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Wednesday, January 2, 2013
सबसे कीमती सुख
सबसे कीमती सुख
मेरा नाम प्रतिमा पंडित है। मैं एक शादीशुदा औरत हूँ। मेरी शादी से पहले हमारे परिवार में मेरे मम्मी-पापा और सिर्फ मैं ही थी। पापा का सूरत, बड़ोदा और वलसाड में ट्रांसपोर्ट का काम है। मम्मी कुशल गृहणी हैं और चुदाई की बड़ी शौक़ीन हैं। आप तो जानते हैं पंडित की लड़कियां और औरतें चुदाई की बड़ी शौक़ीन होती हैं। पापा अक्सर ट्यूर पर रहते थे और जिस दिन वो आते थे रात को मम्मी और पापा देर रात गए तक चुदाई में लगे रहते थे। मैं छुप छुप कर मम्मी पापा की यह रास-लीला खूब मज़े लेकर देखा करती थी। इकलौती संतान होने के कारण मेरी परवरिश अच्छी तरह से हुई थी इसलिए मैं समय से पहले ही जवान हो गई थी।
भगवान् ने जैसे मुझे अपने हाथों से खुद फुर्सत में तराशा था और गूंथ-गूंथ कर मेरे अन्दर जवानी भर दी थी। मेरे कजरारे नैनों और घनी पलकों की छाँव में बैठ कर तो कोई मुसाफिर अपनी मंजिल ही भूल जाए। मेरे उरोज तो जैसे चोली में समाना ही नहीं चाहते थे। यौवन भरे, मांसल, छरहरे और गदराये हुए मादक स्तन और उनके अहंकारी चुचूक तो हर किसी को चूस लेने को आमंत्रित ही करते रहते थे जैसे !
जब भी मैं अपने उभरते यौवन को आईने में देखती तो खुद ही शरमा जाती थी। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरी जांघें इनी चिकनी और मोटी हो गई थी और मेरे कूल्हों और छातियों पर चर्बी चढ़ गई थी। मैं कई बार बात कमरे में कपड़े उतार कर अपने नितम्बों को और छाती पर उगे उन दो अनमोल फलों को अचरज से देखा करती थी। कभी उन्हें दबा कर और कभी कभी मसलकर ! ऐसा करने से मुझे अज़ीब और असीमित आनंद की अनुभूति होती थी। मोहल्ले और कोलेज के लड़के तो मेरी छाती पर झूलते दो अनारों को देख कर आहें भरने पर मजबूर हो जाते थे। मेरे भारी भारी स्तन शमीज में से चमकते हुये सभी का मन को मोह लेते थे।
मेरे होंठों में जैसे शहद, आँखों में शराब और सारे जिस्म में खून की जगह फूलों का रस भरा था। अगर किसी की राहों में आ जाऊं तो इंसान क्या फरिश्तों का ईमान एक बार डगमगा जाए।
मैं जानती थी यह गदराया जिस्म, यह जवानी और यह नाज़ुक अंग सदा ऐसे नहीं रहेंगे। आपको बता दूं मैंने कम उम्र से ही हस्तमैथुन करना शुरू कर दिया था। कभी कभी तो मैं अपनी कच्छी उतार कर पहले तो अपनी छमक छल्लो पर हाथ फिराती और कभी उसकी छोटी छोटी गुलाबी कलिकाओं को होले से चौड़ा कर के अन्दर देखती थी। काम रस में भीगी गुलाबी रंगत लिए मेरी छोटी सी छमक छल्लो कितनी प्यारी लगती थी उस समय। मेरा जी चाहता था कोई इसे मुँह में भर कर चूम ले और फिर जोर जोर से चूसता ही चला जाए।
मेरे गोरे चिट्टे बदन पर बालों का तो नाम-ओ-निशान ही नहीं था। बस उस अनमोल खजाने पर छोटे छोटे घुंघराले से रेशमी बाल थे। जाँघों के बीच छिपे उस खजाने के अन्दर की तितली के दो छोटे छोटे पंखों की तरह फड़फड़ाती दो गुलाबी पट्टियां हमेशा काम रस से सराबोर रहने लगी थी। और वो किशमिश का दाना तो कभी कभी सूज कर अकड़ सा जाया करता था।
