Saturday, June 5, 2010

raj sharma stories प्रेम आश्रम पार्ट -4

raj sharma stories



प्रेम आश्रम पार्ट -4

बचपने से जब भी ज़ोरों की बारिश होती या ज़ोर की बिजली कड़कती थी तो मैं डर के मारे घर में दुबक जाया करता था। पर उस रात की बारिश ने मुझे रोमांच से लबालब भर दिया था। आज भी जब ज़ोरों की बारिश होती है, और बिजली कड़कती है, मुझे एक शेर याद आ जाता है:
ऐ ख़ुदा इतना ना बरस कि वो आ ना पाएँ !
आने के बाद इतना बरस कि वो जा ना पाएँ !!
जून महीने के आख़िरी दिन चल रहे थे। मधु (मेरी पत्नी, मुधर) गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके गई हुई थी। मैं अकेला ड्राईंग रूम मे खिड़की के पास बैठा मिक्की के बारे में ही सोच रहा था। (मिक्की मेरे साले की लड़की है)। पिछले साल वह एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हो गई थी और हमें रोता-बिलखता छोड़ कर चली गई थी। सच पूछो तो पिछले एक-डेढ़ साल में कोई भी दिन ऐसा न बीता होगा कि मैंने मिक्की को याद नहीं किया हो। वो तो मेरा जैसे सब कुछ लूट कर ही ले गई थी। मैं उसकी वही पैन्टी और रेशमी रुमाल हाथों में लिए बैठा उसकी याद में आँसू बहा रहा था। हर आहट पर मैं चौंक सा जाता और लगता कि जैसे मिक्की ही आ गई है।
दरवाजे पर जब कोई भी आहट सी होती है तो लगता है कि तुम आई हो
तारों भरी रात में जब कोई जुगनू चमकता है लगता है तुम आई हो
उमस भरी गर्मी में जब पुरवा का झोंका आता है तो लगता है तुम आई हो
दूर कहीं अमराई में जब भी कोई कोयल कूकती है लगता है कि तुम आई हो !!

