राज शर्मा की कामुक कहानिया
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एक प्यारी सी महुआ
राज शर्मा
सचमुच वह मानो फूलों की पंखुड़ियों से निकाले हुये रस के घोल से बनी थी। कोई छू ले तो लगे कि बर्फ की तरह कहीं पिघल न जाये। नाजुक बदन संगमरमरी उजाले से भरा रहता था। रंग बहुत ज्यादा गोरा नहीं रहा होगा - किशोरावस्था और यौवन के बीच की दहलीज से होकर गुजरता उसका मखमली सौन्दर्य स्वयं ही पराकाष्ठाओं की बेड़ियों से मुक्त था। मोटी-मोटी आंखों में उमंगों की लहरें एक गहरे विस्तृत आलोक के दरिया पर सदैव अपनेपन की फुहारें छोड़ती यूं बहती रहती मानो चांदनी धरती के वक्ष पर सदा के लिये चिपक कर उसके चांद के साथ रिश्ते को अमर कर देने के लिये बेताब हो। तीखी नाक, चमकता हुआ ललाट, गुलाबी गाल और फूलों की लालिमा से सींचे हुये होठों की जोड़ी - सुराहीदार सुनहरी पतली ग्रीवा पर रूप का यह महल कितनी मेहनत से बनाया होगा ईश्वर ने। यदि ताजमहल उसके सामने बन गया होता तो महुआ को देखकर फारस के यन्त्रकार ताजमहल पर इतना गर्वोन्वित नहीं हुये होते।
'ऐ महुआ, इधर है राजा, आ अब मेरे हुकूम पर चलने को तैयार हो जा।' एक यह राज ही था जो उसके सामने अपने अभिमान का पर्वत खड़ा किये रहता था - वरना और तो कोई महुआ की तरफ गलत नजर से देखे - वह उसे खा न जाये। 'अरे ओ राजू के बच्चे, तेरे जैसे राजा को मैं बेच न आऊं हार में।' राज के मुंह लगी महुआ परात लिये उधर आती हुई बोली। 'ओ हो, मुझे हार में बेचने वाली, हाट तक जाना ही होगा तो मेरी गोद तो न चढ़ जायेगी।' कह कर राज हंसा तो साथ काम करते बाकी मजदूर भी हंस दिये। महुआ का रंग उतर गया मगर वह फिर बोली - 'ऐ, क्या हंसते हो तुम सब। ऐसा फौलाद नहीं हुआ है राजु कि मुझे उठाये हाट तक जा सके। यूंही राजा बना फिरता है। कभी दिखा दूंगी - हो।'
'जा जा, फूल की पंखुड़ी से तो बनी है तू - अभी उठा के दिखाऊं, सारे आगरा घुमा लाऊंगा तुझे।' राज ने तोड़ी हुई दीवार का धुसर लोहे की परात में डालते हुये कहा। उसने शायद दूर से आते काका को देख लिया था, जो कि मजदूरों के लीडर थे। इसीलिये बड़ी कुशलता से खुद को काम में लगा लिया। महुआ उसमें हुये परिवर्तन से भांप गई कि काका आ रहे हैं - वह भी परात उठाती हुई राज की आंखों में झांककर बोली - 'राज, बोलुं काका को तेरी शिकायत - राजा बना फिरता है मजदूरों का।'
'बोल दे न, मैं कोई डरता थोड़े ही हूं। काका भी जानते हैं कि मैं अन्दर से एकदम भोला भाला हूं - ऊपर से भले ही कड़क दिखता होऊं।' राज ने लापरवाही से अपनी ऊपरी कड़क का रूआब दिखाते हुये कहा। वह जानता था कि महुआ किसी भी हालत में काका से उसकी शिकायत नहीं करेगी। 