FUN-MAZA-MASTI
खुराक भी जरूरी है-1
दोस्तो, एक बात तो मैं ज़रूर कहना चाहूँगा कि वासना बड़ी कमाल की चीज़ है जो न सिर्फ कहानियों के द्वारा आपका मनोरंजन कराती है बल्कि जो लिखते हैं उन्हें भी ऐसे मौके भी उपलब्ध करा देती है, जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
पिछले दिनों मुझे ऐसे तो ढेरों मेल आए, पर एक असलम साहब का मेल मुझे खास आकर्षित कर गया जो मेरा स्म्पर्क नम्बर चाहते थे। वजह कुछ अधिक सीरियस थी, बहरहाल मैंने थोड़ी टाल-मटोल के बाद उन्हें मेरा नम्बर दिया और फिर बात-चीत शुरू हुई। वो मुझसे किसी सिलसिले में मुलाकात करना चाहते थे, मैंने अपनी एहतियात के लिए कुछ शर्ते रखीं और फिर उन्हें मुलाकात के लिए बुला लिया।
वो बाकायदा मुम्बई आकर मुझे मिले। उनसे जो बातचीत हुई, वो तो काफी लम्बी थी। मगर जो लब्बोलुआब था वो पेश कर रहा हूँ।
“मैंने आपकी कहानी पढ़ी, अच्छी थी मगर जो बात मुझे आप तक खींच लाई, वो ये थी कि मैं एक समस्या में हूँ और मुझे लगता है कि आप मेरी मदद कर सकते हैं। दरअसल मुस्लिम होने की वजह से मेरी आप से बात करने की हिम्मत हुई वरना मैं शायद कभी ऐसा सोच भी नहीं पाता।
मसला यह है कि मेरी एक छोटी बहन है जिसकी शादी पांच साल पहले हुई थी, लेकिन अभी एक साल पहले एक रोड एक्सीडेंट में उसके पति की मौत हो गई और अब वो बेवा के रूप में मेरे ही घर ही रह रही है। मेरे माँ-बाप की हम दो ही औलादें थीं, अभी इस वक़्त मेरे घर में मेरी बीवी ज़रीना के सिवा दो बच्चे काशिफ और समीर ही हैं और अब मेरी बहन निदा भी साथ ही रहती है।
समस्या यह है कि अभी वो सिर्फ 25 साल की है और यह उम्र कोई सब्र करके बैठ जाने वाली नहीं होती। उसकी उमंगें, उसकी जिस्मानी ख्वाहिशें ठण्डी तो नहीं पड़ जाएँगी इस उम्र में और उसका जो मरहूम शौहर था, वो अपने पीछे जो भी छोड़ के मरा है वो सब अब मेरी बहन का ही है। उसके सास ससुर पहले ही जन्नत-नशीं हो चुके हैं और वो अकेला ही था।
लिहाज़ा अब जो करोड़ से भी ऊपर की जायदाद है, वो सब उसी की है और यह बात खानदान, रिश्तेदारी और मोहल्ले के ढेरों लोग जानते हैं और वो निदा पर नज़रें गड़ाए बैठे हैं। अब जवान लड़की है, किसके बहकावे में आ जाए कहा नहीं जा सकता और फिर क्या अंजाम हो सकता है, उसका खुदा जाने.. क्योंकि जो पैसे के लालच में उससे शादी करेगा, वो आगे कुछ भी कर सकता है।
मेरी समझ में निदा को बचाने का एक ही रास्ता है, आखिर जिस हाल में वो है उसमें उसके जिस्म की भूख ही तो उसे किसी के पास ले जाएगी। मैं जानता हूँ कि आपको सुन कर अजीब लगेगा लेकिन मैं सोचता हूँ कि अगर मैं ही उसके लिए यह इंतज़ाम कर दूँ तो शायद उसके कदम बहकने से बच जाएँ और वो किसी बुरे अंजाम से सुरक्षित रहे। आगे देखा जाएगा कि उसके लिए और क्या किया जा सकता है, लेकिन इस वक़्त तो मैं आपसे ही यह उम्मीद लेकर आया हूँ कि इस सिलसिले में आप मेरी मदद करेंगे। आपकी मदद के बदले ऐसा नहीं कि मैं आपको कुछ दूँगा नहीं, आप कोई उजरत न लेना चाहें तो भी मैं अपनी तरफ से तो ज़रूर ही करूँगा। बस आपको मुम्बई को छोड़ कर लखनऊ रहना होगा। अगर आपकी नौकरी की वजह से कोई प्रॉब्लम है तो मैं वहाँ नौकरी का भी इन्तजाम कर दूँगा।
बताइये, आप मेरी मदद करेंगे या मैं मायूस होकर वापस लौट जाऊँ?”
