी और अचानक ही उसका शरीर एकदम से कड़ा हो गया। संध्या के शरीर में तीन बार झटके आये, और तीनो बार उसके मुंह से "ऊउह्ह्ह्ह!" निकला। अंततः, वह निढाल होकर लेट गयी।
संध्या मुख मैथुन के ऐसे प्रहार के आघात के बाद अपनी आँखे बंद किये लेटी हुई थी - उसके स्तन उसकी तेज़ चलती साँसों के साथ ही उठ बैठ रहे थे और उसकी साँसे अभी भी उसके मुंह से आ-जा रही थीं। उसकी जांघे वापस खुल गयी थीं और उसकी छोटी सी योनि मेरे मौखिक परिचर्या के कारण पूरी तरह से गीली हो गयी थी - उसकी योनि से काम-रस अभी भी निकल रहा था।
हलकी ठण्ड होने के बावजूद संध्या का शरीर पसीने की एक पतली परत से ढक गया था। मैंने उसके हाँफते हुए मुख को अपने मुख में लेकर भरपूर चुम्बन दिया - हमारे तीन संसर्गों में ही हमारे बीच के गुणधर्म और ऊर्जा कई गुना बढ़ चुके थे। इस विस्तीर्ण निर्जन प्राकृतिक स्थान में अपनी भावनाएँ अवरुद्ध करने का कोई अर्थ नहीं था। लिहाज़ा, हमारा जोश पाशविक जुनून तक पहुँच गया। हमारा चुम्बन कामोन्माद की पराकाष्ठ पर था - चुम्बनों के बीच में हम एक दूसरे के होंठों को हल्के हलके चबा भी रहे थे। मुझे लगा की हमारी जिह्वाएँ एक कठिन मल्लयुद्ध में भिड़ने वाली थी की संध्या कसमसाते हुए बोली, "जी …. मुझे टॉयलेट करना है।"
टॉयलेट? मुझे अब कुछ कुछ समझ आ रहा था। अवश्य ही संध्या को सम्भोग के बाद मूत्र करने का संवेदन होता है। हो सकता है। ये सब सोचते हुए मुझे एक विचार आया। हम लोग इतने दुष्कर कार्य कर रहे थे, क्यों न एक कार्य और जोड़ लें?
"टॉयलेट जाना है? और अगर मैं न जाने दूँ तो?" कहते हुए मैंने उसको अपनी बाँहों के घेरे में पकड़ कर और जोर से पकड़ लिया। संध्या कसमसाने लगी।
"प्लीज! जाने दीजिये न! नहीं तो यहीं पर हो जाएगा!" कहते हुए संध्या शरमा गयी।
"हा हा! ठीक है, कर लो …. लेकिन, मुझे देखना है।"
मेरी बात सुन कर संध्या की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं! मेरी कामासक्ति के प्रयोग में संध्या ने अभी तक पूरा साथ दिया था, लेकिन उसके लिए ये एक नया विषय था।
"क्या?! छी! आप भी न!"
"क्या छी? मैंने तो आपका सब कुछ देख लिया है, फिर इसमें क्या शर्म?" मेरी बात सुन कर संध्या और भी शरमा गयी। मैं अब उठ कर बैठ गया और साथ ही साथ संध्या को भी उसकी बाँहे पकड़ कर बैठा लिया, और इसके बाद मैंने संध्या की टाँगे थोड़ी फैला दीं। मेरी इस हरकत से संध्या खिलखिला कर हंस दी।
"इस तरह से?" मैंने सर हिल कर हामी भरी …. "मुझे नहीं लगता की मैं ऐसे कर सकती हूँ!"
"जानेमन, अगर इस तरह से नहीं कर सकती, तो फिर बिलकुल भी नहीं कर सकती।" मैंने ढिठाई से कहा।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम कोई पाँच मिनट से झाड़ी के पीछे खड़ी हुई अपने दीदी और जीजाजी के रति-सम्भोग के दृश्यों को देख रही थी। उसके माँ और पिताजी ने उसको उन दोनों के पीछे भेज दिया था की उनको वापस ले आये, क्योंकि मौसम कभी भी गड़बड़ हो सकता है। नीलम रास्ते में लोगो से पूछते हुए इस तरफ आ गयी थी - उसको संध्या की इस फेवरिट स्थान का पता था। नीलम उस जगह पर पहुँचने ही वाली थी की उसको किसी लड़की के कराहने और सिसकने की आवाज़ आई।
वह आवाज़ की दिशा में बढ़ ही रही थी की उसने झील के बगल वाले प्रस्तर खंड पर दीदी और जीजू को देखा - वह दोनों पूर्णतः नंग्युल (नग्न) थे - दीदी लेटी हुई थी - उसके पाँव फैले हुए थे और आँखें बंद थीं - जीजू का सर दीदी की रानों (जाँघों) की बीच की जगह सटा हुआ था और वो उसकी पेशाब करने वाली जगह को चूम, चाट और पलास (सहला) रहे थे। उनके इस हरकत से ही दीदी की कराहटें निकल रही थीं।
'छिः! जीजू कितने गंदे हैं! दीदी दर्द से कराह रही है और वो हैं की ऐसी गन्दी जगह को पलास रहे हैं!' ऐसा सोचते हुए नीलम की निगाहें अपने जीजू के निचले हिस्से पर पड़ी - उनका छुन्नू और अंडे दिख रहे थे। वह पहले सोचती थी की दीदी बहुत दुबली है, लेकिन उसको ऐसे निरावृत देख कर उसको समझ आया की वो तो एकदम गुंट (सुन्दर और सुडौल) है। जीजू भी बिना कपड़ों के कितने सुन्दर लगते हैं!
नीलम को कुछ ही पलों में समझ आ गया की उसका यह आंकलन की दीदी दर्द से कराह रही है, दरअसल गलत था - वह वस्तुतः मज़े में आहें भर रही है। कोई चाहे कितना भी मासूम क्यों न हो, सयाना होते होते रति क्रिया का नैसर्गिक ज्ञान उसमें स्वयं आ जाता है। नीलम को स्त्री पुरुष के शारीरिक बनावट का अंतर मालूम था और उसको यह भी मालूम था की लिंग और योनि का आपस में क्या सम्बन्ध है।
लेकिन उसको यह नहीं ज्ञात था की इस संयोजन में आनंद भी आता है। इस कारण से उसको अपनी भोली-भाली दीदी को इस प्रकार आनंद प्राप्त करने को उद्धत देख कर आश्चर्य हुआ।
'कितनी निर्लज्जता से दीदी खुद भी अपनी योनि को जीजू के मुँह में ठेले जा रही थी! कैसी छंछा (चरित्रहीन औरत) जैसी हरकत कर रही है दीदी!'
