FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--183
रात बाहर धीमे धीमे झर रही थी।
शशांक अपनी यात्रा आधी से ज्यादा पूरी करके तेजी से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे।
रंजी की लगाई ४५ मिनट की रोक कब की खत्म होगयी थी।
नीली रोशनाई से पुते आसमान में कुछ शावक से बादल , चन्द्रमा से छिपा छिपौवल खेल रहे थे। जब वो मयंक को ढक लेते तो कमरे का नाइट बल्ब अपनी पूरी ताकत से थोड़ी बहुत रोशनी कर पाता था।
और उस भूरे धुंधलके में , रंजी और गुड्डी की देह , एक दूसरे में गुथी सिर्फ एक स्केच की तरह लग रही थीं , इंक एंड पेन के स्केच की तरह , ढेर सारे कर्व्स।
लेकिन जब शशि के मुखड़े से बादल के घूंघट हट जाता तो सफेद चमेली के चादर सी ज्योत्स्ना उनकी देह को और उजागर कर देती। सारी गोलाइयाँ , कटाव ,उभार ,
और उस उजास में हमारे घर से सटा आम का पेड़ , जिसकी मोटी मोटी टहनियां हमारे छत के ऊपर तक आती थीं , साफ दिख रहा था , एक बड़े काले सेल्हुयूट की तरह। पेड़ आम के बौरों से लदा था और तेज हवा जो खुली खिड़की से आरही थी , आम्र मंजरी की गंध उसे और मादक कर रही थी।
फागुन बीता ही था लेकिन चैत की रातें भी कम मस्ती और नशे से भरपूर नहीं होती।
गुड्डी और रंजी सोयी नहीं थी बस क्लांत लेटी थीं , अभी बरसे सुख की आखिरी बूँद का स्वाद चखती। रंजी ज्यादा थकी थी , आखिर सारी मेहनत उसने की थी।
वह दोनों सुख भोग चुकी थीं लेकिन मैं अभी भी काम ज्वर में डूबा , उद्वेलित ,मेरा लिंग पूरी तरह उत्थित ,…
जंगबहादुर भूखे थे बौराये ,
और तभी मैंने नोटिस किया रेंगती हुयी अंगुलियां
नीचे लेटी गुड्डी की उँगलियाँ , रंजी के गुदाज गदराये नितम्बों पर फिर रही थी , और वैसे भी जिस तरह दोनों लेती थी , चिपकी , सिर्फ रंजी की पिछवाड़े की दोनों उपत्यकाएँ साफ साफ दिख रही थीं , दो मांसल गुदाज पहाड़ियां , जिसके बीच के खैबर दर्रे में घुसने के लिए पूरा शहर बेचैन था।
और बिचारे जंगबहादुर जो दो बार उसकी यात्रा कर चुके थे , किसी भी हालत में वहां जाना चाहते थे।
गुड्डी की दोनों हाथों उँगलियों ने रंजी के मस्त चूतड़ों को फैलाया और अचानक मैंने देखा , गुड्डी ने मुझे जबरदस्त आँख मारी।
आमंत्रण साफ था ,' लोगे इस के पिछवाड़े का मजा ' .
फ्लाइंग किस से मैंने न्यौता स्वीकार किया।
रंजी की आँखे अभी भी मुंदी थीं।
एक बार फिर बादलों ने निशाकर की आँखे मूँद ली और मैं दबे पांव , पलंग पर जा पहुंचा।
गुड्डी ने अपने पैरों से जोर से सांकल की तरह रंजी की पतली कमर को जकड रखा था , अपने ऊपर , चाह कर भी हिलना उसके लिए मुश्किल था।
मैं कुछ देर तक खैबर के दर्रे को निहारता रहा और उसके बगल की पहाड़ियों को।
परफेक्ट बबल बॉटम ,
रंजी की लम्बी पतली टाँगे ऊपर जाकर शेपली बबल बॉटम्स में ढल जाती थीं , गुदाज और मांसल।
इस पिछवाड़े को सिर्पफ छूने , एक बार दबाने के लिए कितने दीवाने जान की बाजी लगाने को तैयार थे ,
रोज रंजी के शहर सैंकड़ों लड़के सिर्फ इन गदराये नितम्बो के बारे में सोच सोच कर मुट्ठ मारते थे ,
और कल से जब वह बनारस में अपने पिछवाड़े को मटका के चलेगी तो इस लिस्ट में कित्ते बनारसियों का भी नाम जुड़ जाएगा।
और कुछ दिन में जब लो बॉटम टाइट जींस में ये अपना पिछवाड़ा दिखाएगी तो फिर तो हजारों ,…
लेकिन ये नितम्ब आज मेरी मुट्ठी में थे।
मैंने एक हाथ से हलके से रंजी केनितम्बो को सहलाया ,… वो कुछ कुनमुनाई।
लेकिन जंगबहादुर पागल हो रहे थे। फोर प्ले का समय नहीं था ,
और सीधे मैंने सेंटर पे ध्यान लगाया।
कल रात में यहां सिर्पफ एक हलकी सी दरार थी , भूरी सी वो भी बहुत मुश्किल से देखने पर दिखती थी।
आज सुबह वहां एक बहुत ही छोटा सा छेद दिख रहा था , ऊँगली भी न जाए पाया ऐसा।
लेकिन गुड्डी के मोटे डिल्डो ने वहां जो तूफान मचाया , अब साफ साफ एक छोटा सा गोल गोल छेद नजर आ रहा था।
बस मैंने आव न देखा ताव और अपने दोनों हाथों के अंगूठे , वहां जोर लगाके फंसाया और उसे खींच के फैलाया।
सबसे पतली ऊँगली जाने भर का रास्ता बन गया। लेकिन जाना तो बियर कैन ऐसे मोटे मेरे औजार को जाना था।
लेकिन उसकी गांड के दरार को देख के बस जो होना था ,… हुआ।
मैंने लंड का सुपाड़ा सीधे गांड के छेद से सटाया।
मेरे दोनों अंगूठे जोर से रंजी के गांड के छेद को चियारे हुए थे।
और बाकी का काम गुड्डी के हाथ और पैर कर रहे थे , जोर से रंजी को जकड़ने का काम जिससे जब लंड का भरपूर धक्का ,गांड पे लगे तब वह भले चाहे जितना चिलमिलाये , एक सूत भी वो हिल डुल न पाये।
और यही हुआ , पहले धक्के के साथ ही रंजी की जोर की चीख निकल गयी। पूरी ताकत से उसने छुड़ाने की कोशिश की पर गुड्डी की पकड़ भी बहुत तगड़ी थी।
बिचारी रंजी टस से मस नही होने पायी।
