FUN-MAZA-MASTI
रोहण अपने तबादले पर कानपुर आ गया था। उसे जल्द ही एक अच्छा मकान मिल गया था। अकेला होने के कारण उसे भोजन बनाने, कपड़े धोने, घर की सफ़ाई में बहुत कठिनाई आती थी। संयोगवश उसे अपने मन की नौकरानी मिल ही गई।
एक जवान लड़की जो एक छोटे बच्चे को लेकर दरवाजे पर कुछ रात का बचा हुआ खाना मांगने आई थी, उसे उसने यूँ ही कह दिया था- कुछ काम वगैरह किया करो, ऐसे भीख मांगना ठीक नहीं है।
वो बोली- भैया, मुझे तो कोई काम देता ही नहीं है।
तो रोहण ने पूछा- मेरे घर पर काम करोगी?
तो वो मान गई थी।
रोहण ने पहले उसे ऊपर से नीचे तक देखा, नाम पूछा, उसका नाम कविता था और उसके बच्चे का नाम राजा था।
और कहा- पहले तुम अच्छे से नहा धो लो, साफ़ सुथरी तो हो जाओ। फिर तुम दोनों कुछ खा पी लो, फिर बताऊँगा तुम्हें काम।
उसने उसे साबुन और एक पुराना तौलिया दे दिया। अन्दर के कमरों में ताला लगा कर बाहर के कमरे की चाबी दे कर रोहण ऑफ़िस चला आया। शाम को लौटा तो वो भूल ही चुका था कि उसने किसी को वहाँ रख छोड़ा था।
फिर वो मन ही मन हंस पड़ा। अन्दर गया तो मां बेटे दोनों ही सोये हुये थे। नहाने धोने से वे दोनों कुछ साफ़ से नजर आ रहे थे। रोहण ने उन्हें ध्यान से देखा, लड़की तो सुन्दर थी, साफ़ रंग की, दुबली पतली, रेशमी से बाल। वो जमीन पर सोई हुई थी। उसे देख कर रोहण को लगा कि यदि ये शेम्पू से अपने बाल धो कर संवारे तो निश्चित ही वो और सुन्दर लगेगी।
रोहण ने उसे जगाया, वो झट से उठ बैठी। बैठक जिसे मैं उसके लिये खोल कर गया था उसने झाड़ू लगा कर पोंछा करके चमका दिया था।
रोहण ने कमरों को खोला, उसे रसोई बताई, काम समझाया और फिर स्नान करने को चला गया।
रोहण ने उसे नजरों से नापा तौला और बाजार से उसके लिये कुछ कपड़े ले आया। बच्चे के लिये भी निक्कर और कमीज ले आया। रात के लिये कविता के लिये एक सूती पायजामा और एक कुरता भी ले आया था। रात को भोजन से पहले वो स्नान आदि करके आई तो वो सच में खूबसूरत सी लगने लगी थी। वो कुरता उसे ढीला-ढाला सा आया था। चूंकि रोहण ने किसी पहली लड़की को अपने घर में इतनी समीप से देखा था इसलिये शायद वो उसे सुन्दर लग रही थी।
भोजन के लिये वो दोनों नीचे ही बैठ गये। लग रहा था कि वे बहुत भूखे थे। उन्होने जम कर भोजन किया। पूछने पर पता चला कि उन्हें कभी भोजन मिलता था कभी नहीं भी मिलता था।
"कहाँ रहती हो कविता?"
"जी, कहीं नहीं !"
"तो अब कहाँ जाओगी?"
"कहीं भी...
फिर उसने भोजन करके राजा का हाथ पकड़ा और धीरे से मुस्कुरा कर थैंक्स कहा तो उसे एक झटका सा लगा। यह तो अंग्रेजी भी जानती है।
फिर उसने पीछे मुड़ कर पूछा- सवेरे मैं कितने बजे आऊँ?
"यही कोई सात बजे ..."
"जी अच्छा..."
वो बाहर चली गई। रोहण ने अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया। रोज की भांति उसने अपने कमरे में जाकर, जो कि पहली मंजिल पर था, टीवी खोल कर ब्ल्यू फिल्म लगाई और और देर रात को मुठ्ठ मार कर सो गया।
सवेरे वो ब्रश करता हुआ बालकनी पर आया तो उसे अपने वराण्डे में कोई सोता हुआ दिखा। उसे बहुत गुस्सा आया। वो नीचे आया तो देखा कि वहाँ कविता और राजा सोये हुये थे। कविता तो एकदम सिकुड़ी हुई सी, राजा को अपने शरीर से चिपकाये हुये सो रही थी।
वो झुन्झला सा गया, उसने उन दोनों को उठाया और गुस्से में बोला- अरे, यहीं सोना था तो अन्दर क्यों नहीं सो गई? कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?
वो कुछ नहीं बोली, बस सर झुका कर खड़ी हो गई।
फिर कुछ देर बाद बोली- सात तो बज गए होंगे? चाय बना दूँ?
रोहण ने एक तरफ़ हट कर उसे अन्दर जाने का रास्ता दे दिया। जब तक वो स्नान आदि करके आया तो उसने चाय परांठा और अण्डा बना कर तैयार कर दिया था। उसे बहुत अच्छा लगा। उसने नाश्ता कर लिया, उन दोनों से भी नाश्ता करने को कह दिया।
अब से तुम दोनों रसोई में रहना, ठीक है?
कविता की आँखें चमक उठी- साहब, दोपहर को खाने पर आयेंगे ना?
"अब दिन का ... पता नहीं, ठीक है आ जाऊँगा।"
जब रोहण दिन को घर आया तो वो कविता को पहचान ही नहीं पाया। सलवार कुर्ते चुन्नी में और शेम्पू से धोये हुये बाल, मुस्कराती हुई ! ओह कितनी सुन्दर लग रही थी। राजा भी साफ़-सुथरा बहुत मासूम लग रहा था।
"बहुत सुन्दर लग रही हो।"
"जी, थेन्क्स ! भोजन लगा दूँ?"
