Sunday, August 30, 2015

FUN-MAZA-MASTI फागुन के दिन चार--192

  FUN-MAZA-MASTI

   फागुन के दिन चार--192


 गुड्डी


भाभी तभी आ पहुंची और पहुंचते ही मुझे डांट पड़ी और गुड्डी की तारीफ।

' किचेन में क्या कर रहे हो , डिस्टर्ब कर रहे होगे उसको ,तुम भी न '

उन्होंने ऊँगली से ही थोड़ी सी तहरी चखी और फिर गुड्डी की तारीफ पे तारीफ ,


फिर वो काम की बात पे आयीं। हम लोग खाना खा लें और जब जाने वाले हों तो उन्हें आवाज देके बुला ले। वो और भैया दोपहर को ही खायंगे।


मैं गुड्डी को घूर के देख रहां था और वो मुस्करा रही थी।

भाभी ऊपर गयीं और रंजी अंदर आई।
" आज चलो तुम महारानी की तरह बैठो , हम दोनों लोग तुम्हे सर्व करेंगे " और पकड़ कर जबरदस्ती गुड्डी को डाइनिंग टेबल पे बिठा दिया।

किचेन में घुसते ही उसने परेशान होके , फुसफुसा के पूछा ,

" कैसी है , कुछ दवा "

और बिना बोले मैंने स्मार्ट फोन से खींची उसकी फोटो रंजी के सामने रख दी।

रंजी चेहरा राख हो गया।

" डाक्टर को दिखाया था ,उसने चेक भी किया। बैंडेज टाइम पे लग गयी थी इसलिए , .... लेकिन अभी भी ,.... चलते हुए किसी हॉस्पिटल में दो इंजेक्शन लगवाने होंगे। दर्द उसको है। डाक्टर ने दायें हाथ से शाम तक कुछ भी करने से मना किया है। शायद हल्का सा स्कार रह जाए , लेकिन उसकी भी क्रीम लगाने से १०-१५ दिन में चला जाएगा। हिम्मत है उसमें। "

रंजी ने बिना बोले सर हिलाया , जैसे कह रही हो मुझसे कह रहे हो , तुमसे कम मैं नहीं जानती उसको।

बिना बोले हम दोनों ने टेबल लगाई।
और जैसे ही गुड्डी ने खाने के लिए हाथ बढ़ाया , रंजी ने झपट के उसे रोक दिया ,

" ये ६ फिट का मर्द तुझे दिया है तो क्या इसी लिए " और मुझे डाँट पड़ गयी
' चल अपने हाथ से खिला इसे '
और मैंने जैसे ही चम्मच उठायी , गुड्डी ने जिद्दी बच्चों की तरह दायें बाएं जोर जोर से सर हिलाया , नहीं नहीं की मुद्रा में और बोला उसके वकील रंजी ने।

तुझे इतना मालूम नहीं , तहरी चम्मच से नहीं हाथ से खायी जाती है , चल हाथ से खिला।

गरम बहुत हैं मैंने कहने की कोशिश की लेकिन उसके साथ ही रंजी ने हल भी बता दिया , अरे चल बनारस में बर्नाल लगवा दूंगीं।

और मैंने हाथ से जैसे खिलाया , गुड्डी रंजी दोनों ही मुस्कराने लगी , आज गुड्डी की ओर से सारे तीर रंजी चला रही थी।

" कोहबर में क्या चम्मच से खिलाओगे उसको , वहां तो आगे बढ़के , सास साली सलहज होंगी न यहाँ बिचारी अकेली है न। ये कत्तई अकेली नहीं है मैं हूँ न इसके साथ। "

रंजी और मैं दोनों माहौल को नार्मल बनाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन तूफान हम दोनों के मन से गुजर रहा था।


और कितना खतरा उठाया था गुड्डी ने , ये सिर्फ मैं जानता था।

अगर वह चाकू सिर्फ दो ढाई इंच और ,.... सीधे छाती में पैबस्त होता और फिर ,…सोचना भी असंभव था।

किस्मत थी की ग्लाक के रिक्वॉयल ने गुड्डी को तेजी से झटक दिया , फिर अँधेरा भी इतना ज्यादा था। असली बात थी , काशी के कोतवाल उसकी रक्षा कर रहे थे। और उसके बाद ,… कोई नर्व्स डैमेज्ड नहीं हुयी थी। लेकिन जो चोट थी दर्द भयानक हुआ होगा .



चल खुसरो घर आपने




किस्मत थी की ग्लाक के रिक्वॉयल ने गुड्डी को तेजी से झटक दिया , फिर अँधेरा भी इतना ज्यादा था। असली बात थी , काशी के कोतवाल उसकी रक्षा कर रहे थे। और उसके बाद ,… कोई नर्व्स डैमेज्ड नहीं हुयी थी। लेकिन जो चोट थी दर्द भयानक हुआ होगा .