मैं थोड़ी शर्मीली जरुर थी, पर मैं चाहती थी कोई मुझे बाहों में भर कर भींच दे और मेरे होंठों का चुम्बन ले ले। हर लड़की और औरत को मोटे और लम्बे लंड से चुदाई की चाहत होती है।
एक बात बताऊँ ? मैं दस-एक साल की थी तब क्लास की बाकी लड़कियाँ तो सूखी सी ही थी पर मेरे नीबू निकल आये थे और नितम्ब भरे भरे से हो गए थे। और वो हरामी मास्टर मणि भाई देसाई तो बस मेरी कोई गलती ढूंढता ही रहता था और फिर मेरे नितम्बों पर इतनी जोर से चिकोटी काटा करता था कि मैं शर्म के मारे वाटर वाटर ही हो जाया करती थी।
मैंने जवानी में नया-नया पैर रखा था, मेरा दाना कूदने लगा था। अपने से बड़ी लड़कियों से मेरी दोस्ती थी। मैंने उनके साथ मिलकर कई बार कामुक फ़िल्में भी देखी थी। लगभग सभी लड़कियों का किसी न किसी लड़के के साथ चक्कर जरूर था। कईयों ने तो दो दो तीन तीन आशिक बना रखे थे। कुछ ने तो अपने चहेरे फुफेरे ममेरे भाइयों के साथ ही सम्बन्ध बना लिए थे। बस मैं ही मन मसोस कर रह जाती थी। मैं भी सेक्स करना चाहती थी पर ना तो कोई उपयुक्त साथी मिला और ना ही अवसर। दरअसल इसका एक कारण था। मेरे पापा बड़े दबंग किस्म के आदमी थे और मोहल्ले वाले सभी उनसे डरते थे। किसी की क्या मजाल कि मुझे आँख उठा कर देखे या हाथ लगाए। एक बार जब मैं तेरह साल की थी तो एक लड़के ने मेरे चीकुओं को भींच दिया था तो पापा ने उस लड़के की इतनी धुनाई की थी कि उन्हें हमारा मोहल्ला ही छोड़ कर जाना पड़ा था।
चूत में अंगुली करते करते और मोटे लंड की कामना में मैं कब 18 की हो गई पता ही नहीं चला। कहते हैं पहला प्यार और पहली चुदाई इंसान कभी नहीं भूलता। मैं भला उस चुदाई को कैसे भूल सकती हूँ जिसके बाद मेरी कमसिन छमक छल्लो पूरी तरह खिल कर जैसे कमल का फूल ही बन गई थी।
मैंने पहली बार लंड का स्वाद 19 वें साल में चखा था। आप सभी अपने हथियार पकड़ कर रखना क्यूंकि यह कथा पढ़कर आप सब लोगों के खड़े लंड से पानी जरुर निकल जाएगा। और हाँ मेरी सहेलियों आप अपनी कच्छी नीचे करके अपनी छमक छल्लो में अंगुली या बैंगन जरूर करती रहना इससे कहानी पढ़ने का मज़ा दुगना हो जाएगा।
बात इस तरह हुई कि मैं फ़िरोज़पुर अपने मामा के घर गई थी। मामा रेलवे में अधिकारी हैं सो अकसर बाहर रहते हैं। मामा के परिवार में मामा मामी के अलावा सिर्फ उनका एक बेटा सुभाष ही था। सुभाष की उम्र उस समय 20 के आस पास रही होगी। मैंने बहुत दिनों के बाद उसे देखा था। मैं तो उसे देखती ही रह गई। वो तो पूरा सजीला जवान बन गया था। उसका बदन बहुत गठीला हो गया था और इतना खूबसूरत लग रहा था कि कोई भी लड़की उस कामदेव पर मर ही मिटे। हालांकि वो मेरा ममेरा भाई था पर भाई बहन का रिश्ता अपनी जगह है और जवानी का रिश्ता अपनी जगह है ... जब लण्ड और चूत एक ही कमरे में मौजूद हैं तो संगम होगा कि नहीं ? तुम्हीं सोचो ? मेरा मन उस से चुदवा लेने को करने लगा।