मैंने सोचने के लिए एक दिन का समय माँगा और फिर एक दिन बाद मैंने उन्हें फैसला सुना दिया कि मैं उनके साथ ही लखनऊ चल रहा हूँ। मैंने कुछ घरेलू समस्या बता कर अपनी तैनाती लखनऊ में कराने की कोशिश की थी और मुझे 6 महीने के लिए वहाँ शिफ्टिंग मिल गई थी।
और इस तरह मैं नवाबों के शहर में आ गया।
असलम साहब के घर मैं उनके साथ ही करीब दस बजे पहुँचा था, जो कि निशात गंज में था। बंगले टाइप का घर था जो यूँ तो एक मंजिला ही था लेकिन ऊपर एक कमरा, बरामदा भी बना हुआ था जो अब मेरे काम आने वाला था। साइड की दीवारें इतनी तो ऊंची थी कि सड़क से कुछ न दिखे, बाकी आस-पास के ऊंचे मकानों के छतों से तो खैर देखा जा सकता था, लेकिन ऐसे बड़े शहरों में फुर्सत ही किसे रहती है।
असलम साहब की उम्र करीब चालीस की रही होगी तो उस लिहाज से निदा और उनके बीच काफी बड़ा अंतर था। लेकिन उनकी बीवी ज़रीना उनके आस-पास की ही लगीं, वो और निदा बाकी तो दिखने में समान ही थीं लेकिन चेहरे से उम्र का अंतर पता चलता था। जहाँ निदा के चेहरे पर मासूमियत थी वहीं ज़रीना के चेहरे पर परिपक्वता झलकती थी। बाकी चूचियों और चूतड़ों का आकार एक सा था। कमर शायद निदा की कम रही हो लेकिन उसके ढीले कपड़ों से कुछ पता नहीं चलता था, चेहरे दोनों के खूबसूरत थे।
दोनों बच्चे 10 और 8 साल के थे और सीधे-सादे से थे। उन दोनों औरतों में से जहाँ ज़रीना ने मेरा स्वागत अजीब सी बेरुखी से किया वहीं निदा ने तो मुझे जैसे देखना भी गंवारा न किया। ऐसा लगा ही नहीं जैसे मेरे आने से उसकी सेहत पर कुछ असर पड़ा हो, असलम भाई के मुताबिक ज़रीना को इस बात की खबर नहीं थी कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। उसके और बाकी घर के लोगों की नज़र में मैं उनका बस एक किरायेदार था, जो अब उनके साथ ऊपर ही रहने वाला था और जिसका नाश्ता-खाना भी उन्हें ही करके देना था और उसकी कीमत लेनी थी।
बहरहाल मैंने वहाँ रहना शुरू कर दिया और असलम भाई की बहन पर डोरे डालने शुरू किये। मैं सुबह जब तक घर रहता, इसी कोशिश में रहता कि किसी तरह उसे आकर्षित कर पाऊँ और शाम को जब घर आता तो सोने तक इसी कोशिश में लगा रहता और इसके लिए असलम भाई के बच्चों का सहारा लेता जो धीरे-धीरे मुझसे घुलने-मिलने लगे थे।
लेकिन मैंने पाया कि ज़रीना मेरी कोशिशों को पलीता लगा देती थी, उसकी आँखों में अजीब उद्दंडतापूर्ण लापरवाही रहती थी और वो सीधे तो मुझसे कुछ नहीं कहती लेकिन असके अंदाज़ से लगता था कि मुझे पसंद नहीं करती थी और निदा पर तो जैसे कोई असर ही नहीं पड़ता था, न पसंद और न ही नापसंद।
इसी तरह जब हफ्ता गुज़र गया और गाड़ी आगे न बढ़ी तो एक दिन मैंने अपनी सीमा लांघने की ठानी।
मैंने अक्सर पाया था कि अपने धुले कपड़े वह लोग ऊपर ही सुखाते थे और अब मैं पहचानने भी लगा था के कौन से कपड़े किसके थे, तो एक दिन मैंने ऊपर फैली निदा की सलवार के नीचे छुपी उसकी पैंटी बरामद की। मैं पहले भी चेक कर चुका था कि दोनों ननद-भाभी अपनी चड्डियाँ अपनी सलवार या कुर्ते के नीचे छिपा कर सुखाती थीं और जल्दी से मुठ्ठ मार कर सारा माल उसमें पोंछा और उसे वापस उसकी जगह टांग दिया।
शाम के अँधेरे में निदा आई और अपने कपड़े लेकर चली गई, लेकिन थोड़ी ही देर में हंगामा मच गया।
वो धमर.. धमर करते गुस्से से आगबबूला होती ऊपर आई और अपनी चड्डी मेरे मुँह पर फेंक मारी।
“यह क्या है?” उसकी आँखें सुर्ख हो रही थीं।
“क्या है?” जानते बूझते मैंने अनजान बनने की कोशिश की।
उसने मेरे हाथ से चड्डी छीनी और उसमें लगे वीर्य के नम दाग दिखाते हुए चिल्लाई, “यह क्या है?”