गुड्डी ने इशारा किया और जल्दी जल्दी खिलाऊँ ,

मेरी उंगलिया उसके मुंह में थी की भाभी नीचे आ गयीं और उन्होंने देख लिया , मुस्कराहट आँचल में छिपाते गुड्डी से पुछा ,

' काटा की नहीं '

और जैसे अपनी होनेवाली जेठानी की आज्ञा मानना उसका परम धर्म हो , कचकचा के उसने मेरी उँगलियाँ काट लिया।

मैं चीखा।भाभी और रंजी जोर से हंस पड़े।

भाभी पूजा वाले कमरे में गयीं और वहीँ से मुझे और गुड्डी को बुला लिया।
सारे देवी देवताओं के सामने , वो खड़ी हो के पूजा कर रही थीं और मुझे और गुड्डी अपने बगल ठीक ऐसे खड़ा कर दिया , जैसे गाँठ जोड़ के खड़े हों।

हम लोगों से सर झुकवाया ,साथ साथ।
और पूजा की अलमारी से ही एक डिब्बा निकाला ,एक बड़ी पुरानी मटरमाला , खूब भारी। उसे अपने हाथ से उन्होंने गुड्डी को पहना दिया और सर पे सहलाते हुए बोला , ये इनकी दादी की निशानी है , जब मैं इस घर में आई थी तो मुझे मुंह दिखाई में दिया था। खूब खुश रहो। "

बाहर निकल के उन्होंने रंजी से पूछा , गाडी आई की नहीं , तो वो बोली

' कब की आ गयी और मैंने सारे सामान भी रख दिए "

चलने के पहले रंजी एक मेसज खोल कर बार बार देख रही थी ,मैंने और गुड्डी ने भी झाँक कर देखा।

वह गुड्डी के साथ ज्यादा देर नहीं रह पाएगी। एजेंसी का मेसज था , बनारस में दो दिन बाद ही उसे होटल ताज में रिपोर्ट करना था , जहाँ उसका बूट कैम्प था।

गुड्डी के पूछने के पहले ही वो बोल पड़ी
, 'लेकिन घबड़ाओ मत दो दिन तो अभी रहूंगी तुम्हारे साथ और उसके अलावा रंगपंचमी में भी , एक रात पहले ही आ जाउंगी।फिर रंगपंचमी का दिन रात , तेरे हवाले। '

करन का मेसेज भी जस्ट आया था उसके और रीत बारे में लेकिन मैंने सोचा बनारस पहुँच कर ही गुड्डी और दूबे भाभी दोनों को बताऊंगा। अभी मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी।

तब तक भाभी किचेन से निकल कर आयीं और हम लोग बाहर बरामदे में आ गए।
गुड्डी भाभी का पैर छूने के लिए झुकी लेकिन भाभी ने पकड़ के उठा लिया और अंकवार में भेंट लिया , खूब जोर से और उसके कान में बोली,

" बच्ची की तरह जा रही हो , दुल्हिन बन कर लौटोगी , और तब परछन कर उतारूंगी ".

पांच फूल लौंग भाभी ने गुड्डी के चारो ओर उतार कर के पीछे फ़ेंक दिए ,

मैंने गुड्डी का बायां हाथ पकड़ कर सम्हाल कर कार में बैठाया , और दूसरी ओर से रंजी। वो बीच में।


भाभी अशीष रही थीं ,

' कासी क कोतवाल , लहुराबीर वाले बीर बाबा , बड़ादेव क बड़देव बाबा , काली माई क चौरा क माई , रास्ते क देवता पित्तर , रच्छा करिहा इन लोगन क।

जब हम लोगों की टैक्सी मुड़ी , भाभी तब भी बरामदे में खड़ी अशीष रही थीं


और दो ढाई साल बाद ,....






.


.


रंजी



पैडर रोड के फ्लाईओवर से उतरते हुए , या बांद्रा सी लिंक से मुड़ने पर या फिर जब आप अँधेरी से इंटनेशनल एयर पोर्ट की ओर जाएंगे , तो बड़ी बड़ी होर्डिंग्स , खूब इल्युमिनिटेड , औरउनपर मशहूर , स्किनी जींस में लपटी दो लम्बी खूबसूरत टाँगे ,गाड़ियों की रफ्तार थोड़ी कम कर देती हैं।


जींन्स का नाम बताना तो गलत होगा , लेकिन उनके अंदर जो दिलफरेब टाँगे थी , वो रंजी की थीं।


और सिर्फ इन महंगी होर्डिंग्स पर ही नहीं , चमकते दमकते मॉल्स में उन जींस के जो स्टोर थे उनके बाहर भी , रंजी की आदमकद तस्वीर , खैर मकदम करती नजर आती थी। और इन टांगो पर चलकर रंजी काफी दूर चली आई थी।

लेकिन उन महंगे , स्किनी अल्ट्रा लो राइज जींस और टॉप के पीछे वही पारे की तरह चुलबुली , ताज़ी हवा की तरह , वही रंजी ही थी।

जिस जीन्स कंपनी के साथ उसने शुरुआत की थी , उसने तो बनारस की शूटिंग के बाद ही उसका कांट्रैक्ट एक साल के पक्का कर दिया। अप्रैल में उसकी एक और शूट कोडाइकनाल में हुयी। और फिर उसकी एक महीने की छुट्टी मिली , १२ मई से। और सारे मॉडलिंग विज्ञापन , २१ जून को लांच होना था। इसलिए जब वो गुड्डी की शादी में थी तो उसके ऐड्स , कहीं छपे नही थे।