रोहण ने मां के अलावा इतना स्वादिष्ट भोजन कविता के हाथ का ही खाया था। फिर उसका मन ऑफ़िस जाने का नहीं हुआ। बस कमरे में ऊपर जाकर सो गया। उसने अपने गन्दे मोजे, चड्डी, बनियान, कमीज पैंट वगैरह स्नान के बाद यूँ ही डाल दिये थे। कविता उसके सोने के बाद कमरे में आ कर गन्दे कपड़े मोजे, जूते सभी कुछ ले गई, धुले प्रेस किये कपड़े, साफ़ मोजे, और जूते पॉलिश करके रख गई।
रोहण जब उठा, यह सब देखा तो उसे एक सुखद सा अहसास हुआ।
बस यूँ ही दिन कटने लगे। जाने कब रोहण के दिल में कविता के लिये कोमलता भर गई थी। शायद इन चार-पांच महीने में वो उसे पसन्द करने लगा था। कविता का तन भी इन चार-पांच महीनों में भर गया था और वो चिकनी-सलोनी सी लगने लगी थी।
इतने दिनों में बातों में ही रोहण जान गया था कि उसका नाजायज बच्चा किसी राह चलते आदमी की औलाद थी जिसे वो जानती तक नहीं थी। रेलवे प्लेटफ़ार्म पर उसका बलात्कार हुआ था। चार साल से वो यूं ही दर दर भटक रही थी। कोई काम देता भी तो उसकी खा जाने वाली वासना भरी नजरों से वो डर जाती और भाग जाती थी। मुश्किल उसकी ठण्ड और बरसात के दिनो में आती थी। बस रात कहीं ठिठुरते हुये निकाल लेती थी। अपने छोटे से बच्चे को वो अपने तन से चिपका कर गर्मी देती थी। कानपुर में ठण्ड भी तेज पड़ती थी।
कविता रोहण का बहुत ध्यान रखती थी। सर झुका कर सारे काम करती थी। रोहण के गुस्सा होने पर वो चुप से सर झुका कर सुन लेती थी। रोहण तो अब आये दिन उसके लिये नये फ़ैशन के कपड़े, राजा के लिये जीन्स वगैरह खरीदने लगा था।
पर इन दिनों रोहण की बुरी आदतें रंग भी लाने लगी थी। रात को अकेले में ब्ल्यू फ़िल्म देखना उसकी आदत सी बन गई थी। फिर शनिवार को तो वो शराब भी पी लेता था। रोहण के बन्द कमरे की पीछे वाली खिड़की से एक बार कविता ने रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते फिर मुठ्ठ मारते देख लिया था। वो भी जवान थी, उसके दिल के अरमान भी जाग उठे थे। अब कविता रोज ही रात को करीब ग्यारह बजे चुपके से ऊपर चली आती और उस खिड़की से रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते देखा करती थी। वो इस दौरान अपने खड़े लण्ड को धीरे धीरे सहलाता रहता था। लण्ड को बाहर निकाल कर वो कभी अपने सुपाड़े को धीरे धीरे से सहलाता था। कभी कभी तो फ़िल्म में वीर्य स्खलन को देखते हुये वो अपना भी वीर्य लण्ड मुठ्ठ मार कर निकाल देता था।
बेचारी कविता के दिल पर सैकड़ो बिजलियाँ गिर जाती थी, दिल लहूलुहान हो उठता था, वो भी नीचे आकर अपनी कोमल चूत घिस कर पानी निकालने लगती थी।
अब तो कविता का भी यह रोज का काम हो गया, रोहण को मुठ्ठ मारते देखती और फिर खुद भी हस्तमैथुन करके अपना पानी निकाल देती थी।
कब तक चलता यह सब? कविता ने एक दिन मन ही मन ठान लिया कि वो रोहण को अब मुठ्ठ नहीं मारने देगी। वो स्वयं ही अपने आप को उससे चुदवा लेगी। रोहण उसके लिये इतना कुछ कर रहा था क्या वो उसके लिये इतना भी नहीं कर सकती? उसे भी तो अपने शरीर की ज्वाला शान्त करनी थी ना ! तो क्या वो अपने आप को उसे सौंप दे? क्या स्वयं ही नंगी हो कर उसके कमरे में उसके सामने खड़ी हो जाये?
उफ़्फ़्फ़ ! नहीं ऐसे नहीं ! फिर?
अब तो कविता का भी यह रोज का काम हो गया, रोहण को मुठ्ठ मारते देखती और फिर खुद भी हस्तमैथुन करके अपना पानी निकाल देती थी।
कब तक चलता यह सब? कविता ने एक दिन मन ही मन ठान लिया कि वो रोहण को अब मुठ्ठ नहीं मारने देगी। वो स्वयं ही अपने आप को उससे चुदवा लेगी। रोहण उसके लिये इतना कुछ कर रहा था क्या वो उसके लिये इतना भी नहीं कर सकती? उसे भी तो अपने शरीर की ज्वाला शान्त करनी थी ना ! तो क्या वो अपने आप को उसे सौंप दे? क्या स्वयं ही नंगी हो कर उसके कमरे में उसके सामने खड़ी हो जाये?
उफ़्फ़्फ़ ! नहीं ऐसे नहीं ! फिर?
राजा बाहर खेल रहा था। वो स्नान करके बाहर आई, पूरी भीगी हुई थी। उसने तौलिये के लिये नजर दौड़ाई। अभी वो मात्र पैंटी में ही थी और गीली पैंटी उसके कोमल चूतड़ों से चिपकी हुई थी। घर पर तो कोई था नहीं। उसने झुक कर अपनी उभरी हुई चूत को देखा। फिर उसे धीरे से सहलाया।
वो बुरी तरह से चौंक उठी, रोहण सामने खड़ा था।
हाय राम ! कब आ गए ये ! ये तो एक बजे आते हैं ना !
वो पलट कर बाथरूम में घुस गई। कविता दिल एक बार तो मचल उठा। रोहण ने अपनी पलकें बन्द कर ली मानो वो उस पल को अपने अन्दर समेट लेना चाहता हो।
कविता ने बाहर झांक कर देखा तो रोहण आँखें किये ठण्डी आहें भर रहा था।
उसे घायल देख कर कविता पिघल उठी, उसने भी हिम्मत की... झिझकते हुये वो धीरे से बोली- मैं बाहर आ जाऊँ?
रोहण ने अपनी आँखें खोली, उसे झांकता देख बोला- बस एक बार और झलक दिखला दो।
उसे इस हालत में देख कर कविता की आँखों में भी ललाई उतर आई, शर्म से उसकी झुक गई।
"देखो, कुछ करना नहीं।"
वो शरमा कर मुस्कराई और एक बार फिर से अपना गीला बदन लेकर बाथ रूम से फिर बाहर निकल आई।
इस्स्स्स्स ! उभरी हुई चूत पर चिपकी हुई अन्डरवीयर ! स्पष्ट चूत की दरार तक नजर आ रही थी, काली काली बड़ी झांटें अन्डरवीयर की बगल से बाहर निकलती हुई, उसके पुष्ट खूबसूरत उरोज, चुचूक सीधे तने हुए, गजब ढा रही थी वो तो !
रोहण का दिल तो छलनी हो गया था।
"पा... अह्ह्ह ... प्पास अआओ ना ...।" रोहण को पसीना छलक आया।
"बस, अब मुझे वो तौलिया दे दो ना प्लीज !"
रोहण की आँखें उसके शरीर पर से हट ही नहीं रही थी। अनजाने में ही रोहण ने अपना लण्ड दबा लिया। उसकी हालत देख देख कर कविता एक बारगी अपनी हंसी को ना रोक पाई और खिलखिला कर हंस पड़ी।
"अरे जनाब ! वो तौलिया तो दे दो ना !"
