FUN-MAZA-MASTI
फागुन के दिन चार--186
सुधी जन जिसे 69 के रूप में जानते हैं ,बस उसी रूप में।
69 मेरा फेवरिट नंबर है , गुड्डी का भी।
चाहे वो ऊपर हो मैं नीचे , या मैं नीचे
या मैं नीचे हूँ वो उपर। .
या दोनों साइड ,साइड हो ,
होंठों के काम में फरक नहीं पड़ता था , खुल कर रस लेने का।
और अभी मेरे ऊपर चढ़ी , गुड्डी , माउथ आरगन बजा रही थी। माउथ उसका ऑरगन मेरा।
उसके होंठ रगड़ते घिसटते ,सुपाड़े का स्वाद ले रहे थे और मस्ती से जंगबहादुर फूल कर कुप्पा।
कभी वो अपनी जीभ की टिप से पी होल को छेड़ देती तो कभी होंठों से दबा के चूस चूस के सुपाड़े से रस निकालने की कोशिश करती।
उसकी लम्बी पतली जादू भरी उँगलियाँ भी , लंड के बेस पे बांसुरी की तरह कभी दबातीं कभी छोड़तीं।
धीमे धीमे कर के ,आधे से ज्यादा जंगबहादुर , उसके मखमली मुंह में अपनी जगह बना चुके थे।
और गुड्डी कस कस के चूस चाट रही थी।
मेरे होंठों पर भी अब रसदान वही कर रही थी।
साकी हो तो ऐसी। मेरे होंठ खुले हुए थे , चिर प्यासे। और अंजुली की तरह खुली दियली के आकर की अधखुली उसकी योनि बिन मांगे रस बरस रहे थे मेरे होंठों के बीच।
जैसे फलों से लदा कोई वृक्ष , खुद झुककर अपने फल , किसी भूके थके पथिक को दे रहा हो।
जैसे अपने कुलों को तोड़कर कोई सरित सलिला , खुद उछल कर जल पिलाने को तत्पर हो , बस उसी तरह।
पता नहीं कित्ते देर तक हम दोनों चूसने चुसाने का मजा लेते रहे ,
लेकिन जंगबहादुर की असली मंजिल तो कहीं और थी , और गुड्डी से बढ़कर इसे कौन जानता था।
गुड्डी ने पलटा खाया ,कुछ मैंने भी कोशिश की
और बस पलभर में , मैं गुड्डी की खुली जाँघों के बीच था , उसकी लम्बी टाँगे मेरे कंधो पर मुस्कराते हुए आसन जमाये।
….
एक हाथ नवल नवेली के नूतन उभरे जोबन पे और दूसरा उसकी कटीली कातिल कमरिया पर ,
धक्के पर धक्का ,
लंड घचक्का , चूत फचक्का ,मार दे धक्का।
तीन चार धक्के के पूरी ताकत से लगाए धक्को के जोर से लंड राज अंदर। एकदम जड़ तक।
और अब मैंने बिना सूत भर निकाले , मूसल को गोल गोल घुमाना शुरू किया.
और लंड का बेस चूत से जोर जोर से रगड़ खाने लगा।
असर तुरंत हुआ , गुड्डी सिसकियाँ भर रही थी ,चूतड़ जोर जोर से पटक रही थी , मुझे भींच रही थी और अपने लम्बे नाख़ून मेरे कन्धों में इत्ते जोर से धंसा रही थी की खून छलक आया।
और अब मेरे दोनों हाथ उसके गोल गुदाज किशोर उभारों पे थे , कभी दबाता कभी मसलता रगड़ता।
मेरे होंठ भी कभी गुड्डी के होंठों को चूमते कभी उसके गुलाबी गालों को कचकचा के काटते और कभी उसकी चूंची पे मेरे दांत के निशान जोर से बनते तो गुड्डी चीख उठती।
और उसकी चीख के सुर ताल में ताल मिलाते , मैं लंड सुपाड़े तक निकाल , एक बारगी हचक के पूरी ताकत से पेल देता और जब सुपाड़ा बच्चेदानी से टकराता , उफ़्फ़ कैसे सिहर उठती वो , और साथ में सिसकियों के बीच जोर की चीख किसी कामोत्तेजक से कम काम नहीं करती।
कुछ ही देर में मुकाबला बराबर का शुरु हो गया , मेरे हर धक्के के जवाब में गुड्डी या तो चूतड़ उठा के नीचे से धक्का लगाती या अपनी संकरी कसी चूत में उसे दबोच लेती , और पूरी ताकत से भींचती।
कभी मैं उसकी दोनों चूंचियों को तो कभी चूतड़ को पकड़ के चोद रहा था।
अचानक मुझे जोश आया और मैंने अपने कंधो पर रखी उसकी टांगों को पकड़ कर उसे दुहर दिया और टांगो को क्रास कर दिया। अब उसकी कसी चूत , किसी कच्ची कली से भी ज्यादा संकरी , सटी सटी हो गयी और जब लंड दरेरता ,रगड़ता , घिसटता घुसता तो उसकी चीख कमरे से बाहर निकल कर फैल जाती।