लेकिन एक बार कैम्पेन लांच होने के बाद उसने मुड़ के नहीं देखा। १५ % मार्केट पेन्ट्रेशन और २७ % विजिबिलिटी , के बाद छ महीने के अंदर ही कांट्रैक्ट का पीरियड बढ़ के दो साल हो गया और शर्तें भी कुछ मुलायम हो गयीं।


और फिर वो मुम्बई चली आई।


अपरैल के साथ कॉस्मेटिक्स ,हेयर केयर ऐसे सिग्मेंट में भी उसने एंट्री ले ली। एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने उससे एक्सक्ल्यसिव कांट्रेक्ट नेल्स और लिपस्टिक के लिए कर लिया।

लेकिन फैशन इंडस्ट्री बहुत ही क्लोज सर्किल है और यहाँ घुसपैठ करना मुश्किल भी है और समझौते की मांग करता है , जिसे करने से रंजी को मंजूर नहीं था , इसलिए स्ट्रगलकुछ ज्यादा पड़ा।


लेकिन क्योंकि शुरुआत उसने एक मल्टीनेशनल कम्पनी के ब्रांड के साथ की थी इसका उसे फायदा भी हुआ। और सबसे बड़ी उसकी किस्मत चमकी , जब उसे फ्लोरेंस फैशन वीक में एक ब्रेक मिल गया। लेकिन वो बात कुछ आगे।

मुम्बई में लोखंडवाला में एक उसने दो बी एच के फ्लैट लिया था और वहां उसके साथ रहने के लिए एक कोई आगया।

गलत मत समझिए , वो मीनल थी , जिसे थियेटर का भी शौक था और फाइन आर्ट्स से तो उसने पढ़ाई ही की थी। और अब बड़ौदा से मुम्बई पहुँच गयी थी।

थोड़ा बहुत पेंटिंग भी वो कर लेती थी और वहीँ से वो शौक लगा रंजी को भी। कुछ ही दिनों में एक कमरा स्टूडियो में तब्दील हो गया और बेड रूम मीनल , रंजी कॉमन होगया।

और महीने में १०-१२ दिन जब रंजी फोटो शूट से फ्री होती थी तो वो मीनल के साथ कभी पृथ्वी थियेटर, कभी एन सीपीए तो कभी जहांगीर आर्ट गैलरी में।

और रंजी जो कभी सोच भी नहीं सकती थी वो एकदिन हो गया।

उसकी भी ८ पेंटिंग कुछ और आर्टिस्ट्स के साथ जहांगीर आर्ट गैलरी में लगी।

उसकी इंक और पेन स्केचेज जो कुछ तो बॉम्बे की स्ट्रीट लाइफ के बारे में थे ,कुछ बेहरामपाड़ा की , बांद्रा के पास की एक बस्ती जहाँ मीनल कुछ एन जी ओ , मज़लिस और आगाज के साथ काम करती थी।

और एक इतालवी दर्शक को वो पेंटिंग्स बहुत पसंद आ गयीं और फिर वो और रंजी बाद में समोवार में बैठ कर गप्प मारते रहे ,अचानक उसने पूछाः की आप माडिलिंग में क्यों नहीं काम करती , लेकिन रंजी फिस्स से मुस्करा के रह दी। उसे विक्टोरियन गोथिक में भी बहुत दिलचस्पी थी और रंजी को भी हेरिटेज वाक में और रंजी ने उसे न सिर्फ साउथ बॉम्बे में घुमाया बल्कि उसे राजाबाई टावर के ऊपर तक ले गयी और दोनों ने सेल्फी भी खींची। पर रास्ते में एक बुक शाप में एक फॉरेन मैगजीन में लोरियल के विज्ञापन में उसे रंजी दिख गयी , वो कुछ बोला नहीं बस मुस्करा दिया।


और अपने पत्ते उसने टावर के उपर खोले ,वो फ्लोरेंस और मिलान के फैशन शो से जुड़ा हुआ था न उसने सिर्फ रंजी को इन्वाइट किया , बल्कि १५ दिन बाद एक फैशन कैटलॉग में रंजी की फोटो आगयी और साथ ही १२ दिन का एक ऑफर भी टिकट के साथ दोनों फैशन फेस्टिवल के लिए मिल गया।

और उसके बाद रंजी ने मुड के नहीं देखा। १२ दिन के बाद फिर वहां से जेनेवा, और पेरिस, जहाँ वह जिस कॉस्मेटिक कंपनी के लिए काम करती थी उसने एक शूट के लिए ऑफर दिया था। और वहीँ एक फेमस फैशन डिजाइनर जो बहुत रिक्लयूज थे उनसे मुलाकात हो गयी और अपनी एक लाइन के लिए उन्होंने चुन लिया।