एक बात देख कर नीलम को काफी रोमांच आया - जीजू के हाथ दीदी के दोनों दुदल (स्तन) और दुदल-घुंडी (निप्पल) को रह रह कर मींज भी रहे थे। इस समय दीदी जीजू के सर को पकड़ कर अपनी योनि में खीच रही थी और हाँफ रही थी। नीलम ने देखा की अचानक ही दीदी का शरीर कमानी जैसा हो गया, और उसके शरीर में झटके आने लगे। फिर वह निढाल होकर लेट गयी।
संध्या का परिप्रेक्ष्य:
संध्या को पिछले के रति-संयोगों में वैसा नहीं महसूस हुआ था, जैसा की उसको अभी हो रहा था। उसके पति का बृहद लिंग उसकी नन्ही सी योनि का इस प्रकार उल्लंघन और उपभोग कर रहा था जिसकी व्याख्या करना अत्यंत कठिन था! वह लिंग जिस तरह से उसकी योनि द्वार को फैला रहा था और इस क्रिया से होने वाला कष्ट भी अब उसको प्रिय लगने लगा था। उस लिंग के प्रत्येक प्रवेशन से उन दोनों के जघन क्षेत्र एकदम ठीक जगह पर, एकदम ठीक बल के साथ टकरा रहे थे। और उसके पति के वृषण उसके नितम्बो पर नरम नरम चपत लगा रहे थे।
ऐसा सुख संध्या को पहले नहीं महसूस हुआ। यह संवेदना थी आनंद की, कष्ट की, आनंदातिरेक की और एक तरह की हानि की। और कुछ भी हो, इस काम में मज़ा बहुत आ रहा था।
जब संध्या के विवाह का दिन निकट आने लगा, तो पास पड़ोस की तीन चार 'भाभियों' ने उसको अंतहीन और अधकचरी यौन शिक्षा प्रदान की। उनके हिसाब से पुरुष का लिंग सामान्यतः संकरा, थोड़ा लटकता हुआ, पतली ककड़ी जैसे आकार का होता है। किन्तु उसके पति का लिंग तो उनके बताये जैसा तो बिलकुल ही नहीं था - बल्कि उसके विपरीत कहीं अधिक प्रबल, लम्बा और मोटा था। उन्होंने यह भी बताया था की यौन क्रिया तो बस दो से चार मिनट में ख़तम हो जाती है, और ऐसा कोई घबराने वाली बात नहीं होती, और यह भी की ये तो पुरुष अपने मज़े के लिए करते हैं। लेकिन उसका पति इस विभाग में भी निश्चित रूप में लाखों में एक है - एक तो उनके बीच का एक भी यौन प्रसंग कम से कम पंद्रह बीस मिनट से कम नहीं चला … और तो और 'उन्होंने' उसके आनंद को हर बार वरीयता दी। भाभियों के हिसाब से सेक्स का मतलब लिंग का योनि में अन्दर बाहर जाना और तीन चार मिनट में काम ख़तम। लेकिन अब तक उन दोनों ने जितनी भी बार भी सेक्स किया, उतनी ही बार सब कुछ नया नया था।
आखिर कितनी विषमता हो सकती है, इस चिरंतन काल से चली आ रही नैसर्गिक क्रिया में? संध्या को अपनी योनि में एक तेज़ धक्का महसूस हुआ - उसने ध्यान किया की उसके पति का लिंग कुछ और फूल रहा था। और जिस तरह से वह लिंग उसके क्रोड़ को निःशेष कर रहा था, उससे वह अपने पति और उसके लिंग, दोनों की ही मुरीद बन चुकी थी। उसको मन ही मन ज्ञात हो चला था की रूद्र की वो पूरी तरह गुलाम बन गयी है। पहले तो अपने व्यक्तित्व, फिर अपने व्यवहार और अब अपने यौन-सामर्थ्य से उसके पति ने उसको पूरी तरह से जीत लिया था। इसके एवज़ में वह कुछ भी कहेंगे तो वह करेगी।अगर रूद्र चाहे तो दिन के चौबीसों घंटे उसके साथ सम्भोग कर सकता है और वो मना नहीं कर सकती थी।
मेरा परिप्रेक्ष्य:
आमतौर पर पुरुष एक स्खलन के आधे घंटे तक पुनः संसर्ग के लिए नहीं तैयार हो पाते। लेकिन संध्या की कशिश ही कुछ ऐसी है की मैं तुरंत तैयार हो जाता हूँ। उसका अद्वितीय रूप, उसका भोलापन, उसकी सरलता और उसका कमसिन शरीर मेरी कामातुरता को कई गुना बढ़ा देता है। कभी कभी मन होता है की उसकी योनि में अपने लिंग का इतने बल से घर्षण करूँ की वहां लाल हो जाए। लेकिन, स्त्रियाँ हिंसा से नहीं, प्रेम से जीती जाती है। लिहाज़ा, मैं अपने मन के पशु पर लगाम लगा कर लयबद्ध तरीके से उसकी योनि का मर्दन कर रहा हूँ। उसकी कसी हुई और चिकनी योनि में मेरे लिंग का आवागमन बहुत ही सुखमय लग रहा है।
संध्या का परिप्रेक्ष्य:
संध्या की कामाग्नि कुछ इस प्रकार से धधक रही है की उसको न तो अपने नीचे के शिलाखंड की शीतलता महसूस हो रही है और न ही अपने पर्यावरण की। इस समय उसके पूरे अस्तित्व का केंद्र उसकी योनि थी, जहाँ पर उसके पति का लिंग अपन कर्त्तव्य कर रहा था। उसके हर धक्के में आनंद और पीड़ा की ऐसी मधुर झंकार छूट रही थी की उसको लग रहा था की वह स्वयं ही कोई वाद्य-यन्त्र हो। ऐसे ही आनंद के सागर में हिचकोले खाते हुए उसकी दृष्टि झाड़ियों के पीछे चली गयी।
'कोई तो वहां है!' हाँलाकि उसके नेत्रों में खींचे वासना के डोरे उसकी अवलोकन को धुंधला बना रहे थे, लेकिन थोडा जतन करने से उसको कुछ स्पष्ट दिखने लगा। जो व्यक्ति था, उसके कपडे बहुत ही जाने पहचाने थे। पर समझ नहीं आ रहा था की ये है कौन!
किन्तु, अपने आपको ऐसे नितांत नग्न और यौन की ऐसी प्रच्छन्न अवस्था में किसी और के द्वारा देखे जाने के एहसास से संध्या की कामुकता और बढ़ गयी।
'कोई देखता है तो देखे! आखिर वह अपने पति के साथ समागम कर रही है, किसी गैर के साथ थोड़े ही! और देखना ही क्या? जा कर सबको बताये की संध्या और उसका पति किस तरह से सेक्स करते हैं। और यह भी की उसके पति का लिंग कितना प्रबल है!'