और मैंने बजाय धक्का मारने के कसी संकरी गांड में घुसे लंड को , बस पूरी ताकत से ठेलना अंदर धकेलना शुरू कर दिया।
सुपाड़े के ऊपर रंजी की कसी कसी तंग गांड का अंदर का हिस्सा जब रगड़ खाता , सुपाड़े को अपने अंदर दबोचता तो इतना अच्छा लग रहा था की बता नहीं सकता।
रंजी दर्द और मजे की इस कॉकटेल को सिसकियों के साथ गटक रही थी। आधे से ज्यादा मेरा मोटा सुपाड़ा अब बिचारी की गांड घोंट चुकी थी।
लेकिन रंजी भी कम नहीं थी ,किसी मामले में।
मुड़ के उसने मुझे देखा , मुस्कराई हमारी आँखे चार हुईं , और अब जब मैंने फिर लंड अंदर ठेला तो अबकी बार मुझसे भी ज्यादा ताकत से रंजी ने अपने चूतड़ पीछे ठेले।
नतीजा ये हुआ की आधे से ज्यादा सुपाड़ा अंदर था और उसकी गांड ने बहुत प्यार से उसे दबोच रखा था।
दो बार गांड मुझसे गांड मराने और एक बार गुड्डी का सुपर डिल्डो गांड में घोंटने के बाद अब वो ये अच्छी तरह सीख गयी थी की कब उसे गांड ढीली करनी है , और अब उसने अपनी ओर से पूरी तरह गांड ढीली छोड़ दी थी।
लेकिन अब मामला खैबर के दर्रे का था , उसकी गांड के छल्ले का। रंजी ने अपनी ओर से स्फिंकटर मसल्स को एकदम ढीला छोड़ रखा था , पूरी ताकत से उसने चादर दबोच रखी थी।
गुड्डी भी उसे आश्वस्त करते , प्यार से हलके हलके उसकी पीठ सहला रही थी , लेकिन ये बात हम तीनो को मालूम थी की जब स्फिंक्टर मस्लस रगड़ खायेंगी तो उसे भीषण दर्द होगा , और अगर कही उसने सिकोड़ लिया डर के , तो शायद सुपाड़ा अंदर घुस भी न पाये।
और उस का बस एक ही तरीका था।
मैंने जोर से रंजी के चूतड़ों को पकड़ा , सुपाड़ा आलमोस्ट बाहर किया और फिर पूरी ताकत से धक्का मारा।
रंजी बहुत जोर से चीखी।
गुड्डी मुझे देख के मुस्कराई और खूब जोर से आँख मारा।
मेरा दूसरा धक्का पहले से भी तेज था ,फिर तीसरा ,चौथा।
और अब सुपाड़ा अच्छी तरह गांड पे पैबस्त हो गया था। स्फिंकटर मसल्स पार हो गयीं थी और अब वो सुपाड़े के बाद लिंग के शैफ्ट को दबोच रही थी।
अब मैंने तरीका बदल दिया और एक बार फिर धक्के छोड़के पूरी ताकत से सिर्फ ठेल रहा था , पेल रहा था ,अंदर घुसेड़ रहा था।
पांच दस मिनट की मेहनत से करीब आधा लंड अंदर था , और रंजी की गांड का दर्द भी कुछ हलका हो गया था।
गुड्डी ने मुझसे रुकने का इशारा किया और फिर वो सरक के रंजी के नीचे से निकल गयी , और उस कुर्सी पे जा केबैठ गयी जहाँ थोड़ी देर पहले मुझे दोनोने जबरन बैठा रखा था /
उसने एक चिल्ड बियर का कैन खोल रखा था। सिप करते हुए अपनी बनारसी स्टाइल में रंजी से बोली ,
" अरे छिनार , बहुत तेरी गांड में चींटे काट रहे थे न वो भी बड़े बड़े लाल वाले तो ऐसे क्यों पड़ी है। चल ,घोड़ी बन , चूतड़ उठा और मेरे सैयां के लौंडे का धक्का खा। सब तो तुझे रंडी कहते हैं और , चल दिखा अपनी रंडी की कला। बन घोड़ी और खुल के गांड मरा। यहाँ प्रैक्टिस अच्छी रहेगी न तो कल बनारस में बहुत आराम से खुल के मरवाएगी गांड। "
और रंजी घोड़ी बन गयी।
मेरी फेवरिट पोज , और ये बात गुड्डी और रंजी दोनों को मालूम थी , चाहे चूत के चिथड़े उड़ाने हों या गांड का भुरकुस बनाना हो , दोनों हालत में।
दोनों में ही पेन्ट्रेशन डीप होता है , लंड खूब रगड़ रगड़ के अंदर जाता है और सबसे ज्यादा मुझे जो फायदा मिलता है वो जोबन रस लेने का।रंजी की कच्ची अमियाँ मेरी मुट्ठी में थी , खूब कड़ी कड़ी रसदार।
और अब सब कुछ भूल कर मैं उन का स्वाद लेने लगा ,कभी दबाता ,कभी निचोड़ता , कभी निपल पिंच करता और रंजी की चीख निकल जाती।
लेकिन अब मेरे लंड का ख्याल रंजी की कसी गांड रख रही थी। कभी वह उसे जोर से निचोड़ती कभी छोड़ती तो कभी बस देर तक दबा के रखती , जैसे कोई कोमल कोमल मुट्ठी में लंड को लेकर सहला रहा हो , प्यार से दबा ,भींच रहा हो मुट्ठ मार रहा हो।
गुड्डी हम दोनों को देख के मुस्करा रही थी , रंजी को छेड़ रही थी और मुझे उकसा रही थी ,
" क्या बिचारी को आधे लंड से चोद रहे हो , इत्ते में क्या मजा आएगा इस छिनार को , ये तो सात जनम की लंड खोर है , अपनी गली के गदहों का घोंटने की इसको आदत है , ऊंट के मुंह में जीरा। चोद साल्ली को हचक हचक के पूरे लंड से। "
बस , दोनों चूंचियों को लगाम की तरह पकड़ मैंने घोडा सरपट दौड़ा दिया।
एक बार फिर रंजी की चीखें लाख रोकने पे भी निकलने लगीं , और गुड्डी चाहती भी यही थी।
" अब देख मरवा रही है न साल्ली छिनार , मजे ले ले के। अभी क्या चीख रही है कल देखना बनारस में , चुदेगी औरंगाबाद में और चीख सुनाई पड़ेगी दालमंडी तक , तभी तो दाम लगेगा इस का ठीक से और जोर से मारो ,फाड़ दो गांड कस के। "
गुड्डी की कहने की देर थी घोडा रेस के आखिरी राउंड की तरह दौड़ने लगा और अब मैं हर धक्के के साथ लंड ऑलमोस्ट सुपाड़े तक बाहर निकाल लेता। फिर दरेरता रगड़ता छीलता , मेरा मोटा मूसल अंदर तक घुसता।