'हूं, कड़क लगता होऊं' महुआ ने उसकी नकल उतारी, 'ऊपर से भी लगातार ही लगते हो' कहकर जीभ निकाल कर चिढ़ाती हुई परात उठा कर चल दी तो मजदूर फिर हंस दिये। अब झेंपने की बारी राज की थी। ऐसी थी महुआ और ऐसा था राज। एक दूसरे को छेड़े बगैर उन्हें चैन न आता था। सन् 1631 में अपनी माशूका और बेगम की मौत के बाद शाहजहां ने जब फारस से अपने विशिष्ट अभियन्ताओं के दल को भारत बुलाया और उनकी विलक्षण कल्पनाशीलता और योग्यता के आधार पर सन् 1632 में यमुना नदी के किनारे दिल्ली आगरा रोड पर मुमताज की याद में एक स्मृति-भवन की रचना आरम्भ करवाई, तब जो सैकड़ों मजदूर लगाये गये उन्हीं में से एक थी महुआ... डूबते चांद का उजाला थामे आसमान के गर्भ से टपकी ओस की तरह नाजुक। पर्वत से गिरते झरने की तरह चपल और हिरणी की आंखों की तरह मासूम। और राज... सागर में लहरों पर अठखेली करते सूर्यबिम्ब की तरह चञ्चल-खूबसूरत होने के साथ-साथ वह स्वभाव का भी मृदुल था। सभी उसके दीवाने थे - बस एक महुआ ही थी जिसको राज कांटे की तरह चुभता था। क्या पता यह चुभना भी उसकी आनन्द की अनुभूति ही रहा होगा - तभी तो वह स्वयं राज के ही साथ जुटी रहती थी। राज दिल का तो बुरा नहीं है - वह शरारत करता है महुआ से मगर क्या मजाल कि और कोई महुआ को बुरी नजर से देखे। महुआ राज के हाथों परेशान होकर भी किसी से उसकी शिकायत नहीं करती थी।
और उस दिन शाम को राज से किसी बात पर झगड़ा कर महुआ कितनी बेचैन हो गई थी। चिडचिडी सी अपने घर में जब झल्लाती महुआ ने रात को अपनी छत से राज को उसकी छत की डोली पर बैठे देखा तो कोशिश भी की कि राज उसकी तरफ देखे मगर वह तो बस अपनी ही धुन में कुछ गुनगुनाये जा रहा था। 'कैसा घमण्डी है - मेरी तरफ देखता ही नहीं। झगड़ा कर लिया तो इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि जीवन भर बात नहीं करनी है। फिर कौन तुम से प्यार की बात की उम्मीद करता है - क्या हमें चिढ़ाने से भी कोफ्त हो गई है। अभी मैं छत से कूद जाऊं तो फिर किस पर हंसोगे - किसे तंग करोगे।' - महुआ मन ही मन ढ़ेरों बातें सोच रही थी कि अभी राज का गिरेबान पकड़कर उससे यह सब कह डाले और सचमुच छत से छलांग लगा दे।
और अगले दिन जब महुआ ने रुखाई का जवाब रुखाई से दिया तो राज तड़प उठा - 'ऐं इतनी ऐंठ क्यों है इस लड़की में - क्या जनम भर यह मुंह फुलाये ही रखेगी - अभी आ जाऊं किसी दीवार के नीचे, तब रोयेगी कि राज, हम फिर नाराज नहीं होंगें। रोती रहना हम तब भी नहीं बोलेंगे - दर्द भी होगा तब भी तुमसे दवा नहीं लगवायेंगें -और हां, हम दीवार के नीचे भी आयेंगें ही।' और तभी ऊपर से फिसलकर महुआ के ऊपर गिरती एक ईंट को देखकर राज सारी बातें भूल गया सिवाय इसके कि वह ईंट महुआ का सर फोड़ सकती है और यह उसके रहते नहीं होना चाहिए - वह उछल कर महुआ पर कूद पड़ा और उसे आलिंगन में लिये ईंट से बचने की कोशिश की - मगर र्इंट उसके माथे पर घाव करती चली गई। तसल्ली रही कि महुआ को खरोंच भी नहीं आई। बाद में राज दो दिन छुट्टी पर ही रहा - महुआ उसके घर आकर प्यार भरी आंखों से उसे निहारती, खाना खिलाती, दवा भी लगाती - राज को अपने माथे पर बंधी पट्टी और उसमें पराजित पड़ा घाव - महुआ की लगन पूर्वक की हुई इस सेवा-सुश्रूषा से किसी राजा के मुकुट की भांति प्रतीत होने लगा।
