सेवक रामजी
मेरी नौकरी एक घर में लग गई थी। मैं यहाँ घर का सारा काम करता था, मसलन-
भोजन पकाना, घर की साफ़ सफ़ाई रखना आदि। यूँ तो मैं एक पढ़ा लिखा लड़का हूँ
पर पढ़ाई में रुचि नहीं होने के कारण मेरे अच्छे नम्बर नहीं आते थे, जैसे
तैसे बी कॉम करने के बाद मैं गांव से शहर आ गया था। मैं एक छह फ़ुटा,
हट्टा कट्टा, गोरे रंग का जाट जवान हूँ, सवेरे कसरत करना मेरा शौक था।
अच्छी नौकरी के लिये लिये मैंने यहां वहां प्रार्थना पत्र डाल रखे थे।
जिस परिवार में काम करता था, वहाँ परिवार के नाम पर बस मियां-बीवी ही थे।
नया घर था, आधुनिक सामान सज्जा से युक्त था। मैं यहाँ मन लगा कर काम करता
था। मेहता साहब का स्वयं का एक कारखाना था। मेरा नौकरों वाला एक मकान का
छोटा सा सेट था, जो चारदीवारी में पीछे की ओर बना हुआ था। रात को सोने से
पहले मैं घर चेक करता था, सभी ताले वगैरह ठीक से बन्द हैं या नहीं, देख
भाल करके ही सोने जाता था। मेहता साहब और रूपा मेमसाब में झगड़ा बहुत होता
था, नतीजन वे दोनों अलग अलग कमरे में रहते थे और अलग ही सोया करते थे।
रूपा मेमसाब का कमरा पीछे था, उनका दरवाजा और खिड़की एक लाईन में थे और वो
मेरी भी खिड़की के सामने थे। रूपाजी का कमरा बाहर की ओर मेरे क्वार्टर की
तरफ़ भी खुलता था, पर वो रूपा जी अन्दर से बन्द रखती थी। खिड़की खुले होने
पर मुझे अन्दर सब साफ़ दिखाई देता था। जाहिर है रूपा जी को भी अपनी खिड़की
से भी मेरा कमरा दिखाई देता होगा। रात को कई बार मैं बाहर उनकी खिड़की में
झांक कर रूपा जी के रूप का लुफ़्त उठाया करता था। मैंने उन्हें कितनी ही
बार अर्धनग्न अवस्था में देखा था। एक बार तो पूरी नंगी भी देख लिया था।
जाने क्यूँ कभी-कभी मुझे लगता था कि जब वो नग्नावस्था में होती हैं तो
जानबूझ कर खिड़कियाँ ठीक से बंद नहीं करती। तो क्या, वो मुझे दिखाने के
लिये ऐसा करती हैं ? उनका रूप-लावण्य देखकर मैं खो सा जाता था, उनके भारी
स्तन सीधे तने हुए, पतली कमर और भारी कूल्हे उसे सेक्सी बनाते हैं। मुझे
कितनी बार इस कारण उत्तेजना भर आती थी और मैं मुठ मारने लगता था। झगड़े के
कारण उनमें शारीरिक सबंध भी नहीं था। इसका कारण मुझे पता चला कि यह सब एक
अन्य युवती की वजह से था। आज शाम से ही रूपा जी के कमरे का दरवाजा खुला
हुआ था। मैं अपना खाना तैयार करके वहाँ काम करने चला गया। शाम का भोजन
बना कर, मेमसाब का भोजन ट्रे में सजा कर उनके कमरे में रख आया था। रूपा
जी बिस्तर पर पड़ी बस यूँ ही शून्य में ताक रही थी। "राम जी, कितना
अकेलापन लगता है...!" "जी मेमसाब ! आप कहें तो मैं आज शाम को आपको झील के
किनारे घुमा लाऊँ ?" "हाँ, चल ... कहीं भी चल... गाड़ी निकाल !" उनकी रोज
की राम कहानी का टेप एक बार फिर से चल पड़ा। रास्ते भर वो मेहता साहब को
गालियाँ देती रही। रात के दस बजे तक यहाँ-वहाँ घूमने के बाद घर आ गये। तब
तक साहब भी आ चुके थे। मैं अपने कमरे में चला आया। साहब का दारू पीने का
दौर आरम्भ हो गया था। तभी मेरे क्वार्टर के कमरे में रूपा जी आ गई। आज का
बना हुआ मेरा खाना, उन्होंने अपने कमरे में मंगवा लिया। मुझे आश्चर्य
हुआ। "आज मेरे साथ ही खाना खा लो ... !" "पर मेरे भोजन में मिर्च मसाले