यह सोचते हुए कुछ ही पलों में वह रति-निष्पत्ति के आनंदातिरेक पर पहुँच गयी। उसकी योनि से काम रस बरस पड़ा और रूद्र के लिंग को भिगोने लगा। आनंद की एक प्रबल सिसकारी उसके होंठों से निकल गयी। लेकिन रूद्र का प्रहार अभी भी जारी था - उसके हर धक्के के साथ ही साथ संध्या उछल जाती। उसको इस समय न तो अपने आस पास का अभिज्ञान था और न ही भौतिकता के किसी भी नियम का। पूर्ण आनंद से ओत प्रोत होकर संध्या इस समय अन्तरिक्ष की सैर कर रही थी।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम का दिल एकदम से बैठ गया - 'दीदी उसी की तरफ देख रही है! क्या उसने मुझको देख लिया होगा? ऐसा लगता तो नहीं! अगर देखा होता तो शायद वो अपने आपको ढकने की कोशिश करती?' उसकी दृष्टि इस समय इस अत्यंत रोचक मैथुन के केंद्र बिंदु पर मानो चिपक ही गयी थी। जीजू का विकराल लिंग दीदी की छोटी सी योनि के अन्दर बाहर जल्दी जल्दी फिसल रहा था, और दीदी उसके हर धक्के से उछल रही थी, और आहें भर रही थी।
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कामोन्माद -9
मैंने अपनी जीभ से उसके योनि रस का आस्वादन करते हुए, भगनासे को चाटना आरम्भ कर दिया।
"आऊऊ!" संध्या कराही, "थोडा थोड़ा दर्द होता है!"
अरे! अगर मज़ा लेना है तो कुछ तो सहना पड़ेगा न! लेकिन मेरे पास संध्या को यह समझाने का समय और संयम नहीं था। मैंने उस छोटे से बिंदु को चाटना जारी रखा। संध्या ने एक गहरी सांस छोड़ी, और अपने नितम्बो को मेरे चाटने की ताल में ऊपर की तरफ हिलाना शुरू कर दिया - मानो वह स्वयं ही अपनी योनि का भोग चढ़ा रही हो। कुछ देर तक यूँ ही चाटने के बाद मैंने अचानक से उसके समस्त गुप्तांग को अपने मुंह में भर कर कास के चूस लिया और अपनी जीभ को बड़े ही हिंसात्मक तरीके से उसके भगनासे पर फिराने लगा।
संध्या की गले से एक अत्यंत कामुक सिसकारी छूट गयी और उसका शरीर कामोत्तेजना में दोहरा हो गया। उसके हाथ मेरे सर को बलपूर्वक पकड़ कर अपनी योनि में खीचने लगे। उसके हाँफते हुए गले से आहें निकलने लगीं।
उसका शरीर एक कमानी जैसा हो गया, और मेरे सर पर उसकी पकड़ और भी मजबूत हो गयी और अचानक ही उसका शरीर एकदम से कड़ा हो गया। संध्या के शरीर में तीन बार झटके आये, और तीनो बार उसके मुंह से "ऊउह्ह्ह्ह!" निकला। अंततः, वह निढाल होकर लेट गयी।
संध्या मुख मैथुन के ऐसे प्रहार के आघात के बाद अपनी आँखे बंद किये लेटी हुई थी - उसके स्तन उसकी तेज़ चलती साँसों के साथ ही उठ बैठ रहे थे और उसकी साँसे अभी भी उसके मुंह से आ-जा रही थीं। उसकी जांघे वापस खुल गयी थीं और उसकी छोटी सी योनि मेरे मौखिक परिचर्या के कारण पूरी तरह से गीली हो गयी थी - उसकी योनि से काम-रस अभी भी निकल रहा था।
हलकी ठण्ड होने के बावजूद संध्या का शरीर पसीने की एक पतली परत से ढक गया था। मैंने उसके हाँफते हुए मुख को अपने मुख में लेकर भरपूर चुम्बन दिया - हमारे तीन संसर्गों में ही हमारे बीच के गुणधर्म और ऊर्जा कई गुना बढ़ चुके थे। इस विस्तीर्ण निर्जन प्राकृतिक स्थान में अपनी भावनाएँ अवरुद्ध करने का कोई अर्थ नहीं था। लिहाज़ा, हमारा जोश पाशविक जुनून तक पहुँच गया। हमारा चुम्बन कामोन्माद की पराकाष्ठ पर था - चुम्बनों के बीच में हम एक दूसरे के होंठों को हल्के हलके चबा भी रहे थे। मुझे लगा की हमारी जिह्वाएँ एक कठिन मल्लयुद्ध में भिड़ने वाली थी की संध्या कसमसाते हुए बोली, "जी …. मुझे टॉयलेट करना है।"
टॉयलेट? मुझे अब कुछ कुछ समझ आ रहा था। अवश्य ही संध्या को सम्भोग के बाद मूत्र करने का संवेदन होता है। हो सकता है। ये सब सोचते हुए मुझे एक विचार आया। हम लोग इतने दुष्कर कार्य कर रहे थे, क्यों न एक कार्य और जोड़ लें?
"टॉयलेट जाना है? और अगर मैं न जाने दूँ तो?" कहते हुए मैंने उसको अपनी बाँहों के घेरे में पकड़ कर और जोर से पकड़ लिया। संध्या कसमसाने लगी।
"प्लीज! जाने दीजिये न! नहीं तो यहीं पर हो जाएगा!" कहते हुए संध्या शरमा गयी।
"हा हा! ठीक है, कर लो …. लेकिन, मुझे देखना है।"
मेरी बात सुन कर संध्या की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं! मेरी कामासक्ति के प्रयोग में संध्या ने अभी तक पूरा साथ दिया था, लेकिन उसके लिए ये एक नया विषय था।
"क्या?! छी! आप भी न!"
"क्या छी? मैंने तो आपका सब कुछ देख लिया है, फिर इसमें क्या शर्म?" मेरी बात सुन कर संध्या और भी शरमा गयी। मैं अब उठ कर बैठ गया और साथ ही साथ संध्या को भी उसकी बाँहे पकड़ कर बैठा लिया, और इसके बाद मैंने संध्या की टाँगे थोड़ी फैला दीं। मेरी इस हरकत से संध्या खिलखिला कर हंस दी।
"इस तरह से?" मैंने सर हिल कर हामी भरी …. "मुझे नहीं लगता की मैं ऐसे कर सकती हूँ!"
