Monday, August 3, 2015

FUN-MAZA-MASTI फागुन के दिन चार--185

  FUN-MAZA-MASTI

   फागुन के दिन चार--185




रात है या बारात फूलों की ,



गुड्डी





रात के तीन बजने में अभी दस मिनट बचे थे।

…..
बाहर रात झर रही थी।

एक बार फिर चांदनी की अंगड़ाई ने काले धूसर बादलों के नागपाश को तोड़कर दूर कर दिया था और आसमान के आँगन में वो इधर उधर दूर छितरे पड़े थे , टुकड़े टुकड़े।


जैसे कोई किशोरी , सद्यस्नाता , बाहर निकल कर अपने बाल झटक के चेहरे से दूर कर दे , तौलिये की गाँठ खुद ब खुद खुल जाय और और पूरे माहौल में आती हुयी जवानी की गमक भर जाय , छितर जाय , बौर और टिकोरों से लदे आम के पेड़ की तरह।


बस उसी तरह चांदनी अब बाहर छत पर , अंदर कमरे में बिस्तर पर , दीवारों पर हर जगह पसरी पड़ी थी , और मुझे और गुड्डी को चमेली के चादर की तरह ढके हुयी थी।

मुश्किल था ये तय करना , ये चांदनी थी की गुड्डी के रूप की उजास। चाँद रोशन कर रहा था कायनात को या गुड्डी का रूप छिटक रहा था चांदनी बन कर।


मुझे याद आया , वो पहली मिलन की रात , जब वह छुप के कृष्णाभिसारिका की तरह अँधेरे को ओढ़े आई थी और जब उसने वो दामन हटाया तो बस मीर याद आये


वो आये बज्म में इतना तो मीर ने देखा
फिर उसके बाद चिरागो में रोशनी न रही।

मैंने जोर से गुड्डी को दबोच लिया , और वो भींच गयी मेरी बाहों में।

बस हम दोनों ऐसे एक दूसरे में गुथे पड़े थे की जैसे चांदनी में घुली चैत की पुरवाई और उसमें मिली आम के पेड़ से छन छन कर आती , आम के बौर की महक ,

खिड़की के बाहर झरते अमलताश , जूही और चंपा की गमक।
…………………………










आज की रात शायद आखिरी रात थी और सर से पैर तक आखिरी रात की बेताबी से डूबी . चांदनी गुड्डी के काले लम्बे बालों के जाल में कैद थी और बूँद बूँद बिस्तर पर टपक रही थी।

और खिली खिड़की से चाँद भी दस्तक दे रहा था। अपना सफर भूल के।

और मुझे गुड्डी की ही एक अदा याद आई ,


पूछा जो उनसे चाँद निकलता है किस तरह,
जुल्फों को रूख पै डालके झटका दिया कि यूँ।


हम दोनों गुथे पड़े थे , न उसे जल्दी थी न मुझे।

बस मन करता था की चाँद इसी तरह रुका रहे , खिड़की से उसे तकता रहे और सुबह बस ,… न हो।


कल हम बनारस में होंगे और फिर वहां , फिर बस वो बात न होगी ,जो आज की रात में है।

सब को मालूम पड़ गया होगा , हमारा नया रिश्ता वहां अब वो 'मेरी होनेवाली ' होगी।

हर पल एक नया पल होता है खट्टे मीठे स्वाद के साथ , लेकिन मन तो करता है न उन मीठे पलों की गठरी बना के रखने का।


पुचारे से स्लेट पर कोई बच्चा जैसे पुरानी इबारत मिटा दे और नयी लिख दे, बस जिंदगी हर पल वही करती है।


पहल उसी ने की , जैसे वो करती है , हमेशा।

और मीठी शरारतों के साथ , उसने अपनी जीभ मेरे कान में घुमाया और हलके से इयर लोब्स काट लिए।

मैं आलसी ,बस मैंने जोर से उसे अपने सीने से चिपटा लिया और उसकी अगली हरकत का इंतजार करने लगा। फिर


उसके तितली ऐसे होंठ मेरे लालची होंठो को छू के फुर्र हो गए।

जैसे उसे मालूम हो की मैं लालची बच्चे की तरह तितली के पीछे भागूंगा। और वैसे भी मुझसे ज्यादा अगर मुझे कोई जानता था तो सिर्फ वो थी।

और अब मेरे होंठ , जो न जाने कब से उसके दीवाने थे , नदीदे , कितना उसके रस जोबन की गागर छलका के सुधा रस पीते फिर भी प्यासे रहते।
लेकिन मेरे प्यासे होंठों को उस देह नगरी का हर रास्ता ,गली कूचा सब मालुम था।

और अब धड़ल्ले से वो टहलते थे बेरोक टोक.