वह भी मेरी फिगर और कमर की लचक के साथ नितम्बों की थिरकन पर मर ही मिटा था। कहते हैं यौनाकर्षण दुनिया की सबसे ताक़तवर शक्ति होती है। इसे हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है। तन के मिलन की चाह बडी नैसर्गिक है। सुन्दर स्त्री की देह से बढ़कर भ्रमित करने वाला कोई और पदार्थ इस संसार में नहीं है।
और वो भी तो बस मेरे पास बने रहने का कोई ना कोई बहाना ही ढूंढता रहता था। जिस अंदाज़ में वो मेरे वक्ष और नितम्बों को घूरता था, मुझे पक्का यकीन हो गया था कि उसके मन भी वही सब चल रहा है जो मेरे मन में है। जब हम अकेले होते तो मैं कई बार उसके सामने थोड़ा झुक जाया करती थी और फिर उसकी आँखें तो मेरे गोल गोल नागपुरी संतरों जैसे उरोजों और उनकी गहरी घाटी पर से हटने का नाम ही नहीं लेती थी। (मैंने उन दिनों जान बूझकर ब्रा और पेंटी पहनना छोड़ दिया था बस कुरते के नीचे समीज पहना करती थी ) कभी कभी मैं टॉप और कैप्री पहन लेती थी तो उसमें से झांकती मेरी पुष्ट जांघें और उस अनमोल खजाने को देखकर तो वो बावला ही हो जाया करता था। मेरी कामुक कमर की लचक और मेरा पिछवाड़ा देखकर तो उसके सीने में हाहाकार ही मच जाती होगी।
वैसे तो उनका घर ज्यादा बड़ा नहीं था, दो कमरे और हाल था। मामा मामी एक कमरे में सोते थे और मैं सुभाष वाले कमरे में। सुभाष हाल में पड़े दीवान पर सो जाया करता था। उस रात मामा चार-पांच दिन बाद आये थे और वो दोनों जल्दी ही अपने कमरे में सोने चले गए। अब आपको यह बताने की जरुरत नहीं है कि वो कमरे में क्या कर रहे होंगे।
मैं और सुभाष दोनों टीवी देख रहे थे। रात के लगभग 11.30 बज गए थे। सुभाष ने चाय पीने का पूछा तो मैंने कह दिया मुझे कोई चाय साय नहीं पीनी !
"ओह...यह सुभाष भी एक नंबर का लोल ही है....सामने पूरी दूध की डेयरी है और यह चाय के चक्कर में पड़ा है?"
मेरे मन में तो आया कह दूं- "छोड़ो चाय-साय ! कभी दूध-सूध भी पी लिया करो।"
टीवी पर कोई सेक्सी फिल्म चल रही थी। मेरी छमक छल्लो चुलबुलाने लगी थी और मैं उसे ऊपर से ही सहला और दबा रही थी। यही हाल सुभाष का था। उसका पजामा तो टेंट ही बना था। वो भी अपने पप्पू को दबा और मसल रहा था। मेरा अनुमान था कि उसका मस्त कलंदर कम से कम 7-8 इंच का तो जरूर होगा।
थोड़ी देर बाद मैंने उठते हुए एक मादक सी अंगडाई ली और सुभाष से कहा- "मैं सोने जा रही हूँ !"
तो वो बोला,"प्लीज, थोड़ी देर रुको ना कितनी मस्त फिल्म चल रही है !"
"अरे क्या खाख मस्त है ? देखो ना पिछले आधे घंटे में बस दो बार किस किया है… हुंह… बकवास फिल्म है.. मुझे नहीं देखनी मैं सोने जा रही हूँ !" मैंने बुरा सा मुँह बनाया और कमर पर हाथ रख कर वहीं खड़ी रही, गई नहीं।
"ओह.. तो क्या तुम्हें किस पसंद नहीं है ?"
"नहीं… ऐसी बात नहीं है पर … पर…"
"पर क्या ?"
"ओह.. छोड़ो ..!"
"प्रतिमा … प्लीज बताओ ना ?"
