Thursday, April 8, 2010

raj sharma stories दीदी का दीवाना पार्ट-4

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दीदी का दीवाना पार्ट-4
घर में घुसने पर देखा की दीदी अपने कपड़े पहन कर बालकनी में खरी हो कर अपने बालों को सुखा रही थी. पीली साडी और ब्लाउज में आसमान से उतरी परी की तरह लग रही थी. गर्दन पीछे की तरफ कर के बालों को तौलिये से रगर कर पोछते हुए शायद उसे ध्यान नहीं था की टाइट ब्लाउज में बाहर की ओर उसकी चुचियाँ निकल जाएँगी. देखने से ऐसा लग रहा था जैसे अभी फार कर बाहर निकल आएगी. उसने शायद थोड़ा मेकअप भी कर लिया था. बाल सुखाते हुए उसकी नज़र मेरे ऊपर पड़ी तो बोली "कहाँ था, बोल के जाता...मैं कम से कम दरवाजा तो बंद कर लेती". मैंने कहा "सॉरी दीदी वो मुझे ध्यान नहीं रहा...". फिर बाल सुखाने के बाद दीदी अपने कमरे में चली गई. मैं वही बाहर बैठ कर टेलिविज़न देखने लगा.

अब मैं एक चोर बन चूका था, एक ऐसा चोर जो अपनी बड़ी बहन की खूबसूरती को चोरी छुपे हर समय निहारने की कोशिश में लगा रहता था. एक चोर की तरह मैं डरता भी था की कही मेरी चोरी पकरी न जाये. हर समय कोशिश करता रहता था की जब दीदी अस्त-व्यस्त अवस्था में लेटी हो या कुछ काम कर रही हो तो उसकी एक झलक ले लू. दफ्तर खुल चूका था सो बाथरूम में फिर से दीदी की जवानी को निहारने का मौका नहीं मिल रहा था. सुबह-सुबह नहा कर लोकल पकर कर ऑफिस जाता और फिर शाम में ही घर पर वापस आ पाता था. नया शनिवार और रविवार आया, उस दिन मैं काफी देर तक लैट्रिन में बैठा रहा पर दीदी बाथरूम में नहाने नहीं आई. फिर मैंने मौका देख कर दीदी जब नहाने गई तो लैट्रिन में चोरी से घुसने की कोशिश की पर उस काम में भी असफल रहा परोस से कोई आ कर दरवाज़ा खटखटाने लगा और दीदी ने बाथरूम में से मुझे जोर से आवाज़ देकर कहा की “देख कौन है दरवाजे पर”, मजबूरन निकलना पड़ा. ऐसे ही हमेशा कुछ न कुछ हो जाता था और अपने प्रयासों में मुझे असफलता हाथ लगती. फिर मुझे मौका भी केवल शनिवार और रविवार को मिलता था. अगर इन दो दिनों में कुछ हो पाता तो ठीक है नहीं तो फिर पुरे एक सप्ताह तक इंतजार करना परता था. उस दिन की घटना को याद कर कर के मैंने न जाने कितनी बार मुठ मारी होगी इसका मुझे खुद अहसास नहीं था.