एक बार फिर चाँद को किसी आवारा बादल ने ढक लिया था और एक बार फिर हल्का स्याही अँधेरा छा गया था , और उस अँधेरे में जब मेरे धक्के पे गुड्डी चीखती तो उस की चीख रुकने के पहले कभी मेरी उँगलियाँ ,उस के मस्ताये , पूरे बनारस को पागल बनाये निपल के कभी कान उमेठ देते तो कभी एक आध हाथ उसके चूतड़ पे जड़ देते ,और चीख रुकने के पहले दुबारा दुहरे जोर से निकल जाती।
लेकिन गुड्डी तो गुड्डी थी। बनारस के बने रस की।
अगला धक्का वो मारती नीचे से चूतड़ उछाल कर।
न उसे झड़ने की जल्दी थी न मैं जल्दी मैदान छोड़ने वाला था।
१०-१२ मिनट फूल स्पीड चुदाई के बाद हम दोनों ने फिर स्पीड , पोज और सुर ताल बदला।
और इसमें गुड्डी के मामा, मेरा मतलब चंदा मामा से है। उन्होंने बादलों को अपने आँगन से दूर भगा दिया और फिर चांदनी छिटकाने लगी।
पुरवाई भी तेज हो गयी और साथ में बाहर आम के पेड़ के बौरों , झरते अमलताश की महक उसे और मादक बना रही थी।
अब हम दोनों अगल बगल लेटे थे ,गुड्डी की एक टांग मेरे ऊपर और बित्ते भर के जंगबहादुर उसी तरह पैबस्त। एकदम जड़ तक।
बस मैं धीरे धीरे अपनी कमर हिला रहा था , और आधे लंड से उसे चोद रहा था।
मेरी होने वाली दुलहिनिया भी , मुस्कराते आँखे मींचे , हलके हलके धक्के लगा रही थी।
न उसे जल्दी थी ,न मुझे।
जैसे खिड़की से झिर झिर आती पुरवाई हम दोनों को झूला झुला रही हो , चांदनी की डोर हो।
हम दोनों एक दूसरे से बंधे ,गुथे और सिर्फ कमर हिल रही थी , झूले की पेंग के लिए।
झूले में पवन की आई बहार ,
नैनो में नया रंग लाइ बहार
प्यार छलके हो प्यार छलके।
ओ डोले मन मोरा सजना ,डोले मन मोरा
हो जी हो
ओ डोले मन मोरा सजना
चुनरिया बार बार ढलके
झूले में पवन की आई बहार ,
प्यार छलके हो प्यार छलके।
कभी हवा के तेज झोंको के साथ गुड्डी शरारत से जोर से पेंग मार देती तो जंगबहादुर पूरे अंदर घुस जाते और उस का जवाब में मैं भी पेंग बढ़ा देता।
चाँदनी सावन की झीनी झीनी रस बुँदियो की तरह हम दोनों की देह को भिगो रही थी।
भौजी झूला झूले , पेंग मारे, देह की कजरी गाये ,
और ननदिया दूर बैठी बैठी देखती रहे , ये कैसे हो सकता है।
घप्प से वो भी आगयी और रंजी मेरे पीछे लेट गयी , मुझे दबोच के।
उसकी अनावृत्त गोलाइयाँ मेरे पीठ से रगड़ रही थीं , और हम तीनो एकदम सटे सटे ,चिपके।
काली रात
रात का वह सबसे काला प्रहर था , आखिरी प्रहर।
प्रत्युषा अभी भी आँख मीचे दूर सो रही थी।
नभचर ,थलचर सब सो रहे थे , सिवाय उन शिकारी जानवरों के जिनकी क्षुधा शांत नहीं हुयी थी।
यह वह प्रहर था जब सब कुछ अघटित ,घटित होता है।
बाहर काले भीषण बादलों ने विधु की मुश्कें कस दी थीं, चांदनी घुट घुट,सिसक सिसक कर आखिरी साँसे ले रही थी।
आसमान में अन्धकार की काली स्याही पुती हुयी थी। डर कर तारों ने भी अपने मुंह छिपा लिए थे।
एकदम काला ठोस अँधेरा , घना, जहरीला।
हवा भी एकदम रुक गयी थी।
अमलताश , मंजरी से लदा आम , सब गुमसुम खड़े थे , सांस रोके।
अंदर ,अचानक पलंग के एक कोने पे लेटे मेरी आँख खुली।
दिल जोर जोर से धड़क रहा था , मन अचानक आशंकित हो उठा , मैंने आँखे खोलीं तो गुड्डी और रंजी नींद में दुबकी ,आश्वस्त सो रही थीं।
पर बाहर रात एकदम काली हो गयी थी।
कुछ था , कुछ गडबड था ,बस होने वाला था अगले ही पल ,जैसे दुष्काल कोबरा बन अँधेरे में फुफकार मार रहा हो और सिर्फ उसकी फुफकार की आवाज सुनाई
पड़ रही हो दिख कुछ न रहा हो बस वैसे ही।
मैंने चौकन्नी नज़रों से कमर के चारो ओर निगाह दौड़ाई। सब कुछ नार्मल था। धीमे से सरक कर मैं पलंग से नीचे उतरा , और एकदम फर्श से चिपट कर क्राल करते हुए छत पर।
पूरा अँधेरा था। हाथ को हाथ न सूझे ऐसा। घुप्प , काला ,दमघोंटू अँधेरा।
बस मुझे लग रहा था की कुछ गडबड है। बल्कि बहुत गड़बड़ है।
और उस काले अँधेरे में खतरा कहाँ से आ जाए पता नहीं।
मैं एकदम छत से चिपक कर , चारो ओर देखते हए क्राल कर रहा था। कुछ देर में ही आँखे अँधेरे की आदी हो गयीं थी और उस काले ठोस धुंधलके को भेद कर पढने की कोशिश कर रही थीं।