उसने कुर्सी पर लटका हुआ तौलिया देखा। उसने उसे उठा लिया और उसे लेकर कविता की ओर बढ़ गया। पर रोहण ने उसे तौलिया नहीं दिया, बल्कि अपने दोनों हाथ खोलकर अपनी बाहों में आने का निमंत्रण दिया। वो शरमा गई। पर वो ऐसी नंगी सी हालत में कब तक खड़ी रहती। उसका दिल भी तो मचल रहा था। वो धीरे-धीरे चल कर उसके समीप आ गई। रोहण के बाहों के घेरे में वो सिमटती चली गई।
ब्...बस करो ना... भैया !
पर उसका चेहरा उसके चेहरे पर झुकने लगा था, वो शरमा कर उससे अपने आप को दूर करने लगी। पर दिल में आग जो लगी थी। दोनों के पत्तियों जैसे अधर एक दूसरे से चिपकने की कोशिश करने लगे थे।
रोहण, मेरी हालत तो देखो, कोई आ गया ना तो? हाय, मैं तो मर ही जाऊँगी !
रोहण की तन्द्रा भंग हो गई। वो भी शरमा सा गया।
ओह ! सॉरी ... सॉरी ... मुझे माफ़ करना।
उसने तौलिया लेकर झट से अपना बदन लपेट लिया।
कितना मोहक, कितना सुन्दर... कैसे रोकता अपने आप को...
ऐसा मत कहो भैया ... आपने तो मेरी जिन्दगी बनाई है ... ऐसा तो जवानी में हो जाता है।
कविता, क्या करूँ, मैं अपने आप को रोक नहीं पाया ...
सच बताऊँ भैया ... आपके मन की इच्छा मैं जान गई थी ... मैं कुछ तो आपके मन की इच्छा पूरी करके आपको खुश कर सकती हूँ ना। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिये।
अरे नहीं ... मुझसे ही गलती हो गई थी।
आपने सिर्फ़ मेरा बदन ही तो देखा है ना ... कुछ किया थोड़े ही है। फिर यह उम्र का दोष है, आपका नहीं।
ओह कविता... मेरा मन डोल जायेगा ... बस करो !
दोनों के मन में एक मधुर सी हूक उठने लगी थी। दोनों एक दूसरे की ओर भी अधिक आकर्षित हो चुके थे। कविता तो अब दिन भर रोहण के ख्यालों में खोई रहती थी। रोहण का भी लगभग यही हाल था। पर आज कविता ने कुछ शरारत करने का मन बना लिया था। रात को जैसे ही रोहण ने जैसे ही ब्ल्यू फ़िल्म आरम्भ की, कुछ समय बाद ही कविता भी ऊपर चली आई। अंधेरे की खामोशी में फ़िल्म से आती सेक्सी आवाजें कमरे बाहर भी इतनी स्पष्ट आ रही थी कि कोई भी जान ले अन्दर ब्ल्यू फ़िल्म चल रही है।
उसने दरवाजा खटखटाया। पर दरवाजा तो खुला ही था। वो अन्दर की तरफ़ खुल गया।
भैया, मैं अन्दर आ जाऊँ?
रोहण हड़बड़ा गया। पहले तो उसने अपने नंगे बदन पर चादर खींच ली। फ़िल्म को बन्द करना तो वो भूल ही गया था।
अरे कविता ! इतनी रात को?
"यह क्या देख रहो भैया ... यह तो ब्ल्यू फ़िल्म है ना !"
"अरे उसे मत देखो ... !"
जल्दबाजी में उसे रिमोट ही नहीं मिल रहा था।
भैया ! तो चुपके चुपके यह सब देख रहे थे... अरे रुको तो... मुझे भी तो देखने दो ना !
कविता रोहण को तिरछी नजर से देख कर मुस्कराई।
"तुम ... तुम देखोगी ...?"
"तुम देख सकते हो तो मैं क्यू नहीं ?... मजा आता है ना भैया...!"
"ओह्ह ... तो देखो मुझे क्या है ...! रोहण ने कविता को शरारत के मूड में देखा तो उसने भी मजाक किया।
कविता वही रोहण के पलंग के एक तरफ़ बैठ गई और ध्यान से देखने लगी।
"आह्ह्ह्ह भैया ... ये देखो तो ... वो क्या कर रहा है?"
"अब ऐसी फ़िल्म में तो यही होता है, बस देखो और इसका आनन्द लो।"
कविता ने जान कर रोहण को दिखाने के लिये अपने स्तन भींच लिये- उफ़्फ़्फ़ मम्मी ... कितना आनन्द आ रहा है।
उसे उत्तेजित देख कर रोहण से भी रहा नहीं गया। उसने धीरे से उसे पीछे से पकड़ लिया और उसके हाथ हटा कर उसकी चूचियाँ दबाने लगा। कविता मचल सी उठी। हंसती हुई सी वो बोली- आह्ह्ह रोहण मत करो ... मर जाऊँगी ... उफ़्फ़्फ़्फ़ मार डालोगे क्या ...?
"बस ... करने दो कविता ... तुम्हें देख कर तो अब रहा नहीं जा रहा है ...!"
कविता ने हंस कर एक झटके से अपने आप को छुड़ा लिया और खड़ी हो गई। कविता ने रोहण को देखते हुये अपने जानकर के होंठ काट कर अपनी चूत दबाई और सिसकारी भरते हुये बोली- भैया ... कितना मजा आता है ना ... लगता है ना मैं तुम्हारा लण्ड अपनी चूत में घुसा लूँ ...!
"तो आ जाओ ना मेरे पास ... तुम्हें चोद कर मुझे भी तो मजा आ जायेगा।"
रोहण का लण्ड बार बार फ़ड़फ़ड़ा रहा था। रोहण ने कविता को दिखाते हुये अपने खड़े को मसल दिया।
"उफ़्फ़, इसे ना हाथ लगाओ... पहले अपना लण्ड बाहर निकाल कर दिखाओ और टीवी बन्द करो ...!" कविता ने शरारत से कहा।
रोहण ने टीवी बन्द किया और चादर अपने शरीर से हटा ली।
"हाय राम, भैया ... इतना मोटा ... यह मेरी चूत के चिथड़े चिथड़े कर देगा।" कविता अपने पूरे रंग पर आ गई थी, उसकी चूत कुलबुलाने लगी थी।
"तुम भी अपने कपड़े उतार दो ना !" रोहण ने कविता को घूरते हुये कहा।
"तो फिर उधर देखो ... नहीं नहीं ! अच्छा इधर ही देखो ... अरे देखो ना मुझे...!"