“मुझे क्या पता क्या है… ! तुम्हारी चीज़ है तुम जानो।”
“तुम्हारा दिमाग ख़राब हुआ है, मैं समझती थी कि कोई शरीफ इंसान हो, इसी लिए भाई ने रखा है लेकिन तुम तो एक नम्बर के कमीने हो.. ये गंदगी करके मेरे कपड़ों में पोंछ दिया, शर्म नहीं आती…!” वह गुस्से में जाने क्या-क्या बोलती रही और मैं सुनता रहा !
फिर वो रोती हुई नीचे चली गई और मैं शर्मिंदा हो कर रह गया। नीचे उसके रोने की आवाज़ें आती रहीं और मैं सुनता रहा। मुझे लग रहा था कि अब ज़रीना आएगी मुझे ज़लील करने लेकिन वो नहीं आई। फिर जब असलम भाई आए तो उनसे दास्तान बताई गई और वो उनके हिसाब से मुझे समझाने ऊपर आए।
“वो यह सब सोच भी नहीं सकती थी इसलिए ऐसे रियेक्ट किया लेकिन यकीन करो कि आज रात में जब वह सोयेगी तो उसका दिमाग इसी में अटका रहेगा और कल तुम्हें वो किसी और नज़र से देखेगी।”
“और भाभी?”
“उसकी फ़िक्र मत करो, वो जैसी भी है मुझसे बाहर नहीं जा सकती।”
इसके बाद बात खत्म और मैं अगले दिन के इंतज़ार में।
अगली सुबह जब वह ऊपर कपड़े फैलाने आई तो मैं जानबूझ कर उसके सामने गया। उस वक़्त मैं सिर्फ चड्डी में था और मेरा उभार साफ़ प्रदर्शित हो रहा था। उसने मुझे देखा, नीचे देखा और बिना कोई रिएक्शन दिए भावहीन चेहरा लिए कपड़े फैला कर नीचे चली गई।
इसके बाद तो मैंने भी ठान लिया कि अब ये रोये या लड़े लेकिन मैं इसके सामने ऐसे ही रहूँगा और अक्सर तब, जब वो कपड़े फैलाने या उतारने आती तो मैं उसके सामने चड्डी में ही रहता और यहाँ तक कि अपना सामान भी टाइट ही रखता कि ऊपर से साफ़ पता चले।
मैंने एक बात तो महसूस की कि अब वो वैसी बेरूख सी नहीं लगती जैसे पहले लगती थी लेकिन अपनी दिलचस्पी किसी तरह ज़ाहिर भी नहीं करती थी।
एक शाम मैंने फिर मुठ्ठ मार कर उसकी चड्डी में पोंछ कर टांग दिया और अपने कमरे की खिड़की से उसकी प्रतिक्रिया देखने लगा।
उसने जब कपड़े समेटे तभी महसूस कर लिया कि मैंने फिर वही हरकत की थी लेकिन इस बार उसने नीम अँधेरे में चड्डी को गौर से देखा, फिर मुड़ कर मेरे कमरे की दिशा में देख कर मेरा अंदाज़ा लगाया और फिर चड्डी को नाक के पास ले जाकर सूंघने लगी और सूंघते हुए ही नीचे चली गई। मैंने राहत की मील भर लम्बी सांस ली कि मेरा मिशन अब सफल होने वाला था।
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पिछले दिनों मुझे ऐसे तो ढेरों मेल आए, पर एक असलम साहब का मेल मुझे खास आकर्षित कर गया जो मेरा स्म्पर्क नम्बर चाहते थे। वजह कुछ अधिक सीरियस थी, बहरहाल मैंने थोड़ी टाल-मटोल के बाद उन्हें मेरा नम्बर दिया और फिर बात-चीत शुरू हुई। वो मुझसे किसी सिलसिले में मुलाकात करना चाहते थे, मैंने अपनी एहतियात के लिए कुछ शर्ते रखीं और फिर उन्हें मुलाकात के लिए बुला लिया।