" क्यों खाया पिया आ रहा है न बाहर , क्या गांड मारना , जब तक गांड की मक्खन मलाई बाहर न आये "
गुड्डी चुप रहने वाली नहीं थी।
और अबकी जब जंगबहादुर बाहर निकले तो गुड्डी की बात एकदम सही निकली। रंजी के रंग ,रस में डूबे लिपटे।
और ये देख के मेरा जोश दूना हो गया।
अबकी लंड अंदर सिर्फ आधा धकेल के मैं रुक गया और मथानी की तरह जोर जोर से मुट्ठी से पकड़ के घुमाने लगा , और उस मथने से कुछ कुछ गांड रस की बूंदे बहार छलक आयीं लेकिन सबसे बड़ा फायदा ये हुआ की बेस्ट लुब्रिकेंट अब मेरे लंड में लगा था और वो सटा सट ,सटा सट उसकी गांड में अंदर बाहर हो रहा था।
एक बार फिर स्पीड तूफानी हो गयी। लेकिन अबकी मेरी दो उँगलियाँ भी रंजी की चूत में घुस गयी थी मंथन करने और अंगूठा क्लिट की रगड़ाई करने में लगा था।
कुछ ही देर में रंजी के देह में काम तरंगे उठने लगीं , और जल्दी ही वो ज्वार में बदल गयीं।
बाहर अब बादल चाँद से दूर हो गए थें। चांदनी पर अब वो झिलमिलाती ओढनी नहीं थी और नतीजा ये था की दूधिया ज्योत्स्ना हम दोनों के बदन को नहला रही थी।
मैं जान रहा था की मेरे तिहरे हमले से , गांड में चूत में और दोनों चूंचियों पे रंजी अब झड़ने के बहुत दूर नहीं थी।
गुड्डी ने बैठे बैठे बियर का कैन खाली करते , थम्स अप का साइन दिया , यानी झाड़ दो इसको।
हालत मेरी भी ख़राब थी , गुड्डी रंजी की काम क्रीड़ा देख के। इत्ते देर से बिचारे जंगबहादुर खड़े थे , और मेरे लिए भी और रुकना आसान नहीं थी।
मैंने गियर चेंज किया और गाडी चौथे गियर में डाल दी। स्पीड फुल। न सिर्फ लंड की बल्कि रंजी की चूत में धंसी उँगलियों की भी।
जिस रफ्तार से मेरी उंगलिया रंजी की बुर चोद रही थीं , क्या कोई मर्द चोदेगा , और साथ में गांड में धंसा लंड भी उसी का मुकाबला कर रहा था। चूत में घुसी उँगलियों की संख्या अब तीन हो गयी थी और नकल मोड़ के मैं जी प्वाइंट को भी रगड़ रहा था। साथ में अंगूठा ,क्लिट को बिना रुके दबा मसल रहा था।
दूसरा हाथ सीधे उसके उभार पर था , जहाँ तरजनी और अंगूठा मिल के जोर जोर से उसे पिंच कर रहे थे।
रंजी भी धक्के का जवाब धक्के से दे रही थी , उसकी साँसे लम्बी हो रही थीं , आँखे मस्ती से बंद हो रही थी , बस अब गयी की तब।
और मैंने जोर से क्लिट पिंच कर लिया।
और रंजी का आर्गज्म ट्रिगर हो गया। वो तूफान में पत्ते की तरह काँप रही थीं।
बाहर भी आसमान में पुरवाई तेज हो गयी थी , बादलों का एक झुण्ड भटकता आसमान में आगया था और उसने शशिमुख पर जैसे रोशनाई पोत दी हो। बादलों से छन छन कर आने वाली चांदनी भी अब बहुत धूमिल हो गयी थी।
रंजी की प्रेम गली में तेजी से संकुचन हो रहा था और उसका असर पिछवाड़े धंसे मेरे चर्म दंड पर भी पड़ा। एक जोर का धक्का मैंने गांड में मारा , और साथ साथ मेरी देह भी कांपने लगी।
इतने देर की मस्ती , काम ज्वाला अब मलाई की धार बन के निकल रही थी। कुछ देर रुक के फिर दुबारा , तिबारा।
हम दोनों साथ साथ झड़ रहे थे।
कुछ देर तक हम दोनों ऐसे पड़े रहे , फिर रंजी जो अभी भी घोड़ी की पोज में थी , उसने क्लांतमुख से मेरी ओर देखा। उसकी पूरी देह थक कर चूर हो रही थी।
मैंने शिश्न निकालने की कोशिश की लेकिन तभी मेरी निगाह गुड्डी पे पड़ी जो बार बार अपनी कजरारी ,रतनारी आँखों से मुझे बरज रही थीं।
मेरे और गुड्डी के रिश्ते में बिन बोले भीं बहुत सी बातें कह सुन ली जाती हैं और मैं समझ गया उसका मतलब।
थकी रंजी अब उस हालत में तो नहीं सकती थी लेकिन साथ साथ मेरा घोडा रेस के बाद भी बहुत देर तक ,तना खड़ा रहता था।
मैं बैठ गया और साथ साथ रंजी को भी मैंने अपने गोद में बैठा लिया , उसी हालत में।
मेरा खूंटा अभी भी रंजी की गांड में धंसा था , पूरे ९ इंच ,जड़ तक।
मुस्कराते रंजी मेरी गोद में बैठ गयी , अपनी बाँहों में लपेटे अपने उरोज शरारत से मेरे सीने पे रगड़ती।
शरारत में तो रंजी का कोई सानी नहीं था। साथ साथ वो अपने नितम्ब भी मेरे लिंग के बेस पे रगड़ रही थी।
गुड्डी ने दो चिल्ड बियर हम दोनों को पकड़ा दी।
मेरे हाथ के कैन से रंजी पी रही थी और उसके हाथ के कैन से मैं।
बीच बीच में अपने मुंह की बियर भी वो सीधे मेरे मुंह में डाल देती। कभी छेड़ते हुए मेरे गाल पे एक हलकी सी बाइट ले लेती।
कैन खत्म होते होते दस पंदह मिनट बीत गए।
एक बार फिर सुधाकर ,बादलों की अंकवार से बाहर आगये और हमारी केलि क्रीड़ा के साक्षी बन गए थे।
गुड्डी ने हम दोनों के हाथ से कैन ले लिया और हलके से धक्के से रंजी को बिस्तर पर गिरा दिया।
गप्प से मेरा शेर गुफा से बाहर आगया , लेकिन अभी भी उसका जोश कम नहीं हुआ था।
" हे क्या हाल बना दी बिचारे की , देख कैसे रंग बदल गया। अब कौन इसे ठीक करेगा। " गुड्डी ने मेरे लिंग को देख के हँसते हुए कहा।