और फिर जब महुआ की मोटी झील सी आंखों के रास्ते आंसुओं की हल्की सी लकीर उसके नरम गालों तक खिंच जाती - राज एकदम रंक की भांति पीड़ित हो उठता और दीवाने की तरह मिन्नतें करने लगता - 'महुआ, मैंने तो तुझे छेड़ा नहीं - फिर क्युं रोई - देख तेरा हंसना मुझे जितना ज्यादा अच्छा लगता है महुआ - तेरा रोना एकदम खराब लगता है। मुझे थप्पड़ मार ले, गुस्से से डांट ले - या नाराज होकर मुंह फुला ले - मां से मेरी शिकायत कर दे - मगर ये आंसू मत बहा, महुआ।' और महुआ के कुछ कहने से पहले ही जब दोनों की मांये कमरे में चली आती और महुआ की लाल आंखें और आंसुओं से भीगे गाल देखकर राज की मां उसे डांटने लगती कि उसने ही किसी बात पर छेड़कर महुआ को रुलाया होगा - तब परियों की उदासी का जेवर पहनी हुई महुआ चुपचाप उठ खड़ी होती और अपनी चुन्नी से आंखें और गाल पोंछती हुई निकल जाती। वह कहना चाहती थी मां से कि फूल चाहे जितना भी कोमल क्यों न हो, कांटे का साथ कभी नहीं छोड़ता - शायद उसी ने तो देखा होता है कांटे को चीरकर उसके भीतर का दिल - शायद बहुत ही कोमल।
दिन बीते और ताजमहल करीब एक चौथाई बन गया। राज और महुआ अब लड़ते नहीं थे। दस बारह वर्ष पहले की मासूमियत न जाने कहां पीछे छूट गई थी। अब तो सिर्फ वे ही नहीं - उनके घरवाले और ताजमहल की रचना में जुटे तमाम बीस हजार मजदूर भी ये जानने लग गये थे कि राज और महुआ के बीच जो कुछ भी है.... वह सिर्फ और सिर्फ महोब्बत है। राज की मां तो महुआ से बहू का सा ही व्यवहार करने लग गई थी। महुआ हालांकि राज से दिन में कईयों बार छुप छुपाकर मिल लिया करती थी परन्तु संकोच से उसके घर आना कम कर दिया था। उधर राज भी जब कभी महुआ की सहेलियों के जमघट में फंस जाता तो वे उसे जीजाजी कहकर महुआ का और उसका पूरा मजा लेती।
उस दिन राज ताजमहल के ठीक सामने वाले चबूतरे के आगे बीस गज लम्बे और करीब सात-आठ फुट गहरे गढ़े में कुदाल चलाकर उसकी दीवार काट रहा था। महुआ उसके द्वारा अलग की हुई मिट्टी को परात में डालकर बाहर फेंक आ रही थी। तभी अचानक राज के मुंह पर कुदाल चलाते हुये पानी के छींटे पड़े जो शायद गङ्ढे की दीवार से उछले थे। राज कुछ समझ पाता कि उसकी कुदाल पड़ते ही दीवार को चीर कर पानी का वेग से उस पर ऐसा प्रहार हुआ कि वह कुदाल लिये ही छिटक कर दूर जा गिरा। पानी वेग से गङ्ढे की दीवार से उछले थे। राज कुछ समझ पाता कि उसकी कुदाल पड़ते ही दीवार को चीर कर पानी का व्रग से उस पर ऐसा प्रहार हुआ कि वह कुदाल लिये ही छिटक कर दूर जा गिरा। पानी वेगसे गङ्ढे में आने लगा - कुदाल हाथ से छूट गई। राज किसी तरह गिरता पड़ता बड़ी मुश्किल से उठा और दम लगाकर गङ्ढे की दीवार में हुये छेद पर अपना फौलाद सा सीना सटाकर दोनों हाथ दीवार से दोनों तरफ चिपका लिया। फिर जोर लगाकर चीखा - 'महुआ जा परात में मिट्टी भर-भर ला। सबको यही करने को बोल - वरना बना बनाया महल बरबाद हो जायेगा।'