वो बाकायदा मुम्बई आकर मुझे मिले। उनसे जो बातचीत हुई, वो तो काफी लम्बी थी। मगर जो लब्बोलुआब था वो पेश कर रहा हूँ।
“मैंने आपकी कहानी पढ़ी, अच्छी थी मगर जो बात मुझे आप तक खींच लाई, वो ये थी कि मैं एक समस्या में हूँ और मुझे लगता है कि आप मेरी मदद कर सकते हैं। दरअसल मुस्लिम होने की वजह से मेरी आप से बात करने की हिम्मत हुई वरना मैं शायद कभी ऐसा सोच भी नहीं पाता।
मसला यह है कि मेरी एक छोटी बहन है जिसकी शादी पांच साल पहले हुई थी, लेकिन अभी एक साल पहले एक रोड एक्सीडेंट में उसके पति की मौत हो गई और अब वो बेवा के रूप में मेरे ही घर ही रह रही है। मेरे माँ-बाप की हम दो ही औलादें थीं, अभी इस वक़्त मेरे घर में मेरी बीवी ज़रीना के सिवा दो बच्चे काशिफ और समीर ही हैं और अब मेरी बहन निदा भी साथ ही रहती है।
समस्या यह है कि अभी वो सिर्फ 25 साल की है और यह उम्र कोई सब्र करके बैठ जाने वाली नहीं होती। उसकी उमंगें, उसकी जिस्मानी ख्वाहिशें ठण्डी तो नहीं पड़ जाएँगी इस उम्र में और उसका जो मरहूम शौहर था, वो अपने पीछे जो भी छोड़ के मरा है वो सब अब मेरी बहन का ही है। उसके सास ससुर पहले ही जन्नत-नशीं हो चुके हैं और वो अकेला ही था।
लिहाज़ा अब जो करोड़ से भी ऊपर की जायदाद है, वो सब उसी की है और यह बात खानदान, रिश्तेदारी और मोहल्ले के ढेरों लोग जानते हैं और वो निदा पर नज़रें गड़ाए बैठे हैं। अब जवान लड़की है, किसके बहकावे में आ जाए कहा नहीं जा सकता और फिर क्या अंजाम हो सकता है, उसका खुदा जाने.. क्योंकि जो पैसे के लालच में उससे शादी करेगा, वो आगे कुछ भी कर सकता है।
मेरी समझ में निदा को बचाने का एक ही रास्ता है, आखिर जिस हाल में वो है उसमें उसके जिस्म की भूख ही तो उसे किसी के पास ले जाएगी। मैं जानता हूँ कि आपको सुन कर अजीब लगेगा लेकिन मैं सोचता हूँ कि अगर मैं ही उसके लिए यह इंतज़ाम कर दूँ तो शायद उसके कदम बहकने से बच जाएँ और वो किसी बुरे अंजाम से सुरक्षित रहे। आगे देखा जाएगा कि उसके लिए और क्या किया जा सकता है, लेकिन इस वक़्त तो मैं आपसे ही यह उम्मीद लेकर आया हूँ कि इस सिलसिले में आप मेरी मदद करेंगे। आपकी मदद के बदले ऐसा नहीं कि मैं आपको कुछ दूँगा नहीं, आप कोई उजरत न लेना चाहें तो भी मैं अपनी तरफ से तो ज़रूर ही करूँगा। बस आपको मुम्बई को छोड़ कर लखनऊ रहना होगा। अगर आपकी नौकरी की वजह से कोई प्रॉब्लम है तो मैं वहाँ नौकरी का भी इन्तजाम कर दूँगा।
बताइये, आप मेरी मदद करेंगे या मैं मायूस होकर वापस लौट जाऊँ?”