फिर क्या था जैसे कहते हैं आग लगा दी बस वही।

उसी के आस पास उस ने स्पोर्ट्स वियर में भी काम करना शुरू कर दिया था। वह खुद एथलेटिक थी और पिछले मुम्बई मैराथन में उसने और मीनल ने हाफ मैराथन में बहुत अच्छी टाइमिंग की थी और अबकी दोनों फुल मैराथन की तैयारी कर रही थीं और हाफ मैराथन में ही उसे दो स्पोर्ट्स कम्पनीज ने स्पांसर कर दिया था। \\

और इन्ही में से एक के कॉन्टैक्ट्स से पेरिस में वो स्पोर्ट्स इलेस्ट्रेटेड के शूट में भी शामिल हुयी। आने वाले ऐनुअल इशू में वो कवर पर तो नहीं थी न लेकिन मैगजीन में उसे जगह मिल गयी थी।

इनर वियर में भी वो सिर्फ टीन सिग्मेंट में काम करती थी , और वो भी कुछ हाई एंड ब्रांड्स के साथ , जो एक्सक्ल्यूिसव शो रूम में थे।


टीवी पर भी उस के कॉस्मेटिक के ऐड्स ज्यादार इंग्लिश वाले चॅनेल्स पर वो भी लाइफस्टाइल वालों पर आते थे।


इस एक्स्क्लूसिविटी का उसे फायदा था , वो शहर में आराम से घूम फिर सकती थी और उसे पहचानने वाले कम थे। हाई एंड के चक्कर में नेट्वर्किंग,जो मॉडलिंग की दुनिया में बहुत जरूरी है ,भी उसकी बहुत लिमिटेड थी और वो भी सोबो या बांद्रा तक। और हाई एंड होने के कारण कम काम में भी उसे काफी मिल जाता था।


मुम्बई में भी कोई भी आये स्ट्रगल बहुत होती है लेकिन उसमें उसे दो लोगों से बहुत हेल्प मिली , एक तो एन पी ( नो प्राबलम सर ) से जिसने उसके मुम्बई पहुंचते ही लोकल गार्जियन बनने का जिम्मा ले लिया था , मकान से लेकर हर मामले में और दूसरे ए टी एस के चीफ जो अब प्रमोट होकर एक गलियारे में कर दिए गए थे डी जी हाउसिंग के तौर पर लेकिन मुम्बई पुलिस के हर सेक्शन में उनकी अभी भी बहोत इज्जत थी।


जैसे फैंटम का एक स्वस्तिक का निशान जहाँ लगा होता था वो फैंटम के प्रोटेक्शन में होता था और रंजी के दरवाजे पर तो दो दो स्वस्तिक के निशान लगे थे। उस के साथ महीने में एक एक बार डिनर के लिए रंजी और मीनल का वहां जाना कम्पलसरी था। उसके साथ मुम्बई छोड़ते समय रंजी दोनों लोगों को बता के ही जाती थी।

मीनल और रंजी दोनों , अगर रंजी का शूट नहीं है तो वो मीनल के साथ होगी किसी प्ले का रिहर्सल वाच करती और अगर मीनल फ्री होगी तो रंजी के शूट पर होगी।


लेकिन रंजी की अभी मुम्बई की बारिश से दोस्ती नहीं हो पायी है। और उस समय काम भी कुछ ज्यादा नहीं होता वहां , इसलिए १०-१२ वो बाहर घूमने निकल जाती है और २० -२५ दिन गुड्डी के पास। अगर आनंद बाबू कहीं बिजी भी होते तो दोनों कम से कम १५ दिन के लिए गुड्डी के गाँव , जहाँ न उसके एइड्स दिखते न होर्डिंग और वो सिर्फ गुड्डी बिन्नो की ननद रहती। झूला , अमराई ,कजरी , मेंहदी और ,छेड़छाड़ और ,… फुल टाइम मस्ती।



गुड्डी और आनंद बाबू





आनंद बाबू का प्रमोशन हो गया था कुछ महीने पहले और वो वहीँ बनारस में सिटी एस पी बन गए थे। वह दनदनाते हुए अपनी कप्तानी कर रहे थे। जनता में उनकी इज्जत थी और गुंडों में दहशत।

ढाई साल से बम क्या कोई पटाखा भी नहीं फूटा था शहर में। वह आफिस में कम नजर आते थे और सड़को पर ज्यादा. बात कम करते थे और मारते थे ज्यादा। शहर में सारे बदमाशों की सिट्टी पिट्टी गुम थी।

लेकिन आनंद बाबू की भी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी दो जगह , एक तो औरंगाबाद के एक मकान में और दूसरे बी एच यू के महिला कालेज में। महिला कालेज में गुड्डी पढ़ती थी अब , और वहां की उसकी सारी सहेलियों के आगे उनकी जुबान बंद हो जाती थी और उससे भी बुरी हालत थी उनकी ससुराल की। औरंगाबाद में सास और दो छोटी सालियां छुटकी और मझली ( जो अब इत्ती छोटी भी नहीं थी ) . शुरू में कुछ दिन तो शादी के बाद जब तक आनंद की ट्रेनिंग चली , वो कई महीने वहीँ रहे , लेकिन पोस्टिंग के बाद बड़ी मुश्किल से उन्हें इजाजत मिली सरकारी बंगले में शिफ्ट होने की , इस शर्त के साथ वो हर वीकेंड , और हर तीज त्यौहार वहीँ मनायेगें।