उस दिन रविवार था। सारे दिन घर पर ही रहा। पहले दिन जो बाज़ार से ब्लू-फिल्मों की ४-५ सीडी लाया था उन्हें कम्प्यूटर में कॉपी किया था। एक-दो फ़िल्में देखी भी, पर मिक्की की याद आते ही मैंने कम्प्यूटर बन्द कर दिया। दिन में गर्मी इतनी ज्यादा कि आग ही बरस रही थी। रात के कोई १० बजे होंगे। अचानक मौसम बदला और ज़ोरों की आँधी के साथ हल्की बारिश शुरु हो गई। हवा के एक ठंडे झोंके ने मुझे जैसे सहला सा दिया। अचानक कॉलबेल बजी और लगभग दरवाज़ा पीटते हुए कोई बोला, “दीदीऽऽऽ !! … जीजूऽऽऽ.. !! दरवाज़ा जल्दी खोलो… दीदी…!!!?” किसी लड़की की आवाज थी।
मिक्की जैसी आवाज़ सुनकर मैं जैसे अपने ख़्यालों से जागा। इस समय कौन आ सकता है? मैंने रुमाल और पैन्टी अपनी जेब में डाली और जैसे ही दरवाज़े की ओर बढ़ा, एक झटके के साथ दरवाज़ा खुला और कोई मुझ से ज़ोर से टकराया। शायद चिटकनी खुली ही रह गई थी, दरवाज़ा पीटने और ज़ोर लगाने के कारण अपने-आप खुल गया और हड़बड़ाहट में वो मुझसे टकरा गई। अगर मैंने उसे बाँहों में नहीं थाम लिया होता तो निश्चित ही नीचे गिर पड़ती। इस आपा-धापी में उसके कंधे से लटका बैग (लैपटॉप वाला) नीचे ही गिर गया। वो चीखती हुई मुझसे ज़ोर से लिपट सी गई। उसके बदन से आती पसीने, बारिश और जवान जिस्म की खुशबू से मेरा तन-मन सब सराबोर होता चला गया। उसके छोटे-छोटे उरोज मेरे सीने से सटे हुए थे। वो रोए जा रही थी। मैं हक्का-बक्का रह गया, कुछ समझ ही नहीं पाया।
कोई २-३ मिनटों के बाद मेरे मुँह से निकला “क्क..कौन… अरे.. नन्न्नन.. नि.. निशा तू…??? क्या बात है… अरे क्या हुआ… तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?” ओह ये तो मधु की कज़िन निशा थी। कभी-कभार अपने नौकरी के सिलसिले में यहाँ आया करती थी, और रात को यहाँ ठहर जाती थी। पहले मैंने इस चिड़िया पर ध्यान ही नहीं दिया था।
आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि इतनी मस्त-हसीन लौण्डिया की ओर मेरा ध्यान पहले क्यों नहीं गया। इसके दो कारण थे। एक तो वो सर्दियों में एक-दो बार जब आई थी तो वह कपड़ों से लदी-फदी थी, दूसरे उसकी आँखें पर मोटा सा चश्मा। आज तो वह कमाल की लग रही थी। उसने कॉन्टैक्ट लेंस लगवा लिए थे। कंधों के ऊपर तक बाल कटे हुए थे। कानों में सोने की पतली बालियाँ। जीन्स पैन्ट में कसे नितम्ब और खुले टॉप से झलकते काँधारी अनार तो क़हर ही ढा रहे थे। साली अपने-आप को झाँसी की शेरनी कहती है पर लगती है नैनीताल या अल्मोड़ा की पहाड़ी बिल्ली।
ओह… सॉरी जीजू… मधु दीदी कहाँ हैं?… दीदी… दीदी…” निशा मुझ से परे हटते हुए इधर-उधर देखते हुए बोली।
“ओह दीदी को छोड़ो, पहले यह बताओ तुम इतनी रात गए बारिश में डरी हुई… क्या बात है??”
“वो… वो एक कुत्ता…”
“हाँ-हाँ, क्या हुआ? तुम ठीक हो?”
निशा अभी भी डरी हुई खड़ी थी। उसके मुँह से कुछ नहीं निकल रहा था। मैंने दरवाज़ा बन्द किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफ़े पर बिठाया, फिर पूछा, “क्या बात है, तुम रो क्यों रही थीं?”
जब उसकी साँसें कुछ सामान्य हुई तो वह बोली, “दरअसल सारी मुसीबत आज ही आनी थी। पहले तो प्रेज़ेन्टेशन में ही देर हो गई थी, और फिर खाना खाने के चक्कर में ९ बज गए। कार भी आज ही ख़राब होनी थी। बस-स्टैण्ड गई तो आगरा की बस भी छूट गई।” शायद इन दिनों उसकी पोस्टिंग आगरा में थी।
मैं इतना तो जानता था कि वह किसी दवा बनाने वाली कम्पनी में काम करती है और मार्केटिंग के सिलसिले में कई जगह आती-जाती रहती है। पर इस तरह डरे हुए, रोते हुए हड़बड़ा कर आने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। मैंने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो उसने बताया।
“वास्तव में महाराजा होटल में हमारी कम्पनी का एक प्रेज़ेन्टेशन था। सारे मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव आए हुए थे। हमारे दो नये उत्पाद भी लाँच किए गए थे। कॉन्फ्रेन्स ९ बजे खत्म हुई और खाना खाने के चक्कर में देर हो गई। वापस घर जाने का साधन नहीं था। यहाँ आते समय रास्ते में ऑटो ख़राब हो गई। इस बारिश को भी आज ही आना था। रास्ते में आपके घर के सामने कुत्ता सोया था। बेख्याली में मेरा पैर उसके ऊपर पड़ गया और वह इतनी ज़ोर से भौंका कि मैं डर ही गई।” एक साँस में निशा ने सब बता दिया।
“अरे कहीं काट तो नहीं लिया?”