मैंने सोचने के लिए एक दिन का समय माँगा और फिर एक दिन बाद मैंने उन्हें फैसला सुना दिया कि मैं उनके साथ ही लखनऊ चल रहा हूँ। मैंने कुछ घरेलू समस्या बता कर अपनी तैनाती लखनऊ में कराने की कोशिश की थी और मुझे 6 महीने के लिए वहाँ शिफ्टिंग मिल गई थी।
और इस तरह मैं नवाबों के शहर में आ गया।
असलम साहब के घर मैं उनके साथ ही करीब दस बजे पहुँचा था, जो कि निशात गंज में था। बंगले टाइप का घर था जो यूँ तो एक मंजिला ही था लेकिन ऊपर एक कमरा, बरामदा भी बना हुआ था जो अब मेरे काम आने वाला था। साइड की दीवारें इतनी तो ऊंची थी कि सड़क से कुछ न दिखे, बाकी आस-पास के ऊंचे मकानों के छतों से तो खैर देखा जा सकता था, लेकिन ऐसे बड़े शहरों में फुर्सत ही किसे रहती है।
असलम साहब की उम्र करीब चालीस की रही होगी तो उस लिहाज से निदा और उनके बीच काफी बड़ा अंतर था। लेकिन उनकी बीवी ज़रीना उनके आस-पास की ही लगीं, वो और निदा बाकी तो दिखने में समान ही थीं लेकिन चेहरे से उम्र का अंतर पता चलता था। जहाँ निदा के चेहरे पर मासूमियत थी वहीं ज़रीना के चेहरे पर परिपक्वता झलकती थी। बाकी चूचियों और चूतड़ों का आकार एक सा था। कमर शायद निदा की कम रही हो लेकिन उसके ढीले कपड़ों से कुछ पता नहीं चलता था, चेहरे दोनों के खूबसूरत थे।
दोनों बच्चे 10 और 8 साल के थे और सीधे-सादे से थे। उन दोनों औरतों में से जहाँ ज़रीना ने मेरा स्वागत अजीब सी बेरुखी से किया वहीं निदा ने तो मुझे जैसे देखना भी गंवारा न किया। ऐसा लगा ही नहीं जैसे मेरे आने से उसकी सेहत पर कुछ असर पड़ा हो, असलम भाई के मुताबिक ज़रीना को इस बात की खबर नहीं थी कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। उसके और बाकी घर के लोगों की नज़र में मैं उनका बस एक किरायेदार था, जो अब उनके साथ ऊपर ही रहने वाला था और जिसका नाश्ता-खाना भी उन्हें ही करके देना था और उसकी कीमत लेनी थी।
बहरहाल मैंने वहाँ रहना शुरू कर दिया और असलम भाई की बहन पर डोरे डालने शुरू किये। मैं सुबह जब तक घर रहता, इसी कोशिश में रहता कि किसी तरह उसे आकर्षित कर पाऊँ और शाम को जब घर आता तो सोने तक इसी कोशिश में लगा रहता और इसके लिए असलम भाई के बच्चों का सहारा लेता जो धीरे-धीरे मुझसे घुलने-मिलने लगे थे।
लेकिन मैंने पाया कि ज़रीना मेरी कोशिशों को पलीता लगा देती थी, उसकी आँखों में अजीब उद्दंडतापूर्ण लापरवाही रहती थी और वो सीधे तो मुझसे कुछ नहीं कहती लेकिन असके अंदाज़ से लगता था कि मुझे पसंद नहीं करती थी और निदा पर तो जैसे कोई असर ही नहीं पड़ता था, न पसंद और न ही नापसंद।
इसी तरह जब हफ्ता गुज़र गया और गाड़ी आगे न बढ़ी तो एक दिन मैंने अपनी सीमा लांघने की ठानी।
मैंने अक्सर पाया था कि अपने धुले कपड़े वह लोग ऊपर ही सुखाते थे और अब मैं पहचानने भी लगा था के कौन से कपड़े किसके थे, तो एक दिन मैंने ऊपर फैली निदा की सलवार के नीचे छुपी उसकी पैंटी बरामद की। मैं पहले भी चेक कर चुका था कि दोनों ननद-भाभी अपनी चड्डियाँ अपनी सलवार या कुर्ते के नीचे छिपा कर सुखाती थीं और जल्दी से मुठ्ठ मार कर सारा माल उसमें पोंछा और उसे वापस उसकी जगह टांग दिया।
शाम के अँधेरे में निदा आई और अपने कपड़े लेकर चली गई, लेकिन थोड़ी ही देर में हंगामा मच गया।
वो धमर.. धमर करते गुस्से से आगबबूला होती ऊपर आई और अपनी चड्डी मेरे मुँह पर फेंक मारी।
“यह क्या है?” उसकी आँखें सुर्ख हो रही थीं।
“क्या है?” जानते बूझते मैंने अनजान बनने की कोशिश की।
उसने मेरे हाथ से चड्डी छीनी और उसमें लगे वीर्य के नम दाग दिखाते हुए चिल्लाई, “यह क्या है?”