मेरा खूंटा रंजी के , बल्कि रंजी के पिछवाड़े के ,रंग में रंग गया था।
रंजी उठ के बैठ गयी और उसने प्यार से उसे पकड़ लिया , कुछ देर तक वो भी गुड्डी की खिलखिलाहट में शामिल रही , फिर मुस्कराके बोली
" अरे जिसने ये हालत की है वही करेगी , इस बिचारे की बेचारी। "
और गप्प से उसने गांड रस से लिपा पुता , मेरा लिंग अपने मुंह में ले लिया।
वो अब कुछ सोया जागा था , इसलिए एक बारगी ही रंजी के मुंह में समा गया।
और रंजी लॉलीपॉप की तरह उसे चुभलाने चूसने लगी।
और पांच सात मिनट बाद जब नाग उस संपेरन के पिटारे से निकला तो फिर अपने उसी रंग रूप में। रंजी ने चाट चूट के सब साफ कर दिया था और शरारत से मुझे, गुड्डी को देख के मुस्करा रही थी , जीभ अपने रसीले गुलाबी होंठों पे फिरा रही थी।
लेकिन एक बात थी , अब नाग फिर से फुंफकारने लगा था।
" अच्छा खासा सोने वाला था ये तुमने फिर जगा दिया , अब कौन लेगा इसे अंदर। तुमने जगाया तुम्ही लो " गुड्डी ने रंजी को चिढ़ाया।
" न न , मेरे आगे पीछे दोनों छेद इसकी मलाई से भर गए हैं। अबकी तेरा नंबर है ,जगाने का काम मेरा सुलाने का तेरा " रंजी ने भी उसी अदा में जवाब दिया।
" चल छिनार , बड़ी चुदवासी बनती थी न , इत्ती आग लगी थी तेरी बुर में और दो बार की चुदाई में ही ची बोल गयी। कल से क्या होगा , इत्ती फटती थी तो पहले मना किया होता चूत मरानो। तेरे सारे खानदान की गांड मारूं , दर्जन से भर ऊपर की तो एडवांस बुकिंग भी रीत और चंदा भाभी ने करवा रखी। और ऊपर से सोनल का कोठा , जहाँ ६-७ तो हँसते हँसते तेरी उमर की लड़कियां उतार देती हैं। बनारस में मेरी रानी इत्ता रस घोंटना होगा की , और अभी से ,… "
गुड्डी चढ़ गयी।
" अरे यार तेरे बनारस वाले गए तेल लेने , उनको तो मैं गन्ने की तरह निचोड़ के रख दूंगी , लेकिन अपने यार का देखा है , हाथ भर का है। ऊपर से तूने भी पिछवाड़े वो एक फुटा ठेल दिया , जरा सांस लेने दे।
असल में यार मैं सोच रही थी जरा तू भी तो मजा ले , कल से एक बूँद मलाई तेरी लाल परी ने नहीं चखी है ,कितनी भूखी होगी तेरी बुलबुल , जरा एक बार इसका भी तो पेट भरने दो , वरना तू सोचेगी,… "
और ये कह के प्रेम से रंजी ने गुड्डी की प्रेम गली पे हाथ फेर दिया , एकदम चिकनी थी वो मक्खन मलाई।
गुड्डी थोड़ी ठंडी हुयी लेकिन बोलने का मौका वो क्यों छोड़ती , चालू रही।
"मेरी हरामन की जनी , अपने प्यारे प्यारे भैय्या के सालों की रखैल , मेरे सारे गाँव वाले तेरे ताल तलैया में डुबकी मारें , बात बनाने में तू एक नंबर की है।
लेकिन एक बात बता दूँ बनारस में तो तू इण्टर पास करेगी इंटरकोर्स का ,असली डिग्री तो गाँव में मिलेगी।
मई में जब तू मुझे लेने आएगी और उसके बाद जब भी अपने भैया की ससुराल आएगी। गन्ने के खेत की रगड़ाई का मजा तू बिचारी शहर वाली क्या जाने , जब तेरे बड़े बड़े चूतड़ खेत में मिटटी के ढेलों पे रगड़ खाएंगे न , खूब मोटे मोटे गन्ने खाने को मिलेंगे। गन्ने के खेत का मजा , अरहर का मजा , और सबसे बढ़कर अमराई का।
२५ मई को देखना दिन रात ,जब बरात में आएगी न , तो लड़के तो लड़के मरद भी गाँव के , अभी से अपना खूंटा खड़ा करके बैठे हैं। और शीला भाभी ने तो तेरा इतना गुन गाया है , न जाने कित्तों से तो वो अब तक बयाना भी लेचुकी होंगी। देखना हरदम सड़का बहता रहेगा , इस तेरी नीचे वाली नाली से। अपने शहर की टौंस नदी को भी मात कर देगी। "
रंजी सुनती रही, मुस्कराती रही , खिलखिलाती रही , और मौका पाते ही ,उसने एक जबरदस्त अंगड़ाई ली , अपने जोबन को और उभारा , मेरे सीने पे रगड़ा और ठंडी सांस ले के बोली ,
" कब आएगा , २५ मई। "
फिर उसने हमले का रुख गुड्डी की ओर मोड़ दिया , जोर से उसके उभार को पिंच करके बोली ,
" जरा सोच समझ के बोलो , २५ मई के साथ २७ मई भी याद रखो। आखिर लौट के तो यही आओगी न। हम लोग तो यार तीन दिन के लिए आयंगे बरात में , चल तेरे गाँव वाले भी क्या याद करेंगे , खुश कर देंगे हम उनका भी दिल। आखिर उन के गाँव के बेस्ट माल को उठा के लाने जाएंगे , उनकी प्यारी सोनचिरैया को , तो थोड़ा बहुत तो उनका हक़ बनता है।
लेकिन अपनी सोचो रोज रात ये लम्बी लम्बी टाँगे उठी रहेंगी , बिना नागा। और सुबह गचाक से ऊँगली ठेल के मैं चेक करुँगी न कित्ती मलाई खायी इस बिलैया ने।
और दिन में मूड करेगा मेरा तो फिर तुझे शेर के हवाले कर दूंगी। वरना भले तुम्हारे देवर नहीं है , लेकिन मेरी जैसे ननदे , देवर ननद दोनों का रिश्ता निभाएंगे। मेरे तो तीन दिन सड़का टपकेगा तेरे गाँव में और तेरे तो हर रोज ,बिना नागा। "
और ये कहते उसने वास्तव में गचाक से दो ऊँगली गुड्डी की बुलबुल के मुंह में ठेल दिया।
उन दोनों में मजाक ,छेड़छाड़ चल रही थी और मुझे भूख लग रही थी।