नहीं काटा तो नहीं…! दीदी दिखाई नहीं दे रही?”
“ओह… मधु तो जयपुर गई हुई है, पिछले १० दिनों से !”
“तभी उनका मोबाईल नहीं मिल रहा था।”
“तो मुझे ही कर लिया होता।”
“मेरे पास आपका नम्बर नहीं था।”
“हाँ भई, आप हमारा नम्बर क्यों रखेंगी… हम आपके हैं ही कौन?”
“आप ऐसा क्यों कहते हैं?”
“भई तुम तो दीदी के लिए ही आती हो हमें कौन पूछता है?”
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”
“इसका मतलब तुम मेरे लिए भी आती हो।” मैं भला मज़ाक का ऐसा सुनहरा अवसर कैसे छोड़ता। वो शरमा गई। उसने अपनी निगाहें नीची कर लीं। थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, “ओह, दीदी तो है नहीं तो मैं किसी होटल में ही ठहर जाती हूँ!”
“क्यों, यहाँ कोई दिक्क़त है?”
“वो… वो… आप अकेले हैं और मैं… मेरा मतलब… दीदी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी?”
“क्यों क्या सोचेगी, क्या तुम इससे पहले यहाँ नहीं ठहरी?”
“हाँ पर उस समय दीदी घर थी।”
“क्या हम इतने बुरे हैं?”
“ओह.. वो बात नहीं है।”
“तो फिर क्या बात है?”
“वो.. .वो… मेरा मतलब क्या है कि एक जवान लड़की का इस तरह ग़ैर मर्द के साथ रात में… अकेले?? मेरा मतलब?? वो कुछ समझ नहीं आ रहा।” उसने रोनी सी सूरत बनाते हुए कहा।
“ओह.. अब मैं समझा, तुम मुझे ग़ैर समझती हो या फिर तुम्हें अपने आप पर ही विश्वास नहीं है।”
“नहीं ऐसी बात तो नहीं है।”
“तो फिर बात यह है कि मैं एक हिंसक पशु हूँ, एक गुंडा-बदमाश, मवाली हूँ। तुम जैसी अकेली लड़की को पकड़कर तुम्हें खा ही जाऊँगा या कुछ उल्टा-सीधा कर बैठूँगा? क्यों है ना यही बात?”
“ओह जीजू, आप भी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। मैं तो यह कह रही थी आपको बेकार परेशानी होगी।”
“अरे इसमे परेशानी वाली क्या बात है?”
“फिर भी एकता कपूर… मेरा मतलब वो… दीदी…?” वो कुछ सोचते हुए सी बोली।
“अरे जब तुम्हें कोई समस्या नहीं है, मुझे नहीं, तो फिर जयपुर बैठी मधु को क्या समस्या हो सकती है। और फिर आस-पड़ोस वाले किसी से कोई फिक्र नहीं करते हैं। अगर अपना मन साफ़ है तो फ़िर किसी का क्या डर? क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?” मैंने कहा। मैं इतना बढ़िया मौक़ा और हाथ में आई मुर्गी को ऐसे ही हवा में कैसे उड़ जाने देता।
मुझे तो लगा जैसे मिक्की ही मेरे पास सोफ़े पर बैठी है। वही नाक-नक्श, वही रूप-रंग और कद-काठी, वही आवाज़, वही नाज़ुक सा बदन, बिल्कुल छुईमुई सी कच्ची-कली जैसी। बस दोनों में फ़र्क इतना था कि निशा की आँखें काली हैं और मिक्की की बिल्लौरी थीं। दूसरा निशा कोई २४-२५ की होगी जबकि मिक्की १३ की थी। मिक्की थोड़ी सी गदराई हुई लगती थी जबकि निशा दुबली-पतली छरहरी लगती है। कमर तो ऐसी कि दोनों मुट्ठियों में ही समा जाए. छोटे-छोटे रसकूप (उरोज)। होंठ इतने सुर्ख लाल, मोटे-मोटे हैं तो उसके निचले होंठ मेरा मतलब है कि उसकी बुर के होंठ कैसे होंगे। मैं तो सोच कर ही रोमांचित हो उठा। मेरा पप्पू तो छलांगे ही लगाने लगा। उसके होठों के दाहाने (चौड़ाई) तो २.