वैसे भी छुटकी मझली का स्कूल उन के घर के बगल में ही था तो कई बार वो सीधे स्कूल से छोटे कप्तान साहब के घर में ,

और वैसे भी औरंगाबाद वाले घर के अलावा उस घर पे भी पूरा हुक्म उनके सास का ही चलता था। और छोटे कप्तान साहब को भी आराम था वो 'आज खाने में क्या बनेगा ' और ' घर में कोई सब्जी नहीं है ' की चिखचीख से बचे रहते थे और अपना पूरा समय दुष्ट दमन के कार्यक्रम में देते थे।

बड़े माफिया टाइप गुंडे तो उन के आने के २-४ महीने में शहर क्या प्रदेश छोड़ कर चले गए थे जब उन्होंने एक हफ्ते के अंदर ,पांच माफिया ह्रदय सम्राट टाइप लोगों की इहलीला समाप्त कर दी ,और उस आपरेशन में सिर्फ सिद्द्की ही उनका राजदार था , और वो उन्होंने तब किया जब प्रदेश के मुख्यमंत्री ,१२ दिन के विदेश के दौरे पर गए थे और जिले के प्रभारी मंत्री अपनी पत्नी के साथ चारो धाम की यात्रा पर निकल गए थे , क्योंकि किसी नर्स के साथ उनका एमएमस और सीडी बनने की खबर अ रही थी और उसको विपक्ष अगले सत्र में बड़े धूमधाम के साथ सदन के पटल पर पेश करना चाहता था। लेकिन आनंद बाबू ने न सिर्फ वह सीडी जब्त कर उनको अपने दूत के द्वारा प्रेषित कर दी , बल्कि एम एम एस और सीडी को समूल नष्ट कर दिया और बनाने वाली की भी चार पांच एम एम एस पकड़ ली।


पिछले गणत्रंत्र दिवस पर उन्हें राष्ट्रपति का पुलिस मेडल भी मिला।

लेकिन यह बहुत कुछ उनके उस कंट्रीब्यूशन का नतीजा था जिसमें आतकंवादी हमले की बखिया उधेड़ी गयी थी। वह एक कवर्ट आपरेशन था इसलिए इसके लिए तो उन्हें अवार्ड मिल नहीं सकता था , हाँ होम मिनिस्ट्री की रिकमंडेशन बहुत स्ट्रांग थी इसलिए जो पुलिस मेडल दस बारह साल के बाद मिलता वो इनको एक संक्षिप्त सेवा के बाद ही मिलगया।

लेकिन होम मिनिस्ट्री ने एक काम किया जो ज्यादा अच्छा था , उन्हें सपत्नीक , अक्टूबर में तीन हफ्ते की ट्रेनिंग के लिए स्विट्जलैंड भेज दिया गया। जो हनीमून ज्यादा था।

 हां तो जहाँ कहानी छोड़ी थी उसके बाद के महत्वपपूर्ण पायदान , … रंगपंचमी में वो बनारस नहीं रह पाये क्योंकि उस के पहले वाली शाम को अचानक उन्हें दिल्ली बुला लिया गया। लेकिन उसके पहले दो दिन पूरे उन्होंने रंजी और गुड्डी के साथ बनारस में बिताये। हाँ रंगपंचमी की मस्ती बनारस में कुछ कम नहीं हुयी क्योंकि रंजी थी न वहां , रंगपंचमी केएक दिन पहले वो आगयी थी गुड्डी के घर और उस रात , रंगपंचमी के दिन।

भाभी का फरमान आया और वो अप्रैल में फिर पेश हुए बनारस में , और बनारसी स्टाइल में इंगेजमेंट भी हुआ। दो दिन के लिए आये लेकिन गए साढ़े तीन दिन बाद।

१७ मई को वो फील्ड ट्रेनिंग के लिए बनारस आ गए और फिर दो दिन बाद वो अपने शहर और गुड्डी अपने गाँव , शादी की ढेर सारी रस्में , टिपकल देहात गाँव की लेकिन भाभी का हुकुम तो , बारात २५ मई की सुबह ही रवाना हो गयी , और दोपहर का खाना सीधे गुड्डी के गाँव में , बारात वहीँ रुकी आम के बड़े और गझिन बाग़ में। लेकिन जैसा की पहले कहानी में बार बार शीला भाभी ने , गुड्डी ने संकेत दिया था की आनंद जी के मायकेवालियों के साथ क्या होनेवाला है , कोहबर में क्या होनेवाला है ,वैसा कुछ भी नहीं हुआ।






उससे बहुत बहुत ज्यादा हुआ , लेकिन सबने खुल कर मजा लिया।


२७ मई को बारात लौटी और रात को , जो होता है वो सब हुआ।


जून के खत्म होने के पहले गुड्डी अपने मायके ,उसका कालेज खुलने वाला था ,और आनदं जी की फील्ड ट्रेनिंग इसलिए वो भी बनारस।