सुभाष ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे नीचे बैठाने लगा। मैं तो कब की ऐसे अवसर की तलाश में थी। मैंने इस तरह अपना हाथ छुडाने की कोशिश की कि मैं उसकी गोद में गिर पड़ी। उसका मस्त कलंदर तो मेरे मोटे मोटे नितम्बों के बीच ठीक फूल कुमारी के छेद से लग गया। मेरी छमक छल्लो के अन्दर सरसराहट सी होने लगी। मेरा सारा शरीर झनझना उठा, पहली बार दिल में एक इच्छा जागी कि उसके लंड के ऊपर ही सारी उम्र बैठी रहूँ कभी ना उठूँ। मेरा दिल तो जैसे गार्डन-गार्डन ही हो गया था।
मैं भोली बनती हुई जोर से चिल्लाई "ऊईइ… मम्मी…"
"क्या हुआ ?"
"ओह ! कुछ चुभ रहा है !"
"कहाँ ?"
"ओह्ह… नीचे ! पता नहीं इतना नुकीला और मोटा सा क्या है ?"
"अरे.. वो… ओह… कुछ नहीं…है… प्लीज बैठो ना थोड़ी देर !"
उसकी आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थे। उसकी साँसें तेज हो रही थी और नीचे उसका 7 इंच का लंड उछल कूद मचा रहा था।
मैं सब जानती थी पर भोली बनते हुए मैंने कहा,"सुभाष अगर मुझे गोद में बैठाना है तो पहले इस चुभती हुई चीज को हटा दो प्लीज !"
"ओह… प्रतिमा … प्लीज तुम खुद ही हटा दो ना !"
मैं झट से खड़ी हो गई और उसके इलास्टिक वाले पजामा खींच कर नीचे कर दिया। उसने चड्डी तो पहनी ही नहीं थी। मेरी आँखों के सामने 7 इंच का काला लंड फुंक्कारें मार रहा था।
"हाई राम… इतना बड़ा…..?" सहसा मेरे मुँह से निकल गया।
उसका 7 इंच का लंड किसी मस्त सांड की तरह झूम रहा था मेरी तो आँखें ही फटी रह गई। वो तो ऐसे झटके मार रहा था जैसे ऊपर छत को फाड़ कर निकल जाएगा। मैंने सकुचाते हुए उसे अपने हाथ में पकड़ लिया। मैं तो उसे छू कर जैसे मदहोश ही हो गई थी। सुभाष के मुँह से एक मीठी सीत्कार निकल गई और उसके लंड ने जोर से एक ठुमका लगाया। उसके टोपे पर प्रीकम की बूँदें ऐसे चमक रही थी जैसे कोई छोटा सा सफ़ेद मोती हो। वो तो इतना प्यारा लग रहा था कि मेरा मन उसे मुँह में लेने को करने लगा।
"ओह… प्रतिमा कमरे में चलें क्या ?"
"ओह.. हाँ" मैं अपने ख्यालों से जागी।
सुभाष ने टीवी और लाईट बंद कर दी और अपनी बाहें मेरी और फैला दी। मैं दौड़ कर उसके गले से लिपट गई और उछल कर उसकी गोद में चढ़ गई। मैंने अपनी दोनों टांगें उसकी कमर के चारों और लपेट ली। उसका तना हुआ लंड मेरी नितम्बों के बीच की दरार में लगा था। इस ख्याल से ही मेरी छमक छल्लो ने पानी छोड़ दिया। सुभाष ने अपनी मुंडी थोड़ी सी नीचे झुका दी तो मैंने अपने होंठ उसके होंठों से लगा दिए।
आह… जैसे ही उसने मेरे गुलाबी होंठों को चूसना चालू किया। उसके लंड ने नीचे घमासान ही मचा दिया और मेरी छमक छल्लो ने भी दनादन आंसू बहाने चालू कर दिए।
वो मुझे गोद में उठाये ही कमरे में आ गया। अन्दर जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। वो मुझे गोद में उठाये ही कमरे में आ गया।
अन्दर जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। उसने मुझे बेड पर लेटा दिया पर मैंने अपने पैरों की जकड़न ढीली नहीं होने दी तो वो मेरे ऊपर ही गिर पड़ा। इस समय उसका भार तो मुझे फूलों की तरह लग रहा था। मेरे दोनों उरोज उसकी चौड़ी छाती के नीचे पिस रहे थे। उसने मेरे अधरों को चूसना चालू रखा। रोमांच के कारण मेरी आँखें बंद हो गई थी और मैं मीठी सीत्कारें भरने लगी थी। पता नहीं कितनी देर हम ऐसे ही आपस में गुंथे पड़े रहे।
थोड़ी देर बाद सुभाष बोला,"प्रतिमा तुमने तो मेरे राजा को देख लिया ! अब मुझे भी तो अपनी रानी के दर्शन करवाओ ना ?"