फिर उसने अपना सलवार कुर्ता उतार दिया। फिर ब्रा भी उतार दी।
"वो चड्डी भी तो उतारो... " रोहण उसके चिकने बदन को अपनी गुलाबी आँखों से निहारता हुआ बोला, फिर अपने नंगे लण्ड को दबाने लगा।
नहीं, वो नहीं ... फिर तो सब ही दिख जायेगा ...!" कविता इठला कर बोली।
"तो क्या हुआ, तुम्हारी रसभरी के दर्शन हो जायेंगे ना !"
"देखो तो कितना कड़क हो रहा है, एक बार प्लीज मुठ्ठ मार कर दिखाओ ना !" कविता ने रोहण से अपनी फ़रमाईश कर दी।
"अच्छा तो आओ, तुम मार दो मेरा मुठ्ठ ... मुठ्ठ का मुठ्ठ और मजे का मजा !"
कविता हंस पड़ी, उसकी तो बहुत इच्छा थी कि वो एक बार रोहण का लण्ड कस कर पकड़ ले और उस की तरह मुठ्ठ मारे।
"तो यहाँ खड़े हो जाओ, सीधे हो जाओ ना ! आओ ना ...!"
रोहण बिस्तर से नीचे गया और फिर कविता रोहण के पास में खड़ी हो गई। कविता ने धीरे से उसका लण्ड पकड़ लिया और उसका सुपाड़ा को खोल दिया।
अन्दर से भीगा हुआ था वो प्री-कम से।
कविता के कठोर स्तन उसकी बांह से रगड़ खा रहे थे। वो जान कर उसे उसकी बांह पर दबा भी रही थी। कविता ने अब मुठ्ठ धीरे धीरे मारना शुरू कर दिया। फिर स्पीड बढ़ाती गई। रोहण ने भी जोश में आकर उसके भारी स्तन दबा दिया।
वो खिलखिला उठी- देखो तो भैया... कैसे फ़ड़फ़ड़ा रहा है तुम्हारा लण्ड।
रोहण मस्ती में अपने शरीर को लहरा रहा था। कभी वो कविता को चूम लेता था तो कभी जोश में आकर अपना हाथ पीछे ले जाकर उसके चूतड़ दबा देता था। कविता के हाथ तेजी पर आ गये थे। बहुत तेज मुठ्ठ मारने लगी थी वो।
रोहण के मुख से कुछ कुछ शब्द निकलने लगे थे- आह्ह... मां चोद दी यार ... और जोर से ... तेज यार ... निकाल दे सारा माल...
उसकी बेताबी देख कर कविता से रहा नहीं जा रहा था। कविता ने उसे बिस्तर पर धक्का दे दिया और उसके ऊपर चढ़ कर चिपक गई रोहण से। रोहण भी उसे अपनी बाहों में लेकर तड़प उठा और उसे अपने नीचे दबा लिया। कविता को नीचे दबने से एक शान्ति सी महसूस हुई। इतने प्यार से उसे अब तक किसी ने नहीं उसे दबाया था। उस पर रोहण का भारी शरीर था। रोहण ने उसकी चूचियाँ दबा कर उसे चूमना चाटना शुरू कर दिया। फिर रोहण का शरीर थोड़ा सा ऊपर उठा और फिर कविता के मुख से एक सिसकारी निकल गई। रोहण का सुपाड़ा उसकी चूत में घुस गया।
"अह्ह्ह ... कितना प्यारा है रोहण..."
तभी रोहण ने एक जोश में धक्का लगा दिया। कविता चीख उठी- जरा धीरे रोहण ...लगती है ... प्यार से चोदो ना ...
वो समझ गया कि उसे चुदे हुये बहुत समय हो गया है। बस वो ही एक बार जब उसके साथ रेलवे प्लेटफ़ार्म पर बलात्कार हुआ था। अब धीरे धीरे जोर लगा कर प्यार से लण्ड घुसेड़ रहा था।
"अब बस ! इतना ही रहने दो रोहण, बहुत मोटा लण्ड है तुम्हारा तो ... घुसता ही नहीं है।"
"ओ के जानू ..."
वो बस आधा लण्ड ही घुसाये अन्दर बाहर करके चोदने लगा। कविता को आनन्द आने लगा था। अब वो भी धीरे धीरे अपनी चूत उछाल उछाल कर चुदवाने लगी थी। रोहण भी मस्ती में हल्के शॉट मार रहा था। कविता की चूत उसके लण्ड को दबा दबा कर ले रही थी। फिर रोहण को लगा कि उसका लण्ड तो पूरा ही चूत में समा चुका है। यानि धीरे धीरे लण्ड ने चूत को चौड़ा कर अपने लिये जगह बना ली थी। अब वो शॉट मारता तो उसका लण्ड बच्चेदानी से टकरा रहा था। फ़च फ़च की चुदने की आवाजें आने लगी थी।
कविता भी अब अन्ट-सन्ट बकने लगी थी- चोद दो ... चोद दो मेरे भैया ... फ़ाड़ दो मेरी चूत ... जरा मस्ती से ... चोदो ... तबियत से चोदो भैया...!
रोहण तो बस आनन्द में अपनी आँखें बन्द किये शॉट पर शॉट मार रहा था। वो बहुत तेजी पर था। कविता भी नीचे दबी झटके खा रही थी। अचानक कविता के अंग ऐंठने लगे, उनका तनाव बढ़ गया और वो आनन्द से चीखने सी लगी- जोर से भैया ... दे लण्ड ... दे लण्ड ... चोद दे ... निकाल दे सारा पानी ... चोद साले चोऽऽऽऽद, हरामी साले...
उह्ह्ह्ह मर गई भैया ... मेरा निकला रे ... उईईईईई राम जी ... अह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ...
फिर कविता झड़ने लगी। रोहण के धक्के अभी भी बरकरार थे। पर अब कस कर धक्के लग रहे थे। कविता झड़ते ही उसे दूर करने की कोशिश कर रही थी। पर रोहण को तो जैसे जुनून सा सवार हो गया था। फिर उसने भी एक चीख के साथ अपना लण्ड बाहर खींच लिया और उसकी चूत पर उसे दबाने लगा। कुछ ही पलो में उसकी पिचकारियाँ छूट पड़ी। वो अपना वीर्य उसकी चूत के पास ही निकालने लगा। कविता ने प्रेमवश उसे अपने से चिपका लिया और उसे चूमने लगी।
दोनों ने ही एक दूसरे को देखा और हंस पड़े।
"बस हो गया ना भैया... बहुत फ़ड़फ़ड़ कर रहे थे।"
"अरे अब तो मुझे भैया ना कहो... इतनी बढ़िया तरीके से चुदी हो, सैंया तो कहो।"
"नहीं दुनिया वालों के लिये भैया ही ठीक रहेगा ... दिल में भले ही सैंया बन जाओ।"
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अरे अब तो मुझे भैया ना कहो-1
रोहण अपने तबादले पर कानपुर आ गया था। उसे जल्द ही एक अच्छा मकान मिल गया था। अकेला होने के कारण उसे भोजन बनाने, कपड़े धोने, घर की सफ़ाई में बहुत कठिनाई आती थी। संयोगवश उसे अपने मन की नौकरानी मिल ही गई।
एक जवान लड़की जो एक छोटे बच्चे को लेकर दरवाजे पर कुछ रात का बचा हुआ खाना मांगने आई थी, उसे उसने यूँ ही कह दिया था- कुछ काम वगैरह किया करो, ऐसे भीख मांगना ठीक नहीं है।
वो बोली- भैया, मुझे तो कोई काम देता ही नहीं है।
तो रोहण ने पूछा- मेरे घर पर काम करोगी?
