Saturday, June 12, 2010

धोबन और उसका बेटा--10

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धोबन और उसका बेटा--10
बात बोलते हुए मेरी नज़रे उसके दोनो जाँघो के बीच में गड़ी हुई थी.
हम दोनो मा बेटे को शायद द्वियार्थी बातो को करने में महारत हासिल
हो गई थी. हर बात में दो दो अर्थ निकल आते थे. मा भी इसको
आक्ची तरह से समझती थी इसलिए मुस्कुराते हुए बोली " एक बार पूरा
पेट भर के खा लेगा तो फिर चला भी ना जाएगा, आराम से धीरे धीरे
खा" . मैं इस पर गहरी सांस लेते हुए बोला " हा अब तो इसी आशा में
रात का इंतेज़ार करूँगा की शायद तब पेट भर खाने को मिल जाए" मा
मेरी तरप का मज़ा लेते हुए बोली " उम्मीद पर तो दुनिया कायम है जब
इतनी देर तक इंतेज़ार किया तो थोरा और कर ले आराम से खाना, अपने
बाप की तरह जल्दी क्यों करता है," मैं ने तब तक खाना ख़तम कर
लिया था और उठ कर लूँगी में हाथ पोच्च कर रसोई से बाहर निकाल
गया. मा ने भी खाना ख़तम कर लिया था. मैं इस्त्री वाले कमरे आ
गया और देखा की अंगीठी पूरी लाल हो चुकी है. मैं इस्त्री गरम
करने को डाल दी और अपने लूँगी को मोर कर घुटनो के उपर तक कर
लिया. बनियान भी मैने उतार दी और इस्त्री करने के काम में लग गया.
हालाँकि मेरा मन अभी भी रसोई घर में ही अटका परा था और जी कर
रहा था मैं मा के आस पास ही मंडराता राहु मगर, क्या कर सकता
था काम तो करना ही था. थोरी देर तक रसोई घर में खत-पट की
आवाज़े आती रही. मेरा ध्यान अभी भी रसोई घर की तरफ ही था. पूरे
वातावरण में ऐसा लगता था की एक अज़ीब सी खुश्बू समाई हुई है.
आँखो के आगे बार बार वही मा की चुचियों को मसलने वाला दृश्या
तैर रहा था. हाथो में अभी भी उसका अहसास बाकी था. हाथ तो मेरा
कपरो को इस्त्री कर रहे थे परंतु दिमाग़ में दिन भर की घटनाए
घूम रही थी.


मेरा मन तो काम करने में ऩही लग रहा था पर क्या करता. तभी मा
के कदमो की आहत सुनाई दी. मैने मूर कर देखा तो पाया की मा मेरे
पास ही आ रही थी. उसके हाथ में हसिया(सब्जी काटने के लिए गाओं
में इस्तेमाल होने वाली च्छेज़) और सब्जी का टोकरा था. मैने मा की ओर
देखा, वो मेरे ओर देख के मुस्कुराते हुए वही पर बैठ गई. फिर उसने
पुचछा "कौन सी सब्जी खाएगा". मैने कहा "जो सब्जी तुम बना दोगि
वही खा लूँगा". इस पर मा ने फिर ज़ोर दे के पुचछा "अर्रे बता तो, आज
सारी च्चेज़े तेरी पसंद की बनाती हू, तेरा बापू तो आज है ऩही, तेरी
ही पसंद का तो ख्याल रखना है". तब मैने कहा "जब बापू ऩही है
तो फिर आज केले या बैगान की सब्जी बना ले, हम दोनो वही खा लेंगे,
तुझे भी तो पसंद है इसकी सब्जी". मा ने मुस्कुराते हुए कहा "चल
ठीक है वही बना देती हू". और वही बैठ के सब्जिया काटने लगी.
सब्जी काटने के लिए जब वो बैठी थी तब उसने अपना एक पैर मोर कर
ज़मीन पर रख दिया था और दूसरा पैर मोर कर अपनी छाति से टिका
रखा था, और गर्दन झुकाए सब्जिया काट रही थी. उसके इस तरह से
बैठने के कारण उसकी एक चुचि जो की उसके एक घुटने से दब रही थी
ब्लाउस के बाहर निकलने लगी और उपर से झाकने लगी. गोरी-गोरी चुचि
और उस पर की नीली नीली रेखाए सब नुमाया हो रही थी . मेरी नज़र
तो वही पर जा के ठहर गई थी. मा ने मुझे देखा, हम दोनो की
नज़रे आपस में मिली, और मैने झेप कर अपनी नज़र नीचे कर ली और
इस्त्री करने लगा. इस पर मा ने हसते हुए कहा "चोरी चोरी देखने की
आदत गई ऩही, दिन में इतना सब कुछ हो गया अब भी...........".
मैने कुच्छ ऩही कहा और अपने काम में लगा रहा. तभी मा ने सब्जी
काटना बंद कर दिया और उठ कर खरी हो गई और बोली, "खाना बना
देती हू, तू तब तक छत पर बिच्छवान लगा दे बरी गर्मी है आज तो,
इस्त्री छ्होर कल सुबह उठ के कर लेना". मैने ने कहा "बस थोरा सा
और कर दू फिर बाकी तो कल ही करूँगा". मैं इस्त्री करने में लग गया
और, रसोई घर से फिर खाट पट की आवाज़े आने लगी यानी की मा ने
खाना बनाना शुरू कर दिया था. मैने जल्दी से कुछ कपरो को इस्त्री
की, फिर अंगीठी बुझाई और अपने तौलिए से पसीना पोचहता हुआ बाहर
निकाल आया. हॅंडपंप के ठंडे पानी से अपना मुँह हाथो को धोने के
बाद, मैने बिचवान लिया और छत पर चला गया . और दिन तो तीन
लोगो का बिच्छवान लगता था पर आज तो दो का ही लगाना था. मैने वही
ज़मीन पर पहले चटाई बिच्चाई और फिर दो लोगो के लिए बिच्छवान लगा
कर नीचे आ गया. मा अभी भी रसोई में ही थी. मैं भी रसोई घर
में घुस गया.
मा ने सारी उतार दिया था और अब वो केवल पेटिकोट और ब्लाउस में ही
खाना बना रही थी. उसने अपने कंधे पर एक छ्होटा सा तौलिया राक
लिया था और उसी से अपने माथे का पसीना पोच्च रही थी. मैं जब वाहा
पहुचा तो मा सब्जी को काल्च्चि से चला रही थी और दूसरी तरफ
रोटिया भी सेक रही थी. मैने कहा "कौन सी सब्जी बना रही हो केले
या बैगान की" मा ने कहा "खुद ही देख ले कौन