इसी तरह एक रात जब मैं अपने लण्ड को खड़ा करके हलके हलके अपने लण्ड की चमरी को ऊपर निचे करते हुए अपनी प्यारी दीदी को याद करके मुठ मारने की कोशिश करते हुए, अपनी आँखों को बंद कर उसके गदराये बदन की याद में अपने को डुबाने की कोशिश कर रहा था तो मेरी आँखों में पड़ती हुई रौशनी की लकीर ने मुझे थोड़ा बैचैन कर दिया और मैंने अपनी आंखे खोल दी. दीदी के कमरे का दरवाज़ा थोड़ा सा खुला हुआ था. दरवाजे के दोनों पल्लो के बीच से नाईट बल्ब की रौशनी की एक लकीर सीधे मेरे तकिये के ऊपर जहाँ मैं अपना सर रखता हूँ पर आ रही थी. मैं आहिस्ते से उठा और दरवाजो के पास जा कर सोचा की इसके दोनों पल्लो को अच्छी तरह से आपस में सटा देता हूँ. चोरी तो मेरे मन में थी ही. दोनों पल्लो के बीच से अन्दर झाँकने के लोभ पर मैं काबू नहीं रख पाया. दीदी के गुस्सैल स्वाभाव से परिचित होने के कारण मैं जानता था, अगर मैं पकड़ा गया तो शायद इस घर में मेरा आखिरी दिन होगा. दोनों पल्लो के बीच से अन्दर झांक कर देखा की दीदी अपने पलंग पर करवट होकर लेटी हुई थी. उसका मुंह दरवाजे के विपरीत दिशा में था. यानि की पैर दरवाजे की तरफ था. पलंग एक साइड से दीवाल सटा हुआ था, दीदी दीवाल की ओर मुंह करके केवल पेटिकोट और ब्लाउज में जैसा की गर्मी के दिनों में वो हमेशा करती है लेटी हुई थी. गहरे नीले रंग का ब्लाउज और पेटिकोट दीदी के गोरे रंग पर खूब खिलता था. मुझे उनका पिछवारा नज़र आ रहा था. कई बार सोई हुई अवस्था में पेटिकोट इधर उधर हो जाने पर बहुत कुछ देख पाने का मौका मिल जाता है ऐसा मैंने कई कहानियों में पढ़ा था मगर यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था. पेटिकोट अच्छी तरह से दीदी के पैरों से लिपटा हुआ था और केवल उनकी गोरी पिंडलियाँ ही दिख रही थी. दीदी ने अपने एक पैर में पतली सी पायल पहन रखी थी. दीदी वैसे भी कोई बहुत ज्यादा जेवरों की शौकीन नहीं थी. हाथो में एक पतली से सोने की चुड़ी. गोरी पिंडलियों में सोने की पतली से पायल बहुत खूबसूरत लग रही थी. पेटिकोट दीदी के भारी चुत्तरो से चिपके हुए थे. वो शायद काफी गहरी नींद में थी. बहुत ध्यान से सुन ने पर हलके खर्राटों की आवाज़ आ रही थी. मैंने हलके से दरवाजे के पल्लो को अलग किया और दबे पाँव अन्दर घुस गया. मेरा कलेजा धक्-धक् कर रहा था मगर मैं अपने कदमो को रोक पाने असमर्थ था. मेरे अन्दर दीदी के प्रति एक तीव्र लालसा ने जन्म ले लिया था. मैं दीदी के पास पहुँच कर एक बार सोती हुई दीदी को नजदीक से देखना चाहता था. दबे कदमो से चलते हुए मैं पलंग के पास पहुँच गया. दीदी का मुंह दूसरी तरफ था. वो बाया करवट हो कर लेटी हुई थी. कुछ पलो के बाद पलंग के पास मैं अपनी सोई हुई प्यारी बहन के पीछे खड़ा था. मेरी सांस बहुत तेज चल रही थी. दम साध कर उन पर काबू करते हुए मैं थोड़ा सा आगे की ओर झुका. दीदी की सांसो के साथ उनकी छाती धीरे-धीरे उठ बैठ रही. गहरे नीले रंग के ब्लाउज का ऊपर का एक बटन खुला हुआ था और उस से गोरी छातियों दिख रही थी. थोड़ा सा उनके सर की तरफ तिरछा हो कर झुकने पर दोनों चुचियों के बीच की गहरी घाटी का उपरी भाग दिखने लगा. मेरे दिमाग इस समय काम करना बंद कर चूका था. शायद मैंने सोच लिया था की जब ओखली में सर दे दिया तो मुसल से क्या डरना. मैंने अपने दाहिने हाथ को धीरे से आगे बढाया. इस समय मेरा हाथ काँप रहा था फिर भी मैंने अपने कांपते हाथो