देश की आबादी ,खासतौर से बनारस की वैसे ही पहले से काफी बढ़ी हुयी है , इसलिए न तो उसकी जल्दी गुड्डी को थी और न आनंद को। अभी पांच साल का इंटरवल प्लान हुआ था उसके बाद ही उसपर कोई फाइनल डिसीजन होता। बनारस में ही पोस्टिंग होने से गुड्डी की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नही हुयी न आनंद से दूर रहना पड़ा। और अगर कभी वो दो तीन घंटे के लिए भी कभी अपने मायके गयी या किसी सहेली के यहाँ ,तीन घंटा पूरा होने के पहले आनंद वहां हाजिर। गुड्डी को देख कर लोग कहते ,पतंग आ गयी है , बस डोर पीछे पीछे आती होगी।

रंजी का फोन भी दूसरे तीसरे जरूर आता था। और साल में २०-२५ दिन के लिए वो गुड्डी के पास ही ,।

सब लोग खुश थे सिवाय गुंडों के। 


दास्तान तीन शहरों की


मुम्बई ,




ये कहानी जितनी इस कहानी के पात्रों की है उससे कहीं ज्यादा उन शहरों की भी है जिनके तन आतंक के घाव से छलनी हो चुके थे , लोग सुबह निकलते थे पर शाम की कोई गारंटी नहीं थी। कहीं भी ,… कुछ भी ,… तो चलिए शुरू करते हैं इस कहानी की आखिरी लड़ाई जहाँ हुयी , मुम्बई से।

मुम्बई , बम्बई या बॉम्बे। नाम शायद १९९६ में बदला लेकिन यह वह दशक था , जिसने बहुत कुछ बदल कर रख दिया , और सबसे बढ़ कर मुम्बई का एक कॉस्मोपॉलिटन चरित्र।

लेकिन चलिए शुरू से , मुम्बई या बंबई कोई बहुत पुराना शहर नहीं। जेराल्ड आँजियर जिन्हे सच्चे मायनों में मुम्बई के फाउंडर का नाम दिया जा सकता है जब यहाँ के गवर्नर बने (१६७२ -१६७५ ) तो यहाँ की अाबादी मात्र १०,००० थी जितने लोग आज शायद चार पांच लोकल ट्रेनों में समा जाते हों।

आँजियर की मृत्य के समय तक यह बढकर ८०,००० यानी आठ गुना बढ़ गयी। यहाँ से होने आमदनी उनके पहले २,८२३ ब्रिटिश पाउंड थी जो बढ़कर ९,२५४ पाउंड हो गयी। जादू जो उन्होंने चलाया वो था धार्मिक सहिष्णुता , और अच्छे प्रशासन की गारंटी। उन्होंने दावत दिया हर जाती ,धर्म के लोगों को बॉम्बे में आकर बसने के लिए और उन्हें बाकायदा गारंटी दी गयी को वह अपना रीत रिवाज , धर्म ,तौर तरीके फॉलो कर सकते हैं और इन नए बसने वालों पर एक लम्बे अरसे तक कोई टैक्स नहीं लगेगा।

फिर बॉम्बे ( उस समय के लिए बॉम्बे ही कहना ठीक होगा ) ने फिर मुड़ कर नहीं देखा।

सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं हिन्दुस्तान से बाहर से आके बसे , कोई भी ऐसी जाति धर्म के लोग नहीं होंगे जिन्होंने इसको बढ़ाने में काम नहीं किया। बगदादी यहूदी , ( डेविड सासून ,जैकब सासून - सासून डॉक्स ,सासून लाइब्रेरी ,काला घोडा ),पारसी , ( जमशेद जी टाटा , सर जमशेद जी जीजाभाय ,रेडिमनी अनगिनत नाम है ), गुजराती व्यापारी ( प्रेमचंद रायचंद - राजबाई टावर , बॉम्बे शता एक्सचेंज के फाउंडर ) आर्मेनियन , दाउदी बोहरा, … और उसके बाद १९ शताब्दी के उत्तरार्ध में जब सर बार्टल फ्रेयरे ने फोर्ट की दीवालें तुड़वा दीं( १८६२) , तो एक बार फिर तेजी से उसका विकास हुआ। अगर आप कभी सी इस टी एम स्टेशन जो यूनेस्को का वर्ड हेरिटेज भी है , को देखें तो भित्ति मूर्तियों में गढ़ित ,तरह तरह की पगड़ियाँ इस बात का अहसास दिलातीं है की कितने तरह के लोग यहाँ आकर काम करते थे।

कांग्रेस,क्रिकेट ,सिनेमा , टेक्सटाइल्स इंडस्ट्री , ये सब १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बॉम्बे से ही शुरू हुए। और उस का एक बहुत बड़ा कारण कॉस्मोपॉलिटन कल्चर है।

लेकिन शताब्दी का आखिरी दशक , हमेशा घातक रहा है मुंबई के लिए। उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में दंगे हुए १८९२ में और उसके कुछ दिन बाद १८९६ में प्लेग जिसमें हजारो लोग मरे. १८९१ में बॉम्बे की आबादी, ८,२०,००० थी और १९०१ में यह घटकर ,७,८०,००० रह गयी। यह पहला दशक था जब निगेटिव ग्रोथ हुयी। १९९२-९३ में दंगों की दहशत से मुम्बई जूझता रहा और इन दंगों में करीब २६५० लोग मरे ,और मुम्बई अभी उसके घावों से उबरी भी नहीं थी की बम्ब ब्लास्ट्स ने पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लिया। १३ बम के धमाके हुए १२ मार्च को जिसमें ३५० लोग मरे और हजार से ऊपर घायल हुए। और उसके बाद तो जैसे ग्रह लग गया हो , २००६ ,२००८।