तो वो मान गई थी।
रोहण ने पहले उसे ऊपर से नीचे तक देखा, नाम पूछा, उसका नाम कविता था और उसके बच्चे का नाम राजा था।
और कहा- पहले तुम अच्छे से नहा धो लो, साफ़ सुथरी तो हो जाओ। फिर तुम दोनों कुछ खा पी लो, फिर बताऊँगा तुम्हें काम।
उसने उसे साबुन और एक पुराना तौलिया दे दिया। अन्दर के कमरों में ताला लगा कर बाहर के कमरे की चाबी दे कर रोहण ऑफ़िस चला आया। शाम को लौटा तो वो भूल ही चुका था कि उसने किसी को वहाँ रख छोड़ा था।
फिर वो मन ही मन हंस पड़ा। अन्दर गया तो मां बेटे दोनों ही सोये हुये थे। नहाने धोने से वे दोनों कुछ साफ़ से नजर आ रहे थे। रोहण ने उन्हें ध्यान से देखा, लड़की तो सुन्दर थी, साफ़ रंग की, दुबली पतली, रेशमी से बाल। वो जमीन पर सोई हुई थी। उसे देख कर रोहण को लगा कि यदि ये शेम्पू से अपने बाल धो कर संवारे तो निश्चित ही वो और सुन्दर लगेगी।
रोहण ने उसे जगाया, वो झट से उठ बैठी। बैठक जिसे मैं उसके लिये खोल कर गया था उसने झाड़ू लगा कर पोंछा करके चमका दिया था।
रोहण ने कमरों को खोला, उसे रसोई बताई, काम समझाया और फिर स्नान करने को चला गया।
रोहण ने उसे नजरों से नापा तौला और बाजार से उसके लिये कुछ कपड़े ले आया। बच्चे के लिये भी निक्कर और कमीज ले आया। रात के लिये कविता के लिये एक सूती पायजामा और एक कुरता भी ले आया था। रात को भोजन से पहले वो स्नान आदि करके आई तो वो सच में खूबसूरत सी लगने लगी थी। वो कुरता उसे ढीला-ढाला सा आया था। चूंकि रोहण ने किसी पहली लड़की को अपने घर में इतनी समीप से देखा था इसलिये शायद वो उसे सुन्दर लग रही थी।
भोजन के लिये वो दोनों नीचे ही बैठ गये। लग रहा था कि वे बहुत भूखे थे। उन्होने जम कर भोजन किया। पूछने पर पता चला कि उन्हें कभी भोजन मिलता था कभी नहीं भी मिलता था।
"कहाँ रहती हो कविता?"
"जी, कहीं नहीं !"
"तो अब कहाँ जाओगी?"
"कहीं भी...
फिर उसने भोजन करके राजा का हाथ पकड़ा और धीरे से मुस्कुरा कर थैंक्स कहा तो उसे एक झटका सा लगा। यह तो अंग्रेजी भी जानती है।
फिर उसने पीछे मुड़ कर पूछा- सवेरे मैं कितने बजे आऊँ?
"यही कोई सात बजे ..."
"जी अच्छा..."
वो बाहर चली गई। रोहण ने अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया। रोज की भांति उसने अपने कमरे में जाकर, जो कि पहली मंजिल पर था, टीवी खोल कर ब्ल्यू फिल्म लगाई और और देर रात को मुठ्ठ मार कर सो गया।
सवेरे वो ब्रश करता हुआ बालकनी पर आया तो उसे अपने वराण्डे में कोई सोता हुआ दिखा। उसे बहुत गुस्सा आया। वो नीचे आया तो देखा कि वहाँ कविता और राजा सोये हुये थे। कविता तो एकदम सिकुड़ी हुई सी, राजा को अपने शरीर से चिपकाये हुये सो रही थी।
वो झुन्झला सा गया, उसने उन दोनों को उठाया और गुस्से में बोला- अरे, यहीं सोना था तो अन्दर क्यों नहीं सो गई? कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?
वो कुछ नहीं बोली, बस सर झुका कर खड़ी हो गई।
फिर कुछ देर बाद बोली- सात तो बज गए होंगे? चाय बना दूँ?
रोहण ने एक तरफ़ हट कर उसे अन्दर जाने का रास्ता दे दिया। जब तक वो स्नान आदि करके आया तो उसने चाय परांठा और अण्डा बना कर तैयार कर दिया था। उसे बहुत अच्छा लगा। उसने नाश्ता कर लिया, उन दोनों से भी नाश्ता करने को कह दिया।
अब से तुम दोनों रसोई में रहना, ठीक है?
कविता की आँखें चमक उठी- साहब, दोपहर को खाने पर आयेंगे ना?
"अब दिन का ... पता नहीं, ठीक है आ जाऊँगा।"
जब रोहण दिन को घर आया तो वो कविता को पहचान ही नहीं पाया। सलवार कुर्ते चुन्नी में और शेम्पू से धोये हुये बाल, मुस्कराती हुई ! ओह कितनी सुन्दर लग रही थी। राजा भी साफ़-सुथरा बहुत मासूम लग रहा था।
"बहुत सुन्दर लग रही हो।"
"जी, थेन्क्स ! भोजन लगा दूँ?"