मैं आधा छत पार कर चुका था , और तभी बिजली चमकी।
और दामिनी ने मेरी सहायता कर दी।
छत से सटे हुए , आम की काली डाल के नीचे कोई था।
बहुत लम्बा लहीम शहीम ,तगड़ा और जैसे मैं अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहा था , वैसे ही वो कोशिश कर रहा था , लेकिन उसकी आँखे कमरे की खुली खिड़की में झाँकने कोशिश कर रही थीं। खिड़की से अंदर देखने की कोशिश कर रही थीं।
एक डार्क देह से चिपकी शर्ट , काली पेंट और चेहरे पे कैमोफ्लाज पेंट , कोई प्रोफेशनल अस्सेन , और जिस तरह से वो पीछे चिपक कर आम के पेड़ की परछाईं की आड़ लेकर खड़ा था अगर छत पे रौशनी भी होती तो उसको देखना बहुत मुश्किल थी।
गनीमत थी , बादलों ने अपनी पकड़ थोड़ी हलकी की और चांदनी की एक छोटी सी किरण अब छत के उस हिस्से पे पड़ रही थी।
मेरा दिल जोर जोर से धड़क रहा था।
वह जरूर हथियार से लैस होगा।
उसकी निगाह खिड़की से चिपकी थी और गनीमत थी की वो छत पर नहीं देख रहा था।
छत से चिपक कर रेंगते , मैं अब उससे करीब १०-१२ मीटर दूर रह गया था। दो कदम क्राल कर के मैं हलके से सर उठकर उसकी टोह लेता ,इस समय मेरे कान ही मेरी आँखे बन गए थे।
उस घने अँधेरे में उसका सिलयुहेट सिर्फ ग्रे के एक शेड की तरह था , और कभी सिर्फ बाहरी आउटलाइन दिखती और जब बादल हलके से हटते तो वो थोड़ा ज्यादा दिख जाता। मेरी सांसे रुकी हुयी थी और मेरा पूरा ध्यान बस उसी पर था। मैं इन्तजार कर रहा था उसकी अगली हरकत का. वह कमरे की ओर बढ़ेगा , या वही से कुछ ,
क्राल रोक कर मैं अब चुपचाप इन्तजार कर रहा था।
और वह भी इन्तजार कर रहा था।
चाँद की रोशनी थोड़ी सी बढ़ी और मेरा दिल दहल गया , उसके कमर में एक बेल्ट थी जिसमे ढेर सारे चाक़ू थे , अलग अलग साइज और शेप के। उसने फुर्ती से एक चाक़ू निकाल के हाथ में लेलिया था और उसे तौल रहा था। बिना गरदन मोड़ें एक पल उसने इधर उधर देखा , और फिर उसका हाथ हवा में उठा ,आँखे अभी भी खुली खिड़की से चिपकी थीं
और बिजली की तेजी से चाक़ू कमरे की ओर , हवा में तैरता हुआ ,
और मेरी सांस रुक गयी , कहीं कमरे में गुड्डी ,
और फिर कई चीजें एक साथ हुयी।
ग्लाक के चलने की आवाज हुयी , गोली की आवाज ने उस निस्तब्ध शान्ति को जैसे चीर कर रख दिया ,
मैंने सारी सावधानी की ऐसी की तैसी कर दी , और दौड़ते हुए सीधे उस पर हमला बोल दिया , मेरा सर ,हाथ घुटना सब उस हमले में मेरे साथ थे।
गोली उस के दायें कंधे में लगी थी और लग रहा की हड्डी ,लिगामेंट सब कुछ अपने साथ ले के गयी है। दायां हाथ बिलकुल बेकार हो गया है।
लेकिन उस से टकराने के पहले मैंने देखा , उसका ध्यान अभी भी खिड़की की ओर है , दर्द का कुछ भी असर उसके ऊपर नहीं हुआ और पलक झपकने के पहले , उसके बाएं हाथ ने दूसरा चाक़ू निकाल लिया था और हवा में उठा था।
और जिस समय मैं उससे टकराया ,शायद वो मेरी जिंदगी का आखिरी पल होता।
अपनी सारी ट्रेनिंग प्रैक्टिस मैंने उस समय लगा दी।
मैंने अपने अब तक के सारे गुस्से को अपने हमले में बदल दिया था। मेरी पूरी देह अस्त्र हो गयी थी मेरा सर गोली की तेजी से उसके पेट के ऊपरी भाग से टकराया , मेरा घुटना उसके दोनों पैरों के बीच फोकस था और मेरे सँडसी से हाथों ने उसके घायल हाथ को पकड़ के मोड़ दिया।
मैं यह नहीं कहूँगा की मेरा हमला पूरा बेकार हो गया लेकिन उसने बचने के साथ साथ काउंटर अटैक भी कर दिया। जैसे उसके ऊपर दर्द का असर ही न हो।
अपने घुटने से एक पिस्टन की तरह मेरी रिब्स पर उसने हमला किया लेकिन सबसे घातक बात यह थी की उसके बाए हाथ का चाक़ू अब बजाय खिड़की सीधे मेरी पूरी तरह एक्सपोज्ड गरदन की ओर आ रहा था।