को धीरे से दीदी की दाहिनी चूची पर रख दिया. गुदाज चुचियों पर हाथ रखते ही लगा जैसे बिजली के नंगे तार को छू दिया हो. ब्लाउज के ऊपर से चूची पर हाथो का हल्का सा दबाब दिया तो पुरे बदन में चीटियाँ रेंगने लगी. किसी लड़की या औरत की चुचियों को पहली बार अपने हाथो से छुआ था. दीदी की चूची एकदम सख्त थी. ज्यादा जोर से दबा नहीं सकता था. क्योंकि उनके जग जाने का खतरा था, मगर फिर भी इतना अहसास हो गया की नारियल की कठोर खोपरी जैसी दिखने वाली ये चूची वास्तव में स्पोंज के कठोर गेंद के समान थी. जिस से बचपन में मैंने खूब क्रिकेट खेली थी. मगर ये गेंद जिसको मैं दबा रहा था वो एक जवान औरत के थे जो की इस समय सोई हुई थी. इनके साथ ज्यादा खेलने की कोशिश मैं नहीं कर सकता था फिर भी मैं कुछ देर तक दीदी की दाहिनी चूची को वही खड़े-खड़े हलके-हलके दबाता रहा. दीदी के बदन में कोई हरकत नहीं हो रही थी. वो एकदम बेशुध खर्राटे भर रही थी. ब्लाउज का एक बटन खुला हुआ था, मैंने हलके से ब्लाउज के उपरी भाग को पकर कर ब्लाउज के दोनों भागो को अलग कर के चूची देखने के लिए और अन्दर झाँकने की कोशिश की मगर एक बटन खुला होने के कारण ज्यादा आगे नहीं जा सका. निराश हो कर चूची छोर कर मैं अब निचे की तरफ बढा. दीदी की गोरी चिकनी पेट और कमर को कुछ पलो तक देखने के बाद मैंने हलके से अपने हाथो को उनकी जांघो पर रख दिया. दीदी की मोटी मदमस्त जांघो का मैं दीवाना था. पेटिकोट के कपरे के ऊपर से जांघो को हलके से दबाया तो अहसास हुआ की कितनी सख्त और गुदाज जांघे है. काश मैं इस पेटिकोट के कपड़े को कुछ पलो के लिए ही सही हटा कर एक बार इन जांघो को चूम पाता या थोड़ा सा चाट भर लेता तो मेरे दिल को करार आ जाता. दीदी की मोटी जांघो को हलके हलके दबाते हुए मैं सोचने लगा की इन जांघो के बीच अपना सर रख कर सोने में कितना मजा आएगा. तभी मेरी नज़र दीदी की कमर के पास पड़ी जहाँ वो अपने पेटिकोट का नाड़ा बांधती है. पेटिकोट का नाड़ा तो खूब कस कर बंधा हुआ था, मगर जहाँ पर नाड़ा बंधा होता है ठीक वही पर पेटिकोट में एक कट बना हुआ था. ये शायद नाड़ा बाँधने और खोलने में आसानी हो इसलिए बना होता है. मैं हलके से अपने हाथो को जांघो पर से हटा कर उस कट के पास ले गया और एक ऊँगली लगा कर कट को थोड़ा सा फैलाया. ओह...वहां से सीधा दीदी की बुर का उपरी भाग नज़र आ रहा था. मेरा पूरा बदन झन-झना गया. लण्ड ने अंगराई ली और फनफना कर खड़ा हो गया. ऐसा लगा जैसे पानी एक दम सुपाड़े तक आ कर अटक गया है और अब गिर जायेगा. मैंने उस कट से दीदी के पेरू (पेट का सबसे निचला भाग) के थोड़ा निचे तक देख पा रहा था. चूँकि दीदी को बाथरूम में नहाते हुए देखने के बाद से तीन हफ्ते बीत चुके थे और शायद दीदी ने दुबारा फिर से अपने अंदरूनी बालों की सफाई नहीं की थी इसलिए उनकी चुत पर झांटे उग गई थी. मुझे वही झांटे दिख रही थी. वासना और उत्तेजना में अँधा हो कर मैंने धीरे से अपनी ऊँगली पेटिकोट के कट के अन्दर सरका दी. मेरी उँगलियों को पेरू की कोमल त्वचा ने जब छुआ तो मैं काँप गया और मेरी उँगलियाँ और अन्दर की तरफ सरक गई. चुत की झांटे मेरी उँगलियों में उलझ चुकी थी. मैं बहुत सावधानी से अपनी उँगलियों को उनके बीच चलाते हुए और अन्दर की तरफ ले जाना चाहता था. इसलिए मैंने पेटिकोट के कट को दुसरे हाथ की सहायता से थोड़ा सा और फैलाया और फिर अपनी ऊँगली को थोड़ा और अन्दर घुसाया और यही मेरी सबसे बड़ी गलती साबित हो गई. मुझे ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए था मगर गलती हो चुकी थी. दीदी अचानक सीधी होती हुई उठ कर बैठ गई. अपनी नींद से भरी आँखों को उन्होंने ऐसे खोल दिया जैसे वो कभी सोई ही नहीं थी. सीधा मेरे उस हाथ को पकर लिया जो उनके पेटिकोट के नाड़े के कट के पास था. मैं एक दम हक्का बक्का सा खड़ा रह गया. दीदी ने मेरे हाथो को जोर से झटक दिया और एक दम सीधी बैठती हुई बोली "हरामी...