फागुन के दिन चार--183
रात बाहर धीमे धीमे झर रही थी।
शशांक अपनी यात्रा आधी से ज्यादा पूरी करके तेजी से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे।
रंजी की लगाई ४५ मिनट की रोक कब की खत्म होगयी थी।
नीली रोशनाई से पुते आसमान में कुछ शावक से बादल , चन्द्रमा से छिपा छिपौवल खेल रहे थे। जब वो मयंक को ढक लेते तो कमरे का नाइट बल्ब अपनी पूरी ताकत से थोड़ी बहुत रोशनी कर पाता था।
और उस भूरे धुंधलके में , रंजी और गुड्डी की देह , एक दूसरे में गुथी सिर्फ एक स्केच की तरह लग रही थीं , इंक एंड पेन के स्केच की तरह , ढेर सारे कर्व्स।
लेकिन जब शशि के मुखड़े से बादल के घूंघट हट जाता तो सफेद चमेली के चादर सी ज्योत्स्ना उनकी देह को और उजागर कर देती। सारी गोलाइयाँ , कटाव ,उभार ,
और उस उजास में हमारे घर से सटा आम का पेड़ , जिसकी मोटी मोटी टहनियां हमारे छत के ऊपर तक आती थीं , साफ दिख रहा था , एक बड़े काले सेल्हुयूट की तरह। पेड़ आम के बौरों से लदा था और तेज हवा जो खुली खिड़की से आरही थी , आम्र मंजरी की गंध उसे और मादक कर रही थी।
फागुन बीता ही था लेकिन चैत की रातें भी कम मस्ती और नशे से भरपूर नहीं होती।
गुड्डी और रंजी सोयी नहीं थी बस क्लांत लेटी थीं , अभी बरसे सुख की आखिरी बूँद का स्वाद चखती। रंजी ज्यादा थकी थी , आखिर सारी मेहनत उसने की थी।
वह दोनों सुख भोग चुकी थीं लेकिन मैं अभी भी काम ज्वर में डूबा , उद्वेलित ,मेरा लिंग पूरी तरह उत्थित ,…
जंगबहादुर भूखे थे बौराये ,
और तभी मैंने नोटिस किया रेंगती हुयी अंगुलियां
नीचे लेटी गुड्डी की उँगलियाँ , रंजी के गुदाज गदराये नितम्बों पर फिर रही थी , और वैसे भी जिस तरह दोनों लेती थी , चिपकी , सिर्फ रंजी की पिछवाड़े की दोनों उपत्यकाएँ साफ साफ दिख रही थीं , दो मांसल गुदाज पहाड़ियां , जिसके बीच के खैबर दर्रे में घुसने के लिए पूरा शहर बेचैन था।
और बिचारे जंगबहादुर जो दो बार उसकी यात्रा कर चुके थे , किसी भी हालत में वहां जाना चाहते थे।
गुड्डी की दोनों हाथों उँगलियों ने रंजी के मस्त चूतड़ों को फैलाया और अचानक मैंने देखा , गुड्डी ने मुझे जबरदस्त आँख मारी।
आमंत्रण साफ था ,' लोगे इस के पिछवाड़े का मजा ' .
फ्लाइंग किस से मैंने न्यौता स्वीकार किया।
रंजी की आँखे अभी भी मुंदी थीं।
एक बार फिर बादलों ने निशाकर की आँखे मूँद ली और मैं दबे पांव , पलंग पर जा पहुंचा।
गुड्डी ने अपने पैरों से जोर से सांकल की तरह रंजी की पतली कमर को जकड रखा था , अपने ऊपर , चाह कर भी हिलना उसके लिए मुश्किल था।
मैं कुछ देर तक खैबर के दर्रे को निहारता रहा और उसके बगल की पहाड़ियों को।
परफेक्ट बबल बॉटम ,
रंजी की लम्बी पतली टाँगे ऊपर जाकर शेपली बबल बॉटम्स में ढल जाती थीं , गुदाज और मांसल।
इस पिछवाड़े को सिर्पफ छूने , एक बार दबाने के लिए कितने दीवाने जान की बाजी लगाने को तैयार थे ,
रोज रंजी के शहर सैंकड़ों लड़के सिर्फ इन गदराये नितम्बो के बारे में सोच सोच कर मुट्ठ मारते थे ,
और कल से जब वह बनारस में अपने पिछवाड़े को मटका के चलेगी तो इस लिस्ट में कित्ते बनारसियों का भी नाम जुड़ जाएगा।
और कुछ दिन में जब लो बॉटम टाइट जींस में ये अपना पिछवाड़ा दिखाएगी तो फिर तो हजारों ,…
लेकिन ये नितम्ब आज मेरी मुट्ठी में थे।
मैंने एक हाथ से हलके से रंजी केनितम्बो को सहलाया ,… वो कुछ कुनमुनाई।
लेकिन जंगबहादुर पागल हो रहे थे। फोर प्ले का समय नहीं था ,
और सीधे मैंने सेंटर पे ध्यान लगाया।
कल रात में यहां सिर्पफ एक हलकी सी दरार थी , भूरी सी वो भी बहुत मुश्किल से देखने पर दिखती थी।
आज सुबह वहां एक बहुत ही छोटा सा छेद दिख रहा था , ऊँगली भी न जाए पाया ऐसा।
लेकिन गुड्डी के मोटे डिल्डो ने वहां जो तूफान मचाया , अब साफ साफ एक छोटा सा गोल गोल छेद नजर आ रहा था।
बस मैंने आव न देखा ताव और अपने दोनों हाथों के अंगूठे , वहां जोर लगाके फंसाया और उसे खींच के फैलाया।
सबसे पतली ऊँगली जाने भर का रास्ता बन गया। लेकिन जाना तो बियर कैन ऐसे मोटे मेरे औजार को जाना था।
लेकिन उसकी गांड के दरार को देख के बस जो होना था ,… हुआ।
मैंने लंड का सुपाड़ा सीधे गांड के छेद से सटाया।
मेरे दोनों अंगूठे जोर से रंजी के गांड के छेद को चियारे हुए थे।
और बाकी का काम गुड्डी के हाथ और पैर कर रहे थे , जोर से रंजी को जकड़ने का काम जिससे जब लंड का भरपूर धक्का ,गांड पे लगे तब वह भले चाहे जितना चिलमिलाये , एक सूत भी वो हिल डुल न पाये।
और यही हुआ , पहले धक्के के साथ ही रंजी की जोर की चीख निकल गयी। पूरी ताकत से उसने छुड़ाने की कोशिश की पर गुड्डी की पकड़ भी बहुत तगड़ी थी।
बिचारी रंजी टस से मस नही होने पायी।
और मैंने बजाय धक्का मारने के कसी संकरी गांड में घुसे लंड को , बस पूरी ताकत से ठेलना अंदर धकेलना शुरू कर दिया।