सब कुछ जैसे स्लो मोशन में तब्दील हो गया था।
लेकिन गोली और मेरे हमले के साथ उसपर पीछे से भी हमला हुआ और वो दो लोग थे।
एक ने फांसी के फंदे से भी ज्यादा जोर की जकड से अपने हाथ को उसकी गरदन में फंसा रखा था और गैरोट की तरह वह ट्रेकिया को दबा रहा था। उसके दिमाग में खून पहुँचना तेजी से बंद हो रहा था और सांस भी।
और दूसरे ने चीते की तेजी से अपने दोनों हाथों से बाएं हाथ को जिसमें उसने चाक़ू पकड़ रखा था को पकड़ कर मरोड़ दिया और साथ ही अपने जूते से पीछे से उसके घुटने पर तेजी से वार किया।
यह सब लगभग एक साथ हुआ।
अब हम तीन थे ,गोली से उसका दायां हाथ बेकार हो चुका था लेकिन तब भी उसने मैदान नहीं छोड़ा।
उसका गला दबा हुआ था।
एक हाथ बेकार था , और दूसरा हाथ , जिसमें चाक़ू था , को दोनों हाथों से पकड़ के मरोड़ा जा रहा था , और दायें घुटने पे किक पड़ चुकी थी।
मेरे हेड बट्ट ने उसके पेट के अंदर जबरदस्त चोट पहुंचाई थी। इसके बावजूद वो पीछे हटने वाला नहीं था , हाँ अब हमले का फोकस मैं नहीं रह गया था। उसकी पहली प्रायरिटी गरदन छुड़ाने की थी और जबतक ये बात मैं समझ के काउंटर अटैक करूँ उसने जोर से अपने एड़ी से पीछे जिसने उसकी गर्दन दबा रखी थी ,उसके घुटने पे दे मारी। वो तो पीछे वाला अलर्ट था लेकिन तब भी गरदन पर पकड़ धीमी हो गयी।
वो दुबारा वही ट्रिक अपनाता , उसके पहले मैंने पूरी ताकत से अपने दोनों हाथों से उसके पैर को पकड़ के उठा लिया और एंकल पर से मोड़ने लगा।
अब बाजी उस के हाथ से फिसल रही थी।
बाएं हाथ की कलाई कड़कड़ा के टूट गयी और चाक़ू , छन्न की आवाज के नीचे गिर पड़ा और मेरी निगाह चाक़ू पे जा के पड़ी।
के का निशान
फागुन के दिन चार--186
रात मिलन की
सुधी जन जिसे 69 के रूप में जानते हैं ,बस उसी रूप में।
69 मेरा फेवरिट नंबर है , गुड्डी का भी।
चाहे वो ऊपर हो मैं नीचे , या मैं नीचे
या मैं नीचे हूँ वो उपर। .
या दोनों साइड ,साइड हो ,
होंठों के काम में फरक नहीं पड़ता था , खुल कर रस लेने का।
और अभी मेरे ऊपर चढ़ी , गुड्डी , माउथ आरगन बजा रही थी। माउथ उसका ऑरगन मेरा।
उसके होंठ रगड़ते घिसटते ,सुपाड़े का स्वाद ले रहे थे और मस्ती से जंगबहादुर फूल कर कुप्पा।
कभी वो अपनी जीभ की टिप से पी होल को छेड़ देती तो कभी होंठों से दबा के चूस चूस के सुपाड़े से रस निकालने की कोशिश करती।
उसकी लम्बी पतली जादू भरी उँगलियाँ भी , लंड के बेस पे बांसुरी की तरह कभी दबातीं कभी छोड़तीं।
धीमे धीमे कर के ,आधे से ज्यादा जंगबहादुर , उसके मखमली मुंह में अपनी जगह बना चुके थे।
और गुड्डी कस कस के चूस चाट रही थी।
मेरे होंठों पर भी अब रसदान वही कर रही थी।
साकी हो तो ऐसी। मेरे होंठ खुले हुए थे , चिर प्यासे। और अंजुली की तरह खुली दियली के आकर की अधखुली उसकी योनि बिन मांगे रस बरस रहे थे मेरे होंठों के बीच।
जैसे फलों से लदा कोई वृक्ष , खुद झुककर अपने फल , किसी भूके थके पथिक को दे रहा हो।
जैसे अपने कुलों को तोड़कर कोई सरित सलिला , खुद उछल कर जल पिलाने को तत्पर हो , बस उसी तरह।
पता नहीं कित्ते देर तक हम दोनों चूसने चुसाने का मजा लेते रहे ,
लेकिन जंगबहादुर की असली मंजिल तो कहीं और थी , और गुड्डी से बढ़कर इसे कौन जानता था।
गुड्डी ने पलटा खाया ,कुछ मैंने भी कोशिश की
और बस पलभर में , मैं गुड्डी की खुली जाँघों के बीच था , उसकी लम्बी टाँगे मेरे कंधो पर मुस्कराते हुए आसन जमाये।
….
एक हाथ नवल नवेली के नूतन उभरे जोबन पे और दूसरा उसकी कटीली कातिल कमरिया पर ,
धक्के पर धक्का ,
लंड घचक्का , चूत फचक्का ,मार दे धक्का।
तीन चार धक्के के पूरी ताकत से लगाए धक्को के जोर से लंड राज अंदर। एकदम जड़ तक।
और अब मैंने बिना सूत भर निकाले , मूसल को गोल गोल घुमाना शुरू किया.