"जानेमन, अगर इस तरह से नहीं कर सकती, तो फिर बिलकुल भी नहीं कर सकती।" मैंने ढिठाई से कहा।
मैंने संध्या का
टखना जकड़ रखा था, और दृढ़ निश्चय कर रखा था की मैं उसको मूत्र करते हुए
अवश्य देखूँगा - और अगर हो सका तो उसकी मूत्र-धार को स्पर्श भी करूंगा। उस
समय नहीं मालूम था की यह अनुभव मुझे अच्छा भी लगेगा या नहीं - बस उस समय
मुझे यह तजुर्बा लेना था। अंग्रेजी में जिसे 'किंकी' कहते हैं, वही! संध्या
ने थोड़ी कसमसाहट करके मेरी पकड़ छुड़ानी चाही, लेकिन नाकामयाब रही और अंततः
उसने विरोध करना बंद कर दिया। उसने अपनी मुद्रा थोड़ी सी व्यवस्थित करी -
पत्थर पर ही वह उकड़ू बैठ गयी - उसके ऐसा करने से मुझे उसकी योनि का मनचाहा
दर्शन होने लगा।
"आप सचमुच मुझे ये सब करते देखना चाहते हैं?" मैंने हामी भरी, "…. ये सब कितना गन्दा है!"
"जानू! इसीलिए! मैं बस एक बार देखना चाहता हूँ। अगर हम दोनों को अच्छा नहीं लगा तो फिर नहीं करेंगे! ओके? जैसे आपने मेरी बात अभी तक मानी है, वैसे ही यह बात भी मान लीजिये।"
"जी, ठीक है … मैं कोशिश करती हूँ।"
यह कहते हुए संध्या ने अपनी आँखें बंद कर लीं, और मूत्र पर ध्यान लगाया। उसकी योनि के पटल खुल गए - मैंने देखा की वहां की माँस पेशियाँ थोडा खुल और बंद हो रही थीं (मूत्राशय को मुक्त करने का प्रयास)। संध्या के चमकते हुए रस-सिक्त गुप्तांग को ऐसी अवस्था में देखना अत्यंत सम्मोहक था।
"आप सचमुच मुझे ये सब करते देखना चाहते हैं?" मैंने हामी भरी, "…. ये सब कितना गन्दा है!"
"जानू! इसीलिए! मैं बस एक बार देखना चाहता हूँ। अगर हम दोनों को अच्छा नहीं लगा तो फिर नहीं करेंगे! ओके? जैसे आपने मेरी बात अभी तक मानी है, वैसे ही यह बात भी मान लीजिये।"
"जी, ठीक है … मैं कोशिश करती हूँ।"
यह कहते हुए संध्या ने अपनी आँखें बंद कर लीं, और मूत्र पर ध्यान लगाया। उसकी योनि के पटल खुल गए - मैंने देखा की वहां की माँस पेशियाँ थोडा खुल और बंद हो रही थीं (मूत्राशय को मुक्त करने का प्रयास)। संध्या के चमकते हुए रस-सिक्त गुप्तांग को ऐसी अवस्था में देखना अत्यंत सम्मोहक था।
मैंने देखा की
मूत्र अब निकलने लगा है - शुरू में सिर्फ कुछ बूँदें निकली, फिर उन बूँदों
ने रिसाव का रूप ले लिया, और कुछ ही पलों में मूत्र की अनवरत धार छूट पड़ी।
संध्या का मुँह राहत की साँसे भर रहा था। उसकी आँखें अभी भी बंद थीं -
मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा कर उसके मूत्र के मार्ग में लाया और तत्क्षण उसकी
गर्मी को महसूस करने लगा।
कोई दस सेकंड के बाद संध्या का मूत्र त्यागना बंद हुआ। वह अभी भी आँखें बंद किये हुई थी - उसकी योनि की पेशियाँ सिकुड़ और खुल रही थीं और उसमें से मूत्र निकलना अब बंद हो चला था। मेरे दिमाग में न जाने क्या समाया की मैंने आगे बढ़ कर उसकी योनि को अपने मुंह में भर लिया, और संध्या के मूत्र का पहला स्वाद लिया - यह नमकीन और थोड़ा तीखा था। मुझे इसका स्वाद कोई अच्छा नहीं लगा लेकिन उसका स्वाद अद्वितीय था और इसलिए मुझे बहुत रोचक लगा। मैंने उसकी योनि से अपना मुँह कास कर चिपका लिया और उसको चूस कर सुखा दिया।
मेरी इस हरकत से संध्या मेरे ऊपर ही गिर गयी - उसकी टांगों में कम्पन सा हो रहा था। उसने जैसे तैसे अपने शरीर का भार व्यवस्थित किया, जिससे मुझे परेशानी न हो, और फिर मुझे भावुक हो कर जकड कर एक ज़ोरदार चुम्बन दिया, "हनी … आई लव यू! …. ये … बहुत …. अजीब था। मेरा मतलब … यह बहुत उत्तेजक है, लेकिन बहुत ही …. अजीब!"
संध्या को इस प्रकार अपनी भावनाएँ बताते हुए देखने से मुझे बहुत अच्छा लगा। एक प्रेमी युगल को अपनी अपनी काम भावनाएं एक दूसरे को बतानी चाहिए। तभी एक दूसरे को पूर्ण रूपेण संतुष्ट किया जा सकता है।
"आई लाइक्ड इट! इसको थोड़ा और आगे ले जायेंगे!" मैंने कहा और संध्या को पुनः चूमने लगा।
कोई दस सेकंड के बाद संध्या का मूत्र त्यागना बंद हुआ। वह अभी भी आँखें बंद किये हुई थी - उसकी योनि की पेशियाँ सिकुड़ और खुल रही थीं और उसमें से मूत्र निकलना अब बंद हो चला था। मेरे दिमाग में न जाने क्या समाया की मैंने आगे बढ़ कर उसकी योनि को अपने मुंह में भर लिया, और संध्या के मूत्र का पहला स्वाद लिया - यह नमकीन और थोड़ा तीखा था। मुझे इसका स्वाद कोई अच्छा नहीं लगा लेकिन उसका स्वाद अद्वितीय था और इसलिए मुझे बहुत रोचक लगा। मैंने उसकी योनि से अपना मुँह कास कर चिपका लिया और उसको चूस कर सुखा दिया।
मेरी इस हरकत से संध्या मेरे ऊपर ही गिर गयी - उसकी टांगों में कम्पन सा हो रहा था। उसने जैसे तैसे अपने शरीर का भार व्यवस्थित किया, जिससे मुझे परेशानी न हो, और फिर मुझे भावुक हो कर जकड कर एक ज़ोरदार चुम्बन दिया, "हनी … आई लव यू! …. ये … बहुत …. अजीब था। मेरा मतलब … यह बहुत उत्तेजक है, लेकिन बहुत ही …. अजीब!"