"मैंने तो खुद देखा था, तुमने थोड़े ही दिखाया था ?"
"क्या मतलब ?"
"ओह… तुम भी लोल (मिटटी के माधो) ही हो ? तुम भी अपने आप देख लो ना ?" मैंने तुनकते हुए कहा।
पहले तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया। वो तो सोच रहा था मैं मना कर दूँगी। फिर वो झटके के साथ खड़ा हुआ और उसने मेरा कुर्ता उतार दिया। मेरी गदराये हुए अमृत कलश तो जैसे उस कुरते में घुटन ही महसूस कर रहे थे। अब तो वो किसी आजाद परिंदों की तरह फड़फड़ाने लगे थे। उनके चूचक तो नुकीले होकर सीधे तन गए थे।
फिर उसने मेरी सलवार का नाड़ा भी खींच दिया। मैंने अन्दर पेंटी तो पहनी ही नहीं थी। मैं बिस्तर पर चित्त लेट गई थी। हलकी रोशनी में भी मेरा दमकता और गदराया हुस्न देख कर वो तो भौंचका ही रह गया। मेरे गोल गोल उरोज, पतली कमर और छोटे छोटे रेशमी और घुंघराले बालों से ढकी छमक छल्लो के बीच कि गुलाबी और रस भरी गुफा को देख कर वो तो ठगा सा ही रह गया था। उसके मुँह से कोई बोल ही नहीं निकल पा रहा था।
कुछ देर बाद उसके मुँह से तो बस इतना ही निकला,"वाह कितनी प्यारी चूत है तुम्हारी … लाजवाब ….."
मैंने झट से अपना एक हाथ अपनी छमक छल्लो पर रख लिया। और फिर उसने भी अपना कुर्ता और पाजामा निकाल फेंका और मेरी जाँघों के बीच बैठ गया। उसने अपने हाथ मेरी जाँघों पर फिराने शुरू कर दिए। उसने होले से मेरे हाथ रानी के ऊपर से हटा दिया और अपना हाथ फिराने लगा। उसकी अँगुलियों का स्पर्श पाते ही मुझे अन्दर तक गुदगुदी और आनंद का अहसास होने लगा। जैसे ही उसने अपनी अंगुली मेरे चीरे पर फिराई मेरी मदनमणि तो मछली की तरह तड़फ उठी। उसने अपना मुँह नीचे करके मेरी छमक छल्लो के होंठों को चूम लिया। उसकी गर्म साँसें जैसे ही मुझे अपनी छमक छल्लो पर महसूस हुई उसने एक बार फिर से काम-रज छोड़ दिया।
फिर वो मेरी बगल में आकर लेट गया। और मैं भी अब करवट के बल उससे चिपक गई। उसका मोटा लण्ड मेरी जांघों से टकरा रहा था। उसने अपना एक हाथ मेरे सिर के नीचे लगा कर मुझे जोर से अपनी और भींच लिया। अब उसका दूसरा हाथ मेरे नितम्बों की गहरी खाई में फिरना चालू हो गया। मैंने अपना एक पैर उठा कर उसकी कमर पर रख दिया तो नितम्बों की खाई और भी चौड़ी हो गई। अब आसानी से उसकी अंगुलियाँ मेरी छमक छल्लो और फूल कुमारी का मुआयना करने लगी। अँगुलियों के स्पर्श मात्र से ही मुझे चूत के अन्दर तक गुदगुदी और आनद का अहसास होने लगा। मैं बहदवास सी होती जा रही थी। जैसे ही उसने छमक छल्लो की कलिकाओं को मसलना चालू किया, मेरा अब तक रुका हुआ झरना फूट पड़ा। उसका पानी निकाल कर मेरी फूल कुमारी (गांड) को भिगोने लगा।
जैसे ही उसकी अंगुलियाँ मेरी फूल कुमारी के छेद से टकराती तो उसके स्पर्श मात्र से ही मेरे सारे शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती। मेरी लिसलिसी चिकनी चूत की फांकों के बीच थिरकती हुई उसकी अंगुली जैसे ही मेरे दाने को छूती मेरा बदन झनझना उठता। जैसे ही उसकी अंगुली मेरी गुलाबी चीरे पर घुमती तो मैं बस यही सोचती कि अब इस कुंवारे छेद का कल्याण होने ही वाला है।