और लंड का बेस चूत से जोर जोर से रगड़ खाने लगा।
असर तुरंत हुआ , गुड्डी सिसकियाँ भर रही थी ,चूतड़ जोर जोर से पटक रही थी , मुझे भींच रही थी और अपने लम्बे नाख़ून मेरे कन्धों में इत्ते जोर से धंसा रही थी की खून छलक आया।
और अब मेरे दोनों हाथ उसके गोल गुदाज किशोर उभारों पे थे , कभी दबाता कभी मसलता रगड़ता।
मेरे होंठ भी कभी गुड्डी के होंठों को चूमते कभी उसके गुलाबी गालों को कचकचा के काटते और कभी उसकी चूंची पे मेरे दांत के निशान जोर से बनते तो गुड्डी चीख उठती।
और उसकी चीख के सुर ताल में ताल मिलाते , मैं लंड सुपाड़े तक निकाल , एक बारगी हचक के पूरी ताकत से पेल देता और जब सुपाड़ा बच्चेदानी से टकराता , उफ़्फ़ कैसे सिहर उठती वो , और साथ में सिसकियों के बीच जोर की चीख किसी कामोत्तेजक से कम काम नहीं करती।
कुछ ही देर में मुकाबला बराबर का शुरु हो गया , मेरे हर धक्के के जवाब में गुड्डी या तो चूतड़ उठा के नीचे से धक्का लगाती या अपनी संकरी कसी चूत में उसे दबोच लेती , और पूरी ताकत से भींचती।
कभी मैं उसकी दोनों चूंचियों को तो कभी चूतड़ को पकड़ के चोद रहा था।
अचानक मुझे जोश आया और मैंने अपने कंधो पर रखी उसकी टांगों को पकड़ कर उसे दुहर दिया और टांगो को क्रास कर दिया। अब उसकी कसी चूत , किसी कच्ची कली से भी ज्यादा संकरी , सटी सटी हो गयी और जब लंड दरेरता ,रगड़ता , घिसटता घुसता तो उसकी चीख कमरे से बाहर निकल कर फैल जाती।
एक बार फिर चाँद को किसी आवारा बादल ने ढक लिया था और एक बार फिर हल्का स्याही अँधेरा छा गया था , और उस अँधेरे में जब मेरे धक्के पे गुड्डी चीखती तो उस की चीख रुकने के पहले कभी मेरी उँगलियाँ ,उस के मस्ताये , पूरे बनारस को पागल बनाये निपल के कभी कान उमेठ देते तो कभी एक आध हाथ उसके चूतड़ पे जड़ देते ,और चीख रुकने के पहले दुबारा दुहरे जोर से निकल जाती।
लेकिन गुड्डी तो गुड्डी थी। बनारस के बने रस की।
अगला धक्का वो मारती नीचे से चूतड़ उछाल कर।
न उसे झड़ने की जल्दी थी न मैं जल्दी मैदान छोड़ने वाला था।
१०-१२ मिनट फूल स्पीड चुदाई के बाद हम दोनों ने फिर स्पीड , पोज और सुर ताल बदला।
और इसमें गुड्डी के मामा, मेरा मतलब चंदा मामा से है। उन्होंने बादलों को अपने आँगन से दूर भगा दिया और फिर चांदनी छिटकाने लगी।
पुरवाई भी तेज हो गयी और साथ में बाहर आम के पेड़ के बौरों , झरते अमलताश की महक उसे और मादक बना रही थी।
अब हम दोनों अगल बगल लेटे थे ,गुड्डी की एक टांग मेरे ऊपर और बित्ते भर के जंगबहादुर उसी तरह पैबस्त। एकदम जड़ तक।
बस मैं धीरे धीरे अपनी कमर हिला रहा था , और आधे लंड से उसे चोद रहा था।
मेरी होने वाली दुलहिनिया भी , मुस्कराते आँखे मींचे , हलके हलके धक्के लगा रही थी।
न उसे जल्दी थी ,न मुझे।
जैसे खिड़की से झिर झिर आती पुरवाई हम दोनों को झूला झुला रही हो , चांदनी की डोर हो।
हम दोनों एक दूसरे से बंधे ,गुथे और सिर्फ कमर हिल रही थी , झूले की पेंग के लिए।
झूले में पवन की आई बहार ,
नैनो में नया रंग लाइ बहार
प्यार छलके हो प्यार छलके।
ओ डोले मन मोरा सजना ,डोले मन मोरा
हो जी हो
ओ डोले मन मोरा सजना
चुनरिया बार बार ढलके
झूले में पवन की आई बहार ,
प्यार छलके हो प्यार छलके।
कभी हवा के तेज झोंको के साथ गुड्डी शरारत से जोर से पेंग मार देती तो जंगबहादुर पूरे अंदर घुस जाते और उस का जवाब में मैं भी पेंग बढ़ा देता।
चाँदनी सावन की झीनी झीनी रस बुँदियो की तरह हम दोनों की देह को भिगो रही थी।
भौजी झूला झूले , पेंग मारे, देह की कजरी गाये ,
और ननदिया दूर बैठी बैठी देखती रहे , ये कैसे हो सकता है।
घप्प से वो भी आगयी और रंजी मेरे पीछे लेट गयी , मुझे दबोच के।
उसकी अनावृत्त गोलाइयाँ मेरे पीठ से रगड़ रही थीं , और हम तीनो एकदम सटे सटे ,चिपके।
अब पेंग मारने का काम वो दोनों कर रही थीं , एक ओर से भौजाई और दूसरी ओर से छुटकी ननदिया।
मैं दोनों के बीच में दबा जवानी का झूला झूल रहा था।
कभी धीमे , कभी तेज।
जब गुड्डी जोर से पेंग मारती अपने चूतड़ के जोर से ,
तो रंजी के चूतड़ तो उससे भी बीस थे , उसकी पेंग और तेजी से लगती।
फायदा जंगबहादुर को होता ,रगड़ते घिसते गुड्डी की प्रेम गली में वो और अंदर तक धंस जाते।
रंजी के हाथ गुड्डी की पीठ पर मेरे हाथों के साथ पहुंचे हुए थे और एक बार रात काली स्याही के रंग में रंग गयी थी।
आगे पीछे होते इस झूले के साथ कभी पहले की सुनी कजरियां ,मन में गुनगुना रही थीं , तन को गरमा रही थी और उकसा रही थीं।
झूलन गयो झुलवा अरे सैयां धरे अंचरा अरे मोरी सखियाँ।
भिजेला अंचरा हो मोरी सखिया।
अरे झूलन गयो झुलवा अरे सैयां धरे जुबना अरे मोरी सखियाँ।
…………।
पिया सावन में कजरी सुनाय द न अरे झुलवा झुलाय दा न।
एक के बाद एक,
और मैंने अपने को रंजी गुड्डी के हवाले कर दिया था।
दो दो सद्य जवान हुयी किशोरियों के उभार अगर एक साथ पीठ और सीने पे छेद रहे हो , मस्त जुबना रगड़ रगड़ के आग लगा रहे हों .