सूअर...क्या कर रहा....था...शर्म नहीं आती तुझे...." कहते हुए आगे बढ़ कर चटक से मेरी गाल पर एक जोर दार थप्पड़ रशीद कर दिया. इस जोरदार झापड़ ने मुझे ऊपर से निचे तक एक दम झन-झना दिया. मेरे होश उर चुके थे. गाल पर हाथ रखे वही हतप्रभ सा खड़ा मैं निचे देख रहा था. दीदी से नज़र मिलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. दीदी ने एक बार फिर से मेरा हाथ पकर लिया और अपने पास खींचते हुए मुझे ऊपर से निचे तक देखा. मैं काँप रहा था. मुझे लग रहा था जैसे मेरे पैरों की सारी ताकत खत्म हो चुकी है और मैं अब निचे गिर जाऊंगा. तभी दीदी ने एक बार फिर कड़कती हुई आवाज़ में पूछा "कमीने...क्या कर रहा था...जवाब क्यों नहीं देता...." फिर उनकी नज़रे मेरे हाफ पैंट पर पड़ी जो की आगे से अभी भी थोड़ा सा उभरा हुआ दिख रहा था. हिकारत भरी नजरो से मुझे देखते हुए बोली "यही काम करने के लिए तू....मेरे पास....छि....उफ़....कैसा सूअर…..”. मेरे पास बोलने के लिए कुछ भी नहीं था मगर फिर भी हिम्मत करके हकलाते हुए मैं बोला "वो दीदी...माफ़..मैं.....मुझे...माफ़...मैं अब...आ....आगे..." पर दीदी ने फिर से जोर से अपना हाथ चलाया. चूँकि वो बैठी हुई थी और मैं खड़ा था इसलिए उनका हाथ सीधा मेरे पैंट के लगा. ऐसा उन्होंने जान-बूझ कर किया था या नहीं मुझे नहीं पता मगर उनका हाथ थोड़ा मेरे लण्ड पर लगा और उन्होंने अपना हाथ झटके से ऐसे पीछे खिंच लिया जैसे बिजली के नंगे तारो ने उन को छू लिया हो और एकदम दुखी स्वर में रुआंसी सी होकर बोली "उफ़....कैसा लड़का है.....अगर माँ सुनेगी....तो क्या बोलेगी...ओह...मेरी तो समझ में नहीं आ रहा...मैं क्या करू...". बात माँ तक पहुचेगी ये सुनते ही मेरी गांड फट गई. घबरा कर कैसे भी बात को सँभालने के इरादे से हकलाता हुआ बोला "दीदी...प्लीज़....माफ़...कर दो...प्लीज़....अब कभी...ऐसा...नहीं होगा....मैं बहक गया...था...आज के बाद...प्लीज़ दीदी...प्लीज़...मैं कही मुंह नहीं दिखा पाउँगा...मैं आपके पैर...." कहते हुए मैं दीदी के पैरों पर गिर पड़ा. दीदी इस समय एक पैर घुटनों के पास से मोर कर बिस्तर पर पालथी मारने के अंदाज में रखा हुआ था और दूसरा पैर घुटना मोर कर सामने सीधा रखे हुए थी. मेरी आँखों से सच में आंसू निकलने लगे थे और वो दीदी के पैर के तलवे के उपरी भाग को भींगा रहे थे. मेरी आँखों से निकलते इन प्रायश्चित के आंसुओं ने शायद दीदी को पिघला दिया और उन्होंने धीरे से मेरे सर को ऊपर की तरफ उठाया. हालाँकि उनका गुस्सा अभी भी कम नहीं हुआ था और वो उनकी आँखों में दिख रहा था मगर अपनी आवाज़ में थोड़ी कोमलता लाते हुए बोली "ये क्या कर रहा था तू.....तुझे लोक लाज...मान मर्यादा किसी भी चीज़ की चिंता नहीं....मैं तेरी बड़ी बहन हूँ....मेरी और तेरी उम्र के बीच...नौ साल का फासला है....ओह मैं क्या बोलू मेरी समझ में नहीं आ रहा....