अब बम्बई से बम का भय जाता रहा लेकिन इस लिए हो पाया की हर आम आदमी भी इस लड़ाई में जुड़ा।


ये लड़ाई दिखती नहीं जैसे करन और रीत ने जिस जंग में हिस्सा लिया , उसके बारे में मीडया को कानोकान खबर नहीं हुयी लेकिन एक बड़ा हमला मुम्बई पे न सिर्फ नाकाम रहा बल्कि कितने स्लीपर सेल्स का पर्दाफाश हुआ।

एंटी टेरर जंग की सक्सेस इसी बात में है कित्ते टेरर आपरेशन लांच होने के बाद खत्म कर दिए गए या लांच नहीं हो पाये। और कुछ दिन बाद उन टेरर आपरेशन की कास्ट इतनी ज्यादा हो जाती है की वो काउंटर प्रोडक्टिव हो जाते हैं। और अगर एंटी टेरर आपरेशन के साथ जहाँ से वो मुहीम चल रही है वहां घुस के मार के कोई आ जाए , और जो उनको अंदरुनी सपोर्ट मिलता है वो खत्म हो जाए तो बस , और मुंबई बस अब इसी दौर से गुजर रहा है और ये दौर खूब लम्बा चले, बस।  


बड़ौदा


बड़ौदा ने आतंकी हमलों की मार नही झेली लेकिन दंगो के घाव उसके भी जिस्म पर हैं। और ये बात नहीं है की वहां हमले की कोशिश नहीं हुयी। जैसे इस कहानी में है बड़ौदा एक अट्रैक्टिव टारगेट है , एक बड़ा इंडस्ट्रयल सेंटर है ,पेट्रोकेमिकल हब होने के साथ ही बड़ी कंपनियों का सेंटर है , लेकिन जब गुजरात में कई बार कई जगहों पर हमले हुए तो भी बड़ौदा बचा रहा और अभी भी ,… और ये सिक्योरटी एजेंसीज की सतर्कता के साथ वहां के लोगों की भी क्रेडिट है। और बड़ौदा की एक सांस्कृतिक नगरी के रूप में भी पहचान है। जहाँ नृत्य , कला , नाट्य , मूर्ती कला , सब कुछ , …रवि वर्मा ने वहीँ अपनी अमर कृत्यों का सृजन किया वहीँ आज कल के ज़माने में गुलाम शेख ने इस शहर का नाम पेंटिंग से जोड़े रखा। मीनल इसी मिजाज की प्रतिनिधि है जिसके नाटकों ने अभी मुंबई में धूम मचा रखी है.


बनारस







बम की आवाज अभी भी बनारस में गूंजती , लेकिन भगवान आशुतोष के जयकारे के रूप में।

बम बम भोले के रूप में।

लेकिन इस शताब्दी के दशक में जो कुछ हुआ , संकटमोचन , शिवगंगा ट्रेन , कैंट स्टेशन , शीतला घाट ,


बहुत लोगों ने बहुत कुछ खोया , और रीत और और करन ऐसे कितने थे , जिनके हाथ में सिर्फ मुट्ठी भर यादें बची थीं , लेकिन फिर एक दूसरे का हाथ पकड़ वो फिर खड़े हुए , उठे और चलना शुरू कर दिया।


ये वो शहर भी है जो गंगा जमनी तहजीब का नमूना है जहाँ सोनारपुरा के बुनकर की बनायीं साड़ियों के बिना किसी दुल्हन की शादी पूरी नहीं होती , जहाँ की हवा में मंदिर के सामने बजाई गयी बिस्मिलाह खां की शहनाई अभी भी घुली हुयी है।

यहाँ शताब्दियों को तो छोड़िये , सहस्त्राब्दियाँ साथ गुजर बसर करती हैं।

पिछले सालों से फिर वो अपन चैन कायम है , बस हम मनाते है की फिर किसी रीत , फिर किसी करन के सपने ऐसे लहूलुहान और चोटिल न हों।



और अंत में उस शहर के नाम जहाँ से ये दास्ताँ शुरू हुयी , जहाँ से तमाम पोशीदा राज खुले और जिसकी मस्ती से हर कोई सराबोर होना चाहता है ,


और अंत में उस शहर के नाम जहाँ से ये दास्ताँ शुरू हुयी , जहाँ से तमाम पोशीदा राज खुले और जिसकी मस्ती से हर कोई सराबोर होना चाहता है ,

एक कविता -

















इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्*वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्*थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्*यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्*थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्*थंभ (स्तम्भ)
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्*य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
 
एक शहर और ,…





इन तीन शहरों के अलावा भी एक और शहर का जिक्र इस कहानी में बार बार आया है ,आड़े तिरछे ही सही।