५-३ इंच का ही होगा। हे लिंग महादेव, अगर आज यह चिड़िया फँस गई तो मेरी तो लॉटरी ही लग जाएगी। और अगर ऐसा हो गया तो कल सोमवार को मैं ज़रूर जल और दूध तुम्हें चढ़ाऊँगा। भले ही मुझे कल छुट्टी ही क्यों ना लेनी पड़े। पक्का वादा।
प्रेम आश्रम वाले गुरुजी ने अपने पिछले विशेष प्रवचन में सच ही फ़रमाया था, “ये सब चूतें, गाँड और लंड कामदेव के हाथों की कठपुतलियाँ हैं। कौन सी चूत और गाँड किस लण्ड से, कब, कहाँ, कैसे, कितनी देर चुदेंगी, कोई नहीं जानता।”
“इतने में ज़ोरों की बिजली कड़की और मूसलाधार बारिश शुरु हो गई। निशा डर के मारे मेरी ओर सरक गई। मुझे एक शेर याद आ गया:
लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से !
या इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे !!
उसके भींगे बदन की खुशबू से मैं तो मदहोश ही हुआ जा रहा था। गीले कपड़ों में उसका अंग-अंग साफ दिख़ रहा था। शायद उसने मुझे घूरते हुए देख लिया था। वो कुछ सोचते हुए बोली, “मैं तो पूरी ही भीग गई।”
“मैं समझ गया, वो कपड़े बदलना या नहाना चाहती है, पर उसके पास कपड़े नहीं हैं, मेरे से कपड़े माँगते हुए शायद कुछ संकोच कर रही है। मैंने उससे कहा, “कोई बात नहीं, तुम नहा लो, मैं मधु की साड़ी निकाल देता हूँ।”
वो फिर सोचने लगी, “पर वो… वो… साड़ी तो मुझे बाँधनी नहीं आती। मैंने मन में कहा, “मेरी जान तुम तो बिना साड़ी-कपड़ों के ही अच्छी लगोगी। तुम्हें कपड़े कौन कमबख़्त पहनाना चाहता है” पर मैंने कहा -
“कोई बात नहीं, कोई पैन्ट और टॉप शर्ट या नाईटी वगैरह भी है, आओ मेरे साथ।” मैंने उसकी बाँह पकड़ी और अपने बेडरूम की ओर ले जाने लगा। आहहह… उसकी नरम नाज़ुक बाँहें मखमल जैसी मुलायम चिकनी थीं। अगर बाँहें ऐसी चिकनी हैं तो पिर जाँघें कैसी होंगी?
कपड़ों की आलमारी तो साड़ियों से लदी पड़ी थी। एक खाने में कुछ पैन्ट-शर्ट और टॉप आदि भी थे। मैंने उनकी ओर इशारा कर दिया। निशा ने कहा,”पर मेरी कमर तो २२ की है, मधु दीदी की पैन्ट मुझे ढीली रहेगी!”
ओह… अच्छा कोई बात नहीं, मेरे पास एक ड्रेस और है, तुम्हें पूरी आनी चाहिए, आओ मेरे साथ।” मैंने आलमारी बन्द कर दी और दूसरी अलमारी की ओर ले जाकर उसे गुलाबी रंग की एक नई बेल-बॉटम और हल्के रंग का टॉप जिस पर पीले फूल बने थे, दिखाया, साथ एक जोड़ी ब्रा और पैन्टी भी थी। ये मैंने मिक्की के पिछले जन्मदिन के लिए मधु से छुपा कर ख़रीदे थे पर उसे दे नहीं पाया था। उन्हें देखकर निशा ने कहा, “लगता है ये तो आ जाएँगे।”