तेज होते हैं !" "वही तो खाना है ना..." मैं नीचे बैठ गया और वो सी सी
करके मेरे खाने का लुफ़्त उठाती रही। बीच बीच में वो ललचाई नजरों से मुझे
देखती भी जा रही थी। लगता था कि वो आज मूड में हैं। उसने अपने हाथ साफ़
किए और मेरी तरफ़ मुस्करा कर कहने लगी,"कल रात को, राम जी, तुम कुछ गड़बड़
कर रहे थे ना...?" उसके अचानक इस हमले से मैं घबरा गया। "नहीं तो
मालकिन...!" "मैंने कल रात को तुम्हें मुठ मारते देखा था, तुम्हारा है तो
सोलिड !" उसकी वासना भरी आवाज मुझे लुभा रहा थी। "यह क्या कह रही हैं
आप... अब जवानी में ऐसा हो ही जाता है !" मैंने सरल सा जवाब उसे आगे बढ़ने
के दे दिया। "राम जी, बस एक बार अपना लण्ड निकाल कर... बस एक बार मुठ मार
दो मेरे सामने !" मैं रूपा जी की बात सुन कर चकरा गया। ऐसी भाषा तो हम
लोग बोलते थे। क्या उन्हें अपनी मर्यादा का ख्याल नहीं है? और यह मुठ
मारने की बात ... लण्ड की बात...। मैं शरमा गया, पर गर्म भी हो गया, भला
ऐसे कैसे लण्ड निकाल कर मुठ मार दूँ। "रूपा जी, आप कैसा मजाक करती हैं ?"
लण्ड बाहर निकालना और फिर मुठ मारना ? "तू इतनी बार मुझे नंगी देखता है
तो मैंने तुझे कभी कुछ कहा क्या ?" एक और प्रहार हुआ। मैं फिर से चौंक
गया। मेरी हर बात पकड़ी जा चुकी थी। मैंने सर झुका लिया फिर सोचा शायद
रुपा जी मेरे साथ सेक्स का मजा लेना चाहती है ... सोचा ... चलो इसमे हर्ज
ही क्या है? "जी, पर मेरी इतनी हिम्मत कहाँ ... फिर शरम भी आती है" "मर्द
होकर शर्म ... चल ना राम जी ... कर ना ... उतार दे यह पजामा !" मैंने खड़े
हो कर पजामा खोल दिया, फिर फ़टी हुई चड्डी भी उतार दी। पर डर के मारे मेरा
लण्ड और भी सिकुड़ गया था। वो हंसती हुई बोली,"अरे, यह तो मूंग्फ़ली जैसा
हो गया है ... उस दिन तो बहुत लंबा और मोटा नजर आ रहा था?" "बस मेम साब,
मुझे जाने दो ... मुझसे नहीं होगा यह सब..." सच मानो तो मेरी हिम्मत ही
नहीं हो रही थी। वो लपक कर मेरे पास आ गई। "नाराज हो गये ... लाओ जरा मैं
देखूं तो !" उसने मेरे सिकुड़े हुये लण्ड को हिलाया, मुझे जैसे बिजली का
झटका सा लगा। लण्ड अब थोड़ा सा ढीला सा होकर लम्बा हो कर उसके हाथ में आ
गया। अचानक यह हमला मुझे सपने जैसा लग रहा था। वो प्यार से लण्ड सहलाने
लगी। जैसे सोता शेर जाग गया हो। मेरा लण्ड खड़ा हो कर कड़क हो गया। "देखा,
कड़क है साला ... चल अब मार मुठ ... मैं सामने बैठी हूँ !" वो भी लण्ड का
आकार देख कर खुश हो गई। मुझे भी आंतरिक खुशी सी लगी। मैंने अपना लण्ड मुठ
में भर लिया और हौले हौले से आगे पीछे चलाने लगा। रूपा जी की सांसें भी
यह देख कर तेज हो उठी। उसकी छाती जैसे फ़ूलने पिचकने लगी। आखे नशीली हो
गई। मुझे लगा कि तेजी से करूंगा तो वीर्य छूट जायेगा, सो मैंने धीरे से
सुपाड़ा बाहर निकाल लिया और अंगुलियों से लाल टोपी को सहलाने लगा। रूपा के
मुख से आह निकल पड़ी। मेरे मुख से भी सुख की सिसकारी निकल गई। तभी रूपा ने
अपना ब्लाऊज खोल दिया और ब्रा नीचे खींच कर अपना एक चुचूक मसलने लगी। यह
देख कर मेरा हाल और भी बुरा हो गया, लगा कि चूचियों को हाथ से पकड़ कर
भींच डालूँ। तभी उसने अपनी साड़ी उतार दी और पेटीकोट ऊपर कर लिया। उसने