महुआ के होश फाख्ता हो गये - उसे काटो तो खून नहीं - एक बारगी उसने परात उठाई और उसे दूर फेंककर चिल्लाई बचाओंऽऽ! और स्वयं भी गङ्ढे में कूद पड़ी। राज के साथ साथ वह भी उस स्थान पर पानी के वेग के प्रतिरोध में चिपक कर खड़ी हो गई। मगर खड़ी न रह पाई। राज ने उसे किसी तरह पानी वाले स्थान को ढ़कने की कोशिश करने लगा। तब तक ढ़ेरों काम करते मजदूर उनकी चीख-पुकार सुन जमा हो गये। 'महुआ, क्या पागल हुई है तू! क्या करने उतरी इस गङ्ढे में? राज उसे बांहों में लपेटे गड्डे की दीवार से चिपका हुआ चिल्लाकर बोला। पानी के वेग की गरज अब इतनी बढ़ गई थी कि सामान्य आवाज में एक दूसरे से बात करना मुश्किल हो गया था।
महुआ तो कुछ बोल ही नहीं पा रही थी। बस जोंक की तरह राज से कसकर चिपकी हुई उसे पानी का वेग रोकने में मदद कर रही थी। शोरगुल के बीच कुछ और मजदूर गङ्ढे से बाहर न आ सके। मुमताज महल के मोह ने सबको प्राणों की माया से ऊपर उठा दिया था। पानी गङ्ढे में बढ़ता जा रहा था, मगर मजदूरों के जी तोड़ प्रयत्न-प्रतिरोध से बाहर नहीं निकला और अर्द्धनिर्मित ताजमहल किसी भी प्रकार की क्षति से बचा रहा। करीब 12-13 घण्टे तक यह संघर्ष चलता रहा और जब पानी निकलना बंद हुआ तो वह गङ्ढा एक तालाब बन चुका था। मजदूरों ने उसमें फंसे अन्य मजदूर भाई बहनों को बाहर निकाला - कुछ बेहोश थे, कुछ मर चुके थे। कुछ खुद ही जोर लगाकर बाहर निकल आये थे। और ... पानी की सतह पर कुछ बुलबुले से उभरे - तमाम मौजूद लोग कौतुहल से आंखें फाडे देख रहे थे - और राज और महुआ के एक दूसरे से बेड़ियों की मानिन्द गुंथे शरीर पानी के ऊपर आकर तैरने लगे - वे आत्माविहीन, निर्जीव शरीर - सबकी आंखें छलछला आई उन मासूम प्यार के फरिश्तों की मौत पर। बादशाह शाहजहां के योजनाकारों ने वहां संगमरमरी चबूतरों की चारदीवारी के बीच जगमगाते फव्वारे लगावा दिये। बाइस वर्षों में करीब बीस हजार मजदूरों की लगन से मुमताज की स्मृति का ताजमहल विश्व के अजूबों के रूप में सन् 1663 में पूरा हो गया। आज भी देश विदेश से लोग वहां भ्रमणा को आते हैं और शाहजहां की महोब्बत को सलाम कर जाते हैं किन्तु राज और महुआ के प्यार और उनके जैसे सैकड़ों मजदूरों की निस्वार्थ मेहनत का उजाला तो उन फव्वारों की धुन और उनकी जगमगाती रोशनी में ही मिल पाता है-जिसे न इतिहास देख सका होगा और न आज का भ्रमणकारी
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