फिर उसने अपनी अँगुलियों से मेरी छमक छल्लो की फांकें खोलने की कोशिश की तो मैंने उसे ढीला छोड़ दिया। जैसे ही उसकी अंगुली मेरे दाने (भगान्कुर) से टकराई मेरी कामुक सीत्कार निकल गई। उसने अपने अंगूठे और तर्जनी अंगुली से मेरे दाने को पकड़ कर दबाना चालू कर दिया। मेरा सारा शरीर अनोखे रोमांच से झनझना उठा। मैंने भी उसके होंठों को अपने मुँह में भर लिया और जोर से दांतों से दबा दिया। जैसे ही उसका तन्नाया लंड मेरी चिकनी जाँघों से टकराया मेरा सारा शरीर कसमसा उठा। मैंने अपना पैर उसकी कमर से हटा कर अपना हाथ थोड़ा सा नीचे किया और उसके बेकाबू होते मस्त कलंदर को पकड़ लिया। उसकी साँसें तेज होने लगी थी और लंड झटके पर झटके खाने लगा था।
"प्रतिमा यार अब नहीं रुका जा रहा है !"
"ओह…सुभाष…अब बस कुछ मत पूछो ! जो करना है कर डालो…आह…..जल्दी करो नहीं तो मैं मर जाउंगी…आह……"
मेरी रस भरी मीठी हामी सुनते ही वो मेरे ऊपर आ गया और अपने लंड को मेरी छमक छल्लो की गुलाबी फांकों के बीच रख दिया। धीरे धीरे उसने अपना लंड मेरी फांकों की दरार में रगड़ना चालू कर दिया। मैंने दम साध रखा था। उसने मेरे दाने को भी अपने लंड से रगड़ा और वहीं जोर लगाने लगा। बुद्धू कहीं का !
उसे शायद छमिया का छेद मिल ही नहीं रहा था। मेरी छमिया तो वैसे भी बिल्कुल कुंवारी थी और छेद तो बहुत कसा हुआ और छोटा था इतना मोटा लंड उस छेद में बिना किसी सहारे के अन्दर जाता भी कैसे। उसने दो तीन धक्के ऐसे ही लगा दिए। लंड ऊपर नीचे फिसलता रहा जैसे कुछ खोज रहा हो। मुझे उसकी इस हालत पर हंसी भी आ रही थी और तरस भी आ रहा था। मुझे डर था कहीं वो कुछ किये बिना ही शहीद ना हो जाए। मैंने सुना था कि कई बार बहुत उत्तेजना और पहली बार अन्दर डालने के प्रयाश में ही आदमी का कबाड़ा हो जाता है। मैं कतई ऐसा नहीं चाहती थी।
मैंने उसका लंड अपने हाथ में पकड़ा और थोड़ा नीचे करके ठीक गंतव्य (निशाने) पर लगाया। अब मैंने दूसरे हाथ से उसकी कमर को नीचे करने का इशारा किया। अब वो इतना फुद्दू (अनाड़ी) भी नहीं था कि मेरे इशारे को न समझता। मेरी गीली छमिया पर घिसने और प्री-कम के कारण उसका सुपारा भी गीला हो चुका था। उस अनाड़ी ने मेरी कमर पकड़ कर एक जोर का धक्का लगा दिया। धक्का इतना जबरदस्त था कि उसका 7 इंच का लंड मेरी कौमार्य झिल्ली को फाड़ता हुआ अन्दर बच्चेदानी से जा लगा। मुझे लगा जैसे किसी नाग ने मुझे डंक मार दिया है। मैंने अपने आप को रोकने की बहुत कोशिश की पर मेरी घुटी घुटी सी चीख निकल गई। यह तो सुभाष ने अन्दर आते समय दरवाजा बंद कर लिया था नहीं तो मामा मामी को जरुर सुनाई दे जाता।