वो आनंद बाबू का शहर , जहाँ बैठ कर दूर लड़ रही , रीत को , एन पी को और तमाम लोगो को आंनद ने न सिर्फ हौसला दिया , बल्कि उस उलझी हुयी गुत्थी को सुलझाया और रास्ता सुझाया ,उस जंगली जानवर के दांत तोड़ने का।

पूर्वांचल के अनेक शहरों की तरह जिसका दर्द ,दुःख समझने की न तो किसी को फुरसत है , न ,…

एक दो सुधी पाठको को छोड़ कर ( जो इस कहानी का अभिन्न अंग रहे ) शायद कम को अंदाज लगा हो नाम का , लेकिन अब वो भी चाहता है उस का शुमार हो ही जाय।


यह वह शहर है जिसने बम के धमाके तो नहीं झेले लेकिन उस की आग ने उसका मुंह झुलसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।


हर मिडिया कर्मी के लिए चीजों को सफेद स्याह ( स्याह ज्यादा ) और बीच के ग्रे के शेड्स को भूलाकर देखना और दिखाना , ( और टी आर पी ) बटोरना ,बस रिमोट की लड़ाई में सबसे सुलभ होता है।


एक छोटे से स्टेशन के अंत में लगे नाम पट्ट के साथ खड़े होकर ,… मैं,.... बोल रही हूँ। और यह शहर अब आतंकगढ़ के नाम से जाना जाता है , आइये मिलते हैं यहाँ के लोगों से, … और मेरे साथ हैं कैमरामैन ,…


ट्रेन में चलते हुए किसी सहयात्री ने पुछ लिया आप कहाँ के हैं और अगर आप ने बता दिया , तो पट्ट से जवाब मिलता है , अच्छा अबू सालेम जहाँ का है और साथ में एक व्यंग भरी , जुगुप्सा मिश्रित मुस्कान , उनके पढ़े लिखे होने का सबूत देती।

और अगर आप ने कहीं गलती से जवाब दे दिया , जी नहीं जहाँ के अल्लामा मरहूम शिबली नोमानी थे ,

तो उसका कुछ फरक नही पडेगा , और वो बाहर देखता रहेगा।

आप शिबली से शम्शुरामान फारुकी तक का नाम गिना दें , अयोध्या सिह उपाध्याय 'हरिऔध और राहुल सांस्कृत्यायन की दुहाई दे दें , लेकिन वह मुस्कान मिट नहीं सकती।

एक अबु सलेम और किसी गाँव का नाम , भारी पड़ता है बिगेडियर मोहमद उस्मान की शहादत पर , जिन्होंने १९४७ में बजाय उस पार जाने के हिन्दुस्तान मेंरहना तय किया और जब उनके ३६ साल भी नहीं पूरे हुए थे वो नौशेरा का शेर , पाकिस्तान से जंग में १९४८ शहीद हुआ। और उस लड़ाई में जान देने वाले सबसे ऊँचे रैक के अधिकारी थे।

और यह ,सिर्फ एक शहर की किस्मत नहीं है , कित्तने शहरों के कित्तने हिस्से , एक छोटी सी डॉक्यूमेंट्री है आई एम फ्रॉम बहरामपाड़ा आप उसे देखें और रूबरू हो सकेंगे। 
 
और यह ,सिर्फ एक शहर की किस्मत नहीं है , कित्तने शहरों के कित्तने हिस्से , एक छोटी सी डॉक्यूमेंट्री है आई एम फ्रॉम बहरामपाड़ा आप उसे देखें और रूबरू हो सकेंगे।

और साथ में टी वी चैनेल वाले ये भी बताना नहीं भूलंगे की यहाँ के लोग पढने काम ढूंढने बाहर जाते हैं , कोई खास रोजगार का जरिया नहीं ,


लेकिन ये दर्द सिर्फ एक शहर का नहीं , शायद पूरे पूर्वांचल का है। और जमाने से है।मॉरीशस , फ़िजी ,गुयाना , पूर्वांचल के लोग गए , और शूगर केन प्लांटेशन से लेकर अनेक चीजें , उनकी मेहनत का नतीजा है।

वहां फैली क्रियोल , भोजपुरी ,चटनी संगीत यह सब उन्ही दिनों के चिन्ह है।


और उसके बाद अपने देश में भी , चाहे वह बंगाल की चटकल मिलें हो,

बम्बई ( अब मुम्बई ) और अहमदाबाद की टेक्सटाइल मिल्स

पंजाब के खेत ,

काम के लिए ,

और सिर्फ काम की तलाश में ही नहीं ,

इलाज के लिए बनारस ,लखनऊ ,दिल्ली जाते हैं।

पढने के लिए इलाहबाद , दिल्ली जाते हैं।

लेकिन कौन अपनी मर्जी से घर छोड़ कर काले कोस जाना चाहता है ?


उसी के चलते लोकगीतों में रेलिया बैरन हो गयी ,

और अभी भी हवाओं में ये आवाज गूँजती रहती है
,




भूख के मारे बिरहा बिसरिगै , बिसरिगै कजरी ,कबीर।

अब देख देख गोरी के जुबना,उठै न करेजवा में पीर।
 
 
 



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