“मुझे क्या पता क्या है… ! तुम्हारी चीज़ है तुम जानो।”
“तुम्हारा दिमाग ख़राब हुआ है, मैं समझती थी कि कोई शरीफ इंसान हो, इसी लिए भाई ने रखा है लेकिन तुम तो एक नम्बर के कमीने हो.. ये गंदगी करके मेरे कपड़ों में पोंछ दिया, शर्म नहीं आती…!” वह गुस्से में जाने क्या-क्या बोलती रही और मैं सुनता रहा !
फिर वो रोती हुई नीचे चली गई और मैं शर्मिंदा हो कर रह गया। नीचे उसके रोने की आवाज़ें आती रहीं और मैं सुनता रहा। मुझे लग रहा था कि अब ज़रीना आएगी मुझे ज़लील करने लेकिन वो नहीं आई। फिर जब असलम भाई आए तो उनसे दास्तान बताई गई और वो उनके हिसाब से मुझे समझाने ऊपर आए।
“वो यह सब सोच भी नहीं सकती थी इसलिए ऐसे रियेक्ट किया लेकिन यकीन करो कि आज रात में जब वह सोयेगी तो उसका दिमाग इसी में अटका रहेगा और कल तुम्हें वो किसी और नज़र से देखेगी।”
“और भाभी?”
“उसकी फ़िक्र मत करो, वो जैसी भी है मुझसे बाहर नहीं जा सकती।”
इसके बाद बात खत्म और मैं अगले दिन के इंतज़ार में।
अगली सुबह जब वह ऊपर कपड़े फैलाने आई तो मैं जानबूझ कर उसके सामने गया। उस वक़्त मैं सिर्फ चड्डी में था और मेरा उभार साफ़ प्रदर्शित हो रहा था। उसने मुझे देखा, नीचे देखा और बिना कोई रिएक्शन दिए भावहीन चेहरा लिए कपड़े फैला कर नीचे चली गई।
इसके बाद तो मैंने भी ठान लिया कि अब ये रोये या लड़े लेकिन मैं इसके सामने ऐसे ही रहूँगा और अक्सर तब, जब वो कपड़े फैलाने या उतारने आती तो मैं उसके सामने चड्डी में ही रहता और यहाँ तक कि अपना सामान भी टाइट ही रखता कि ऊपर से साफ़ पता चले।
मैंने एक बात तो महसूस की कि अब वो वैसी बेरूख सी नहीं लगती जैसे पहले लगती थी लेकिन अपनी दिलचस्पी किसी तरह ज़ाहिर भी नहीं करती थी।
एक शाम मैंने फिर मुठ्ठ मार कर उसकी चड्डी में पोंछ कर टांग दिया और अपने कमरे की खिड़की से उसकी प्रतिक्रिया देखने लगा।
उसने जब कपड़े समेटे तभी महसूस कर लिया कि मैंने फिर वही हरकत की थी लेकिन इस बार उसने नीम अँधेरे में चड्डी को गौर से देखा, फिर मुड़ कर मेरे कमरे की दिशा में देख कर मेरा अंदाज़ा लगाया और फिर चड्डी को नाक के पास ले जाकर सूंघने लगी और सूंघते हुए ही नीचे चली गई। मैंने राहत की मील भर लम्बी सांस ली कि मेरा मिशन अब सफल होने वाला था।
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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