और आम के बौरों की घुली महक के साथ चैत की पुरवाई और तन मन की आग भड़का रही हो ,
बस रस बरस रहा था और मैं भीग रहा था।
चाँद भी अब आसमान के दूसरे कोने में पहुँच रहा था लेकिन अपना सफर पूरा करने के पहले , मुड़ मुड़ के हम तीनो को देख रहा था और उसकी टार्च की पूरी रौशनी हम पर पड़ रही थी।
पर हम तीनो के लिए तो समय , चाँद ,रात जैसे सब थम गयी थी , बल्कि थी ही नहीं।
कभी मंथर तो कभी तेज होती देह के झूले की ताल लय पर हम झूम रहे थे।
कब गुड्डी किनारे पे पहुंची , कब मैं झड़ा मुझे पता नहीं , हाँ ढेर सारी थक्केदार मलाई , हम दोनों की जाँघों पर फैल गयी थी इसका अहसास मुझे हुआ और उसी समय दूर कहीं साढ़े तीन बजे का घंटा बजा।
चाँद ने एक बार फिर मुंह मोड़ लिया और चलते चलते हम तीनो को रात की काली स्याही की चादर ओढ़ा गया।
मैं अभी भी पूरी तरह गुड्डी के अंदर धंसा था।
हम तीनो एक दूसरे से गुथे , लदे, चिपके ,थके सो गए।
खुली खिड़की से आती हवा अब हमें थपकी देके लोरी सुना रही थी।
मैं दोनों के बीच में दबा जवानी का झूला झूल रहा था।
कभी धीमे , कभी तेज।
जब गुड्डी जोर से पेंग मारती अपने चूतड़ के जोर से ,
तो रंजी के चूतड़ तो उससे भी बीस थे , उसकी पेंग और तेजी से लगती।
फायदा जंगबहादुर को होता ,रगड़ते घिसते गुड्डी की प्रेम गली में वो और अंदर तक धंस जाते।
रंजी के हाथ गुड्डी की पीठ पर मेरे हाथों के साथ पहुंचे हुए थे और एक बार रात काली स्याही के रंग में रंग गयी थी।
आगे पीछे होते इस झूले के साथ कभी पहले की सुनी कजरियां ,मन में गुनगुना रही थीं , तन को गरमा रही थी और उकसा रही थीं।
झूलन गयो झुलवा अरे सैयां धरे अंचरा अरे मोरी सखियाँ।
भिजेला अंचरा हो मोरी सखिया।
अरे झूलन गयो झुलवा अरे सैयां धरे जुबना अरे मोरी सखियाँ।
…………।
पिया सावन में कजरी सुनाय द न अरे झुलवा झुलाय दा न।
एक के बाद एक,
और मैंने अपने को रंजी गुड्डी के हवाले कर दिया था।
दो दो सद्य जवान हुयी किशोरियों के उभार अगर एक साथ पीठ और सीने पे छेद रहे हो , मस्त जुबना रगड़ रगड़ के आग लगा रहे हों .
और आम के बौरों की घुली महक के साथ चैत की पुरवाई और तन मन की आग भड़का रही हो ,
बस रस बरस रहा था और मैं भीग रहा था।
चाँद भी अब आसमान के दूसरे कोने में पहुँच रहा था लेकिन अपना सफर पूरा करने के पहले , मुड़ मुड़ के हम तीनो को देख रहा था और उसकी टार्च की पूरी रौशनी हम पर पड़ रही थी।
पर हम तीनो के लिए तो समय , चाँद ,रात जैसे सब थम गयी थी , बल्कि थी ही नहीं।
कभी मंथर तो कभी तेज होती देह के झूले की ताल लय पर हम झूम रहे थे।
कब गुड्डी किनारे पे पहुंची , कब मैं झड़ा मुझे पता नहीं , हाँ ढेर सारी थक्केदार मलाई , हम दोनों की जाँघों पर फैल गयी थी इसका अहसास मुझे हुआ और उसी समय दूर कहीं साढ़े तीन बजे का घंटा बजा।
चाँद ने एक बार फिर मुंह मोड़ लिया और चलते चलते हम तीनो को रात की काली स्याही की चादर ओढ़ा गया।
मैं अभी भी पूरी तरह गुड्डी के अंदर धंसा था।
हम तीनो एक दूसरे से गुथे , लदे, चिपके ,थके सो गए।
खुली खिड़की से आती हवा अब हमें थपकी देके लोरी सुना रही थी।
रात का वह सबसे काला प्रहर था , आखिरी प्रहर।
प्रत्युषा अभी भी आँख मीचे दूर सो रही थी।
नभचर ,थलचर सब सो रहे थे , सिवाय उन शिकारी जानवरों के जिनकी क्षुधा शांत नहीं हुयी थी।
यह वह प्रहर था जब सब कुछ अघटित ,घटित होता है।
बाहर काले भीषण बादलों ने विधु की मुश्कें कस दी थीं, चांदनी घुट घुट,सिसक सिसक कर आखिरी साँसे ले रही थी।
आसमान में अन्धकार की काली स्याही पुती हुयी थी। डर कर तारों ने भी अपने मुंह छिपा लिए थे।
प्रत्युषा अभी भी आँख मीचे दूर सो रही थी।
नभचर ,थलचर सब सो रहे थे , सिवाय उन शिकारी जानवरों के जिनकी क्षुधा शांत नहीं हुयी थी।