सुपाड़े के ऊपर रंजी की कसी कसी तंग गांड का अंदर का हिस्सा जब रगड़ खाता , सुपाड़े को अपने अंदर दबोचता तो इतना अच्छा लग रहा था की बता नहीं सकता।
रंजी दर्द और मजे की इस कॉकटेल को सिसकियों के साथ गटक रही थी। आधे से ज्यादा मेरा मोटा सुपाड़ा अब बिचारी की गांड घोंट चुकी थी।
लेकिन रंजी भी कम नहीं थी ,किसी मामले में।
मुड़ के उसने मुझे देखा , मुस्कराई हमारी आँखे चार हुईं , और अब जब मैंने फिर लंड अंदर ठेला तो अबकी बार मुझसे भी ज्यादा ताकत से रंजी ने अपने चूतड़ पीछे ठेले।
नतीजा ये हुआ की आधे से ज्यादा सुपाड़ा अंदर था और उसकी गांड ने बहुत प्यार से उसे दबोच रखा था।
दो बार गांड मुझसे गांड मराने और एक बार गुड्डी का सुपर डिल्डो गांड में घोंटने के बाद अब वो ये अच्छी तरह सीख गयी थी की कब उसे गांड ढीली करनी है , और अब उसने अपनी ओर से पूरी तरह गांड ढीली छोड़ दी थी।
लेकिन अब मामला खैबर के दर्रे का था , उसकी गांड के छल्ले का। रंजी ने अपनी ओर से स्फिंकटर मसल्स को एकदम ढीला छोड़ रखा था , पूरी ताकत से उसने चादर दबोच रखी थी।
गुड्डी भी उसे आश्वस्त करते , प्यार से हलके हलके उसकी पीठ सहला रही थी , लेकिन ये बात हम तीनो को मालूम थी की जब स्फिंक्टर मस्लस रगड़ खायेंगी तो उसे भीषण दर्द होगा , और अगर कही उसने सिकोड़ लिया डर के , तो शायद सुपाड़ा अंदर घुस भी न पाये।
और उस का बस एक ही तरीका था।
मैंने जोर से रंजी के चूतड़ों को पकड़ा , सुपाड़ा आलमोस्ट बाहर किया और फिर पूरी ताकत से धक्का मारा।
रंजी बहुत जोर से चीखी।
गुड्डी मुझे देख के मुस्कराई और खूब जोर से आँख मारा।
मेरा दूसरा धक्का पहले से भी तेज था ,फिर तीसरा ,चौथा।
और अब सुपाड़ा अच्छी तरह गांड पे पैबस्त हो गया था। स्फिंकटर मसल्स पार हो गयीं थी और अब वो सुपाड़े के बाद लिंग के शैफ्ट को दबोच रही थी।
अब मैंने तरीका बदल दिया और एक बार फिर धक्के छोड़के पूरी ताकत से सिर्फ ठेल रहा था , पेल रहा था ,अंदर घुसेड़ रहा था।
पांच दस मिनट की मेहनत से करीब आधा लंड अंदर था , और रंजी की गांड का दर्द भी कुछ हलका हो गया था।
गुड्डी ने मुझसे रुकने का इशारा किया और फिर वो सरक के रंजी के नीचे से निकल गयी , और उस कुर्सी पे जा केबैठ गयी जहाँ थोड़ी देर पहले मुझे दोनोने जबरन बैठा रखा था /
उसने एक चिल्ड बियर का कैन खोल रखा था। सिप करते हुए अपनी बनारसी स्टाइल में रंजी से बोली ,
" अरे छिनार , बहुत तेरी गांड में चींटे काट रहे थे न वो भी बड़े बड़े लाल वाले तो ऐसे क्यों पड़ी है। चल ,घोड़ी बन , चूतड़ उठा और मेरे सैयां के लौंडे का धक्का खा। सब तो तुझे रंडी कहते हैं और , चल दिखा अपनी रंडी की कला। बन घोड़ी और खुल के गांड मरा। यहाँ प्रैक्टिस अच्छी रहेगी न तो कल बनारस में बहुत आराम से खुल के मरवाएगी गांड। "
और रंजी घोड़ी बन गयी।
मेरी फेवरिट पोज , और ये बात गुड्डी और रंजी दोनों को मालूम थी , चाहे चूत के चिथड़े उड़ाने हों या गांड का भुरकुस बनाना हो , दोनों हालत में।
दोनों में ही पेन्ट्रेशन डीप होता है , लंड खूब रगड़ रगड़ के अंदर जाता है और सबसे ज्यादा मुझे जो फायदा मिलता है वो जोबन रस लेने का।रंजी की कच्ची अमियाँ मेरी मुट्ठी में थी , खूब कड़ी कड़ी रसदार।
और अब सब कुछ भूल कर मैं उन का स्वाद लेने लगा ,कभी दबाता ,कभी निचोड़ता , कभी निपल पिंच करता और रंजी की चीख निकल जाती।
लेकिन अब मेरे लंड का ख्याल रंजी की कसी गांड रख रही थी। कभी वह उसे जोर से निचोड़ती कभी छोड़ती तो कभी बस देर तक दबा के रखती , जैसे कोई कोमल कोमल मुट्ठी में लंड को लेकर सहला रहा हो , प्यार से दबा ,भींच रहा हो मुट्ठ मार रहा हो।
गुड्डी हम दोनों को देख के मुस्करा रही थी , रंजी को छेड़ रही थी और मुझे उकसा रही थी ,
" क्या बिचारी को आधे लंड से चोद रहे हो , इत्ते में क्या मजा आएगा इस छिनार को , ये तो सात जनम की लंड खोर है , अपनी गली के गदहों का घोंटने की इसको आदत है , ऊंट के मुंह में जीरा। चोद साल्ली को हचक हचक के पूरे लंड से। "
बस , दोनों चूंचियों को लगाम की तरह पकड़ मैंने घोडा सरपट दौड़ा दिया।
एक बार फिर रंजी की चीखें लाख रोकने पे भी निकलने लगीं , और गुड्डी चाहती भी यही थी।
" अब देख मरवा रही है न साल्ली छिनार , मजे ले ले के। अभी क्या चीख रही है कल देखना बनारस में , चुदेगी औरंगाबाद में और चीख सुनाई पड़ेगी दालमंडी तक , तभी तो दाम लगेगा इस का ठीक से और जोर से मारो ,फाड़ दो गांड कस के। "
गुड्डी की कहने की देर थी घोडा रेस के आखिरी राउंड की तरह दौड़ने लगा और अब मैं हर धक्के के साथ लंड ऑलमोस्ट सुपाड़े तक बाहर निकाल लेता। फिर दरेरता रगड़ता छीलता , मेरा मोटा मूसल अंदर तक घुसता।