मुझे लगा जैसे लोहे की कोई गर्म सलाख मेरी मुनिया में घुसा दी है। मैंने बहुत सी कहानियों और फिल्मों में कमसिन लड़कियों को बड़े मज़े से मोटे मोटे लंड अपनी चूत और गांड में लेते पढ़ा और देखा था पर मेरी हालत तो इस समय बहुत खराब थी। मेरी आँखों से आंसू निकालने लगे थे और मुझे लग जैसे मेरी प्यारी मुनिया को किसी ने चाकू से चीर दिया है। कुछ गर्म गर्म सा भी मुझे अन्दर महसूस हुआ यह तो जब मैंने सुबह चादर देखी तब पता चला कि मेरी कुंवारी छमक छल्लो की झिल्ली फटने से निकला खून था। अब वो कुंवारी नहीं रही सुहागन बन बैठी थी।
खैर जो होना था, हो चुका था। सुभाष बिल्कुल चुपचाप अपना लंड अन्दर डाले मेरे ऊपर अपनी कोहनियों के बल लेटा था। उसे डर था कहीं मैं दर्द के मारे बेहोश ना हो जाऊं। मैं जानती थी कि यह दर्द तो बस थोड़ी ही देर का है, बाद में मुझे भी मज़े आने लगेंगे। सुभाष ने मेरे आंसुओं को अपनी जीभ से चाट लिया और मेरे गालों और होंठों को चूमने लग। उसका एक हाथ मेरे सर के नीचे था वो दूसरे हाथ से मेरा माथा और सर सहलाने लगा। उसका प्यार भरा स्पर्श मुझे अन्दर तक प्रेम में भिगो गया। उसकी आँखों में झलकते संतोष को देख कर मेरा दर्द जैसे हवा ही हो गया। वो बेचारा तो कुछ बोलने की स्थिति में ही नहीं था।
थोड़ी देर बाद मैं भी कुछ सामान्य हो चली थी। मेरा दर्द अब कम हो गया था और मेरे कानों में अब जैसे मीठी सीटियाँ बजने लगी थी। मैं सब कुछ भुला कर दूसरे लोक में ही पहुँच गई थी।
उसने डरते डरते पूछा,"प्रतिमा ज्यादा दर्द तो नहीं हो रहा ?"
"अब जो होना था हो गया। तुम चिंता मत करो मैं सब सहन कर लूँगी !"
"ओह मेरी प्यारी प्रतिमा ! मेरी मैना … तुम कितनी अच्छी हो " और उसने मेरे होंठों को एक बार फिर से चूम लिया। मैं भला पीछे क्यों रहती, मैंने भी उसके होंठों को इतना जोर से काटा कि उसके होंठों से खून ही झलकने लगा। पर अब इस मीठे दर्द की उसे कहाँ परवाह थी। हाँ दोनों अपने प्रेम युद्ध में जुट गए। अब उसे भी जोश आ गया और वो उछल उछल कर धक्के लगाने लगा। वो कभी मेरे होंठों को चूमता, कभी मेरे उरोजों को चूसता। कभी उनकी छोटी छोटी घुंडियों को दांतों से दबा देता। मेरी छमिया अब रवां हो गई थी और लंड आराम से अन्दर बाहर होने लगा था। अब तो फिच्च फिच्च का मधुर संगीत बजने लगा था जिसकी धुन पर उसका मिट्ठू और मेरी मैना थिरक रहे थे। मैं तो अब सातवें आसमान पर ही थी।
सच कहूं तो इस चुदाई जैसी मधुर और आनंद दायक चीज दुनिया में दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। इस नैसर्गिक सुख के तो सभी दीवाने हैं। और जो सुख और फल चोरी के होते हैं उनका मज़ा और स्वाद तो वैसे भी कई गुणा ज्यादा होता है। लोग झूठ कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग मिलता है। अगर स्वर्ग जैसी कोई कल्पना या जगह है भी तो बस यही है.... यही है....