रोहण ने मां के अलावा इतना स्वादिष्ट भोजन कविता के हाथ का ही खाया था। फिर उसका मन ऑफ़िस जाने का नहीं हुआ। बस कमरे में ऊपर जाकर सो गया। उसने अपने गन्दे मोजे, चड्डी, बनियान, कमीज पैंट वगैरह स्नान के बाद यूँ ही डाल दिये थे। कविता उसके सोने के बाद कमरे में आ कर गन्दे कपड़े मोजे, जूते सभी कुछ ले गई, धुले प्रेस किये कपड़े, साफ़ मोजे, और जूते पॉलिश करके रख गई।
रोहण जब उठा, यह सब देखा तो उसे एक सुखद सा अहसास हुआ।
बस यूँ ही दिन कटने लगे। जाने कब रोहण के दिल में कविता के लिये कोमलता भर गई थी। शायद इन चार-पांच महीने में वो उसे पसन्द करने लगा था। कविता का तन भी इन चार-पांच महीनों में भर गया था और वो चिकनी-सलोनी सी लगने लगी थी।
इतने दिनों में बातों में ही रोहण जान गया था कि उसका नाजायज बच्चा किसी राह चलते आदमी की औलाद थी जिसे वो जानती तक नहीं थी। रेलवे प्लेटफ़ार्म पर उसका बलात्कार हुआ था। चार साल से वो यूं ही दर दर भटक रही थी। कोई काम देता भी तो उसकी खा जाने वाली वासना भरी नजरों से वो डर जाती और भाग जाती थी। मुश्किल उसकी ठण्ड और बरसात के दिनो में आती थी। बस रात कहीं ठिठुरते हुये निकाल लेती थी। अपने छोटे से बच्चे को वो अपने तन से चिपका कर गर्मी देती थी। कानपुर में ठण्ड भी तेज पड़ती थी।
कविता रोहण का बहुत ध्यान रखती थी। सर झुका कर सारे काम करती थी। रोहण के गुस्सा होने पर वो चुप से सर झुका कर सुन लेती थी। रोहण तो अब आये दिन उसके लिये नये फ़ैशन के कपड़े, राजा के लिये जीन्स वगैरह खरीदने लगा था।
पर इन दिनों रोहण की बुरी आदतें रंग भी लाने लगी थी। रात को अकेले में ब्ल्यू फ़िल्म देखना उसकी आदत सी बन गई थी। फिर शनिवार को तो वो शराब भी पी लेता था। रोहण के बन्द कमरे की पीछे वाली खिड़की से एक बार कविता ने रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते फिर मुठ्ठ मारते देख लिया था। वो भी जवान थी, उसके दिल के अरमान भी जाग उठे थे। अब कविता रोज ही रात को करीब ग्यारह बजे चुपके से ऊपर चली आती और उस खिड़की से रोहण को ब्ल्यू फ़िल्म देखते देखा करती थी। वो इस दौरान अपने खड़े लण्ड को धीरे धीरे सहलाता रहता था। लण्ड को बाहर निकाल कर वो कभी अपने सुपाड़े को धीरे धीरे से सहलाता था। कभी कभी तो फ़िल्म में वीर्य स्खलन को देखते हुये वो अपना भी वीर्य लण्ड मुठ्ठ मार कर निकाल देता था।
बेचारी कविता के दिल पर सैकड़ो बिजलियाँ गिर जाती थी, दिल लहूलुहान हो उठता था, वो भी नीचे आकर अपनी कोमल चूत घिस कर पानी निकालने लगती थी।
अब तो कविता का भी यह रोज का काम हो गया, रोहण को मुठ्ठ मारते देखती और फिर खुद भी हस्तमैथुन करके अपना पानी निकाल देती थी।
कब तक चलता यह सब? कविता ने एक दिन मन ही मन ठान लिया कि वो रोहण को अब मुठ्ठ नहीं मारने देगी। वो स्वयं ही अपने आप को उससे चुदवा लेगी। रोहण उसके लिये इतना कुछ कर रहा था क्या वो उसके लिये इतना भी नहीं कर सकती? उसे भी तो अपने शरीर की ज्वाला शान्त करनी थी ना ! तो क्या वो अपने आप को उसे सौंप दे? क्या स्वयं ही नंगी हो कर उसके कमरे में उसके सामने खड़ी हो जाये?
उफ़्फ़्फ़ ! नहीं ऐसे नहीं ! फिर?
अब तो कविता का भी यह रोज का काम हो गया, रोहण को मुठ्ठ मारते देखती और फिर खुद भी हस्तमैथुन करके अपना पानी निकाल देती थी।
कब तक चलता यह सब? कविता ने एक दिन मन ही मन ठान लिया कि वो रोहण को अब मुठ्ठ नहीं मारने देगी। वो स्वयं ही अपने आप को उससे चुदवा लेगी। रोहण उसके लिये इतना कुछ कर रहा था क्या वो उसके लिये इतना भी नहीं कर सकती? उसे भी तो अपने शरीर की ज्वाला शान्त करनी थी ना ! तो क्या वो अपने आप को उसे सौंप दे? क्या स्वयं ही नंगी हो कर उसके कमरे में उसके सामने खड़ी हो जाये?
उफ़्फ़्फ़ ! नहीं ऐसे नहीं ! फिर?
राजा बाहर खेल रहा था। वो स्नान करके बाहर आई, पूरी भीगी हुई थी। उसने तौलिये के लिये नजर दौड़ाई। अभी वो मात्र पैंटी में ही थी और गीली पैंटी उसके कोमल चूतड़ों से चिपकी हुई थी। घर पर तो कोई था नहीं। उसने झुक कर अपनी उभरी हुई चूत को देखा। फिर उसे धीरे से सहलाया।
वो बुरी तरह से चौंक उठी, रोहण सामने खड़ा था।
हाय राम ! कब आ गए ये ! ये तो एक बजे आते हैं ना !
वो पलट कर बाथरूम में घुस गई। कविता दिल एक बार तो मचल उठा। रोहण ने अपनी पलकें बन्द कर ली मानो वो उस पल को अपने अन्दर समेट लेना चाहता हो।
कविता ने बाहर झांक कर देखा तो रोहण आँखें किये ठण्डी आहें भर रहा था।
उसे घायल देख कर कविता पिघल उठी, उसने भी हिम्मत की... झिझकते हुये वो धीरे से बोली- मैं बाहर आ जाऊँ?
रोहण ने अपनी आँखें खोली, उसे झांकता देख बोला- बस एक बार और झलक दिखला दो।
उसे इस हालत में देख कर कविता की आँखों में भी ललाई उतर आई, शर्म से उसकी झुक गई।
"देखो, कुछ करना नहीं।"
वो शरमा कर मुस्कराई और एक बार फिर से अपना गीला बदन लेकर बाथ रूम से फिर बाहर निकल आई।
इस्स्स्स्स ! उभरी हुई चूत पर चिपकी हुई अन्डरवीयर ! स्पष्ट चूत की दरार तक नजर आ रही थी, काली काली बड़ी झांटें अन्डरवीयर की बगल से बाहर निकलती हुई, उसके पुष्ट खूबसूरत उरोज, चुचूक सीधे तने हुए, गजब ढा रही थी वो तो !
रोहण का दिल तो छलनी हो गया था।
"पा... अह्ह्ह ... प्पास अआओ ना ...।" रोहण को पसीना छलक आया।
"बस, अब मुझे वो तौलिया दे दो ना प्लीज !"
रोहण की आँखें उसके शरीर पर से हट ही नहीं रही थी। अनजाने में ही रोहण ने अपना लण्ड दबा लिया। उसकी हालत देख देख कर कविता एक बारगी अपनी हंसी को ना रोक पाई और खिलखिला कर हंस पड़ी।
"अरे जनाब ! वो तौलिया तो दे दो ना !"