" क्यों खाया पिया आ रहा है न बाहर , क्या गांड मारना , जब तक गांड की मक्खन मलाई बाहर न आये "
गुड्डी चुप रहने वाली नहीं थी।
और अबकी जब जंगबहादुर बाहर निकले तो गुड्डी की बात एकदम सही निकली। रंजी के रंग ,रस में डूबे लिपटे।
और ये देख के मेरा जोश दूना हो गया।
अबकी लंड अंदर सिर्फ आधा धकेल के मैं रुक गया और मथानी की तरह जोर जोर से मुट्ठी से पकड़ के घुमाने लगा , और उस मथने से कुछ कुछ गांड रस की बूंदे बहार छलक आयीं लेकिन सबसे बड़ा फायदा ये हुआ की बेस्ट लुब्रिकेंट अब मेरे लंड में लगा था और वो सटा सट ,सटा सट उसकी गांड में अंदर बाहर हो रहा था।
एक बार फिर स्पीड तूफानी हो गयी। लेकिन अबकी मेरी दो उँगलियाँ भी रंजी की चूत में घुस गयी थी मंथन करने और अंगूठा क्लिट की रगड़ाई करने में लगा था।
कुछ ही देर में रंजी के देह में काम तरंगे उठने लगीं , और जल्दी ही वो ज्वार में बदल गयीं।
बाहर अब बादल चाँद से दूर हो गए थें। चांदनी पर अब वो झिलमिलाती ओढनी नहीं थी और नतीजा ये था की दूधिया ज्योत्स्ना हम दोनों के बदन को नहला रही थी।
मैं जान रहा था की मेरे तिहरे हमले से , गांड में चूत में और दोनों चूंचियों पे रंजी अब झड़ने के बहुत दूर नहीं थी।
गुड्डी ने बैठे बैठे बियर का कैन खाली करते , थम्स अप का साइन दिया , यानी झाड़ दो इसको।
हालत मेरी भी ख़राब थी , गुड्डी रंजी की काम क्रीड़ा देख के। इत्ते देर से बिचारे जंगबहादुर खड़े थे , और मेरे लिए भी और रुकना आसान नहीं थी।
मैंने गियर चेंज किया और गाडी चौथे गियर में डाल दी। स्पीड फुल। न सिर्फ लंड की बल्कि रंजी की चूत में धंसी उँगलियों की भी।
जिस रफ्तार से मेरी उंगलिया रंजी की बुर चोद रही थीं , क्या कोई मर्द चोदेगा , और साथ में गांड में धंसा लंड भी उसी का मुकाबला कर रहा था। चूत में घुसी उँगलियों की संख्या अब तीन हो गयी थी और नकल मोड़ के मैं जी प्वाइंट को भी रगड़ रहा था। साथ में अंगूठा ,क्लिट को बिना रुके दबा मसल रहा था।
दूसरा हाथ सीधे उसके उभार पर था , जहाँ तरजनी और अंगूठा मिल के जोर जोर से उसे पिंच कर रहे थे।
रंजी भी धक्के का जवाब धक्के से दे रही थी , उसकी साँसे लम्बी हो रही थीं , आँखे मस्ती से बंद हो रही थी , बस अब गयी की तब।
और मैंने जोर से क्लिट पिंच कर लिया।
और रंजी का आर्गज्म ट्रिगर हो गया। वो तूफान में पत्ते की तरह काँप रही थीं।
बाहर भी आसमान में पुरवाई तेज हो गयी थी , बादलों का एक झुण्ड भटकता आसमान में आगया था और उसने शशिमुख पर जैसे रोशनाई पोत दी हो। बादलों से छन छन कर आने वाली चांदनी भी अब बहुत धूमिल हो गयी थी।
रंजी की प्रेम गली में तेजी से संकुचन हो रहा था और उसका असर पिछवाड़े धंसे मेरे चर्म दंड पर भी पड़ा। एक जोर का धक्का मैंने गांड में मारा , और साथ साथ मेरी देह भी कांपने लगी।
इतने देर की मस्ती , काम ज्वाला अब मलाई की धार बन के निकल रही थी। कुछ देर रुक के फिर दुबारा , तिबारा।
हम दोनों साथ साथ झड़ रहे थे।
कुछ देर तक हम दोनों ऐसे पड़े रहे , फिर रंजी जो अभी भी घोड़ी की पोज में थी , उसने क्लांतमुख से मेरी ओर देखा। उसकी पूरी देह थक कर चूर हो रही थी।
मैंने शिश्न निकालने की कोशिश की लेकिन तभी मेरी निगाह गुड्डी पे पड़ी जो बार बार अपनी कजरारी ,रतनारी आँखों से मुझे बरज रही थीं।
मेरे और गुड्डी के रिश्ते में बिन बोले भीं बहुत सी बातें कह सुन ली जाती हैं और मैं समझ गया उसका मतलब।
थकी रंजी अब उस हालत में तो नहीं सकती थी लेकिन साथ साथ मेरा घोडा रेस के बाद भी बहुत देर तक ,तना खड़ा रहता था।
मैं बैठ गया और साथ साथ रंजी को भी मैंने अपने गोद में बैठा लिया , उसी हालत में।
मेरा खूंटा अभी भी रंजी की गांड में धंसा था , पूरे ९ इंच ,जड़ तक।
मुस्कराते रंजी मेरी गोद में बैठ गयी , अपनी बाँहों में लपेटे अपने उरोज शरारत से मेरे सीने पे रगड़ती।
शरारत में तो रंजी का कोई सानी नहीं था। साथ साथ वो अपने नितम्ब भी मेरे लिंग के बेस पे रगड़ रही थी।
गुड्डी ने दो चिल्ड बियर हम दोनों को पकड़ा दी।
मेरे हाथ के कैन से रंजी पी रही थी और उसके हाथ के कैन से मैं।
बीच बीच में अपने मुंह की बियर भी वो सीधे मेरे मुंह में डाल देती। कभी छेड़ते हुए मेरे गाल पे एक हलकी सी बाइट ले लेती।
कैन खत्म होते होते दस पंदह मिनट बीत गए।
एक बार फिर सुधाकर ,बादलों की अंकवार से बाहर आगये और हमारी केलि क्रीड़ा के साक्षी बन गए थे।
गुड्डी ने हम दोनों के हाथ से कैन ले लिया और हलके से धक्के से रंजी को बिस्तर पर गिरा दिया।
गप्प से मेरा शेर गुफा से बाहर आगया , लेकिन अभी भी उसका जोश कम नहीं हुआ था।
" हे क्या हाल बना दी बिचारे की , देख कैसे रंग बदल गया। अब कौन इसे ठीक करेगा। " गुड्डी ने मेरे लिंग को देख के हँसते हुए कहा।