सी है".


"खुसभू तो बरी आक्ची आ रही है, ओह लगता है दो दो सब्जी बनी है"


"खा के बताना कैसी बनी है"


"ठीक है मा, बेटा और कुच्छ तो ऩही करना" कहते कहते मैं एक दम
मा के पास आ के बैठ गया था. मा मोढ़े पर अपने पैरो को मोर के
और अपने पेटिकोट को जाँघो के बीच समेत कर बैठी थी. उसके बदन
से पसीने की अज़ीब सी खुसबु आ रही थी. मेरा पूरा ध्यान उसके जाँघो
पर ही चला गया था. मा ने मेरी र देखते हुए कहा "ज़रा खीरा
काट के सलाद भी बना ले".


"वा मा, आज तो लगता है तू सारी ठंडी चीज़े ही खाएगी"


"हा, आज सारी गर्मी उतार दूँगी मैं"


"ठीक है मा, जल्दी से खाना खा के छत पर चलते है, बरी आक्ची
हवा चल रही है"
"ठीक है मा, जल्दी से खाना खा के छत पर चलते है, बरी आक्ची
हवा चल रही है"


मा ने जल्दी से थाली निकाली सब्जी वाले चूल्‍हे को बंद कर दिया, अब
बस एक या दो रोटिया ही बची थी, उसने जल्दी जल्दी हाथ चलना शुरू
कर दिया. मैने भी खीरा और टमाटर काट के सलाद बना लिया. मा ने
रोटी बनाना ख़तम कर के कहा "चल खाना निकाल देती हू बाहर आँगन
में मोढ़े पर बैठ के खाएँगे". मैने दोनो परोसी हुई तालिया उठाई
और आँगन में आ गया . मा वही आँगन में एक कोने पर अपना हाथ
मुँह धोने लगी. फिर अपने छ्होटे तौलिए से पोचहते हुए मेरे सामने
रखे मोढ़े पर आ के बैठ गई. हम दोनो ने खाना सुरू कर दिया. मेरी
नज़रे मा को उपर से नीचे तक घूर रही थी. मा ने फिर से अपने
पेटिकोट को अपने घुटनो के बीच में समेत लिया था और इस बार
शायद पेटिकोट कुछ ज़यादा ही उपर उठा दिया था. चुचिया एक दम
मेरे सामने तन के खरी खरी दिख रही थी. बिना ब्रा के भी मा की
चुचिया ऐसी तनी रहती थी जैसे की दोनो तरफ दो नारियल लगा दिए
गये हो. इतना उमर बीत जाने के बाद भी थोरा सा भी ढलकाव ऩही
था. जंघे बिना किसी रोए के, एक दम चिकनी और गोरी और मांसल थी.
पेट पर उमर के साथ थोरा सा मोटापा आ गया था जिसके कारण पेट में
एक दो फोल्ड परने लगे थे, जो देकने में और ज़यादा सुंदर लगते थे.
आज पेटिकोट भी नाभि के नीचे बँधा गया था इस कारण से उसकी
गहरी गोल नाभि भी नज़र आ रही थी. थोरी देर बैठने के बाद ही
मा को पसीना आने लगा और उसके गर्दन से पसीना लुढ़क कर उसके
ब्लाउस के बीच वाली घाटी में उतरता जा रहा था, वाहा से वो पसीना
लुढ़क कर उसके पेट पर भी एक लकीर बना रहा था और धीरे धीरे
उसकी गहरी नाभि में जमा हो रहा था मैं इन सब चीज़ो को बरे गौर
से देख रहा था. मा ने जब मुझे ऐसे घूरते हुए देखा तो हसते हुए
बोली "चुप चाप ध्यान लगा के खाना खा समझा" और फिर अपने छ्होटे