और शुरूआत की वहीँ से ,

उन पलकों से जहाँ से वो कभी सपने चुराते थे कभी सपने बोते थे।

उन अधखुली , कुछ सोयी कुछ जागी ख्वाब्जदा आँखों से ,



खिलना कम, कम कली ने सीखा है,
तेरी आंखों की नीमबाजी से।


मीर तकी मीर की बात बहुत कुछ लागू होती थी जिन पे , मेरे होंठों ने बस हलके से उन भारी भारी पलकों को छुआ , दुलराया और आगे बढ़ दिए।


हाँ बस उसी रुखसारों और होंठों की ओर जिन्हे सोचते ही मेरे होंठ लरज उठते थे। और जब जब मैं इस उलझन में उलझता था


तुम मुखातिब भी हो, सामने भी हो,
तुमको देखूँ कि तुमसे बात करूँ।


तो मेरे होंठ इस मुश्किल सवाल को आसानी से सुलझा लेते थे , बस चुपचाप चूम कर , चुम्बनो की अपनी एक जुबान होती है।

और आज भी उन्होंने वही किया ,पहले देर तक चिपके रहे गुड्डी के गालों से।

रूखसार उनके हायरे जब देखते हैं हम,
आता है दिल में आंखों को इनमें गिड़ोइए।


लेकिन आज तो आँखे बंद थीं इस डर से कही सोने के तार सा खिंच रहा ये ख़्वाब ,कही टूट न जाय। 
 पर मेरे होंठ कभी आँख बन कर देखते भी थे और कभी हाथ बन कर बांह भी थाम लेते थे।

और समय वो मेरे पूरे वजूद बन , गुड्डी से मेरे दिल की दास्ताँ कह रहे थे।

पहले छोटे छोटे ढेर सारे चुम्बन , और फिर कचकचा के उसके फूले उभरे गालों को गपुच लिया और बिना इस बात की चिंता किये , कल कोई क्या पूछेगा ,कभी ये चाँद ढलेगा भी सूरज निकलेगा भी और जालिम जमाना सवाल भी पूछेगा , अपनी मिलकियत जताते दांतों के निशान भी बना दिए।

गुड्डी सिसक दी और उसके लम्बे नाखून मेरे कंधे में गड गए।

होंठो को लगा शायद ज्यादती हो गयी और उन्होंने डरते सम्हलते , अब गालों को छोड़ लबों का रुख किया।
…………
और गुड्डी के लबों ने भी उनका खैरमकदम उसी तरह किया जैसा कोई परदेस से लौटे साजन करता है अंकवार में बाँध कर , गलबहियां ले कर।

फिर मेरे होंठ गुड्डी के होंठों को चूस रहे थे या गुड्डी के होंठ मेरे होंठों को , कब उसके होंठ खुले और मेरी जीभ अंदर घुसी पता नहीं ,....

अंदर सुख झड़ रहा था ,और बाहर

रात झड़ रही थी ,चांदनी ,अमलताश और आम के बौर की गमक में डूबी।


रात है या बारात फूलों की

फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की

आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की




मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की


साथ में चैत की मीठी मीठी हवा खुली खिड़की दरवाजे से आके तन के शोलों को और भड़का रही थी।

मेरे कान में एक चैती गूँज रही थी ,

चैत मास बोलेलै कोयलिया हो ,रामा।

कुहुक कुहुक करे कारी रे कोयलिया

हुक उठत मोरे मनवा हो रामा।

चैत मास बोलेलै कोयलिया हो ,रामा।

मोरे अंगनवा।


रस मेरे उसके होंठ ले रहे थे ,गीली पूरी देह हो रही थी।

मन की नसेनी लगा के मैं उसकी देह पे चढ़ गया था। और तो फिर तन मन में ऐसा घालमेल हुआ की कब कौन तन के रास्ते मन में सेंध लगाता है और कौन कब मन की सांकल खडका के देह के दरवाजे खुलवा लेता है पता नहीं।

पता बस इस बात का चल रहा था की उसकी जोबन की बरछी जोर जोर से मेरे सीने में चुभ रही हो , जैसे मेरे होंठों की बेईमानी की शिकायत कर रही हो।