मेरा खूंटा रंजी के , बल्कि रंजी के पिछवाड़े के ,रंग में रंग गया था।
रंजी उठ के बैठ गयी और उसने प्यार से उसे पकड़ लिया , कुछ देर तक वो भी गुड्डी की खिलखिलाहट में शामिल रही , फिर मुस्कराके बोली
" अरे जिसने ये हालत की है वही करेगी , इस बिचारे की बेचारी। "
और गप्प से उसने गांड रस से लिपा पुता , मेरा लिंग अपने मुंह में ले लिया।
वो अब कुछ सोया जागा था , इसलिए एक बारगी ही रंजी के मुंह में समा गया।
और रंजी लॉलीपॉप की तरह उसे चुभलाने चूसने लगी।
और पांच सात मिनट बाद जब नाग उस संपेरन के पिटारे से निकला तो फिर अपने उसी रंग रूप में। रंजी ने चाट चूट के सब साफ कर दिया था और शरारत से मुझे, गुड्डी को देख के मुस्करा रही थी , जीभ अपने रसीले गुलाबी होंठों पे फिरा रही थी।
लेकिन एक बात थी , अब नाग फिर से फुंफकारने लगा था।
" अच्छा खासा सोने वाला था ये तुमने फिर जगा दिया , अब कौन लेगा इसे अंदर। तुमने जगाया तुम्ही लो " गुड्डी ने रंजी को चिढ़ाया।
" न न , मेरे आगे पीछे दोनों छेद इसकी मलाई से भर गए हैं। अबकी तेरा नंबर है ,जगाने का काम मेरा सुलाने का तेरा " रंजी ने भी उसी अदा में जवाब दिया।
" चल छिनार , बड़ी चुदवासी बनती थी न , इत्ती आग लगी थी तेरी बुर में और दो बार की चुदाई में ही ची बोल गयी। कल से क्या होगा , इत्ती फटती थी तो पहले मना किया होता चूत मरानो। तेरे सारे खानदान की गांड मारूं , दर्जन से भर ऊपर की तो एडवांस बुकिंग भी रीत और चंदा भाभी ने करवा रखी। और ऊपर से सोनल का कोठा , जहाँ ६-७ तो हँसते हँसते तेरी उमर की लड़कियां उतार देती हैं। बनारस में मेरी रानी इत्ता रस घोंटना होगा की , और अभी से ,… "
गुड्डी चढ़ गयी।
" अरे यार तेरे बनारस वाले गए तेल लेने , उनको तो मैं गन्ने की तरह निचोड़ के रख दूंगी , लेकिन अपने यार का देखा है , हाथ भर का है। ऊपर से तूने भी पिछवाड़े वो एक फुटा ठेल दिया , जरा सांस लेने दे।
असल में यार मैं सोच रही थी जरा तू भी तो मजा ले , कल से एक बूँद मलाई तेरी लाल परी ने नहीं चखी है ,कितनी भूखी होगी तेरी बुलबुल , जरा एक बार इसका भी तो पेट भरने दो , वरना तू सोचेगी,… "
और ये कह के प्रेम से रंजी ने गुड्डी की प्रेम गली पे हाथ फेर दिया , एकदम चिकनी थी वो मक्खन मलाई।
गुड्डी थोड़ी ठंडी हुयी लेकिन बोलने का मौका वो क्यों छोड़ती , चालू रही।
"मेरी हरामन की जनी , अपने प्यारे प्यारे भैय्या के सालों की रखैल , मेरे सारे गाँव वाले तेरे ताल तलैया में डुबकी मारें , बात बनाने में तू एक नंबर की है।
लेकिन एक बात बता दूँ बनारस में तो तू इण्टर पास करेगी इंटरकोर्स का ,असली डिग्री तो गाँव में मिलेगी।
मई में जब तू मुझे लेने आएगी और उसके बाद जब भी अपने भैया की ससुराल आएगी। गन्ने के खेत की रगड़ाई का मजा तू बिचारी शहर वाली क्या जाने , जब तेरे बड़े बड़े चूतड़ खेत में मिटटी के ढेलों पे रगड़ खाएंगे न , खूब मोटे मोटे गन्ने खाने को मिलेंगे। गन्ने के खेत का मजा , अरहर का मजा , और सबसे बढ़कर अमराई का।
२५ मई को देखना दिन रात ,जब बरात में आएगी न , तो लड़के तो लड़के मरद भी गाँव के , अभी से अपना खूंटा खड़ा करके बैठे हैं। और शीला भाभी ने तो तेरा इतना गुन गाया है , न जाने कित्तों से तो वो अब तक बयाना भी लेचुकी होंगी। देखना हरदम सड़का बहता रहेगा , इस तेरी नीचे वाली नाली से। अपने शहर की टौंस नदी को भी मात कर देगी। "
रंजी सुनती रही, मुस्कराती रही , खिलखिलाती रही , और मौका पाते ही ,उसने एक जबरदस्त अंगड़ाई ली , अपने जोबन को और उभारा , मेरे सीने पे रगड़ा और ठंडी सांस ले के बोली ,
" कब आएगा , २५ मई। "
फिर उसने हमले का रुख गुड्डी की ओर मोड़ दिया , जोर से उसके उभार को पिंच करके बोली ,
" जरा सोच समझ के बोलो , २५ मई के साथ २७ मई भी याद रखो। आखिर लौट के तो यही आओगी न। हम लोग तो यार तीन दिन के लिए आयंगे बरात में , चल तेरे गाँव वाले भी क्या याद करेंगे , खुश कर देंगे हम उनका भी दिल। आखिर उन के गाँव के बेस्ट माल को उठा के लाने जाएंगे , उनकी प्यारी सोनचिरैया को , तो थोड़ा बहुत तो उनका हक़ बनता है।
लेकिन अपनी सोचो रोज रात ये लम्बी लम्बी टाँगे उठी रहेंगी , बिना नागा। और सुबह गचाक से ऊँगली ठेल के मैं चेक करुँगी न कित्ती मलाई खायी इस बिलैया ने।
और दिन में मूड करेगा मेरा तो फिर तुझे शेर के हवाले कर दूंगी। वरना भले तुम्हारे देवर नहीं है , लेकिन मेरी जैसे ननदे , देवर ननद दोनों का रिश्ता निभाएंगे। मेरे तो तीन दिन सड़का टपकेगा तेरे गाँव में और तेरे तो हर रोज ,बिना नागा। "
और ये कहते उसने वास्तव में गचाक से दो ऊँगली गुड्डी की बुलबुल के मुंह में ठेल दिया।
उन दोनों में मजाक ,छेड़छाड़ चल रही थी और मुझे भूख लग रही थी।
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