उसने पैन्टी उठाई और गौर से देखते हुए बोली, “ओह… दीदी भी ऐसी ही ब्रा पहनती हैं? ये.. तो ये.. तो ओह?” वो आगे कुछ नहीं बोल पाई। बे-खयाली में उसकसे मुँह से निकल तो गया पर उसका मतलब जान कर वो शरमा गई। इस्स्स्स्स…. मुझे तो लगा जैसे किसी ने मिक्की को ही मेरे सामने खड़ा कर दिया है बस नाम का ही फ़र्क है। मिक्की की तरह शरमाने की इस जानलेवा अदा को तो मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाऊँगा।
न जाने क्या सोचकर उसने ब्रा और पैन्टी वहीं रख दी। मेरा दिल तो छलाँगें ही लगाने लगा। या अल्लाह… बिना ब्रा और पैन्टी में तो यह बिल्कुल मिक्की की तरह क़यामत ही लेगी। मैं अपने-आप पर क़ाबू कैसे रख पाऊँगा। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं मैं उसका बलात्कार ही ना कर बैठूँ। मेरा पप्पू तो जैसे क़ुतुबमीनार बन गया था। इतनी उत्तेजना तो आज से पहले कभी नहीं महसूस हुई थी। पप्पू तो अड़ियल टट्टू बन गया था। अचानक मेरे कानों में निशा की मीठी आवाज़ पड़ी।
“ओ जीजू, मैं नहाने जा रही हूँ।”
“हाँ-हाँ, तौलिया और शैम्पू आदि बाथरूम में हैं।” मैं तो जैसे ख़्यालों से जागा…
निशा बाथरूम में घुस गई। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। बाहर ज़ोरों की बारिश और मेरे अन्दर जलती आग, दोनों की रफ्तार एक जैसी ही तो थी। अचानक मेरे दिमाग़ में एक ख्याल दौड़ गया और होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान। और उसके साथ ही मेरे क़दम भी बाथरूम की ओर बढ़ गए। अब आप इतने कमअक्ल तो नहीं हैं कि आप मेरी योजना ना समझे हों।
मैंने की-होल से बाथरूम के अन्दर झाँका…
निशा ने अपनी पैन्ट और शर्ट उतार दी थी। अब वो सिर्फ ब्रा पैन्टी में थी। उफ्फ… क्या मस्त हिरनी जैसी गोरी-चिट्टी नाज़ुक कमसिन कली की तरह, जैसे मिक्की ही मेरी आँखों के सामने खड़ी हो। सुराहीदार गर्दन, पतली सी कमर मानों लिम्का की बोतल को एक जोड़ा हाथ और पैर लगा दिए हों। संगमरमर सा तराशा हुआ सफाक़ बदन किसी फरिश्ते का भी ईमान डोल जाए। एक ख़ास बात: काँख (जहाँ से बाँहें शुरु होतीं हैं) और उरोजों से थोड़ा ऊपर का भाग ऐसे बना था जैसे कि गोरी-चिट्टी चूत ही बनी है। ऐसी लड़कियाँ वाकई नाज़ुक होतीं हैं और उनकी असली चूत भी ऐसी ही होती है। छोटी सी तिकोने आकार की माचिस की डिब्बी जितनी बड़ी। अगर आपने प्रियंका चोपड़ा या करीना कपूर को किसी फिल्म में बिना बाँहों के ब्लाऊज़ के देखा हो तो आपको मेरी इस बात की सच्चाई का अन्दाज़ा हो जाएगा। फिर मेरा ध्यान उसकी कमर पर गया जो २२ इंच से ज्यादा तो हर्गिज़ नहीं हो सकती। पतली-पतली गोरी गुलाबी जाँघें। और दो इंच पट्टी वाली वही टी-आकार की पैन्टी (जो मधु की पसंदीदा है)। उनके बाहर झाँटों के छोटे-छोटे मुलायम रोयें जैसे बाल। हे भगवान, मैं तो जैसे पागल ही हो जाउँगा। मुझे तो लगने लगा कि मैं अभी बाथरूम का दरवाजा तोड़कर अन्दर घुस जाऊँगा और… और…