ठीक है तू बड़ा हो गया है...मगर.....क्या यही तरीका मिला था तुझे....उफ़..." दीदी की आवाज़ की कोमलता ने मुझे कुछ शांति प्रदान की हालाँकि अभी भी मेरे गाल उनके तगड़े झापर से झनझना रहे थे और शायद दीदी की उँगलियों के निशान भी मेरी गालों पर उग गए थे. मैं फिर से रोते हुए बोला "प्लीज़ दीदी मुझे...माफ़ कर दो...मैं अब दुबारा ऐसी...गलती....". दीदी मुझे बीच में काटते हुए बोली "मुझे तो तेरे भविष्य की चिंता हो रही है....तुने जो किया सो किया पर मैं जानती हूँ...तू अब बड़ा हो चूका है....तू क्या करता है.... कही तू अपने शरीर को बर्बाद….तो नहीं…कर रहा है"
मैंने इसका मतलब नहीं समझ पाया. हक्का बक्का सा दीदी का मुंह ताकता रहा. दीदी ने मेरे से फिर पूछा "कही....तू कही....अपने हाथ से तो नहीं....". अब दीदी की बात मेरी समझ में आ गई. दीदी का ये सवाल पूछना वाजिब था क्योंकि मेरी हरकतों से उन्हें इस बात का अहसास तो हो ही चूका था की मैंने आज तक किसी लड़की के साथ कुछ किया नहीं था और उन्हें ये भी पता था की मेरे जैसे लड़के अपने हाथो से काम चलाते है. पर मैं ये सवाल सुन कर हक्का बक्का सा रह गया गया. मेरे होंठ सुख गए और मैं कुछ बोल नहीं पाया. दीदी ने फिर से मेरी बाँहों को पकड़ मुझे झकझोरा और पूछा "बोलता क्यों नहीं है....मैं क्या पूछ रही हूँ....तू अपने हाथो से तो नहीं करता..." मैंने नासमझ होने का नाटक किया और बोला "हाथो से दीदी...म म मैं समझा नहीं..."
"देख....इतना तो मैं समझ चुकी हु की तू लड़कियों के बारे में सोचता..है...इसलिए पूछ रही हु तू अपने आप को शांत करने के लिए....जैसे तू अभी मेरे साथ...उफ़ बोलने में भी शर्म आ रही पर....अभी जब तेरा....ये तन जाता है तो अपने हाथो से शांत करता है क्या...इसे..." मेरे पैंट के उभरे हुए भाग की तरफ इशारा करते हुए बोली. अब दीदी अपनी बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर चुकी थी मैं कोई बहाना नहीं कर सकता था गर्दन झुका कर बोला "दी...दीदी...वो वो...मुझे माफ़ कर...माफ़..." एक बार फिर से दीदी का हाथ चला और मेरी गाल फिर से लाल हो गई "क्या दीदी, दीदी कर रहा है...जो पूछ रही हूँ साफ़ साफ़ क्यों नहीं बताता....हाथ से करता है....यहाँ ऊपर पलंग पर बैठ...बता मुझे..." कहते हुए दीदी ने मेरे कंधो को पकड़ ऊपर उठाने की कोशिश की. दीदी को एक बार फिर गुस्से में आता देख मैं धीरे से उठ कर दीदी के सामने पलंग पर बैठ गया और एक गाल पर हाथ रखे हुए अपनी गर्दन निचे किये हुए धीरे से बोला "हाँ...हाथ से......हाथ से...करता..." मैं इतना बोल कर चुप हो गया. हम दोनों के बीच कुछ पल की चुप्पी छाई रही फिर दीदी गहरी सांस लेते हुए बोली "इसी बात का मुझे डर था....मुझे लग रहा था की इन सब चक्करों में तू अपने आप को बर्बाद कर रहा है..." फिर मेरी ठोढी पकड़ कर मेरे चेहरे को ऊपर उठा कर ध्यान से देखते हुए बोली "मैंने...तुझे मारा...उफ़...देख कैसा निशान पर गया है...पर क्या करती मैं मुझे गुस्सा आ गया था....खैर मेरे साथ जो किया सो किया......पर भाई...सच में मैं बहुत दुखी हूँ.....तुम जो ये काम करते हो ये.....ये तो..." मेरे अन्दर ये जान कर थोड़ी सी हिम्मत आ गई की मैंने दीदी के बदन को देखने की जो कोशिश की थी उस बात से दीदी अब नाराज़ नहीं है बल्कि वो मेरे मुठ मरने की आदत से परेशान है. मैं दीदी की ओर देखते हुए बोला "सॉरी दीदी...मैं अब नहीं....करूँगा..."