वाले तौलिए से अपना पसीना पोच्छने लगी. मैं खाना खाने लगा और
बोला "मा सब्जी तो बहुत ही अच्छी बनी है". मा ने कहा "चल तुझे
पसंद आई यही बहुत बरी बात है मेरे लिए, ऩही तो आज कल के
लार्को को घर का कुच्छ भी पसंद ही ऩही आता". मैने कहा "ऩही मा
ऐसी बात ऩही है, मुझे तो घर का माल ही पसंद है," ये माल साबद
मैने बरे धीमे स्वर में कहा था, की कही मा ना सुन ले. मा को
लगा की शायद मैने बोला है घर की दाल इसलिए वो बोली "मैं जानती
हू मेरा बेटा बहुत समझदार है और वो घर के दाल चावल से काम
चला सकता है उसको बाहर के मालपुए (एक प्रकार की खाने वाली चीज़,
जो की मैदे और चीनी की सहायता से बनाई जाती है और फूली हू पॅव की
तरह से दिखती है) से कोई मतलब ऩही है". मा ने मालपुआ साबद पर
सहायद ज़यादा ही ज़ोर दिया था और मैने इस शब्द को पकर लिया. मैने
कहा "पर मा तुझे मालपुआ बनाए काफ़ी दिन हो गये, कल मालपुआ बना
ना" मा ने कहा "मालपुआ तुझे बहुत अक्चा लगता है मुझे पाता है
मगर इधर इतना टाइम कहा मिलता था जो मालपुआ बना साकु, पर अब
मुझे लगता है तुझे मालपुआ खिलाना ही परेगा". मैने ने कहा "जल्दी
खिलाना मा", और हाथ धोने के लिए उठ गया मा भी हाथ धोने के
लिए उठ गई. हाथ मुँह धोने के बाद मा फिर रसोई में चली गई और
बिखरे परे सामानो को सम्भलने लगी मैने कहा "छ्होरो ना मा, चलो
सोने जल्दी से, यहा बहुत गर्मी लग रही है" मा ने कहा "तू जा ना
मैं अभी आती, रसोई गंदा छ्होरना अच्छी बात ऩही है". मुझे तो
जल्दी से मा के साथ सोने की हारबारी थी की कैसे मा से चिपक के
उसके मांसल बदन का रस ले साकु पर मा रसोई साफ करने में जुटी
हुई थी. मैने भी रसोई का समान संभालने में उसकी मदद करनी
शुरू कर दी. कुच्छ ही देर में सारा समान जब ठीक तक हो गया तो
हम दोनो रसोई से बाहर आ गये. मा ने कहा "जा दरवाजा बंद कर दे".
मैं दौर कर गया और दरवाजा बंद कर आया अभी ज़यादा देर तो ऩही
हुआ था रात के 9:30 ही बजे थे. पर गाँव में तो ऐसे भी लोग जल्दी
ही सो जया करते है. हम दोनो मा बेटे छत पर आके बिच्छवान पर
लेट गये.
बिच्छवान पर मेरे पास ही मा भी आके लेट गई थी. मा के इतने पास
लेटने भर से मेरे सरीर में एक गुदगुदी सी दौर गई. उसके बदन से
उठने वाली खुसबु मेरी सांसो में भरने लगी और मैं बेकाबू होने
लगा था. मेरा लंड धीरे धीरे अपना सिर उठाने लगा था. तभी मा
मेरी ओररे करवट कर के घूमी और पुचछा "बहुत तक गये हो ना"
"हा, मा "








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