उसने कुर्सी पर लटका हुआ तौलिया देखा। उसने उसे उठा लिया और उसे लेकर कविता की ओर बढ़ गया। पर रोहण ने उसे तौलिया नहीं दिया, बल्कि अपने दोनों हाथ खोलकर अपनी बाहों में आने का निमंत्रण दिया। वो शरमा गई। पर वो ऐसी नंगी सी हालत में कब तक खड़ी रहती। उसका दिल भी तो मचल रहा था। वो धीरे-धीरे चल कर उसके समीप आ गई। रोहण के बाहों के घेरे में वो सिमटती चली गई।
ब्...बस करो ना... भैया !
पर उसका चेहरा उसके चेहरे पर झुकने लगा था, वो शरमा कर उससे अपने आप को दूर करने लगी। पर दिल में आग जो लगी थी। दोनों के पत्तियों जैसे अधर एक दूसरे से चिपकने की कोशिश करने लगे थे।
रोहण, मेरी हालत तो देखो, कोई आ गया ना तो? हाय, मैं तो मर ही जाऊँगी !
रोहण की तन्द्रा भंग हो गई। वो भी शरमा सा गया।
ओह ! सॉरी ... सॉरी ... मुझे माफ़ करना।
उसने तौलिया लेकर झट से अपना बदन लपेट लिया।
कितना मोहक, कितना सुन्दर... कैसे रोकता अपने आप को...
ऐसा मत कहो भैया ... आपने तो मेरी जिन्दगी बनाई है ... ऐसा तो जवानी में हो जाता है।
कविता, क्या करूँ, मैं अपने आप को रोक नहीं पाया ...
सच बताऊँ भैया ... आपके मन की इच्छा मैं जान गई थी ... मैं कुछ तो आपके मन की इच्छा पूरी करके आपको खुश कर सकती हूँ ना। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिये।
अरे नहीं ... मुझसे ही गलती हो गई थी।
आपने सिर्फ़ मेरा बदन ही तो देखा है ना ... कुछ किया थोड़े ही है। फिर यह उम्र का दोष है, आपका नहीं।
ओह कविता... मेरा मन डोल जायेगा ... बस करो !
दोनों के मन में एक मधुर सी हूक उठने लगी थी। दोनों एक दूसरे की ओर भी अधिक आकर्षित हो चुके थे। कविता तो अब दिन भर रोहण के ख्यालों में खोई रहती थी। रोहण का भी लगभग यही हाल था। पर आज कविता ने कुछ शरारत करने का मन बना लिया था। रात को जैसे ही रोहण ने जैसे ही ब्ल्यू फ़िल्म आरम्भ की, कुछ समय बाद ही कविता भी ऊपर चली आई। अंधेरे की खामोशी में फ़िल्म से आती सेक्सी आवाजें कमरे बाहर भी इतनी स्पष्ट आ रही थी कि कोई भी जान ले अन्दर ब्ल्यू फ़िल्म चल रही है।
उसने दरवाजा खटखटाया। पर दरवाजा तो खुला ही था। वो अन्दर की तरफ़ खुल गया।
भैया, मैं अन्दर आ जाऊँ?
रोहण हड़बड़ा गया। पहले तो उसने अपने नंगे बदन पर चादर खींच ली। फ़िल्म को बन्द करना तो वो भूल ही गया था।
अरे कविता ! इतनी रात को?
"यह क्या देख रहो भैया ... यह तो ब्ल्यू फ़िल्म है ना !"
"अरे उसे मत देखो ... !"
जल्दबाजी में उसे रिमोट ही नहीं मिल रहा था।
भैया ! तो चुपके चुपके यह सब देख रहे थे... अरे रुको तो... मुझे भी तो देखने दो ना !
कविता रोहण को तिरछी नजर से देख कर मुस्कराई।
"तुम ... तुम देखोगी ...?"
"तुम देख सकते हो तो मैं क्यू नहीं ?... मजा आता है ना भैया...!"
"ओह्ह ... तो देखो मुझे क्या है ...! रोहण ने कविता को शरारत के मूड में देखा तो उसने भी मजाक किया।
कविता वही रोहण के पलंग के एक तरफ़ बैठ गई और ध्यान से देखने लगी।
"आह्ह्ह्ह भैया ... ये देखो तो ... वो क्या कर रहा है?"
"अब ऐसी फ़िल्म में तो यही होता है, बस देखो और इसका आनन्द लो।"
कविता ने जान कर रोहण को दिखाने के लिये अपने स्तन भींच लिये- उफ़्फ़्फ़ मम्मी ... कितना आनन्द आ रहा है।
उसे उत्तेजित देख कर रोहण से भी रहा नहीं गया। उसने धीरे से उसे पीछे से पकड़ लिया और उसके हाथ हटा कर उसकी चूचियाँ दबाने लगा। कविता मचल सी उठी। हंसती हुई सी वो बोली- आह्ह्ह रोहण मत करो ... मर जाऊँगी ... उफ़्फ़्फ़्फ़ मार डालोगे क्या ...?
"बस ... करने दो कविता ... तुम्हें देख कर तो अब रहा नहीं जा रहा है ...!"
कविता ने हंस कर एक झटके से अपने आप को छुड़ा लिया और खड़ी हो गई। कविता ने रोहण को देखते हुये अपने जानकर के होंठ काट कर अपनी चूत दबाई और सिसकारी भरते हुये बोली- भैया ... कितना मजा आता है ना ... लगता है ना मैं तुम्हारा लण्ड अपनी चूत में घुसा लूँ ...!
"तो आ जाओ ना मेरे पास ... तुम्हें चोद कर मुझे भी तो मजा आ जायेगा।"
रोहण का लण्ड बार बार फ़ड़फ़ड़ा रहा था। रोहण ने कविता को दिखाते हुये अपने खड़े को मसल दिया।
"उफ़्फ़, इसे ना हाथ लगाओ... पहले अपना लण्ड बाहर निकाल कर दिखाओ और टीवी बन्द करो ...!" कविता ने शरारत से कहा।
रोहण ने टीवी बन्द किया और चादर अपने शरीर से हटा ली।
"हाय राम, भैया ... इतना मोटा ... यह मेरी चूत के चिथड़े चिथड़े कर देगा।" कविता अपने पूरे रंग पर आ गई थी, उसकी चूत कुलबुलाने लगी थी।
"तुम भी अपने कपड़े उतार दो ना !" रोहण ने कविता को घूरते हुये कहा।
"तो फिर उधर देखो ... नहीं नहीं ! अच्छा इधर ही देखो ... अरे देखो ना मुझे...!"