बस होंठ भी क्या करते , हार्न प्लीज की डिमांड पर , उन्होंने गुड्डी के रसीले होंठों को ओके ,प्लीज ,फिर मिलेंगे कहा और नीचे सरक कर , अानंद के स्तूपों की रस कलश की ओर मुड़े।


और , यौवन घट भी कैसे , जोबन मद से भरे।

पहले उन उभारों के चारों ओर उन्होंने परिक्रमा की और फिर चुम्बन चरण धरते पहुँच गए उन शिखरों पर जो सोते जागते मुझे ललचाते , बुलाते रहते हैं।

पहले फ्लिक , फिर किस और फिर हलकी सी बाइट ,

ये क्रम हम दोनों को अब याद था लेकिन जब भी मैं उसके निपल को छूता था लगता था , बस पहली बार चुपके से कहीं कही स्पर्श सुख का मौका मिल गया और उसकी पलकें झुक के , शिकायत भी करतीं , मना भी करतीं और उसके मन की चुगली भी। 
पहले फ्लिक , फिर किस और फिर हलकी सी बाइट ,

ये क्रम हम दोनों को अब याद था लेकिन जब भी मैं उसके निपल को छूता था लगता था , बस पहली बार चुपके से कहीं कही स्पर्श सुख का मौका मिल गया और उसकी पलकें झुक के , शिकायत भी करतीं , मना भी करतीं और उसके मन की चुगली भी।

जोबन दो थे और होंठ एक जोड़े ,इसलिए एक हाथ भी होंठ की सहायता के लिए आगया और जुबना की बरछी के साथ वही ब्यौहार करने लगा जो होंठ कर रहे थे। बस अपने ढंग से ,पिंच कर , मरोड़ कर , दबा कर , मसल कर।

लेकिन जुबना भी तो मेरे गुड्डी के थे। इतनी आसानी से दबने वाले नही थे। जितना मेरे हाथ उन्हें दबाते ,मसलते बस छोड़ते ही फिर सीना तान के खड़े , चैलेन्ज करते , ललकारते।

गाना तो बहुत पुराना था लेकिन लिखा जोश मलीहाबादी का और गाया जोहराबाई अम्बालेवाली का ( मन की जीत ) और जब भी मैं उसे सुनता हूँ बस लगता है जैसे गुड्डी के जोबन के लिए ही लिखा हो और जिस तरह से वो उभारती थी , ललचाती थी , जोबन से बरछी मारती थी बस ,पूरे गददर , गदर मचा देती जिधर निकलती।



मोरे जुबना का देखो उभार
पापी जुबना का देखो उभार

जैसे नदी की मौज
जैसे तुर्कों की फ़ौज

जैसे सुलगे से बम
जैसे बालक उधम
जैसे कोयल पुकार
देखो-देखो उभार ...

जैसे हिरनी कुलेल
जैसे तूफ़ान मेल
जैसे भँवरों की झूम
जैसे सावन की धूम
जैसे गाती फुहार
देखो-देखो उभार ...


मेरे होंठ झूम झूम कर उन उभारों को कभी चूम रहे थे , कभी चूस रहे थे और कभी हलके से दांत भी अपनी निशानी छोड़ देते तो गुड्डी की सिसकियों की सरगम में चीख भी घुल जाती।

इन्ही पलों के लिए तो मैं बेताब था , तरस रहा था लेकिन अब कर्टसी विधना और गुड्डी के ( मेरा yपूरा विश्वास है गुड्डी ने उन्हें भी मुट्ठी में कर रखा है , वो वाही चाहते हैं जो गुड्डी चाहती है खास तौर से मेरे बारे में )


मेरा मन नहीं कर रहा था आगे बढ़ने का ,लेकिन ड्यूटी। जैसे नाइट ड्यूटी पर जाने वाली नयी नयी दुल्हन के पति की होती है बस वही हाल होंठों का हो रहा था , मन तो कर नहीं था लेकिन देह यात्रा लम्बी थी ५ फिट ६ इंच पूरी।

इसलिए वो जोबन की रियासत हाथों को सौंप कर , होंठ दखिन की ओर निकल पड़े।

लेकिन ललचाने वाले कम तो नहीं थी।

उसकी गोरी गहरी नाभि का पोखर और होंठ लालची , बैठ गए वहीँ चुसकी लगाने।
जब प्यासे को प्यास लगी हो वो तो गढ़ही ,पोखर नहीं देखता और होंठ मेरे चिर प्यासे ,

कुछ देर चुसक चुसक उस गहरी नाभी में रूप की मदिरा पीते रहे और उनके पास बहाना भी था , सांग ऑफ सांग्स की पंक्तियाँ जो सोलोमन ने अपनी प्रेयसी की नाभी के लिए कही थीं ,

"thy navel is like a round goblet, which wanteth not liquor:thy belly is like a heap of wheat set about with lilies."