यह वह प्रहर था जब सब कुछ अघटित ,घटित होता है।
बाहर काले भीषण बादलों ने विधु की मुश्कें कस दी थीं, चांदनी घुट घुट,सिसक सिसक कर आखिरी साँसे ले रही थी।
आसमान में अन्धकार की काली स्याही पुती हुयी थी। डर कर तारों ने भी अपने मुंह छिपा लिए थे।
काली रात
रात का वह सबसे काला प्रहर था , आखिरी प्रहर।
प्रत्युषा अभी भी आँख मीचे दूर सो रही थी।
नभचर ,थलचर सब सो रहे थे , सिवाय उन शिकारी जानवरों के जिनकी क्षुधा शांत नहीं हुयी थी।
यह वह प्रहर था जब सब कुछ अघटित ,घटित होता है।
बाहर काले भीषण बादलों ने विधु की मुश्कें कस दी थीं, चांदनी घुट घुट,सिसक सिसक कर आखिरी साँसे ले रही थी।
आसमान में अन्धकार की काली स्याही पुती हुयी थी। डर कर तारों ने भी अपने मुंह छिपा लिए थे।
एकदम काला ठोस अँधेरा , घना, जहरीला।
हवा भी एकदम रुक गयी थी।
अमलताश , मंजरी से लदा आम , सब गुमसुम खड़े थे , सांस रोके।
अंदर ,अचानक पलंग के एक कोने पे लेटे मेरी आँख खुली।
दिल जोर जोर से धड़क रहा था , मन अचानक आशंकित हो उठा , मैंने आँखे खोलीं तो गुड्डी और रंजी नींद में दुबकी ,आश्वस्त सो रही थीं।
पर बाहर रात एकदम काली हो गयी थी।
कुछ था , कुछ गडबड था ,बस होने वाला था अगले ही पल ,जैसे दुष्काल कोबरा बन अँधेरे में फुफकार मार रहा हो और सिर्फ उसकी फुफकार की आवाज सुनाई
पड़ रही हो दिख कुछ न रहा हो बस वैसे ही।
मैंने चौकन्नी नज़रों से कमर के चारो ओर निगाह दौड़ाई। सब कुछ नार्मल था। धीमे से सरक कर मैं पलंग से नीचे उतरा , और एकदम फर्श से चिपट कर क्राल करते हुए छत पर।
पूरा अँधेरा था। हाथ को हाथ न सूझे ऐसा। घुप्प , काला ,दमघोंटू अँधेरा।
बस मुझे लग रहा था की कुछ गडबड है। बल्कि बहुत गड़बड़ है।
और उस काले अँधेरे में खतरा कहाँ से आ जाए पता नहीं।
मैं एकदम छत से चिपक कर , चारो ओर देखते हए क्राल कर रहा था। कुछ देर में ही आँखे अँधेरे की आदी हो गयीं थी और उस काले ठोस धुंधलके को भेद कर पढने की कोशिश कर रही थीं।
मैं आधा छत पार कर चुका था , और तभी बिजली चमकी।
और दामिनी ने मेरी सहायता कर दी।
छत से सटे हुए , आम की काली डाल के नीचे कोई था।
बहुत लम्बा लहीम शहीम ,तगड़ा और जैसे मैं अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहा था , वैसे ही वो कोशिश कर रहा था , लेकिन उसकी आँखे कमरे की खुली खिड़की में झाँकने कोशिश कर रही थीं। खिड़की से अंदर देखने की कोशिश कर रही थीं।
एक डार्क देह से चिपकी शर्ट , काली पेंट और चेहरे पे कैमोफ्लाज पेंट , कोई प्रोफेशनल अस्सेन , और जिस तरह से वो पीछे चिपक कर आम के पेड़ की परछाईं की आड़ लेकर खड़ा था अगर छत पे रौशनी भी होती तो उसको देखना बहुत मुश्किल थी।
गनीमत थी , बादलों ने अपनी पकड़ थोड़ी हलकी की और चांदनी की एक छोटी सी किरण अब छत के उस हिस्से पे पड़ रही थी।
मेरा दिल जोर जोर से धड़क रहा था।
वह जरूर हथियार से लैस होगा।
उसकी निगाह खिड़की से चिपकी थी और गनीमत थी की वो छत पर नहीं देख रहा था।
छत से चिपक कर रेंगते , मैं अब उससे करीब १०-१२ मीटर दूर रह गया था। दो कदम क्राल कर के मैं हलके से सर उठकर उसकी टोह लेता ,इस समय मेरे कान ही मेरी आँखे बन गए थे।
उस घने अँधेरे में उसका सिलयुहेट सिर्फ ग्रे के एक शेड की तरह था , और कभी सिर्फ बाहरी आउटलाइन दिखती और जब बादल हलके से हटते तो वो थोड़ा ज्यादा दिख जाता। मेरी सांसे रुकी हुयी थी और मेरा पूरा ध्यान बस उसी पर था। मैं इन्तजार कर रहा था उसकी अगली हरकत का. वह कमरे की ओर बढ़ेगा , या वही से कुछ ,
क्राल रोक कर मैं अब चुपचाप इन्तजार कर रहा था।
और वह भी इन्तजार कर रहा था।