"भाई मैं तुम्हारे भले के लिए ही बोल रही हूँ...तुम्हारा शरीर बर्बाद कर देगा...ये काम.....ठीक है इस उम्र में लड़कियों के प्रति आकर्षण तो होता है....मगर...ये हाथ से करना सही नहीं है....ये ठीक नहीं है... राजू तुम ऐसा मत करो आगे से...."

"ठीक है दीदी....मुझे माफ़ कर दो मैं आगे से ऐसा नहीं करूँगा...मैं शर्मिंदा हूँ...." मैंने अपनी गर्दन और ज्यादा झुकाते हुए धीरे से कहा. दीदी एक पल को चुप रही फिर मेरी ठोड़ी पकड़ कर मेरे चेहरे को ऊपर उठाती हुई हल्का सा मुस्कुराते हुई बोली "मैं तुझे अच्छी लगती हूँ क्या...." मैं एकदम से शर्मा गया मेरे गाल लाल हो गए और झेंप कर गर्दन फिर से निचे झुका ली. मैं दीदी के सामने बैठा हुआ था दीदी ने हाफ पैंट के बाहर झांकती मेरी जांघो पर अपना हाथ रखा और उसे सहलाती हुई धीरे से अपने हाथ को आगे बढा कर मेरे पैंट के उभरे हुए भाग पर रख दिया. मैं शर्मा कर अपने आप में सिमटते हुए दीदी के हाथ को हटाने की कोशिश करते हुए अपने दोनों जांघो को आपस में सटाने की कोशिश की ताकि दीदी मेरे उभार को नहीं देख पाए. दीदी ने मेरे जांघ पर दबाब डालते हुए उनका सीधा कर दिया और मेरे पैंट के उभार को पैंट के ऊपर से पकड़ लिया और बोली "रुक...आराम से बैठा रह...देखने दे....साले अभी शर्मा रहा है,...चुपचाप मेरे कमरे में आकर मुझे छू रहा था...तब शर्म नहीं आ रही थी तुझे...कुत्ते" दीदी ने फिर से अपना गुस्सा दिखाया और मुझे गाली दी. मैं सहम कर चुप चाप बैठ गया.

दीदी मेरे लण्ड को छोर कर मेरे हाफ पैंट का बटन खोलने लगी. मेरे पैंट के बटन खोल कर कड़कती आवाज़ में बोली "चुत्तर...उठा तो...तेरा पैंट निकालू..." मैंने हल्का विरोध किया "ओह दीदी छोड़ दो..."




































































































































































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