अपनी पेन्टी उतार दी और अपनी चूत मेरे सामने ही नंगी कर ली। वो तो जो मन
में आ रहा था, करती जा रही थी। अपने इस कृत्य में वो जबरदस्त वासना
मह्सूस कर रही थी और रोमांचित भी होती जा रही थी। "हाँ हाँ... और मार मुठ
... मेरे राजा ... हाय रे ... मार ना..." वो जैसे मदहोश हो गई थी। उसे
अपने तन का भी होश नहीं था। उसकी चूत और चूचियाँ सभी कुछ तो उघाड़ कर रखा
था उसने। "मेम साब , यह मत करो ... हाय छुपा लो उसे..." ये सब मेरे में
एक अद्भुत सा रोमांच भर रही थी। "नहीं रे देख इस चूत को ... और मुठ मारता
जा..." उसने चूत की पलकों को अन्दर से गुलाबी रंग दिखाया। मुझे लगा कि
लण्ड को उसमे घुसेड़ ही डालूँ। "मेरा निकल जायेगा मेमसाब !" मैं बदहाल हो
गया था यह सब देख कर। मुझसे इतना सारा खेल सहा नहीं जा रहा था। अपने आप
को झड़ने से रोक नहीं पाया और तेजी से लण्ड की धार निकल पड़ी। वीर्य स्खलित
होते ही मुझे शरम सी आ गई अपनी इस कमजोरी पर। पर रूपा ने और बढ़ावा
दिया,"राम जी... फिर से मसल डालो लण्ड को ... और मारो मुठ... इसे आज सोने
मत दो !" वो भी अपनी चूत खोल कर कभी चूत में दो अंगुलियाँ घुसेड़ती, कभी
अपने मटर जैसे दाने को सहलाती। मेरा लण्ड उसे देख कर ही वापस अंगड़ाई ले
कर जाग खड़ा हुआ और फिर से अकड़ गया। पर इस बार मैंने सोच लिया था कि इस
तड़पती हुई नारी की चूत में बस लण्ड ही चाहिये। मैं भी क्यूँ लण्ड पर
जुल्म करूँ ? मैं धीरे से चल कर उसके समीप आ गया। रूपा जी के सर पर प्यार
से हाथ फ़ेरा, उसके बालों को सहलाया। उसकी प्यासी नजरें जैसे ऊपर उठी और
मुझसे जैसे चुदने की विनती करने लगी। मैंने उसके कंधो को पकड़ा और धीरे से
बिस्तर पर लेटा दिया। वो अपने पांव फ़ैला कर लुढ़क गई। मैं उसकी छाती के
पास आ गया और लण्ड को उसके अधरों से छुला दिया। उसका मुख अपने आप ही खुल
गया और मेरा लण्ड उसमें समाता चला गया। "मेम साब माफ़ करना ... आपका ही
लण्ड है, जब चाहें हाज़िर हो जायेगा !" "ओह राम जी ... मेरे राजा ..." और
जोर जोर से लण्ड चूसने की आवाज आने लगी। मेरा सुपाड़ा फ़ूल के कुप्पा हो
गया। चपड़ चपड़ की मधुर गूंज मुझे मस्त करने लगी। "राम जी, अब मेरी चूत को
भी चूस डालो... मजा आ जायेगा राजा..." मैंने लण्ड उसके मुख से निकाल लिया
और चूत के पास आ गया और चूत के पास झुक गया। एक मधुर सी चूत की भीनी भीनी
खुशबू नथनो में भर गई। उसका दाना मटर जैसा बड़ा था, जीभ लगाने से वह और भी
कड़ा हो गया। वो आनन्द से सिसकने लगी ... मैंने उसकी चूत को चाटना और
चूसना आरम्भ कर दिया। दाना भी अछूता नहीं रहा। वो आनन्द से जैसे छटपटा
उठी। मैंने रूपा को उल्टी करके लेटा दिया और लन्ड को उसके चूतड़ों की दरार
में घुसेड़ दिया। दूसरे ही क्षण उसके मुख से सीत्कार निकल गई। लण्ड गाण्ड
में घुस चुका था। मैंने पीछे से उसे जोर से जकड़ लिया और उसकी चूचियाँ दबा
दी। जोर लगा कर लण्ड और घुसेड़ा, उसको दर्द सा महसूस हुआ। पर बस मैंने
इतना ही घुसाया और अन्दर बाहर करने लगा। धीरे धीरे जगह बनाता हुआ लण्ड
अन्दर भीतर तक पूरा ही घुस गया था। रूपा अब भी जोर की सिसकारियाँ भर रही
थी। उसकी आहों से यह नहीं पता चलता था कि वो दर्द भरी आह है या आनन्द की