फिर उसने अपना सलवार कुर्ता उतार दिया। फिर ब्रा भी उतार दी।
"वो चड्डी भी तो उतारो... " रोहण उसके चिकने बदन को अपनी गुलाबी आँखों से निहारता हुआ बोला, फिर अपने नंगे लण्ड को दबाने लगा।
नहीं, वो नहीं ... फिर तो सब ही दिख जायेगा ...!" कविता इठला कर बोली।
"तो क्या हुआ, तुम्हारी रसभरी के दर्शन हो जायेंगे ना !"
"देखो तो कितना कड़क हो रहा है, एक बार प्लीज मुठ्ठ मार कर दिखाओ ना !" कविता ने रोहण से अपनी फ़रमाईश कर दी।
"अच्छा तो आओ, तुम मार दो मेरा मुठ्ठ ... मुठ्ठ का मुठ्ठ और मजे का मजा !"
कविता हंस पड़ी, उसकी तो बहुत इच्छा थी कि वो एक बार रोहण का लण्ड कस कर पकड़ ले और उस की तरह मुठ्ठ मारे।
"तो यहाँ खड़े हो जाओ, सीधे हो जाओ ना ! आओ ना ...!"
रोहण बिस्तर से नीचे गया और फिर कविता रोहण के पास में खड़ी हो गई। कविता ने धीरे से उसका लण्ड पकड़ लिया और उसका सुपाड़ा को खोल दिया।
अन्दर से भीगा हुआ था वो प्री-कम से।
कविता के कठोर स्तन उसकी बांह से रगड़ खा रहे थे। वो जान कर उसे उसकी बांह पर दबा भी रही थी। कविता ने अब मुठ्ठ धीरे धीरे मारना शुरू कर दिया। फिर स्पीड बढ़ाती गई। रोहण ने भी जोश में आकर उसके भारी स्तन दबा दिया।
वो खिलखिला उठी- देखो तो भैया... कैसे फ़ड़फ़ड़ा रहा है तुम्हारा लण्ड।
रोहण मस्ती में अपने शरीर को लहरा रहा था। कभी वो कविता को चूम लेता था तो कभी जोश में आकर अपना हाथ पीछे ले जाकर उसके चूतड़ दबा देता था। कविता के हाथ तेजी पर आ गये थे। बहुत तेज मुठ्ठ मारने लगी थी वो।
रोहण के मुख से कुछ कुछ शब्द निकलने लगे थे- आह्ह... मां चोद दी यार ... और जोर से ... तेज यार ... निकाल दे सारा माल...
उसकी बेताबी देख कर कविता से रहा नहीं जा रहा था। कविता ने उसे बिस्तर पर धक्का दे दिया और उसके ऊपर चढ़ कर चिपक गई रोहण से। रोहण भी उसे अपनी बाहों में लेकर तड़प उठा और उसे अपने नीचे दबा लिया। कविता को नीचे दबने से एक शान्ति सी महसूस हुई। इतने प्यार से उसे अब तक किसी ने नहीं उसे दबाया था। उस पर रोहण का भारी शरीर था। रोहण ने उसकी चूचियाँ दबा कर उसे चूमना चाटना शुरू कर दिया। फिर रोहण का शरीर थोड़ा सा ऊपर उठा और फिर कविता के मुख से एक सिसकारी निकल गई। रोहण का सुपाड़ा उसकी चूत में घुस गया।
"अह्ह्ह ... कितना प्यारा है रोहण..."
तभी रोहण ने एक जोश में धक्का लगा दिया। कविता चीख उठी- जरा धीरे रोहण ...लगती है ... प्यार से चोदो ना ...
वो समझ गया कि उसे चुदे हुये बहुत समय हो गया है। बस वो ही एक बार जब उसके साथ रेलवे प्लेटफ़ार्म पर बलात्कार हुआ था। अब धीरे धीरे जोर लगा कर प्यार से लण्ड घुसेड़ रहा था।
"अब बस ! इतना ही रहने दो रोहण, बहुत मोटा लण्ड है तुम्हारा तो ... घुसता ही नहीं है।"
"ओ के जानू ..."
वो बस आधा लण्ड ही घुसाये अन्दर बाहर करके चोदने लगा। कविता को आनन्द आने लगा था। अब वो भी धीरे धीरे अपनी चूत उछाल उछाल कर चुदवाने लगी थी। रोहण भी मस्ती में हल्के शॉट मार रहा था। कविता की चूत उसके लण्ड को दबा दबा कर ले रही थी। फिर रोहण को लगा कि उसका लण्ड तो पूरा ही चूत में समा चुका है। यानि धीरे धीरे लण्ड ने चूत को चौड़ा कर अपने लिये जगह बना ली थी। अब वो शॉट मारता तो उसका लण्ड बच्चेदानी से टकरा रहा था। फ़च फ़च की चुदने की आवाजें आने लगी थी।
कविता भी अब अन्ट-सन्ट बकने लगी थी- चोद दो ... चोद दो मेरे भैया ... फ़ाड़ दो मेरी चूत ... जरा मस्ती से ... चोदो ... तबियत से चोदो भैया...!
रोहण तो बस आनन्द में अपनी आँखें बन्द किये शॉट पर शॉट मार रहा था। वो बहुत तेजी पर था। कविता भी नीचे दबी झटके खा रही थी। अचानक कविता के अंग ऐंठने लगे, उनका तनाव बढ़ गया और वो आनन्द से चीखने सी लगी- जोर से भैया ... दे लण्ड ... दे लण्ड ... चोद दे ... निकाल दे सारा पानी ... चोद साले चोऽऽऽऽद, हरामी साले...
उह्ह्ह्ह मर गई भैया ... मेरा निकला रे ... उईईईईई राम जी ... अह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ...
फिर कविता झड़ने लगी। रोहण के धक्के अभी भी बरकरार थे। पर अब कस कर धक्के लग रहे थे। कविता झड़ते ही उसे दूर करने की कोशिश कर रही थी। पर रोहण को तो जैसे जुनून सा सवार हो गया था। फिर उसने भी एक चीख के साथ अपना लण्ड बाहर खींच लिया और उसकी चूत पर उसे दबाने लगा। कुछ ही पलो में उसकी पिचकारियाँ छूट पड़ी। वो अपना वीर्य उसकी चूत के पास ही निकालने लगा। कविता ने प्रेमवश उसे अपने से चिपका लिया और उसे चूमने लगी।
दोनों ने ही एक दूसरे को देखा और हंस पड़े।
"बस हो गया ना भैया... बहुत फ़ड़फ़ड़ कर रहे थे।"
"अरे अब तो मुझे भैया ना कहो... इतनी बढ़िया तरीके से चुदी हो, सैंया तो कहो।"
"नहीं दुनिया वालों के लिये भैया ही ठीक रहेगा ... दिल में भले ही सैंया बन जाओ।"
हजारों कहानियाँ हैं फन मज़ा मस्ती पर !
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