निशा ने बड़े नाज़-ओ-अन्दाज़ से अपनी ब्रा के हुक़ खोले और दोनों क़बूतर जैसे आज़ाद हो गए। गोर गुलाबी दो सिन्दूरी आम, जैसे रस से भरे हुए हों। चूचियों का गहरा घेरा कैरम की गोटी जितना बड़ा, बिल्कुल चुरूट लाल। घुण्डियाँ तो बस चने के दाने जितने। सुर्ख रतनार अनार के दाने जैसे, पेन्सिल की नोक की तरह तीखे। उसने अदा से अपने उरोजों पर हाथ फेरा और एक दाने को पकड़ कर मुँह की तरफ किया और उस पर जीभ लगा दी। या अल्लाह… मुझे लगा जैसे अब क़यामत ही आ जाएगी। उसने शीशे के सामने घुम कर अपने नितम्ब देखे। जैसे दो पूनम के चाँद किसी ने बाँध दिए हों। और उनके बीच की दरार एक लम्बी खाई की तरह। पैन्टी उस दरार में घुसी हुई थी। उसने अपने नितम्बों पर एक हल्की सी चपत लगाई और फिर दोनों हाथों को कमर की ओर ले जाकर अपनी काली पैन्टी नीचे सरकानी शुरु कर दी।
मुझे लगा कि अगर मैंने अपनी निगाहें वहाँ से नहीं हटाईं तो आज ज़रूर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा। जैसे ही पैन्टी नीचे सरकी हल्के-हल्के मक्के के भुट्टे के बालों जैसे रेशमी नरम छोटे-छोटे रोयें जैसे बाल नज़र आने लगे। उसके बाद दो भागों में बँटे मोटे-मोटे बाहरी होंठ, गुलाबी रंगत लिए हुए। चीरा तो मेरे अंदाज के मुताबिक ३ इंच से तो कतई ज़्यादा नहीं था। अन्दर के होंठ बादामी रंग के। लगता है साली ने अभी तक चूत (माफ़ करें बुर) से सिर्फ मूतने का ही काम लिया है। कोई अंगुल बाज़ी भी लगता है नहीं की होगी। अन्दर के होंठ बिल्कुल चिपके हुए - आलिंगनबद्ध। और किशमिश का दाना तो बस मोती की तरह चमक रहा था। गाँड की छेद तो नज़र नहीं आई पर मेरा अंदाजा है कि वो भी भूरे रंग का ही होगा और एक चवन्नी के सिक्के से अधिक बड़ा क्या होगा! दाईं जाँघ पर एक छोटा सा तिल। उफ्फ… क़यामत बरपाता हुआ। उसने शीशे में देखते हुए उन रेशमी बालों वाली बुर पर एक हाथ फेरा और हल्की सी सीटी बजाते हुए एक आँख दबा दी। मेरा पप्पू तो ऐसे अकड़ गया जैसे किसी जनरल को देख सिपाही सावधान हो जाता है। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं ये बिना लड़े ही शहीद न हो जाए। मैंने प्यार से उसे सहलाया पर वह मेरा कहा क्यों मानने लगा।


क्रमशः ...........








आपका दोस्त राज शर्मा
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
आपका दोस्त
राज शर्मा

(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj













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