संध्या को इस प्रकार अपनी भावनाएँ बताते हुए देखने से मुझे बहुत अच्छा लगा। एक प्रेमी युगल को अपनी अपनी काम भावनाएं एक दूसरे को बतानी चाहिए। तभी एक दूसरे को पूर्ण रूपेण संतुष्ट किया जा सकता है।
"आई लाइक्ड इट! इसको थोड़ा और आगे ले जायेंगे!" मैंने कहा और संध्या को पुनः चूमने लगा।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम कोई पाँच मिनट से झाड़ी के पीछे खड़ी हुई अपने दीदी और जीजाजी के रति-सम्भोग के दृश्यों को देख रही थी। उसके माँ और पिताजी ने उसको उन दोनों के पीछे भेज दिया था की उनको वापस ले आये, क्योंकि मौसम कभी भी गड़बड़ हो सकता है। नीलम रास्ते में लोगो से पूछते हुए इस तरफ आ गयी थी - उसको संध्या की इस फेवरिट स्थान का पता था। नीलम उस जगह पर पहुँचने ही वाली थी की उसको किसी लड़की के कराहने और सिसकने की आवाज़ आई।
वह आवाज़ की दिशा में बढ़ ही रही थी की उसने झील के बगल वाले प्रस्तर खंड पर दीदी और जीजू को देखा - वह दोनों पूर्णतः नंग्युल (नग्न) थे - दीदी लेटी हुई थी - उसके पाँव फैले हुए थे और आँखें बंद थीं - जीजू का सर दीदी की रानों (जाँघों) की बीच की जगह सटा हुआ था और वो उसकी पेशाब करने वाली जगह को चूम, चाट और पलास (सहला) रहे थे। उनके इस हरकत से ही दीदी की कराहटें निकल रही थीं।
'छिः! जीजू कितने गंदे हैं! दीदी दर्द से कराह रही है और वो हैं की ऐसी गन्दी जगह को पलास रहे हैं!' ऐसा सोचते हुए नीलम की निगाहें अपने जीजू के निचले हिस्से पर पड़ी - उनका छुन्नू और अंडे दिख रहे थे। वह पहले सोचती थी की दीदी बहुत दुबली है, लेकिन उसको ऐसे निरावृत देख कर उसको समझ आया की वो तो एकदम गुंट (सुन्दर और सुडौल) है। जीजू भी बिना कपड़ों के कितने सुन्दर लगते हैं!
नीलम को कुछ ही पलों में समझ आ गया की उसका यह आंकलन की दीदी दर्द से कराह रही है, दरअसल गलत था - वह वस्तुतः मज़े में आहें भर रही है। कोई चाहे कितना भी मासूम क्यों न हो, सयाना होते होते रति क्रिया का नैसर्गिक ज्ञान उसमें स्वयं आ जाता है। नीलम को स्त्री पुरुष के शारीरिक बनावट का अंतर मालूम था और उसको यह भी मालूम था की लिंग और योनि का आपस में क्या सम्बन्ध है।
लेकिन उसको यह नहीं ज्ञात था की इस संयोजन में आनंद भी आता है। इस कारण से उसको अपनी भोली-भाली दीदी को इस प्रकार आनंद प्राप्त करने को उद्धत देख कर आश्चर्य हुआ।
'कितनी निर्लज्जता से दीदी खुद भी अपनी योनि को जीजू के मुँह में ठेले जा रही थी! कैसी छंछा (चरित्रहीन औरत) जैसी हरकत कर रही है दीदी!'
एक बात देख कर नीलम को काफी रोमांच आया - जीजू के हाथ दीदी के दोनों दुदल (स्तन) और दुदल-घुंडी (निप्पल) को रह रह कर मींज भी रहे थे। इस समय दीदी जीजू के सर को पकड़ कर अपनी योनि में खीच रही थी और हाँफ रही थी। नीलम ने देखा की अचानक ही दीदी का शरीर कमानी जैसा हो गया, और उसके शरीर में झटके आने लगे। फिर वह निढाल होकर लेट गयी।
कुछ देर दीदी लेटी
रही और फिर उठ कर जीजू से कुछ बाते करने लगी। फिर वह ऐसी मुद्रा में बैठ
गयी जैसे पेशाब करते समय बैठते हैं - लेकिन पत्थर पर और वह भी जीजू के
सामने? दीदी को ऐसा करते हुए तो वह सोच भी नहीं सकती थी - लेकिन जो
प्रत्यक्ष में हो रहा है उसका क्या?
'इसको बिलकुल भी शर्म नहीं है क्या?'
नीलम को अपनी दीदी को ऐसे खुलेआम पेशाब करते देख कर झटका लगा और एक और झटका तब लगा जब जीजू ने अपना हाथ आगे बढ़ा कर उसके पेशाब की धार को छुआ। और उसका मन जुगुप्सा से भर गया जब उसने देखा की जीजू ने दीदी के पेशाब वाली जगह को अपने मुंह में भर लिया।
'ये दीदी जीजू क्या कर रहे हैं? कितना गन्दा गन्दा काम!'
नीलम वहां से वापस जाने ही वाली थी की उसने देखा की दीदी और जीजू आपस में कुछ बात कर रहे हैं और जीजू का छुन्नू तेजी से उन्नत होता जा रहा है - उसका आकार प्रकार देख कर नीलम का दिल धक् से रह गया।
'यह क्या है?' नीलम ने सिर्फ बच्चों के शिश्न देखे थे, जो की मूंगफली के आकार जैसे होते हैं। वो भी कभी कभी उन्नत होते हैं, लेकिन जीजू का तो सबसे अलग ही है। अलग … और बहुत सुंदर … और और बहुत … बड़ा भी! ये तो उसकी स्कूल की स्केल से भी ज्यादा लम्बा लग रहा था और मोटा भी था - बहुत मोटा।
दीदी ने बहुत ही प्यार से जीजू के छुन्नू को धीरे धीरे पलासना शुरू कर दिया था, और साथ ही साथ वो चट्टान पर कुछ इस तरह से लेट गयी की उसकी उसकी रानें पूरी तरह से खुल गयी। लेकिन फिर भी दीदी अपने उस हाथ से, जो जीजू के छुन्नू पर नहीं था, अपनी पेशाब करने वाली जगह को और फैला रही थी। दीदी की फैली हुई योनि को देख कर नीलम के दिल में एक आशंका या डर सा बैठ गया।
'इसको बिलकुल भी शर्म नहीं है क्या?'