चाँद की रोशनी थोड़ी सी बढ़ी और मेरा दिल दहल गया , उसके कमर में एक बेल्ट थी जिसमे ढेर सारे चाक़ू थे , अलग अलग साइज और शेप के। उसने फुर्ती से एक चाक़ू निकाल के हाथ में लेलिया था और उसे तौल रहा था। बिना गरदन मोड़ें एक पल उसने इधर उधर देखा , और फिर उसका हाथ हवा में उठा ,आँखे अभी भी खुली खिड़की से चिपकी थीं
और बिजली की तेजी से चाक़ू कमरे की ओर , हवा में तैरता हुआ ,
और मेरी सांस रुक गयी , कहीं कमरे में गुड्डी ,
और फिर कई चीजें एक साथ हुयी।
ग्लाक के चलने की आवाज हुयी , गोली की आवाज ने उस निस्तब्ध शान्ति को जैसे चीर कर रख दिया ,
मैंने सारी सावधानी की ऐसी की तैसी कर दी , और दौड़ते हुए सीधे उस पर हमला बोल दिया , मेरा सर ,हाथ घुटना सब उस हमले में मेरे साथ थे।
गोली उस के दायें कंधे में लगी थी और लग रहा की हड्डी ,लिगामेंट सब कुछ अपने साथ ले के गयी है। दायां हाथ बिलकुल बेकार हो गया है।
लेकिन उस से टकराने के पहले मैंने देखा , उसका ध्यान अभी भी खिड़की की ओर है , दर्द का कुछ भी असर उसके ऊपर नहीं हुआ और पलक झपकने के पहले , उसके बाएं हाथ ने दूसरा चाक़ू निकाल लिया था और हवा में उठा था।
और जिस समय मैं उससे टकराया ,शायद वो मेरी जिंदगी का आखिरी पल होता।
अपनी सारी ट्रेनिंग प्रैक्टिस मैंने उस समय लगा दी।
मैंने अपने अब तक के सारे गुस्से को अपने हमले में बदल दिया था। मेरी पूरी देह अस्त्र हो गयी थी मेरा सर गोली की तेजी से उसके पेट के ऊपरी भाग से टकराया , मेरा घुटना उसके दोनों पैरों के बीच फोकस था और मेरे सँडसी से हाथों ने उसके घायल हाथ को पकड़ के मोड़ दिया।
मैं यह नहीं कहूँगा की मेरा हमला पूरा बेकार हो गया लेकिन उसने बचने के साथ साथ काउंटर अटैक भी कर दिया। जैसे उसके ऊपर दर्द का असर ही न हो।
अपने घुटने से एक पिस्टन की तरह मेरी रिब्स पर उसने हमला किया लेकिन सबसे घातक बात यह थी की उसके बाए हाथ का चाक़ू अब बजाय खिड़की सीधे मेरी पूरी तरह एक्सपोज्ड गरदन की ओर आ रहा था।
सब कुछ जैसे स्लो मोशन में तब्दील हो गया था।
लेकिन गोली और मेरे हमले के साथ उसपर पीछे से भी हमला हुआ और वो दो लोग थे।
एक ने फांसी के फंदे से भी ज्यादा जोर की जकड से अपने हाथ को उसकी गरदन में फंसा रखा था और गैरोट की तरह वह ट्रेकिया को दबा रहा था। उसके दिमाग में खून पहुँचना तेजी से बंद हो रहा था और सांस भी।
और दूसरे ने चीते की तेजी से अपने दोनों हाथों से बाएं हाथ को जिसमें उसने चाक़ू पकड़ रखा था को पकड़ कर मरोड़ दिया और साथ ही अपने जूते से पीछे से उसके घुटने पर तेजी से वार किया।
यह सब लगभग एक साथ हुआ।
अब हम तीन थे ,गोली से उसका दायां हाथ बेकार हो चुका था लेकिन तब भी उसने मैदान नहीं छोड़ा।
उसका गला दबा हुआ था।
एक हाथ बेकार था , और दूसरा हाथ , जिसमें चाक़ू था , को दोनों हाथों से पकड़ के मरोड़ा जा रहा था , और दायें घुटने पे किक पड़ चुकी थी।
मेरे हेड बट्ट ने उसके पेट के अंदर जबरदस्त चोट पहुंचाई थी। इसके बावजूद वो पीछे हटने वाला नहीं था , हाँ अब हमले का फोकस मैं नहीं रह गया था। उसकी पहली प्रायरिटी गरदन छुड़ाने की थी और जबतक ये बात मैं समझ के काउंटर अटैक करूँ उसने जोर से अपने एड़ी से पीछे जिसने उसकी गर्दन दबा रखी थी ,उसके घुटने पे दे मारी। वो तो पीछे वाला अलर्ट था लेकिन तब भी गरदन पर पकड़ धीमी हो गयी।
वो दुबारा वही ट्रिक अपनाता , उसके पहले मैंने पूरी ताकत से अपने दोनों हाथों से उसके पैर को पकड़ के उठा लिया और एंकल पर से मोड़ने लगा।
अब बाजी उस के हाथ से फिसल रही थी।
बाएं हाथ की कलाई कड़कड़ा के टूट गयी और चाक़ू , छन्न की आवाज के नीचे गिर पड़ा और मेरी निगाह चाक़ू पे जा के पड़ी।
के का निशान
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