कुछ देर के बाद भी जब होंठ नहीं हटे तो उन्हें समझाना पड़ा।

मूढ़ मति , मन यहाँ लगा के बैठे हो और थोड़ी ही दूर नीचे रस का प्याला छलक रहा है , सुधा रस की सलिल सरिता बह रही है।

और बेमन से होंठ उठे लेकिन ,मधु रस की महक मिलते ही योनि कूप की ओर दौड़ लगा दी।  
नदीदे , भुक्खड़ ,

पहले तो बाहर छलक रही बूंदो को चाटा और फिर सीधे वहीँ मुंह लगा दिया।


और आज मुझे लगा की आम को चूत क्यों कहते हैं।

बनारसी लंगड़े की दो फांको की तरह , मेरे लालची हाथों ने पहले तो भगोष्ठों को फैलाया , फिर पूरा मुंह घुसा के , मेरे लालची होंठ

सपड़ सपड़ ,चपड़ चपड़।

नीचे से ऊपर तक और फिर ऊपर से नीचे तक , एक बार ,दो बार ,बार बार

और कई बार मेरी ठुड्डी भी रगड़ खा जाती। मेरे होंठ के साथ साथ चेहरा भी चूत रस में भीगा हुआ , रसाल का स्वाद ले रहा था , कुछ कसैला , ज्यादा मीठा।
एक नशा सा मेरे होंठो पे तारी हो गया था और सब कुछ भूल के बस वो चूसे चाटे जा रहे थे।

और वो नशे का प्याला भी उस अनोखी शराब को खुद उछल उछल कर पिला रहा था , ऐसी साकी हो तो कौन रुकेगा पीने से।



मेरे दिल में तड़प है पीने की,
तेरे हाथों में जाम है साकी।


और फिर लालची होंठ अब सिर्फ पी नहीं रहे थे , लूट रहे थे ,डाका डाल रहे थे।

दोनों निचले मद से भरे होंठों को फैला के प्रेम गली में जुबान ने सेंध लगा दी और अंदर घुस कर रस की आखिरी बूँद तक मजा लूटने लगी।

और ऊपर पहरा दे रहे होंठ ,उन्होंने भी तिजोरी की चाभी को रगड़ना शुरू कर दिया।

गुड्डी की क्लिट वैसे भी कुछ अल्ट्रा सेंसिटिव थी और कुछ ही देर में जुबान और होंठों की इस जुगलबंदी में , गुड्डी की सिसकियाँ तेज हो गयीं , नितम्ब जोर जोर से बिस्तर पर उछलने लगे।

लेकिन न मेरे होंठ मानने वाले ,न मेरी जीभ.


और इस नाफ़रमानी का नतीजा ये हुआ की साकी ने प्याला हटा लिया।



बात असल में ये थी की मेरे जंगबहादुर की चिंता मुझसे ज्यादा , गुड्डी करती थी और वो अब थे भी उसके गुलाम , हरदम उसकी सेवा में तैयार या वो जिसके पीछे लगा दे बस उसकी फाड़ने को बेताब।

तो हाथ जोबन का रस ले रहे थे ,

जुबान होंठ रसीली चूत का , बस बिचारे जंगबहादुर तन्नाये , भूखे खड़े थे।


और उनका ख्याल गुड्डी ने किया , पलटी मारी और अब वो ऊपर थी।

जंगबहादुर उसके रसीले होंठों के बीच , और जो काम मेरे होंठ गुड्डी की चूत के साथ कर रहे थे वही चूषण क्रिया , गुड्डी के होंठ जंगबहादुर के साथ।

और गुड्डी थी तो उदार ,

एक बार फिर उसे मेरे प्यासे होंठों की याद आई और उस साकी ने रहमदिली दिखा दी ,

जैसे ग़ालिब ने गुजारिश की है बस उसी तरह ,


पिला दे औक से साकी जो मुझसे नफरत है,
पियाला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे।



शराब एक बार सीधे बोतल से मेरे होंठो तक वो उड़ेलने लगी।

वो ऊपर और मैं नीचे


सुधी जन जिसे 69 के रूप में जानते हैं ,बस उसी रूप में।
69 मेरा फेवरिट नंबर है , गुड्डी का भी।
 

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