हमें कोई 10-12 मिनट तो हो ही गए थे। सुभाष की साँसें अब तेज़ होने लगी थी। वो तो निरा अनाड़ी ही था बिना रुके धक्के लगाये जा रहा था। चलो धीरे धीरे उसे चुदाई के सही तरीके आ ही जायेंगे। मेरी छमिया ने तो इस दौरान दो बार पानी छोड़ दिया था। हम दोनों की कामुक और आनंदमयी सीत्कारें कमरे में गूँज रही थी। वो कभी मेरे उरोजों को चूसता कभी उनके चूचकों पर जीभ फिरता। कभी मेरे होंठों को कभी गालों को चूमता। एक हाथ से मेरे एक उरोज को कभी मसलता कभी होले से दबा देता। उसका दूसरा हाथ मेरे नितम्बों पर फिर रहा था। जाने अनजाने में जब भी उसकी अंगुली मेरी फूल कुमारी को छू जाती तो मेरी छमिया के साथ ही फूल कुमारी भी संकोचन करने लगती।
अब मुझे लगने लगा था कि सुभाष ज्यादा देर अपने आप को नहीं रोक पायेगा। उसकी साँसें तेज होने लगी थी और उसके धक्कों की गति बढ़ गई थी। उसका चेहरा तमतमाने लगा था और उसके मुँह से गुर्रर्रर.... गुर्रर्रर... की आवाजें आने लगी थी। उसने मुझे इशारा किया कि वो झड़ने वाला है। मैंने उसे जोर से अपनी बाहों में जकड़ लिया।
मेरी स्वीकृति पाकर तो उसके चहरे की रंगत देखने लायक हो गई थी। जैसे किसी बच्चे को कोई मन पसंद खिलौना मिल जाए और उसे मर्ज़ी आये वैसे खेलने दिया जाए तो कहना ही क्या। मैंने कहीं पढ़ा था कि वीर्य को योनि में ही निकालने की चाह कुदरती होती है। इसका एक कारण है। नर हमेशा अपनी संतति को आगे बढ़ाने की चाहत रखता है इसलिए वो अपना वीर्य मादा की योनि में ही उंडेलना चाहता है। मेरी भी यही इच्छा थी कि सुभाष अपना प्रथम वीर्यपात मेरी योनि में ही करे। मुझे पता था कि माहवारी ख़त्म होने के 5-7 दिन बाद तक गर्भ का कोई खतरा नहीं होता।
जोश जोश में उसने 4-5 धक्के और भी तेजी से लगा दिए। उसका घोड़ा तो जैसे बे-लगाम होकर दौड़ने लगा था। मेरे अन्दर तेज़ और मीठी आग भड़कने लगी थी और फिर अन्दर जैसे पानी की गर्म फुहार सी महसूस हुई और मेरा काम-रज छूट पड़ा। मेरी छमिया लहरा लहरा कर प्रेम रस बहाने लगी और उसका लंड उसे हलाल करता रहा।
फिर उसने मुझे जोर से अपनी बाहों में भींच लिया और उसके साथ ही उसकी भी पिचकारी फूट गई। मेरी छमिया तो उसके अमृत को पाकर नाच ही उठी, उसका मिट्ठू तो धन्य होना ही था। उसने मेरे गालों, होंठों और मम्मों (उरोजों) पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी। हम दोनों ही मोक्ष को प्राप्त हो गए जिसे प्रेमीजन ब्रह्मानन्द कहते हैं। कोई भी गुणी आदमी इसे चुदाई जैसे घटिया नाम से तो संबोधित कर ही नहीं सकता। हम दोनों ने एक साथ जो अपना कुंवारापन खोया था वो तो अब कभी लौट कर वापस नहीं आएगा पर उसके साथ ही हमने इस संसार का सबसे कीमती सुख भी तो पा लिया था।
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Raj Sharma
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