नीलम को अपनी दीदी को ऐसे खुलेआम पेशाब करते देख कर झटका लगा और एक और झटका तब लगा जब जीजू ने अपना हाथ आगे बढ़ा कर उसके पेशाब की धार को छुआ। और उसका मन जुगुप्सा से भर गया जब उसने देखा की जीजू ने दीदी के पेशाब वाली जगह को अपने मुंह में भर लिया।
'ये दीदी जीजू क्या कर रहे हैं? कितना गन्दा गन्दा काम!'
नीलम वहां से वापस जाने ही वाली थी की उसने देखा की दीदी और जीजू आपस में कुछ बात कर रहे हैं और जीजू का छुन्नू तेजी से उन्नत होता जा रहा है - उसका आकार प्रकार देख कर नीलम का दिल धक् से रह गया।
'यह क्या है?' नीलम ने सिर्फ बच्चों के शिश्न देखे थे, जो की मूंगफली के आकार जैसे होते हैं। वो भी कभी कभी उन्नत होते हैं, लेकिन जीजू का तो सबसे अलग ही है। अलग … और बहुत सुंदर … और और बहुत … बड़ा भी! ये तो उसकी स्कूल की स्केल से भी ज्यादा लम्बा लग रहा था और मोटा भी था - बहुत मोटा।
दीदी ने बहुत ही प्यार से जीजू के छुन्नू को धीरे धीरे पलासना शुरू कर दिया था, और साथ ही साथ वो चट्टान पर कुछ इस तरह से लेट गयी की उसकी उसकी रानें पूरी तरह से खुल गयी। लेकिन फिर भी दीदी अपने उस हाथ से, जो जीजू के छुन्नू पर नहीं था, अपनी पेशाब करने वाली जगह को और फैला रही थी। दीदी की फैली हुई योनि को देख कर नीलम के दिल में एक आशंका या डर सा बैठ गया।
'क्या करने वाली है ये?'
और फिर वही हुआ जिसकी उसको आशंका थी - जीजू अपना छुन्नू दीदी की योनि में धीरे धीरे डालने लगे। दीदी की छाती तेज़ साँसों के कारण धौंकनी जैसे ऊपर नीचे हो रही थी।
'दीदी को कितना दर्द होगा! बेचारी देखो कैसे उसकी साँसे डर के मारे बढ़ गयी हैं!'
दीदी नीचे की तरफ, जीजू के छुन्नू को देख रही थी - जीजू अब साथ ही साथ दीदी के दुदल मींज रहे थे और चुटकी से दबा रहे थे। अंततः जीजू का पूरा का पूरा छुन्नू दीदी के अन्दर चला गया - दीदी के गले से एक गहरी आह निकल गयी। नीलम को वह आह सुनाई पड़ी - उसके दिमाग को लगा की दीदी दर्द के मारे कराह रही है, लेकिन उसके दिल को सुख भरी आह सुनाई दी।
जीजू ने दीदी से कुछ कहा। जवाब में दीदी ने सर हिला कर हामी भरी।
'दीदी ठीक तो है? बाप रे! इतनी मोटी और लम्बी चीज़ कोई अगर मेरे में डाल दे तो मैं तो मर ही जाऊंगी!' नीलम ने सोचा।
"करिए न … रुकिए मत।" नीलम को दीदी की हलकी सी आवाज़ सुनाई दी।
'दीदी क्या करने को कह रही है? और वो ऐसी हालत में बोल भी कैसे पा रही है। मेरी तो जान ही निकल जाती और मैं रोने लगती।'
दीदी की बात सुन कर जीजू की कमर धीरे धीरे आगे पीछे होने लगी - लेकिन ऐसे की उनका छुन्नू पूरे समय दीदी के अन्दर ही रहे और बाहर न निकले।
'हे भगवान्!' नीलम अब मंत्रमुग्ध होकर अपने दीदी और जीजा के यौन संसर्ग का दृश्य देख रही थी।
और फिर वही हुआ जिसकी उसको आशंका थी - जीजू अपना छुन्नू दीदी की योनि में धीरे धीरे डालने लगे। दीदी की छाती तेज़ साँसों के कारण धौंकनी जैसे ऊपर नीचे हो रही थी।
'दीदी को कितना दर्द होगा! बेचारी देखो कैसे उसकी साँसे डर के मारे बढ़ गयी हैं!'
दीदी नीचे की तरफ, जीजू के छुन्नू को देख रही थी - जीजू अब साथ ही साथ दीदी के दुदल मींज रहे थे और चुटकी से दबा रहे थे। अंततः जीजू का पूरा का पूरा छुन्नू दीदी के अन्दर चला गया - दीदी के गले से एक गहरी आह निकल गयी। नीलम को वह आह सुनाई पड़ी - उसके दिमाग को लगा की दीदी दर्द के मारे कराह रही है, लेकिन उसके दिल को सुख भरी आह सुनाई दी।
जीजू ने दीदी से कुछ कहा। जवाब में दीदी ने सर हिला कर हामी भरी।
'दीदी ठीक तो है? बाप रे! इतनी मोटी और लम्बी चीज़ कोई अगर मेरे में डाल दे तो मैं तो मर ही जाऊंगी!' नीलम ने सोचा।
"करिए न … रुकिए मत।" नीलम को दीदी की हलकी सी आवाज़ सुनाई दी।
'दीदी क्या करने को कह रही है? और वो ऐसी हालत में बोल भी कैसे पा रही है। मेरी तो जान ही निकल जाती और मैं रोने लगती।'
दीदी की बात सुन कर जीजू की कमर धीरे धीरे आगे पीछे होने लगी - लेकिन ऐसे की उनका छुन्नू पूरे समय दीदी के अन्दर ही रहे और बाहर न निकले।
'हे भगवान्!' नीलम अब मंत्रमुग्ध होकर अपने दीदी और जीजा के यौन संसर्ग का दृश्य देख रही थी।
संध्या का परिप्रेक्ष्य:
संध्या को पिछले के रति-संयोगों में वैसा नहीं महसूस हुआ था, जैसा की उसको अभी हो रहा था। उसके पति का बृहद लिंग उसकी नन्ही सी योनि का इस प्रकार उल्लंघन और उपभोग कर रहा था जिसकी व्याख्या करना अत्यंत कठिन था! वह लिंग जिस तरह से उसकी योनि द्वार को फैला रहा था और इस क्रिया से होने वाला कष्ट भी अब उसको प्रिय लगने लगा था। उस लिंग के प्रत्येक प्रवेशन से उन दोनों के जघन क्षेत्र एकदम ठीक जगह पर, एकदम ठीक बल के साथ टकरा रहे थे। और उसके पति के वृषण उसके नितम्बो पर नरम नरम चपत लगा रहे थे।
ऐसा सुख संध्या को पहले नहीं महसूस हुआ। यह संवेदना थी आनंद की, कष्ट की, आनंदातिरेक की और एक तरह की हानि की। और कुछ भी हो, इस काम में मज़ा बहुत आ रहा था।
जब संध्या के विवाह का दिन निकट आने लगा, तो पास पड़ोस की तीन चार 'भाभियों' ने उसको अंतहीन और अधकचरी यौन शिक्षा प्रदान की। उनके हिसाब से पुरुष का लिंग सामान्यतः संकरा, थोड़ा लटकता हुआ, पतली ककड़ी जैसे आकार का होता है। किन्तु उसके पति का लिंग तो उनके बताये जैसा तो बिलकुल ही नहीं था - बल्कि उसके विपरीत कहीं अधिक प्रबल, लम्बा और मोटा था। उन्होंने यह भी बताया था की यौन क्रिया तो बस दो से चार मिनट में ख़तम हो जाती है, और ऐसा कोई घबराने वाली बात नहीं होती, और यह भी की ये तो पुरुष अपने मज़े के लिए करते हैं। लेकिन उसका पति इस विभाग में भी निश्चित रूप में लाखों में एक है - एक तो उनके बीच का एक भी यौन प्रसंग कम से कम पंद्रह बीस मिनट से कम नहीं चला … और तो और 'उन्होंने' उसके आनंद को हर बार वरीयता दी। भाभियों के हिसाब से सेक्स का मतलब लिंग का योनि में अन्दर बाहर जाना और तीन चार मिनट में काम ख़तम। लेकिन अब तक उन दोनों ने जितनी भी बार भी सेक्स किया, उतनी ही बार सब कुछ नया नया था।
आखिर कितनी विषमता हो सकती है, इस चिरंतन काल से चली आ रही नैसर्गिक क्रिया में? संध्या को अपनी योनि में एक तेज़ धक्का महसूस हुआ - उसने ध्यान किया की उसके पति का लिंग कुछ और फूल रहा था। और जिस तरह से वह लिंग उसके क्रोड़ को निःशेष कर रहा था, उससे वह अपने पति और उसके लिंग, दोनों की ही मुरीद बन चुकी थी। उसको मन ही मन ज्ञात हो चला था की रूद्र की वो पूरी तरह गुलाम बन गयी है। पहले तो अपने व्यक्तित्व, फिर अपने व्यवहार और अब अपने यौन-सामर्थ्य से उसके पति ने उसको पूरी तरह से जीत लिया था। इसके एवज़ में वह कुछ भी कहेंगे तो वह करेगी।अगर रूद्र चाहे तो दिन के चौबीसों घंटे उसके साथ सम्भोग कर सकता है और वो मना नहीं कर सकती थी।
मेरा परिप्रेक्ष्य:
आमतौर पर पुरुष एक स्खलन के आधे घंटे तक पुनः संसर्ग के लिए नहीं तैयार हो पाते। लेकिन संध्या की कशिश ही कुछ ऐसी है की मैं तुरंत तैयार हो जाता हूँ। उसका अद्वितीय रूप, उसका भोलापन, उसकी सरलता और उसका कमसिन शरीर मेरी कामातुरता को कई गुना बढ़ा देता है। कभी कभी मन होता है की उसकी योनि में अपने लिंग का इतने बल से घर्षण करूँ की वहां लाल हो जाए। लेकिन, स्त्रियाँ हिंसा से नहीं, प्रेम से जीती जाती है। लिहाज़ा, मैं अपने मन के पशु पर लगाम लगा कर लयबद्ध तरीके से उसकी योनि का मर्दन कर रहा हूँ। उसकी कसी हुई और चिकनी योनि में मेरे लिंग का आवागमन बहुत ही सुखमय लग रहा है।
संध्या का परिप्रेक्ष्य:
संध्या की कामाग्नि कुछ इस प्रकार से धधक रही है की उसको न तो अपने नीचे के शिलाखंड की शीतलता महसूस हो रही है और न ही अपने पर्यावरण की। इस समय उसके पूरे अस्तित्व का केंद्र उसकी योनि थी, जहाँ पर उसके पति का लिंग अपन कर्त्तव्य कर रहा था। उसके हर धक्के में आनंद और पीड़ा की ऐसी मधुर झंकार छूट रही थी की उसको लग रहा था की वह स्वयं ही कोई वाद्य-यन्त्र हो। ऐसे ही आनंद के सागर में हिचकोले खाते हुए उसकी दृष्टि झाड़ियों के पीछे चली गयी।
'कोई तो वहां है!' हाँलाकि उसके नेत्रों में खींचे वासना के डोरे उसकी अवलोकन को धुंधला बना रहे थे, लेकिन थोडा जतन करने से उसको कुछ स्पष्ट दिखने लगा। जो व्यक्ति था, उसके कपडे बहुत ही जाने पहचाने थे। पर समझ नहीं आ रहा था की ये है कौन!
किन्तु, अपने आपको ऐसे नितांत नग्न और यौन की ऐसी प्रच्छन्न अवस्था में किसी और के द्वारा देखे जाने के एहसास से संध्या की कामुकता और बढ़ गयी।
'कोई देखता है तो देखे! आखिर वह अपने पति के साथ समागम कर रही है, किसी गैर के साथ थोड़े ही! और देखना ही क्या? जा कर सबको बताये की संध्या और उसका पति किस तरह से सेक्स करते हैं। और यह भी की उसके पति का लिंग कितना प्रबल है!'