है। शायद काफ़ी समय के बाद चुदाने का आनन्द था यह ! मैं उससे लिपट कर उसकी
गाण्ड मारता रहा और वह आनन्द में लिप्त हुई सिसकारियाँ भर रही थी। मैंने
रूपा को फिर से पलट दिया और सीधा कर लिया। उसकी नशीली आंखें जैसे मुझे
अपने बस में कर लेना चाहती थी। "आई रे ... राम जी धीरे से, बहुत मोटा है
... आह अच्छा घुसा दो..." मेरा लण्ड गाण्ड में ले लेने के बाद मुझे लगा
कि चूत तो बनी ही लण्ड के लिये है... फिर तकलीफ़ कैसी...। मैं धीरे से
लण्ड चूत की गहराईयों में उतारने लगा। रूपा ने अपने चक्षु बन्द कर लिये।
लण्ड थोड़ा लंबा था सो कहीं गहराई में जा कर किसी अंग से टकरा गया। मैं अब
धीरे धीरे लण्ड को अन्दर बाहर करने लगा। उसकी गीली चूत ने इसमें सहायता
की और लण्ड फ़िसलन भरी राह में तेजी से बढ़ चला। उसकी चूत भी अब ऊपर-नीचे
उछलने सी लगी थी। कुछ ही देर में हम दोनों पूरे जोश में तेजी से चुदाई कर
रहे थे। ताल से ताल मिला कर हम दोनों का हर अंग चल रहा था। मैंने झुक कर
उसके अधरों को अपने अधरों से भींच लिया। उसने भी अपनी जीभ से जैसे मेरा
मुख चोद दिया। अन्तरंग भावनाओं में बहते हुये हम चरम बिन्दु की ओर बढ़ने
लगे। एक दूसरे में समाये हुये, दोनों शरीर एक ही लगने लगे। मेरे शरीर का
सारा रस जैसे लण्ड की ओर बहता सा लगा। लण्ड में गजब की मिठास भरने लगी।
लण्ड का चूत पर जोर बढ़ गया। तभी रूपा का जिस्म जैसे सिहर सा गया। उसकी
चूत में जैसे लहरें उठने लगी। उसका रतिरस सीमायें तोड़ कर फ़ूट पड़ा था। वह
झड़ने लगी थी। मेरा लण्ड भी वासना का तूफ़ान लिये अपनी सीमायें लांघने लगा
था। मैंने लण्ड निकालने की कोशिश की पर रूपा ने मुझे कस कर जकड़ लिया था।
"राजा ... निकाल दो ... मेरी चूत में ही निकाल दो अपना माल ... हाय मेरी
मां..." "आह्ह्ह्ह, मेम सा ... निकल रहा है ... उफ़्फ़्फ़्फ़्... हाऽऽऽऽऽऽऽ"
मेरे मुख से आनन्द भरी जैसे चीत्कार सी निकल पड़ी। लण्ड उसकी चूत में भरता
चला गया। कुछ ही समय में जैसे सारा नशा उतर गया। हम दोनों एक दूसरे से
अलग हो गये। अपने इस कृत्य पर पहले तो मुझे बहुत शर्म सी आई पर रूपा ने
मुझे हंस बोल कर मेरा संकोच मिटा दिया। "देखो राजा जी..." "जी ! राम
जी... है मेरा नाम !" "आ जाया करो रात को हमारे पास ..." "जैसा आप कहें
... आप बहुत अच्छी हैं मेमसाब जी..." "यह लो रुपये और अपने लिये नये कपड़े
और खुशबू भी ले आना... जरा स्टाईल मारा करो !" मैंने लपक कर पैसे ले
लिये। बस उसके बाद तो मेरी काया बदल गई। दिन को तो मैं नौकर था और रात को
रूपा जी का प्रेमी। कुछ दिनों बाद मुझे रूपा जी ने मुझे अपने कारखाने में
सुपरवाइजर रख लिया। पर घर वही रहा। मैं आज भी रूपा के घर काम, ऑफ़िस का
काम और रूपा जी का व्यक्तिगत सेवक के रूप में कार्य कर रहा हूं, वो बात
अलग है कि रूपा जी के साथ अब उनकी सहेलियाँ भी इस सेवा का लाभ उठाती हैं।
रूपा जी मुझे अब राम जी सेवक कह कर पुकारने लगी थी। इस नाम का मतलब बस
रूपा जी और उसकी सहेलियाँ ही समझती थी। पर हाँ, जब वो सभी मुझे सेवक कहती
थी तो उनके स्वर में एक कसक होती थी और चेहरे पर एक मतलब भरी मुस्कान !
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