यह सोचते हुए कुछ ही पलों में वह रति-निष्पत्ति के आनंदातिरेक पर पहुँच गयी। उसकी योनि से काम रस बरस पड़ा और रूद्र के लिंग को भिगोने लगा। आनंद की एक प्रबल सिसकारी उसके होंठों से निकल गयी। लेकिन रूद्र का प्रहार अभी भी जारी था - उसके हर धक्के के साथ ही साथ संध्या उछल जाती। उसको इस समय न तो अपने आस पास का अभिज्ञान था और न ही भौतिकता के किसी भी नियम का। पूर्ण आनंद से ओत प्रोत होकर संध्या इस समय अन्तरिक्ष की सैर कर रही थी।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम का दिल एकदम से बैठ गया - 'दीदी उसी की तरफ देख रही है! क्या उसने मुझको देख लिया होगा? ऐसा लगता तो नहीं! अगर देखा होता तो शायद वो अपने आपको ढकने की कोशिश करती?' उसकी दृष्टि इस समय इस अत्यंत रोचक मैथुन के केंद्र बिंदु पर मानो चिपक ही गयी थी। जीजू का विकराल लिंग दीदी की छोटी सी योनि के अन्दर बाहर जल्दी जल्दी फिसल रहा था, और दीदी उसके हर धक्के से उछल रही थी, और आहें भर रही थी।
मेरा परिप्रेक्ष्य:
मैंने अचानक ही संध्या की योनि में चिकनाई बढती हुई देखी, जो की मेरे अगले धक्कों में ही मेरे लिंग के साथ बाहर आने लगी। संध्या के शरीर की थरथराहट, गहरी गहरी साँसे, पसीने की परत, यह सब एक ही और संकेत कर रहे थे, और वह यह की संध्या को चरम सुख प्राप्त हो गया है। लेकिन मेरी मंजिल अभी भी दो तीन मिनट दूर थी, इसलिए मैंने धक्के लगाना जारी रखा। कोई एक मिनट बाद संध्या के शरीर की थरथराहट काफी कम हो गयी और वह अपनी आँखें खोल कर मेरी तरफ देखने लगी। कुछ देर और धक्के लगाने के बाद मुझे अपने अन्दर एक परिचित दबाव बनता महसूस हुआ। मैंने तत्क्षण कुछ नया करने का सोचा। ठीक तभी जब मेरा स्खलन होने वाला था, मैंने अपना लिंग बाहर निकाल लिया और हाथ से अपने लिंग को पकड़ कर मैथुन जैसे गति देने लगा। संध्या ताज्जुब से मेरी इस हरकत को देखने लगी। उसके चेहरे के हाव भाव बड़ी तेजी से बदल रहे थे। मुझे उसको देख कर ऐसा लगा की उसको समझ आ गया है की मेरा प्लान अपने वीर्य को बाहर फेंकने का है। और यह एक निरादर भरा कार्य था।
वह कुछ कर या कह पाती उससे पहले ही मैंने अपने आप को छोड़ दिया - मेरे गर्म, सफ़ेद वीर्य के लम्बे मोटे डोरे उसके पेट और जाँघों पर छलक गए। वीर्य की कुछ छोटी छोटी बूँदें उसके योनि के बालों पर उलझ गईं। ऐसा करते हुए मेरी भरी हुई साँसों के साथ कराहें भी निकल गयीं - मेरे पाँव इस तरह कांपे की मुझे लगा की मैं अभी गिर जाऊँगा। मैंने पकड़ कर अपने आप को सम्हाला।
संध्या ने मेरे वीर्य से सने और रक्त वर्ण लिंग को देखा, फिर अपने पेट पर पड़े वीर्य को देखा और फिर बड़े अविश्वास से मेरी तरफ देखा। कुछ देर ऐसे ही घूरने के बाद उसने हाँफते हुए बोला,
"आपने ऐसे क्यों किया? मैंने आपको बोला था की आपका बीज मुझे मेरे अन्दर चाहिए!"
मैं अभी भी अपने आनंद के चरम पर था।
"जानेमन! सॉरी! आगे से सारा सीमन आपके अन्दर ही डालूँगा!"
मेरी बात सुन कर पहले तो उसको संतोष हुआ और फिर यह सोच कर की मेरा वीर्य लेने के लिए उसको सम्भोग करना पड़ेगा, उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया।
"इन द मीनटाइम, क्लीन दिस …" मैंने लिंग की तरफ इशारा करते हुए कहा।
संध्या मेरे यह कहने पर उठी और मेरे अर्ध उत्तेजित लिंग को अपने मुंह में लेकर चूसने लगी।
मैंने अचानक ही संध्या की योनि में चिकनाई बढती हुई देखी, जो की मेरे अगले धक्कों में ही मेरे लिंग के साथ बाहर आने लगी। संध्या के शरीर की थरथराहट, गहरी गहरी साँसे, पसीने की परत, यह सब एक ही और संकेत कर रहे थे, और वह यह की संध्या को चरम सुख प्राप्त हो गया है। लेकिन मेरी मंजिल अभी भी दो तीन मिनट दूर थी, इसलिए मैंने धक्के लगाना जारी रखा। कोई एक मिनट बाद संध्या के शरीर की थरथराहट काफी कम हो गयी और वह अपनी आँखें खोल कर मेरी तरफ देखने लगी। कुछ देर और धक्के लगाने के बाद मुझे अपने अन्दर एक परिचित दबाव बनता महसूस हुआ। मैंने तत्क्षण कुछ नया करने का सोचा। ठीक तभी जब मेरा स्खलन होने वाला था, मैंने अपना लिंग बाहर निकाल लिया और हाथ से अपने लिंग को पकड़ कर मैथुन जैसे गति देने लगा। संध्या ताज्जुब से मेरी इस हरकत को देखने लगी। उसके चेहरे के हाव भाव बड़ी तेजी से बदल रहे थे। मुझे उसको देख कर ऐसा लगा की उसको समझ आ गया है की मेरा प्लान अपने वीर्य को बाहर फेंकने का है। और यह एक निरादर भरा कार्य था।
वह कुछ कर या कह पाती उससे पहले ही मैंने अपने आप को छोड़ दिया - मेरे गर्म, सफ़ेद वीर्य के लम्बे मोटे डोरे उसके पेट और जाँघों पर छलक गए। वीर्य की कुछ छोटी छोटी बूँदें उसके योनि के बालों पर उलझ गईं। ऐसा करते हुए मेरी भरी हुई साँसों के साथ कराहें भी निकल गयीं - मेरे पाँव इस तरह कांपे की मुझे लगा की मैं अभी गिर जाऊँगा। मैंने पकड़ कर अपने आप को सम्हाला।
संध्या ने मेरे वीर्य से सने और रक्त वर्ण लिंग को देखा, फिर अपने पेट पर पड़े वीर्य को देखा और फिर बड़े अविश्वास से मेरी तरफ देखा। कुछ देर ऐसे ही घूरने के बाद उसने हाँफते हुए बोला,
"आपने ऐसे क्यों किया? मैंने आपको बोला था की आपका बीज मुझे मेरे अन्दर चाहिए!"
मैं अभी भी अपने आनंद के चरम पर था।
"जानेमन! सॉरी! आगे से सारा सीमन आपके अन्दर ही डालूँगा!"
मेरी बात सुन कर पहले तो उसको संतोष हुआ और फिर यह सोच कर की मेरा वीर्य लेने के लिए उसको सम्भोग करना पड़ेगा, उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया।
"इन द मीनटाइम, क्लीन दिस …" मैंने लिंग की तरफ इशारा करते हुए कहा।
संध्या मेरे यह कहने पर उठी और मेरे अर्ध उत्तेजित लिंग को अपने मुंह में लेकर चूसने लगी।
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